
दरखशां के दिन भी उदासी से बीत रहे थे. कभी अमीना आ जातीं तो कभी अब्बू या शाहिद जाहिद. कभी कभी वह खुद भी मायके चली जाती. 15 दिनों बाद हम्माद आया तो दरखशां पहले की ही तरह उदास थी. हम्माद ने सोचा कि क्या मेरी कमी इस ने महसूस नहीं की. मेरे आने पर न आंखों में चमक आई न चेहरे पर खुशी. हम्माद भी उदास हो गया.
आम बीवियों की तरह दरखशां खाने का इंतजाम करने लगी. हम्माद ने उस से यह भी नहीं पूछा कि वह कैसी है? न कोई जुदाई के किस्से, न तनहाई की बातें. वह सोच रही थी कि यह कितने कठोर इंसान है. इतने दिनों बाद आए हैं, फिर भी कोई बेचैनी नहीं दिखती. शायद उस के बिना खुश थे. उस ने किचन में अपनी नम आंखें पोंछी. दो दिन रह कर हम्माद चला गया.
अगले हफ्ते दरखशां की सालगिरह थी. उस की जिंदगी का सब से अहम और खूबसूरत दिन. वह परेशान थी कि अपनी सालगिरह कैसे और किस के साथ मनाए. हम्माद के आने में एक सप्ताह बाकी रहेगा. वह अकेली क्या करेगी. यह सोच कर वह रो पड़ी. पिछले साल उस की सालगिरह पर कितना अच्छा इंतजाम किया गया था. सारी सहेलियां आई थीं. घर को खूब सजाया गया था.
यही सब सोचसोच कर दरखशां का सिर दर्द करने लगा. क्या इस बार 5 अप्रैल का दिन यूं ही गुजर जाएगा. वह अपनी सालगिरह नहीं मना पाएगी. बेबसी और बेचैनी से उस का वजूद थर्रा उठा.
सालगिरह वाले दिन जब दरखशां सो कर उठी तो उस का मन काफी खिन्न था. लेकिन मौसम बड़ा खुशगवार था. उस के अब्बू और अम्मी ने उसे फोन कर के मुबारकबाद दे दी थी. दरखशां सिसक कर रह गई. दोपहर 12 बजे नसीर ने एक कुरियर पैकेट ला कर दिया, जो मारिया की ओर से गिफ्ट था. शाहिद और जाहिद ने भी कार्ड भेजे थे.
दरखशां की आंखें बेसाख्ता भर आईं. सब को यह दिन याद रहा, लेकिन हम्माद को..? हम्माद के न होने से उसे बड़ी उदासी लग रही थी. उस ने मारिया द्वारा भेजी गई खूबसूरत ज्वैलरी और परफ्यूम तथा अपने भाइयों द्वारा भेजे गए रंगबिरंगे कार्डों को ले जा कर साफिया बेगम को दिखाए. वह उसे दुआएं देती हुई बोलीं, ‘‘मुबारक हो बेटा, पहले जिक्र किया होता तो मैं भी कुछ ले आती.’’
रुलाई दबा कर दरखशां बोली, ‘‘अम्मी, मैं तो ऐसे ही…’’
‘‘चलो, कोई बात नहीं. हम्माद आ जाए तो मिल कर सालगिरह मना लेंगे. खुदा तुम्हें सुखी रखे, सदा सुहागन रहो, शादो आबाद रहो.’’ अम्मी ने कहा.
दरखशां अपने कमरे में चली गई. उसे तनहाई और हम्माद की बेवफाई अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. वह रोने ही वाली थी कि मारिया का फोन आ गया. उस ने सालगिरह की मुबारकबाद दी तो उस का दिल भर आया.
वह तड़प कर बोली, ‘‘हुंह, कैसी सालगिरह, कैसा इंतजाम. मारिया, मैं बिलकुल अकेली हूं. उन्हें तो मुझ से ज्यादा मरीजों से प्यार है.’’ इस के बाद सिसकते हुए आगे बोली, ‘‘ये डाक्टर लोग होते ही कठोर हैं. उन्हें मेरी सालगिरह कैसे याद रहेगी. यहां तो वीरानी और तनहाई है. मैं उन से यह भी नहीं कह सकती कि मैं उन के बगैर कितनी अधूरी और उदास हूं. उन से कितनी मोहब्बत करती हूं.’’
काफी देर तक दरखशां मारिया से गिलेशिकवे करती रही. दूसरी ओर से मारिया उसे तसल्ली देती रही. वह अर्थपूर्ण ढंग से हंस भी रही थी, जो दरखशां की समझ से बाहर था. आखिर उस ने ‘खुदा हाफिज’ कह कर फोन रख दिया.
दरखशां फोन मेज पर रख कर मुड़ी तो जैसे पत्थर हो गई. दरवाजे के पास हम्माद खड़ा था. उस के होठों पर बेहद शरारती मुसकराहट थी.
‘‘अ…अ…आप?’’ दरखशां उसे देख कर हैरानी से हिसाब लगाते हुए बोली, ‘‘लेकिन आप तो 6 दिन बाद आने वाले थे.’’ दरखशां के दिल में उथलपुथल मची थी. हम्माद कुछ बोले बगैर अंदर आ गया और कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. ऐसे में दरखशां का दिल तेजी से धड़कने लगा. दरखशां के करीब आ कर अपने दोनों हाथ उस के कांपते कंधों पर रख कर हम्माद ने दबाव डाला तो वह बेड पर बैठ गई. इस के बाद उस की आंखों में आंखें डाल कर हम्माद ने कहा, ‘‘यह कठोर मुझे ही कहा जा रहा था न?’’
‘‘म…म…मैं…नहीं…वह…’’ दरखशां हकलाई.
‘‘सालगिरह मुबारक हो.’’ हम्माद दरखशां के बगल में बैठ कर अपनी बांहें उस के गले में डाल कर बोला.
हम्माद जिस तरह प्यार से दरखशां से अपनी बातें कह रहा था, वे उस पर बहारों के फूल की तरह गिर रही थीं. प्यार से भरे शब्द सारे गिलेशिकवे धो रहे थे. उदासी के गुबार मिटा रहे थे.
‘‘तुम्हारी सालगिरह भला मुझे क्यों न याद रहती,’’ दरखशां की नाजुक नाक को 2 अंगुलियों से पकड़ कर हिलाते हुए हम्माद ने कहा ‘‘जानम, जिन से मोहब्बत होती है, उन के बारे में हमेशा सजग रहना पड़ता है. तुम ने यह कैसे कह दिया कि मैं मरीजों का हूं, तुम्हारा नहीं.’’
हम्माद अपनी बात कहते हुए अंगुली से दरखशां की ठोढ़ी को उठा कर सवालिया नजरों से देखा. दरखशां ने शरम के मारे आंखें झुका ली थीं. वह उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी. हम्माद ने आगे कहा, ‘‘तुम मेरी जान हो दरखशां. माना कि मैं इजहार में कंजूसी करता हूं. लेकिन अब तुम्हें कोई शिकवा नहीं होना चाहिए. मैं जानता हूं कि तुम कुछ नहीं कहोगी, फिर भी मेरी जुदाई में घुली जा रही हो. तुम मेरे बिना नहीं रह सकती तो मैं भी तुम्हारे बिना अधूरा हूं. अब वादा करो, तुम सारे गिलेशिकवे भुला दोगी.’’
दरखशां ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो हम्माद ने जेब से एक डिबिया निकाल कर उस में से सोने की एक चैन निकाली. उसे दरखशां के गले में डाला तो वह हैरान रह गई. वह हम्माद के सीने से लग गई तो हम्माद को लगा कि उस के दिल का सारा बोझ उतर गया है. उस ने दरखशां को बांहों में समेट कर कहा, ‘‘चलो मेरे साथ, तुमहारे लिए एक और सरप्राइज है.’’
‘‘क्या?’’ दरखशां ने पूछा.
‘‘साथ चलो तो…, कह कर हम्माद उसे लाउज में ले आया. अम्मी वहीं सोफे पर बैठी थीं. तरहतरह की खानेपीने की चीजों के साथ मेज पर केक भी रखा था. तभी दरवाजा खुला और अमीना, राशिद, जाहिद, शाहिद, मारिया और उस की अन्य सहेलियां मुसकराते हुए अंदर आ गईं.
दरखशां का दिल मारे खुशी के उछल पड़ा. उसे लगा कि खुशियों में ढेर सारे गुलाब एक साथ खिल गए हैं. सब ने उसे ‘हैप्पी बर्थ डे’ कहा. अम्मी के कहने पर वह तैयार होने के लिए अपने कमरे की ओर चल पड़ी. हम्माद ने एक आंख दबाते हुए कहा, ‘‘जल्दी आना.’’
दरखशां शरम और खुशी से दोहरी हो गई.
— प्रस्तुति : कलीम आनंद
3 महीने गुजरते देर कहां लगती है. हम्माद और दरखशां की शादी हो गई. दरखशां रुखसत हो कर पिया के घर आ गई. हम्माद के घर पहंचने पर साफिया बेगम और शहनाज ने उस का स्वागत किया. शहनाज और अन्य औरतें उसे सजा कर सुहाग के कमरे में ले गईं. शहनाज ने उसे बैड पर बैठा दिया. इस के बाद चुहलबाजी करती हुई चली गई.
काफी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला. हम्माद अंदर आ कर उस के पास बैठ गया. दरखशां का घूंघट उलट कर बोला, ‘‘माशा अल्लाह, आंखें तो खोलिए.’’
हम्माद की इस आवाज में न बेताबी थी और न दीवानगी न जज्बों की लपक थी और न इंतजार की कशमकश. दरखशां ने पलकें उठाईं तो हम्माद का दिलकश चेहरा सामने था.
‘‘मैं खुशकिस्मत हूं कि तुम मेरी शरीके हयात बन गई हो.’’ हम्माद लापरवाही से बोला.
दरखशां के दिल में खौफ के बजाय अब एक बेनाम सी उदासी थी. वह रात हम्माद ने वादों के साथ बिताई. दरखशां अपने हुस्न के कसीदे सुनने की ख्वाहिशमंद थी, जबकि हम्माद ने संक्षिप्त सी बात कर के इस टौपिक को ही बंद कर दिया था. इस उपेक्षा से उस के दिल पर एक बोझ सा आ पड़ा, जैसे कुछ खो गया हो. एक नईनवेली दुलहन के लिए कुछ तो कहना चाहिए. वह अपना पोर पोर सजा कर इन्हीं के लिए तो आई थी. लेकिन जैसे वह जज्बों से बिलकुल खाली था.
