पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 5

कई सालों तक तो मेजर को सुभाषिनी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं मिली. लेकिन यह भी जिद्दी स्वभाव के थे. जैसेतैसे इन्होंने सुभाषिनी की नई ससुराल का पता लगा ही लिया. तब तक वह मयंक की मां बन चुकी थी. वह काफी बड़ा हो गया था.

मेजर चौहान बदला लेने के लिए सालों तक सुभाषिनी और तोमर परिवार पर नजर रखे रहे. लंबी अवधि गुजर जाने के बाद भी इन के बदले की आग ठंडी नहीं हुई. इस की वजह यह भी थी कि सुभाषिनी की वजह से इन का बेटा किसी और का हो गया था और ये चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते थे. बेटे की वजह से ही इन्होंने शादी तक नहीं की. इन्हें बदले का मौका तब मिला, जब तोमर परिवार ने शिकार का प्रोग्राम बनाया.’’

‘‘अंधेरा होने पर झाडि़यों में छिपे मेजर ने अपने रिवाल्वर से गोली चला दी, लेकिन गोली सुभाषिनी को नहीं मयंक को लगी और वह नीचे गिर गए.’’ नीरव बोल उठा.

‘‘मेजर चौहान ने भी यही समझा था, क्योंकि इन के गोली चलाने के तुरंत बाद सुरबाला की चीखपुकार गूंज उठी थी. उसी वक्त मेजर ने दूसरा फायर किया, वह हवाई फायर था, जो इन्होंने मयंक को तेंदुए से बचाने के लिए किया था. दूसरे लोगों ने भी कुछ हवाई फायर किए थे.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ डैड कि मेजर चौहान ने मयंक की हत्या नहीं की थी, बल्कि वह नींद के झोंके में मचान से गिर कर तेंदुए का शिकार हो गए थे.’’ नीरव बोला.

‘‘सच्चाई का खुलासा तो रजत ही कर सकता है.’’ त्रिलोचन ने रजत पर निगाह डाली तो माता पिता के बीच में बैठा रजत मुसकराने लगा.

‘‘एक्जैक्टली डैड,’’ विप्लव ने कुर्सी के हत्थे पर हाथ मारा, ‘‘आखिर रजत, मयंक का ही तो पुनर्जन्म है, इसे तो पूरी सच्चाई मालूम होगी.’’

‘‘अपराधी इसी बात से तो डर गया था, उसे लगा कि रजत ने सुरबाला को सच्चाई बता दी है, तभी उस ने सुरबाला की जान लेने की कोशिश की थी. जब वह कामयाब नहीं हुआ तो उस ने मौका पा कर रजत की हत्या करनी चाही. हालांकि हम ने रजत की सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया था, लेकिन हमलावर तोमर परिवार के पुश्तैनी मकान के चप्पे चप्पे से वाकिफ था.

‘‘वह गुप्त रास्ते से उस कमरे में दाखिल हुआ और अपनी समझ के हिसाब से रजत को चाकू मार कर उसी रास्ते से गायब भी हो गया. इसे नियति का खेल ही कहेंगे कि रजत और सुकुमार ने सोने के पहले अपने बिस्तर बदल लिए थे. जिस की वजह से हमलावर ने सुकुमार को रजत समझा.’’

‘‘मतलब, कोई घर का ही आदमी है जो पहले मयंक का दुश्मन था और अब रजत का दुश्मन बन बैठा.’’ वहां मौजूद रजत के पिता मनोहर अग्रवाल ने पहली बार मुंह खोला.

‘‘चाचाजी, मेरी तफ्तीश कहती है कि सुरबालाजी के ऊपर हमला करने की कोशिश सुखदेवी ने की थी, आई मीन मिसेज धुरंधर तोमर.’’ इंसपेक्टर अनिल ने पासा फेंका.

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं, दरोगाजी…?’’ सुखदेवी उछल कर उठ खड़ी हो गई, ‘‘मैं बहू के ऊपर हमला क्यों करूंगी, इस से मुझे क्या मिलेगा…?’’

‘‘जिस तरह से सुरबाला ने रजत को अपनाया, उस से आप के मन में डर बैठ गया था कि अब तक जिस जायदाद का वारिस आप का बेटा था, अब उस का आधा हिस्सा कहीं रजत को न मिल जाए.’’

‘‘इंसपेक्टर साहब,’’ अभी तक चुप बैठे धुरंधर का धैर्य जाता रहा, ‘‘मेरी पत्नी के खिलाफ आप के पास क्या सबूत हैं?’’

‘‘आप की पत्नी ‘संदली एहसास’ नामक टैल्कम पाउडर का इस्तेमाल करती हैं. सुरबालाजी के शयन कक्ष में जो तलवार पाई गई थी. उस पर उस पाउडर के कण मिले हैं.’’

‘‘प्लीज, अब यह मत कहिएगा कि अपने बेटे को छुरा भी हम ने ही मारा है…’’ धुरंधर आजिज आ कर बोले.

‘‘इंस्पेक्टर साहब, आप सुखदेवी जी के ऊपर नाहक आरोप लगा रहे हैं.’’ त्रिलोचन ने दखल दिया, ‘‘हमारा ध्यान भटकाने के लिए अपराधी द्वारा चली गई नायाब चाल थी यह.’’

‘‘तो फिर अपराधी कौन है डैड?’’ नीरव बोला, ‘‘आप ने रजत से तो पूछा ही नहीं कि पिछले जन्म में उस की मृत्यु कैसे हुई थी?’’

प्रत्युत्तर में त्रिलोचन ने अपने बैग से पालिथीन की एक थैली निकाली, जिस में एक नरमुंड रखा था. पारदर्शी थैली में दिख रहे नरमुंड के माथे की ओर इशारा करते हुए त्रिलोचन बोले, ‘‘यह छेद देख रहे हैं आप लोग, यह मयंक की खोपड़ी है और इस के माथे में यह गोली का निशान. मयंक की मौत गोली लगने से हुई थी.’’ कहते हुए त्रिलोचन ने अपनी जेब से कोई चीज निकाली, ‘‘और यह रही वह गोली.’’

‘‘यह तो राइफल की गोली है…’’ मेजर चौहान के मुंह से अनायास निकल गया.

‘‘हां मेजर, अब आप उस अपराधबोध से मुक्त हो गए होंगे, जिसे आप पिछले कई सालों से ढोते आ रहे थे?’’

‘‘जी’’ मेजर का गला भर्रा गया, ‘‘मैं अपने आप को मयंक का हत्यारा समझता था और मुझे इतनी ग्लानि हुई थी कि अपना रिवाल्वर उसी जंगल में फेंक आया था.’’

‘‘चाचाजी, घटनास्थल पर उस वक्त 2 राइफलें थीं.’’ अनिल बोला.

‘‘जी हां, और फोरेंसिक रिपोर्ट से साफ हो गया है कि यह गोली जिस राइफल से चली थी. वह थी मैनलिकर सूनर.’’

‘‘लेकिन… मैं ने तो तेंदुए को भगाने के लिए हवाई फायर किए थे, ताकि वह नीचे गिरे मयंक को नुकसान न पहुंचाए.’’ बलराम तोमर त्रिलोचन को लक्ष्य करते हुए बोले.

‘‘हवाई फायर हवा में किए जाते हैं तोमर साहब, नाक की सीध में नहीं.’’ त्रिलोचन का स्वर सख्त हो उठा.

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं कि मयंक का हत्यारा मैं हूं?’’ तोमर साहब क्षुब्ध हो कर कांपने लगे.

‘‘जी हां.’’ त्रिलोचन का स्वर दृढ़ था.

‘‘त्रिलोचन तुम सठिया गए हो, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है…’’ बलराम तोमर दहाड़ उठे, उन के गुस्से का ठिकाना न रहा, ‘‘मैं अपने बेटे की हत्या क्यों करूंगा?’’

‘‘क्योंकि मयंक आप का बेटा नहीं था.’’

बलराम तोमर अवाक रह गए.

‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था डैड कि धुरंधर और सुभाषिनी…’’

‘‘शटअप विप्लव.’’ त्रिलोचन आंखें तरेरते हुए बोले, ‘‘मयंक, मेजर चौहान का बेटा था.’’

‘‘डैड, आप इस नतीजे पर कैसे पहुंचे?’’ विप्लव पूछे बिना न रह सका.

‘‘बर्नेट अस्पताल के रजिस्टर में मयंक की जन्मतिथि लिखी हुई है, जिस के हिसाब से बलराम और सुभाषिनी की शादी के सात महीने बाद ही मयंक का जन्म हो गया था. रजिस्टर में इसे नार्मल डिलीवरी के तौर पर दर्ज किया गया था, जिसे बाद में सुभाषिनी ने रिश्वत दे कर ‘प्रीमैच्योर डिलीवरी’ करवा दिया था.’’

‘‘मतलब, सुभाषिनी बलराम तोमर के साथ शादी होने के पहले से गर्भवती थीं?’’ मनोहर अग्रवाल का सवाल था.

त्रिलोचन ने आगे कहा, ‘‘इस की सूचना सुभाषिनी ने अपने पूर्व पति मेजर चौहान को पत्र द्वारा भेजी भी थी. उसी दौरान मेजर चौहान लापता हो गए थे और वह पत्र भेजने वाले के पते पर लौट आया था.’’ त्रिलोचन ने बैग में हाथ डाल कर एक अंतर्देशीय पत्र निकाला, जो पीला पड़ चुका था.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 4

रात आधी से ज्यादा गुजर गई थी. इंस्पेक्टर अनिल कार्तिकेय आरामकुर्सी पर जरूर बैठे थे, किंतु उन की आंखों में नींद नहीं थी. त्रिलोचन की हिदायत के अनुसार उन्होंने रजत के कमरे के बाहर 2 सिपाहियों को पहरे पर लगा दिया था और स्वयं भी उस कमरे के दरवाजे पर निगाहें जमाए हुए थे. कमरे के अंदर जीरो पावर के बल्ब की रोशनी थी. कमरे में लेटे रजत और सुकुमार सो चुके थे.

अचानक ही कमरे के अंदर से किसी की चीख उभरी. अनिल उछल कर कमरे की ओर भागे. दोनों सिपाही भी हड़बड़ा कर अंदर की ओर दौड़े. एक सिपाही ने लाइट जला दी. अंदर लोमहर्षक दृश्य था. रजत सफेद चादर ओढ़े करवट के बल लेटा था, उस की पीठ में चाकू घुसा हुआ था.

‘‘रजत…’’ इंसपेक्टर की लगभग चीत्कार सी निकल गई.

‘‘मैं यहां हूं अंकल…’’ दूसरे पलंग से दबीदबी सी आवाज सुनाई दी. अनिल ने देखा चादर के नीचे दुबका रजत सहमी हुई आंखों से उन की ओर ही ताक रहा था.

‘‘माइ गौड, तो क्या यह सुकुमार है?’’ अनिल के मुंह से निकला.

तभी बाहर गोली चलने के साथ ही 2 आदमियों के दौड़ने की पदचाप सुनाई दी. त्रिलोचन हांफते हुए अंदर दाखिल हुए.

