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एक रोज दोपहर को दीपक ईरिक्शा ले कर बाजार जा रहा था कि उसे बरखा दिखाई दी. उस ने ईरिक्शा रोक दी. बरखा नजदीक आई तो दीपक ने उसे छेड़ा, “भाभी, क्या भैया को छोड़ कर जा रही हो? बहुत जल्दी में दिख रही हो.”

“तुम्हारे भैया को छोड़ कर भागूंगी तो तुम्हारे साथ न.” बरखा ने बिना संकोच के कहा और उस की ईरिक्शा पर बैठ गई, “चलो, भगा ले चलो मुझे.”

“कहां?” दीपक अब सकपका गया.

“बस निकल गई हवा. बड़े आए भाभी का खयाल रखने वाले. चलो, मुझे बाजार तक छोड़ दो.” बरखा ने उसे टहोका मारा. उस रोज बाजार में बरखा ने शौपिंग की तो दीपक ने उसे इंप्रेस करने के लिए अपनी तरफ से उसे एक अच्छी सी साड़ी खरीदवा दी. फिर एक रेस्तरां में उसे बढिय़ा सा नाश्ता भी कराया.

वापसी में भी दीपक उसे साथ ले कर आया, इस दौरान दोनों काफी खुल चुके थे. दीपक ने दबे स्वर में बरखा को यह जता दिया था कि वह उसे बेइंतहा चाहता है. बरखा अपनी कटीली अदाओं से उसे घायल करती हुई मुसकराती रही.

मोहल्ले से कुछ दूर बरखा को उतारते हुए दीपक बोला, “भाभी, आज मैं ने तुम्हारी इतनी सेवा की, उस की मेवा भी मिलेगी क्या?”

“एक घंटे बाद घर आ जाना, चाय पिला दूंगी.”

“सिर्फ चाय?”

“तो दूध पी लेना,” बरखा ने कामुक आंखों से दीपक की आंखों में झांका और गहरी सांस लेते हुए अपने वक्षों को तान दिया, मानो वह कह रही हो कि इन्हें पी लेना.

दीपक घर पहुंचा. उस ने कपड़े बदले फिर मां से बहाना कर के घर से निकल गया. वह जानता था कि बरखा इस वक्त घर पर अकेली होगी. कृष्णकांत रात 9 बजे के पहले घर नहीं आता था. दीपक उसी रोज बरखा को पा लेना चाहता था, अत: वह बरखा के घर की ओर चल पड़ा.

बरखा ने दीपक को पलंग पर बिठाया. फिर मुसकराते हुए पूछा, “क्या पिओगे देवरजी, चाय या दूध..?”

“यह दूध,” दीपक ने उस की कलाई थामते हुए उस के स्तनों की तरफ इशारा किया.

“हाय दैय्या, कितने बेशरम हो तुम.” बरखा ने लाज का नाटक किया, लेकिन दीपक ने उसे खींच कर गोद में गिरा लिया और उस के वक्ष सहलाने लगा.

“देवरजी, तुम मुझे अच्छे लगते हो,” बरखा ने उस के हाथों के ऊपर हाथ रखते हुए कहा, “पर मैं तुम्हें यह दूध तभी पिलाऊंगी, जब तुम हमेशा इन के वफादार रहने की कसम खाओगे.”

“तुम्हारी कसम बरखा भाभी, तुम्हें कभी दगा नहीं दूंगा,” दीपक ने अपने सिर पर हाथ रख कर कसम खाई.

दीपक गुप्ता से हो गए अवैध संबंध

बरखा प्यासी औरत थी. उस की नजर दीपक की जवानी पर थी. दीपक ही उस की प्यास बुझा सकता था. उस का पति कृष्णकांत उस की पेट की भूख तो मिटा सकता था, पर तन की भूख नहीं. अत: उस ने एक कामुक सीत्कार भरी और बोली, “मैं पहले दरवाजा बंद कर लूं.”

दीपक ने उसे छोड़ा तो वह दरवाजा बंद कर आई. वह जैसे ही पलंग के पास आई, दीपक ने उसे बांहों में भर लिया और पलंग पर लुढक़ गया. उस के बाद तो कमरे में सीत्कार की आवाजें आने लगीं. कुछ देर बाद दोनों अलग हुए तो उन के चेहरे पर पूर्ण संतुष्टि के भाव थे.