शादी हुए काफी दिन गुजर गए. हम्माद उसे मायके भी ले जाता और घुमाने फिराने भी. होटल और रेस्त्रां में खिलातापिलाता भी, लेकिन कभी प्यार का इजहार नहीं करता था और न ही उस की खूबसूरती के कसीदे पढ़ता. वह एक प्रैक्टिकल सोच वाला इंसान था. अपने काम के प्रति बेहद ईमानदार.
हम्माद का घर बेहद खूबसूरत था. घर में एक नौकर नसीर तो था ही, साफसफाई के लिए एक नौकरानी भी रखी हुई थी. घर में कोई अधिक काम नहीं था, इसलिए दरखशां सारा दिन बौखलाई फिरती थी. जब उस का मन घबराता तो वह तेज आवाज में डैक चला कर गाने सुनती या फिर कंप्यूटर से दिल बहलाती.
हम्माद सुबह निकलता था तो रात को ही आता था. ऐसे में कभीकभी दरखशां को अपने मून और पिंकी की याद आती तो वह मारिया को फोन करती. मारिया उस की बात सुन कर बेसाख्ता हंसते हुए कहती, ‘‘अरे पगली, अब तू शादीशुदा है. मून और पिंकी की फिक्र छोड़, कल को तेरे अपने गुड्डे गुडि़यां आ जाएंगे, उन्हीं से खेलना.’’
ऊब कर दरखशां सास साफिया बेगम के पास बैठ जाती तो वह उसे किस्से कहानियां सुनातीं. वह उन की अच्छी तरह देखभाल करती थी, क्योंकि वह जोड़ों के दर्द की मरीज थीं.
हम्माद के आने का समय होता तो वह उसे जबरदस्ती तैयार होने को कहतीं. वह सोचती कि पत्थर दिल बेहिस डाक्टर साहब सारा दिन दवाइयों की गंध सूंघते रहते हैं. ऐसे में उस के सजसंवर कर रहने का उन पर क्या असर होगा. सच भी था, हम्माद को अपने पेशे से काफी लगाव था. घर आने पर वह दरखशां से भी ज्यादा बात नहीं करते थे. सिर्फ मतलब की बात करते, वरना खामोशी, किताबें या फिर कंप्यूटर.
साफिया बेगम की आवाज उस के कानों में पड़ी तो वह यादों से बाहर आ गई. वह साफिया बेगम के कमरे की ओर भागी. अब तक हम्माद सो गया था.
इसी तरह दिन बीत रहे थे. अचानक हम्माद की ड्यूटी रात में लगा दी गई थी. दरखशां ने आह सी भरी तो हम्माद ने कहा, ‘‘अरे भई, यह पेशा ही ऐसा है. कभी रात तो कभी दिन. असल काम तो मरीजों की सेवा करना है.’’
उसी बीच दरखशां मायके गई और कई दिनों बाद वापस आई. संयोग से उसी समय हम्माद भी घर आ गया. वह जूते के बंद खोलते हुए तल्खी से बोला, ‘‘तुम्हारा मन मायके में कुछ ज्यादा ही लगता है.’’
‘‘क्यों न लगे. अपने मांबाप को देखने भी नहीं जा सकती क्या?’’ दरखशां ने कहा.
हम्माद चुप रह गया. दरखशां जब भी मायके जाती, अपने मून और पिंकी को गले लगाती. अपनी अम्मी से खूब बातें करती. मायके से आने लगती तो खूब रोती. शादी हुए एक साल हो रहा था, लेकिन वह खुद को ससुराल में एडजस्ट नहीं कर पा रही थी. वह सोचती थी कि जब वह ससुराल आए तो हम्माद कहे कि तुम्हारे बगैर ये 2 दिन मैं ने कांटों पर गुजारे हैं. रात को तुम मेरे पहलू में नहीं होती तो मैं करवट बदलता रहता हूं. लेकिन उस के मुंह से कभी ऐसे वाक्य नहीं निकलते, जो दरखशां के मोहब्बत के तरसे दिल पर फव्वारा बन कर गिरते.
किचन का ज्यादातर काम दरखशां करती थी, नसीर उस के साथ लगा रहता था. साफिया उसे समझातीं, मगर वह नहीं मानती. दरखशां अब अच्छा खाना बनाने लगी थी. लेकिन हम्माद ने कभी उस के खाने की तारीफ नहीं की. ऐसे में दरखशां झुंझला जाती. साफिया उस की तारीफें करती तो दरखशां कमरे में आ कर रोती.
एक दिन दरखशां ने साफिया बेगम से हम्माद के ऐसे मिजाज के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘‘अरे बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है. जब से उस के अब्बू का इंतकाल हुआ है, तब से यह खामोश और तनहाई पसंद हो गया है. बस पढ़ाई में मगन रहा. लेकिन जब से तुम आई हो, इस में काफी बदलाव आया है.’’
कुछ दिनों बाद हम्माद को पास के एक कस्बे के अस्पताल का इंचार्ज बना कर भेज दिया गया. नया अस्पताल बना था. हम्माद को जूनियर डाक्टरों के साथ इंचार्ज बन कर जाना था.
2 दिनों बाद हम्माद वहां जाने के लिए तैयार था. जाते वक्त उस ने कहा, ‘‘मैं 15 दिनों बाद आऊंगा.’’
हम्माद के अंदाज में न तो उदासी थी और न ही कोई परेशानी. वह बाहर जाने में बड़ा संतुष्ट लग रहा था. अम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, दुलहन को भी साथ ले जाते तो अच्छा रहता.’’
‘‘नहीं अम्मी, अभी मुमकिन नहीं है. पहले जगह वगैरह देख लूं. घर तो मिल जाएगा, लेकिन कैसा माहौल है, क्या सहूलियतें हैं, यह सब देखना पड़ेगा.’’
हम्माद की बात सुन कर दरखशां तिलमिला उठी. उस की आंखों में आंसू भर आए.
नई जगह होने की वजह से हम्माद को फुरसत नहीं मिलती थी. सहूलियतें भी काफी कम थीं. मरीजों का दिनरात तांता लगा रहता था. यह पिछड़ा इलाका था. हम्माद दिनभर काम में लगा रहता. रात को कमरे में आता तो दरखशां की याद दिल से लिपट जाती. उस का मासूम, भोलाभाला चेहरा और मंदमंद मुसकराहट उसे बेचैन कर देती.
हालांकि हम्माद रात की भी ड्यूटी करता था, मगर इतने दिनों के लिए वह पहली बार दरखशां से जुदा हुआ था. दरखशां की कमी और दूरी उसे परेशान कर रही थी.
डैक पर बजने वाला गाना भले ही बैडरूम में बज रहा था, लेकिन वह इतनी जोर से बज रहा था कि उस की लपेट में पूरा घर आ रहा था. घर में प्रवेश करते ही हम्माद ने देखा, लाउंज में खड़ा नौकर नसीर भी उस गाने का मजा ले रहा था. उसे देखते ही झट से सलाम कर के वह किचन की ओर बढ़ गया. हम्माद की अम्मी के कमरे का दरवाजा बंद था. सुबह से ही उन की तबीयत खराब थी. वह दवा खा कर लेटी थीं, मगर इस हंगामे में भला आराम कहां से मिलता.
काम की थकान की वजह से हम्माद का दिमाग पहले से ही खराब था, इस शोरगुल ने उसे और खराब कर दिया था. बैडरूम का दरवाजा खुला था. उस की बीवी दरखशां बैड पर औंधी लेटी गाने का मजा लेती हुई पैर हिला रही थी. हम्माद सिर दर्द की वजह से जल्दी घर आ गया था. इस हंगामे से उस की कनपटियां चटखने लगीं. दरखशां के करीब जा कर उस ने तेज आवाज में कहा, ‘‘मैडम…’’
दरखशां इस तरह चौंकी, जैसे किसी सुहाने ख्वाब में खोई रही है. वह एकदम से उठ बैठी. हम्माद ने डेक औफ किया और उसे घूरते हुए बोला, ‘‘यह घर है दरखशां. फिर अम्मी की तबीयत भी खराब है, इस के बावजूद तुम ने फुल वाल्यूम में डेक चला रखा है.’’
‘‘वो मैं… सौरी.’’ दरखशां घबराहट में बोली. उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था.
यह वक्त हम्माद के आने का नहीं था, इसलिए वह अपनी मनमर्जी कर रही थी. उस समय उस के दिमाग से यह बात निकल गई थी कि सास की तबीयत खराब है. उसे शर्मिंदगी महसूस हुई. वह इस तरह उठ कर खड़ी हुई, जैसे उस की टांगों में जान न हो.
‘‘एक कप चाय.’’ हम्माद की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था. कह कर वह वौशरूम में घुस गया. दरखशां की आंखें भर आईं. क्योंकि वह ऐसे लहजे की आदी नहीं थी. आंसू पीते हुए उस ने नसीर से चाय बनाने को कहा और खुद लाउंज में जा कर खड़ी हो गई.
चाय ले कर दरखशां कमरे में आई तो हम्माद कपड़े बदल कर बिस्तर पर लेट चुका था. चाय के साथ 2 गोलियां निगल कर उस ने कप तिपाई पर रख दिया और खुद कंबल ओढ़ कर लेट गया. दरखशां यह भी नहीं कह सकी कि सिर दबा दे. कंबल के साथ हम्माद ने खामोशी भी ओढ़ ली थी. वह लाइट औफ कर के सोफे पर बैठ गई. उस का मन रोने को हो रहा था. हम्माद का यह रवैया उसे पसंद नहीं आया था. उस ने आंखें मूंद लीं. तभी उस के जेहन में गुजरे दिनों की फिल्म चलने लगी.
इंटर पास कर के दरखशां ने कालेज में दाखिला ले लिया था, इस के बावजूद गुड्डे गुडियों से खेलने का शौक उस का गया नहीं था. उस ने गुड्डे का नाम मून रखा था तो गुडि़या का पिंकी. उस के इस खेल में उस की सहेली मारिया के अलावा आसपड़ोस की कुछ अन्य लड़कियां भी शामिल होती थीं. मारिया का घर पड़ोस में ही था. इसलिए वह अकसर दरखशां के साथ ही रहती थी.
दरखशां को गुड्डेगुडि़या के साथ खेलते देख उस की अम्मी अमीना अकसर नाराज हो कर कहतीं, ‘‘इतनी बड़ी हो गई है, फिर भी गुड्डेगुडि़यों के साथ खेलती रहती है.’’