‘‘गजब हो गया चाचाजी,’’ अनिल की असहज आवाज उभरी, ‘‘किसी ने सुकुमार को…’’

‘‘सुकुमार को?’’ त्रिलोचन के मुंह से हैरत से निकला. वह सुकुमार की नब्ज टटोलते हुए बोले, ‘‘इंस्पेक्टर, जल्दी करो. इसे तुरंत अस्पताल पहुंचाना होगा.’’

आननफानन में सुकुमार को अस्पताल पहुंचा दिया गया. सुखनई के जंगल में भीड़ जमा थी. त्रिलोचन के साथ कुछ पुलिस वाले और एक क्रेन थी.

‘‘इंस्पेक्टर साहब,’’ त्रिलोचन ने अनिल को संबोधित किया, ‘‘आप की ड्यूटी क्रेन ड्राइवर के बगल में रहेगी. जैसे ही आप का मोबाइल बजे, आप क्रेन को ऊपर खींचने का इशारा कर दीजिएगा.’’

‘‘आप खतरा क्यों मोल ले रहे हैं चाचाजी? आप कहें तो किसी सिपाही को खाई में उतार देता हूं.’’

‘‘धन्यवाद, मैं यह काम खुद करना चाहता हूं. और नीरव, जब तुम्हारा मोबाइल बजे तो समझना कि क्रेन को रोकना है, विप्लव के मोबाइल के बजने का मतलब होगा कि क्रेन को नीचे जाना है.’’ त्रिलोचन ने दोनों बेटों के ऊपर गहरी नजर डाली. इस के बाद उन्होंने मास्क पहना और क्रेन की रस्सी के सहारे सुखनई नदी के कगार पर उगे घने जंगल के अंदर झूल गए.

कगार की दीवार पर लंबवत उगे पेड़ पतले लेकिन काफी घने थे. त्रिलोचन कुछ ही देर में उस अबूझ खाई में अदृश्य हो गए. अनिल का मोबाइल बजा और त्रिलोचन को धीरेधीरे ऊपर खींचा गया. लोगों की नजर उन पर पड़ी तो रोंगटे खड़े हो गए. त्रिलोचन के हाथों में एक कंकाल था.

कंकाल पर चिथड़ा चिथड़ा कपड़े झूल रहे थे. आंखों की जगह 2 गड्ढे नजर आ रहे थे. बड़ा ही भयावह दृश्य था.

दूसरे दिन सारे लोग हाल में जमा थे, त्रिलोचन अंदर आए तो सब की नजरें उन की ओर उठ गईं, उन्होंने बड़ा सा एक काला बैग थाम रखा था. त्रिलोचन ने वहां मौजूद लोगों के सामने अपना स्थान ग्रहण किया ही था कि उन्हें धुरंधर और उन की पत्नी सुखदेवी ने आ घेरा, ‘‘त्रिलोचनजी, हमारा बेटा कैसा है? कहां है वह उसे किस अस्पताल में रखा गया है?’’

त्रिलोचन ने एक पर्ची पर कुछ लिख कर सुखदेवी को थमा दी. पतिपत्नी ने पर्ची पर नजर डाली, फिर नासमझों की तरह अपनी जगह पर जा बैठे.

‘‘लेडीज ऐंड जेटलमेन,’’ त्रिलोचन उठ कर खड़े होते हुए बोले, ‘‘आज सच्चाई सब के सामने आ जाएगी. मयंक की हत्या हुई थी या उस की मौत एक हादसा थी, इस रहस्य पर से परदा उठने वाला है,’’ तभी एक व्यक्ति हाल में दाखिल हुआ.

‘‘मेजर चौहान, आप आगे आ जाइए.’’ त्रिलोचन का इशारा पा कर मेजर चौहान अगली पंक्ति में जा बैठे. वह वहां मौजूद ज्यादातर लोगों के लिए अपरिचित थे, पर उन्हें देख कर सुभाषिनी के चेहरे का रंग उड़ गया था.

‘‘जस दिन मयंक की मौत हुई, उस शाम को एक शिकार पार्टी सुखनई के जंगल में आदमखोर तेंदुए को मारने के लिए पहुंची थी.’’ त्रिलोचन ने कहना शुरू किया, ‘‘जहां मचान बनाए गए थे, वहां पर ज्यादातर पतले पेड़ थे, अत: एक पेड़ पर एक आदमी के बैठने के लिए मचान बनाया गया था. बलराम तोमर और उन की पत्नी सुभाषिनी के मचान पासपास के पेड़ों पर थे, उन से कुछ दूरी पर लगभग उसी स्थिति में मयंक और सुरबाला के मचान थे. धुरंधर तोमर का मचान मयंक के बाईं ओर वहां से लगभग 20 फुट दूर था.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘बलराम तोमर के पास मैनलिकर सूनर राइफल थी, धुरंधरजी चेक राइफल से लैस थे, मयंक डी.बी. गन लिए था और सुभाषिनीजी के पास माउजर व सुरबाला के पास प्वाइंट 32 बोर का रिवाल्वर था. ये इन लोगों के पारिवारिक हथियार थे.’’

त्रिलोचन ने सामने बैठे बलराम तोमर से पूछा, ‘‘मैं ने ठीक कहा न तोमर साहब?’’

‘‘बिलकुल ठीक.’’ तोमर साहब ने सहमति व्यक्त की.

‘‘शिकारियों की इस टोली के अलावा वहां एक और शिकारी मौजूद था.’’ यह  कहते हुए त्रिलोचन की नजर मेजर चौहान के ऊपर जा ठहरी, ‘‘एम आई राइट मेजर?’’

मेजर की निगाहें झुक गईं. त्रिलोचन आगे बोले, ‘‘मेजर ने अपनी जीप जंगल में काफी पीछे छोड़ दी थी और वहां से पैदल चलते हुए घटनास्थल पर पहुंच गए थे. इस के बाद यह मचानों से कुछ दूरी पर मौजूद एक झुरमुट में छिप कर अंधेरा होने का इंतजार करने लगे.’’

‘‘आप ने काफी हिम्मत दिखाई थी मेजर, आप झाडि़यों में छिप कर आदमखोर का इंतजार कर रहे थे?’’ अनिल के स्वर में तारीफ थी.

‘‘नहीं इंसपेक्टर साहब,’’ उस ने अनिल की ओर गर्दन घुमाई, ‘‘मेजर वहां तेंदुए का नहीं, एक इंसान का शिकार करने पहुंचे थे.’’

त्रिलोचन की बात सुन कर हाल में मौजूद हर शख्स चौंक गया.

‘‘यह किस की हत्या करना चाहते थे डैड?’’ विप्लव ने पूछा.

‘‘अपनी पूर्व पत्नी सुभाषिनी की.’’

लोग हैरान थे. सुरबाला की समझ में कुछ नहीं आया. वह बुदबुदाई, ‘‘अम्मा और इन की पूर्व पत्नी…?’’

‘‘मैं स्पष्ट करता हूं.’’ त्रिलोचन ने कहा, ‘‘सुभाषिनी की पहली शादी मेजर चौहान से हुई थी. शादी के कुछ दिनों बाद मेजर को कश्मीर जाने का अर्जेंट आदेश मिला. फलस्वरूप इन्हें कश्मीर में अपनी नई तैनाती पर जाना पड़ा. वहां शत्रु सेना बारबार घुसपैठ करने की कोशिश कर रही थी. इन्हें वहां गए कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन अचानक इन की चौकी पर हमला हुआ. मेजर के कई साथी शहीद हो गए. दुश्मन मेजर को जबरन बंधक बना कर अपने साथ ले गए.’’

हाल में एकदम सन्नाटा छा गया. त्रिलोचन पलभर रुक कर आगे बोले, ‘‘मेजर के लापता होने की खबर पा कर सुभाषिनी बेहाल हो गईं. सब से बड़ा झटका इन के मांबाप को लगा. मेजर के जिंदा होने की संभावना न के बराबर थी. इधर एक दूसरी समस्या उठ खड़ी हुई थी, अत: सुभाषिनी के मातापिता को उन के पुनर्विवाह का निर्णय लेना पड़ा.’’

त्रिलोचन सुभाषिनी पर एक नजर डाल कर आगे बोले, ‘‘फिर सुभाषिनी की बलराम तोमर से शादी कर दी गई, तोमर साहब विधुर थे. शादी के 2-3 हफ्ते बाद तोमर साहब को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा, वहां इन के चाचाजी गुजर गए थे और उन्हें उन की जमीन जायदाद का प्रबंध करना था.’’ तोमर साहब एकटक उन्हीं की ओर देख रहे थे.

त्रिलोचन ने पूछा.  ‘‘आप कुछ कहना चाहते हैं?’’

‘‘आप की जानकारी जबरदस्त है.’’

‘‘धन्यवाद, हां तो, मैं बता रहा था कि तोमर साहब को विदेश में कई महीने गुजारने पड़े. जब मयंक का जन्म हुआ और सुभाषिनी जी ने फोन पर उन्हें खबर दी तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. वह लौट आए.’’

त्रिलोचन ने बैग से एक पुरानी पत्रिका निकाली. उन्होंने देखा, विप्लव आतुरता से उन की ओर देख रहा था. उन्होंने पूछा, ‘‘हां, बोलो विप्लव.’’

‘‘डैड, मेरी पड़ताल से साबित हुआ है कि धुरंधर और सुभाषिनी कालेज में सहपाठी थे और दोनों के बीच रोमानी रिश्ते थे और बाद में भी…’’ वह कुछ कहतेकहते रुक गया.

सुभाषिनी का चेहरा रंगहीन हो गया और धुरंधर तोमर दांत पीसते हुए उठ खड़े हुए.

‘‘विप्लव, डोंट जंप टू द कन्क्लूजन. मेरी नजर में ये दोनों पाक दामन हैं.’’ त्रिलोचन के इस कथन का धुरंधर पर खासा असर हुआ और वह शांत हो कर अपनी कुर्सी पर बैठ गए.

‘‘मेरी बात अधूरी रह गई थी, मैं आप को बताना चाहता हूं कि कुछ समय बाद मेजर चौहान दुश्मन की गिरफ्त से छूट आए थे. लेकिन जब तक वह आए तब तक सुभाषिनी और तोमर साहब की शादी हो चुकी थी. इस का नतीजा यह निकला कि मेजर चौहान ने सुभाषिनी को बेवफा समझा, क्योंकि इन्होंने मेजर का इंतजार नहीं किया था और गर्भवती होने की वजह से दूसरी शादी के लिए राजी हो गई थीं. हालांकि ऐसा इन्होंने मजबूरी में किया था, लेकिन मेजर की नजरों में यह कुसूरवार थीं. इसलिए इन्होंने अपनी पूर्व पत्नी से बदला लेने का फैसला कर लिया.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 3

उस हादसे को कई साल बीत गए थे. लेकिन आज अचानक रजत के रूप में मयंक सुरबाला के सामने आ गया था. सुरबाला अभी पुरानी यादों से उबर भी नहीं पाई थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस ने उठने की कोशिश करते हुए मोबाइल कान से लगाया.

