पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 3

उस हादसे को कई साल बीत गए थे. लेकिन आज अचानक रजत के रूप में मयंक सुरबाला के सामने आ गया था. सुरबाला अभी पुरानी यादों से उबर भी नहीं पाई थी कि उस का मोबाइल बज उठा. उस ने उठने की कोशिश करते हुए मोबाइल कान से लगाया.

‘‘सुरबालाजी,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘त्रिलोचन बोल रहा हूं, आप सुन रही हैं न?’’

‘‘जी, जी हां.’’

‘‘आप की जान को खतरा है. अपने कमरे के दरवाजे और खिड़कियां ठीक से बंद कर लीजिए और बाहर मत निकलिएगा.’’ इस के साथ ही संपर्क टूट गया. सुरबाला चेतावनी को ठीक से समझ भी नहीं पाई थी कि उस ने किसी को अंदर आते देखा. उस काली छाया के हाथ में हथियार जैसी कोई चीज मौजूद थी. सुरबाला भयभीत हो कर जोर से चीखी और गिरती पड़ती दूसरे दरवाजे से निकल कर सीढि़यों की ओर भागी. छाया हथियार ताने हुए उस के पीछे झपटी. लेकिन सास के कमरे में चली जाने की वजह से वह बच गई.

त्रिलोचन के 2 बेटे थे, नीरव और विप्लव. उन्होंने उन दोनों को अपने जासूसी के पेशे से जोड़ रखा था. विप्लव और नीरव अपनेअपने तरीके से पिता की मदद करते थे.

नीरव ने अपने सामने बैठे व्यक्ति का गौर से मुआयना किया और अपने शब्दों पर जोर देते हुए बोला, ‘‘मेजर चौहान, आप उस रात कहां थे जिस समय मयंक की हत्या हुई थी?’’

‘‘अपने घर पर, और कहां?’’

‘‘लेकिन हमारी तफ्तीश बताती है कि आप उस रात सुखनई के जंगल में मौजूद थे…’’ नीरव ने देखा, चौहान चौंक गए थे. नीरव ने बिना मौका दिए अगला सवाल दाग दिया, ‘‘क्या करने गए थे वहां?’’

‘‘शिकार…’’

‘‘जानवर का या इंसान का?’’

‘‘व्हाट डू यू मीन?’’ मेजर तैश में आ कर चिल्ला पड़े, ‘‘ठीक है, आप जासूस हैं. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि आप मेरे ऊपर कोई भी आरोप लगा दें.’’

नीरव पर उन के चिल्लाने का कोई असर नहीं पड़ा. उस ने अपने बैग में हाथ डाल कर एक रिवाल्वर निकाली और सामने पड़ी मेज पर रख दी. रिवाल्वर बुरी तरह जंग लगी हुई थी. उसे देख मेजर के चेहरे पर विचित्र भाव उभर आए.

‘‘यह हथियार हमें उसी जंगल में मिला है और मुझे यकीन है कि यह आप का वही लाइसेंसी रिवाल्वर है, जिस की गुमशुदगी की रिपोर्ट आप ने जीतपुर थाने में दर्ज कराई थी. इस के चैंबर में अभी भी 2 खाली कारतूस मौजूद हैं. निस्संदेह आप को इस बात की जानकारी होगी कि उस रात उस जंगल में एक इंसान की जान चली गई थी.’’

मेजर के चेहरे का रंग उड़ गया, वह कुर्सी पर गिर से पड़े. नीरव ने उन से पूछताछ जारी रखी.

बरामदे में बैठे चाय पी रहे त्रिलोचन सामने बैठी पत्नी से पूछा, ‘‘विप्लव कहां है?’’

‘‘साहबजादे सो रहे हैं.’’

‘‘आप उसे बिगाड़ रही हैं, यह कोई सोने का वक्त है?’’ त्रिलोचन को गुस्सा आ गया. वह चाय का प्याला थामे विप्लव के कमरे में जा पहुंचे. उन्होंने झटके से बेटे के ऊपर से चादर खींच ली. उसी वक्त गर्म चाय की कुछ बूंदें छलक कर विप्लव की पीठ पर गिर गईं.

‘‘आ…’’ विप्लव बौखला कर उठ बैठा और अपनी पीठ सहलाने लगा.

‘‘मैं ने तुम्हें एक काम दिया था?’’

‘‘डैड, आज आप का काम हो जाएगा. लेकिन रिमाइंड करवाने का आप का यह तरीका कुछकुछ पुलिसवालों की थर्ड डिग्री जैसा है. प्लीज, आगे से ऐसा मत करिएगा.’’

त्रिलोचन मुसकुराते हुए बाहर निकल गए. चाय का प्याला उन्होंने मेज पर रखा और अपना बैग ले कर चले गए. उन का रुख बर्नेट अस्पताल की ओर था. अस्पताल में त्रिलोचन को अपने टारगेट तक पहुंचने में देर नहीं लगी.

‘‘बड़े मियां, मैं ने सुना है कि आप शायरी बहुत अच्छी करते हैं.’’ त्रिलोचन ने बर्नेट अस्पताल के उस बूढ़े क्लर्क की तारीफ की. साथ ही वह बारीकी से उस रजिस्टर के पन्ने भी निहार रहे थे, जिस के आधे से ज्यादा पृष्ठ जर्जर हो गए थे.

‘‘अमां लानत भेजिए हुजूर.’’ वह रद्दी की टोकरी में पीक थूकता हुआ बोला, ‘‘कम्बख्त यह भी कोई करने लायक काम है.’’

त्रिलोचन समझ गए कि जश्न अली बहुत काइयां है और उन के ऊपर निगाह जमाए हुए है. उस के रहते कुछ संभव नहीं होगा.

‘‘मुआफ करिएगा, एक जरूरी फोन आ रहा है.’’ त्रिलोचन मोबाइल कान से लगाते हुए बाहर निकल गए. बाहर आ कर उन्होंने अपने घर का नंबर डायल किया. मिनट भर बाद शैलजा ने फोन उठाया तो वह धीरे से बोले, ‘‘एक लैंडलाइन नंबर लिख लो और इस नंबर पर फोन कर के फोन उठाने वाले को कुछ देर उलझाए रखो.’’

पलभर बाद ही अंदर के कमरे में रखा टेलीफोन बज उठा. घंटी की आवाज सुन कर जश्न अली बुदबुदाया, ‘‘लीजिए, यह कम्बख्त भी घनघनाने लगा.’’

त्रिलोचन इसी मौके की ताक में थे, उन्होंने साथ लाए कैमरे से उस खास पेज का फोटो ले लिया.

विप्लव धुरंधर के सामने बैठा था. धुरंधर के चेहरे पर नागवारी के भाव थे. उन्होंने विप्लव को घूर कर देखा और नाराजगी भरे स्वर में बोले, ‘‘आप का पूरा परिवार ही हमारे पीछे पड़ गया है. पहले आप के पिताजी ने अच्छीखासी नौटंकी की, अब आप आ गए.’’

‘‘नौटंकी कौन कर रहा है, यह जल्दी ही पता चल जाएगा. फिलहाल तो यह बताइए कि आप अपनी भाभी सुभाषिनीजी को कब से जानते हैं?’’

‘‘जब से बड़े भैया से उन की शादी हुई.’’ धुरंधर ने बेलाग जवाब दिया.

‘‘पक्का?’’

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’

‘‘मैं कहना यह चाहता हूं…’’ विप्लव ने धुरंधर के चेहरे पर नजर जमा दी, ‘‘कि आप दोनों उस से भी काफी पहले से एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘यह आप के दिमाग की उपज है?’’

‘‘नहीं जी, मेरा दिमाग इतना उपजाऊ कहां है. यह तो लखनऊ के उस कालेज की पत्रिका की उपज है, जहां आप दोनों साथसाथ पढ़ते थे.’’ विप्लव ने हाथ में थामी हुई पत्रिका खोल कर धुरंधर के आगे रख दी. बीच के पन्ने पर एक समूह फोटो छपी थी, जिस में सुभाषिनी और धुरंधर पासपास खड़े थे. फोटो देख कर धुरंधर की निगाह झुक गई. विप्लव ने धुरंधर से कई बातें पूछीं और लौट आया.

हफ्ता भर बाद बलराम तोमर ने अपने हवेलीनुमा घर में शानदार दावत का आयोजन किया. जिस बड़े हाल में आयोजन था, उस के बीचोबीच एक बड़ा सा बैनर लगा था, जिस में लिखा था, ‘मयंक तुम्हारे आने की खुशी में आज पूरा घर खुश है.’

रजत अपने मातापिता के साथ बैठा मुसकरा रहा था. उस ने धुरंधर के बेटे सुकुमार से दोस्ती कर ली थी और उस से बतिया रहा था. सुरबाला की नजर त्रिलोचन पर पड़ी तो वह तुरंत उन के पास आ पहुंची. उस के हाथ में प्लास्टर बंधा हुआ था.

‘‘उस दिन आप की मेहरबानी से बच गई, सीढि़यों से गिरने पर हाथ जरूर टूटा गया, लेकिन जान…’’

‘‘खतरा अभी टला नहीं है.’’ त्रिलोचन के स्वर में उस के लिए चेतावनी थी.

‘‘मैं उस दिन से सासू मां के साथ ही सोती हूं.’’

रात के 10 बजतेबजते खानापीना खत्म हो गया.

‘‘आज सब को यहीं विश्राम करना है.’’ बलराम तोमर ने मेहमानों से कहा तो त्रिलोचन बोले, ‘‘हम आप से माफी चाहते हैं, एक जरूरी काम है, जिसे रात में खत्म करना है, वरना हम ठहर जाते.’’

त्रिलोचन ने तोमर साहब से अनुमति ली तो नीरव और विप्लव भी उठ खड़े हुए.

‘‘और हां, आप सब के लिए एक आवश्यक सूचना है.’’ त्रिलोचन ने पलटते हुए घोषणा की, ‘‘रजत को अपने पिछले जन्म की वे तमाम बातें भी याद आ गई हैं, जिन पर अभी तक परदा पड़ा हुआ था. इस सब पर हम कल चर्चा करेंगे. मेहरबानी कर के इस बारे में रजत को अभी तंग न करें.’’

त्रिलोचन अपने दोनों बेटों विप्लव और नीरव के साथ चले गए.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 2

आगे वाली गाड़ी से रजत, उस के मातापिता तथा त्रिलोचन के उतरते ही पत्रकारों और टीवी चैनलों के रिपोर्टरों ने घेर लिया. रजत को देखने वालों की भीड़ पत्रकारों से ज्यादा बेताब थी तभी पुलिस की जीप आ पहुंची. जीप के रुकते ही कई सिपाही फुर्ती से उतरे और लोगों को धकियाते हुए रास्ता बनाने लगे.

‘‘चाचाजी, मुझे माफ करिएगा.’’ इंसपेक्टर अनिल ने आगे बढ़ कर त्रिलोचन का रास्ता लगभग रोकते हुए कहा, ‘‘मैं आप को यह सब नहीं करने दूंगा.’’

‘‘क्या नहीं करने देंगे इंस्पेक्टर साहब?’’ त्रिलोचन ने हैरानी से पूछा.

‘‘इस तरह से किसी के घर में घुसना गलत है, अतिक्रमण है यह…’’

‘‘इन लोगों को गिरफ्तार कर लीजिए दरोगाजी, ये हमारे खिलाफ साजिश करने आए हैं…’’ अचानक एक तेज आवाज गूंज उठी. त्रिलोचन ने मुड़ कर देखा, सफेद कुर्ता धोती पहने ऊंचातगड़ा एक आदमी भीड़ को चीर कर उन के सामने आ खड़ा हुआ. उस ने कंधे पर दोनाली बंदूक टांग रखी थी. त्रिलोचन और अनिल कुछ कहने ही वाले थे कि रजत अपनी मां से हाथ छुड़ा कर दौड़ा और उस व्यक्ति से जा कर लिपट गया.

