दूर की सोच : प्यार या पैसा – भाग 1

फिलिप रौजर की जेब में मौजूद पीले रंग का वह पुराना कागज एक तरह से उस के बाप की वसीयत थी, जिस में उस ने आशीर्वाद के बाद लिखा था कि वह उस के और उस की बहन के लिए भारी कर्ज छोड़े जा रहा है. खानदानी जायदाद और घर रेहन रखने के बाद भाईबहन को वह तकदीर के भरोसे छोड़ कर मौत को गले लगा रहा है. इस के अलावा अब उस के पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं बचा है.

उस वसीयत के साथ फिलिप को 14 साल की एक लड़की और 24 साल के एक नौजवान की याद आ गई, जो बाप के आत्महत्या कर लेने के बाद बेसहारा हो गए थे. उस दिन पूरे 24 साल बाद फिलिप ने डौल्टन का दरवाजा खटखटाने के लिए दरवाजे पर हाथ रखा तो मन में दहक रही बदले की आग के साथ गर्व का अहसास हुआ, क्योंकि अब उस के पास वह ताकत थी, जिस से वह अपना अतीत खरीद सकता था.

डौल्टन ने दरवाजा खोला. उस के सिर के बाल सफेद हो गए थे, चेहरे पर परेशानी और गरीबी साफ झलक रही थी. फिलिप ने तो उसे पहचान लिया, लेकिन वह उसे नहीं पहचान सका, क्योंकि फिलिप अब 24 साल का दुबलापतला नौजवान नहीं, 48 साल का कीमती सूट में लिपटा शानदार व्यक्तित्व का मालिक था.

फिलिप ने हाथ मिलाते हुए गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मि. डौल्टन, मैं फिलिप रौजर. क्या अंदर आ सकता हूं?’’

डौल्टन घबरा सा गया. हकला कर बोला, ‘‘ओह मि. रौजर, मुझे यकीन ही नहीं हो रहा है कि यह आप हैं. आइए, यह आप का ही तो घर है.’’

‘‘है नहीं मि. डौल्टन, था. सचमुच 24 साल पहले यह मेरा ही घर था. लेकिन अब नहीं है.’’

‘‘मि. फिलिप प्लीज, ऐसा मत कहिए. आज भी यह आप का ही घर है. आप अंदर तो आइए.’’ डौल्टन ने बेचैन हो कर कहा.

पूरे 24 सालों बाद फिलिप ने अपने घर में कदम रखा था, जहां आज भी उस का अतीत जिंदा था और उस के मांबाप की यादें थीं. घर की हालत काफी खस्ता हो चुकी थी. वहां रखा फर्नीचर भी काफी पुराना था. हर तरफ गरीबी झलक रही थी. यह सब देख कर फिलिप को खुशी हुई. कीमती पेंटिंग्स, फानूस, बड़ीबड़ी लाइटें, सब गायब थीं.

फिलिप ने एक पुरानी कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘‘मैं यहां अपने मतलब की जरूरी बात करने आया हूं.’’

‘‘हां…हां, जरूर कहिएगा, पहले मैं आप को अपने घर वालों से तो मिलवा दूं.’’

‘‘मैं यहां किसी से मिलने नहीं, सिर्फ काम की बात करने आया हूं.’’ कह कर फिलिप ने साथ लाया बड़ा सा सूटकेस खोला और फर्श पर बिछे कालीन पर पलट दिया. नोटों का ढेर सा लग गया. उस ढेर की ओर इशारा करते हुए उस ने कहा, ‘‘आप ने विज्ञापन दिया है कि आप यह घर बेच रहे हैं. इसलिए मैं यहां आया हूं. शायद मुझ से ज्यादा इस घर की कीमत कोई दूसरा नहीं दे सकता. जितनी रकम चाहो, इस में से निकाल लो.’’

डौल्टन की आंखें हैरत से चौड़ी हो गईं. बातचीत सुन कर डौल्टन की पत्नी भी उस कमरे में आ गई थी. नोटों के उस ढेर को देख कर वह भी हैरान रह गई. फिलिप ने डौल्टन को घूरते हुए कहा, ‘‘24 साल पहले आप ने बड़ी होशियारी से मेरे बाप को मार दिया था.’’

‘‘यह सरासर गलत है मिस्टर रौजर,’’ डौल्टन ने जल्दी से कहा, ‘‘दीवालिया हो जाने के बाद आप के पिता ने आत्महत्या की थी.’’

‘‘आप ने उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया था. उस के बाद मुझे और मेरी बहन को धक्के खाने और भूखे मरने के लिए घर से निकाल दिया था. लेकिन संयोग देखो, पांसा पलट गया. बताइए, इस घर के लिए आप को कितनी रकम चाहिए?’’

‘‘मैं इसे 5 लाख डौलर में बेचना चाहता हूं.’’ डौल्टन ने धीरे से कहा.

फिलिप ने गर्व से कहा, ‘‘ये 7 लाख डौलर हैं, लेकिन मेरी एक शर्त है, आप को आज शाम तक यह मकान खाली कर देना होगा.’’

डौल्टन और उस की पत्नी का मुंह हैरत से खुला रह गया. पल भर बाद डौल्टन ने कहा, ‘‘लेकिन मि. फिलिप कानूनी काररवाही में समय लगेगा.’’

‘‘कानूनी काररवाही होती रहेगी, मुझे आज शाम तक घर चाहिए.’’

डौल्टन ने कांपते हाथों से नोट समेटते हुए कहा, ‘‘मि. फिलिप यह मकान आप का हुआ, लेकिन मैं भी उसूलों वाला आदमी हूं. इसलिए आप जो 2 लाख डौलर ज्यादा दे रहे हैं, वे मुझे नहीं चाहिए.’’

फिलिप के गुरूर को धक्का लगा. क्योंकि 2 लाख डौलर डौल्टन ने लौटा दिए थे. इस तरह फिलिप रौजर का पुश्तैनी मकान उस के कब्जे में आ गया था.

इस के कुछ दिनों बाद फिलिप की बहन रोजा ने बाल संवारते हुए कहा, ‘‘फिलिप, तुम्हें तो आज डौल्टन के यहां पार्टी में जाना था?’’

‘‘नहीं, मैं नहीं जा पाऊंगा उस के यहां पार्टी में.’’ फिलिफ ने बेरुखी से कहा.

‘‘यह गलत बात है फिलिप. हमारे उस के यहां से पुराने संबंध हैं, इसलिए उस के यहां तुम्हें जरूर जाना चाहिए.’’ रोजा ने भाई को समझाया.

‘‘मुझे उस आदमी से नफरत है. उसी की वजह से मेरे बाप ने आत्महत्या की थी.’’

‘‘यह इल्जाम झूठा है फिलिप. हमारे पिताजी यह मकान और जायदाद जुए और शराब में हार गए थे. इस में खरीदार का क्या दोष? उस ने पैसे दिए थे, बदले में यह सब ले लिया. अब तुम्हें इस में क्या परेशानी है, तुम ने तो अपना मकान वापस ले लिया है. अब डौल्टन के बच्चों का क्या हक है कि वे तुम से नफरत करें, तुम्हें जलील करें? अगर वह आत्महत्या कर लेता तो क्या तुम हत्यारे कहे जाओगे?’’

‘‘तुम तो वकालत बहुत अच्छी कर लेती हो.’’ फिलिफ ने हार मानते हुए कहा.

डौल्टन का नया घर काफी छोटा और पुराना था. उस के इस घर को देख कर फिलिप को बहुत खुशी हुई थी. लेकिन डौल्टन ने दिल से उस का स्वागत किया था. इस के बाद उस ने अपने बगल खड़ी एक लड़की की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘मि. फिलिप, यह मेरी बेटी इजाबेला है.’’

फिलिप ने इजाबेला पर एक नजर डाली और एक किनारे बैठ गया. उस ने किसी से बात नहीं की तो लोग भी उस से दूरी बनाए रहे. शायद वे उस की संपन्नता से सहमे हुए थे. डौल्टन ने वह पार्टी अपना कर्ज अदा करने और यह घर खरीदने की खुशी में दी थी.

पैग ले कर फिलिप धीरेधीरे चुस्कियां ले रहा था. क्योंकि वह शराब उसे पसंद नहीं थी. यह बात उस के चेहरे से ही पता चल रही थी. कर्ज अदा करने और मकान खरीदने में डौल्टन ने काफी रकम खर्च कर दी थी.   गुजरबसर के लिए उस की बेटी इजाबेला एक स्कूल में पढ़ा रही थी तो वह किसी अखबार के दफ्तर में छोटामोटा काम कर रहा था. पार्टी में आए मेहमान खानेपीने में मशगूल थे.