‘‘सुरबालाजी,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘त्रिलोचन बोल रहा हूं, आप सुन रही हैं न?’’

‘‘जी, जी हां.’’

‘‘आप की जान को खतरा है. अपने कमरे के दरवाजे और खिड़कियां ठीक से बंद कर लीजिए और बाहर मत निकलिएगा.’’ इस के साथ ही संपर्क टूट गया. सुरबाला चेतावनी को ठीक से समझ भी नहीं पाई थी कि उस ने किसी को अंदर आते देखा. उस काली छाया के हाथ में हथियार जैसी कोई चीज मौजूद थी. सुरबाला भयभीत हो कर जोर से चीखी और गिरती पड़ती दूसरे दरवाजे से निकल कर सीढि़यों की ओर भागी. छाया हथियार ताने हुए उस के पीछे झपटी. लेकिन सास के कमरे में चली जाने की वजह से वह बच गई.

त्रिलोचन के 2 बेटे थे, नीरव और विप्लव. उन्होंने उन दोनों को अपने जासूसी के पेशे से जोड़ रखा था. विप्लव और नीरव अपनेअपने तरीके से पिता की मदद करते थे.

नीरव ने अपने सामने बैठे व्यक्ति का गौर से मुआयना किया और अपने शब्दों पर जोर देते हुए बोला, ‘‘मेजर चौहान, आप उस रात कहां थे जिस समय मयंक की हत्या हुई थी?’’

‘‘अपने घर पर, और कहां?’’

‘‘लेकिन हमारी तफ्तीश बताती है कि आप उस रात सुखनई के जंगल में मौजूद थे…’’ नीरव ने देखा, चौहान चौंक गए थे. नीरव ने बिना मौका दिए अगला सवाल दाग दिया, ‘‘क्या करने गए थे वहां?’’

‘‘शिकार…’’

‘‘जानवर का या इंसान का?’’

‘‘व्हाट डू यू मीन?’’ मेजर तैश में आ कर चिल्ला पड़े, ‘‘ठीक है, आप जासूस हैं. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि आप मेरे ऊपर कोई भी आरोप लगा दें.’’

नीरव पर उन के चिल्लाने का कोई असर नहीं पड़ा. उस ने अपने बैग में हाथ डाल कर एक रिवाल्वर निकाली और सामने पड़ी मेज पर रख दी. रिवाल्वर बुरी तरह जंग लगी हुई थी. उसे देख मेजर के चेहरे पर विचित्र भाव उभर आए.

‘‘यह हथियार हमें उसी जंगल में मिला है और मुझे यकीन है कि यह आप का वही लाइसेंसी रिवाल्वर है, जिस की गुमशुदगी की रिपोर्ट आप ने जीतपुर थाने में दर्ज कराई थी. इस के चैंबर में अभी भी 2 खाली कारतूस मौजूद हैं. निस्संदेह आप को इस बात की जानकारी होगी कि उस रात उस जंगल में एक इंसान की जान चली गई थी.’’

मेजर के चेहरे का रंग उड़ गया, वह कुर्सी पर गिर से पड़े. नीरव ने उन से पूछताछ जारी रखी.

बरामदे में बैठे चाय पी रहे त्रिलोचन सामने बैठी पत्नी से पूछा, ‘‘विप्लव कहां है?’’

‘‘साहबजादे सो रहे हैं.’’

‘‘आप उसे बिगाड़ रही हैं, यह कोई सोने का वक्त है?’’ त्रिलोचन को गुस्सा आ गया. वह चाय का प्याला थामे विप्लव के कमरे में जा पहुंचे. उन्होंने झटके से बेटे के ऊपर से चादर खींच ली. उसी वक्त गर्म चाय की कुछ बूंदें छलक कर विप्लव की पीठ पर गिर गईं.

‘‘आ…’’ विप्लव बौखला कर उठ बैठा और अपनी पीठ सहलाने लगा.

‘‘मैं ने तुम्हें एक काम दिया था?’’

‘‘डैड, आज आप का काम हो जाएगा. लेकिन रिमाइंड करवाने का आप का यह तरीका कुछकुछ पुलिसवालों की थर्ड डिग्री जैसा है. प्लीज, आगे से ऐसा मत करिएगा.’’

त्रिलोचन मुसकुराते हुए बाहर निकल गए. चाय का प्याला उन्होंने मेज पर रखा और अपना बैग ले कर चले गए. उन का रुख बर्नेट अस्पताल की ओर था. अस्पताल में त्रिलोचन को अपने टारगेट तक पहुंचने में देर नहीं लगी.

‘‘बड़े मियां, मैं ने सुना है कि आप शायरी बहुत अच्छी करते हैं.’’ त्रिलोचन ने बर्नेट अस्पताल के उस बूढ़े क्लर्क की तारीफ की. साथ ही वह बारीकी से उस रजिस्टर के पन्ने भी निहार रहे थे, जिस के आधे से ज्यादा पृष्ठ जर्जर हो गए थे.

‘‘अमां लानत भेजिए हुजूर.’’ वह रद्दी की टोकरी में पीक थूकता हुआ बोला, ‘‘कम्बख्त यह भी कोई करने लायक काम है.’’

त्रिलोचन समझ गए कि जश्न अली बहुत काइयां है और उन के ऊपर निगाह जमाए हुए है. उस के रहते कुछ संभव नहीं होगा.

‘‘मुआफ करिएगा, एक जरूरी फोन आ रहा है.’’ त्रिलोचन मोबाइल कान से लगाते हुए बाहर निकल गए. बाहर आ कर उन्होंने अपने घर का नंबर डायल किया. मिनट भर बाद शैलजा ने फोन उठाया तो वह धीरे से बोले, ‘‘एक लैंडलाइन नंबर लिख लो और इस नंबर पर फोन कर के फोन उठाने वाले को कुछ देर उलझाए रखो.’’

पलभर बाद ही अंदर के कमरे में रखा टेलीफोन बज उठा. घंटी की आवाज सुन कर जश्न अली बुदबुदाया, ‘‘लीजिए, यह कम्बख्त भी घनघनाने लगा.’’

त्रिलोचन इसी मौके की ताक में थे, उन्होंने साथ लाए कैमरे से उस खास पेज का फोटो ले लिया.

विप्लव धुरंधर के सामने बैठा था. धुरंधर के चेहरे पर नागवारी के भाव थे. उन्होंने विप्लव को घूर कर देखा और नाराजगी भरे स्वर में बोले, ‘‘आप का पूरा परिवार ही हमारे पीछे पड़ गया है. पहले आप के पिताजी ने अच्छीखासी नौटंकी की, अब आप आ गए.’’

‘‘नौटंकी कौन कर रहा है, यह जल्दी ही पता चल जाएगा. फिलहाल तो यह बताइए कि आप अपनी भाभी सुभाषिनीजी को कब से जानते हैं?’’

‘‘जब से बड़े भैया से उन की शादी हुई.’’ धुरंधर ने बेलाग जवाब दिया.

‘‘पक्का?’’

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘मैं कहना यह चाहता हूं…’’ विप्लव ने धुरंधर के चेहरे पर नजर जमा दी, ‘‘कि आप दोनों उस से भी काफी पहले से एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘यह आप के दिमाग की उपज है?’’

‘‘नहीं जी, मेरा दिमाग इतना उपजाऊ कहां है. यह तो लखनऊ के उस कालेज की पत्रिका की उपज है, जहां आप दोनों साथसाथ पढ़ते थे.’’ विप्लव ने हाथ में थामी हुई पत्रिका खोल कर धुरंधर के आगे रख दी. बीच के पन्ने पर एक समूह फोटो छपी थी, जिस में सुभाषिनी और धुरंधर पासपास खड़े थे. फोटो देख कर धुरंधर की निगाह झुक गई. विप्लव ने धुरंधर से कई बातें पूछीं और लौट आया.

हफ्ता भर बाद बलराम तोमर ने अपने हवेलीनुमा घर में शानदार दावत का आयोजन किया. जिस बड़े हाल में आयोजन था, उस के बीचोबीच एक बड़ा सा बैनर लगा था, जिस में लिखा था, ‘मयंक तुम्हारे आने की खुशी में आज पूरा घर खुश है.’

रजत अपने मातापिता के साथ बैठा मुसकरा रहा था. उस ने धुरंधर के बेटे सुकुमार से दोस्ती कर ली थी और उस से बतिया रहा था. सुरबाला की नजर त्रिलोचन पर पड़ी तो वह तुरंत उन के पास आ पहुंची. उस के हाथ में प्लास्टर बंधा हुआ था.

‘‘उस दिन आप की मेहरबानी से बच गई, सीढि़यों से गिरने पर हाथ जरूर टूटा गया, लेकिन जान…’’

‘‘खतरा अभी टला नहीं है.’’ त्रिलोचन के स्वर में उस के लिए चेतावनी थी.

‘‘मैं उस दिन से सासू मां के साथ ही सोती हूं.’’

रात के 10 बजतेबजते खानापीना खत्म हो गया.

‘‘आज सब को यहीं विश्राम करना है.’’ बलराम तोमर ने मेहमानों से कहा तो त्रिलोचन बोले, ‘‘हम आप से माफी चाहते हैं, एक जरूरी काम है, जिसे रात में खत्म करना है, वरना हम ठहर जाते.’’

त्रिलोचन ने तोमर साहब से अनुमति ली तो नीरव और विप्लव भी उठ खड़े हुए.

‘‘और हां, आप सब के लिए एक आवश्यक सूचना है.’’ त्रिलोचन ने पलटते हुए घोषणा की, ‘‘रजत को अपने पिछले जन्म की वे तमाम बातें भी याद आ गई हैं, जिन पर अभी तक परदा पड़ा हुआ था. इस सब पर हम कल चर्चा करेंगे. मेहरबानी कर के इस बारे में रजत को अभी तंग न करें.’’

त्रिलोचन अपने दोनों बेटों विप्लव और नीरव के साथ चले गए.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 2

आगे वाली गाड़ी से रजत, उस के मातापिता तथा त्रिलोचन के उतरते ही पत्रकारों और टीवी चैनलों के रिपोर्टरों ने घेर लिया. रजत को देखने वालों की भीड़ पत्रकारों से ज्यादा बेताब थी तभी पुलिस की जीप आ पहुंची. जीप के रुकते ही कई सिपाही फुर्ती से उतरे और लोगों को धकियाते हुए रास्ता बनाने लगे.

‘‘चाचाजी, मुझे माफ करिएगा.’’ इंसपेक्टर अनिल ने आगे बढ़ कर त्रिलोचन का रास्ता लगभग रोकते हुए कहा, ‘‘मैं आप को यह सब नहीं करने दूंगा.’’

‘‘क्या नहीं करने देंगे इंस्पेक्टर साहब?’’ त्रिलोचन ने हैरानी से पूछा.

