Hindi Stories: मेहनतमजदूरी कर के जीविका चलाने वाली शंकरी की 3 बेटियां थीं, चौथा बच्चा पेट में था. आखिर उस की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि वह बच्चे पर बच्चे पैदा किए जा रही थी. जिस तरह उस बूढ़े बरगद के पेड़ की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था, उसी तरह उस के नीचे बायस्कोप लिए खड़ी उस औरत, जिस का नाम शंकरी था, की उम्र का भी अंदाजा लगाना आसान नहीं था. वह चला तो बायस्कोप रही थी, लेकिन उस का ध्यान लोहे के 4 पाइप खड़े कर के साड़ी से बने झूले में सो रही अपनी 2 साल की बेटी पर था.

अगर झूले में लेटी बेटी रोने लगती तो वह बायस्कोप जल्दीजल्दी घुमाने लगती. बायस्कोप देखने वाले बच्चे शोर मचाते तो वह कहती, ‘‘लगता है, बायस्कोप खराब हो गया है, इसीलिए यह तेजी से घूमने लगा है.’’

बायस्कोप का शो खत्म कर के शंकरी बेटी को गोद में ले कर चुप कराने लगती. लेकिन बायस्कोप देखने वाले बच्चे उस से झगड़ने लगते. झगड़ते भी क्यों न, उन्होंने जिस आनंद के लिए पैसे दिए थे, वह उन्हें मिला नहीं था. औरत बच्चे के रोने का हवाला देती, फिर भी वे बच्चे न मानते. उन्हें तो अपने मनोरंजन से मतलब था, उस के बच्चे के रोने से उन्हें क्या लेनादेना था. शंकरी उन्हें समझाती, दोबारा दिखाने का आश्वासन भी देती, क्योंकि उसे भी तो इस बात की चिंता थी कि अगर उस के ये ग्राहक बच्चे नाराज हो गए तो उस की आमदनी बंद हो जाएगी. लेकिन उस की परेशानी यह थी कि वह बेटी को संभाले या ग्राहक. बेटी को भी रोता हुआ नहीं छोड़ा जा सकता था.

शंकरी के चेहरे पर मजबूरी साफ झलक रही थी. बच्चों की जिद पर मजबूरन उसे बच्ची को रोता छोड़ कर बायस्कोप के पास जाना पड़ता, क्योंकि बायस्कोप देखने वाले बच्चे उस का ज्यादा देर तक इंतजार नहीं कर सकते थे. शंकरी की अपनी बच्ची रोती रहती और वह दूसरों के बच्चों का मनोरंजन कराती रहती. बच्ची रोरो कर थक जाती लेकिन वह उसे गोद में न ले पाती. वह उसे तभी गोद में उठा पाती, जब उस के ग्राहकों की भीड़ खत्म हो जाती. ग्राहकों के जाते ही वह दौड़ कर बच्ची को गोद में उठाती, प्यार करती और झट से साड़ी के पल्लू के नीचे छिपा कर दूध पिलाने लगती. तब उस के चेहरे पर जो सुकून होता, वह देखने लायक होता.

शंकरी ने बच्ची को प्यार करने के लिए अपना घूंघट थोड़ा खिसकाया तो थोड़ी दूर पर बेटी को मेला दिखाने आई संविधा की नजर उस के चेहरे पर पड़ी. उस का गोरा रंग धूप की तपिश से मलिन पड़ गया था. अभी भी गरम सूरज की किरणें पेड़ों की पत्तियों के बीच से छनछन कर उस के चेहरे पर पड़ रही थीं. भूरे बालों को उस ने करीने से गूंथ कर मजबूती से बांध रखा था. आंखों में काजल की पतली लकीर, माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, गोल चेहरा, जिस में 2 बड़ीबड़ी आंखें, जो दूध पीते बच्चे को बड़ी ममता से निहार रही थीं. कभीकभी उस की आंखें बेचैनी से उस ओर भी घूम जातीं, जो उस का बायस्कोप देखने के लिए उस के इंतजार में खड़े थे.