‘‘चाचा, मैं आ गया…’’ रजत की आवाज में खुशी उमड़ी पड़ रही थी. वह व्यक्ति कुछ कहता या पूछता, इस के पहले ही रजत अपने मातापिता से मुखातिब हुआ, ‘‘मम्मी… पापा… ये मेरे चाचा हैं. धुरंधर चाचा.’’

धुरंधर तोमर के चेहरे पर हैरानगी उभर आई. वह चाह कर भी बच्चे को झिड़क नहीं सके.

‘‘आप ने इस बच्चे को आज से पहले कभी देखा है?’’ इंसपेक्टर अनिल ने पूछा.

‘‘नहीं, कभी नहीं.’’ धुरंधर के मुंह से निकला.

‘‘इस के मांबाप को जानते हैं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो फिर यह आप को कैसे जानता है?’’ धुरंधर कुछ कह पाते, इस के पहले ही एक महिला टीवी रिपोर्टर की आवाज गूंज उठी, ‘‘देखा आप ने, रजत यानी मयंक ने अपने पिछले जन्म के चाचा को पहचान लिया है.’’

‘‘जाहिर है, आप मुझे भी नहीं जानते?’’ त्रिलोचन धुरंधर की ओर उन्मुख हुए.

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘तो फिर आप किस आधार पर कह रहे हैं तोमर साहब कि आप के खिलाफ ये लोग साजिश कर रहे हैं?’’ इंसपेक्टर अनिल ने कहा.

‘‘यह तमाशा साजिश नहीं तो और क्या है?’’ धुरंधर को गुस्सा आ गया.

‘‘तो फिर आप इस का पर्दाफाश क्यों नहीं कर देते?’’ त्रिलोचन के स्वर में चुनौती थी.

‘‘मैं ने पुलिस को इसीलिए यहां बुलाया है.’’

‘‘तो ठीक है, पुलिस के सामने सारी जांचपड़ताल हो जाने दीजिए, सच्चाई सामने आ जाएगी.’’ कहते हुए त्रिलोचन अनिल की ओर मुड़े, ‘‘अगर यह सचमुच पूर्वजन्म का मयंक है तो यह इस अंजान गांव में हम सब को अपने पिछले जन्म के घर जरूर ले चलेगा.’’

अनिल ने मौन सहमति दी.

‘‘मयंक, अपने घर चलो.’’ त्रिलोचन का इशारा पाते ही रजत बेधड़क एक ओर बढ़ गया. उस के पीछे विशाल जनसमुदाय था.

सचमुच कमाल हो गया. रजत बेखौफ अपने पूर्व जन्म के घर में जा घुसा. उस ने अपने मातापिता यानी बलराम तोमर और सुभाषिनी को न केवल पहचाना, बल्कि उन से लिपट कर खूब रोया भी. उस ने अपनी चाची यानी धुरंधर तोमर की पत्नी सुखदेवी और दूसरे परिजनों को भी आसानी से पहचान लिया.

हद तो तब हो गई, जब उस ने सैकड़ों लोगों के बीच बैठी अपनी पत्नी सुरबाला को जा पहचाना. फिर भी सुरबाला को यकीन नहीं हुआ, धुरंधर तोमर की तरह उस के भी मन में अविश्वास के बादल घुमड़ रहे थे.

‘‘मुझे ऐसे विश्वास नहीं होगा. मुझे ऐसी कोई बात बताओ, जिसे मेरे अलावा सिर्फ मेरे पति जानते थे.’’ उस की अविश्वास भरी नजरें रजत के मासूम चेहरे पर ठहर गईं.

वह कई पलों तक कुछ सोचता रहा, फिर अचानक बोला, ‘‘तुम्हारी पीठ पर नीचे की ओर दाहिनी तरफ एक तिल है.’’

सुन कर सुरबाला भौंचक्की सी रह गई. यह सुन कर वहां मौजूद तमाशबीनों के मुंह भी खुले रह गए. फिर न जाने क्या हुआ कि सुरबाला रजत को गोद में उठा कर रो पड़ी.

‘‘तुम मुझे छोड़ कर क्यों चले गए थे…?’’ उस के आंसू उमड़उमड़ कर बहने लगे.

सब से मिलनेमिलाने के बाद रजत उसी शाम अपने मातापिता के साथ शहर लौट गया. वह सुरबाला से वादा कर गया था कि अगले हफ्ते फिर आएगा. उस रात बलराम तोमर के घर में कोई नहीं सो पाया. रजत अनेक झंझावात छोड़ गया था, जिन्होंने तोमर परिवार को सारी रात जगाए रखा.

बलराम तोमर खानदानी रईस थे. दोनों भाइयों का संयुक्त परिवार था. तीन सौ एकड़ जमीन के अलावा एक चीनी मिल भी थी. दोनों भाइयों के बीच सिर्फ एक चश्मओचिराग था, धुरंधर तोमर का 6-7 वर्षीय पुत्र सुकुमार. रजत उसे इसलिए नहीं पहचान पाया था, क्योंकि उस का जन्म मयंक की मौत के कई सालों बाद हुआ था.

मयंक की मौत की वह रात सुरबाला को आज भी ज्यों की त्यों याद थी.

तोमर परिवार ने एक एडवेंचर प्रोग्राम बनाया था, जिस में महिलाओं को भी शामिल किया गया था. उसी के तहत सुरबाला अपने पति, सासससुर व चचिया ससुर धुरंधर के साथ शिकार पर गई थी. यह उस के लिए पहला और आखिरी एडवेंचर था. सुखनई के जंगल में उन दिनों एक आदमखोर तेंदुए ने आतंक मचा रखा था. वह 20 किलोमीटर के दायरे में कई इंसानी जिंदगियां लील चुका था. इसी वजह से सरकार ने तोमर परिवार को उसे मारने की इजाजत दे दी थी.

तेंदुए को मारने के लिए तोमर परिवार ने जंगल में तीन मचान बनाए थे. अंधेरा घिरतेघिरते सभी लोग मचानों पर चढ़ कर बैठ गए. नीचे चारे के तौर पर एक बकरा बांध दिया गया था.

जिस मचान पर सुरबाला और मयंक बैठे थे, उस के ठीक सामने वाले मचान पर उस के सासससुर यानी बलराम तोमर और सुभाषिनी बैठे थे. धुरंधर तोमर का मचान उन से लगभग 20 फुट दूर बाईं ओर था. तीनों मचानों के नीचे बंधा बकरा साफ नजर आ रहा था, लेकिन जैसेजैसे अंधेरा घिरता गया, बकरे का अक्स धूमिल होता गया.

रात गहराने लगी थी, सुरबाला की पलकें नींद से बोझिल हो गई थीं. वह अपने आप को जगाए रखने की भरसक कोशिश कर रही थी. बकरा पता नहीं क्यों खामोश हो गया था. तभी अचानक गोली चलने, तेंदुए के गरजने और मयंक के नीचे गिरने की घटनाएं एक साथ घटीं.

तेंदुआ मयंक को बुरी तरह झंझोड़ने में लगा था. इतना दिल दहलाने वाला दृश्य था कि सुरबाला के हाथ से टार्च छूट कर नीचे गिर गई. इस के बाद किसी ने गोली नहीं चलाई. तेंदुआ मयंक को खींचता हुआ जंगल में गायब हो गया. जब उन लोगों को होश आया तो ताबड़तोड़ हवाई फायरिंग की गई. लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. रात भर उन लोगों की नीचे उतरने की भी हिम्मत नहीं हुई.

सुबह उन लोगों ने मयंक की तलाश में वन विभाग और पुलिस वालों के साथ पूरा जंगल छान मारा, लेकिन नाकामी ही हाथ लगी. सुरबाला का रोरो कर बुरा हाल था. बाद में भी काफी खोजबीन की गई, पर मयंक की लाश नहीं मिली.

पुनर्जन्म : कौन था मयंक का कातिल? – भाग 1

खबर चौंकाने वाली थी इसलिए उन्होंने अखबार को कस कर पकड़ते हुए उसे फिर से पढ़ना शुरू किया. वह ‘मयंक ने पुनर्जन्म  लिया.’ शीर्षक को उन्होंने 2-3 बार पढ़ा.

खबर में छपा था, ‘शहर के कपड़ा व्यवसायी मनोहर अग्रवाल का 6 वर्षीय पुत्र रजत अपने आप को पूर्व जन्म का मयंक बताता है. उस का कहना है कि वह पिछले जन्म में नाहरगढ़ निवासी बलराम तोमर का पुत्र मयंक था. सुबूत के तौर पर उस ने कई घटनाएं बयान की हैं. उस का कहना है कि उस का घर नाहरगढ़ में है और उस के मातापिता और पत्नी सुरबाला उस का इंतजार कर रही होंगी. वह रोजाना नाहरगढ़ जाने की जिद करते हुए अपने मांबाप से कहता है कि अगर उसे उस के असली घर नहीं पहुंचाया गया तो वह खुद ही वहां चला जाएगा.’

तोमर साहब इस के आगे नहीं पढ़ सके. वह अखबार थामे घर के अंदर दौड़े.

‘‘अरे कहां हो तुम…’’ उन्होंने असंयत आवाज में अपनी पत्नी सुभाषिनी को पुकारा, ‘‘जरा यह समाचार पढ़ो.’’ वह ड्राइंगरूम में दाखिल हुए तो सुभाषिनी टीवी देखने में तल्लीन थीं.

‘‘टीवी बाद में देखना, पहले यह खबर पढ़ो.’’ तोमर साहब ने अखबार पत्नी के आगे फैला दिया.

‘‘आप पहले टीवी देखिए…’’ सुभाषिनी ने अखबार पर ध्यान न दे कर कंपकंपाती आवाज में कहा, ‘‘देखिए, क्या आ रहा है.’’

तोमर साहब ने अखबार को भूल कर टीवी की ओर देखा.

‘‘पुनर्जन्म की ऐसी रोमांचक घटना इस के पहले आप ने शायद ही कहीं देखीसुनी होगी.’’ टीवी पर रिपोर्टर की पुरजोर आवाज गूंज रही थी.

‘‘अद्भुत बच्चा है रजत… रजत तुम्हारा नाम क्या है?’’ रिपोर्टर ने पास बैठे बच्चे की ओर माइक बढ़ाया तो टीवी स्क्रीन पर फैले उस के चेहरे का क्लोजअप तैश से भर उठा. वह झुंझलाते हुए बोला, ‘‘कितनी बार बताऊं आप को? मैं ने कहा न, मेरा नाम रजत नहीं, मयंक है. मयंक तोमर.’’

‘‘और आप के मातापिता का नाम?’’ रिपोर्टर ने अगला प्रश्न किया.

‘‘बलराम तोमर और सुभाषिनी.’’ बच्चे ने झटके से जवाब दिया.

‘‘सुना आप ने.’’ सुभाषिनी का गला भर्रा गया, ‘‘हमारा लाडला लौट आया…’’ कहती हुई वह बाहर को भागीं. तोमर साहब स्तब्ध खड़े हुए थे. पूरा माजरा अकल्पनीय सा था.

‘‘बहू… ओ बहू…’’ सुभाषिनी ने उत्तेजित स्वर में पुकारते हुए जोरों से बाथरूम का दरवाजा खटखटाया.