‘‘इस तरह से किसी के घर में घुसना गलत है, अतिक्रमण है यह…’’

‘‘इन लोगों को गिरफ्तार कर लीजिए दरोगाजी, ये हमारे खिलाफ साजिश करने आए हैं…’’ अचानक एक तेज आवाज गूंज उठी. त्रिलोचन ने मुड़ कर देखा, सफेद कुर्ता धोती पहने ऊंचातगड़ा एक आदमी भीड़ को चीर कर उन के सामने आ खड़ा हुआ. उस ने कंधे पर दोनाली बंदूक टांग रखी थी. त्रिलोचन और अनिल कुछ कहने ही वाले थे कि रजत अपनी मां से हाथ छुड़ा कर दौड़ा और उस व्यक्ति से जा कर लिपट गया.

‘‘चाचा, मैं आ गया…’’ रजत की आवाज में खुशी उमड़ी पड़ रही थी. वह व्यक्ति कुछ कहता या पूछता, इस के पहले ही रजत अपने मातापिता से मुखातिब हुआ, ‘‘मम्मी… पापा… ये मेरे चाचा हैं. धुरंधर चाचा.’’

धुरंधर तोमर के चेहरे पर हैरानगी उभर आई. वह चाह कर भी बच्चे को झिड़क नहीं सके.

‘‘आप ने इस बच्चे को आज से पहले कभी देखा है?’’ इंसपेक्टर अनिल ने पूछा.

‘‘नहीं, कभी नहीं.’’ धुरंधर के मुंह से निकला.

‘‘इस के मांबाप को जानते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर यह आप को कैसे जानता है?’’ धुरंधर कुछ कह पाते, इस के पहले ही एक महिला टीवी रिपोर्टर की आवाज गूंज उठी, ‘‘देखा आप ने, रजत यानी मयंक ने अपने पिछले जन्म के चाचा को पहचान लिया है.’’

‘‘जाहिर है, आप मुझे भी नहीं जानते?’’ त्रिलोचन धुरंधर की ओर उन्मुख हुए.

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘तो फिर आप किस आधार पर कह रहे हैं तोमर साहब कि आप के खिलाफ ये लोग साजिश कर रहे हैं?’’ इंसपेक्टर अनिल ने कहा.

‘‘यह तमाशा साजिश नहीं तो और क्या है?’’ धुरंधर को गुस्सा आ गया.

‘‘तो फिर आप इस का पर्दाफाश क्यों नहीं कर देते?’’ त्रिलोचन के स्वर में चुनौती थी.

‘‘मैं ने पुलिस को इसीलिए यहां बुलाया है.’’

‘‘तो ठीक है, पुलिस के सामने सारी जांचपड़ताल हो जाने दीजिए, सच्चाई सामने आ जाएगी.’’ कहते हुए त्रिलोचन अनिल की ओर मुड़े, ‘‘अगर यह सचमुच पूर्वजन्म का मयंक है तो यह इस अंजान गांव में हम सब को अपने पिछले जन्म के घर जरूर ले चलेगा.’’

अनिल ने मौन सहमति दी.

‘‘मयंक, अपने घर चलो.’’ त्रिलोचन का इशारा पाते ही रजत बेधड़क एक ओर बढ़ गया. उस के पीछे विशाल जनसमुदाय था.

सचमुच कमाल हो गया. रजत बेखौफ अपने पूर्व जन्म के घर में जा घुसा. उस ने अपने मातापिता यानी बलराम तोमर और सुभाषिनी को न केवल पहचाना, बल्कि उन से लिपट कर खूब रोया भी. उस ने अपनी चाची यानी धुरंधर तोमर की पत्नी सुखदेवी और दूसरे परिजनों को भी आसानी से पहचान लिया.

हद तो तब हो गई, जब उस ने सैकड़ों लोगों के बीच बैठी अपनी पत्नी सुरबाला को जा पहचाना. फिर भी सुरबाला को यकीन नहीं हुआ, धुरंधर तोमर की तरह उस के भी मन में अविश्वास के बादल घुमड़ रहे थे.

‘‘मुझे ऐसे विश्वास नहीं होगा. मुझे ऐसी कोई बात बताओ, जिसे मेरे अलावा सिर्फ मेरे पति जानते थे.’’ उस की अविश्वास भरी नजरें रजत के मासूम चेहरे पर ठहर गईं.

वह कई पलों तक कुछ सोचता रहा, फिर अचानक बोला, ‘‘तुम्हारी पीठ पर नीचे की ओर दाहिनी तरफ एक तिल है.’’

सुन कर सुरबाला भौंचक्की सी रह गई. यह सुन कर वहां मौजूद तमाशबीनों के मुंह भी खुले रह गए. फिर न जाने क्या हुआ कि सुरबाला रजत को गोद में उठा कर रो पड़ी.

‘‘तुम मुझे छोड़ कर क्यों चले गए थे…?’’ उस के आंसू उमड़उमड़ कर बहने लगे.

सब से मिलनेमिलाने के बाद रजत उसी शाम अपने मातापिता के साथ शहर लौट गया. वह सुरबाला से वादा कर गया था कि अगले हफ्ते फिर आएगा. उस रात बलराम तोमर के घर में कोई नहीं सो पाया. रजत अनेक झंझावात छोड़ गया था, जिन्होंने तोमर परिवार को सारी रात जगाए रखा.

बलराम तोमर खानदानी रईस थे. दोनों भाइयों का संयुक्त परिवार था. तीन सौ एकड़ जमीन के अलावा एक चीनी मिल भी थी. दोनों भाइयों के बीच सिर्फ एक चश्मओचिराग था, धुरंधर तोमर का 6-7 वर्षीय पुत्र सुकुमार. रजत उसे इसलिए नहीं पहचान पाया था, क्योंकि उस का जन्म मयंक की मौत के कई सालों बाद हुआ था.

मयंक की मौत की वह रात सुरबाला को आज भी ज्यों की त्यों याद थी.

तोमर परिवार ने एक एडवेंचर प्रोग्राम बनाया था, जिस में महिलाओं को भी शामिल किया गया था. उसी के तहत सुरबाला अपने पति, सासससुर व चचिया ससुर धुरंधर के साथ शिकार पर गई थी. यह उस के लिए पहला और आखिरी एडवेंचर था. सुखनई के जंगल में उन दिनों एक आदमखोर तेंदुए ने आतंक मचा रखा था. वह 20 किलोमीटर के दायरे में कई इंसानी जिंदगियां लील चुका था. इसी वजह से सरकार ने तोमर परिवार को उसे मारने की इजाजत दे दी थी.

तेंदुए को मारने के लिए तोमर परिवार ने जंगल में तीन मचान बनाए थे. अंधेरा घिरतेघिरते सभी लोग मचानों पर चढ़ कर बैठ गए. नीचे चारे के तौर पर एक बकरा बांध दिया गया था.

जिस मचान पर सुरबाला और मयंक बैठे थे, उस के ठीक सामने वाले मचान पर उस के सासससुर यानी बलराम तोमर और सुभाषिनी बैठे थे. धुरंधर तोमर का मचान उन से लगभग 20 फुट दूर बाईं ओर था. तीनों मचानों के नीचे बंधा बकरा साफ नजर आ रहा था, लेकिन जैसेजैसे अंधेरा घिरता गया, बकरे का अक्स धूमिल होता गया.

रात गहराने लगी थी, सुरबाला की पलकें नींद से बोझिल हो गई थीं. वह अपने आप को जगाए रखने की भरसक कोशिश कर रही थी. बकरा पता नहीं क्यों खामोश हो गया था. तभी अचानक गोली चलने, तेंदुए के गरजने और मयंक के नीचे गिरने की घटनाएं एक साथ घटीं.

तेंदुआ मयंक को बुरी तरह झंझोड़ने में लगा था. इतना दिल दहलाने वाला दृश्य था कि सुरबाला के हाथ से टार्च छूट कर नीचे गिर गई. इस के बाद किसी ने गोली नहीं चलाई. तेंदुआ मयंक को खींचता हुआ जंगल में गायब हो गया. जब उन लोगों को होश आया तो ताबड़तोड़ हवाई फायरिंग की गई. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. रात भर उन लोगों की नीचे उतरने की भी हिम्मत नहीं हुई.

सुबह उन लोगों ने मयंक की तलाश में वन विभाग और पुलिस वालों के साथ पूरा जंगल छान मारा, लेकिन नाकामी ही हाथ लगी. सुरबाला का रोरो कर बुरा हाल था. बाद में भी काफी खोजबीन की गई, पर मयंक की लाश नहीं मिली.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 1

खबर चौंकाने वाली थी इसलिए उन्होंने अखबार को कस कर पकड़ते हुए उसे फिर से पढ़ना शुरू किया. वह ‘मयंक ने पुनर्जन्म  लिया.’ शीर्षक को उन्होंने 2-3 बार पढ़ा.

खबर में छपा था, ‘शहर के कपड़ा व्यवसायी मनोहर अग्रवाल का 6 वर्षीय पुत्र रजत अपने आप को पूर्व जन्म का मयंक बताता है. उस का कहना है कि वह पिछले जन्म में नाहरगढ़ निवासी बलराम तोमर का पुत्र मयंक था. सुबूत के तौर पर उस ने कई घटनाएं बयान की हैं. उस का कहना है कि उस का घर नाहरगढ़ में है और उस के मातापिता और पत्नी सुरबाला उस का इंतजार कर रही होंगी. वह रोजाना नाहरगढ़ जाने की जिद करते हुए अपने मांबाप से कहता है कि अगर उसे उस के असली घर नहीं पहुंचाया गया तो वह खुद ही वहां चला जाएगा.’

तोमर साहब इस के आगे नहीं पढ़ सके. वह अखबार थामे घर के अंदर दौड़े.

‘‘अरे कहां हो तुम…’’ उन्होंने असंयत आवाज में अपनी पत्नी सुभाषिनी को पुकारा, ‘‘जरा यह समाचार पढ़ो.’’ वह ड्राइंगरूम में दाखिल हुए तो सुभाषिनी टीवी देखने में तल्लीन थीं.

‘‘टीवी बाद में देखना, पहले यह खबर पढ़ो.’’ तोमर साहब ने अखबार पत्नी के आगे फैला दिया.

‘‘आप पहले टीवी देखिए…’’ सुभाषिनी ने अखबार पर ध्यान न दे कर कंपकंपाती आवाज में कहा, ‘‘देखिए, क्या आ रहा है.’’

तोमर साहब ने अखबार को भूल कर टीवी की ओर देखा.

‘‘पुनर्जन्म की ऐसी रोमांचक घटना इस के पहले आप ने शायद ही कहीं देखीसुनी होगी.’’ टीवी पर रिपोर्टर की पुरजोर आवाज गूंज रही थी.

‘‘अद्भुत बच्चा है रजत… रजत तुम्हारा नाम क्या है?’’ रिपोर्टर ने पास बैठे बच्चे की ओर माइक बढ़ाया तो टीवी स्क्रीन पर फैले उस के चेहरे का क्लोजअप तैश से भर उठा. वह झुंझलाते हुए बोला, ‘‘कितनी बार बताऊं आप को? मैं ने कहा न, मेरा नाम रजत नहीं, मयंक है. मयंक तोमर.’’

‘‘और आप के मातापिता का नाम?’’ रिपोर्टर ने अगला प्रश्न किया.