अचानक फिलिप की नजर अपने बेटे एलेक्स पर पड़ी. कीमती सूट में लिपटा शानदार पर्सनैलिटी वाला एलेक्स सब से अलग नजर आ रहा था. वह हंसहंस कर बातें कर रहा था. इजाबेला भी उस से उसी तरह बातें कर रही थी.

बुझ गया आसमान का दीया – भाग 1

बुराड़ी के मदर टेरेसा पब्लिक स्कूल से हाईस्कूल पास करने के बाद प्रदीप शर्मा ने उसी स्कूल में 11वीं में दाखिला लेने के साथ  ही वह इस तलाश में भी लग गया कि कोई छोटामोटा ऐसा कोर्स कर ले, जिस से उसे कोई ठीकठाक नौकरी मिल जाए. क्योंकि उसे पता था कि उस के पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह उसे उच्चशिक्षा दिला सकेंगे.

प्रदीप साइबर कैफे जा कर इंटरनेट पर भी सर्च करता और अखबारों में आने वाले विज्ञापन भी देखता. इंटरनेट पर ही उस ने इंस्टीट्यूट औफ प्रोफेशनल स्टडीज ऐंड रिसर्च (आईपीएसआर) मेरिटाइम का विज्ञापन देखा. यह संस्थान मर्चेंट नेवी में काम करने के इच्छुक युवाओं को उच्च क्वालिटी की कोचिंग और प्रशिक्षण दिलाता था. यही नहीं, यह इंस्टीट्यूट कोर्स करने वाले युवाओं को प्लेसमेंट में भी मदद करता था.

प्रदीप शर्मा को मर्चेंट नेवी का क्षेत्र अच्छा लगा. इस में वेतन तो अच्छा मिलता ही है, सुविधाएं भी अच्छी होती हैं और विदेश में घूमने का मौका मिलता है. उस ने घर आ कर अपने पिता हरिदत्त शर्मा से बात की. प्रदीप उन का एकलौता बेटा था. इसलिए वह उस के सुनहरे भविष्य के लिए कुछ भी कर सकते थे. उन्होंने इंस्टीट्यूट जा कर खर्च के बारे में पता लगाने के लिए कह दिया.

आईपीएसआर मेरिटाइम का  औफिस दक्षिणी दिल्ली के छतरपुर में था. अगले दिन प्रदीप शर्मा अपने पिता के साथ वहां पहुंचा तो इंस्टीट्यूट के कोआर्डिनेटर डा. अकरम खान ने उन्हें बताया कि उन का इंस्टीट्यूट सरकार से मान्यता प्राप्त है. दिल्ली में इस की 3 शाखाएं हैं.  इस के अलावा पटना, रांची और देहरादून में भी इस की शाखाएं हैं. मन लगा कर कोर्स करने वाले कैंडिडेट्स का वह हंडरेड परसेंट प्लेसमेंट कराते हैं. उन के यहां से कोर्स कर के तमाम लड़के विदेशों में नौकरी कर रहे हैं.

डा. अकरम खान ने शतप्रतिशत नौकरी दिलाने की बात की थी, इसलिए हरिदत्त ने सोचा कि अगर वह यहां बेटे को कोर्स करा देते हैं तो उस की जिंदगी सुधर जाएगी. उन्होंने फीस के बारे में पूछा तो अकरम खान ने कहा, ‘‘हम आल इंडिया लेवल पर एक प्रवेश परीक्षा कराते हैं. उस परीक्षा में जो बच्चा पास हो जाता है, उस से 31 हजार रुपए रजिस्ट्रेशन फीस ली जाती है. इस के बाद राजस्थान एवं कोलकाता से 3 और 6 महीने जनरल परपज रेटिंग (जीपी रेटिंग) का प्रशिक्षण दिलाया जाता है, जो डीजी शिपिंग से एप्रूव है.

‘‘ट्रेनिंग के दौरान 2 लाख 30 हजार रुपए जमा कराए जाते हैं. कोर्स पूरा करने के बाद कैंडिडेट को सीमैन की पोस्ट पर विदेशी जहाज पर भेज दिया जाता है, जिस का शुरुआती वेतन 800 यूएस डौलर प्रतिमाह के करीब है.

‘‘2 साल तक सीमैन के पद पर काम करने वाला व्यक्ति इस के बाद होने वाली परीक्षा पास कर लेता है तो उस का प्रमोशन हो जाता है .उस का वेतन हो  जाता है 3 हजार यूएस डौलर. बाद में उस का प्रमोशन कैप्टन के पद तक हो जाता है. तब उसे 8 से 12 हजार यूएस डौलर वेतन मिलता है.’’

हरिदत्त शर्मा आजादपुर स्थित एक आफसेट मशीन पर काम करते थे. वहां से जो तनख्वाह मिलती थी उस से किसी तरह अपना घर चला रहे थे.  इंस्टीट्यूट की फीस तो उन की हैसियत के बाहर थी, लेकिन बात बेटे के भविष्य की थी, इसलिए जैसेतैसे पैसों का जुगाड़ कर उन्होंने कोर्स कराने की हामी भर दी. अकरम खान ने प्रदीप शर्मा से रजिस्टे्रशन फार्म भरा लिया.

एक हफ्ते के अंदर ही प्रदीप की औनलाइन परीक्षा हुई. प्रदीप ने यह परीक्षा पास कर ली तो 5 नवंबर, 2011 को पिता के साथ छतरपुर स्थित आईपीएसआर मेरिटाइम के औफिस जा कर 31 हजार रुपए जमा करा दिए. इस के बाद उस से कहा गया कि इंस्टीट्यूट 3 महीने के जीपी रेटिंग कोर्स के लिए उसे राजस्थान के अलवर भेजेगा. लेकिन पहले उसे 1 लाख 10 हजार रुपए जमा कराने होंगे.

26 दिसंबर, 2011 को प्रदीप को 3 महीने की ट्रेनिंग के लिए अलवर जाने का लेटर मिल गया. इस के लिए उसे 1 लाख 10 हजार रुपए जमा कराने थे. लेकिन उस समय हरिदत्त शर्मा के पास इतने पैसे नहीं थे. उन्होंने अकरम खान से बात की और 3 महीने में पैसा जमा कराने का वादा किया तो हरिदत्त शर्मा पर विश्वास कर के प्रदीप को 3 महीने की ट्रेनिंग के लिए अलवर भिजवा दिया.

राजस्थान से 3 महीने की ट्रेनिंग कर के प्रदीप घर लौट आया. हरिदत्त शर्मा ने इधरउधर से पैसों का इंतजाम कर के 12 अप्रैल, 2012 को 1 लाख 10 हजार रुपए आईपीएसआर मेरिटाइम के छतरपुर स्थित औफिस में जमा करा दिए. अब प्रदीप को 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए कोलकाता जाना था. इस के लिए हरिदत्त शर्मा को 1 लाख 20 हजार रुपए और जमा कराने पड़े.

यह सारे पैसे हरिदत्त शर्मा ने अपने रिश्तेदारों से उधार ले कर जमा कराए थे. उन्होंने सोचा था कि बेटे की नौकरी लग जाएगी तो वह सब के पैसे लौटा देंगे.

प्रदीप की मां राधा शर्मा की बांह पर नासूर था. तमाम इलाज के बाद भी वह ठीक नहीं हो रहा था. प्रदीप ने मां को भरोसा दिलाया था कि नौकरी लगने के बाद वह उन का इलाज कराएगा. कोलकाता से ट्रेनिंग करने के बाद अब प्रदीप को नौकरी का इंतजार था.

आखिर सितंबर महीने में इंस्टीट्यूट की ओर से प्रदीप को बुलाया गया तो वह पिता के साथ वहां पहुंचा. इस बार उन की मुलाकात इंस्टीट्यूट के निदेशक अंबुज कुमार से हुई. उन्होंने कहा, ‘‘विदेश में नौकरी के लिए सतत निर्वहन प्रमाणपत्र (सीडीसी) होना जरूरी है.

‘‘यह प्रमाणपत्र भारत सरकार द्वारा जारी किया जाता है. हम ने इस के लिए एप्लाई कर दिया है. इस के अलावा बाहर जाने के लिए वीजा होना चाहिए. इन सब के लिए करीब 2 लाख रुपए खर्च होंगे. आप जल्द से जल्द ये पैसे जमा करा दीजिए, जिस से हम आगे की काररवाई कर सकें.’’