मिनट भर बाद बाथरूम का दरवाजा खुला और अधभीगे कपड़ों में बाहर झांकते सुरबाला ने पूछा, ‘‘क्या हुआ अम्मां? आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

‘‘चल कर पहले टीवी देखो,’’ वह सुरबाला को लगभग घसीटती हुई ड्राइंगरूम की ओर ले गईं. टीवी पर अभी भी वही समाचार चल रहा था. तोमर साहब पूर्ववत आंखें फाड़े समाचार देख रहे थे.

संवाददाता की आवाज गूंज रही थी, ‘‘विश्वास करना कठिन है, लेकिन यह सच है कि हर तरह से यह साबित हो रहा है कि कल का मयंक ही आज का रजत है…’’

अब तक सुरबाला की भी समझ में सब कुछ आ गया था. इस खबर को देखसुन कर उस का मुंह खुला रह गया. सुभाषिनी बाहर निकल गई थीं. वह वापस लौटीं तो साथ में उन के देवर धुरंधर थे.

‘‘भाभी, आप इन टीवी वालों को नहीं जानतीं. विज्ञापन हासिल करने के लिए ये उलटीसीधी खबरें फैलाते रहते हैं. कितने दुख की बात है कि ये अंधविश्वास से लड़ने के बजाय ऐसी बातों को बढ़ावा दे रहे हैं…’’ धुरंधर तोमर भाभी के मुंह से यह खबर सुन कर गुस्से में बोले, ‘‘आप तो पढ़ीलिखी हैं फिर भी…’’

‘‘पहले आप खबर तो देख लीजिए.’’

‘‘ननकू, हमारा मयंक वापस आ गया.’’ तोमर साहब छोटे भाई को देखते ही खुशी से चिल्ला उठे.

‘‘टीवी वालों की इस बकवास से मैं सहमत नहीं हूं बड़े भैया.’’ धुरंधर बेलाग स्वर में बोले, ‘‘भाभी तो शायद अपनी ममता के चलते अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहीं, कम से कम आप तो…’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो ननकू?’’ उन्होंने छोटे भाई को झिड़कने वाले अंदाज में कहा, ‘‘टीवी वाले, अखबार वाले और वहां मौजूद सारे लोग अंधविश्वास फैला रहे हैं? और अगर इसे सच भी मान लिया जाए तो सवाल यह है कि यह बच्चा कैसे वे सारी बातें बता रहा है, जो एकदम सच हैं.’’

‘‘मुझे तो यह कोई साजिश लग रही है. जरूर इस के पीछे कोई खतरनाक इरादे वाला शख्स है.’’ धुरंधर बोले.

‘‘पहले ठीक से खबर तो देख लो ननकू. सच्चाई को समझने की कोशिश करो… आखिर वहां हमारा कौन दुश्मन बैठा है, जो साजिश…’’

‘‘इस का पता तो पुलिस लगाएगी कि वह शातिर शख्स कौन है, जिस की निगाह हमारी जायदाद पर जमी हुई है.’’

‘‘इस सब से हमारी जायदाद का क्या लेनादेना है?’’ तोमर साहब छोटे भाई की बात सुन कर हैरान हुए.

‘‘आप कितने भोले हैं बड़े भैया.’’ धुरंधर बड़े भाई की बुद्धि पर तरस सा खाते हुए बोले, ‘‘यह लड़का जो मयंक होने का दावा कर रहा है, कल को हमारी संपत्ति का वारिस नहीं बन बैठेगा?’’

तोमर साहब के माथे पर बल पड़ गए, शायद इस पहलू की ओर उन्होंने अभी तक ध्यान नहीं दिया था.

‘‘आप देखिए टीवी, मैं तो कोतवाली जा रहा हूं.’’ कहते हुए धुरंधर बाहर निकल गए.

इंस्पेक्टर अनिल कार्तिकेय ने एसपी के औफिस में प्रवेश किया तो एसपी साहब बड़े गौर से एक फाइल देख रहे थे, जिस में अखबारों की कतरनें लगी हुई थीं.

‘‘सर, आप ने मुझे बुलाया?’’ इंसपेक्टर की आवाज से उन का ध्यान भंग हो गया.

‘‘यह त्रिलोचन कौन है और उस का असली कामधंधा क्या है?’’ एसपी ने नजरें उठा कर अनिल की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘त्रिलोचन…?’’

‘‘वही जो अपने आप को जासूस कहता है…’’

‘‘अच्छा, आप त्रिलोचनजी की बात कर रहे हैं, वह बहुत सम्मानित व्यक्ति हैं सर.’’

‘‘आप का यह सम्मानित व्यक्ति एक रईस आदमी के खिलाफ साजिश कर रहा है.’’

‘‘जी?’’ इंस्पेक्टर अनिल चौंके.

‘‘ऐसा क्या किया है चाचाजी ने?’’

‘‘अच्छा तो त्रिलोचन आप के चाचा हैं?’’ एसपी की सख्त नजर इंसपेक्टर अनिल के चेहरे पर जम गई.

‘‘नहीं सर, मेरा मतलब वह…’’

‘‘सुनो इंस्पेक्टर, पुलिस की वर्दी पहनने के बाद सारे रिश्तेनाते भूल जाना चाहिए. हमारा काम है कानून तोड़ने वालों को सलाखों के पीछे भेजना.’’ एसपी का स्वर काफी सख्त था.

‘‘उन्होंने कानून तोड़ा है?’’

‘‘तोड़ने वाला है.’’ एसपी साहब इंस्पेक्टर को कतरन वाली फाइल थमाते हुए बोले, ‘‘लगता है आप को न तो अखबार पढ़ने का वक्त मिलता है, न ही टीवी देखने का.’’

‘‘जी सर, ड्यूटी के चलते कभीकभी…’’

‘‘आईसी तो कल आप को यह ड्यूटी नाहरगढ़ में करनी है, जहां त्रिलोचन पूरे तामझाम के साथ रजत नाम के लड़के को ले कर पहुंचने वाला है. वह यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि रजत नाहरगढ़ के जानेमाने व्यक्ति बलराम तोमर का पुत्र मयंक है, वह मयंक जो सालों पहले मर चुका है.’’

‘‘लेकिन सर, हमारे पास ऐसी कोई शिकायत…’’

‘‘शिकायत इसी फाइल में है.’’ एसपी ने फाइल अनिल के हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘बलराम तोमर के छोटे भाई धुरंधर तोमर ने लिखित शिकायत की है.’’

गाडि़यों का काफिला नाहरगढ़ पहुंचा तो लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. आसपास के गांवों के भी हजारों लोग आ गए थे. सभी रजत की एक झलक पाने को बेताब थे.

जुर्म है बेटी का बाप होना

प्रीति मेरी एकलौती बेटी थी, मेरे न रहने पर मेरी करोड़ों की प्रौपर्टी उसी की थी, फिर भी उस की ससुराल वालों ने पैसे के लिए ही उसे मार डाला था. कोई मैं ही अकेला बेटी का बाप नहीं हूं. मेरी तरह यह पूरी दुनिया बेटी के बापों से भरी  पड़ी है. कम ही लोग हैं, जिन्हें बेटी नहीं है. लेकिन बेटी को ले कर जो दुख मुझे मिला है, वैसा दुख बहुत कम लोगों को मिलता है. यह दुख झेलने के बाद मुझे पता चला कि बेटी होना कितना बड़ा जुर्म है और उस से भी बड़ा जुर्म है बेटी का बाप होना.

अपनी मेहनत की कमाई खाने वाला मैं एक साधारण आदमी हूं. मैं ने सारी उम्र सच्चाई की राह पर चलने की कोशिश की. हेराफेरी, चालाकी, ठगी या गैरकानूनी कामों से हमेशा दूर रहा. कभी कोई ऐसा काम नहीं किया, जिस से दूसरों को तकलीफ पहुंचती. ईमानदारी और मेहनत की कमाई का जो रूखासूखा मिला, उसी में संतोष किया और उसी में अपनी जिम्मेदारियां निभाईं.

प्रीति मेरी एकलौती बेटी थी. वह बहुत ही सुंदर, समझदार और संस्कारवान बेटियों में थी. वह दयालु भी बहुत थी. सीमित साधनों की वजह से सादगी में रहते हुए उस ने लगन से अपनी पढ़ाई की. पढ़ाई पूरी होते ही उसे बढि़या नौकरी भी मिल गई. नौकरी लगते ही मैं उस के लिए लड़के की तलाश में लग गया.

जल्दी ही मेरी तलाश खत्म हुई और मुझे उस के लायक बढि़या लड़का मिल गया. बेटी की खुशी और सुख के लिए मैं ने अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर के धूमधाम से उस की शादी की. हालांकि लड़के वालों का कहना था कि उन्हें कुछ नहीं चाहिए. उन्हें जिस तरह की पढ़ीलिखी और गुणवान लड़की चाहिए थी, प्रीति ठीक वैसी है. इसलिए उसे एक साड़ी में विदा कर दें.

लेकिन मैं बेटी का बाप था. मैं अपनी बेटी को खाली हाथ कैसे भेज सकता था. मैं ने अपनी लाडली बेटी को हैसियत से ज्यादा गहने, कपड़ा लत्ता और घरेलू उपयोग का सामान दे कर विदा किया. बारातियों की आवभगत में भी अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च किया, जिस से कोई बाराती कभी मेरी बेटी को ताना न मार सके.

शादी होने के बाद प्रीति ने नौकरी छोड़ दी थी. उस का ससुराल में पहला साल बहुत अच्छे से बीता. अपनी लाडली को खुश देख कर हम सभी बहुत खुश थे. उसी बीच प्रीति को एक कंपनी में अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गई. उस का पति पहले से बढि़या नौकरी कर रहा था.

सब कुछ बहुत बढि़या चल रहा था. अचानक न जाने क्या हुआ कि प्रीति के पति के सिर पर नौकरी छोड़ कर अपना कारोबार करने का भूत सवार हो गया. वह कारोबार कर के करोड़पति बनने के सपने देखने लगा. कारोबार के लिए उसे जितनी बड़ी रकम की जरूरत थी, उतने पैसे उस के पास नहीं थे. तब उस ने प्रीति से मदद करने को कहा.

प्रीति के पास पैसे कहां थे. उस से मदद मांगने का मतलब था, वह मायके से मोटी रकम मांग कर लाए. इस तरह प्रीति की ससुराल वाले बहाने से दहेज में मोटी रकम मांगने लगे. प्रीति हमारी बेटी थी, उसे हमारी औकात अच्छी तरह पता थी. फिर वह उसूलों पर चलने वाली लड़की थी. उस ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मैं अपने मांबाप से एक कौड़ी भी नहीं मांगूंगी, क्योंकि यह एक तरह से दहेज है और दहेज लेना तथा देना दोनों ही गैरकानूनी है.’’

प्रीति सीधीसादी लड़की थी. उस का कहना था कि पतिपत्नी जितना कमाते हैं, उस में वे आराम से अपना गुजरबसर कर लेंगे. परिवार बढ़ेगा तो तरक्की के साथ वेतन भी बढ़ेगा. इसलिए उन्हें इसी में संतुष्ट रहना चाहिए.

लेकिन प्रीति के पति के मन में करोड़ों की कमाई का भूत सवार हो चुका था. इसलिए वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं था. बस फिर क्या था, पतिपत्नी के रिश्तों में खटास आने लगी. उन के बीच दरार पड़ गई, जो दिनोंदिन चौड़ी होती चली गई. उन के बीच प्यार तो उसी दिन खत्म हो गया था, जिस दिन प्रीति ने मुझ से पैसा मांगने से मना कर दिया था.

फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब प्रीति के पति ने उस पर हाथ उठा दिया. एक बार हाथ उठा तो सिलसिला सा चल पड़ा. फिर तो पति ही नहीं, उस के घर के जिस भी व्यक्ति का मन होता, वही मेरी बेटी को अपमानित ही नहीं करता, बल्कि जब मन होता, पीट देता.