‘‘बलराम तोमर और सुभाषिनी.’’ बच्चे ने झटके से जवाब दिया.

‘‘सुना आप ने.’’ सुभाषिनी का गला भर्रा गया, ‘‘हमारा लाडला लौट आया…’’ कहती हुई वह बाहर को भागीं. तोमर साहब स्तब्ध खड़े हुए थे. पूरा माजरा अकल्पनीय सा था.

‘‘बहू… ओ बहू…’’ सुभाषिनी ने उत्तेजित स्वर में पुकारते हुए जोरों से बाथरूम का दरवाजा खटखटाया.

मिनट भर बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और अधभीगे कपड़ों में बाहर झांकते सुरबाला ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अम्मां? आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

‘‘चल कर पहले टीवी देखो,’’ वह सुरबाला को लगभग घसीटती हुई ड्राइंगरूम की ओर ले गईं. टीवी पर अभी भी वही समाचार चल रहा था. तोमर साहब पूर्ववत आंखें फाड़े समाचार देख रहे थे.

संवाददाता की आवाज गूंज रही थी, ‘‘विश्वास करना कठिन है, लेकिन यह सच है कि हर तरह से यह साबित हो रहा है कि कल का मयंक ही आज का रजत है…’’

अब तक सुरबाला की भी समझ में सब कुछ आ गया था. इस खबर को देखसुन कर उस का मुंह खुला रह गया. सुभाषिनी बाहर निकल गई थीं. वह वापस लौटीं तो साथ में उन के देवर धुरंधर थे.

‘‘भाभी, आप इन टीवी वालों को नहीं जानतीं. विज्ञापन हासिल करने के लिए ये उलटीसीधी खबरें फैलाते रहते हैं. कितने दुख की बात है कि ये अंधविश्वास से लड़ने के बजाय ऐसी बातों को बढ़ावा दे रहे हैं…’’ धुरंधर तोमर भाभी के मुंह से यह खबर सुन कर गुस्से में बोले, ‘‘आप तो पढ़ीलिखी हैं फिर भी…’’

‘‘पहले आप खबर तो देख लीजिए.’’

‘‘ननकू, हमारा मयंक वापस आ गया.’’ तोमर साहब छोटे भाई को देखते ही खुशी से चिल्ला उठे.

‘‘टीवी वालों की इस बकवास से मैं सहमत नहीं हूं बड़े भैया.’’ धुरंधर बेलाग स्वर में बोले, ‘‘भाभी तो शायद अपनी ममता के चलते अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहीं, कम से कम आप तो…’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो ननकू?’’ उन्होंने छोटे भाई को झिड़कने वाले अंदाज में कहा, ‘‘टीवी वाले, अखबार वाले और वहां मौजूद सारे लोग अंधविश्वास फैला रहे हैं? और अगर इसे सच भी मान लिया जाए तो सवाल यह है कि यह बच्चा कैसे वे सारी बातें बता रहा है, जो एकदम सच हैं.’’

‘‘मुझे तो यह कोई साजिश लग रही है. जरूर इस के पीछे कोई खतरनाक इरादे वाला शख्स है.’’ धुरंधर बोले.

‘‘पहले ठीक से खबर तो देख लो ननकू. सच्चाई को समझने की कोशिश करो… आखिर वहां हमारा कौन दुश्मन बैठा है, जो साजिश…’’

‘‘इस का पता तो पुलिस लगाएगी कि वह शातिर शख्स कौन है, जिस की निगाह हमारी जायदाद पर जमी हुई है.’’

‘‘इस सब से हमारी जायदाद का क्या लेनादेना है?’’ तोमर साहब छोटे भाई की बात सुन कर हैरान हुए.

‘‘आप कितने भोले हैं बड़े भैया.’’ धुरंधर बड़े भाई की बुद्धि पर तरस सा खाते हुए बोले, ‘‘यह लड़का जो मयंक होने का दावा कर रहा है, कल को हमारी संपत्ति का वारिस नहीं बन बैठेगा?’’

तोमर साहब के माथे पर बल पड़ गए, शायद इस पहलू की ओर उन्होंने अभी तक ध्यान नहीं दिया था.

‘‘आप देखिए टीवी, मैं तो कोतवाली जा रहा हूं.’’ कहते हुए धुरंधर बाहर निकल गए.

इंस्पेक्टर अनिल कार्तिकेय ने एसपी के औफिस में प्रवेश किया तो एसपी साहब बड़े गौर से एक फाइल देख रहे थे, जिस में अखबारों की कतरनें लगी हुई थीं.

‘‘सर, आप ने मुझे बुलाया?’’ इंसपेक्टर की आवाज से उन का ध्यान भंग हो गया.

‘‘यह त्रिलोचन कौन है और उस का असली कामधंधा क्या है?’’ एसपी ने नजरें उठा कर अनिल की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘त्रिलोचन…?’’

‘‘वही जो अपने आप को जासूस कहता है…’’

‘‘अच्छा, आप त्रिलोचनजी की बात कर रहे हैं, वह बहुत सम्मानित व्यक्ति हैं सर.’’

‘‘आप का यह सम्मानित व्यक्ति एक रईस आदमी के खिलाफ साजिश कर रहा है.’’

‘‘जी?’’ इंस्पेक्टर अनिल चौंके.

‘‘ऐसा क्या किया है चाचाजी ने?’’

‘‘अच्छा तो त्रिलोचन आप के चाचा हैं?’’ एसपी की सख्त नजर इंसपेक्टर अनिल के चेहरे पर जम गई.

‘‘नहीं सर, मेरा मतलब वह…’’

‘‘सुनो इंस्पेक्टर, पुलिस की वर्दी पहनने के बाद सारे रिश्तेनाते भूल जाना चाहिए. हमारा काम है कानून तोड़ने वालों को सलाखों के पीछे भेजना.’’ एसपी का स्वर काफी सख्त था.

‘‘उन्होंने कानून तोड़ा है?’’

‘‘तोड़ने वाला है.’’ एसपी साहब इंस्पेक्टर को कतरन वाली फाइल थमाते हुए बोले, ‘‘लगता है आप को न तो अखबार पढ़ने का वक्त मिलता है, न ही टीवी देखने का.’’

‘‘जी सर, ड्यूटी के चलते कभीकभी…’’

‘‘आईसी तो कल आप को यह ड्यूटी नाहरगढ़ में करनी है, जहां त्रिलोचन पूरे तामझाम के साथ रजत नाम के लड़के को ले कर पहुंचने वाला है. वह यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि रजत नाहरगढ़ के जानेमाने व्यक्ति बलराम तोमर का पुत्र मयंक है, वह मयंक जो सालों पहले मर चुका है.’’

‘‘लेकिन सर, हमारे पास ऐसी कोई शिकायत…’’

‘‘शिकायत इसी फाइल में है.’’ एसपी ने फाइल अनिल के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘बलराम तोमर के छोटे भाई धुरंधर तोमर ने लिखित शिकायत की है.’’

गाडि़यों का काफिला नाहरगढ़ पहुंचा तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. आसपास के गांवों के भी हजारों लोग आ गए थे. सभी रजत की एक झलक पाने को बेताब थे.

जुर्म है बेटी का बाप होना

प्रीति मेरी एकलौती बेटी थी, मेरे न रहने पर मेरी करोड़ों की प्रौपर्टी उसी की थी, फिर भी उस की ससुराल वालों ने पैसे के लिए ही उसे मार डाला था. कोई मैं ही अकेला बेटी का बाप नहीं हूं. मेरी तरह यह पूरी दुनिया बेटी के बापों से भरी  पड़ी है. कम ही लोग हैं, जिन्हें बेटी नहीं है. लेकिन बेटी को ले कर जो दुख मुझे मिला है, वैसा दुख बहुत कम लोगों को मिलता है. यह दुख झेलने के बाद मुझे पता चला कि बेटी होना कितना बड़ा जुर्म है और उस से भी बड़ा जुर्म है बेटी का बाप होना.

अपनी मेहनत की कमाई खाने वाला मैं एक साधारण आदमी हूं. मैं ने सारी उम्र सच्चाई की राह पर चलने की कोशिश की. हेराफेरी, चालाकी, ठगी या गैरकानूनी कामों से हमेशा दूर रहा. कभी कोई ऐसा काम नहीं किया, जिस से दूसरों को तकलीफ पहुंचती. ईमानदारी और मेहनत की कमाई का जो रूखासूखा मिला, उसी में संतोष किया और उसी में अपनी जिम्मेदारियां निभाईं.

प्रीति मेरी एकलौती बेटी थी. वह बहुत ही सुंदर, समझदार और संस्कारवान बेटियों में थी. वह दयालु भी बहुत थी. सीमित साधनों की वजह से सादगी में रहते हुए उस ने लगन से अपनी पढ़ाई की. पढ़ाई पूरी होते ही उसे बढि़या नौकरी भी मिल गई. नौकरी लगते ही मैं उस के लिए लड़के की तलाश में लग गया.

जल्दी ही मेरी तलाश खत्म हुई और मुझे उस के लायक बढि़या लड़का मिल गया. बेटी की खुशी और सुख के लिए मैं ने अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर के धूमधाम से उस की शादी की. हालांकि लड़के वालों का कहना था कि उन्हें कुछ नहीं चाहिए. उन्हें जिस तरह की पढ़ीलिखी और गुणवान लड़की चाहिए थी, प्रीति ठीक वैसी है. इसलिए उसे एक साड़ी में विदा कर दें.

लेकिन मैं बेटी का बाप था. मैं अपनी बेटी को खाली हाथ कैसे भेज सकता था. मैं ने अपनी लाडली बेटी को हैसियत से ज्यादा गहने, कपड़ा लत्ता और घरेलू उपयोग का सामान दे कर विदा किया. बारातियों की आवभगत में भी अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया, जिस से कोई बाराती कभी मेरी बेटी को ताना न मार सके.

शादी होने के बाद प्रीति ने नौकरी छोड़ दी थी. उस का ससुराल में पहला साल बहुत अच्छे से बीता. अपनी लाडली को खुश देख कर हम सभी बहुत खुश थे. उसी बीच प्रीति को एक कंपनी में अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गई. उस का पति पहले से बढि़या नौकरी कर रहा था.

सब कुछ बहुत बढि़या चल रहा था. अचानक न जाने क्या हुआ कि प्रीति के पति के सिर पर नौकरी छोड़ कर अपना कारोबार करने का भूत सवार हो गया. वह कारोबार कर के करोड़पति बनने के सपने देखने लगा. कारोबार के लिए उसे जितनी बड़ी रकम की जरूरत थी, उतने पैसे उस के पास नहीं थे. तब उस ने प्रीति से मदद करने को कहा.

प्रीति के पास पैसे कहां थे. उस से मदद मांगने का मतलब था, वह मायके से मोटी रकम मांग कर लाए. इस तरह प्रीति की ससुराल वाले बहाने से दहेज में मोटी रकम मांगने लगे. प्रीति हमारी बेटी थी, उसे हमारी औकात अच्छी तरह पता थी. फिर वह उसूलों पर चलने वाली लड़की थी. उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मैं अपने मांबाप से एक कौड़ी भी नहीं मांगूंगी, क्योंकि यह एक तरह से दहेज है और दहेज लेना तथा देना दोनों ही गैरकानूनी है.’’