जैसे ही बेटी ने दूध पीना बंद किया, शंकरी के चेहरे पर आनंद झलक उठा. बच्ची अभी भी उस की गोद में लेटी थी और अधखुली आंखों से उसे ताकते हुए अपनी नन्ही हथेलियों से उस के माथे और गालों को सहला रही थी. औरत ने गौर से बच्ची को देखा, उस के चेहरे पर आनंद की जगह दुख की बदली छा गई. उस की आंखों से आंसू की 2 बूंदें टपक पड़ीं, जो बच्चे के चेहरे पर गिरीं. उस ने जल्दी से साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछा. बच्ची अब तक नींद के आगोश में चली गई थी.

शंकरी ने तमाशा देखने वालों को देखा. वे सभी उसे ही ताक रहे थे. उस ने बहुत हलके से बच्ची को झूले में लिटाया. बरगद के नीचे मक्खियों और कीड़ों की भरमार थी, इसलिए बच्ची को उन से बचाने के लिए एक बारीक कपड़ा उस के चेहरे पर डाल दिया, जिस से बच्ची आराम से सोती रहे. जैसे ही वह बच्ची के पास से हटी, बच्ची फिर रोने लगी. उस के रोने से वह बेचैन हो उठी. उस ने बायस्कोप के पास से ही रोती बच्ची को देखा, लेकिन मजबूरी की वजह से वह उसे उठा नहीं सकी. बायस्कोप देखने वाले बच्चों से पैसे ले कर उन्हें बैठा दिया. बच्ची रोती रही, 1-2 बार तो ऐसा लगा जैसे उस की सांस रुक गई है, लेकिन वह रोतीरोती सो गई.

थोड़ी देर बाद एक छोटी लड़की, जो 4 साल के आसपास रही होगी, सो रही बच्ची के पास से गुजरती हुई शंकरी के पास आ कर उस की साड़ी का पल्लू मुंह में डाल कर लौलीपाप की तरह चूसने लगी. वह शायद शंकरी की झूले में लेटी बेटी से बड़ी थी. उस की लार से शंकरी की साड़ी का पल्लू गीला हो गया. शंकरी की यह दूसरी बेटी घुटने तक लाल रंग का फ्रौक पहने थी. उस के पैर धूल से अटे हुए थे, आंखें पीली, मैलेकुचैले बाल, जो बूढ़े टट्टू की पूंछ की तरह बंधे हुए थे. उन में से कुछ खुले बाल उस के मटमैले चेहरे पर बिखरे हुए थे. लड़की ने शंकरी से उस के कान में फुसफुसा कर कुछ कहा. उस ने ऐसा न जाने क्या कहा कि शंकरी ने खीझ कर उसे कोहनी से झटक दिया. लड़की रोते हुए जमीन पर लेट गई, जिस से उस का पूरा शरीर धूल से अट गया.

तमाशा देखने वाले बच्चे इन सभी चीजों से बेपरवाह और बेखबर अपनी आंखें बायस्कोप के छोटे से गोल शीशे पर जमाए बक्से के अंदर का नजारा देख रहे थे, जो शायद उन्हें कुछ इस तरह मजा दे रहा था, जैसे वे सिनेमाहाल में कोई फिल्म देख रहे हों. यह उन के जोश और दीवानगी से पता चल रहा था. झूले में लेटी बच्ची एक बार फिर रोने लगी. शंकरी ने बगल में जमीन पर लोट रही बेटी को 5 रुपए का सिक्का दिखाया तो वह तुरंत  उठ कर खड़ी हो गई और शरीर पर चिपकी धूल को झाड़ते हुए मां के हाथ से सिक्का झपट लिया. उस के चेहरे पर आंसुओं की लकीरें साफ दिखाई दे रही थीं. हाथ में सिक्का आते ही वह उत्साह और खुशी से उछलतीकूदती रोती हुई छोटी बहन के पास आई और उसे झूले से उठा कर अपनी छोटी सी कमर के सहारे गोद में ले कर थोड़ी दूरी पर स्थित एक छोटी सी दुकान की ओर चल पड़ी.