तब दरखशां के वालिद राशिद कहते, ‘‘खेलती है तो खेलने दो, हमारी एक ही तो बेटी है. कम से कम सहेलियों के साथ घर में खेलती है, बेटों की तरह बाहर तो नहीं जाती.’’
दरखशां थी ही इतनी प्यारी, मासूम सूरत, सुर्खी लिए सफेद रंगत, बड़ीबड़ी नशीली आंखें, दरमियाना कद, उस पर सितम ढाती भोलीभाली सूरत.
दरखशां के वालिद एक विदेशी कंपनी में अच्छी पोस्ट पर नौकरी करते थे. दरखशां से 3 साल छोटे 2 जुड़वां भाई थे – शाहिद और जाहिद. भाईबहन आपस में दोस्ताना रवैया रखते थे, मगर दोनों भाई दरखशां को परेशान करने से बाज नहीं आते थे. वे शरारती भी बहुत थे. अक्सर वे दरखशां के गुड्डेगुडि़यों को छिपा देते. दरखशां अम्मी से शिकायत करती तो वे मून और पिंकी को उस के हाथ में थाम कर कहते, ‘‘अम्मी लगता है, आपी इन्हें अपने साथ ससुराल भी ले जाएंगी.’’
ससुराल के नाम पर घबरा कर दरखशां अम्मी के सीने से चिपक जाती. ससुराल जाने के खयाल से ही वह घबरा जाती थी. अभी वह 17 साल की ही तो थी. अगले महीने 5 अप्रैल को उस की सालगिरह थी, जिस की तैयारी अभी से शुरू हो गई थी. दरखशां की सालगिरह हमेशा बड़े धूमधाम से मनाई जाती थी.
कालेज की पढ़ाई के दौरान दरखशां को गुड्डेगुडि़यों से खेलने का मौका कम ही मिलता था. लेकिन दिन में एक बार उन्हें अच्छी तरह देख कर वह तसल्ली जरूर कर लेती थी.
एक दिन वह कुछ पढ़ रही थी, तभी उस के वालिद ने उस की अम्मी से कहा, ‘‘अमीना, अब हमें दरखशां की शादी कर देनी चाहिए. रिश्ता अच्छा है, मना नहीं किया जा सकता. हम्माद मेरे दोस्त का बेटा है, डाक्टर है. देखाभला और जानासुना है. अब दोस्त नहीं रहा तो मना करना ठीक नहीं है. रजा ने इस रिश्ते के लिए मुझ से बहुत पहले ही वादा करा लिया था. उन की बेगम ने पैगाम भिजवाया है. कल वह आ रही हैं. सारी तैयारी कर लो. दरखशां को भी समझा देना. आज के जमाने में इस तरह का रिश्ता जल्दी कहां मिलता है.’’
अगले दिन हम्माद अपनी अम्मी साफिया बेगम और बहन शहनाज के साथ दरखशां को देखने आया. शहनाज की शादी हो चुकी थी. मारिया ने दिल खोल कर हम्माद की तारीफें कीं. साफिया बेगम ने दरखशां को अपने पास बिठाया और उस की नाजुक अंगुली में अंगूठी पहना कर रिश्ते के लिए हामी भर दी.
राशिद के सिर का बोझ उतर गया. दरखशां ने सरसरी तौर पर हम्माद को देखा. रौबदार संजीदा चेहरा, गंभीर आवाज. दरखशां का नन्हा सा दिल कांप उठा. उसे वह काफी गुस्से वाला लगा.
खाना वगैरह खा कर सभी चले गए. उन के जाते ही शाहिद और जाहिद ने दरखशां से छेड़छाड़ शुरू कर दी. उस की नाक में दम कर दिया. बेटी को परेशान होते देख अमीना नम आवाज में बोली, ‘‘मेरी बेटी को परेशान मत करो. अब सिर्फ 3 महीने की ही तो मेहमान है.’’
जब तक बीजी और बाबूजी जिंदा थे और सुमन की शादी नहीं हुई थी, तब तक सुरेश और वंदना को बेऔलाद होने की उदासी का अहसास इतना गहरा नहीं था. घर की रौनक उदासी के अहसास को काफी हद तक हलका किए रहती थी. लेकिन सुमन की शादी के बाद पहले बाबूजी, फिर जल्दी ही बीजी की मौत के बाद हालात एकदम से बदल गए. घर में ऐसा सूनापन आया कि सुरेश और वंदना को बेऔलाद होने का अहसास कटार की तरह चुभने लगा. उन्हें लगता था कि ठीक समय पर कोई बच्चा गोद न ले कर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की.
लेकिन इसे गलती भी नहीं कहा जा सकता था. अपनी औलाद अपनी ही होती है, इस सोच के साथ वंदना और सुरेश आखिर तक उम्मीद का दामन थामे रहे. लेकिन उन की उम्मीद पूरी नहीं हुई. कई रिश्तेदार अपना बच्चा गोद देने को तैयार भी थे, लेकिन उन्होंने ही मना कर दिया था. उम्मीद के सहारे एकएक कर के 22 साल बीत गए.
अब घर काटने को दौड़ता था. भविष्य की चिंता भी सताने लगी थी. इस मामले में सुरेश अपनी पत्नी से अधिक परेशान था. आसपड़ौस के किसी भी घर से आने वाली बच्चे की किलकारी से वह बेचैन हो उठता था. बच्चे के रोने से उसे गले लगाने की ललक जाग उठती थी. सुबह सुरेश और वंदना अपनीअपनी नौकरी के लिए निकल जाते थे. दिन तो काम में बीत जाता था. लेकिन घर आते ही सूनापन घेर लेता था. सुरेश को पता था कि वंदना जितना जाहिर करती है, उस से कहीं ज्यादा महसूस करती है.
कभीकभी वंदना के दिल का दर्द उस की जुबान पर आ भी जाता. उस वक्त वह अतीत के फैसलों की गलती मानने से परहेज भी नहीं करती थी. वह कहती, ‘‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि अतीत में किए गए हमारे कुछ फैसले सचमुच गलत थे. सभी लोग बच्चा गोद लेने को कहते थे, हम ने ऐसा उन की बात मान कर गलती नहीं की?’’
‘‘फैसले गलत नहीं थे वंदना, समय ने उन्हें गलत बना दिया.’’ कह कर सुरेश चुप हो जाता.
ऐसे में वंदना की आंखों में एक घनी उदासी उतर आती. वह कहीं दूर की सोचते हुए सुरेश के सीने पर सिर रख कर कहती, ‘‘आज तो हम दोनों साथसाथ हैं, एकदूसरे को सहारा भी दे सकते हैं और हौसला भी. मैं तो उस दिन के खयाल से डर जाती हूं, जब हम दोनों में से कोई एक नहीं होगा?’’
‘‘तब भी कुछ नहीं होगा. किसी न किसी तरह दिन बीत जाएंगे. इसलिए ज्यादा मत सोचा करो.’’ सुरेश पत्नी को समझाता, लेकिन उस की बातों में छिपी सच्चाई को जान कर खुद भी बेचैन हो उठता.
भविष्य तो फिलहाल दीवार पर लिखी इबारत की तरह एकदम साफ था. सुरेश को लगता था कि वंदना भले ही जुबान से कुछ न कहे, लेकिन वह किसी बच्चे को गोद लेना चाहती है. घर के सूनेपन और भविष्य की चिंता ने सुरेश के मन को भी भटका दिया था. उसे भी लगता था कि घर की उदासी और सूनेपन में वंदना कहीं डिप्रैशन की शिकार न हो जाए.
लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी था कि उम्र के इस पड़ाव पर किसी बच्चे को गोद लेना क्या समझदारी भरा कदम होगा? सुरेश 50 की उम्र पार कर चुका था, जबकि वंदना भी अगले साल उम्र के 50वें साल में कदम रखने जा रही थी. ऐसे में क्या वे बच्चे का पालनपोषण ठीक से कर पाएंगे?
काफी सोचविचार और जद्दोजहद के बाद सुरेश ने महसूस किया कि अब ऐसी बातें सोचने का समय नहीं, निर्णय लेने का समय है. बच्चा अब उस की और वंदना की बहुत बड़ी जरूरत है. वही उन के जीवन की नीरसता, उदासी और सूनेपन को मिटा सकता है.
सुरेश ने इस बारे में वंदना से बात की तो उस की बुझी हुई आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या अब भी ऐसा हो सकता है?’’
‘‘क्यों नहीं हो सकता, हम इतने बूढ़े भी नहीं हो गए हैं कि एक बच्चे को न संभाल सकें.’’ सुरेश ने कहा.
बच्चे को गोद लेने की उम्मीद में वंदना उत्साह से भर उठी. लेकिन सवाल यह था कि बच्चा कहां से गोद लिया जाए. किसी अनाथालय से बच्चा गोद लेना असान नहीं था. क्योंकि गोद लेने की शर्तें और नियम काफी सख्त थे. रिश्तेदारों से भी अब कोई उम्मीद नहीं रह गई थी. किसी अस्पताल में नाम लिखवाने से भी महीनों या वर्षों लग सकते थे.
ऐसे में पैसा खर्च कर के ही बच्चा जल्दी मिल सकता था. मगर बच्चे की चाहत में वे कोई गलत और गैरकानूनी काम नहीं करना चाहते थे. जब से दोनों ने बच्चे को गोद लेने का मन बनाया था, तब से वंदना इस मामले में कुछ ज्यादा ही बेचैन दिख रही थी. शायद उस के नारी मन में सोई ममता शिद्दत से जाग उठी थी.
एक दिन शाम को सुरेश घर लौटा तो पत्नी को कुछ ज्यादा ही जोश और उत्साह में पाया. वह जोश और उत्साह इस बात का अहसास दिला रहा था कि बच्चा गोद लेने के मामले में कोई बात बन गई है. उस के पूछने की नौबत नहीं आई, क्योंकि वंदना ने खुद ही सबकुछ बता दिया.
वंदना के अनुसार, वह जिस स्कूल में पढ़ाती थी, उस स्कूल के एक रिक्शाचालक जगन की बीवी को 2 महीने पहले दूसरी संतान पैदा हुई थी. उस के 2 बेटे हैं. जगन अपनी इस दूसरी संतान को रखना नहीं चाहता था. वह उसे किसी को गोद देना चाहता था.
