Hindi Stories: अंजुम आरा देश की दूसरी मुसलिम आईपीएस महिला हैं, जो बड़ी बात है. पढि़ए अंजुम के आईपीएस बनने की कहानी उन्हीं की जुबानी  उस रोज मेरे घर में खुशी का माहौल था. मेरे वालिदैन बहुत खुश थे. कुछ इस तरह जैसे कोई नाविक अपनी कश्ती को उस के मुकाम पर पहुंचा कर खुश होता है. मैं भी बहुत खुश थी. खुशी स्वाभाविक ही थी, क्योंकि मुझे मेरी मेहनत का फल मिल गया था और अब्बूअम्मी को अपनी अच्छी परवरिश का. मेरी सफलता का पता चलने के साथ ही नातेरिश्तेदारों के फोन आने शुरू हो गए थे. आसपास के कई लोग ऐसे भी थे, जिन्हें मेरे बारे में पता चल गया था और वे मुबारकबाद देने के लिए सीधे घर चले आए थे.

यूं तो जिंदगी के सफर में छोटीबड़ी खुशियों की लहरें आतीजाती रहती हैं, लेकिन उस रोज उन लहरों की ऊंचाई काफी ऊंची थी. मेरे अब्बू अयूब शेख का चेहरा खुशी से दमक रहा था. उन की आंखों की चमक कुछ जुदाजुदा सी थी. उन के लहजे में गुरूर के बजाय एक पिता के फर्ज का वजन नजर आ रहा था. वह खुद ही लोगों को बता रहे थे कि मेरी बेटी अंजुम आईपीएस बन गई है. यूं भी कामयाबी का यह गुल उन की मेहनत और हौसलाअफजाई की शाख पर ही खिला था.

यकीनन अब्बू के लिए फख्र की बात थी, क्योंकि हमारी पढ़ाई के दरमियान उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें सुनी थीं, जो बंदिशें लगाने वाली थीं. लोग खराब जमाने की दुहाई देते थे. कुछ लोगों ने उन्हें उकसाया भी था कि बेटियों को इतना पढ़ा कर कौन से आसमान की सैर कराओगे. लेकिन मेरे अब्बू दकियानूसी सोच वाले नहीं थे. उन्होंने बेटी समझ कर हमारी पढ़ाई और परवरिश में कभी कोई भेदभाव नहीं किया था. वे जानते थे कि दुनिया की किसी भी किताब में यह नहीं लिखा है कि लड़कियों को ऊंची तालीम नहीं दिलाई जा सकती. फिर भी हमारे धर्म में कई लोग बेटियों को ऊंची तालीम दिलाने में परहेज करते हैं, ऐसा हम सुनते आए थे. लेकिन अब्बू ने इस की परवाह नहीं की और हमें ऊंची तालीम दिलाई.

हम ने भी उन की सोच को दिलोदिमाग में गहराई तक बैठा लिया था. पढ़ाई से जुनून की हदों के पार जा कर हम ने खूब मेहनत की थी. यही वजह थी कि जब मेरा रिजल्ट आया था तो मैं ने सब से पहले यह खुशी अब्बू को ही सुनाई थी. मैं ने उन्हें इतना खुश पहले कभी नहीं देखा था. वह पुरानी बातों में जान फूंक कर मेरी अम्मी मोमिना से कह उठे थे, ‘‘देखा, मैं कहता था न कि एक दिन अंजुम हमारा नाम रौशन करेगी. अरे आईपीएस बन गई वह.’’ उन की बात पर अम्मी के दोनों हाथ खुदबखुद इबादत की मुद्रा में उठ गए थे.

अब्बू और अम्मी दोनों के चेहरों पर साफसाफ लिखा था कि उन्हें मुझ पर नाज है. ऐसी खुशियों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. हमारे परिवार में अम्मीअब्बू के अलावा हम चार भाई बहन थे. मेरे अलावा सब से बड़े भाई परवेज शेख, 2 बहनें सलमा और रेशमा. मैं भाई के बाद दूसरे नंबर पर आती थी, जबकि सब से छोटी रेशमा थी. मेरे भाई इंजीनियर थे. उन की तालीम धीरेधीरे कमाई का जरिया भी बन गई थी. जबकि सलमा एमबीए और रेशमा एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही थी. हमारे वालिद ने हमें न सिर्फ आजादी से पढ़ने दिया था, बल्कि घर में पढ़ाई का माहौल भी दिया था. बेटियों के साथ जरा भी सौतेला व्यवहार नहीं किया. सचमुच इस मामले में हम खुशनसीब थे.