प्रीति सीधीसादी लड़की थी. उस का कहना था कि पतिपत्नी जितना कमाते हैं, उस में वे आराम से अपना गुजरबसर कर लेंगे. परिवार बढ़ेगा तो तरक्की के साथ वेतन भी बढ़ेगा. इसलिए उन्हें इसी में संतुष्ट रहना चाहिए.

लेकिन प्रीति के पति के मन में करोड़ों की कमाई का भूत सवार हो चुका था. इसलिए वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं था. बस फिर क्या था, पतिपत्नी के रिश्तों में खटास आने लगी. उन के बीच दरार पड़ गई, जो दिनोंदिन चौड़ी होती चली गई. उन के बीच प्यार तो उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन प्रीति ने मुझ से पैसा मांगने से मना कर दिया था.

फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब प्रीति के पति ने उस पर हाथ उठा दिया. एक बार हाथ उठा तो सिलसिला सा चल पड़ा. फिर तो पति ही नहीं, उस के घर के जिस भी व्यक्ति का मन होता, वही मेरी बेटी को अपमानित ही नहीं करता, बल्कि जब मन होता, पीट देता.

मैं ने जिंदगी में कोई गैरकानूनी काम नहीं किया था. लेकिन जब मुझे बेटी की प्रताड़ना का पता चला तो मैं बेचैन हो उठा. इंसान बच्चों के लिए ही कमाता है. अपनी सारी जिंदगी उन्हीं की खुशी में होम कर देता है. जिंदगी में वह जो बचाता है, उन्हीं के लिए छोड़ जाता है.

मेरे पास इतनी रकम नहीं थी कि मैं प्रीति की ससुराल वालों की मांग पूरी कर देता. मैं ने पत्नी से सलाह की. पत्नी ही मुझे क्या सलाह देती. उस ने बस यही कहा, ‘‘हमारे पास पुश्तैनी जमीन के अलावा कुछ नहीं है. इसे बेच कर उन लोगों की मांग पूरी कर दो. जब बेटी ही नहीं रहेगी तो हम इस का क्या करेंगे. आखिर यह सब सुखदुख के लिए ही तो है. दुख की इस घड़ी में इसे बेच कर झंझट खत्म कर दो.’’

किसी किसान के लिए जमीन सब कुछ होती है. उसे मांबाप कह लो या रोजीरोटी, वही उस के लिए सब कुछ है, उस से उस के परिवार का ही गुजरबसर नहीं होता, बल्कि उसी की बदौलत और न जाने कितने अन्य लोग पलते हैं. लेकिन अब अपनी खुशी या जिंदगी की चिंता कहां रह गई थी. अब चिंता बेटी की खुशी और जिंदगी की थी.

मैं ने तय कर लिया था कि जितनी जल्दी हो सकेगा, अपनी बिटिया की खुशी के लिए यानी उस पर होने वाले जुल्मों को बंद करवाने के लिए अपनी जमीन बेच कर उस की ससुराल वालों की मांग पूरी कर दूंगा. क्योंकि मुझे लगने लगा था कि उस की ससुराल वाले अब उस की जान ले कर ही मानेंगे.

मैं ने निश्चय किया था कि जमीन बेच कर प्रीति की ससुराल वालों की मांग पूरी कर दूंगा, उसी के अनुसार मैं ने जैसे ही जमीन बेचने की घोषणा की, लेने वालों की लाइन लग गई. लोग मुंहमांगी कीमत देने को तैयार थे. इस की वजह यह थी कि मेरी जमीन मुख्य सड़क के किनारे थी.

लेकिन मेरी वह जमीन बिकतेबिकते रह गई. दरअसल, प्रीति के दुख से हम पतिपत्नी काफी दुखी थे. हम दोनों मानसिक रूप से काफी परेशान थे. परेशानी से निजात पाने के लिए इंसान ऐसी जगहों पर जाना चाहता है, जहां किसी बात की चिंता न हो. चिंता से निजात पाने और उस का हल ढूंढ़ने के लिए मैं भी पत्नी को ले कर किसी एकांत जगह के लिए निकल पड़ा.

एक बस उत्तराखंड के लिए जा रही थी. मेरे मोहल्ले के भी कई लोग उस बस से जा रहे थे. मैं भी पत्नी के साथ उसी में सवार हो गया. लेकिन कुदरत ने वहां ऐसा तांडव मचाया कि हम लोगों को लगा कि अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा. लेकिन सेना के जवानों ने हम सभी को बचा लिया. हम सभी को मौत के मुंह से बाहर खींच लाए. हमें तो सेना के जवानों ने बचा लिया, लेकिन दूसरी ओर प्रीति को कोई नहीं बचा सका.

दरअसल, प्रीति की ससुराल वालों को पता था कि मैं पत्नी के साथ उत्तराखंड घूमने गया हूं. जब उन्हें पता चला कि वहां भीषण प्राकृतिक आपदा आई है और उस में हम लोग फंस गए हैं तो उसी बीच उन लोगों ने प्रीति को इस तरह प्रताडि़त किया यानी मारा पीटा कि वह मर गई.

हम लोग आपदा में फंसे थे. फोन भी नहीं मिल रहा था, इसलिए प्रीति की ससुराल वालों ने हत्या को कुदरती मौत बता कर उस का अंतिम संस्कार कर दिया. पड़ोसियों में खुसुरफुसुर जरूर हुई, लेकिन किसी ने बात का बतंगड़ नहीं बनाया. उन्होंने अपना काम आसानी से कर डाला. प्रीति अपनी मौत मरी है, यह साबित करने के लिए उन्होंने उस की एक सहेली को बुला लिया था. सहेली को क्या पड़ी थी कि वह किसी तरह की कानूनी काररवाई करती. फिर उसे कुछ पता भी नहीं था.

हां, तो इस तरह मेरी बेटी प्रीति को मार दिया गया. एक सीधेसादे कत्ल को कुदरती मौत बता कर उन्होंने उस का अंतिम संस्कार भी कर दिया. मेरे घर लौट कर आतेआते उस के सारे कामधाम कर दिए गए थे. मैं ने थाने में प्रीति की हत्या की रिपोर्ट तो दर्ज करा दी, लेकिन मेरे पास उन के खिलाफ ऐसा कोई भी सुबूत नहीं है कि मैं दावे के साथ कह सकूं कि उन लोगों ने प्रीति की हत्या की है.

सुबूत न होने की वजह से पुलिस भी इस मामले की जांच आगे नहीं बढ़ा पा रही है. बहरहाल मैं कानून पर भरोसा करने वालों में हूं, इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि उन लोगों को उन के किए की सजा जरूर मिलेगी.

प्रीति ही मेरी एकलौती बेटी थी. मेरे पास करोड़ों की प्रौपर्टी है, अब वह मेरे किस काम की. प्रीति की ससुराल वालों को सोचना चाहिए था कि हमारे न रहने पर वैसे भी सब कुछ उन्हें ही मिलने वाला था. फिर वे उस का चाहे जैसे उपयोग करते. लेकिन उन्हें संतोष नहीं था.

अब मुझे लगता है कि बेटी सचमुच पराई होती है. अपनी होते हुए भी हम उसे अपनी नहीं कह सकते. तमाम नियमकानून हैं, अधिकार हैं, लेकिन लगता है कि वे सब सिर्फ कहनेसुनने के लिए हैं. अगर नियमकानून ही होते तो लोग उन से डरते. जिस तरह प्रीति मारी गई, शायद उस तरह बेटियां न मारी जातीं. अब मुझे लगता है कि बेटी का पैदा होना ही जुर्म है, उस से भी बड़ा जुर्म है बेटी का बाप होना.

—कथा सत्य घटना पर आधारित

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 3

जिस कमरे में अनवर मुझे ले गया, उस में हलका अंधेरा था. मैं ने देखा, एक कोने में एक लड़का फैल्ट हैट पहने म्यूजिक सुन रहा था. मैं अनवर की अम्मी के सीने से लग कर उन के मुंह से अपने लिए दुलहन शब्द सुनने को बेताब थी.

‘‘अम्मी को जल्दी बुलाइए न,’’ कह कर मैं अनवर को हैरानी से देखने लगी. दिल में तूफान सा छाया हुआ था जो अनवर की अम्मी के दीदार से ही शांत हो सकता था. बाहर अंधेरा स्याह होता जा रहा था.

‘‘अम्मी गुसलखाने में हैं.’’ अनवर ने मुझे कुरसी पर बैठा कर गिलास थमाते हुए कहा, ‘‘तब तक कोक पियो.’’ अनवर की आंखों का बदलता रंग देख कर मैं ने जल्दी से कोक पी लिया. लेकिन यह क्या, मुझे सब कुछ धुआंधुआं सा लगने लगा. मैं होश खोती जा रही थी.

तभी अनवर ने मेरे गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया. उस वक्त उस की आंखें बारूद उगल रही थीं. यह इंतकाम की आग थी. वह गुस्से में बोला, ‘‘मैं मवाली हूं, गुंडा हूं, बदचलन हूं. यही कहा था ना तेरी मां ने.’’

धीरेधीरे मैं पूरी तरह बेहोश हो गई, विरोध की कतई क्षमता नहीं थी. अनवर की दुलहन बनने का मेरा ख्वाब टूट चुका था. जब मुझे थोड़ाथोड़ा होश आना शुरू हुआ तो मुझे अनवर और उस के साथी की हंसी सुनाई दी. अनवर का दोस्त थोड़ी दूर गलियारे में उस से कह रहा था, ‘‘अनवर, आज जैसा मजा पहले कभी नहीं आया.’’

अनवर और उस के दोस्त की जहरीली हंसी मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ रही थी. मैं लड़खड़ाते हुए उठी, पूरा बदन दर्द से बेहाल था. मेरे कपड़े, मेरा लहूलुहान जिस्म, मेरी तबाही की कहानी कह रहे थे. मैं चुपचाप बाहर आ गई. बाहर से स्कूटर ले कर मैं घर लौट आई. तब तक पूरा शहर अंधेरे के आगोश में डूब चुका था. गनीमत यह थी कि अब्बू टुअर पर थे. इस काली रात की कहानी जानने वाला मेरे अलावा कोई नहीं था.

मैं ने जब अम्मी को बताया तो वह चीख पड़ीं, मुझे बुरी तरह डांटा, पीटा. मैं सारी रात सिसकती रही. उस के बाद हर रात मेरी सिसकियां अंधेरों में घुटती रहीं. मम्मी भी किटी पार्टियां अटैंड करना, सैरसपाटा, शौपिंग सब भूल गई थीं. मेरी जैसी मांओं के लिए, जिन के पास अपने बच्चों की देखभाल का वक्त न हो, इस से बड़ी सजा और हो भी क्या सकती थी?