हरिदत्त शर्मा अब तक 3 लाख रुपए के करीब खर्च कर चुके थे. अब 2 लाख रुपए और जमा कराने के लिए कहा जा रहा था. यह सारा पैसा उन्होंने रिश्तेदारों से लिए थे. अब रिश्तेदारों से पैसे मिल नहीं सकते थे. पैसे भी जमा कराने जरूरी थे क्योंकि अगर पैसे जमा नहीं कराए जाते तो पिछले पैसे बेकार जाते. बेटे की उम्मीदों पर पानी फिर जाता.

जब कोई उपाय नहीं सूझा तो उन्होंने उत्तरी दिल्ली के बुराड़ी में स्थित अपना 50 वर्गगज का वह मकान बेच डाला, जिस में वह परिवार के साथ रहते थे. मकान बेच कर हरिदत्त ने 2 लाख रुपए जमा करा दिए. इस के बाद खुद किराए पर रहने लगे. कुछ दिनों बाद सीडीसी आ गई, जिस में सन 2013 से 2023 तक विदेश में रहने की अनुमति थी.

7 अक्तूबर, 2013 को हरिदत्त शर्मा को इंस्टीट्यूट से फोन कर के बताया गया कि प्रदीप का वीजा लग गया है. वह अपने मूल प्रमाणपत्र और 2 लाख रुपए ले कर इंस्टीट्यूट आ जाए. हरिदत्त ने कहा कि अब 2 लाख किस बात के, तो इंस्टीट्यूट के निदेशक अंबुज कुमार ने कहा, ‘‘ये रुपए उस के एयर टिकट वगैरह के हैं. आप प्रदीप को ले कर कल 9 बजे तक आ जाइए. कल ही उस की फ्लाइट है.’’

अगले दिन सुबह 9 बजे प्रदीप के साथ हरिदत्त को इंस्टीट्यूट पहुंचना था. किसी तरह पैसों की व्यवस्था कर के इंस्टीट्यूट पहुंचे तो इंस्टीट्यूट के निदेशक अंबुज कुमार ने कहा, ‘‘आप लोग बहुत लेट हो गए हैं. जल्दी से पैसे और पेपर दीजिए, वरना फ्लाइट छूट जाएगी.’’

हरिदत्त शर्मा लेट हो चुके थे, इसलिए पैसे देते समय वह अंबुज कुमार से कुछ पूछ भी नहीं सके. पैसे मिलने के बाद अंबुज ने कुछ डाक्युमेंट्स की फोटोकौपी और एक सीलबंद लिफाफा प्रदीप को दे कर कहा, ‘‘इस लिफाफे को तुम दुबई में मिस्टर विकास को दे देना. वह इंस्टीट्यूट के ही आदमी हैं.

इस के बाद हरिदत्त शर्मा आटो से इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहुंचे, जहां प्रदीप का पासपोर्ट और सामान आदि चैक हुआ. उस के बाद उसे दुबई जाने वाली फ्लाइट में बैठा दिया गया.

उसी दिन प्रदीप दुबई पहुंच गया. दुबई एयरपोर्ट पर ही उसे विकास मिला, जिसे उस ने वह सीलबंद लिफाफा सौंप दिया. दुबई पहुंच कर प्रदीप ने घर वालों से फोन पर बात की. उस की सफलता पर मांबाप बहुत खुश थे.

आईपीएसआर इंस्टीट्यूट के निदेशक अंबुज कुमार के अनुसार, प्रदीप को 3 महीने दुबई में काम करना था. हरिदत्त शर्मा की प्रदीप से बात हुई तो उस ने बताया कि वह दुबई के एक शिप में काम कर रहा है.  3 महीने बाद प्रदीप को इराक और फिर ईरान भेजा गया. कुछ दिनों के बाद वह फिर दुबई आ गया. वहां से उसे फिर इराक भेज दिया गया.

काली कमाई का कुबेर : यादव सिंह

जाल में उलझी जिंदगी – भाग 1

मैं थाने में बैठा कत्ल की एक फाइल को पढ़ रहा था, तभी एक आदमी आया जो आते ही बोला, “साहब, मेरा नाम जाहिद है और मैं इसी कस्बे में रहता हूं. मेरी पत्नी भाग गई है. मेरी रिपोर्ट दर्ज कर के उस के बारे में पता लगाने की कोशिश करिए.”

उस की बात सुन कर मैं चौंका. उस की तरफ देखते हुए मैं ने पूछा, “यह तुम कैसे कह सकते हो?”

“पिछली रात, जब मैं बाथरूम गया था तो वह बिस्तर पर नहीं थी, बाहर का दरवाजा देखा तो कुंडी अंदर से खुली थी. इस

से मुझे लगा कि वह भाग गई है.”

“तुम्हारी बातों से यही लगता है कि तुम्हें पहले से ही शक था कि तुम्हारी पत्नी भाग जाएगी. क्या तुम ने उस के मायके वालों

से पता किया है कि वह वहां तो नहीं चली गई? तुम्हारी ससुराल कहां है?”

“ससुराल तो यहीं है, लेकिन मैं ने वहां पता नहीं किया,” उस ने जवाब में कहा.

“क्या तुम अपने मातापिता के साथ रहते हो?”

“नहीं जी, मैं अलग रहता हूं. लेकिन वह आधी रात को मेरे या अपने मातापिता के घर जा कर क्या करेगी? वह गांव के ही

करामत के साथ गई होगी.”

“यह बात तुम इतने दावे से कैसे कह सकते हो?”

“वह इसलिए कि उस का पहले से ही उस के साथ चक्कर चल रहा था. वह भी अपने घर पर नहीं है.”

“उसे रोकने के लिए तुम ने कुछ नहीं किया?”

“बहुत कुछ किया था. उस के मातापिता से भी शिकायत की थी. मैं ने उस की कई बार पिटाई भी की, लेकिन वह नहीं मानी. मेरे ससुर डीसी औफिस में हैडक्लर्क हैं. मेरे शिकायत करने पर उलटे उन्होंने मेरा अपमान करते हुए मुझे बंद कराने की धमकी दी थी. वह जिस आदमी के साथ गई है, वह भी बहुत पैसे वाला बदमाश किस्म का है.

“अच्छा, तुम मलिक नूर अहमद की बात कर रहे हो,” मैं ने कहा, “वह तुम्हारे ससुर हैं?”

उस के ससुर को मैं जानता था. वह डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर में हैडक्लर्क थे, डीसी दफ्तर में नौकरी करना बड़े सम्मान की बात थी.

“आप देख लीजिएगा, वह कभी नहीं मानेंगे कि उस की बेटी भाग गई है. वह मेरे खिलाफ कोई न कोई फंदा डाल देंगे.” उस ने कहा.

मैं ने जाहिद से वह सभी बातें पूछीं, जो ऐसे मामले में पूछनी जरूरी होती हैं. करामत नाम के जिस शादीशुदा आदमी के साथ वह बीवी के भागने की बात कर रहा था, मैं ने उस का भी नामपता नोट कर के एक कांस्टेबल को करामत को बुलाने के लिए उस के घर भेज दिया. लेकिन कांस्टेबल उस की जगह उस के पिता और भाई को ले आया. दोनों ही डरे हुए थे.

उन्होंने बताया कि करामत घर पर नहीं है. पिता ने कहा कि वह सुबह ही घर से निकल गया था, जबकि भाई का कहना था कि वह रात का खाना खा कर निकला था और घर नहीं आया था. दोनों के बयान अलगअलग होने की वजह से मैं ने बाप से पूछा. मेरे सवालों से बाप परेशान हो गया. उस की आंखें लाल हो गईं. लग रहा था कि वह रोने वाला है.

वह कहने लगा, “साहब, मेरा यह बेटा पता नहीं मुझे कहांकहां अपमानित कराएगा. उसी की वजह से मुझे आज थाने आना पड़ा.”

यह कहते समय उस के चेहरे पर जो भाव उभरे, वह मुझे आज भी याद हैं. उस ने आगे कहा, “बड़ी इज्जत से जिंदगी गुजारी थी. लेकिन आज उस की वजह से मुझे झूठ बोलना पड़ा. करामत शाम को ही घर से निकला था. अभी तक उस के घर न लौटने पर मुझे भी लगने लगा है कि कहीं वह उसी के साथ ही तो नहीं भागी? बेटे को बचाने के लिए ही मैं झूठ बोल रहा था.”