‘‘उस के ऐसा करने की वजह?’’ सुरेश ने पूछा, तो वंदना खुश हो कर बोली, ‘‘वजह आर्थिक हो सकती है. मुझे पता चला है, जगन पक्का शराबी है. जो कमाता है, उस का ज्यादातर हिस्सा पीनेपिलाने में ही उड़ा देता है. शराब की लत की वजह से उस का परिवार गरीबी झेल रहा है. मैं ने तो यह भी सुना है कि शराब की ही वजह से जगन ने ऊंचे ब्याज पर कर्ज भी ले रखा है. कर्ज न लौटा पाने की वजह से लेनदार उसे परेशान कर रहे हैं.
सुनने में आया है कि एक दिन उस का रिक्शा भी उठा ले गए थे. उन्होंने बड़ी मिन्नतों के बाद उस का रिक्शा वापस किया था. मुझे लगता है, जगन अपना यह दूसरा बच्चा किसी को गोद दे कर जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहता है. इसी बहाने वह अपने सिर पर चढ़ा कर्ज भी उतार देगा.’’
‘‘इस का मतलब वह अपनी मुसीबतों से निजात पाने के लिए अपने बच्चे का सौदा करना चाहता है?’’ सुरेश ने व्यंग्य किया.
‘‘कोई भी आदमी बिना किसी स्वार्थ या मजबूरी के अपना बच्चा किसी दूसरे को क्यों देगा?’’ वंदना ने कहा तो सुरेश ने पूछा, ‘‘जगन की बीवी भी बच्चा देने के लिए तैयार है?’’
‘‘तैयार ही होगी. बिना उस के तैयार हुए जगन यह सब कैसे कर सकता है?’’
वंदना की बातें सुन कर सुरेश सोच में डूब गया. उसे सोच में डूबा देख कर वंदना बोली, ‘‘अगर तुम्हें ऐतराज न हो तो मैं जगन से बच्चे के लिए बात करूं?’’
‘‘बच्चा गोद लेने का फैसला हम दोनों का है. ऐसे में मुझे ऐतराज क्यों होगा?’’ सुरेश बोला.
‘‘मैं जानती हूं, फिर भी मैं ने एक बार तुम से पूछना जरूरी समझा.’’
2 दिनों बाद वंदना ने सुरेश से कहा, ‘‘मैं ने स्कूल के चपरासी माधोराम के जरिए जगन से बात कर ली है. वह हमें अपना बच्चा पूरी लिखापढ़ी के साथ देने को राजी है. लेकिन इस के बदले 15 हजार रुपए मांग रहा है. मेरे खयाल से यह रकम ज्यादा नहीं है?’’
‘‘नहीं, बच्चे न तो बिकाऊ होते हैं और न उन की कोई कीमत होती है.’’
‘‘मैं जगन से उस का पता ले लूंगी. हम दोनों कल एकसाथ चल कर बच्चा देख लेंगे. तुम कल बैंक से कुछ पैसे निकलवा लेना. मेरे खयाल से इस मौके को हमें हाथ से नहीं जाने देना चाहिए.’’ वंदना ने बेसब्री से कहा.
उस की बात पर सुरेश ने खामोशी से गर्दन हिला दी.
अगले दिन सुरेश शाम को वापस आया तो वंदना तैयार बैठी थी. सुरेश के आते ही उस ने कहा, ‘‘मैं चाय बनाती हूं. चाय पी कर जगन के यहां चलते हैं.’’
कुछ देर में वंदना 2 प्याले चाय ला कर एक प्याला सुरेश को देते हुए बोली, ‘‘वैसे तो अभी पैसों की जरूरत नहीं लगती. फिर भी तुम ने बैंक से पैसे निकलवा लिए हैं या नहीं?’’
‘‘हां.’’ सुरेश ने चाय की चुस्की लेते हुए उत्साह में कहा.
चाय पी कर दोनों घर से निकल पड़े. आटोरिक्शा से दोनों जगन के घर जा पहुंचे. जगन का घर क्या 1 गंदी सी कोठरी थी, जो काफी गंदी बस्ती में थी. उस के घर की हालत बस्ती की हालत से भी बुरी थी. छोटे से कमरे में एक टूटीफूटी चारपाई, ईंटों के बने कच्ची फर्श पर एक स्टोव और कुछ बर्तन पड़े थे. कुल मिला कर वहां की हर चीज खामेश जुबान से गरीबी बयां कर रही थी.
जगन का 5 साल का बेटा छोटे भाई के साथ कमरे के कच्चे फर्श पर बैठा प्लास्टिक के एक खिलौने से खेल रहा था, जबकि उस की कुपोषण की शिकार पत्नी तीसरे बच्चे को छाती से चिपकाए दूध पिला रही थी. इसी तीसरे बच्चे को जगन सुरेश और वंदना को देना चाहता था. जगन ने पत्नी से बच्चा दिखाने के लिए मांगा.
पत्नी ने खामोश नजरों से पहले जगन को, उस के बाद सुरेश और वंदना को देखा, फिर कांपते हाथों से बच्चे को जगन को थमा दिया. उसी समय सुरेश के मन में शूल सा चुभा. उसे लगा, वह और वंदना बच्चे के मोह में जो करने जा रहे हैं, वह गलत और अन्याय है.
जगन ने बच्चा वंदना को दे दिया. बच्चा, जो एक लड़की थी सचमुच बड़ी प्यारी थी. नाकनक्श तीखे और खिला हुआ साफ रंग था. वंदना के चेहरे के भावों से लगता था कि बच्ची की सूरत ने उस की प्यासी ममता को छू लिया था.
बच्ची को छाती से चिपका कर वंदना ने एक बार उसे चूमा और फिर जगन को देते हुए बोली, ‘‘अब से यह बच्ची हमारी हुई जगन. लेकिन हम इसे लिखापढ़ी के बाद ही अपने घर ले जाएंगे. कल रविवार है. परसों कचहरी खुलने पर किसी वकील के जरिए सारी लिखापढ़ी कर लेंगे. एक बात और कह दूं, बच्चे के मामले में तुम्हारी बीवी की रजामंदी बेहद जरूरी है. लिखापढ़ी के कागजात पर तुम्हारे साथसाथ उस के भी दस्तखत होंगे.’’
‘‘हम सबकुछ करने को तैयार हैं.’’ जगन ने कहा.
‘‘ठीक है, हम अभी तुम्हें कुछ पैसे दे रहे हैं, बाकी के सारे पैसे तुम्हें लिखापढ़ी के बाद बच्चा लेते समय दे दूंगी.’’
जगन ने सहमति में गर्दन हिला दी. इस के बाद वंदना ने सुरेश से जगन को 3 हजार रुपए देने के लिए कहा. वंदना के कहने पर उस ने पर्स से 3 हजार रुपए निकाल कर जगन को दे दिए.
जगन को रुपए देते हुए सुरेश कनखियों से उस की पत्नी को देख रहा था. वह बच्चे को सीने से कस कर चिपकाए जगन और सुरेश को देख रही थी. सुरेश को जगन की पत्नी की आंखों में नमी और याचना दिखी, जिस से सुरेश का मन बेचैन हो उठा.
जगन के घर से आते समय सुरेश पूरे रास्ते खामोश रहा. बच्चे को सीने से चिपकाए जगन की पत्नी की आंखें सुरेश के जेहन से निकल नहीं पा रही थीं, सारी रात सुरेश ठीक से सो नहीं सका. जगन की पत्नी की आंखें उस के खयालों के इर्दगिर्द चक्कर काटती रहीं और वह उलझन में फंसा रहा.
अगले दिन रविवार था. दोनों की ही छुट्टी थी. वंदना चाहती थी कि बच्चे को गोद लेने के बारे में किसी वकील से पहले ही बात कर ली जाए. इस बारे में वह सुरेश से विस्तार से बात करना चाहती थी. लेकिन नाश्ते के समय उस ने उसे उखड़ा हुआ सा महसूस किया.
उस से रहा नहीं गया तो उस ने पूछा, ‘‘मैं देख रही हूं कि जगन के यहां से आने के बाद से ही तुम खामोश हो. तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझ से छिपा रहे हो?’’
सुरेश ने हलके से मुसकरा कर चाय के प्याले को होंठों से लगा लिया. कहा कुछ नहीं. तब वंदना ही आगे बोली. ‘‘हम एक बहुत बड़ा फैसला लेने जा रहे हैं. इस फैसले को ले कर हम दोनों में से किसी के मन में किसी भी तरह की दुविधा या बात नहीं होनी चाहिए. मैं चाहती हूं कि अगर तुम्हारे मन में कोई बात है तो मुझ से कह दो.’’
चाय का प्याला टेबल पर रख कर सुरेश ने एक बार पत्नी को गहरी नजरों से देखा. उस के बाद आहिस्ता से बोला, ‘‘जगन के यहां हम दोनों एक साथ, एक ही मकसद से गए थे वंदना. लेकिन तुम बच्चे को देख रही थी और मैं उसे जन्म देने उस की मां को. इसलिए मेरी आंखों ने जो देखा, वह तुम नहीं देख सकीं. वरना तुम भी अपने सीने में वैसा ही दर्द महसूस करती, जैसा कि मैं कर रहा हूं.’’
वंदना की आंखों में उलझन और हैरानी उभर गई. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या कहना चाहते हो, मैं समझी नहीं?’’
सुरेश के होठों पर एक फीकी मुसकराहट फैल गई. वह बोला, ‘‘जगन के यहां से आने के बाद मैं लगातार अपने आप से ही लड़ रहा हूं वंदना. बारबार मुझे लग रहा है कि जगन से उस का बच्चा ले कर हम एक बहुत बड़ा गुनाह करने जा रहे हैं. मैं ने तुम्हारी आंखों में औलाद के न होने का दर्द देखा है. मगर मुझे जगन की बीवी की आंखों में जो दर्द दिखा, वह शायद तुम्हारे इस दर्द से भी कहीं बड़ा था. इन दोनों दर्दों का एक ही रंग है, वजह भले ही अलगअलग हो.’’
बहुत दिनों से खिले हुए वंदना के चेहरे पर एकाएक निराशा की बदली छा गई. उस ने उदासी से कहा, ‘‘लगता है, तुम ने बच्चे को गोद लेने का इरादा बदल दिया है?’’
‘‘मैं ने बच्चा गोद लेने का नहीं, जगन के बच्चे को गोद लेने का इरादा बदल दिया है.’’
‘‘क्यों?’’ वंदना ने झल्ला कर पूछा.
‘‘जगन एक तरह से अपना कर्ज उतारने के लिए बच्चा बेच रहा है. वंदना यह फैसला उस का अकेले का है. इस में उस की पत्नी की रजामंदी बिलकुल नहीं है. जब वह बच्चे को अपने सीने से अलग कर के तुम्हें दे रही थी. तब मैं ने उस की उदास आंखों में जो तड़प और दर्द देखा था, वह मेरी आत्मा को आरी की तरह काट रहा है. हमें औलाद का दर्द है. अपने इस दर्द को दूर करने के लिए हमें किसी को भी दर्द देने का हक नहीं है.’’