मैं ने जिंदगी में कोई गैरकानूनी काम नहीं किया था. लेकिन जब मुझे बेटी की प्रताड़ना का पता चला तो मैं बेचैन हो उठा. इंसान बच्चों के लिए ही कमाता है. अपनी सारी जिंदगी उन्हीं की खुशी में होम कर देता है. जिंदगी में वह जो बचाता है, उन्हीं के लिए छोड़ जाता है.

मेरे पास इतनी रकम नहीं थी कि मैं प्रीति की ससुराल वालों की मांग पूरी कर देता. मैं ने पत्नी से सलाह की. पत्नी ही मुझे क्या सलाह देती. उस ने बस यही कहा, ‘‘हमारे पास पुश्तैनी जमीन के अलावा कुछ नहीं है. इसे बेच कर उन लोगों की मांग पूरी कर दो. जब बेटी ही नहीं रहेगी तो हम इस का क्या करेंगे. आखिर यह सब सुखदुख के लिए ही तो है. दुख की इस घड़ी में इसे बेच कर झंझट खत्म कर दो.’’

किसी किसान के लिए जमीन सब कुछ होती है. उसे मांबाप कह लो या रोजीरोटी, वही उस के लिए सब कुछ है, उस से उस के परिवार का ही गुजरबसर नहीं होता, बल्कि उसी की बदौलत और न जाने कितने अन्य लोग पलते हैं. लेकिन अब अपनी खुशी या जिंदगी की चिंता कहां रह गई थी. अब चिंता बेटी की खुशी और जिंदगी की थी.

मैं ने तय कर लिया था कि जितनी जल्दी हो सकेगा, अपनी बिटिया की खुशी के लिए यानी उस पर होने वाले जुल्मों को बंद करवाने के लिए अपनी जमीन बेच कर उस की ससुराल वालों की मांग पूरी कर दूंगा. क्योंकि मुझे लगने लगा था कि उस की ससुराल वाले अब उस की जान ले कर ही मानेंगे.

मैं ने निश्चय किया था कि जमीन बेच कर प्रीति की ससुराल वालों की मांग पूरी कर दूंगा, उसी के अनुसार मैं ने जैसे ही जमीन बेचने की घोषणा की, लेने वालों की लाइन लग गई. लोग मुंहमांगी कीमत देने को तैयार थे. इस की वजह यह थी कि मेरी जमीन मुख्य सड़क के किनारे थी.

लेकिन मेरी वह जमीन बिकतेबिकते रह गई. दरअसल, प्रीति के दुख से हम पतिपत्नी काफी दुखी थे. हम दोनों मानसिक रूप से काफी परेशान थे. परेशानी से निजात पाने के लिए इंसान ऐसी जगहों पर जाना चाहता है, जहां किसी बात की चिंता न हो. चिंता से निजात पाने और उस का हल ढूंढ़ने के लिए मैं भी पत्नी को ले कर किसी एकांत जगह के लिए निकल पड़ा.

एक बस उत्तराखंड के लिए जा रही थी. मेरे मोहल्ले के भी कई लोग उस बस से जा रहे थे. मैं भी पत्नी के साथ उसी में सवार हो गया. लेकिन कुदरत ने वहां ऐसा तांडव मचाया कि हम लोगों को लगा कि अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा. लेकिन सेना के जवानों ने हम सभी को बचा लिया. हम सभी को मौत के मुंह से बाहर खींच लाए. हमें तो सेना के जवानों ने बचा लिया, लेकिन दूसरी ओर प्रीति को कोई नहीं बचा सका.

दरअसल, प्रीति की ससुराल वालों को पता था कि मैं पत्नी के साथ उत्तराखंड घूमने गया हूं. जब उन्हें पता चला कि वहां भीषण प्राकृतिक आपदा आई है और उस में हम लोग फंस गए हैं तो उसी बीच उन लोगों ने प्रीति को इस तरह प्रताडि़त किया यानी मारा पीटा कि वह मर गई.

हम लोग आपदा में फंसे थे. फोन भी नहीं मिल रहा था, इसलिए प्रीति की ससुराल वालों ने हत्या को कुदरती मौत बता कर उस का अंतिम संस्कार कर दिया. पड़ोसियों में खुसुरफुसुर जरूर हुई, लेकिन किसी ने बात का बतंगड़ नहीं बनाया. उन्होंने अपना काम आसानी से कर डाला. प्रीति अपनी मौत मरी है, यह साबित करने के लिए उन्होंने उस की एक सहेली को बुला लिया था. सहेली को क्या पड़ी थी कि वह किसी तरह की कानूनी काररवाई करती. फिर उसे कुछ पता भी नहीं था.

हां, तो इस तरह मेरी बेटी प्रीति को मार दिया गया. एक सीधेसादे कत्ल को कुदरती मौत बता कर उन्होंने उस का अंतिम संस्कार भी कर दिया. मेरे घर लौट कर आतेआते उस के सारे कामधाम कर दिए गए थे. मैं ने थाने में प्रीति की हत्या की रिपोर्ट तो दर्ज करा दी, लेकिन मेरे पास उन के खिलाफ ऐसा कोई भी सुबूत नहीं है कि मैं दावे के साथ कह सकूं कि उन लोगों ने प्रीति की हत्या की है.

सुबूत न होने की वजह से पुलिस भी इस मामले की जांच आगे नहीं बढ़ा पा रही है. बहरहाल मैं कानून पर भरोसा करने वालों में हूं, इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि उन लोगों को उन के किए की सजा जरूर मिलेगी.

प्रीति ही मेरी एकलौती बेटी थी. मेरे पास करोड़ों की प्रौपर्टी है, अब वह मेरे किस काम की. प्रीति की ससुराल वालों को सोचना चाहिए था कि हमारे न रहने पर वैसे भी सब कुछ उन्हें ही मिलने वाला था. फिर वे उस का चाहे जैसे उपयोग करते. लेकिन उन्हें संतोष नहीं था.

अब मुझे लगता है कि बेटी सचमुच पराई होती है. अपनी होते हुए भी हम उसे अपनी नहीं कह सकते. तमाम नियमकानून हैं, अधिकार हैं, लेकिन लगता है कि वे सब सिर्फ कहनेसुनने के लिए हैं. अगर नियमकानून ही होते तो लोग उन से डरते. जिस तरह प्रीति मारी गई, शायद उस तरह बेटियां न मारी जातीं. अब मुझे लगता है कि बेटी का पैदा होना ही जुर्म है, उस से भी बड़ा जुर्म है बेटी का बाप होना.

—कथा सत्य घटना पर आधारित

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 3

जिस कमरे में अनवर मुझे ले गया, उस में हलका अंधेरा था. मैं ने देखा, एक कोने में एक लड़का फैल्ट हैट पहने म्यूजिक सुन रहा था. मैं अनवर की अम्मी के सीने से लग कर उन के मुंह से अपने लिए दुलहन शब्द सुनने को बेताब थी.

‘‘अम्मी को जल्दी बुलाइए न,’’ कह कर मैं अनवर को हैरानी से देखने लगी. दिल में तूफान सा छाया हुआ था जो अनवर की अम्मी के दीदार से ही शांत हो सकता था. बाहर अंधेरा स्याह होता जा रहा था.

‘‘अम्मी गुसलखाने में हैं.’’ अनवर ने मुझे कुरसी पर बैठा कर गिलास थमाते हुए कहा, ‘‘तब तक कोक पियो.’’ अनवर की आंखों का बदलता रंग देख कर मैं ने जल्दी से कोक पी लिया. लेकिन यह क्या, मुझे सब कुछ धुआंधुआं सा लगने लगा. मैं होश खोती जा रही थी.

तभी अनवर ने मेरे गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया. उस वक्त उस की आंखें बारूद उगल रही थीं. यह इंतकाम की आग थी. वह गुस्से में बोला, ‘‘मैं मवाली हूं, गुंडा हूं, बदचलन हूं. यही कहा था ना तेरी मां ने.’’

धीरेधीरे मैं पूरी तरह बेहोश हो गई, विरोध की कतई क्षमता नहीं थी. अनवर की दुलहन बनने का मेरा ख्वाब टूट चुका था. जब मुझे थोड़ाथोड़ा होश आना शुरू हुआ तो मुझे अनवर और उस के साथी की हंसी सुनाई दी. अनवर का दोस्त थोड़ी दूर गलियारे में उस से कह रहा था, ‘‘अनवर, आज जैसा मजा पहले कभी नहीं आया.’’

अनवर और उस के दोस्त की जहरीली हंसी मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ रही थी. मैं लड़खड़ाते हुए उठी, पूरा बदन दर्द से बेहाल था. मेरे कपड़े, मेरा लहूलुहान जिस्म, मेरी तबाही की कहानी कह रहे थे. मैं चुपचाप बाहर आ गई. बाहर से स्कूटर ले कर मैं घर लौट आई. तब तक पूरा शहर अंधेरे के आगोश में डूब चुका था. गनीमत यह थी कि अब्बू टुअर पर थे. इस काली रात की कहानी जानने वाला मेरे अलावा कोई नहीं था.

मैं ने जब अम्मी को बताया तो वह चीख पड़ीं, मुझे बुरी तरह डांटा, पीटा. मैं सारी रात सिसकती रही. उस के बाद हर रात मेरी सिसकियां अंधेरों में घुटती रहीं. मम्मी भी किटी पार्टियां अटैंड करना, सैरसपाटा, शौपिंग सब भूल गई थीं. मेरी जैसी मांओं के लिए, जिन के पास अपने बच्चों की देखभाल का वक्त न हो, इस से बड़ी सजा और हो भी क्या सकती थी?

अम्मी ने मुझे सख्त हिदायत दी थी कि इस राज को परदे में ही रखूं. फिर जल्दीबाजी में मेरी शादी मेराज से कर दी गई थी. मेरी पसंदनापसंद या मरजी के बारे में पूछना भी मुनासिब नहीं समझा गया था. मैं होमली लड़की थी. शादी की बात आई तो नए अरमान फिर से जेहन में करवट लेने लगे. शौहर के कदमों के नीचे औरत का स्वर्ग होता है. मैं उसी स्वर्ग की कल्पना करने लगी.

मेरा निकाह हो गया. मैं सुहागसेज पर बैठी अपने शौहर के आने का बेताबी से इंतजार कर रही थी, मेरी आंखों में भावी जीवन के गुलाबी सपने तैर रहे थे. तभी किसी के कदमों की आहट पास आती सुनाई दी तो मैं खुद में सिमट गई. मैं ने घूंघट की ओट से देखा तो मेराज की सुनहरी शेरवानी से सजा फूलों सा महकता व्यक्तित्व नजर आया. उन्होंने धीरे से करीब आ कर मेरा घूंघट पलटा तो ऐसे चौंके जैसे किसी नागिन को देख लिया हो.

मुझे पर टेढ़ी नजर डाल कर मेराज बाहर चले गए. बस, उस दिन के बाद हम दोनों के बीच एक अदृश्य सी दीवार बन गई. हम ने सालों साथ गुजारे तो सिर्फ इसलिए क्योंकि दो बड़े परिवारों की इज्जत का मामला था. हम साथ रह कर भी नदी के दो किनारे बने रहे. मैं देवर और ननदों को पालने, बड़ा करने में लगी रही और मेराज बिजनैस में. मैं चाह कर भी नहीं जान पाई कि मेराज को मुझ से क्या शिकायत थी, वह मुझ से क्यों दूर रहना चाहते थे. अब तक यही स्थिति थी.