वह एक सम्मानित आदमी था, इसलिए मैं उसे पूरा सम्मान दे रहा था. वह अपने बेटे को बचाने की पूरी कोशिश में था. मैं ने उसे झूठी सांत्वना देते हुए कहा कि मैं उस के बेटे को बचाने की पूरी कोशिश करूंगा.

इस के बाद उस ने कहा, “साहब मैं ने करामत की शादी 4 साल पहले एक सुंदर, सुघड़ और सुशील लडक़ी से की थी. लेकिन उस ने उसे दिल से कबूल नहीं किया, क्योंकि वह मुनव्वरी नाम की एक लडक़ी से शादी करना चाहता था. हम ने मुनव्वरी का हाथ उस के बाप से मांगा, लेकिन पता नहीं क्यों उस ने मना कर दिया. मुनव्वरी बड़ी दिलेर निकली, उस ने अपने पति की परवाह नहीं की और करामत से मिलना जारी रखा.

“पता चला है कि इसी बात को ले कर मुनव्वरी की अपने पति से रोज लड़ाई होती थी. मैं ने भी अपने बेटे को समझाया, लेकिन वह मेरी सुनता ही नहीं था. इसी वजह से वह अपनी बीवी में ज्यादा रुचि नहीं लेता था.

“इस के बावजूद भी उस की बीवी संतोष कर के बैठी रही. उसे एक बच्चा भी हो गया, फिर भी करामत ने घर को घर नहीं समझा. मुनव्वरी के जाल में ऐसा फंसा रहा कि मांबाप और बीवीबच्चों को भूल गया.

“मुनव्वरी के बाप को भी पता था कि उस की बेटी क्या कर रही है. लेकिन डीसी औफिस में नौकरी करने की वजह से वह घमंड में चूर रहता था. उस ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया.”

मैं ने उस से पूछा, “क्या आप बता सकते हैं कि करामत मुनव्वरी को ले कर कहां गया होगा?”

वह सोच कर बोला, “जबलपुर छावनी में उस के चाचा का लडक़ा रहता है. वह फौज में है. उस से करामत की गहरी दोस्ती है. हो सकता है वह वहीं गया हो?”

मैं ने उन दोनों से पूछताछ कर के उन्हें घर भेज दिया. मुनव्वरी और करामत के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो चुकी थी. यह मामला खोजबीन का नहीं, पीछा करने का था. खोजबीन उस मामले में होती है, जिस में अपराधी का पता न हो. इस मामले में अपराधी का नामपता सब कुछ था. उन दोनों को सिर्फ ढूंढना था. मैं ने दोनों की फोटो ले कर विभिन्न थानों को सूचना भेज दी. इस मामले को मैं खुद देख रहा था. करामत के चरित्र के बारे में पता चला कि वह इसी कस्बे में एक बैंक में नौकरी करता था, साथ ही एक बीमा कंपनी में एजेंट भी था.

खामोश हुआ विद्रोही तेवर

ठगी का बड़ा खिलाड़ी – भाग 4

अजय को जब भी सिरसा आना होता, उस के स्वागत में शहर में बड़ेबड़े होर्डिंग्सऔर बैनर कुछ इस अंदाज में लगाए जाते थे, जैसे किसी बड़ी राजनैतिक हस्ती का स्पैशल दौरा हो. जब सारी तैयारियां पूरी हो जातीं, उस के बाद ही भारी सुरक्षा तामझाम और काफिले के साथ अजय फिल्मी स्टाइल में एंट्री करता था. उस के आगेपीछे पुलिस और कमांडों दस्ते की जिप्सियां चलती थीं. उन के बीच वह महंगी लग्जरी कार में रहता था.

लोग उसे देख सकें, इस के लिए कार का शीशा उतार दिया जाता था. जिप्सियों पर 2-2 पुलिसकर्मी गले में कारबाइन डाल कर खड़े हो कर चलते थे. शायद ऐसा इसलिए किया जाता था कि लोग देख सकें कि पुलिस किस मुस्तैदी से उसे वीआईपी सुरक्षा दे रही है. इस सब के पीछे उस की मंशा लोगों को अपना रसूख दिखाने की होती थी. वह हमेशा वीआईपी सिक्योरिटी रखता था.

उस की सुरक्षा में पंजाब, हरियाणा और दिल्ली पुलिस के जवान होते थे. जितनी सुरक्षा उस के पास होती थी, किसी कैबिनेट मंत्री के पास भी नहीं होती थी. सन 2016 के विधानसभा चुनावों के समय सिरसा में चर्चा हो रही थी कि कांगे्रस अजय को अपना उम्मीदवार बनाएगी तो पूर्व मंत्री गोपाल कांडा से उस का कांटेदार मुकाबला होगा. हालांकि ऐसा हुआ नहीं.

अजय की रईसी का आलम यह था कि वह अपने नातेरिश्तेदारों को महंगी कारें तक गिफ्ट करता था. उस के पास जो लग्जरी गाडिय़ां थीं, वे उस के नाम नहीं थीं. उस की बीएमडब्ल्यू, मर्सडीज, औडी व हुंडई कारें उस के साथियों और पीए के नाम पर थीं.

अजय की शान से प्रभावित हो कर बड़ेबड़े लोग अपने काम कराने के लिए उस के पास आते और उस के जाल में फंस जाते थे. उन्हीं में पुणे के एक बड़े शिक्षण संस्थान के संचालक आर.एस. यादव भी थे. वह अकसर अपने कामों से दिल्ली आते रहते थे. इसी आनेजाने में उन की मुलाकात अजय से हुई तो उस ने उन्हें ऐसा झांसा दिया कि वह भी उस के जाल में फंस गए.

उस ने उन से कहा था कि सरकार एक सिक्योरिटी कमीशन बनाने जा रही है, अगर वह चाहें तो गृह मंत्रालय में सिफारिश कर के उन्हें वह उस में मेंबर बनवा सकता है. उन्हें तमाम सरकारी सुविधाओं के साथ लाल बत्ती लगी गाड़ी और सुरक्षा भी मिलेगी. आर.एस. यादव इस के लिए सहज ही तैयार हो गए. अजय का रसूख चूंकि वह देख चुके थे, इसलिए शक जैसी कोई बात नहीं थी. उन्होंने 50 लाख रुपए अजय को आने वाले दिनों में दे भी दिए. ऐसा कोई कमीशन बनना ही नहीं था, इसलिए रुपए हाथ में आते ही अजय उन्हें टरकाने लगा. उन्हें लगा कि वह फंस गए हैं तो पैसे वापस मांगे.

इस के बाद वह आए दिन रुपए वापसी के लिए चक्कर लगाने लगे तो एक दिन फार्महाउस पर अजय से उन की कहासुनी हो गई.  आर.एस. यादव अड़ गए. उन्होंने कहा, “अजयजी बहुत हो गया, आप मेरा हिसाब कर दीजिए. उस के बाद हमारा आप का रिश्ता खत्म.”

उन की बात पर अजय ने मुसकरा कर कहा, “ठीक है, तुम यही चाहते हो तो आज मैं मामला साफ किए देता हूं. आज के बाद तुम मुझ से कभी नहीं मिल सकोगे.”

इस के बाद अजय ने सुरक्षाकॢमयों को इशारा किया तो उन्होंने उसे धकिया कर फार्महाउस के बाहर कर दिया. उस ने ताकीद भी कर दी थी कि यह आदमी आइंदा कभी कोठी में नहीं दिखना चाहिए. बाहर से ही इसे भगा देना.

इस तरह आर.एस. यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया तो वह चाह कर भी कभी उस से नहीं मिल सके. अजय की पहुंच को देखते हुए उन्होंने उस के खिलाफ जान के डर से पुलिस में शिकायत करने की भी हिम्मत नहीं की. कोशिश कर के हरियाणा में शिकायत भी की तो वह दब कर रह गई.

सन 2013 में अजय ने पानीपत के एक आदमी से सरकारी नौकरी लगवाने के नाम पर 20 लाख रुपए ठग लिए थे. ठगी का शिकार हुए आदमी ने चुप बैठने के बजाय उस के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया था. पानीपत में उस के खिलाफ 20 लाख रुपए की ठगी का मुकदमा तो दर्ज हुआ, लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वह कानून के शिकंजे में फंसने से बचता रहा. मामला अदालत में पहुंचा. अजय को उम्मीद थी कि एक दिन यह सब रफादफा करा देगा.