सुरेश की इस बात पर वंदना सोचते हुए बोली, ‘‘हम बच्चा लेने से मना भी कर दें तो क्या होगा? जगन किसी दूसरे से पैसे ले कर उसे बच्चा दे देगा. हम जैसे तमाम लोग बच्चे के लिए परेशान हैं.’’
‘‘अगर हम बच्चा नहीं लेते तो किसी दूसरे को भी जगन को बच्चा नहीं देने देंगे.’’
‘‘वह कैसे?’’ वंदना ने पूछा.
‘‘जगन अपना कर्ज उतारने के लिए बच्चा बेच रहा है. अगर हम उस का कर्ज उतार दें तो वह बच्चा क्यों बेचेगा? पैसे देने से पहले हम उस से लिखवा लेंगे कि वह अपना बच्चा किसी दूसरे को अब नहीं देगा. इस के बाद अगर वह शर्त तोड़ेगा तो हम पुलिस की मदद लेंगे. साथ ही हम बच्चा गोद लेने की कोशिश भी करते रहेंगे. मैं कोई ऐसा बच्चा गोद नहीं लेना चाहता, जिस के पीछे देने वाले की मजबूरी और जन्म देने वाली मां का दर्द और आंसू हो.’’
सुरेश ने जब अपनी बात खत्म की, तो वंदना उसे टुकरटुकर ताक रही थी.
‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ सुरेश ने पूछा तो वह मुसकरा कर बोली, ‘‘देख रही हूं कि तुम कितने महान हो, मुझे तुम्हारी पत्नी होने पर गर्व है.’’
सुरेश ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर हलके से दबा दिया. उसे लगा कि उस की आत्मा से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया है.
राजा समर सिंह नहीं चाहते थे कि मानू किसी भी रूप में मौली के सामने आए जबकि अंगरेज रेजीडेंट को खुश करना भी उन की मजबूरी थी. सोचविचार कर राजा ने झील में बनी अदृश्य दीवार पर ठीक महल के परकोट के सामने पत्थरों का एक बड़ा सा गोल चबूतरा बनवा कर उस पर प्रकाश स्तंभ स्थापित कराया.
इस चबूतरे और महल के बीच ही वह कुंड था, जिस में मगरमच्छ रहते थे. मगरमच्छों का भोजन चूंकि उसी कुंड में डाला जाता था, अत: वे वहीं मंडराते रहते थे. महल के परकोटे से 2 मजबूत रस्सियां इस प्रकार प्रकाश स्तंभ में बांधी गईं कि आदमी एक रस्सी के द्वारा स्तंभ तक जा सके और दूसरी से आ सके.
अंगरेज रेजीडेंट के आने का दिन तय हो चुका था. उसी हिसाब से राजा ने झील वाले महल में मेहमाननवाजी की तैयारियां कराईं. जिस दिन रेजीडेंट को आना था, उस दिन 2 सैनिक इस आदेश के साथ राखावास भेजे गए कि वे झील के रास्ते मानू को प्रकाश स्तंभ तक भेजेंगे. मौली ने मानू को झील में न उतरने की कसम दे रखी थी, यह बात समर सिंह नहीं जानते थे.
तयशुदा दिन जब अंगरेज रेजीडेंट चंदनगढ़ पहुंचा, राजा समर सिंह यह कह कर उसे झील वाले महल में ले गए कि उन्होंने इस बार उन के मनोरंजन की व्यवस्था प्रकृति की गोद में की है. राजा का झील वाला महल अंगरेज रेजीडेंट को खूब पसंद आया.
मौली भी उस दिन खूब खुश थी. मानू से मिलने की खुशी उस के चेहरे से फूटी पड़ रही थी. उसे क्या मालूम था कि मानू को उस के सामने झील वाले रास्ते से लाया जाएगा और वह ठीक से उस की सूरत भी नहीं देख पाएगी.
जब सारी तैयारियां हो गईं और अंगरेज रेजीडेंट भी आ गया तो महल के परकोटे से मौली की चुनरी से राखावास की ओर मौजूद सैनिकों को इशारा किया गया.
सैनिकों ने मानू से झील के रास्ते प्रकाश स्तंभ तक तैर कर जाने को कहा तो उस ने इनकार कर दिया कि वह मौली की कसम नहीं तोड़ सकता. इस पर सैनिकों ने उस से झूठ बोला कि मौली ने अपनी कसम तोड़ दी है, वही अपनी चुनरी लहरा कर उसे बुला रही है. मानू ने महल के परकोटे पर चुनरी लहराते देखी तो उसे सैनिकों की बात सच लगी. उस ने बिना सोचेसमझे मौली के नाम पर झील में छलांग लगा दी.
जिस समय मानू झील को पार कर प्रकाश स्तंभ तक पहुंचा, तब तक राजा समर सिंह का एक कारिंदा ढोलक ले कर रस्सी के सहारे वहां जा पहुंचा था. उसी ने मानू को बताया कि महल और प्रकाश स्तंभ के बीच मगरमच्छ हैं. उसे उसी स्थान पर बैठ कर ढोलक बजानी होगी और मौली उसी धुन पर परकोटे पर नाचेगी. कारिंदा राजा का हुक्म सुना कर दूसरी रस्सी के सहारे वापस लौट आया.
मौली को जब राजा की इस चाल का पता चला तो वह मन ही मन खूब कुढ़ी, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया कि आज वह अंतिम बार राजा की महफिल में नाचेगी और नाचते नाचते ही हमेशा हमेशा के लिए अपने मानू से जा मिलेगी.
राजा की महफिल छत पर सजी थी. प्रकाश स्तंभ और महल की छत पर विशेष प्रकाश व्यवस्था कराई गई थी. जब अंधेरा घिर आया और चारों ओर निस्तब्धता छा गई तो मौली को महफिल में बुलाया गया. उस समय उस के चेहरे पर अनोखा तेज था.
सजीधजी मौली घुंघरू खनकाती महफिल में पहुंची तो लोगों के दिल धड़क उठे. मौली ने परकोटे पर खड़े हो कर श्वेत ज्योत्सना में नहाई झील को देखा. प्रकाश स्तंभ के पास सिकुड़े सिमटे बैठे मानू को देखा और फिर आकाश के माथे पर टिकुली की तरह चमकते चांद को निहारते हुए बुदबुदाई, ‘‘हे मालिक, तुझ से कभी कुछ नहीं मांगा, पर आज मांगती हूं. इस नाचीज को एक बार, सिर्फ एक बार उस के प्यार के गले जरूर लग जाने देना.’’
मन की मुराद मांग कर मौली ने एक बार जोर से पुकारा, ‘‘मानू…’’
मौली की आवाज के साथ ही मानू के हाथ ढोलक पर चलने लगे. ढोलक की आवाज वादियों में गूंजने लगी और उस के साथ ही मौली के पैरों के घुंघरू भी. पलभर में समां बंध गया. सभा में मौजूद लोग दिल थामे मौली की कला का आनंद लेने लगे.
अभी महफिल जमे ज्यादा देर नहीं हुई थी. मौली का पहला नृत्य पूरा होने वाला था. लोग वाहवाह कर रहे थे. तभी मौली तेजी से पीछे पलटी और कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही मानू का नाम ले कर चीखते हुए परकोटे से प्रकाश सतंभ तक जाने वाले रस्से को पकड़ कर झूल गई. मौली का यह दुस्साहसिक रूप देख पूरी सभा सन्न रह गई.
महल के परकोटे से प्रकाश स्तंभ तक आनेजाने वाले कारिंदे रस्सों में विशेष प्रकार के कुंडे में बंधा झूला डाल कर आतेजाते थे. काम के बाद कुंडे और झूला निकाल कर रख दिए जाते थे.
मौली चूंकि रस्से को यूं ही पकड़ कर झूल गई थी और रस्सा नीचे की ओर आ गया था. फलस्वरूप रस्से की रगड़ से उस के हाथ बुरी तरह घायल हो गए थे. वह ज्यादा देर अपने आप को संभाल नहीं पाई और झटके के साथ कुंड में जा गिरी.
हतप्रभ मानू यह दृश्य देख रहा था. मौली के गिरने से छपाक की आवाज उभरी तो मानू ने भी कुंड में छलांग लगा दी. अंगरेज रेजीडेंट, राजा और उस की महफिल इस भयावह दृश्य को देखती रह गई. कुछ देर मानू और मौली पानी में डूबते उतराते दिखाई दिए भी, लेकिन थोड़ी ही देर में वे आंखों से ओझल हो गए हमेशा के लिए. दोनों ही मगरमच्छों का शिकार बन चुके थे.
कल सुबह जब शायनी औफिस आई तो बहुत खुश थी बोली, “मां, बौस कह रहे थे अगर मैं ने उन की कंपनी को कौन्ट्रेक्ट दिलवा दिया तो जल्द ही मुझे प्रमोशन मिलेगी.’‘
उस के थोड़ी ही देर में शायनी का मैसेज आया कि आज कौन्ट्रेक्ट के लिए एक बहुत बड़े सेठ अवस्थी से मिलने जाना है. आज बहुत लेट हो जाएगी और मैं उस का इंतजार न कर के सो जाऊं, कल सुबह बात कर लेंगे. जैसे ही मैं ने अवस्थी नाम पढ़ा, मुझे घबराहट महसूस हुई. मैं ने शायनी को पूछा कि मीटिंग कब और कहां है तो उस ने मुझे बताया कि मीटिंग ओबराय होटल में रात को 10 बजे है.
यह सुन कर मेरा मन घबरा गया. उस समय अभी सुबह के 11 ही बजे थे और मैं उसी समय टैक्सी पकड़ कर मुंबई के लिए निकल पड़ी. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कैसे अपनी बेटी को उस दरिंदे से बचाऊं जो कि उसी का ही खून है.
मैं जैसे ही होटल पहुंची, लगभग 11 बज रहे थे. मैं पूरे रास्ते शायनी को फोन करती रही, मगर आज अचानक शायद उस का फोन खराब हो गया था. मैं ने रिसैप्शन पर अवस्थी का रूम पूछा तो उन्होंने बताने से इंकार कर दिया, बोले सर की मीटिंग चल रही है. मुझे कुछ आइडिया था ही कि शायद रूम का पता रिसैप्शन पर न बताएं, इसलिए एक शैंपेन की बोतल और केक भी रास्ते से ले कर साथ रख लिया था.