बेटियों के मामले में वालिदैन का ऐसा रुख खास मायने रखता है. हमारे अब्बू बेटियों को न तो बेटों से जुदा मानते थे और न ही पुरानी सोच के वारिस बन कर हमारी पहरेदारी करते थे. अब्बू तालीम की ताकत को बखूबी जानते थे. वह अकसर कहते थे, ‘‘एक बात हमेशा जेहन में रखो, जो शख्स तालीम की रोशनी में नहाया हो उसे जिंदगी की हर फिक्र से आजाद रहना चाहिए.’’ साथ ही वह ताकीद भी किया करते थे, ‘‘तालीम की रोशनी वाले चिराग को हासिल करने के लिए सब्र का इम्तिहान दे कर बहुत मेहनत करनी पड़ती है.’’

मेरा ख्वाब सिविल सर्विसेज में जाने का था. लंबे इंतजार के बाद 2011 में मेरा यह ख्वाब पूरा हो गया था. सिविल सर्विसेज एग्जामिनेशन का रिजल्ट आने के साथ ही घर में खुशियां पसर गई थीं. हमारी खुशियां रिजल्ट वाले दिन और रात तक ही नहीं सिमटी थीं, बल्कि उन में अगले दिन तब और भी इजाफा हो गया, जब मीडिया में खबरें आईं. खबरों में बताया गया कि अंजुम आरा देश की दूसरी मुसलिम लड़की है, जो आईपीएस बनी है. मैं ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरे लिए खुशियों की इतनी बड़ी सौगात ले कर भी आएगा. कई दिनों तक मुबारकबाद का सिलसिला चलता रहा. कोई घर आता तो अब्बू हमारी तारीफें करते नहीं थकते. अम्मी भी ऐसा ही करतीं. दरअसल मेरे परिवार के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे भी एक कहानी थी.

मेरे अब्बू इंजीनियर थे. यह नौकरी उन्होंने बड़ी मुश्किल से पाई थी. 1992 में उन की तैनाती उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में हुई. यह जिला लकड़ी के सामान बनाने और उस पर नक्काशी करने के लिए खास माना जाता है. अब्बू गंगोह कस्बे में रहते थे. मेरा जन्म भी वहीं हुआ. मेरी पढ़ाई यहीं हुई. हम 4 भाईबहन थे. परिवार का खर्च चलाने के लिए अब्बू को बहुत काम करना होता था. ड्यूटी से फारिग हो कर वह हमें पढ़ाने के लिए बैठ जाया करते थे. दरअसल वह बचपन के उसी मुकाम पर हमारी बुनियाद को मजबूत कर देना चाहते थे. सहारनपुर के शिशु लोक विद्यामंदिर में प्राथमिक पढ़ाई के बाद मैं ने आर्य कन्या इंटर कालेज से हाईस्कूल व एचआर इंटर कालेज से इंटर तक की पढ़ाई की.

2006 में अब्बू का तबादला लखनऊ हो गया तो वह परिवार के साथ वहीं शिफ्ट हो गए. भाई वहां इंजीनियर की पढ़ाई करने लगा. मैं ने बीटेक की पढ़ाई के लिए अच्छे कालेज में दाखिला ले कर पढ़ाई शुरू कर दी थी. बहनें भी पढ़ रही थीं. सही कहूं तो हमारी पढ़ाई के मामले में हमारे वालिदैन ने कभी कोई समझौता नहीं किया. हमारा ध्यान पढ़ाई पर ही रहे, इसलिए बहुत से मसलों से हमें दूर ही रखा जाता था. लखनऊ की आबोहवा सहारनपुर से जुदा थी. तहजीब का यह शहर हमें बहुत पसंद आया. चूंकि हम बाहरी माहौल से ज्यादा वास्ता नहीं रखते थे, इसलिए हमारा वहां भी मन लग गया. कालेज, घर, भाईबहन इसी में दिन और रात बीत जाते थे.