अजय की ठगी का सिलसिला यहीं नहीं थमा. उस ने करनाल के सेक्टर-1 निवासी वीरेंद्र सिंह से भी पैट्रोल पंप और गैस एजेंसी दिलाने के नाम पर डेढ़ करोड़ रुपए ठग लिए थे. वीरेंद्र को न एजेंसी मिली, न रुपए. अजय की पहुंच के आगे वह भी थक कर बैठ गए थे.

इस के बाद उस ने सुरेंद्र गुप्ता को ठगी का शिकार बनाया. उसे कहीं से पता चला था कि सुरेंद्र को लोन की जरूरत है. यह पता चलते ही उस ने अपने साथियों को उन के पीछे लगा दिया. गुप्ता उन के जाल में एक बार फंसे तो फिर फंसते ही चले गए.

अजय के कारनामों का खुलासा हुआ तो हर कोई हैरान था. पुलिस हिरासत में भी वह अपने परिचित नेताओं के नाम ले कर पुलिस को डराता रहा. उस की गिरफ्तारी की सूचना मिलने के बाद गैस एजेंसी के नाम पर डेढ़ करोड़ गंवाने वाले वीरेंद्र सिंह और पुणे के आर.एस. यादव ने भी मुकदमा लिखाया था.

दरअसल, आर.एस. यादव कुछ ऐसे लोगों के बराबर संपर्क में थे, जो अजय को जानते थे. उन्हें गिरफ्तारी की खबर पा कर वह करनाल से आ पहुंचे थे. पुलिस ने कई राज्यों में उस की गिरफ्तारी की सूचना भेज दी है, ताकि अन्य मामले भी पकड़ में आ सकें.

27 जनवरी, 2015 को पुलिस ने अजय के एक साथी रिषी विश्नोई को भी गिरफ्तार किया है. उसी ने डेढ़ करोड़ की ठगी का शिकार हुए वीरेंद्र की मुलाकात अजय से कराई थी और ठगी के इस मामले में अहम भूमिका निभाई थी.

रिमांड अवधि खत्म होने पर पुलिस ने अजय को फिर से अदालत में पेश किया, जहां से उसे 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया. कथा लिखे जाने तक उस की जमानत नहीं हो सकी थी. पुलिस उस के शेष कारनामों की जांच के साथ ही उस के बाकी साथियों की तलाश कर रही थी. पुलिस के पास अजय की ठगी का शिकार हुए लोग पहुंच रहे थे.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित.

पंजाब की डाकू हसीना – भाग 4

गैंग के साथ बनाया लूट का खाका

जब लूट के लिए सभी विश्वासपात्र एकत्र हो गए तो इस की आगे की प्लानिंग बनाई गई. वह महीना था फरवरी और तारीख थी 23. मोना इतनी शातिर थी कि जुम्माजुम्मा शादी हुए हफ्ते भर नहीं हुआ था कि पति जसविंदर को भी अपने हुस्न की जाल से गुनाह के दलदल में उतार लिया था.

खैर, 5 महीने तक लूट की योजना बनती रही. घटना को अंतिम रूप देने के लिए 9 जून, 2023 दिन शुक्रवार तय किया. इस के पीछे खास वजह यह थी कि इस दिन रुपयों का कलेक्शन ज्यादा होता था, क्योंकि शनिवार और रविवार छुट्टी होती थी. एटीएम में पैसे डालने का काम नहीं होता था इसीलिए शुक्रवार का दिन चुना गया.

9 जून को सभी लुटेरे जगरांव में इकट्ठे हुए. समय शाम के 6 बजे के आसपास हो रहा था. करीब 3 घंटे तक आपस में मीटिंग हुई. अंत में गिरोह 2 टुकड़ों बांट दिया गया. जिस में तय हुआ कि एक पार्ट को मोना उर्फ डाकू हसीना अपना नेतृत्व देगी. वो अपनी क्रूज कार में जसविंदर सिंह (पति), हरप्रीत सिंह (भाई) अरुण कुमार कोच, आदित्य उर्फ नन्नी और गुलशन को बैठा कर पीछे वाले रास्ते से कार ले जाएगी.

जबकि दूसरी पार्टी का नेतृत्व मनजिंदर सिंह उर्फ मनी को सौंपा गया. उस के साथ में हरविंदर सिंह, मनदीप सिंह, परमजीत सिंह उर्फ पम्मा और नरिंदर सिंह लगाए गए. उन्हें 2 बाइकों पर सवार हो कर आगे के रास्ते से सीएमएस पहुंचना था. पते की बाद तो ये थी कि ये इतने शातिर थे कि पकड़े जाने के डर से कोई भी अपना मोबाइल अपने पास नहीं रखे था.

मीटिंग खत्म करने के बाद खुद मोना ने कार की ड्राइविंग संभाली और उस के बगल में जसविंदर सिंह बैठा बाकी तीनों पीछे की सीट पर बैठे. सब ने अपना चेहरा नकाब से पूरी तरह ढक रखा था तो मनजिंदर सिंह और बाकी साथी बाइक से निकले. इन सभी ने सुनसान रास्ते का इस्तेमाल किया था, जहां स्ट्रीट लाइटें कम थीं.

मनजिंदर और उस के चारों साथी आगे के रास्ते से सीएमएस के दफ्तर में घुसे तो मोना दफ्तर में पीछे के रास्ते साथियों संग घुसी थी. मनजिंदर को पता था कि सेंसर सिस्टम कहां है, इसलिए सब से पहले उस ने सेंसर सिस्टम की वायर काटी ताकि कोई अलार्म न बजा सके. उस के बाद ये सभी पीछे के रास्ते से ही अंदर दाखिल हुए.

गार्डों को बंधक बना कर काटे सायरन के तार

उन्होंने पहुंचते ही सब से पहले सो रहे तीनों सुरक्षा कर्मचारियों अमर सिंह, बलवंत सिंह और परमदीन खान को बंधक बनाया. उन के हथियार छीन लिए, जिस के बाद डीवीआर और साइरन के सभी तार और सामान समेट लिया. उस के बाद मनजिंदर और जसविंदर कैश गिनने वाले कमरे में दाखिल हुए, जहां 2 कर्मचारी हिम्मत सिंह और हरमिंदर सिंह कैश गिन रहे थे.

असलहे की नोंक पर दोनों ने उन पर काबू किया तो मोना, हरप्रीत, विक्की, लंबू, नन्नी और अरुण कोच 2 नीले रंग के बड़े बैग में नोट भरने का काम करते रहे. ये खेल रात 2 बजे से 5 बजे तक चला. जब दोनों बैग रुपयों से भर गए तो उन्हें सीएमएस कंपनी की कैश वैन संख्या पीबी10जेए -7109 में रुपए भरे और खुद मनजिंदर सिंह वैन को ड्राइव कर गांव के रास्ते होते हुए फरार हो गया तो कार में मोना अपने साथियों को साथ ले कर और बाकी अपनी बाइक पर फरार हो गए.

सभी लुटेरे वहीं पहुंच कर इकट्ठा हुए, जहां मीटिंग (जगरांव) की थी. एक बैग के रुपए आपस में काम के अनुरूप बांट दिए थे, जबकि दूसरे बैग के नोट मोना ने अपनी क्रूज गाड़ी में रख कर अरुण कोच के घर के पास खड़ी कर पति के साथ फरार हो गई.

सभी आरोपी जानते थे सुबह तक यह घटना जंगल में आग की तरह फैल जाएगी, इसलिए रुपए ले कर वे सभी भूमिगत हो गए थे लेकिन कैश वैन की बरामदगी, उस में लगे जीपीएस और गुप्त कैमरे से मनजिंदर का ट्रेस होना और मुखबिर की सक्रिय भूमिका से लूट का पूरा खुलासा हो गया और लूट की शतप्रतिशत रकम भी बरामद कर ली गई.

अंत में सीएमएस के प्रबंधक के बयान ने लूट की रकम को उलझा दिया. तीसरी बार अपने बयान में प्रबंधक प्रवीण ने कहा कि लूट की रकम 7 करोड़ नहीं, बल्कि 8 करोड़ 49 लाख थी, जिस में से 7 करोड़ 14 लाख की रकम बरामद कर ली गई है. जबकि अभी भी 1 करोड़ 37 लाख रुपए बरामद करना शेष है.