तब मैं ने एक नाटक रचा. उस केक और शैंपेन की बोतल को दिखा कर रिसैप्शन पर बैठी एक महिला से रिक्वेस्ट की कि अवस्थीजी मेरे पति हैं और वो बिजनैस में इतने बिजी रहते हैं कि अपना जन्मदिन तक भूल गए. मैं उन्हें सरप्राइज देने आई हूं.
इस तरह उन्हें यकीन दिला कर मैं रूम तक गई, लेकिन रूम के बाहर ‘डू नाट डिस्टर्ब’ का बोर्ड लटकता देख वेटर अंदर जाने से मना करने लगा. तब मैं ने वेटर को चुप रहने का इशारा कर के दरवाजा खटखटाया तो अंदर से बहुत ही गुस्से भरी आवाज आई, “कौन बदतमीज है. बाहर डू नाट डिस्टर्ब का बोर्ड नहीं दिखाई दिया.’‘
“सर, आप के लिए सरप्राइज है, प्लीज़ ओपन द डोर, प्लीज सर. इट्स ए ह्यूज सरप्राइज.’‘ मैं ने कहा.
सेठ तो वैसे ही लड़कियों का दीवाना था, सुरीली आवाज सुन कर दरवाजा खोल दिया. अब तक मैं वेटर को वापस भेज चुकी थी, सेठ के दरवाजा खोलते ही उसे नाइट गाउन में देख कर मेरा दिमाग झन्ना उठा और उसे धक्का दे कर मैं ट्रौली ले कर अंदर चली गई. अचानक इस तरह के व्यवहार की उम्मीद न होते हुए सेठ हड़बड़ा गया.
गुस्से से चिल्लाने लगा, “कौन हो तुम और इस तरह से अंदर क्यों आई?’‘
मुझे देखते ही शायनी मुझ से लिपट गई और रोने लगी बोली, “अच्छा हुआ आप आ गईं, वरना आज मैं कहीं की न रहती.”
मैं ने देखा 1-2 जगह से उस के कपड़े फटे हुए थे, जिन्हें देखते ही मुझे पुरानी सारी बातें याद आने लगीं. उस वक्त मुझे कुछ होश नहीं था. कुछ सोचने के बाद शीतल फिर से बोलने लगी कि अचानक मैं ने शैंपेन की बोतल उठाई और जोर से सेठ के सिर पर दे मारी. उस के सिर से खून की धारा बहने लगी. मैं लगातार उस पर वार कर रही थी और वह कुछ ही देर में ठंडा हो गया.
शायनी ने जब मुझे झिंझोड़ा तब मुझे होश आया कि मैं ने क्या किया. मगर, मुझे इस बात का बिलकुल भी अफसोस नहीं था और न है. मैं ने एक राक्षस को मारा है, एक पिता के हाथ से बेटी को अपवित्र होने से बचाया. धरती का थोड़ा सा बोझ कम कर दिया आज मैं ने. अब चाहे कानून मुझे फांसी दे दे, लेकिन मेरे मन में शांति है आज इंतकाम ले लिया मैं ने. इतना कह कर शीतल ने एक ठंडी सांस ली.
“इस समय आप की बेटी कहां है?’‘
“उसे मैं ने उसी समय टैक्सी में योगेश के पास भेज दिया था.’‘
“हां कुछ देर पहले एक गोरी, लंबी सी नीली ड्रेस में लड़की बारिश में भागते हुए होटल से बाहर आई और टैक्सी में बैठ कर चली गई.’‘
“हां, वो मेरी बेटी थी.’‘
आज मुंबई न्यूज की सब से बड़ी खबर, ‘देवता कहलाने वाला राक्षस अपनी ही बेटी को बेआबरू करने चला था, लेकिन बेटी की मां ने उस का कत्ल कर के बेटी को भी बचाया और अपना इंतकाम भी लिया,’ चर्चा का विषय बनी रही.
इस के बाद राहुल ने अपने दोस्त अमन को फोन किया, “हैलो अमन, मिल गया.’‘
“कौन, खूनी?’‘ अमन ने पूछा.
“नहीं, बारिश वाला प्यार.’‘
राहुल को अब उस लड़की का नाम भी पता चल चुका था, जो उस के दिल को पहली ही नजर में घायल कर गई थी. राहुल ने शीतल को भरोसा दिया कि वह अपने स्तर से उस की जमानत कराने का प्रयास करेगा. उस ने उस के मुंहबोले भाई का फोन नंबर भी ले लिया.
पुलिस ने शीतल से पूछताछ करने के बाद उसे जेल भेज दिया था. इस के बाद राहुल ने योगेश से संपर्क किया. फिर राहुल ने योगेश को अपने जानकार सीनियर वकील अवनीश गोयल से मिलवाया. अब राहुल ने अपने स्तर से मृतक सेठ अवस्थी की कुंडली खंगाल कर उस की अय्याशी के सारे सबूत इकट्ठे किए. अनाथ आश्रम की संचालिका और कई भुक्तभोगी लड़कियों ने भी सेठ अवस्थी के खिलाफ गवाही दी.
पुलिस हत्या के इस केस का न तो कोई चश्मदीद गवाह पेश कर सकी और न ही पुख्ता सबूत. इस का नतीजा यह हुआ कि कोर्ट ने शीतल को बाइज्जत बरी कर दिया.
शीतल राहुल के अहसान को कैसे भुला सकती थी. बाद में उसे पता चला कि राहुल उस की बेटी शायनी को दिल से चाहता है. यह बात उस ने शायनी से पूछी तो उस ने भी हां कर दी. इस के बाद शीतल और योगेश ने शायनी और राहुल का विवाह करा दिया. राहुल अपने बारिश वाले प्यार को पा कर फूला नहीं समा रहा था.
मौली ने उस से निवेदन किया कि वह किसी तरह मानू तक यह संदेश पहुंचा दे कि वह उस से मिले बिना न मरेगी, न नाचेगी. वह वक्त का इंतजार करे. एक न एक दिन उन का मिलन होगा जरूर. जब तक मिलन नहीं होता, तब तक वह अपने आप को संभाले. प्यार में पागल बनने से कुछ नहीं मिलेगा.
दासी ने जैसे तैसे मौली का संदेश मानू तक पहुंचाया भी, लेकिन उस पर उस की बातों का कोई असर नहीं हुआ.
उन्हीं दिनों एक अंगरेज अधिकारी को चंदनगढ़ आना था. राजा समर सिंह ने अधिकारी को खुश करने के लिए उस की खातिर का पूरा इंतजाम किया. महल को विशेष रूप से सजाया गया. नाचगाने का भी प्रबंध किया गया. राजा समर सिंह चाहते थे कि मौली अपनी नृत्यकला से अंगरेज रेजीडेंट का दिल जीते.
उन्होंने इस के लिए मौली से मानमनुहार की तो उस ने शर्त बता दी, ‘‘मानू नगर में मौजूद है, उसे बुलाना पड़ेगा. वह आ कर मेरे पैरों में घुंघरू बांध देगा तो मैं नाचूंगी.’’
समर सिंह जानते थे कि जो बात मौली की नृत्यकला में है, वह किसी दूसरी नर्तकी में नहीं. अंगरेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. राजा ने मौली की शर्त स्वीकार कर ली. मानू को ढुंढवाया गया. उस का हुलिया बदला गया.
अगले दिन जब रेजीडेंट आया तो पूरी तैयारी के बाद मौली को सभा में लाया गया. सभा में मौजूद सब लोगों की निगाहें मौली पर जमी थीं और उस की निगाहें उन सब से अनभिज्ञ मानू को खोज रही थीं.
मानू सभा में आया तो उसे देख मौली की आंखें बरस पड़ीं. मन हुआ, आगे बढ़ कर उस से लिपट जाए, लेकिन चाह कर भी वह ऐसा नहीं कर सकी. करती तो दोनों के प्राण संकट में पड़ जाते. उस ने लोगों की नजर बचा कर आंसू पोंछ लिए.
आंसू मानू की आंखों में भी थे, लेकिन उस ने उन्हें बाहर नहीं आने दिया. खुद को संभाल कर वह ढोलक के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठा. मौली धीरेधीरे कदम बढ़ा कर उस के पास पहुंची तो मानू थोड़ी देर अपलक उस के पैरों को निहारता रहा. फिर उस ने जेब से घुंघरू निकाल कर माथे से लगाए और मोली के पैरों में बांध दिए.
इस बीच मौली उसे ही निहारती रही. घुंघरू बांधते वक्त मानू के आंसू पैरों पर गिरे तो मौली की तंद्रा टूटी. मानू के दर्द का एहसास कर उस के दिल से आह भी निकली, पर उस ने उसे जैसे तैसे जज्ब कर लिया.
इधर ढोलक पर मानू की थाप पड़ी और उधर मौली के पैर थिरके. पलभर में समां बंध गया. मौली उस दिन ऐसा नाची, जैसे वह उस का अंतिम नाच हो. लोगों के दिल धड़क धड़क उठे. अंगरेज रेजीडेंट बहुत खुश हुआ. उस ने नृत्य, गायन और वादन का ऐसा अनूठा समन्वय पहली बार देखा था. राजा समर सिंह का जो मकसद था, पूरा हुआ. महफिल समाप्त हुई तो मौली ने मानू से हमेशा की तरह घुंघरू खोलवाने चाहे, लेकिन राजा ने इस की इजाजत नहीं दी.
अंगरेज अधिकारी वापस चला गया तो मानू को महल के बाहर कर दिया गया. मौली अपने कक्ष में चली गई. उस ने कसम खा ली कि उस के पैरों से घुंघरू खुलेंगे तो मानू के हाथ से ही.
झील वाला महल तैयार होने में एक साल लगा. छोटे से इस महल में राजा समर सिंह ने मौली के लिए सारी सुविधाएं जुटाई थीं. मौली की इच्छानुसार एक परकोटा भी बनवाया गया था, जहां खड़ी हो कर वह झील के उस पार स्थित अपने गांव को निहार सके.
राजा समर सिंह जानते थे कि मौली और मानू एकदूसरे को बेहद प्यार करते हैं. प्यार में वे दोनों किसी भी हद तक जा सकते थे. इसी बात को ध्यान में रख कर राजा समर सिंह ने महल से सौ गज दूर झील के पानी में एक ऐसी अदृश्य दीवार बनवाई, जिस के आरपार पानी तो जा सके लेकिन जीवों का आनाजाना संभव न हो. दीवार के इस पार उन्होंने पानी में 2 मगरमच्छ छुड़वा दिए. यह सब उन्होंने इसलिए किया था ताकि मानू झील में तैर कर इस पार न आ सके, आए तो मगरमच्छों का शिकार हो जाए.