रात गहरा रही थी. नैनी झील के किनारे लगी लाइटों की रोशनी पानी की लहरों पर लहराती हुई बड़ी अच्छी लग रही थी, लेकिन अब उसे देखने का मन नहीं था. मैं मेराज के सीने से लिपटी उन में अपने हिस्से का प्यार खोज रही थी. मन चाह रहा था, सालों की चाह आज ही पूरी कर लूं.

तभी मेराज गंभीर स्वर में बोले, ‘‘क्या तुम किसी अनवर को जानती हो?’’

अनवर का नाम सुन कर मैं एक ही झटके में खयालों से बाहर आ गई. मैं ने डर कर कांपती आवाज में पूछा, ‘‘क्यों, आप उसे कैसे जानते हैं?’’

‘‘क्योंकि वह मेरा जिगरी दोस्त था. जिस रोज तुम उस के पास आई थीं, मैं ही कैप लगाए म्यूजिक सुन रहा था. अंधेरे की वजह से तुम मुझे पहचान नहीं सकी थीं. आगे क्या हुआ, तुम जानती ही हो. जब हमारा निकाह हुआ, मुझे भी मालूम नहीं था कि जिसे मेरा जीवनसाथी बनाया जा रहा है, वह तुम हो. यही वजह थी कि सुहागरात में घूंघट उठाते वक्त मैं चौंक गया था. गलती अनवर की थी और मैं उस में भागीदार था. इस के बावजूद मेरे मन में तुम्हें ले कर दुर्भावना बनी रही कि तुम्हें मेरी बीवी नहीं होना चाहिए था. लेकिन अब मेरी सोच बदल गई है. गलत मैं था, तुम नहीं.’’

लंबी खामोशी जब टूटती है तो उस की गूंज भी देर तक सुनाई देती है. डाल से बिछड़े पत्ते की तरह मैं बद्हवास थी, तभी इन का कोमल स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम ने वहां आ कर जो भूल की थी, उस में मैं भी तो बराबर का गुनहगार हूं.’’ इन के सीने से लगी मैं कांप रही थी. हम दोनों ही शर्मसार थे और एकदूसरे की चाहत में बेताब भी.

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 2

मेरी और मेराज की शादी भी इत्तफाक ही थी. सच कहूं तो 2 बड़े परिवारों के बीच अचानक बना एक खोखला संबंध भर. यह संबंध भी इसलिए बना था क्योंकि मेरे अब्बू अम्मी को मेरी शादी की जल्दी थी. उन की चाहत पूरी हुई और सब कुछ जल्दीजल्दी में हो गया. इस के पीछे भी एक रहस्य था जिस के लिए जिम्मेदार मैं ही थी.

बात उन दिनों की है जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में पढ़ा करती थी. एक दिन जब मैं अपनी फाइल उठा कर यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकली तो अब्बू बोले, ‘‘सलमा, इन से मिलो, यह हैं मेरे जिगरी दोस्त जुबैर. इन के साहबजादे अनवर मियां भी लखनऊ यूनिवर्सिटी से फिजिक्स में एमएससी करने आए हैं. उन्हें हौस्टल में जगह नहीं मिल पा रही है इसलिए कुछ दिन हमारे यहां ही रहेंगे. तुम शाम तक कोठी की ऊपरी मंजिल के दोनों कमरे साफ करवा देना. अनवर शाम को आ जाएगा.’’

‘‘आदाब चचाजान’’ कह कर मैं अब्बू की तरफ मुखातिब हो कर बोली, ‘‘अब्बू, मैं शाम तक कमरे तैयार करवा दूंगी. अभी जा रही हूं, देर हुई तो मेरी क्लास छूट जाएगी.’’

खुदा हाफिज कह कर मैं सीढि़यां उतर कर चली गई. चचाजान और अब्बू हाथ हिलाते रहे. वापस आते ही मैं ने सब से पहले कमरे साफ करवाए. फूलों वाली नई चादर बिछाई, गुलदानों में नए फूल सजाए. टेबल पर अपने हाथ का कढ़ा हुआ मेजपोश बिछाया, उस पर पानी से भरा जग और नक्काशीदार ग्लास रखा.

नीचे आई तो लगा कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. मेरे कपड़े और मलिन सा चेहरा धूल से भरे हुए थे. पर मैं करती भी तो क्या, दस्तक तेज होती जा रही थी. मैं ने फाटक खोल दिया.

बाहर एक युवक खड़ा था. वह अपना परिचय देते हुए बोला, ‘‘मैं अनवर.’’

कसरती जिस्म, स्याह घुंघराले बाल, उसे देख मैं तो पलक झपकना ही भूल गई. लगा जैसे किसी ने सम्मोहन सा कर दिया हो. ‘‘आइए तशरीफ लाइए.’’ कह कर मैं ने चुन्नी सर पर डाल ली. फिर उसे कमरे में ले गई.

कमरे की सजावट देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘ओह, तो आप कमरे की सफाई कर रही थीं, बहुत सुंदर सजाया है.’’

‘‘सुबह चचाजान से मुलाकात हुई, पता चला आप को हौस्टल में जगह नहीं मिली.’’ मैं ने कहा, ‘‘इसी बहाने हमें आप की खिदमत का मौका मिल जाएगा.’’

‘‘नाहक ही आप को परेशान किया, माफ कीजिएगा. जैसे ही वहां कमरा मिलेगा, मैं चला जाऊंगा.’’ अनवर ने कहा तो मैं बोली, ‘‘यह क्या कह रहे हैं आप? यह तो हमारी खुशकिस्मती है कि आप हमारे गरीबखाने पर तशरीफ लाए.’’

‘‘आप को एक तकलीफ और दूंगा, अगर एक कप चाय मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’

‘‘ओह श्योर.’’ कह कर मैं तेजी से जीना उतरने लगी, उस वक्त मेरा दिल मेरे ही बस में नहीं था.

मैं ने उसे चाय ला कर दे दी. उस दिन बात वहीं खत्म हो गई. फिर भी न जाने क्यों मैं उसे ले कर खुश थी.

अनवर को हमारे यहां रहते लंबा वक्त गुजर गया. मैं उस का और उस की हर चीज का ध्यान रखती. उस की गैरहाजरी में उस का कमरा सजाती. अपनी ड्रैसेज पर भी खूब ध्यान देती. उस के सामने बनसंवर कर जाना, मुझे अच्छा लगता था. वह भी ऐसी ही कोशिश करता था.

मुझ में आए बदलाव पर अम्मी ने कभी भी ध्यान नहीं दिया. इस की वजह थी अब्बू का देर से घर आना. भाईभाभी अमेरिका में थे, जबकि अम्मी का ज्यादातर वक्त किटी पार्टियों में गुजरता था. घूमनेफिरने की शौकीन अम्मी को मुझ पर नजर रखने का वक्त ही नहीं मिलता था.

मैं और अनवर यूनिवर्सिटी में आतेजाते अकसर आमनेसामने पड़ जाते थे. कभी टैगोर लायब्रेरी में, कभी बौटेनिकल गार्डन में. वह जब भी मुझे देखता, उस की प्यासी नजरें कुछ पैगाम सा देती नजर आतीं. एक दिन सुबहसुबह जब मैं उस के कमरे में चाय देने गई, तो उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सलमा, क्या हम दोस्ती के लायक भी नहीं हैं?’’

यह मेरे लिए अप्रत्याशित जरूर था, लेकिन मेरे मन के किसी कोने में दबी तमन्नाओं को जैसे पंख मिल गए और मैं आसमान में उड़ने लगी. कब से दबा कर रखी चाहत ने जोर मारा तो एक झटके में मन के सभी बंधन टूट गए.

उस दिन आसमान पर कालेकाले बादल छाए थे. इतवार का दिन था, मैं ने हलका मेकअप कर के फिरोजी रंग का गरारा, कुरता और फिरोजी चूडि़यां पहनी. दरअसल उस दिन मेरी खास फ्रैंड नसीमा आने वाली थी.

अम्मी तैयार हो कर निकलते हुए बोलीं, ‘‘सलमा, मैं आज पिक्चर जा रही हूं, सभी किटी मैंबर हैं. बुआ से लंच बनवा दिया है, जल्दी ही आऊंगी. ऊपर भी लंच बुआ दे आएंगीं. वह 2 बजे दोबारा आएंगी.’’

अम्मी के जाते ही मैं यह सोच कर खुशी से उछल पड़ी कि आज नसीमा से खूब दिल की बातें करूंगी.

मैं चाय ले कर ऊपर गई तो अनवर कुछ रोमांटिक मूड में लगा. मैं ने चाय रखी तो वह मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘आज तो आप कयामत लग रही हैं. क्या करूं, मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं.’’

मैं कुछ सोच पाती, इस से पहले ही अनवर ने मुझे बाहों में भर लिया. उस की बाहों में मुझे जन्नत नजर आ रही थी. लेकिन तभी जैसे जलजला सा आ गया. मेरे पांवों के नीचे से जमीन निकल गई.

सामने अम्मी रौद्र रूप में खड़ी थीं. वह जोर से चीख कर बोलीं, ‘‘भला हुआ जो मैं अपना पर्स भूल गई थी, वरना इस नौटंकी का पता ही नहीं चलता. इसे कहते हैं आस्तीन का सांप. जिसे फ्री में खिलापिला रहे हैं, वही हमें डंस रहा है. हम ने तुम्हें पनाह दी थी और तुम ने ही हमारा गिरेबां चाक कर दिया. जाओ, चले जाओ यहां से. यहां गुंडे मवालियों का कोई काम नहीं है.’’

मैं और अनवर दोनों ही अपराधियों की तरह मुंह लटकाए खड़े थे. अम्मी बहुत गुस्से में थीं. वह अनवर का सामान उठाउठा कर नीचे फेंकने लगीं. जरा सी देर में सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया. अनवर गुनहगार बना खामोश खड़ा था, उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे. अब जाना ही उस के लिए बेहतर था. उस ने खामोशी से अपना सामान समेटा और टैक्सी स्टैंड की ओर निकल गया.

वह तो चला गया पर मेरी जिंदगी में तूफान बरपा गया. उस के जाने के बाद अम्मी ने मोहल्ले वालों से कह दिया कि किराया नहीं देता था, कब तक रखती.

अम्मी ने मुझे खूब मारा, लेकिन उन की मार मेरे प्यार की आग को बुझा नहीं सकी. एक दिन अनवर मेरे सोशियोलौजी सोशल वर्क डिपार्टमेंट के आगे खड़ा था. रूखे बाल, उदास चेहरा. मैं दौड़ कर उस के पास जा पहुंची और उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोली, ‘‘यह क्या हाल बना रखा है अनवर, मैं तुम्हारे बगैर नहीं जी सकती.’’

अनवर मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘यूनिवर्सिटी के पास ही एक कमरा लिया है, अम्मी भी आई हुई हैं. मैं ने उन्हें तुम्हारे बारे में सब कुछ बता रखा है. अम्मी मेरी दुलहन को देखना चाहती हैं. 2 मिनट के लिए चल सकोगी? अम्मी हमारी शादी का कोई रास्ता निकालना चाहती हैं.’’

अनवर की आवाज में जो दर्द था, उसे देख मैं रो पड़ी और उस के पीछेपीछे चल दी.

जाना अनजाना सच : जुर्म का भागीदार – भाग 1

ठंडी बर्फीली हवा के झोंके तन को भिगो रहे थे, मन की उड़ान सातवें आसमान को छू रही थी. पहाड़ों की शीतलता का अहसास, बादलों से आंखमिचौली करती गुनगुनी धूप, सब कुछ बहुत दिलकश था. चीड़ और देवदार के वृक्षों के इर्दगिर्द चक्कर काटते धुंधभरे बादलों को देख कर हम दिल्ली की तपती गर्मी को भूल गए थे. होटल की लौबी से जब मैं नैनी झील पर तैरती रंगबिरंगी कश्तियां देखती तो सोचती उन पर बैठे हर शख्स की जिंदगी कितनी हसीन है.