इस कहानी में एक लोचा तब आ गया था, जब क्रूज कार अरुण के घर के बाहर खड़ी थी. अरुण के साथी नीरज को इस घटना के बारे में पता चल चुका था और उस ने मुंह बंद रखने के लिए अपना हिस्सा मांगा तो अरुण ने कुछ भी देने से मना कर दिया. इस पर नीरज अपने साथियों प्रिंस, मनदीप उर्फ बब्बू और अभिसिंगला कार का शीशा तोड़ कर 70 लाख रुपए उस में से चुरा लिए. वे चारों भी चोरी के रकम के साथ पकड़े जा चुके हैं.

इस तरह से इस घटना में कुल 16 आरोपी पकड़े जा चुके हैं. जांच के दौरान पुलिस ने मोना के घर से उस की बिना नंबर वाली स्कूटी बरामद की थी. उस की डिक्की में बड़ी मात्रा में सीरिंज बरामद हुईं. पुलिस इस से अनुमान लगा रही है कि मोना ड्रग भी लेती होगी या किसी को देती होगी. इसे भी पुलिस ने अपनी जांच में शामिल कर लिया है.

खैर, घटना का खुलासा करने के बाद पुलिस ने सभी आरोपियों को कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

तुझे राम कहें या राक्षस – भाग 3

मुंबई में शायद वह कामयाब हो भी जाता, लेकिन जिन दिनों वह रवींद्र भवन में काम करता था, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात इसी इलाके के 2 बदमाशों उजेब और अजीज उल्ला से हुई थी. ये दोनों नशा करने और कराने के लिए रवींद्र भवन के पास ही मंडराते रहते थे. इन दोनों की संगत में पड़ कर राम नशा करने लगा था. लेकिन इस के एवज में उसे अपना शोषण कराना पड़ता था.

अजीज और उजेब ने उस का पीछा मुंबई तक किया तो वह परेशान हो उठा. उस में इन बदमाशों से टकराने की हिम्मत नहीं थी. मुंबई से पहले वह भोपाल आया और फिर भोपाल से विदिशा आ गया. लेकिन इन दोनों बदमाशों से उसे छुटकारा नहीं मिला. ये दोनों विदिशा जा कर उस का शोषण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. राम नायडू जब बहुत परेशान हो गया तो उस ने अपने भोपाल वाले मामा के साथ मिल कर विदिशा में अजीज उल्ला की हत्या कर दी.

यह सन 2003 की बात है. उस का यह जुर्म छुपा नहीं रह सका. पुलिस ने राम नायडू और उस के मामा को गिरफ्तार कर के जेल भेज दिया. सन 2006 में हत्या का आरोप साबित होने पर अदालत ने उसे और उस के मामा को आजीवन उम्रकैद की सजा सुनाई.

सन 2011 तक राम नायडू जेल में रहा. इसी बीच ग्वालियर हाईकोर्ट में दायर राम नायडू और उस के मामा की जमानत याचिका मंजूर हो गई. मामाभांजा दोनों जमानत पर जेल से बाहर आ गए. राम नायडू बाहर तो आ गया, पर उस के सामने हजार तरह की दुश्वारियां मुंह बाए खड़ी थीं. उस के ऊपर कातिल का ठप्पा लगा था. ऐसे में उसे नौकरी मिलना मुश्किल था. जबकि कोई कामधंधा वह जानता नहीं था, जिस से अपना गुजरबसर कर लेता.

जब आदमी को कोई राह नहीं मिलती तो वह अपने लिए टेढ़ी राह चुन लेता है. यही राम नायडू के साथ हुआ. कामधंधा न होने के बावजूद वह हैरतअंगेज तरीके से अमीर होता गया. उस का रहनसहन ठाठबाट देख कर उसे जानने वाले चकित थे कि जेल से छूटे मुजरिम के पास इतना पैसा कहां से आ रहा है.

पूछने पर वह लोगों को बताता था कि वह प्रौपर्टी डीङ्क्षलग का धंधा कर रहा है, जिस से दलाली में अच्छाखासा पैसा मिल जाता है. इसी दौरान भोपाल के कोलार इलाके में उस ने नगद पैसे दे कर एक महंगा फ्लैट खरीद लिया. उन दिनों राम नायडू की रईसी और अय्याशी शबाब पर थी.

हकीकत यह थी कि जेल से जमानत पर छूटने के बाद उस ने नया धंधा चुन लिया था. यह धंधा था उम्रदराज लड़कियों से शादी कर के उन से पैसे झटकने का. मध्य प्रदेश की जिन जगहों में उस ने ठगी की, उन में सागर, ग्वालियर, बीना, ङ्क्षछदवाड़ा, खंडवा, खरगोन और सीहोर सहित दर्जन भर शहरों की लड़कियां शामिल थीं. राम के निशाने पर वे लड़कियां रहती थीं, जो 40 की उम्र के लगभग थीं और उन के घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं होता था.

धंधा चल निकला तो वह बीवियों के पैसे से अय्याशी करने लगा. जिस को वह ठगता था, वे रिपोर्ट दर्ज नहीं कराती थीं, क्योंकि इस से सिवाय बदनामी के कुछ हासिल नहीं हो सकता था. इस प्लेबौय की कितनी पत्नियां हैं, इस की गिनती कथा लिखे जाने तक जारी थी. लेकिन हैरानी की बात यह है कि तमाम शहरों की लड़कियां यह तो स्वीकार रही हैं कि इस रंगीनमिजाज नटवरलाल ने उन्हें ठगा, पर रिपोर्ट अभी भी दर्ज नहीं करा रहीं.

सिर्फ एक पीडि़ता विजया उस के खिलाफ खुल कर सामने आई, जो जबलपुर मैडिकल कालेज में नर्स है. हैरानी की बात यह है कि उस ने विजया से शादी मृणालिनी को चूना लगाने के बाद बीते 12 नवंबर को भोपाल के आर्यसमाज मंदिर में की थी. शादी के 2-4 दिनों बाद उस ने विजया को समझाबुझा कर या कहें बेवकूफ बना कर इस बात पर राजी कर लिया था कि वह जबलपुर जा कर नौकरी करे. फिर कहीं सेटल होने के बारे में सोचेंगे.

मृणालिनी से ठगे पैसों से उस ने भोपाल के ही नेहरूनगर इलाके में एक और फ्लैट खरीदा था और साथ ही एक पुरानी कार भी खरीद ली थी. इस के बाद भी उस के पास पैसे बच गए थे, जिन से रंगीनमिजाज ठग राम नायडू सीधा बैंकाक जा पहुंचा, जहां वह एक होटल में ठहरा. इस के लिए उस ने जेल से छूटते ही मामा के घर के पते पर पासपोर्ट बनवा लिया था. बैंकाक में उस ने एक कालगर्ल बुक कर रखी थी. यानी शादी की मृणालिनी और विजया सरीखी दर्जनों लड़कियों से और हनीमून मनाने गया विदेश कालगर्ल के साथ.

पूरी तरह फंसने और पुराने पाप उजागर होने के बाद भी राम नायडू ने पूरी बेशर्मी से स्वीकारा कि वह अखबार में वैवाहिक विज्ञापन देख कर शादी का प्रस्ताव भेजता था, शिकार फांसता था, शादी करता था और पत्नियों से शारीरिक संबंध भी बनाता था. भले ही वे इस से मुकरती रहें.

उस ने एक अजीब बात और भी मानी कि उस ने भले ही कई शादियां कीं, पर विजया आज भी उस का सच्चा प्यार है. उस से उस की मुलाकात जबलपुर में उस वक्त हुई थी, जब उस का एक दोस्त वहां इलाज के लिए भर्ती था.

कई पत्नियों वाले इस राम का लंबा नपना तय है, क्योंकि उस के खिलाफ पुलिस तमाम पुख्ता सबूत हासिल कर चुकी है. दाद देनी होगी मृणालिनी की हिम्मत की, जिस ने लोकलाज की परवाह न कर के पहल की. नहीं तो यह अय्याश ठग न जाने और कितनी लड़कियों की जिंदगी से खिलवाड़ कर के उन के पैसे लूटता रहता.

देश भर में उम्रदराज लड़कियां तख्तियां हाथ में लटका कर नारे लगा रही हैं कि अकेले हैं पर कमजोर नहीं. उन्हें एक दफा राम नायडू की अय्याशी से सबक लेना चाहिए, वजह उस ने जाने कितनी अधेड़ अविवाहित महिलाओं की इज्जत और जज्बातों से खिलवाड़ कर के उन का पैसा लूटा है. इस मामले से यह भी साबित होता है कि अकेली रह रही उम्रदराज लडक़ी भावनात्मक रूप से कमजोर होती ही है, जिस का फायदा राम नायडू जैसे ठग आसानी से उठा लेते हैं.

