‘‘बाबूजी, आप की पूरी जिंदगी इसी खेती किसानी में निकल गई.
बदले में क्या मिला? न तो अच्छा जीवन जी सके और न ही कोई ऐसा काम किया जिस से दुनिया में आप का नाम हो. आप की जिंदगी इस गांव में ही सिमट कर रह गई है. कभी शहर में रह कर देखो तब महसूस होगा कि यहां के जीवन और वहां के जीवन में कितना फर्क है?’’ संतोष ने अपने पिता महाराज बख्श सिंह से कहा. वह पिता को बाबूजी कहता था.
महाराज बख्श सिंह लखनऊ जिले से 26 किलोमीटर दूर गोसाईंगंज इलाके के नूरपूर बेहटा गांव में रहते थे. उन के पास खेती की अच्छीखासी जमीन थी, इसलिए उन की गिनती गांव के प्रतिष्ठित किसानों में होती थी. गांव में रहने के नाते उन का जीवन सरल और सीधा था.
उन्होंने संतोष को पढ़ाना चाहा, लेकिन जब उस का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगा तो उन्होंने कम उम्र में ही उस की शादी मोहनलालगंज की रहने वाली राजकुमारी के साथ कर दी थी. शादी हो जाने के बाद संतोष अपनी घरगृहस्थी में रम गया. बाद में राजकुमारी 2 बेटों की मां भी बनी. इस के बाद तो उन के घर में खुशियां और बढ़ गईं. बच्चे बड़े हुए तो उन का दाखिला गांव के ही स्कूल में करा दिया.
संतोष गांव में रह कर पिता के साथ खेती करता था, लेकिन खेती के काम में उस का मन नहीं लगता था. इस के अलावा उसे एक गलत लत यह लग गई थी कि उस ने अपने यारदोस्तों के साथ शराब पीनी शुरू कर दी थी. शुरू में महाराज बख्श सिंह ने उसे काफी समझाया था, लेकिन उस ने पिता की बात को अनसुना कर दिया था.
संतोष रोज शराब पी कर वह घर लौटता और पत्नी के साथ झगड़ता था. इस से पत्नी भी परेशान हो गई थी. संतोष का गांव में मन नहीं लगता था. वह चाहता था कि अपने परिवार के साथ शहर में रहे. इस की वजह यह थी कि उस के गांव की जमीन के भाव काफी बढ़ चुके थे. जिस की वजह से गांव के कुछ लोग अपनी खेती की जमीन बेच कर शहर चले गए थे. शहर जा कर उन्होंने अपने निजी कामधंधे शुरू कर दिए और वहां मजे की जिंदगी गुजार रहे थे. बच्चों के दाखिले भी उन्होंने अच्छे स्कूलों में करा रखे थे. उन की देखादेखी संतोष भी शहर जाना चाहता था. इसीलिए वह बारबार पिता पर जमीन बेचने का दबाव डाल रहा था.
महाराज बख्श सिंह जानते थे कि बेटे को दुनियादारी की अभी इतनी समझ नहीं है. वह शहरी जिंदगी के रहनसहन और चकाचौंध की ओर खिंचा जा रहा है इसलिए उन्होंने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा अपना गांव और अपना खेत ही अपनी पहचान होती है. शहर में कामधंधा करना तो ठीक है पर अपने खेत बेच कर वहां रहना मेरे लिए संभव नहीं है. इसलिए मैं तुझ से भी यही कहना चाहता हूं कि ऐसी बातें मन से निकाल कर यहीं काम में मन लगा.’’
‘‘बाबूजी, हम ने नहर के किनारे वाली 4 बीघा जमीन का सौदा कर लिया है. 60 लाख रुपए मिल जाएंगे. इस पैसे से मैं आप को नया काम कर के दिखा दूंगा. तब आप को लगेगा कि मेरी बात में कितना दम है.’’
‘‘बेटा, तुम्हारी बात में कोई दम नहीं है. तुम शराब के नशे में गलत कदम उठा रहे हो. जमीन बेच कर तुम सारा घरपरिवार बरबाद कर दोगे.’’ महाराज बख्श सिंह बेटे को समझा रहे थे. आवाज सुन कर संतोष की पत्नी राजकुमारी भी वहां आ गई. ससुर की बात पूरी होने से पहले ही वह बोली, ‘‘बाबूजी, आप इन की बातों में मत आना. इन के शराबी यारदोस्तों ने ही इन्हें यह सलाह दी होगी.’’