क्यारियों में खिले रंगबिरंगे फूल और उन पर मंडराती तितलियां मन को कल्पनालोक की सैर करा रही थीं. लौबी से अंदर आ कर मैं कमरे का जायजा लेने लगी. तभी वेटर चाय और गरमगरम पकौडे़ ले आया. जब हम चाय पी रहे थे तभी मेरी नजर मेराज पर पड़ी. उन की आंखों में मुझे प्यार का सागर लहराता नजर आया. जिस चाहत भरी नजर के लिए मैं सालों से तरसती रही थी, आज वही नजर मुझ पर मेहरबान सी लगी.

सचमुच हम दोनों जिंदगी की भीड़ में गुम हो गए थे. देवर और ननदों को संभालने और बड़ा करने की जिम्मेदारी में शायद हम यह भी भूल गए थे कि हम पतिपत्नी भी हैं. अचानक मेराज उठे और शौल ला कर मेरे कंधों पर डाल दी. मैं ताज्जुब से सिहर सी गई. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि जिस ने सालों से मेरी परवाह नहीं की, वह आज मुझे सपनों के शहर में ले आया था. अचानक मेराज मुझ से बोले, ‘‘फ्रेश हो जाओ, नीचे लेक पर चलते हैं, फिर कहीं बाहर डिनर करेंगे.’’

यह एक तरह से मेरे लिए सरप्राइज था. मैं जल्दी से तैयार हो गई. होटल से लेक तक काफी लंबी ढलान थी, मेरे कदम उखड़ रहे थे. तभी मेराज ने मेरा बर्फ सा ठंडा हाथ थाम लिया. उन की गरम गुदगुदी हथेली में अपना हाथ दे कर मुझे ऐसा लगा जैसे भूल से किसी ने मुझे कतरा भर इज्जत बख्श दी हो.

उस दिन जो हो रहा था, वैसा कभी नहीं हुआ था. मैं और मेराज कश्ती में बैठ कर देर शाम तक नैनी झील में हवा से उठतीबैठती लहरों का आनंद लेते रहे. हां, हमारे बीच बातचीत कोई नहीं हुई. दोनों ही एकदूसरे की जगह दूसरे जोड़ों को देखते रहे. इस बीच मेराज ने 2-3 बार मुझे कनखियों से जरूर देखा था. हमारा यह नौका विहार रूमानी भले ही नहीं था, फिर भी बहुत अच्छा लगा. जब अंधेरा घिरने लगा तो हम डिनर के लिए एक अच्छे होटल में चले गए.

होटल रंगीन रोशनियों से दमक रहा था, इत्र की खुशबू से सराबोर. आसमानी लिबास और पुराने डिजाइन के गहनों में मैं बहुत दिलकश लग रही थी. डिनर के दौरान मेराज एकटक मुझे देखे जा रहे थे. उन की आंखों की गहराइयों में न जाने ऐसा क्या था कि मैं अंदर तक पिघलती जा रही थी. मेरे जीवन से जो खुशी विदा ले चुकी थी, वह दोबारा दस्तक देती सी लग रही थी.

‘‘तुम बहुत प्यारी हो सलमा’’ मेराज के थरथराते होंठों से निकले शब्दों को सुन कर मुझे लगा जैसे मैं किसी और ही लोक में हूं. जिन अल्फाजों को सुनने के लिए मैं सालों से तरस रही थी, वह मेरे कानों में शहद घोल रहे थे.

जीने के लिए खुशी के दो पल भी काफी होते हैं. मुझे लग रहा था जैसे मेराज के शब्द पहाडि़यों से टकरा बारबार मेरे कानों तक आ रहे हों. जिस तरह तितलियां मौन रह कर भी संगीत पैदा करती हैं, वैसे ही मेराज के हावभाव मेरे इर्दगिर्द संगीतमय माहौल पैदा कर रहे थे.

जब से हमारा निकाह हुआ, मैं ने मेराज को गुस्से में ही पाया था. बातबात पर मुझे बेइज्जत करना, मेरे घर वालों को उलटासीधा कहना, मेरी तरफ घूर कर देखना, मुझ पर मालिक की तरह हुक्म चलाना, उन की आदत में शामिल था. मैं ने उन्हें कभी हंसते हुए नहीं देखा था. उन के साथ मैं ने कई साल बड़ी खामोशी के साथ गुजारे थे.

मेराज सभी से ठीक से पेश आते थे लेकिन जैसे ही मुझ से निगाह मिलती, एक संजीदगी भरी उदासी उन के चेहरे पर उतर आती थी.  फिर हमारे बीच एक सर्द धुआं सा फैल जाता था और यह आपे से बाहर हो जाते थे. अपने लिए उन की आंखों में छाई नफरत मुझ से बरदाश्त नहीं होती थी. कई बार तो मैं रोने बैठ जाती थी.

वक्त गुजरते देर नहीं लगती. वह आ कर कब चला जाता है, पता नहीं चलता. हां, वक्त अपने पीछे ढेरों कहानियां जरूर छोड़ जाता है. मेरे देवर मोहम्मद रजा सैफ ने शायद मेरे दर्द को समझ लिया था. जब वह किशोर थे तभी से मेरी उदासी और नम आंखों के दर्द को पढ़ने लगे थे. जब वह जवान हो गए और बिजनैस संभालने लगे तो उन्होंने अपनी प्यारी भाभी यानी मुझे कुछ सुकून पहुंचाना चाहा. इसीलिए उन्होंने जबरन टैक्सी करवा कर हमें यहां भेज दिया था. होटल की बुकिंग भी रजा ने कराई थी.

डिनर के बाद मेराज के मन में न जाने क्या आया कि मेरा हाथ थाम कर बोले, ‘‘अभी और घूमने का मन है, चलो फिर से झील में चलते हैं. रोशनी और अंधेरे के समीकरण में कश्तियों में घूमने का अलग ही मजा है.’’

मैं भला क्यों मना करती. मेरा मन तो चाह रहा था कि वह रात भर मेरे साथ घूमते रहें.  हम लेक किनारे खड़ी बोट पर बैठ गए. कुछ ही देर पहले बारिश हुई थी. हवा अब भी चल रही थी, जिस के वेग से बोट हिल रही थी. लहरें इतनी ऊपर तक आ रही थीं कि उन का आक्रामक रूप देख कर डर लग रहा था. एक जगह रोशनी देख मैं ने झील में झांका तो अपना ही अक्स डरावना सा लगा.

मेरी कहानी एक औरत के अपमान की कहानी थी. ऐसी औरत की कहानी जो सालों से अपने ही हमसफर के हाथों अपमान की शिकार होती रही थी. पुरुष कभी पिता बन कर, कभी पति बन कर, कभी भाई बन कर तो कभी बेटा बन कर औरत को अपमान की भट्ठी में जलाता रहा है. मेराज ने मुझे मेरा ही हमनवा बन कर अपमान की आग में जलाया था.

झील के हिलते हुए पानी में अपना बदसूरत सा अक्स देख कर मेरी आंखें भर आईं. मेरी आंसुओं भरी आंखों से मेराज कभी नहीं पसीजे थे. लेकिन उस तनहाई में अचानक बोले, ‘‘सलमा, मैं ने तुम्हारे साथ जो सुलूक किया, उस के लिए मैं ताउम्र शर्मिंदा रहूंगा.’’

फिर अचानक उन्होंने मेरी कमर में हाथ डाल कर मुझे अपने सीने में छिपा लिया. मेराज का गला भर आया था, आंखें नम थीं. कुछ ठहर कर उन्होंने फिर कहा, ‘‘सालों से मेरे दिल पर एक बोझ है, जिसे मैं आज सुकून भरे इन लम्हों में मन से उतार देना चाहता हूं. मैं जानता हूं तुम बेहद खूबसूरत हो, जहीन हो. फिर भी शादी के बाद से आज तक मैं तुम्हें वैसा प्यार नहीं कर सका, जैसा मुझे करना चाहिए था. तुम्हें देखते ही मेरे मन में नफरत की एक सर्द लहर सी दौड़ जाती थी. इसी वजह से मैं तुम्हारे दामन में चाहत का कोई फूल नहीं डाल सका.’’

‘‘आप को खुश रखूं, आप के लिए दुआएं मांगू, मेरे जीने का तो बस यही एक मकसद है. फिर भी मैं उस वजह को जानने के लिए बेताब हूं, जिस की मुझे इतनी लंबी सजा मिली.’’ कह कर मैं हैरानी से मेराज को देखने लगी. मेरे सवाल के जवाब में मेराज ने जो कुछ बताया, उसे सुन कर मैं सन्न रह गई. सर्दी के बावजूद मेरा बदन पसीनेपसीने हो गया.

शराफत का इनाम

जब शिकारी बना शिकार

सुबह नहाधो कर मैरी बाथरूम से निकली तो उस की दमकती काया देख कर डिसिल्वा खुद को रोक नहीं पाया और लपक कर उसे बांहों में भर कर बेतहाशा चूमने लगा. मैरी ने मोहब्बत भरी अदा के साथ  खुद को उस के बंधन से आजाद किया और कमर मटकाते हुए किचन की ओर बढ़ गई. उस के होंठों पर शोख मुस्कान थी. थोड़ी देर में वह किचन से बाहर आई तो उस के हाथों में कौफी से भरे 2 मग थे. एक मग डिसिल्वा को थमा कर वह उस के सामने पड़े सोफे पर बैठ गई.

डिसिल्वा कौफी का आनंद लेते हुए अखबार पढ़ने लगा. उस की नजर अखबार में छपी हत्या की एक खबर पर पढ़ी तो तुरंत उस के दिमाग यह बात कौंधी कि वह अपनी बीवी मैरी की हत्या किस तरह करे कि कानून उस का कुछ न बिगाड़ सके. वह ऐसा क्या करे कि मैरी मर जाए और वह साफ बच जाए. वह उस कहावत के हिसाब से यह काम करना चाहता था कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

डिसिल्वा ने 2 साल पहले ही मैरी से प्रेमविवाह किया था. अब उसे लगने लगा था कि मैरी ने उस पर जो दौलत खर्च की है, उस के बदले उस ने उस से अपने एकएक पाई की कीमत वसूल कर ली है. अब उसे अपनी सारी दौलत उस के लिए छोड़ कर मर जाना चाहिए, क्योंकि उस की प्रेमिका सोफिया अब उस का और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती.

वह खुद भी उस से ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रह सकता. लेकिन यह कमबख्त मैरी रास्ते का रोड़ा बनी हुई है. इस रोड़े को हटाए बगैर सोफिया उस की कभी नहीं हो सकेगी. लेकिन इस रोड़े को हटाया कैसे जाए? डिसिल्वा मैरी को ठिकाने लगाने के बारे में सोचते हुए इस तरह डूब गया कि कौफी पीना ही भूल गया.

डिसिल्वा को सोच में डूबा देख कर मैरी बोली, ‘‘तुम कहां खोए हो कि कौफी पीना भी भूल गए. तुम्हारी कौफी ठंडी हो रही है. और हां, हमारी बालकनी के एकदम नीचे एक गुलाब खिल रहा है. जरा देखो तो सही, कितना खूबसूरत और दिलकश लग रहा है. शाम तक वह पूरी तरह खिल जाएगा. सोच रही हूं, आज शाम की पार्टी में उसे ही अपने बालों में लगाऊं. डार्लिंग, आज हमारी मैरिज एनवरसरी है, तुम्हें याद है ना?’’