शंकरी बायस्कोप जरूर चला रही थी, लेकिन उस का ध्यान कहीं और ही था. उसी समय उस के पास एक अन्य लड़की आई, जिस की उम्र बामुश्किल 6 साल रही होगी. उस की पीली रंग की सलवारसमीज मैल की वजह से काली पड़ चुकी थी. कुछ पल मांबेटी आपस में कानाफूसी करती रहीं, उस के बाद वह लड़की वहीं मां के पास बैठ गई और अपने धूल भरे पैर मजे से हिलाने लगी. लेकिन उस की पीली आंखें बहुत कुछ कह रही थीं. वह पैर हिलाते हुए वहां घूमने आए ताजा चेहरे वाले बच्चों और उन के मांबाप को ललचाई नजरों से ताक रही थी, क्योंकि वे अपने बच्चों की बड़ी से बड़ी इच्छाएं पूरी कर रहे थे.

तमाशा देखने वाले बच्चे जब चले गए तो वह आ कर मां के पास बैठ गई. मां उस के सिर पर हाथ फेरते हुए मुसकराई. बायस्कोप देखने वाले बच्चे उस में देखे गए तमाशे के बारे में चर्चा करते हुए हंस रहे थे. उसी बीच हवा का एक ऐसा झोंका आया, जिस से उस औरत का आंचल उड़ गया. उस के उभरे हुए पेट पर संविधा की नजर पड़ी, शायद वह गर्भवती थी. संविधा ने उभार से अंदाजा लगाया, कम से कम 6 महीने का गर्भ रहा होगा. अपने कमजोर शरीर के पेट पर उस छोटे से उभार के साथ शंकरी मुश्किल से बेटी के साथ जमीन पर बैठ गई. उस की इस 6 साल की बेटी ने प्यार से उसे मां कहा तो वह बेटी की आंखों में झांकने लगी.

उसी समय धोतीकमीज पहने और सिर पर मैरून रंग की पगड़ी बांधे एक आदमी मांबेटी के पास आ कर बैठ गया. उस के बैठते ही लड़की उसे बापू कह कर उस से चिपक गई और उस के गालों तथा मूंछों को सहलाने लगी. लेकिन उस आदमी ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया. वह शंकरी से बातें करने में व्यस्त था. संविधा को समझते देर नहीं लगी कि वह आदमी शंकरी का पति है. वह आदमी उसी को देख रहा था, जबकि उस की नजरें अपने चारों ओर घूमते लोगों पर टिकी थीं. लड़की अपनी बांहें बापू के गले में डाल कर झूल गई तो वह उसे झटक कर उठ खड़ा हुआ और मेले की भीड़ में गायब हो गया.

लड़की संविधा के पास आ कर खड़ी हो गई. उस की नजरें उस के हाथ में झूल रही पौलीथिन में रखे चिप्स के पैकेट पर जमी थीं. वह उन चीजों को इस तरह ललचाई नजरों से देख रही थी, जैसे जीवन में कभी इन चीजों को नहीं देखा था. उस की तरसती आंखों में झांकते हुए संविधा ने चिप्स का पैकेट उसे थमाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

अब उस की नजरें संविधा की बेटी के लौलीपाप पर जम गई थीं, जिसे वह चूस रही थी. वह उसे इस तरह देख रही थी, जैसे उस की नजरें उस पर चिपक गई हों. संविधा ने उस का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए कहा, ‘‘लौलीपाप खाओगी?’’

उस ने मुसकराते हुए हां में सिर हिलाया. संविधा ने पर्स में देखा कि शायद उस में कोई लौलीपाप हो, लेकिन अब उस में लौलीपाप नहीं था. संविधा को लगा, अगर उस ने लड़की से कहा कि लौलीपाप नहीं है तो उसे दुख होगा. इसलिए उस ने पर्स से 10 रुपए का नोट निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘जाओ, अपने लिए लौलीपाप ले आओ.’’