पूरी तैयारी हो गई तो मौली को झील किनारे नवनिर्मित महल में भेज दिया गया. जिस दिन मौली को महल में ले जाया गया, उस दिन महल को खूब सजाया गया था. राजा समर सिंह की उस दिन वर्ष भर पुरानी आरजू पूरी होनी थी.
वादे के अनुसार मौली ने राजा के सामने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस दिन उस ने अपना शृंगार खुद किया था. बेहद खूबसूरत लग रही थी वह. समर सिंह की बांहों में सिमटते हुए उस ने सिर्फ इतना कहा था, ‘‘आज से मेरा तन आप का है पर मन को आप कभी छू नहीं पाएंगे. मन पर मानू का ही अधिकार रहेगा.’’
राजा को मौली के मन से क्या लेनादेना था. उन की जिद भी पूरी हो गई और हवस भी. उस दिन के बाद मौली स्थाई रूप से उसी महल में रहने लगी. सेवा में दासदासियां और सुरक्षा के लिए पहरेदार सैनिकों की व्यवस्था थी ही. महीने में 6-7 दिन मौली के साथ गुजारने के लिए राजा समर सिंह झील वाले महल में आते रहते थे. वहीं रह कर वह पास वाले जंगल में शिकार भी खेलते थे.
मौली का रोज का नियम था. हर शाम वह महल के परकोटे पर खड़े हो कर अपनी वही चुनरी हवा में लहराती जो गांव से ओढ़ कर आई थी. मानू को मालूम था कि मौली झील वाले महल में आ चुकी है. वह हर रोज झील के किनारे बैठा मौली की चुनरी को देखा करता. इस से उस के मन को काफी तसल्ली मिलती. कई बार उस का दिल करता भी कि वह झील को पार कर के मौली के पास जा पहुंचे, लेकिन मौली की कसम उस के पैर बांध देती थी.
देखतेदेखते एक साल और गुजर गया. मौली को गांव छोड़े 2 साल होने को थे. तभी एक दिन राजा समर सिंह को अंगरेज रेजीडेंट का संदेश मिला कि वह उन की रियासत के मुआयने पर आ रहे हैं और उसी नर्तकी का नृत्य देखना चाहते हैं, जो पिछली यात्रा में उन के सामने पेश की गई थी.
राजा समर सिंह ने जब यह बात मौली को बताई तो उस ने अपनी शर्त रखते हुए कहा, ‘‘यह तभी संभव है, जब मानू मेरे साथ हो. उस के बिना नृत्य का कोई भी आयोजन मेरे बूते में नहीं है.’’
समर सिंह ने मौली को समझाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वह नहीं मानी. अंगरेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. फलस्वरूप राजा समर सिंह को झुकना पड़ा. मौली ने राजा से कहा कि वह चंदनगढ़ जाने के बजाय उसी महल में नृत्य करेगी और मानू को भी वहीं बुलाना होगा.
क्या मानू और मौली का महामिलान हो पायेगा? या दो प्रेमी फिर एक दूसरे से हमेशा के लिए बिछड़ जायेंगे? पढ़िए कहानी के अंतिम भाग में..
अगली सुबह राहुल कोर्ट की इजाजत ले कर पहुंच गया थाने और पुलिस हिरासत में लाई गई उस महिला से बात करने लगा, जिसे सब सेठ की बीवी समझ रहे थे. इधर सेठ की हत्या की खबर उस के घर तक पहुंची तो सब के पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई. घर में रोनाधोना शुरू हो गया. सभी इस बात पर ताज्जुब कर रहे थे कि हत्यारा कोई और नहीं सेठ की बीवी है. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था यह सब क्या मामला है.
उधर राहुल ने थाने में उस महिला से बात शुरू की, “मैडमजी, सब से पहले मैं ये जानना चाहूंगा कि आप कौन हैं?’‘
“क्यों, आप ने सुना नहीं, जो सब कह रहे हैं?’‘ वह महिला बोली.
“मैं ने सब सुना, लेकिन मैं जानता हूं आप वो नहीं है. और यही जानने आया हूं कि आप कौन हैं और किस बात का बदला लिया आप ने अवस्थीजी से?’‘
“क्यों देवता नहीं कहेंगे आप भी, सब लोग तो इसी नाम से पुकारते हैं. और आप केवल अवस्थीजी?’‘
“सही कहा आप ने, पहली बात आप उन की पत्नी नहीं, दूसरी आप ने अगर उन का खून किया तो किसी बात का बदला ही लिया होगा और बदला कभी देवता से नहीं लिया जाता, आप बताएं असलियत क्या है?’‘
उस महिला ने अपना नाम शीतल बताया. इस के बाद उस ने राहुल को बताया कि मुझे नहीं मालूम मुझे कब कौन मुंबई के शेल्टर होम (जहां बेघर, बेसहारा लोग आसरा पाते हैं) में छोड़ गया. जब से होश संभाला, अपने आप को वहीं पाया. वहां और भी बहुत सी लड़कियां थीं.
जब मैं छोटी थी तो अकसर औफिस से लड़कियों के रोने, चीखनेचिल्लाने की आवाजें आतीं और साथ में ये भी कोई कहता कि चुप कर हराम की औलाद, वरना यहीं खत्म कर दूंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा. तेरा कोई आगेपीछे भी नहीं, जो तुझे बैठ कर रोएगा.
मैं तब इन बातों को नहीं समझ पाती थी, जब मैं 13 साल की हो गई तो कुछकुछ बात मुझे भी समझ आने लगी. एक दिन मैं उस शेल्टर में बने मंदिर से पूजा कर के रूम की तरफ जा रही थी तो सेठ अवस्थी (इस समय शीतल ने मुंह ऐसे बना लिया, जैसे किसी ने मुंह में जहर डाल दिया हो) जो कई अनाथ आश्रम, कई वृद्धाश्रम इत्यादि चलाते थे, जो नारी उत्थान की बड़ीबड़ी बातें करते थे, जिन्होंने न जाने कितनी गरीब लड़कियों का विवाह कराया, वही सेठ, उस शेल्टर होम में रोज आया करते थे.
उन की नजर मुझ पर पड़ गई और वार्डन से कहने लगे, “रियाजी, ये कोहिनूर कहां छिपा रखा था. हमारी तो नजर ही नहीं पड़ी अभी तक इस पर. हमें दिखाना तो चाहिए था, जरा बुलाओ एक झलक देखें तो.’
“शीतल बिटिया जरा इधर आओ, सर को भी प्रसाद दो.’‘ वार्डन ने आवाज दी.
मैं ने दोनों को प्रसाद दिया तो सेठ ने मेरा गाल थपथपा दिया.
दरअसल, मैं 13 साल की जरूर थी, मगर कद और शरीर से 16-17 साल की लगती थी. उस पर रंगरूप से भी गदगद थी.
अगले दिन वार्डन मेरे पास आई और बोली, “शीतल, तुम्हें सर बुला रहे हैं. शायद कोई काम हो, जाओ जरा मिल लो. और हां, जरा अच्छे से रैडी हो कर जाओ.’‘
मैं वार्डन की बात समझ चुकी थी, अब तक इतनी समझ आ गई थी मुझ में. मैं ने कहा, “मां, मैं? आप तो मेरी मां हो.’‘
वार्डन ने मुझे गले से लगाया और उस की आंखें भर आईं. बोली, “मुझे सब बच्चियां बेटी जैसी ही लगती हैं, लेकिन क्या करूं, इस पेट का सवाल खड़ा हो जाता है. मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची, तुझे जाना होगा. मैं मजबूर हूं, वरना सेठ हमें छोड़ेगा नहीं.’‘
और मुझे जाना पड़ा उस सेठ अवस्थी के पास जो अपनी हवस मिटाने के लिए आतुर बैठा था. मुझे देखते ही टूट पड़ा मुझ पर. मैं ने लाख मिन्नतें कीं, हाथ जोड़े, लेकिन उस ने मेरी एक न सुनी. मैं दर्द से तड़पती रही, रोती, चीखतीचिल्लाती रही. नहीं छोड़ा दरिंदे ने मुझे. और इस तरह अब रोज ही वह मुझे बुलाने लगा. वह बैल बन कर मुझे बंजर धरती समझ मुझ पर हल चलाता रहा.
लगभग 2 साल तक यह सिलसिला यूं ही चलता रहा और एक दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं पेट से हूं. जब सेठ अवस्थी को पता चला तो अबार्शन करवाने के लिए कहा, लेकिन अब तक समय निकल चुका था. डाक्टर ने कहा कि समय अधिक हो गया है, अगर इस समय अबार्शन कराया तो लड़की की जान को भी खतरा हो सकता है. इस पर सेठ फिर भी जिद पर था कि अबार्शन कराया जाए, अगर लड़की मरती है तो मर जाए.
मैं न ही मरना चाहती थी न ही अबार्शन कराना. मैं उस शेल्टर होम से भाग निकली, इस में वार्डन ने मेरा साथ दिया, ताकि मैं आगे अपनी जिंदगी अपने लिए जी सकूं. मैं मुंबई से भाग कर दिल्ली चली गई. वहां रेलवे स्टेशन पर एक भला योगेश आदमी मिल गया, जिस ने मुझे सहारा दिया और बहन की तरह मेरी देखभाल की. मैं उस की मदद करने के लिए छोटेमोटे काम करने लगी. मुझे परी जैसी बेटी पैदा हुई, उस का नाम मेरे नाम से ‘श’ और मेरे मुंह बोले भाई के नाम योगेश से ‘य’ ले कर हम ने शायनी नाम रखा.
योगेश का भी परिवार था तो मैं ने सोचा कि आगे चल कर कोई बच्चों की वजह से परेशानी न आए, इसलिए मैं अलग घर में रहने लगी और भाई ने मुझे काम पर भी लगवा दिया था. मैं ने अपनी बेटी शायनी को पढ़ाया लिखाया, अपने पैरों पर खड़ा किया. अब तक मैं पिछले सब दुख भूल चुकी थी.