पत्नी के बीच में बोलने पर संतोष उस के ऊपर बिफर पड़ा, ‘‘मेरी तरक्की से तुझे क्या परेशानी हो रही है. तू नहीं चाहती कि मैं यहां से शहर जाऊं और अच्छी जिंदगी गुजरबसर करूं. तू ने मेरे पैरों में परिवार की बेडि़यां डाल रखी हैं. लेकिन तू अच्छी तरह जान ले कि मैं ने गांव की जमीन बेच कर शहर में काम करने की ठान ली है. अब मुझे इस काम से कोई नहीं रोक सकता.’’ इस के बाद संतोष और राजकुमारी के बीच कहासुनी शुरू हो गई. बेटेबहू की लड़ाई देख कर 70 साल के महाराज सिंह बरामदे में पड़ी चारपाई पर बैठ गए.
बेटे की ऐसी जिद देख कर उन्हें घरपरिवार का भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा था. वह समझ रहे थे कि बेटा जिद्दी है. वह मानेगा नहीं. इसलिए वह राजकुमारी को ही समझाते हुए बोले, ‘‘बहू इस के मुंह मत लग, जो करता है करने दे. ठोकर खाएगा तो इसे समझ आ जाएगी. शहर में रह कर कामधंधा चलाना कोई आसान काम नहीं. हम ने बहुतों को बरबाद होते देखा है.’’
‘‘बाबूजी शहर जा कर बहुत लोग बन भी गए हैं, उन की जानकारी आप को नहीं है. कुछ अच्छा भी सोचा करें.’’ इतना कह कर संतोष गुस्से में बाहर चला गया. जिस जमीन को बेचने की बात संतोष कर रहा था वह असल में उस के ही नाम थी. पहले वह जमीन ऊसर थी लेकिन अब वहां से सड़क निकल गई तो उस की कीमत बढ़ गई है.
महाराज बख्श सिंह सोचने लगे कैसी विडंबना है कि शहर के लोग महंगी कीमत में जमीन खरीद कर गांवों से जुड़ना चाहते हैं और गांव के लोग जमीन बेच कर शहरों की चकाचौंध में फंसना चाहते हैं. चूंकि संतोष को शहर जाने की सनक सवार थी, इसलिए उस ने अपनी जमीन बेच दी. महाराज सिंह ने उसी समय समझदारी दिखाते हुए जमीन की कीमत का बड़ा हिस्सा संतोष के बेटों के नाम पर बैंक में जमा कर दिया. उन्होंने संतोष को केवल 4 लाख रुपए ही दिए.
संतोष के पास पैसा आ चुका था. इसलिए वह काम की तलाश में लखनऊ चला गया. उसे किसी कामधंधे की जानकारी तो थी नहीं इसलिए लखनऊ जाने के बाद भी वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या काम शुरू करे? ज्यादा से ज्यादा उस ने ढाबा और होटल ही देखे थे और उन के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी थी.
शहर में उसे ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहां वह अपना काम शुरू कर सके. एकदो जगह उस ने देखी भी लेकिन उन का किराया बहुत ज्यादा था. शहर में ढाबा खोलना उस के बूते के बाहर था. उसे शहर के बाहर बसी कालोनियों में ढाबा खोलना और चलाना आसान लग रहा था.
संतोष पहले जब कामधंधे की तलाश में लखनऊ आता तो वहां वह एक ढाबे पर खाना खाता था. उस की जानपहचान उस ढाबे पर खाना बनाने वाले श्याम कुमार से थी. संतोष ने उसी के साथ काम शुरू करने की योजना बनाई.
वह श्याम के पास पहुंच कर बोला, ‘‘श्याम भाई, तुम बहुत अच्छा खाना बनाते हो. मुझे उम्मीद है कि यहां तुम जितनी मेहनत करते हो, उस के अनुसार तुम्हें पैसे भी नहीं मिलते होंगे. मैं भी एक ढाबा खोलना चाहता हूं और चाहता हूं कि उस ढाबे को हम दोनों मिल कर चलाएं.’’
यह सुन कर श्याम खुश हो गया. उसे फ्री में बिजनेस करने का मौका मिल रहा था. इसलिए उस ने संतोष के साथ काम करने की हामी भर ली. उस ने कहा, ‘‘संतोष भाई, यहां तो कोई ऐसी जगह नहीं है जहां ढाबा खोला जा सके लेकिन जानकीपुरम इलाके में सेक्टर-2 के पास एक ढाबा है. वो ढाबा इस समय चल नहीं रहा है. तुम कहो तो मैं बात करूं?’’
‘‘ठीक है, तुम बात करो हम मिल कर उस ढाबे को चलाएंगे.’’ संतोष ने कहा तो श्याम ने उस ढाबे के मालिक से बात कर ली. वह उन्हें अपना ढाबा किराए पर देने के लिए राजी हो गया. इस के बाद दोनों ही उस ढाबे को चलाने लगे. दोनों की मेहनत से काम चल निकला.