लड़की मुसकराते हुए 10 रुपए के नोट को अमूल्य उपहार की तरह लहराती हुई मेले की ओर भागी. लड़की के जाते ही संविधा शंकरी को देखने लगी. वह काफी व्यस्त लग रही थी. वह बायस्कोप देखने वालों को शो दिखाते हुए सामने से गुजरने वालों को बायस्कोप देखने के लिए आवाज भी लगा रही थी. 4 साल की उस की जो बेटी अपनी छोटी बहन को ले कर गई थी, अब तक मां के पास वापस आ गई थी. उस ने बरगद के पेड़ के चारो ओर बने चबूतरे पर छोटी बहन को बिठाया और अपना हाथ मां के सामने कर दिया, जिस में वह खाने की कोई चीज ले आई थी. शायद वह उसे मां के साथ बांटना चाहती थी. अब तक बड़ी बेटी भी आ गई थी. उस ने भी अपनी मुट्ठी मां के सामने खोल कर अंगुली से संविधा की ओर इशारा कर के धीमे से कुछ कहा.

शंकरी ने संविधा की ओर देखा. नजरें मिलने पर वह मुसकराने लगी. उस परिवार को देखतेदेखते अचानक संविधा के मन में उस के प्रति आकर्षण सा पैदा हो गया तो उस के मन में उन लोगों के बारे में जानने की उत्सुकता पैदा हो गई. शायद शंकरी के लिए उस के दिल में दया पैदा हो गई थी. उस की स्थिति ही कुछ ऐसी थी, इसीलिए संविधा उस की कहानी जानना चाहती थी. धीरेधीरे संविधा शंकरी की ओर बढ़ी. उसे अपनी ओर आते देख शंकरी खड़ी हो गई. उसे लगा, शायद संविधा बेटी को बायस्कोप दिखाने आ रही है, इसलिए उस ने बायस्कोप का ढक्कन खोलने के लिए हाथ बढ़ाया. संविधा ने कहा, ‘‘मुझे इस मशीन में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं तो आप से मिलने आई हूं.’’

संविधा की इस बात से शंकरी को सुकून सा महसूस हुआ. वह चबूतरे पर खेल रही छोटी बेटी के पास बैठ गई. संविधा ने उस की तीनों बेटियों की ओर इशारा कर के पूछा, ‘‘ये तीनों तुम्हारी ही बेटियां हैं?’’

‘‘जी.’’ शंकरी ने जवाब दिया.

‘‘ये कितनेकितने साल की हैं?’’

शंकरी ने हर एक की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘6 साल, 4 साल और सब से छोटी डेढ़ साल की है.’’

इस के बाद उस के उभरे हुए पेट पर नजरें गड़ाते हुए संविधा ने पूछा, ‘‘शायद तुम फिर उम्मीद से हो?’’

‘‘जी.’’ उस ने लंबी सी सांस लेते हुए कहा.

‘‘कितने महीने हो गए?’’

‘‘6 महीने.’’

संविधा शंकरी को एकटक ताकते हुए उस की दुख भरी जिंदगी के बारे में सोचने लगी, शायद यह बच्चे पैदा करने को मजबूर है. यह कितनी तकलीफ में है. उस की परेशानियों को देखते हुए संविधा ने पूछा, ‘‘तुम्हारी उम्र कितनी होगी?’’

‘‘मेरी…’’ उस ने अनुमान लगाने की कोशिश की, लेकिन विफल रही तो नजरें झुका लीं.

संविधा को आघात सा लगा. उस ने उस के दुख और मजबूरी भरे जीवन की अपने शानदार और ऐशोआराम वाले जीवन से तुलना की, तब उसे लगा कि इस दुनिया में शायद दुख ज्यादा और सुख कम है. उस ने पूछा, ‘‘आप हर साल एक बच्चा पैदा कर के थकी नहीं?’’