‘‘बिलकुल याद है. और हां, गुलाब कहां खिल रहा है?’’ डिसिल्वा ने मैरी की आंखों में शरारत से झांकते हुए हैरानी से पूछा.

‘‘बालकनी के ठीक नीचे जो गमला रखा है, उसी में खिल रहा है.’’ मैरी ने कहा.

बालकनी के ठीक नीचे गुलाब खिलने की बात सुन कर डिसिल्वा के दिमाग में तुरंत मैरी को खत्म करने की योजना आ गई. उस ने सोचा, शाम को वह गुलाब दिखाने के बहाने मैरी को बालकनी तक ले जाएगा और उसे नीचे खिले गुलाब को देखने के लिए कहेगा. मैरी जैसे ही झुकेगी, वह जोर से धक्का देगा. बस, सब कुछ खत्म. मैरी बालकनी से नीचे गमलों और रंगीन छतरियों के बीच गठरी बनी पड़ी होगी.

इस के बाद वह एक जवान गमजदा पति की तरह रोरो कर कहेगा, ‘हाय, मेरी प्यारी बीवी, बालकनी से इस खूबसूरत गुलाब को देखने के लिए झुकी होगी और खुद को संभाल न पाने की वजह से नीचे आ गई.’

अपनी इस योजना पर डिसिल्वा मन ही मन मुसकराया. उसे पता था कि शक उसी पर किया जाएगा, क्योंकि बीवी की इस अकूत दौलत का वही अकेला वारिस होगा. लेकिन उसे अपनी बीवी का धकेलते हुए कोई देख नहीं सकेगा, इसलिए यह शक बेबुनियाद साबित होगा. सड़क से दिखाई नहीं देगा कि हुआ क्या था? जब कोई गवाह ही नहीं होगा तो वह कानून की गिरफ्त में कतई नहीं आ सकेगा. इस के बाद पीठ पीछे कौन क्या सोचता है, क्या कहता है, उसे कोई परवाह नहीं है.

डिसिल्वा इस बात को ले कर काफी परेशान रहता था कि सोफिया एक सस्ते रिहाइशी इलाके में रहती थी. वैसे तो उस की बीवी मैरी बहुत ही खुले दिल की थी. वह उस की सभी जरूरतें बिना किसी रोकटोक के पूरी करती थी. तोहफे देने के मामले में भी वह कंजूस नहीं थी, लेकिन जेब खर्च देने में जरूर आनाकानी करती थी. इसीलिए वह अपनी प्रेमिका सोफिया पर खुले दिल से खर्च नहीं कर पाता था.

सोफिया का नाम दिमाग में आते ही उसे याद आया कि 11 बजे सोफिया से मिलने जाना है. उस ने वादा किया था, इसलिए वह उस का इंतजार कर रही होगी. अब उसे जाना चाहिए, लेकिन घर से बाहर निकलने के लिए वह मैरी से बहाना क्या करे? बहाना तो कोई भी किया जा सकता है, हेयर ड्रेसर के यहां जाना है या शौपिंग के लिए जाना है.

वैसे शौपिंग का बहाना ज्यादा ठीक रहेगा. आज उस की शादी की सालगिरह भी है. इस मौके पर उसे मैरी को कोई तोहफा भी देना होगा. वह मैरी से यही बात कहने वाला था कि मैरी खुद ही बोल पड़ी, ‘‘इस समय अगर तुम्हें कहीं जाना है तो आराम से जा सकते हो, क्योंकि मैं होटल डाआर डांसिंग क्लास में जा रही हूं. आज मैं लंच में भी नहीं आ सकूंगी, क्योंकि आज डांस का क्लास देर तक चलेगा.’’

‘‘तुम और यह तुम्हारी डांसिंग क्लास… मुझे सब पता है.’’ डिसिल्वा ने मैरी को छेड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे लगता है, तुम उस खूबसूरत डांसर पैरी से प्यार करने लगी हो, आजकल तुम उसी के साथ डांस करती हो न?’’

‘‘डियर, मैं तो तुम्हारे साथ डांस करती थी और तुम्हारे साथ डांस करना मुझे पसंद भी था. लेकिन शादी के बाद तो तुम ने डांस करना ही छोड़ दिया.’’ मैरी ने कहा.

‘‘आह! वे भी क्या दिन थे.’’ आह भरते हुए डिसिल्वा ने छत की ओर देखा. फिर मैरी की आंखों में आंखें डाल कर पूछा, ‘‘तुम्हें जुआन के यहां वाली वह रात याद है न, जब हम ने ब्लू डेनूब की धुन पर एक साथ डांस किया था?’’

डिसिल्वा ने यह बात मैरी से उसे जज्बाती होने के लिए कही थी. क्योंकि उस ने तय कर लिया था कि अब वह उस के साथ ज्यादा वक्त रहने वाली नहीं है. इसलिए थोड़ा जज्बाती होने में उसे कोई हर्ज नहीं लग रहा था.

‘‘मैं वह रात कैसे भूल सकती हूं. मुझे यह भी याद है कि उस रात तुम ने अपना इनाम लेने से मना कर दिया था. तुम ने कहा था, ‘हम अपने बीच रुपए की कौन कहे, उस का ख्याल भी बरदाश्त नहीं कर सकते.’ तुम्हारी इस बात पर खुश हो कर मैं ने तुम्हारा वह घाटा पूरा करने के लिए तुम्हें सोने की एक घड़ी दी थी, याद है न तुम्हें?’’

‘‘इतना बड़ा तोहफा भला कोई कैसे भूल सकता है.’’ डिसिल्वा ने कहा. इस के बाद डिसिल्वा सोफिया से मिलने चला गया तो मैरी अपने डांस क्लास में चली गई.

डिसिल्वा सोफिया के यहां पहुंचा. चाय पीने के बाद आराम कुर्सी पर सोफिया को गोद में बिठा कर डिसिल्वा ने उसे अपनी योजना बताई. सोफिया ने उस के गालों पर एक चुंबन जड़ते हुए कहा, ‘‘डार्लिंग, आप का भी जवाब नहीं. बस आज भर की बात है, कल से हम एक साथ रहेंगे.’’

दूसरी ओर होटल डाआर में मैरी पैरी की बांहों में सिमटी मस्ती में झूम रही थी. वह अपने पीले रंग के बालों वाले सिर को म्यूजिक के साथ हिलाते हुए बेढंगे सुरों में पैरी के कानों में गुनगुना रही थी. पैरी ने उस की कमर को अपनी बांहों में कस कर कहा, ‘‘शरीफ बच्ची, इधरउधर के बजाए अपना ध्यान कदमों पर रखो. म्यूजिक की परवाह करने के बजाए बस अपने पैरों के स्टेप के बारे में सोचो.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ डांस कर रही होऊं तो तुम मुझ से इस तरह की उम्मीद कैसे कर सकते हो? फिर यह क्या मूर्खता है, तुम मुझे बच्ची क्यों कह रहे हो?’’

‘‘बच्ची नहीं तो और क्या हो तुम?’’ पैरी ने कहा, ‘‘एक छोटी सी शरीफ, चंचल लड़की, जो अपने अभ्यास पर ध्यान देने के बजाए कहीं और ही खोई रहती है. अच्छा आओ, अब बैठ कर यह बताओ कि रात की बात का तुम ने बुरा तो नहीं माना? रात को मैं ने तुम्हारे पैसे लेने से मना कर दिया था ना. इस की वजह यह थी कि मैं इस खयाल से भी नफरत करता हूं कि हमारी दोस्ती के बीच पैसा आए.’’

‘‘मैं ने बिलकुल बुरा नहीं माना. उसी कसर को पूरा करने के लिए मैं तुम्हारे लिए यह प्लैटिनम की घड़ी लाई हूं, साथ में चुंबनों की बौछार…’’ कह कर मैरी पैरी के चेहरे को अपने चेहरे से ढक कर चुंबनों की बौछार करने लगी.

डिसिल्वा ने मैरी को तोहफे में देने के लिए हीरे की एक खूबसूरत, मगर सेकेंड हैंड क्लिप खरीदी थी. उस के लिए इतने पैसे खर्च करना मुश्किल था, लेकिन उस ने हिम्मत कर ही डाली थी. क्योंकि बीवी के लिए उस का यह आखिरी तोहफा था. फिर मैरी की मौत के बाद यह तोहफा सोफिया को मिलने वाला था. जो आदमी अपनी बीवी की शादी की सालगिरह पर इतना कीमती तोहफा दे सकता है, उस  पर अपनी बीवी को कत्ल करने का शक भला कौन करेगा?

डिसिल्वा ने हीरे की क्लिप मैरी को दी तो वाकई वह बहुत खुश हुई. वह  नीचे पार्टी में जाने को तैयार थी. उस ने डिसिल्वा का हाथ पकड कर बालकनी की ओर ले जाते हुए कहा, ‘‘आओ डार्लिंग, तुम भी देखो वह गुलाब कितना खूबसूरत लग रहा है. ऐसा लग रहा है, कुदरत ने उसे इसीलिए खिलाया है कि मैं उसे अपने बालों में सजा कर सालगिरह की पार्टी में शिरकत करूं.’’

डिसिल्वा के दिल की धड़कन बढ़ गई. उसे लगा, कुदरत आज उस पर पूरी तरह मेहरबान है. मैरी खुद ही उसे बालकनी की ओर ले जा रही है. सब कुछ उस की योजना के मुताबिक हो रहा है. किसी की हत्या करना वाकई दुनिया का सब से आसान काम है.

डिसिल्वा मैरी के साथ बालकनी पर पहुंचा. उस ने झुक कर नीचे देखा. उसे झटका सा लगा. उस के मुंह से चीख निकली. वह हवा में गोते लगा रहा था. तभी एक भयानक चीख के साथ सब कुछ  खत्म. वह नीचे छोटीछोटी छतरियों के बीच गठरी सा पड़ा था. उस के आसपास भीड़ लग गई थी. लोग आपस में कह रहे थे, ‘‘ओह माई गौड, कितना भयानक हादसा है. पुलिस को सूचित करो, ऐंबुलेंस मंगाओ. लाश के ऊपर कोई कपड़ा डाल दो.’’

थोड़ी देर में पुलिस आ गई. दूसरी ओर फ्लैट के अंदर सोफे पर हैरान परेशान उलझे बालों और भींची मुट्ठियां लिए, तेजी से आंसू बहाते हुए मैरी आसपास जमा भीड़ को देख रही थी. लोगों ने उसे दिलासा देते हुए इस खौफनाक हादसे के बारे में पूछा तो मैरी ने रोते हुए कहा, ‘‘मेरे खयाल से वह गुलाब देखने के लिए बालकनी से झुके होंगे, तभी…’’ कह कर मैरी फफक फफक कर रोने लगी.

अनोखा बदला : निर्मला ने कैसे लिया बहन और प्रेमी से बदला

निर्मला से सट कर बैठा संतोष अपनी उंगली से उस की नंगी बांह पर रेखाएं खींचने लगा, तो वह कसमसा उठी. जिंदगी में पहली बार उस ने किसी मर्द की इतनी प्यार भरी छुअन महसूस की थी.

निर्मला की इच्छा हुई कि संतोष उसे अपनी बांहों में भर कर इतनी जोर से भींचे कि…

निर्मला के मन की बात समझ कर संतोष की आंखों में चमक आ गई. उस के हाथ निर्मला की नंगी बांहों पर फिसलते हुए गले तक पहुंच गए, फिर ब्लाउज से झांकती गोलाइयों तक.

तभी बाहर से आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘दीदी, चाय बन गई है…’’

संतोष हड़बड़ा कर निर्मला से अलग हो गया, जिस का चेहरा एकदम तमतमा उठा था, लेकिन मजबूरी में वह होंठ काट कर रह गई.