शायनी पढ़ाई में होशियार, बहुत ही लायक बेटी थी. एमबीए करते ही अच्छी कंपनी में जौब मिल गई. अभी 15 दिन पहले ही मुंबई ट्रांसफर हुआ. जब से मुंबई ट्रांसफर हुआ, तब से ही एक अजीब सा डर मेरे दिल में था. मैं शायनी को मुंबई नहीं भेजना चाहती थी, लेकिन उस के भविष्य की सोच कर चुप रह गई और तब योगेश भी कहने लगा,
“जीजी, शायनी बड़ी हो गई है. भलाबुरा सब जानती है, उसे जाने दो, जी लेने दो अपनी जिंदगी उसे.’‘
लेकिन मुझे क्या पता था कि यहां फिर से वही कहानी दोहराई जाएगी.
इतना कह कर शीतल चुप हो गई और एक ही सांस में सामने रखा गिलास का पूरा पानी पी गई.
“उस के बाद फिर ऐसा क्या हुआ मैडम कि आप यहां और सेठ का खून? आप तो दिल्ली में रहती है न?’‘
“हां, मैं अभी तक दिल्ली में ही थी. सोचा एक बार शायनी की सैटिंग हो जाए तो फिर मैं भी बेटी के पास जा कर रहूंगी. रोज रात को फ्री हो कर हम मांबेटी खूब सारी बातें किया करते थे. जब कभी शायनी मीटिंग से लेट हो जाती तो मुझे मैसेज कर के बता देती कि आज लेट बात करेंगे और हम तब बात करते जब वो फ्री हो जाती, मैं तब तक जागती रहती.’
कहीं शायनी उस दरिंदे सेठ के चंगुल में तो नहीं फंस जाएगी? जानने के लिए पढ़ें कहानी का अगला भाग.
समर सिंह मौली को अपने साथ क्या ले गए, राखावास के प्राकृतिक दृश्यों की शोभा चली गई, गांव वालों का अभिमान चला गया और मानू की जान. पागल सा हो गया मानू. बस झील किनारे बैठा उस राह को निहारता रहता, जिस राह राजा के साथ मौली गई थी. खानेपीने का होश ही नहीं था उसे. लगता, जैसे राजा उस की जान निकाल ले गया हो.
बात तब की है, जब हिंदुस्तान में मुगलिया सल्तनत का पराभव हो चुका था और ईस्ट इंडिया कंपनी का परचम पूरे देश में फहराने के प्रयास किए जा रहे थे. देश के कितने ही राजारजवाड़े विलायती झंडे के नीचे आ चुके थे और कितने भरपूर संघर्षों के बाद भी आने को मजबूर थे.
उन्हीं दिनों अरावली पर्वतमाला की घाटियों में बसी एक छोटी सी रियासत थी चंदनगढ़. इस रियासत के राजा समर सिंह थे तो अंगरेज विरोधी, पर शक्तिहीनता की वजह से उन्हें भी ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले आना पड़ा था. अंगरेजों का उन पर इतना प्रभाव था कि उन्हें अपने घोड़े गोरा का नाम बदल कर गोरू करना पड़ा था.
समर सिंह उन राजाओं में थे, जो रासरंग में डूबे रहने के कारण राजकाज और प्रजा का ठीक से ध्यान नहीं रख पाते थे. राजा समर सिंह को 2 ही शौक थे—पहला शिकार का और दूसरा नाचगाने, मौजमस्ती का. मौली को भी उन्होंने इसी उद्देश्य से चुना था. लेकिन यह उन की भूल थी. वह नहीं जानते थे कि मौली दौलत की नहीं, प्यार की दीवानी है.
राजा समर सिंह मौली के रूपलावण्य, मदमाते यौवन और उस की नृत्यकला से प्रभावित हो कर उसे साथ जरूर ले आए थे, लेकिन उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं था कि यह सौदा उन्हें सस्ता नहीं पड़ेगा.
राजमहल में पहुंच कर मौली का रंग ही बदल गया. राजा ने उस की सेवा के लिए दासियां भेजीं, नएनए वस्त्र, आभूषण और शृंगार प्रसाधन भेजे, लेकिन मौली ने किसी भी चीज की ओर आंख उठा कर नहीं देखा. वह जिंदा लाश सी शांत बैठी रही. किसी से बोली तक नहीं, मानो गूंगी हो गई हो. दासियों ने समझाया, पड़दायतों ने मनुहार की, पर कोई फायदा नहीं.
राजा समर सिंह को पता चला तो स्वयं मौली के पास पहुंचे. उन्होंने उसे पहले प्यार से समझाने की कोशिश की, फिर भी मौली कुछ नहीं बोली तो राजा गुस्से में बोले, ‘‘तुम्हें महल ला कर हम ने जो इज्जत बख्शी है, वह किसी को नहीं मिलती, और एक तुम हो जो इस सब को ठोकर मारने पर तुली हो. यह जानते हुए भी कि अब तुम्हारी लाश भी राखावास नहीं लौट सकती. हां, तुम अगर चाहो तो हम तुम्हारे वजन के बराबर धनदौलत तुम्हारे मातापिता को भेज सकते हैं. लेकिन अब तुम्हें हर हाल में हमारी बन कर हमारे लिए जीना होगा.’’
मौली को मौत का डर नहीं था. डर था तो मानू का. वह जानती थी, मानू उस के विरह में सिर पटकपटक कर जान दे देगा. उसे यह भी मालूम था कि उस की वापसी संभव नहीं है. काफी सोचविचार के बाद उस ने राजा समर सिंह के सामने प्रस्ताव रखा, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि मौली आप के महल की शोभा बन कर रहे तो इस के लिए पहाड़ों के बीच वाली उसी झील के किनारे महल बनवा दीजिए, जिस के उस पार मेरा गांव है.’’
अपने इस प्रस्ताव में मौली ने 2 शर्तें भी जोड़ीं. एक यह कि जब तक महल बन कर तैयार नहीं हो जाता, राजा उसे छुएंगे तक नहीं और दूसरी यह कि महल में एक ऐसा परकोटा बनवाया जाएगा, जहां वह हर रोज अपनी चुनरी लहरा कर मानू को बता सके कि वह जिंदा है. मानू उसी के सहारे जीता रहेगा.
मौली मानू को जान से ज्यादा चाहती है, यह बात समर सिंह को अच्छी नहीं लगी थी. कहां एक नंगाभूखा लड़का और कहां राजमहल के सुख. लेकिन उस की जिद के आगे वह कर भी क्या सकते थे. कुछ करते तो मौली जान दे देती. मजबूर हो कर उन्होंने उस की शर्तें स्वीकार कर लीं.
राखावास के ठीक सामने झील के उस पार वाली पहाड़ी पर राजा ने महल बनवाना शुरू किया. बुनियाद कुछ इस तरह रखी गई कि झील का पानी महल की दीवार छूता रहे. झील के तीन ओर बड़ीबड़ी पहाडि़यां थीं. चौथी ओर वाली छोटी पहाड़ी की ढलान पर राखावास था. महल से राखावास या राखावास से महल तक आधा मील लंबी झील को पार किए बिना किसी तरह जाना संभव नहीं था.
उन दिनों आज की तरह न साधनसुविधाएं थीं, न मार्ग. ऐसी स्थिति में चंदनगढ़ से 10 मील दूर पहाड़ों के बीच महल बनने में समय लगना स्वाभाविक ही था. मौली इस बात को समझती थी कि यह काम एक साल से पहले पूरा नहीं हो पाएगा और इस एक साल में मानू उस के बिना सिर पटकपटक कर जान दे देगा. लेकिन वह कर भी क्या सकती थी, राजा ने उस की सारी शर्तें पहले ही मान ली थीं.
लेकिन जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है. मोहब्बत कहीं न कहीं अपना रंग दिखा कर ही रहती है. मौली के जाने के बाद मानू सचमुच पागल हो गया था. उस का वही पागलपन उसे चंदनगढ़ खींच ले गया.
मौली के घुंघरू जेब में डाले वह भूखाप्यासा, फटेहाल महीनों तक चंदनगढ़ की गलियों में घूमता रहा. जब भी उसे मौली की याद आती, जेब से घुंघरू निकाल कर आंखों से लगाता और जारजार रोने लगता. लोग उसे पागल समझ कर उस का दर्द पूछते तो उस के मुंह से बस एक ही शब्द निकलता-मौली.
मानू चंदनगढ़ आ चुका है, मौली भी इस तथ्य से अनभिज्ञ थी और समर सिंह भी. उधर मानू ने राजमहल की दीवारों से लाख सिर टकराया, पर वह मौली की एक झलक नहीं देख सका. महीनों यूं ही गुजर गए.
राजा समर सिंह जिस लड़की को राजनर्तकी बनाने के लिए राखावास से चंदनगढ़ लाए हैं, उस का नाम मौली है, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. राजा स्वयं उसे मालेश्वरी कह कर पुकारते थे, अत: दासदासियां और पड़दायतें तक उसे मालेश्वरी ही कहती थीं.
राजा ने मौली के लिए अपने महल के एक एकांत कक्ष में रहने की व्यवस्था की थी, जहां उसे रानियों जैसी सुविधाएं उपलब्ध थीं. उस की सेवा में कई दासियां रहती थीं.
एक दिन उन्हीं में से एक दासी ने बताया, ‘‘नगर में एक दीवाना मौली मौली पुकारता घूमता है. पता नहीं कौन है मौली, उस की मां, बहन या प्रेमिका. बेचारा पागल हो गया है उस के गम में. न खाने की सुध, न कपड़ों की. एक दिन महल के द्वार तक चला आया था, पहरेदारों ने धक्के दे कर भगा दिया. कहता था, इन्हीं दीवारों में कैद है मेरी मौली.’’
मौली ने सुना तो कलेजा धक से रह गया. प्राण गले में अटक गए. लगा, जैसे बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. वह संज्ञाशून्य सी पलंग पर बैठ कर शून्य में ताकने लगी. दासी ने उस की ऐसी स्थिति देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, आप मेरी बात सुन कर परेशान क्यों हो गईं? आप को क्या, होगा कोई दीवाना. मैं ने तो जो सुना था, आप को यूं ही बता दिया.’’
मौली ने अपने आप को लाख संभालना चाहा, लेकिन आंसू पलकों तक आ ही गए. दासी पलभर में समझ गई, जरूर कोई बात है. उस ने मौली को कुरेदना शुरू किया तो वह न चाहते हुए भी उस से दिल का हाल कह बैठी. दासी सहृदय थी. मौली और मानू की प्रेम कहानी सुनने और उन के जुदा होने की बात सुन उस का हृदय पसीज उठा.
क्या मानू मौली से मिल सकेगा या राजा के महलों में कैद होकर रह जायेगा? जानने के लिए पढ़ें हिंदी कहानी का अगला भाग…