लेकिन इस का मतलब यह नहीं था कि हम बाहरी दुनिया से कतई अलग हो कर कैद से हो गए थे. मुझे भी आम लड़कियों की तरह घूमनाफिरना, शौपिंग करना पसंद था. इस मामले में अब्बू से इजाजत लेने के लिए हम भाईबहन एक हो जाया करते थे. हमारा ताल्लुक मुसलिम धर्म से था. लिहाजा घर में उस का गहराई से पालन किया जाता था. हम भी उस से रूबरू थे. हमें अदब, फितरत, आदतें, लिबास, इबादत, हुक्म, हिम्मत, फर्ज, तारीफ, इकरार, हद और पाकीजगी की वे बातें समझाई जाती थीं, जिन का जिक्र मजहबी किताबों में होता था. बड़ों को इज्जत दें और अदब से पेश आएं, इस के साथ ही नेकनीयत का सबक भी दिया था. सही मायने में यह मुकम्मल परवरिश थी.

अम्मीअब्बू की तरह हम भाईबहन भी अमन और इबादत पसंद थे. मुझे याद नहीं पड़ता कि अब्बू का कभी किसी से कोई झगड़ा वगैरह हुआ हो. सब का अपनेअपने नजरिए से जिंदगी गुजारने का तरीका होता है, फिर इंसान की अपनी फितरत भी होती है. बड़ी हो कर जब मैं जमाने को थोड़ा जाननेसमझने लगी तो बखूबी समझ में आ गया था कि बेटियों के मामले में भरोसा व चट्टान जैसी मजबूत सोच को कायम रखना बड़ा मुश्किल होता है. वक्तबेवक्त आप को कुछ बातें बेवजह न चाहते हुए भी परेशान करती हैं. अब्बू के साथ भी कुछकुछ ऐसा होता था.

जब हमारी तालीम हो रही थी तो बहुत लोगों को यह बात शायद कांटे की तरह चुभती थी. कई मर्तबा ऐसा भी हुआ, जब अब्बू के साथ टोकाटाकी की गई. लेकिन हमें अपने अब्बू पर फख्र था, जो जमाने से बेपरवाह हो कर भी हमारे ऊपर भरोसा करते थे. वह इस सोच के कतई शिकार नहीं थे कि बेटियों को पढ़ाई से महरूम रखा जाए. वह बेटेबेटियों को बराबर का हक देना चाहते थे. उन की आंखों में बेटियों की कामयाबी के सुनहरे ख्वाब तैरते थे.

सच कहूं तो अब्बू ने अपने दिलोदिमाग में हमारी कामयाबी के ख्वाबों की जैसे एक खूबसूरत सी मीनार बनाई हुई थी. हम भी किसी सूरत में उस मीनार को गिराना नहीं चाहते थे. जब हम भाईबहन आपस में बातें किया करते तो यह भी चर्चा होती थी कि हमें अपने लिए बेहतर मुकाम बनाना ही है. और यह अच्छी तालीम से ही संभव था. इसलिए हम लोग अपना वक्त जाया नहीं करते थे. हमारा ज्यादातर वक्त पढ़ाई में ही बीतता था. हमारा घर किसी जन्नत से कम नहीं था. भाईबहनों अब्बूअम्मी के साथ गुजारे लम्हें कौन भूलना चाहता है. वैसे भी खूबसूरत यादों की उम्र बहुत लंबी होती है. घर में नमाज होती थी. रमजान के पाक महीने में इबादतों का दौर चलता था.

कई मर्तबा ऐसा भी हुआ, जब हम अब्बू के साथ उन के पुश्तैनी गांव कम्हरिया गए. तब हम काफी छोटे थे. यह गांव लखनऊ से दूर आजमगढ़ जिले में था. गांव साधारण था और लोग भी. हम शहर में रहते थे लिहाजा गांव के बच्चों से हमारी रंगत थोड़ा जुदा थी. हमारे दादू इस्माइल शेख और दादी सितारूनिशां गांव में ही रहते थे. हां, बीचबीच में वे हम लोगों के पास भी आया करते थे. दादू को गांव में इज्जत की नजरों से देखा जाता था. गांव की हरियाली, बागबगीचे, खेतखलिहान बहुत कुछ अच्छा तो था, लेकिन हमारा मन वहां कम ही लगता था. अब्बू गांव में घुमाने ले जाते थे तो एक 2-3 कमरों के बरामदे वाले स्कूल की तरफ अंगुली उठा कर बताते थे कि कभी तख्तीबस्ते के साथ उन्होंने भी यहां तालीम ली थी.