अम्मी ने मुझे सख्त हिदायत दी थी कि इस राज को परदे में ही रखूं. फिर जल्दीबाजी में मेरी शादी मेराज से कर दी गई थी. मेरी पसंदनापसंद या मरजी के बारे में पूछना भी मुनासिब नहीं समझा गया था. मैं होमली लड़की थी. शादी की बात आई तो नए अरमान फिर से जेहन में करवट लेने लगे. शौहर के कदमों के नीचे औरत का स्वर्ग होता है. मैं उसी स्वर्ग की कल्पना करने लगी.

मेरा निकाह हो गया. मैं सुहागसेज पर बैठी अपने शौहर के आने का बेताबी से इंतजार कर रही थी, मेरी आंखों में भावी जीवन के गुलाबी सपने तैर रहे थे. तभी किसी के कदमों की आहट पास आती सुनाई दी तो मैं खुद में सिमट गई. मैं ने घूंघट की ओट से देखा तो मेराज की सुनहरी शेरवानी से सजा फूलों सा महकता व्यक्तित्व नजर आया. उन्होंने धीरे से करीब आ कर मेरा घूंघट पलटा तो ऐसे चौंके जैसे किसी नागिन को देख लिया हो.

मुझे पर टेढ़ी नजर डाल कर मेराज बाहर चले गए. बस, उस दिन के बाद हम दोनों के बीच एक अदृश्य सी दीवार बन गई. हम ने सालों साथ गुजारे तो सिर्फ इसलिए क्योंकि दो बड़े परिवारों की इज्जत का मामला था. हम साथ रह कर भी नदी के दो किनारे बने रहे. मैं देवर और ननदों को पालने, बड़ा करने में लगी रही और मेराज बिजनैस में. मैं चाह कर भी नहीं जान पाई कि मेराज को मुझ से क्या शिकायत थी, वह मुझ से क्यों दूर रहना चाहते थे. अब तक यही स्थिति थी.

रात गहरा रही थी. नैनी झील के किनारे लगी लाइटों की रोशनी पानी की लहरों पर लहराती हुई बड़ी अच्छी लग रही थी, लेकिन अब उसे देखने का मन नहीं था. मैं मेराज के सीने से लिपटी उन में अपने हिस्से का प्यार खोज रही थी. मन चाह रहा था, सालों की चाह आज ही पूरी कर लूं.

तभी मेराज गंभीर स्वर में बोले, ‘‘क्या तुम किसी अनवर को जानती हो?’’

अनवर का नाम सुन कर मैं एक ही झटके में खयालों से बाहर आ गई. मैं ने डर कर कांपती आवाज में पूछा, ‘‘क्यों, आप उसे कैसे जानते हैं?’’

‘‘क्योंकि वह मेरा जिगरी दोस्त था. जिस रोज तुम उस के पास आई थीं, मैं ही कैप लगाए म्यूजिक सुन रहा था. अंधेरे की वजह से तुम मुझे पहचान नहीं सकी थीं. आगे क्या हुआ, तुम जानती ही हो. जब हमारा निकाह हुआ, मुझे भी मालूम नहीं था कि जिसे मेरा जीवनसाथी बनाया जा रहा है, वह तुम हो. यही वजह थी कि सुहागरात में घूंघट उठाते वक्त मैं चौंक गया था. गलती अनवर की थी और मैं उस में भागीदार था. इस के बावजूद मेरे मन में तुम्हें ले कर दुर्भावना बनी रही कि तुम्हें मेरी बीवी नहीं होना चाहिए था. लेकिन अब मेरी सोच बदल गई है. गलत मैं था, तुम नहीं.’’

लंबी खामोशी जब टूटती है तो उस की गूंज भी देर तक सुनाई देती है. डाल से बिछड़े पत्ते की तरह मैं बद्हवास थी, तभी इन का कोमल स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम ने वहां आ कर जो भूल की थी, उस में मैं भी तो बराबर का गुनहगार हूं.’’ इन के सीने से लगी मैं कांप रही थी. हम दोनों ही शर्मसार थे और एकदूसरे की चाहत में बेताब भी.

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 2

मेरी और मेराज की शादी भी इत्तफाक ही थी. सच कहूं तो 2 बड़े परिवारों के बीच अचानक बना एक खोखला संबंध भर. यह संबंध भी इसलिए बना था क्योंकि मेरे अब्बू अम्मी को मेरी शादी की जल्दी थी. उन की चाहत पूरी हुई और सब कुछ जल्दीजल्दी में हो गया. इस के पीछे भी एक रहस्य था जिस के लिए जिम्मेदार मैं ही थी.

बात उन दिनों की है जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ा करती थी. एक दिन जब मैं अपनी फाइल उठा कर यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकली तो अब्बू बोले, ‘‘सलमा, इन से मिलो, यह हैं मेरे जिगरी दोस्त जुबैर. इन के साहबजादे अनवर मियां भी लखनऊ यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में एमएससी करने आए हैं. उन्हें हौस्टल में जगह नहीं मिल पा रही है इसलिए कुछ दिन हमारे यहां ही रहेंगे. तुम शाम तक कोठी की ऊपरी मंजिल के दोनों कमरे साफ करवा देना. अनवर शाम को आ जाएगा.’’

‘‘आदाब चचाजान’’ कह कर मैं अब्बू की तरफ मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अब्बू, मैं शाम तक कमरे तैयार करवा दूंगी. अभी जा रही हूं, देर हुई तो मेरी क्लास छूट जाएगी.’’

खुदा हाफिज कह कर मैं सीढि़यां उतर कर चली गई. चचाजान और अब्बू हाथ हिलाते रहे. वापस आते ही मैं ने सब से पहले कमरे साफ करवाए. फूलों वाली नई चादर बिछाई, गुलदानों में नए फूल सजाए. टेबल पर अपने हाथ का कढ़ा हुआ मेजपोश बिछाया, उस पर पानी से भरा जग और नक्काशीदार ग्लास रखा.

नीचे आई तो लगा कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. मेरे कपड़े और मलिन सा चेहरा धूल से भरे हुए थे. पर मैं करती भी तो क्या, दस्तक तेज होती जा रही थी. मैं ने फाटक खोल दिया.

बाहर एक युवक खड़ा था. वह अपना परिचय देते हुए बोला, ‘‘मैं अनवर.’’

कसरती जिस्म, स्याह घुंघराले बाल, उसे देख मैं तो पलक झपकना ही भूल गई. लगा जैसे किसी ने सम्मोहन सा कर दिया हो. ‘‘आइए तशरीफ लाइए.’’ कह कर मैं ने चुन्नी सर पर डाल ली. फिर उसे कमरे में ले गई.

कमरे की सजावट देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘ओह, तो आप कमरे की सफाई कर रही थीं, बहुत सुंदर सजाया है.’’

‘‘सुबह चचाजान से मुलाकात हुई, पता चला आप को हौस्टल में जगह नहीं मिली.’’ मैं ने कहा, ‘‘इसी बहाने हमें आप की खिदमत का मौका मिल जाएगा.’’

‘‘नाहक ही आप को परेशान किया, माफ कीजिएगा. जैसे ही वहां कमरा मिलेगा, मैं चला जाऊंगा.’’ अनवर ने कहा तो मैं बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हैं आप? यह तो हमारी खुशकिस्मती है कि आप हमारे गरीबखाने पर तशरीफ लाए.’’

‘‘आप को एक तकलीफ और दूंगा, अगर एक कप चाय मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’

‘‘ओह श्योर.’’ कह कर मैं तेजी से जीना उतरने लगी, उस वक्त मेरा दिल मेरे ही बस में नहीं था.

मैं ने उसे चाय ला कर दे दी. उस दिन बात वहीं खत्म हो गई. फिर भी न जाने क्यों मैं उसे ले कर खुश थी.

अनवर को हमारे यहां रहते लंबा वक्त गुजर गया. मैं उस का और उस की हर चीज का ध्यान रखती. उस की गैरहाजरी में उस का कमरा सजाती. अपनी ड्रैसेज पर भी खूब ध्यान देती. उस के सामने बनसंवर कर जाना, मुझे अच्छा लगता था. वह भी ऐसी ही कोशिश करता था.

मुझ में आए बदलाव पर अम्मी ने कभी भी ध्यान नहीं दिया. इस की वजह थी अब्बू का देर से घर आना. भाईभाभी अमेरिका में थे, जबकि अम्मी का ज्यादातर वक्त किटी पार्टियों में गुजरता था. घूमनेफिरने की शौकीन अम्मी को मुझ पर नजर रखने का वक्त ही नहीं मिलता था.

मैं और अनवर यूनिवर्सिटी में आतेजाते अकसर आमनेसामने पड़ जाते थे. कभी टैगोर लायब्रेरी में, कभी बौटेनिकल गार्डन में. वह जब भी मुझे देखता, उस की प्यासी नजरें कुछ पैगाम सा देती नजर आतीं. एक दिन सुबहसुबह जब मैं उस के कमरे में चाय देने गई, तो उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सलमा, क्या हम दोस्ती के लायक भी नहीं हैं?’’

यह मेरे लिए अप्रत्याशित जरूर था, लेकिन मेरे मन के किसी कोने में दबी तमन्नाओं को जैसे पंख मिल गए और मैं आसमान में उड़ने लगी. कब से दबा कर रखी चाहत ने जोर मारा तो एक झटके में मन के सभी बंधन टूट गए.

उस दिन आसमान पर कालेकाले बादल छाए थे. इतवार का दिन था, मैं ने हलका मेकअप कर के फिरोजी रंग का गरारा, कुरता और फिरोजी चूडि़यां पहनी. दरअसल उस दिन मेरी खास फ्रैंड नसीमा आने वाली थी.

अम्मी तैयार हो कर निकलते हुए बोलीं, ‘‘सलमा, मैं आज पिक्चर जा रही हूं, सभी किटी मैंबर हैं. बुआ से लंच बनवा दिया है, जल्दी ही आऊंगी. ऊपर भी लंच बुआ दे आएंगीं. वह 2 बजे दोबारा आएंगी.’’

अम्मी के जाते ही मैं यह सोच कर खुशी से उछल पड़ी कि आज नसीमा से खूब दिल की बातें करूंगी.

मैं चाय ले कर ऊपर गई तो अनवर कुछ रोमांटिक मूड में लगा. मैं ने चाय रखी तो वह मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘आज तो आप कयामत लग रही हैं. क्या करूं, मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं.’’

मैं कुछ सोच पाती, इस से पहले ही अनवर ने मुझे बाहों में भर लिया. उस की बाहों में मुझे जन्नत नजर आ रही थी. लेकिन तभी जैसे जलजला सा आ गया. मेरे पांवों के नीचे से जमीन निकल गई.

सामने अम्मी रौद्र रूप में खड़ी थीं. वह जोर से चीख कर बोलीं, ‘‘भला हुआ जो मैं अपना पर्स भूल गई थी, वरना इस नौटंकी का पता ही नहीं चलता. इसे कहते हैं आस्तीन का सांप. जिसे फ्री में खिलापिला रहे हैं, वही हमें डंस रहा है. हम ने तुम्हें पनाह दी थी और तुम ने ही हमारा गिरेबां चाक कर दिया. जाओ, चले जाओ यहां से. यहां गुंडे मवालियों का कोई काम नहीं है.’’