—कथा में लड़कियों के नाम बदले हुए हैं.

गुनाह : भूल का एहसास – भाग 3

‘‘तुम पहले ही मुझे इतना छल चुके हो कि अब और गुंजाइश बाकी नहीं है. सच तो यह है कि तुम्हारे लिए मेरी अहमियत उस फूल से अधिक कभी नहीं रही, जिसे जब चाहा मसल दिया. तुम ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि बिस्तर से परे भी मेरा कोई वजूद है. मैं भी तुम्हारी तरह इंसान हूं. मेरा शरीर भी हाड़मांस से बना हुआ है, जिस के भीतर दिल धड़कता है और जो तुम्हारी तरह ही सुखदुख का अनुभव करता है.’’

‘‘इस बीच रीना ने मेरी बहुत सहायता की. जीने की प्रेरणा दी. कदमकदम पर हौसला बढ़ाया. वह भावनात्मक संबल न देती तो मैं टूट गई होती. अपना अस्तित्व बचाने के लिए मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी. उस ने भरपूर साथ दिया. तुम ने कभी नहीं चाहा मैं नौकरी करूं. इस के लिए तुम ने हर संभव कोशिश भी की. अपने बराबर मुझे खड़ी होते देख तुम विचलित होने लगे थे. दरअसल, मेरे आंसुओं से तुम्हारा अहं तुष्ट होता था, शायद इसीलिए तुम्हारी कुंठा छटपटाने लगीथी.’’

‘‘मुझे अपने सारे जुर्म स्वीकार हैं. जो चाहे सजा दो मुझे, पर प्लीज अपने घर लौट चलो,’’ मैं असहाय भाव से गिड़गिड़ाता हुआ बोला.

‘‘कौन सा घर?’’ वह आपे से बाहर हो गई, ‘‘ईंट पत्थर की बेजान दीवारों से बना वह ढांचा, जहां तुम्हारे तुगलकी फरमान चलते हैं? तुम्हें जो अच्छा लगता वही होता था वहां. बैडरूम की लोकेशन से ले कर ड्राइंगरूम की सजावट तक सब में तुम्हारी ही मरजी चलती थी. मुझे किस रंग की साड़ी पहननी है, किचन में कब क्या बनना है, इस सब का निर्णय भी तुम ही लेते थे. वह सब मुझे पसंद है भी या नहीं, इस से तुम्हें कुछ लेनादेना नहीं था. मैं टीवी देखने बैठती तो रिमोट तुम झपट लेते. जो कार्यक्रम मुझे पसंद थे उन से तुम्हें चिढ़ थी.

‘‘वहां दूरदूर तक मुझे अपना अस्तित्व कहीं भी नजर नहीं आता था… हर ओर तुम ही तुम पसरे हुए थे. मेरे विचार, मेरी भावनाएं, मेरा अस्तित्व सब कुछ तिरोहित हो गया तुम्हारी विक्षिप्त कुंठाओं में. तुम्हारी हिटलरशाही की वजह से मेरा जीना हराम हो गया था. उस अंधेरी कोठरी में दम घुटता था मेरा, इसीलिए उस से दूर बहुत दूर यहां आ गई हूं ताकि सुकून के 2 पल जी सकूं, अपनी मरजी से.’’

‘‘अब तुम जो चाहोगी वही होगा वहां. तुम्हारी मरजी के बिना एक कदम भी नहीं चलूंगा मैं. तुम्हारे आने के बाद से वह घर खंडहर हो गया है. दीवारें काट खाने को दौड़ती हैं. बेटी की किलकारियां सुनने को मन तरस गया है. उस खंडहर को फिर से घर बना दो रेवा,’’ मेरा गला भर आया था.

‘‘अपनी गंदी जबान से मेरी बेटी का नाम मत लो,’’ उस की आवाज से नफरत टपकने लगी, ‘‘भौतिक सुख और रासायनिक प्रक्रिया मात्र से कोई बाप कहलाने का हकदार नहीं हो जाता. बहुत कुछ कुरबान करना पड़ता है औलाद के लिए. याद करो उन लमहों को, जब मेरे गर्भवती होने पर तुम गला फाड़फाड़ कर चीख रहे थे कि मेरे गर्भ में तुम्हारा रक्त नहीं, मेरे बौस का पल रहा है. तुम्हारे दिमाग में गंदगी का अंबार देख कर मैं स्तब्ध रह गई थी. कितनी आसानी से तुम ने यह सब कह दिया था, पर मैं भीतर तक घायल हो गईथी तुम्हारी बकवास सुन कर. जी तो चाहा था कि तुम्हारी जबान खींच लूं, पर संस्कारों ने हाथ जकड़ लिए थे मेरे.

‘‘तुम चाहते थे कि मैं गर्भपात करा लूं. अपनी बात मनवाने के लिए जुल्मों का हथकंडा भी अपनाया पर मैं अपने अंश को जन्म देने के लिए दृढ़संकल्प थी. प्रसव कक्ष में मैं मौत से संघर्ष कर रही थी और तुम श्रुति के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे. एक बार भी देखने नहीं आए कि मैं किस स्थिति में हूं. तुम तो चाहते ही थे कि मैं मर जाऊं ताकि तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए. इस मुश्किल घड़ी में रीना साथ न देती तो मर ही जाती मैं.’’

आंखों में आंसू लिए मैं अपराधी की भांति सिर झुकाए उस की बात सुनता रहा.

‘‘मुझे परेशान करने के तुम ने नएनए तरीके खोज लिए थे. तुम मेरी तुलना अकसर श्रुति से करते थे. तुम्हारी निगाह में मेरा चेहरा, लिपस्टिक लगाने का तरीका, हेयरस्टाइल, पहनावा और फिगर सब कुछ उस के आगे बेहूदा था. मेरी हर बात में नुक्स निकालना तुम्हारी आदत में शामिल हो गया था. मूर्ख, पागल, बेअक्ल… तुम्हारे मुंह से निकले ऐसे ही जाने कितने शब्द तीर बन कर मेरे दिल के पार हो जाते थे. मैं छटपटा कर रह जाती थी. भीतर ही भीतर सुलगती रहती थी तुम्हारे शब्दालंकारों की अग्नि में. इतनी ही बुरी लगती हूं तो शादी क्यों की थी मुझ से? मेरे इस प्रश्न पर तुम तिलमिला कर रह जाते थे.

‘‘उकता गई थी मैं उस जीवन से. ऐसा लगता था जैसे किसी ने अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया हो. मेरी रगरग में विषैले बिच्छुओं के डंक चुभने लगे थे. जहर घुल गया था मेरे लहू में. सांस घुटने लगी थी मेरी. उस दमघोंटू माहौल में मैं अपनी बेटी का जीवन बरबाद नहीं कर सकती. उपेक्षा के जो दंश मैं ने झेले हैं, उस की छाया उस पर हरगिज नहीं पड़ने दूंगी. बेहतर है, तुम खुद ही चले जाओ वरना तुम जैसे बेगैरत इंसान को धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखाना भी मुझे अच्छी तरह आता है.

एक बात और समझ लो,’’ मेरी ओर उंगली तान कर वह शेरनी की तरह गुर्राई, ‘‘भविष्य में भूल कर भी इधर का रुख किया तो बाकी बची जिंदगी जेल में सड़ जाएगी,’’ मेरी ओर देखे बिना उस ने अंदर जा कर इस तरह दरवाजा बंद किया जैसे मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो.

मैं किंकर्तव्यविमूढ सा खड़ा रहा. इंसान के गुनाह साए की तरह उस का पीछा करते हैं. लाख कोशिशों के बाद भी वह परिणाम भुगते बगैर उन से मुक्त नहीं हो सकता. कल मैं ने जिस का मोल नहीं समझा, आज मैं उस के लिए मूल्यहीन था. यह दुनिया कुएं की तरह है. जैसी आवाज दोगे वैसी ही प्रतिध्वनि सुनाई देगी. जो जैसे बीज बोता है वैसी ही फसल काटता है. तनहाई की स्याह सुरंगों की कल्पना कर मेरी आंखों में मुर्दनी छाने लगी. आवारा बादल सा मैं खुद को घसीटता अनजानी राह पर चल दिया. टूटतेभटकते जैसे भी हो, अब सारा जीवन मुझे अपने गुनाहों का प्रायश्चित्त करना था.