‘‘इस के अलावा मेरे पास कोई दूसरा उपाय नहीं है.’’ शंकरी ने ठंडी आह भरते हुए जवाब दिया.

‘‘आप बहुत बहादुर हैं. मेरे वश का तो नहीं है.’’

‘‘मेरी मजबूरी है. मेरे पति चाहते हैं कि उन का एक बेटा हो जाए, जिस से उन के परिवार का नाम चलता रहे.’’

‘‘नाम चलता रहे..?’’ संविधा ने उसे हैरानी से देखते हुए कहा. उस पर उसे तरस भी आया. क्योंकि उस की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उस के जो बच्चे थे, उन्हें ही वह ठीक से पालपोस सकती. जबकि सिर्फ नाम चलाने के लिए वह बच्चे पर बच्चे पैदा करने को तैयार थी. संविधा को झटका सा लगा था. वह उस से कहना चाहती थी कि आजकल लड़के और लड़कियों में कोई अंतर नहीं रहा. दोनों बराबर हैं. उस की केवल एक ही बेटी है, जिस से वह और उस के पति खुश हैं. लड़कियां लड़कों से ज्यादा बुद्धिमान और प्रतिभाशाली निकल रही हैं. वे मातापिता की बेटों से ज्यादा देखभाल करती हैं. देखो न लड़कियां पहाड़ों पर चढ़ रही हैं, उन के कदम चांद पर पहुंच गए हैं.

लेकिन वह कह नहीं पाई. उस के मन में आया कि वह उस से पूछे कि अगर इस बार भी बेटी पैदा हुई तो..? क्या जब तक बेटा नहीं पैदा होगा, वह बच्चे पैदा करती रहेगी? अगर उसे बेटा पैदा ही नहीं हुआ तो वह क्या करेगी? इस तरह के कई सवाल संविधा के मन में घूम रहे थे. उस की गरीबी और बेटा पाने की चाहत के बारे में सोचते हुए उसे लगा, अगर यह इसी तरह बच्चे पैदा करती रही तो इस की हालत तो एकदम खराब हो जाएगी. अचानक उस ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पति क्या करते हैं?’’

‘‘वह लोकगीत गाते हैं.’’ शंकरी ने कहा.

‘‘लोकगीतों का कार्यक्रम करते हैं?’’

‘‘नहीं, मेलों या गांवों में घूमघूम कर गाते हैं.’’

संविधा को याद आया कि जब वह मेले में प्रवेश कर रही थी तो कुछ लोग चादर बिछा कर ढोलक और हारमोनियम ले कर बैठे थे. वे लोगों की फरमाइश पर उन्हें लोकगीत और फिल्मी गाने गा कर सुना रहे थे.

संविधा समझ गई कि ये लोग कहीं बाहर से आए हैं. उस ने पूछा, ‘‘लगता है, तुम लोग कहीं बाहर से आए हो? अपना गांवघर छोड़ कर कहीं बाहर जाने में तुम लोगों को बुरा नहीं लगता?’’

‘‘हमारे पास इस के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है.’’

‘‘क्यों? जहां तुम लोग रहते हो, वहां तुम्हारे लिए कोई काम नहीं है?’’

‘‘काम और कमाई होती तो हम लोग इस तरह मारेमारे क्यों फिरते?’’

‘‘लेकिन तुम लोग अपने यहां खेती भी तो कर सकते हो?’’ संविधा ने सुझाव दिया.

‘‘कैसे मैडम, हमारी सारी जमीनों पर दबंगों और महाजनों ने कब्जा कर लिया है. क्योंकि हम ने उन से जो कर्ज लिया था और उसे अदा नहीं कर पाए.’’

‘‘तुम लोगों ने अपनी सुरक्षा और अधिकारों के लिए संघर्ष क्यों नहीं किया?’’