मैं और अनवर दोनों ही अपराधियों की तरह मुंह लटकाए खड़े थे. अम्मी बहुत गुस्से में थीं. वह अनवर का सामान उठाउठा कर नीचे फेंकने लगीं. जरा सी देर में सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया. अनवर गुनहगार बना खामोश खड़ा था, उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे. अब जाना ही उस के लिए बेहतर था. उस ने खामोशी से अपना सामान समेटा और टैक्सी स्टैंड की ओर निकल गया.

वह तो चला गया पर मेरी जिंदगी में तूफान बरपा गया. उस के जाने के बाद अम्मी ने मोहल्ले वालों से कह दिया कि किराया नहीं देता था, कब तक रखती.

अम्मी ने मुझे खूब मारा, लेकिन उन की मार मेरे प्यार की आग को बुझा नहीं सकी. एक दिन अनवर मेरे सोशियोलौजी सोशल वर्क डिपार्टमेंट के आगे खड़ा था. रूखे बाल, उदास चेहरा. मैं दौड़ कर उस के पास जा पहुंची और उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोली, ‘‘यह क्या हाल बना रखा है अनवर, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकती.’’

अनवर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘यूनिवर्सिटी के पास ही एक कमरा लिया है, अम्मी भी आई हुई हैं. मैं ने उन्हें तुम्हारे बारे में सब कुछ बता रखा है. अम्मी मेरी दुलहन को देखना चाहती हैं. 2 मिनट के लिए चल सकोगी? अम्मी हमारी शादी का कोई रास्ता निकालना चाहती हैं.’’

अनवर की आवाज में जो दर्द था, उसे देख मैं रो पड़ी और उस के पीछेपीछे चल दी.

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 1

ठंडी बर्फीली हवा के झोंके तन को भिगो रहे थे, मन की उड़ान सातवें आसमान को छू रही थी. पहाड़ों की शीतलता का अहसास, बादलों से आंखमिचौली करती गुनगुनी धूप, सब कुछ बहुत दिलकश था. चीड़ और देवदार के वृक्षों के इर्दगिर्द चक्कर काटते धुंधभरे बादलों को देख कर हम दिल्ली की तपती गर्मी को भूल गए थे. होटल की लौबी से जब मैं नैनी झील पर तैरती रंगबिरंगी कश्तियां देखती तो सोचती उन पर बैठे हर शख्स की जिंदगी कितनी हसीन है.

क्यारियों में खिले रंगबिरंगे फूल और उन पर मंडराती तितलियां मन को कल्पनालोक की सैर करा रही थीं. लौबी से अंदर आ कर मैं कमरे का जायजा लेने लगी. तभी वेटर चाय और गरमगरम पकौडे़ ले आया. जब हम चाय पी रहे थे तभी मेरी नजर मेराज पर पड़ी. उन की आंखों में मुझे प्यार का सागर लहराता नजर आया. जिस चाहत भरी नजर के लिए मैं सालों से तरसती रही थी, आज वही नजर मुझ पर मेहरबान सी लगी.

सचमुच हम दोनों जिंदगी की भीड़ में गुम हो गए थे. देवर और ननदों को संभालने और बड़ा करने की जिम्मेदारी में शायद हम यह भी भूल गए थे कि हम पतिपत्नी भी हैं. अचानक मेराज उठे और शौल ला कर मेरे कंधों पर डाल दी. मैं ताज्जुब से सिहर सी गई. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि जिस ने सालों से मेरी परवाह नहीं की, वह आज मुझे सपनों के शहर में ले आया था. अचानक मेराज मुझ से बोले, ‘‘फ्रेश हो जाओ, नीचे लेक पर चलते हैं, फिर कहीं बाहर डिनर करेंगे.’’

यह एक तरह से मेरे लिए सरप्राइज था. मैं जल्दी से तैयार हो गई. होटल से लेक तक काफी लंबी ढलान थी, मेरे कदम उखड़ रहे थे. तभी मेराज ने मेरा बर्फ सा ठंडा हाथ थाम लिया. उन की गरम गुदगुदी हथेली में अपना हाथ दे कर मुझे ऐसा लगा जैसे भूल से किसी ने मुझे कतरा भर इज्जत बख्श दी हो.

उस दिन जो हो रहा था, वैसा कभी नहीं हुआ था. मैं और मेराज कश्ती में बैठ कर देर शाम तक नैनी झील में हवा से उठतीबैठती लहरों का आनंद लेते रहे. हां, हमारे बीच बातचीत कोई नहीं हुई. दोनों ही एकदूसरे की जगह दूसरे जोड़ों को देखते रहे. इस बीच मेराज ने 2-3 बार मुझे कनखियों से जरूर देखा था. हमारा यह नौका विहार रूमानी भले ही नहीं था, फिर भी बहुत अच्छा लगा. जब अंधेरा घिरने लगा तो हम डिनर के लिए एक अच्छे होटल में चले गए.

होटल रंगीन रोशनियों से दमक रहा था, इत्र की खुशबू से सराबोर. आसमानी लिबास और पुराने डिजाइन के गहनों में मैं बहुत दिलकश लग रही थी. डिनर के दौरान मेराज एकटक मुझे देखे जा रहे थे. उन की आंखों की गहराइयों में न जाने ऐसा क्या था कि मैं अंदर तक पिघलती जा रही थी. मेरे जीवन से जो खुशी विदा ले चुकी थी, वह दोबारा दस्तक देती सी लग रही थी.

‘‘तुम बहुत प्यारी हो सलमा’’ मेराज के थरथराते होंठों से निकले शब्दों को सुन कर मुझे लगा जैसे मैं किसी और ही लोक में हूं. जिन अल्फाजों को सुनने के लिए मैं सालों से तरस रही थी, वह मेरे कानों में शहद घोल रहे थे.

जीने के लिए खुशी के दो पल भी काफी होते हैं. मुझे लग रहा था जैसे मेराज के शब्द पहाडि़यों से टकरा बारबार मेरे कानों तक आ रहे हों. जिस तरह तितलियां मौन रह कर भी संगीत पैदा करती हैं, वैसे ही मेराज के हावभाव मेरे इर्दगिर्द संगीतमय माहौल पैदा कर रहे थे.

जब से हमारा निकाह हुआ, मैं ने मेराज को गुस्से में ही पाया था. बातबात पर मुझे बेइज्जत करना, मेरे घर वालों को उलटासीधा कहना, मेरी तरफ घूर कर देखना, मुझ पर मालिक की तरह हुक्म चलाना, उन की आदत में शामिल था. मैं ने उन्हें कभी हंसते हुए नहीं देखा था. उन के साथ मैं ने कई साल बड़ी खामोशी के साथ गुजारे थे.

मेराज सभी से ठीक से पेश आते थे लेकिन जैसे ही मुझ से निगाह मिलती, एक संजीदगी भरी उदासी उन के चेहरे पर उतर आती थी.  फिर हमारे बीच एक सर्द धुआं सा फैल जाता था और यह आपे से बाहर हो जाते थे. अपने लिए उन की आंखों में छाई नफरत मुझ से बरदाश्त नहीं होती थी. कई बार तो मैं रोने बैठ जाती थी.

वक्त गुजरते देर नहीं लगती. वह आ कर कब चला जाता है, पता नहीं चलता. हां, वक्त अपने पीछे ढेरों कहानियां जरूर छोड़ जाता है. मेरे देवर मोहम्मद रजा सैफ ने शायद मेरे दर्द को समझ लिया था. जब वह किशोर थे तभी से मेरी उदासी और नम आंखों के दर्द को पढ़ने लगे थे. जब वह जवान हो गए और बिजनैस संभालने लगे तो उन्होंने अपनी प्यारी भाभी यानी मुझे कुछ सुकून पहुंचाना चाहा. इसीलिए उन्होंने जबरन टैक्सी करवा कर हमें यहां भेज दिया था. होटल की बुकिंग भी रजा ने कराई थी.

डिनर के बाद मेराज के मन में न जाने क्या आया कि मेरा हाथ थाम कर बोले, ‘‘अभी और घूमने का मन है, चलो फिर से झील में चलते हैं. रोशनी और अंधेरे के समीकरण में कश्तियों में घूमने का अलग ही मजा है.’’

मैं भला क्यों मना करती. मेरा मन तो चाह रहा था कि वह रात भर मेरे साथ घूमते रहें.  हम लेक किनारे खड़ी बोट पर बैठ गए. कुछ ही देर पहले बारिश हुई थी. हवा अब भी चल रही थी, जिस के वेग से बोट हिल रही थी. लहरें इतनी ऊपर तक आ रही थीं कि उन का आक्रामक रूप देख कर डर लग रहा था. एक जगह रोशनी देख मैं ने झील में झांका तो अपना ही अक्स डरावना सा लगा.

मेरी कहानी एक औरत के अपमान की कहानी थी. ऐसी औरत की कहानी जो सालों से अपने ही हमसफर के हाथों अपमान की शिकार होती रही थी. पुरुष कभी पिता बन कर, कभी पति बन कर, कभी भाई बन कर तो कभी बेटा बन कर औरत को अपमान की भट्ठी में जलाता रहा है. मेराज ने मुझे मेरा ही हमनवा बन कर अपमान की आग में जलाया था.

झील के हिलते हुए पानी में अपना बदसूरत सा अक्स देख कर मेरी आंखें भर आईं. मेरी आंसुओं भरी आंखों से मेराज कभी नहीं पसीजे थे. लेकिन उस तनहाई में अचानक बोले, ‘‘सलमा, मैं ने तुम्हारे साथ जो सुलूक किया, उस के लिए मैं ताउम्र शर्मिंदा रहूंगा.’’

फिर अचानक उन्होंने मेरी कमर में हाथ डाल कर मुझे अपने सीने में छिपा लिया. मेराज का गला भर आया था, आंखें नम थीं. कुछ ठहर कर उन्होंने फिर कहा, ‘‘सालों से मेरे दिल पर एक बोझ है, जिसे मैं आज सुकून भरे इन लम्हों में मन से उतार देना चाहता हूं. मैं जानता हूं तुम बेहद खूबसूरत हो, जहीन हो. फिर भी शादी के बाद से आज तक मैं तुम्हें वैसा प्यार नहीं कर सका, जैसा मुझे करना चाहिए था. तुम्हें देखते ही मेरे मन में नफरत की एक सर्द लहर सी दौड़ जाती थी. इसी वजह से मैं तुम्हारे दामन में चाहत का कोई फूल नहीं डाल सका.’’

‘‘आप को खुश रखूं, आप के लिए दुआएं मांगू, मेरे जीने का तो बस यही एक मकसद है. फिर भी मैं उस वजह को जानने के लिए बेताब हूं, जिस की मुझे इतनी लंबी सजा मिली.’’ कह कर मैं हैरानी से मेराज को देखने लगी. मेरे सवाल के जवाब में मेराज ने जो कुछ बताया, उसे सुन कर मैं सन्न रह गई. सर्दी के बावजूद मेरा बदन पसीनेपसीने हो गया.

शराफत का इनाम