नीचे वाले कमरे में छोटी बहन उषा ने नाश्ता लगा रखा था. चायनाश्ता करने के बाद संतोष ने उठते हुए कहा, ‘‘अब चलूं… इजाजत है? कल आऊंगा, तब खाना खाऊंगा… कोई बढि़या सी चीज बनाना. आज बहुत जरूरी काम है, इसलिए जाना पड़ेगा…’’

‘‘अच्छा, 5 मिनट तो रुको…’’ उषा ने बरतन समेटते हुए कहा, ‘‘मुझे अपनी एक सहेली से नोट्स लेने हैं. रास्ते में छोड़ देना. मैं बस 5 मिनट में तैयार हो कर आती हूं.’’

उषा थोड़ी देर में कपड़े बदल कर आ गई. संतोष उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर चला गया.

उधर निर्मला कमरे में बिस्तर पर गिर पड़ी और प्यास अधूरी रह जाने से तड़पने लगी. निर्मला की आंखों के आगे एक बार फिर संतोष का चेहरा तैर उठा. उस ने झपट कर दरवाजा बंद कर दिया और बिस्तर पर गिर कर मछली की तरह छटपटाने लगी.

निर्मला को पहली बार अपनी बहन उषा और मां पर गुस्सा आया. मां चायनाश्ता बनाने में थोड़ी देर और लगा देतीं, तो उन का क्या बिगड़ जाता. उषा कुछ देर उसे और न बुलाती, तो निर्मला को वह सबकुछ जरूर मिल जाता, जिस के लिए वह कब से तरस रही थी.

जब पिता की मौत हुई थी, तब निर्मला 22 साल की थी. उस से बड़ी कोई और औलाद न होने के चलते बीमार मां और छोटी बहन उषा को पालने की जिम्मेदारी बिना कहे ही उस के कंधे पर आ पड़ी थी.

निर्मला को एक प्राइवेट फर्म में अच्छी सी नौकरी भी मिल गई थी. उस समय उषा 10वीं जमात के इम्तिहान दे चुकी थी, लेकिन उस ने धीरेधीरे आगे पढ़ कर बीए में दाखिला लेते समय निर्मला से कहा था, ‘‘दीदी, मां की दवा में बड़ा पैसा खर्च हो रहा है. तुम अकेले कितना बोझ उठाओगी…

‘‘मैं सोच रही हूं कि 2-4 ट्यूशन कर लूं, तो 2-3 हजार रुपए बड़े आराम से निकल जाएंगे, जिस से मेरी पढ़ाई के खर्च में मदद हो जाएगी.’’

‘‘तुझे पढ़ाई के खर्च की चिंता क्यों हो रही है? मैं कमा रही हूं न… बस, तू पढ़ती जा,’’ निर्मला बोली थी.

अब निर्मला 30 साल की होने वाली है. 1-2 साल में उषा भी पढ़लिख कर ससुराल चली जाएगी, तो अकेलापन पहाड़ बन जाएगा.

लेकिन एक दिन अचानक मौका हाथ आ लगा था, तो निर्मला की सोई इच्छाएं अंगड़ाई ले कर जाग उठी थीं.

उस दिन दफ्तर में काम निबटाने के बाद सब चले गए थे. निर्मला देर तक बैठी कागजों को चैक करती रही थी. संतोष उस की मदद कर रहा था. आखिरकार रात के 10 बजे फाइल समेट कर वह उठी, तो संतोष ने हंस कर कहा था, ‘‘इस समय तो आटोरिकशा या टैक्सी भी नहीं मिलेगी, इसलिए मैं आप को मोटरसाइकिल से घर तक छोड़ देता हूं.’’

निर्मला ने कहा था, ‘‘ओह… एडवांस में शुक्रिया?’’

निर्मला को उस के घर के सामने उतार कर संतोष फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट करने लगा, तो उस ने हाथ बढ़ा कर हैंडल थाम लिया और कहने लगी, ‘‘ऐसे कैसे जाएंगे… घर तक आए हैं, तो कम से कम एक कप चाय…’’

‘‘हां, चाय चलेगी, वरना घर जा कर भूखे पेट ही सोना पड़ेगा. रात भी काफी हो गई है. मैं जिस होटल में खाना खाता हूं, अब तो वह भी बंद हो चुका होगा.’’

‘‘आप होटल में खाते हैं?’’

‘‘और कहां खाऊंगा?’’

‘‘क्यों? आप के घर वाले?’’

‘‘मेरा कोई नहीं है. मैं मांबाप की एकलौती औलाद था. वे दोनों भी बहुत कम उम्र में ही मेरा साथ छोड़ गए, तब से मैं अकेला जिंदगी काट रहा हूं.’’

संतोष ने बहुत मना किया, लेकिन निर्मला नहीं मानी थी. उस ने जबरदस्ती संतोष को घर पर ही खाना खिलाया था.

अगले दिन शाम के 5 बजे निर्मला को देख कर मोटरसाइकिल का इंजन स्टार्ट करते हुए संतोष ने कहा था, ‘‘आइए… बैठिए.’’

निर्मला ने बिना कुछ बोले ही पीछे की सीट पर बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रख दिया था. घर पहुंच कर उस ने फिर चाय पीने की गुजारिश की, तो संतोष ने 1-2 बार मना किया, लेकिन निर्मला उसे घर के अंदर खींच कर ले गई थी.

इस के बाद रोज का यही सिलसिला हो गया. संतोष को निर्मला के घर आने या रुकने के लिए कहने की जरूरत नहीं पड़ती थी, खासतौर से छुट्टी वाले दिन तो वह निर्मला के घर पड़ा रहता था. सब ने उसे भी जैसे परिवार का एक सदस्य मान लिया था.

एक दिन अचानक निर्मला का सपना टूट गया. उस दिन उषा अपनी सहेली के यहां गई थी. दूसरे दिन उस का इम्तिहान था, इसलिए वह घर पर बोल गई थी कि रातभर सहेली के साथ ही पढ़ेगी, फिर सवेरे उधर से ही इम्तिहान देने यूनिवर्सिटी चली जाएगी.

उस दिन भी संतोष निर्मला के साथ ही उस के घर आया था और खाना खा कर रात के तकरीबन 10 बजे वापस चला गया था.

उस के जाने के बाद निर्मला बाहर वाला दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में लौट रही थी, तभी मां ने टोक दिया, ‘‘बेटी, तुझ से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

निर्मला का मन धड़क उठा. मां के पास बैठ कर आंखें चुराते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है मां?’’

‘‘बेटी, संतोष कैसा लड़का है. वह तेरे ही दफ्तर में काम करता है… तू तो उसे अच्छी तरह जानती होगी.’’

निर्मला एकाएक कोई जवाब नहीं दे सकी.

मां ने कांपते हाथों से निर्मला का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तेरे मन का दुख समझती हूं बेटी, लेकिन इज्जत से बढ़ कर कुछ नहीं होता, अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है, इसलिए…’’

निर्मला एकदम तिलमिला उठी. वह घबरा कर बोली, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो मां? क्या तुम ने कभी कुछ देखा है?’’

‘‘हां बेटी, देखा है, तभी तो कह रही हूं. कल जब तू बाजार गई थी, तब दो घड़ी के लिए संतोष आया था. वह उषा के साथ कमरे में था.

‘‘मैं भी उन के साथ बातचीत करने के लिए वहां पहुंची, लेकिन दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने उन दोनों को जिस हालत में देखा…’’

निर्मला चिल्ला पड़ी, ‘‘मां…’’ और वह उठ कर अपने कमरे की ओर भाग गई.

निर्मला के कानों में मां की बातें गूंज रही थीं. उसे विश्वास नहीं हुआ. मां को जरूर धोखा हो गया है. ऐसा कभी नहीं हो सकता. लेकिन यही हो रहा था. अगले दिन निर्मला दफ्तर गई जरूर, लेकिन उस का किसी काम में मन नहीं लगा.

थोड़ी देर बाद ही वह सीट से उठी. उसे जाते देख संतोष ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

निर्मला ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मेरी एक खास सहेली बीमार है. मैं उसे ही देखने जा रही हूं.’’

‘‘कितनी देर में लौटोगी?’’

‘‘मैं उधर से ही घर चली जाऊंगी.’’

बहाना बना कर निर्मला जल्दी से बाहर निकल आई. आटोरिकशा कर के वह सीधे घर पहुंची. मां दवा खा कर सो रही थीं. उषा शायद अपने कमरे में पढ़ाई कर रही थी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. इस लापरवाही पर उसे गुस्सा तो आया, लेकिन बिना कुछ बोले चुपचाप दरवाजा बंद कर के वह ऊपर अपने कमरे में चली गई.

इस के आधे घंटे बाद ही बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज सुनाई पड़ी. निर्मला को समझते देर नहीं लगी कि जरूर संतोष आया होगा.निर्मला कब तक अपने को रोकती. आखिर नहीं रहा गया, तो वह दबे पैर सीढि़यां उतर कर नीचे पहुंची. मां सो रही थीं.

वह बिना आहट किए उषा के कमरे के सामने जा कर खड़ी हो गई और दरवाजे की एक दरार से आंख सटा कर झांकने लगी. भीतर संतोष और उषा दोनों एकदूसरे में डूबे हुए थे.

उषा ने इठलाते हुए कहा, ‘‘छोड़ो मुझे… कभी तो इतना प्यार दिखाते हो और कभी ऐसे बन जाते हो, जैसे मुझे पहचानते नहीं.’’

संतोष ने उषा को प्यार जताते हुए कहा, ‘‘वह तो तुम्हारी दीदी के सामने मुझे दिखावा करना पड़ता है.’’

उषा ने हंस कर कहा, ‘‘बेचारी दीदी, कितनी सीधी हैं… सोचती होंगी कि तुम उन के पीछे दीवाने हो.’’

संतोष उषा को प्यार करता हुआ बोला, ‘‘दीवाना तो हूं, लेकिन उन का नहीं तुम्हारा…’’

कुछ पल के बाद वे दोनों वासना के सागर में डूबनेउतराने लगे. निर्मला होंठों पर दांत गड़ाए अंदर का नजारा देखती रही… फिर एकाएक उस की आंखों में बदले की भावना कौंध उठी. उस ने दरवाजा थपथपाते हुए पूछा, ‘‘संतोष आए हैं क्या? चाय बनाने जा रही हूं…’’

संतोष उठने को हुआ, तो उषा ने उसे भींच लिया, ‘‘रुको संतोष… तुम्हें मेरी कसम…’’

‘‘पागल हो गई हो. दरवाजे पर तुम्हारी दीदी खड़ी हैं…’’ और संतोष जबरदस्ती उठ कर कपड़े पहनने लगा.

उस समय उषा की आंखों में प्यार का एहसास देख कर एक पल के लिए निर्मला को अपना सारा दुख याद आया. मां के कमरे के सामने नींद की गोलियां रखी थीं. उन्हें समेट कर निर्मला रसोईघर में चली गई. चाय छानने के बाद वह एक कप में ढेर सारी नींद की गोलियां डाल कर चम्मच से हिलाती रही, फिर ट्रे में उठाए हुए बाहर निकल आई.

संतोष ने चाय पी कर उठते हुए आंखें चुरा कर कहा, ‘‘मुझे बहुत तेज नींद आ रही है. अब चलता हूं, फिर मुलाकात होगी.’’इतना कह कर संतोष बाहर निकला और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के घर के लिए चला गया.

दूसरे दिन अखबारों में एक खबर छपी थी, ‘कल मोटरसाइकिल पेड़ से टकरा जाने से एक नौजवान की दर्दनाक मौत हो गई. उस की जेब में मिले पहचानपत्रों से पता चला कि संतोष नाम का वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था’.