तख्ती, लकड़ी की कलम व स्लेट चौक से लिखने जैसी बातें वह बताते थे. राइटिंग को सुधारने का अभ्यास भी उन्होंने इन्हीं चीजों से किया था. हमें यह बेहद रोमांचक लगता था, क्योंकि अपने जमाने में हम ने ये चीजें नहीं देखी थीं. वह बताते थे कि उन्होंने ढिबरी और लालटेन की टिमटिमाती रोशनी में पढ़ाई की थी. अब्बू यह भी बताते थे कि उन्होंने खेतों में काम किया है. पढ़ाई के साथ वह किसानी का काम करते थे. तब हमें यह सब रोमांचक किस्सा ही लगता था. क्योंकि अपनी पैदाइस के बाद हम ने अब्बू को नौकरी करते ही  पाया था. इसलिए हमें उन की नौकरी की बदौलत थोड़ी बेहतर परवरिश मिल गई थी.

गांव के अन्य बच्चों, उन के रहनसहन व लिबास को देख कर हमें अपनी अहमियत का अंदाजा भी हो जाता था. उम्र बढ़ने के साथ ही समझ आ गया था कि अब्बू हमें ऐसी बातें इसलिए बताते थे कि तालीम को ले कर हमारे हौंसले और भी मजबूत हो जाएं. हम उस की अहमियत को जान सकें. वह बताना चाहते थे कि छोटे से गांव से निकल कर उन्होंने किस तरह संघर्ष किया था. अब्बू दादू और दादी को बहुत चाहते थे. उन्होंने उन की जिंदगी में तालीम का चिराग रोशन न किया होता तो शायद कुछ भी मुमकिन नहीं होता. अब्बू की काबिलियत और परिवार को देख कर दादू की आंखों में चमक आ जाती थी. शयद ऐसी बातें हम भाईबहनों के दिमाग में बैठ गई थीं कि हमारे अब्बू इतना कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं.

समय के साथ भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई कंपलीट हो गई थी. मैं ने बीटेक में फर्स्ट डिवीजन हासिल की थी. मेरी ख्वाहिश थी कि सिविल सर्विस में जाऊं. इस के पीछे एक वजह यह भी थी कि मुझे ज्यादा से ज्यादा लोगों को उन का हक दिलाने और उन की मदद करने का मौका मिल सके. ऐसी ख्वाहिश कभी मेरे दिल में पैदा नहीं हुई थी कि कोई ऐसा पेशा चुना जाए, जिस में खूब पैसा मिले. मैं ने सुना था कि दौलत की चकाचौंध इंसान को कई बार गुमराह भी कर देती है. मैं ने पुलिस सेवा में जाने के अपने इरादे परिवार में जाहिर किए तो सभी को खुशी हुई. अब्बू ने मुझे समझाते हुए कहा, ‘‘मुझे तुम पर नाज है अंजुम, जो ऐसा सोचती हो, लेकिन एक बात का खयाल रखना, इस के लिए तुम्हें मेहनत करनी होगी.’’

‘‘वह मैं कर लूंगी.’’ मैं ने अब्बू को आश्वस्त किया. पढ़ाई के मामले में मैं बचपन से ही अव्वल थी. हाईस्कूल और इंटर भी मैं ने  फर्स्ट डिवीजन से पास किया था. मैं जानती थी कि यह इतना आसान नहीं है. लेकिन परिवार का सपोर्ट था और मैं पढ़ाई के लिए दिमाग को खाली रखती थी. मैं ने कोचिंग लेनी शुरू की.