ठगी का बड़ा खिलाड़ी – भाग 3

जानीमानी पार्टियों के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं से ले कर वरिष्ठ अधिकारियों से उस के सीधे और मजबूत संबंध थे. उस का रसूख और राजशाही ठाठ देख कर बड़ेबड़े लोग प्रभाव में आ जाते थे.

अजय शर्मा उर्फ सरजू को जानने वाले बताते हैं कि वह नौवीं फेल था. उस के पिता का कभी छोटा सा क्लिनिक हुआ करता था. वह सिरसा में गोदाम रोड पर रहते थे. उस की प्रारंभिक शिक्षा यहीं हुई थी. वह बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी था. पढ़ाई में मन नहीं लगा, इस के बावजूद वह ऊंचे सपने देखने लगा.

कुछ लोग अपने सपनों को पढ़ाई और काबलियत के बलबूते पूरा करते हैं, परंतु कुछ लोग शौर्टकट के जरिए. फर्क इतना होताहै कि जो सपने काबलियत से पूरे होते हैं, वे स्थाई होते हैं, जबकि जिन्हें शौर्टकट के जरिए पूरा किया जाता है, उन की कोई बुनियाद नहीं होती, वे वक्ती होते हैं. यह फर्क कलांतर में आईने की तरह एकदम साफ दिखता है. इस बड़ी हकीकत से अंजान अजय का थकी सी जिंदगी में मन नहीं लगता था.

पढ़ा हुआ वह भले ही कम था, लेकिन दिमाग का तेज था. उस का व्यक्तित्व भी आकर्षक था. उस के आर्थिक हालात कतई अच्छे नहीं थे. उसे लगता था कि हवाई चप्पलों में टहलते हुए उस की उम्र यूं ही कट जाएगी. सन 1997 में ही यह बात उस की समझ में आ गई थी कि आज के जमाने में राजनीतिक ताकत से बड़ी कोई ताकत नहीं है. उस ने राजनीति से जुड़े लोगों से रिश्ते बनाने शुरू कर दिए, साथ ही गुजारे के लिए प्रौपर्टी का छोटामोटा काम करने लगा.

बातों से किसी को भी प्रभावित करने की कला उस में थी ही, उस की पैठ बढ़ी तो उस ने दिल्ली का रुख किया. इस के बाद उस ने कई सालों तक सिरसा की ओर पलट कर नहीं देखा. राजनीतिज्ञों की शागिर्दी के साथ उस ने लोगों के छोटेमोटे काम कराने शुरू किए तो उस के बदले वह पैसे लेने लगा. इसी के साथ प्रौपर्टी के काम में भी वह हाथ आजमाता रहा. कई शराब कारोबारियों से भी उस के रिश्ते बन गए थे.

विवादित प्रौपर्टी पर उस की खास नजर होती थी, क्योंकि वहां नेताओं और नौकरशाहों की पौवर का इस्तेमाल कर के वह अपने रिश्तों को भुना लेता था. हैसियत बढ़ी तो पंजाबी बाग जैसे पौश इलाके में किराए पर रहना शुरू कर दिया. इन्हीं कामों से उस ने इतनी दौलत कमाई कि 10 सालों में वह काफी दौलतमंद हो गया. इस बीच फिल्मों से प्रभावित हो कर उस ने अपना नाम अजय पंडित रख लिया.

अजय का काम करने का तरीका एकदम अलग था. उस ने तमाम चेलेचपाटे बना लिए थे, जो पहले शिकार को टारगेट करते थे. इस के बाद उसे शान दिखा कर संपर्क बढ़ा कर उसे राजनीतिक घरानों से ले कर बड़े नौकरशाहों से मिलवा कर अपना विश्वास जमाते. और जब विश्वास जम जाता था तो उसे कोई ख्वाब दिखा कर चाल चलना शुरू कर देते थे.

इस मामले में अजय करिश्माई व्यक्तित्व का स्वामी था. लोग न सिर्फ उस पर भरोसा कर लेते थे, बल्कि उसे काम के बदले मोटी रकम भी दे देते थे. जिन के काम नहीं होते थे, उन के रुपए फंस जाते थे. अजय रसूख की बदौलत तरहतरह के हथकंडे अपना कर ऐसे लोगों को किनारे कर देता था. किसी को राजनीतिक पार्टी का टिकट दिलाने, किसी को नौकरी, किसी को पैट्रोल पंप व गैस एजेंसी का लाइसैंस दिलाने तो किसी को बड़े काम के ठेके दिलाने का झांसा दे कर वह ठगी करता था. ऐसा भी नहीं था कि वह लोगों के काम बिलकुल नहीं कराता था. लेकिन जिन का काम नहीं होता था, उन के पैसे फंस जाना तय था.

दौलत और ताकत में इजाफा हुआ तो अजय ने छतरपुर में एक फार्महाउस किराए पर ले लिया. उस ने सिरसा के सैक्टर-20 में एक आलीशान कोठी बनवाई. कई लग्जरी गाडिय़ां खरीद लीं. राजनीतिक लोगों और नौकरशाहों पर भी उस का दबदबा रहता था. सरकारी सुरक्षा के अलावा प्राइवेट सिक्योरिटी में पहलवान जैसे लडक़ों को वह साथ रखता था.

अजय खुद को राजशाही घराने का बताता था. उस ने तमाम नामीगिरामी लोगों से संपर्क बना लिए थे. उस के रहनसहन, राजसी ठाटबाट, सुरक्षा तामझाम, लग्जरी गाडिय़ों और बड़े संपर्कों को देख कर कोई भी प्रभाव में आ जाता था. वह लोगों से बड़ेबड़े कामों को कराने के बदले मोटी रकम लेता था. राजनीतिक संबंधों को भुनाने का हुनर उसे खूब आता था.

उस ने सोनिया गांधी एसोसिएशन बना ली, जिस का वह खुद ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गया. इसी के साथ उस ने ब्राह्मणसभा भी बनाई और उस का भी खुद ही अध्यक्ष बन गया. वह सफेदपोश बन कर ऐशोआराम की जिंदगी जीता था. अजय के जिंदगी जीने का अंदाज एकदम अलग था. वह रौबरुतबे से रहता था. उस का हुक्म बजाने के लिए नौकरों और सुरक्षाकॢमयों की फौज तैयार रहती थी.

राष्ट्रीय पहुंच के नेताओं से संबंध बनाए रखने की कला का वह बाजीगर था. लखपति लोगों के काम कराना वह अपनी तौहीन समझता था, इसलिए करोड़पति और अरबपति लोगों को ही अपना निशाना बनाता था. किसी का काम कराने के बदले वह करोड़ो रुपए एडवांस में ले लेता था. शातिर दिमाग अजय ने दिखावटी शान से ही बड़ोंबड़ों को झांसे में लिया था.

दौलत और रसूख हासिल करने के बाद अजय ने सन 2012 से सिरसा आना शुरू किया तो वह जब भी वहां आता, उसे देख कर लोगों की आंखें फटी रह जातीं. कारों और वीआईपी सिक्योरिटी ही नहीं, अजय हैलीकौप्टर से भी आता था. लोगों में जिज्ञासा बढ़ाने के लिए वह शहर के ऊपर हैलीकौप्टर का चक्कर लगवा कर एयरफोर्स स्टेशन पर उतरता था. तब लोगों को पता चल जाता था कि उन का अजय उर्फ सरजू आया है.

वह दान भी दोनों हाथों से करता था. यह दान वह धार्मिक आयोजनों, पूजास्थलों से ले कर गरीबों तक में करता था. उस ने दान भी इतना किया था कि उस की पहचान बड़े दानवीरों में होने लगी थी. उस के रसूख और दान देने की दिलदारी को देख कर लोग उसे कार्यक्रमों मे बुलाने लगे थे.

विशेष अवसरों पर जब उस के आने पर गरीबों की लाइन लगती थी तो उस के कारिंदे हजार व 5 सौ के नोटों की गड्डयां खोल कर उसे देते और वह बिना गिने बांटता चला जाता था. गरीबों के प्रति उस की यह दरियादिली जितनी सुर्खयों में आती, वह उतना ही खुश होता और गर्व महसूस करता. उस ने किसी गरीब को कभी हजार या 5 सौ से कम का नोट नहीं दिया, क्योंकि उस से कम देना वह अपनी तौहीन समझता था. उसे ऐसा करते देख बड़ेबड़े रईस भी हैरान रह जाते थे.