उस रोज बरखा जहां शादी के समय दिए गए सभी वचन भूल गई और पति के साथ विश्वासघात कर बैठी, वहीं दीपक ने दोस्ती को दरकिनार कर दोस्त की पीठ में इज्जत का छुरा घोंप दिया. वह भूल गया कि बरखा उस के दोस्त की पत्नी है.

अवैध संबंधों का सिलसिला एक बार शुरू हुआ तो वक्त के साथ बढ़ता ही गया. दोनों को जब भी मौका मिलता, वे एकदूसरे में समा जाते. बरखा अब दीपक के साथ सैरसपाटा करने भी जाने लगी. दीपक बरखा को ईरिक्शा पर बैठा कर रमणीक स्थल मोतीझील ले जाता. वहां की मखमली घास पर बैठ कर दोनों घंटों तक प्यार भरी बातें करते. फिर झील में नाव पर बैठ कर खूब मस्ती करते. पति के वापस आने के पहले वह घर लौट आती थी.

दीपक का कृष्णकांत के घर आनाजाना बढ़ा तो अड़ोसपड़ोस के लोगों के कान खड़े हो गए. कई लोगों ने बरखा को दीपक के साथ बाजार में भी साथ देखा था, सो वे भी कानाफूसी करने लगे थे. कृष्णकांत को बात पता चली तो उस का माथा ठनका. उस ने बरखा से कहा तो कुछ नहीं, लेकिन उस पर शक करने लगा.

बरखा पति के सामने बनी सतीसावित्री

एक रोज कृष्णकांत सुबह काम पर गया, लेकिन दोपहर को ही वापस लौट आया. उस समय बरखा घर पर ही थी. कृष्णकांत यह सोच कर घर वापस आया था कि बरखा के साथ प्यार भरे कुछ लम्हे बिताएगा, लेकिन ज्यों ही वह अपने कमरे में दाखिल होने को हुआ, बरखा की आवाज उस के कानों से टकराई, “उस के साथ मेरा विवाह हो गया तो क्या हुआ? मेरा जिस्म और मेरी आत्मा तुम्हारे ही रहेंगे. हमें कोई रोक नहीं सकता.”

कृष्णकांत के कानों में मानो किसी ने पिघला हुआ शीशा डाल दिया हो. उस का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. मारे गुस्से और नफरत के उस के जबड़े भिंच गए. दरवाजे को धकेलते हुए वह कमरे में दाखिल हुआ तो उसे अचानक सामने पति को देख कर बरखा के चेहरे का रंग उड़ गया.

कृष्णकांत उसे घूरते हुए दहाड़ा, “बताओ कौन है वह, जिस से तू फोन पर बातें कर रही थी. जरूर वह तेरा आशिक ही होगा.”

बरखा चुपचाप कृष्णकांत की बात सुनती रही. उस के चेहरे पर ग्लानि या क्षोभ के कोई भाव नहीं थे. बजाय झुकने के बरखा सख्त लहजे में बोली, “तुम्हें यह जानना है न कि मैं किस से बातें कर रही थी तो जान लो, मैं अपनी सहेली से बात कर रही थी. अगर यकीन न हो, तो ये लो फोन और नंबर मिला कर कर लो उस से बात.” कह कर उस ने फोन पति को पकड़ा दिया.

बरखा ने जिस आत्मबिश्वास के साथ यह सब कहा था, उस से कृष्णकांत को लगा कि वह सच बोल रही है. उसे लगा कि पूरी बात जाने बिना उस ने बेकार में पत्नी पर शक किया. यही नहीं, उस ने बरखा से माफी मांगी और उसे मनाने लगा.

बरखा के जब से दीपक के साथ जिस्मानी संबंध बने थे, तब से उस ने पति को भुला ही दिया था, लेकिन उस दोपहर जब माफी मांगने के बाद कृष्णकांत ने बरखा से प्यार भरी बातें की और उसे अपनी बांहों में भरा तो वह पति को समर्पित हो गई. कृष्णकांत खुश था कि आज उस ने बीवी को पा लिया है, पर वह यह नहीं जानता था कि बीवी ने उस के शक को दूर करने के लिए उस के समक्ष जिस्म की गिरह खोली थी.

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