‘‘मैडम, हम बहुत कमजोर लोग हैं और वे बहुत शक्तिशाली. उन के पास पैसा भी है और ताकत भी. हम उन से दुश्मनी कैसे मोल ले सकते हैं.’’

‘‘लेकिन तुम लोग यह सब सह कैसे लेते हो?’’ ‘‘हम बहुत ही असहाय और बेबस लोग हैं.’’ शंकरी ने लंबी सांस ले कर जमीन पर खेल रही बच्ची का मुंह साड़ी के पल्लू से साफ करते हुए कहा.

संविधा के दिमाग में तमाम सवाल उठ रहे थे, लेकिन उसे लगा कि बुद्धिमानी इसी में है कि वह उस से उन सवालों को न पूछे. चेहरे से शंकरी अभी जवान लग रही थी, लेकिन हालात की वजह से चेहरा पीला और सूखा हुआ था. शायद ऐसा गरीबी और बच्चे पैदा करने की वजह से था. संविधा ने पूछा, ‘‘तुम्हारी शादी कितने साल में हुई थी?’’

‘‘मेरी…’’ उस ने अनुमान लगाने की कोशिश की, मगर नाकाम रही.

‘‘तुम यहां कब आई?’’

‘‘जब यह मेला शुरू हुआ.’’

‘‘तुम लोगों के दिन कैसे गुजरते हैं?’’

‘‘सुबह जहां रहते हैं, वहां की साफसफाई करते हैं. दोपहर को ही रात का भी खाना बना लेते हैं, क्योंकि हमारे पास उजाले की व्यवस्था नहीं है. उस के बाद अपने काम में लग जाते हैं. लड़कियां टोलियों में नाचनेगाने क काम करती हैं. शादीशुदा महिलाएं मेरी तरह बायस्कोप दिखाती हैं तो कुछ कठपुतली का नाच दिखाती हैं. कुछ मेहंदी लगाने का भी काम करती हैं.’’

संविधा ने इधरउधर देखा. दूरदूर तक कोई इमारत नहीं थी. मैदान पर मेले में आए दुकानदारों के तंबू लगे थे. मन में जिज्ञासा जागी तो उस से पूछा, ‘‘तुम पूरे दिन इसी तरह बिना आराम के काम करती हो. ऐसे में तुम्हारे बच्चों की देखभाल कौन करता है?’’

‘‘मेरी बड़ी बेटी इन दोनों बेटियों को संभाल लेती है.’’

‘‘इन का खानापीना और नहानाधोना?’’

‘‘बड़ी बेटी छोटी को नहला देती है, बीच वाली खुद ही नहा लेती है.’’

संविधा ने अपनी 8 साल की बेटी पर नजर डाली, उस के बाद शंकरी की एकएक कर के तीनों बेटियों को देखा. छोटी बेटी अभी भी मां के पास चबूतरे पर खेल रही थी. संविधा ने सोचते हुए एक लंबी सांस ली. कुछ देर वह शंकरी और उस की बेटियों को देखती रही. उस का दिल उन के लिए सहानुभूति से भर गया. उस ने पर्स से 10-10 रुपए के 2 नोट निकाले और खेल रही लड़कियों को थमा दिए. इस के बाद वह चलने लगी तो देखा, कुछ बच्चे उधर आ रहे थे. उन्हें आते देख कर शंकरी अपने बायस्कोप के पास जा कर खड़ी हो गई, लेकिन उस की नजरें चबूतरे पर खेल रही बेटी पर ही जमी थीं.

शाम को संविधा घर पहुंची तो उस के दिलोदिमाग में शंकरी और उस की बेटियां ही छाई थीं. वह भी एक औरत थी, इसलिए उस ने प्रार्थना की कि काश! उस के गमों का सिलसिला खत्म हो जाए और उस की इच्छा पूरी हो जाए. इस बार उसे बेटा पैदा हो जाए. Hindi Stories

अनुवाद: एम.एस. जरगाम

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