उस दौरान मेरे दिमाग में देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी का किरदार भी होता था. मैं कामयाब लड़कियों के बारे में सोचती थी कि उन्होंने भी आखिर अपनी मेहनत से ऊंचे मुकाम पाए थे. मैं ने दिनरात एक कर के तैयारी की थी. संघ लोक सेवा आयोग ने एग्जाम कराया. मेरी मेहनत ने गुल खिलाया. उसी का तकाजा था कि मैं ने मनचाहा मुकाम हासिल कर लिया. इंडियन पुलिस सर्विस (आईपीएस) में चयन के बाद मैं ट्रेनिंग के लिए चली गई. एक साल तक ट्रेनिंग चली, ट्रेनिंग लगभग आखिरी मुकाम तक पहुंची तो मेरे लिए रिश्ते की तलाश शुरू हुई. मुझे मणिपुर में पोस्टिंग मिली. दूसरी तरफ मेरे लिए डा. यूनुस को पसंद कर लिया गया. यूनुस खुद भी आईएएस अधिकारी थे और पंजाब प्रांत के रहने वाले थे. रिश्ता सभी को पसंद था. मैं ने भी उन्हें पसंद किया.

शादी की बातों का सिलसिला चला और बहुत जल्द निकाह की तारीख भी मुकर्रर कर दी गई. मैं छुट्टी ले कर घर आई. घर में खुशियों का माहौल था. जम कर खरीदारी हुई. खुशनुमा माहौल के दरमियान 26 मई, 2013 को मैं और डा. यूनुस मुस्लिम रस्मोरिवाज से शौहरबीवी के रिश्ते में बंध गए. यूनुस हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में अतिरिक्त उपायुक्त (एडीसी) थे. बाद में मेरी पोस्टिंग भी शिमला में बतौर असिस्टेंट सुपरिटेंडेट औफ पुलिस (एएसपी) हो गई. इस दरमियान हमारी खुशहाल जिंदगी में 7 मार्च, 2014 को बेटा अरहान आ गया. हम दोनों मिल कर अरहान की देखभाल करते हैं. जिंदगी बिना शिकवाशिकायत के पुरसुकून है. मेरी बेटी होगी तो मैं उसे भी बेटे जैसी परवरिश दे कर ऊंची तालीम दूंगी.

मेरी जिंदगी का सितारा तालीम से चमका और यह मुमकिन हुआ मेरे वालिदैन की सोच और विश्वास से. मनचाही तालीम और मेहनत इंसान को किसी भी मुकाम पर पहुंचा सकती है. मैं अच्छी तरह समझती हूं कि तालीम की रोशनी कभी जाया नहीं जाती. आज सब अब्बू की मिसाल देते हैं कि ‘अयूब तुम ने अपनी बेटियों को कामयाब बना दिया.’ मेरी एक बहन सलमा एमबीए कर रही है, जबकि सब से छोटी रेशमा एमबीबीएस के आखिरी दौर में है.

पुलिस की नौकरी में मैं अपने फर्ज को ले कर हमेशा सजग रहती हूं. ड्यूटी और परिवार के बीच तालमेल बैठाने में थोड़ी मुश्किल जरूर आती है, लेकिन ऐसी सभी मुश्किलें उन तकलीफों से बहुत कम हैं, जो हमारे लिए वालिदैन ने कभी देखी थीं. मेरे पास कोई फरियादी आता है तो उस की बात गहराई से सुनती हूं. फिर कोशिश करती हूं कि उसे राहत मिले और मसला हल हो जाए. क्योंकि पुलिस के पास कोई उसी सूरत में आता है, जब वह निराश होता है. वह चाहता है कि उस की समस्या का समाधान हो.

व्यावहारिक तौर पर फौरी राहत पहुंचाना भी हर पुलिसकर्मी का फर्ज है. सोशल प्रोग्राम होते हैं तो मैं उन में लोगों को समझाती हूं कि तालीम के मामले में वह बेटाबेटी में फर्क न करें. बेटियों को आगे बढ़ने का मौका दें. लोग उन्हें इज्जत दें. यह हकीकत है कि मेरे वालिदैन ने भरोसा कर के मुझे नहीं पढ़ाया होता तो इस मुकाम पर कभी नहीं पहुंचती. Best Stories

—कथा अंजुम आरा से बातचीत पर आधारित

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