अपहरण : कैसे पहुंचा एक पिता अपनी बेटी के अपहर्ता तक? – भाग 1

जनार्दन जिस समय अपनी कोठी पर पहुंचे, शाम के 6 बज रहे थे. उन्होंने बिना आवाज दिए बड़ी सहजता से दरवाजा बंद किया. ऐसा उन्होंने इसलिए किया था, ताकि लीना जाग न जाए. डाक्टर ने कहा था कि उसे पूरी तरह आराम की जरूरत है. आराम मिलने पर जल्दी स्वस्थ हो जाएगी. लेकिन अंदर पहुंच कर उन्होंने देखा कि लीना जाग रही थी. वह अंदर वाले कमरे में खिड़की के पास ईजी चेयर पर बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी.

‘‘आज थोड़ी देर हो गई.’’ कह कर जनार्दन ने पत्नी के कंधे पर हाथ रख कर प्यार से पूछा, ‘‘अब तबीयत कैसी है?’’

लीना कोई जवाब देती, इस से पहले ही फोन की घंटी बजने लगी. जनार्दन ने रिसीवर उठा कर कहा, ‘‘जी, जनार्दन पांडेय…’’

दूसरी ओर से घुटी हुई गंभीर अस्पष्ट आवाज आई, ‘‘पांडेय… स्टेट बैंक के मैनेजर…?’’

‘‘जी आप कौन?’’ जनार्दन पांडे ने पूछा.

‘‘यह जानने की जरूरत नहीं है मि. पांडेय. मैं जो कह रहा हूं, ध्यान से सुनो, बीच में बोलने की जरूरत नहीं है.’’ फोन करने वाले ने उसी तरह घुटी आवाज में धमकाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी मेरे कब्जे में है. इसलिए मैं जैसा कहूंगा, तुम्हें वैसा ही करना होगा. थोड़ी देर बाद मैं फिर फोन करूंगा, तब बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है.’’

दूसरी ओर से फोन कट गया. जनार्दन थोड़ी देर तक रिसीवर लिए फोन को एकटक ताकते रहे. एकाएक उन की मुखाकृति निस्तेज हो गई. पीछे से लीना ने पूछा, ‘‘किस का फोन था?’’

जनार्दन ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘कोई खास बात नहीं थी.’’

जनार्दन पत्नी से सच्चाई नहीं बता सकते थे. क्योंकि उस की तबीयत वैसे ही ठीक नहीं थी. यह सदमा सीधे दिमाग पर असर करता. इस से मामला और बिगड़ जाता. जनार्दन रिसीवर रख कर पूरे घर में घूम आए, सैवी कहीं दिखाई नहीं दी. उन्होंने पत्नी से पूछा, ‘‘सैवी घर में नहीं है, लगता है पार्क में खेलने गई है?’’

‘‘हां, आप के आने से थोड़ी देर पहले ही निकली है,’’ लीना खड़ी होती हुई बोली, ‘‘मैं ने तो चाय पी ली है, आप के लिए बनाऊं?’’

जनार्दन ने चाय के लिए मना कर दिया. घड़ी पर नजर डाली, सवा 6 बज रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘अभी नहीं, थोड़ी देर बाद चाय पिऊंगा. अभी एक आदमी से मिल कर उस के एक चैक के बारे में पता करना है.’’

दरवाजा खोलते हुए उन के दिमाग में एक बात आई तो उन्होंने पलट कर लीना से पूछा, ‘‘इस के पहले तो मेरे लिए कोई फोन नहीं आया था?’’

‘‘नहीं, फोन तो नहीं आया.’’ लीना ने कहा.

जनार्दन ने राहत की सांस ली. लेकिन इसी के साथ ध्यान आया कि अगर सैवी के अपहरण का फोन पहले आया होता, तो घर में हड़कंप मचा होता. वह सोचने लगे कि इस मामले से कैसे निपटा जाए. उन्हें लगा कि कहीं बैठ कर शांति से विचार करना चाहिए.

वह घर से बाहर निकले और सोसाइटी के बाहर बने सार्वजनिक पार्क में फव्वारे के पास बैठ कर सोचने लगे. उन्हें लगा कि सैवी के अपहरण की योजना बहुत सोचसमझ कर बनाई गई थी. उस ने फोन भी मोबाइल के बजाए लैंडलाइन पर किया. क्योंकि मोबाइल पर नंबर आ जाता और वह पकड़ा जाता.

शायद उसे हमारे घर का नंबर ही नहीं, यह भी पता है कि हमारे फोन में कौलर आईडी नहीं है. अपहर्त्ता न जाने कब से सैवी के अपहरण की योजना बना रहे थे. योजना बना कर ही उन्होंने आज का दिन चुना होगा. आज बैंक की तिजोरी में पूरे 80 लाख की रकम रखी है.

लगता है, अपहर्त्ताओं को कहीं से इस की जानकारी मिल गई होगी. यह भी संभव है कि आज इतने रुपए आना और सैवी का अपहरण होना, महज एक संयोग हो. अगर यह संयोग नहीं है, तो इस अपहरण में बैंक का कोई कर्मचारी भी शामिल हो सकता है?

यह बात दिमाग में आते ही जनार्दन का मूड खराब हो गया. वह सोचने लगे कि बैंक का कौन सा कर्मचारी ऐसा कर सकता है. तभी उन्हें लगा कि मूड खराब करना ठीक नहीं है. मूड ठीक रख कर शांति से सोचना विचारना चाहिए. अपहर्त्ताओं के चंगुल में फंसी बेटी और लीना की बीमारी को भूल कर गंभीरता से विचार करना चाहिए. वह बैंक के एकएक कर्मचारी के बारे में सोचने लगे कि उन में कौन अपहर्त्ता हो सकता है या कौन मदद कर सकता है. उन्हें लगा कि मोटे कांच का चश्मा लगाने वाला चीफ कैशियर उन की मदद कर सकता है.

जनार्दन पांडेय अपने कर्मचारियों में बिलकुल प्रिय नहीं थे. पीछेपीछे उन्हें सभी ‘जनार्दन….’ कहते थे. इस की वजह यह थी कि वह छोटीछोटी बातों पर सभी से सतर्क रहने को कहते थे और जरा भी गफलत बरदाश्त नहीं करते थे.

वह झटके से उठे, क्योंकि उन के पास समय कम था. घटना कैसे घटी, इस के बारे में जानकारी जुटाना जरूरी थी. फिर दूसरे फोन का भी इंतजार करना था. अगर फोन आ गया और उन की गैरमौजूदगी में लीना ने फोन उठा लिया, तो…तभी उन्हें लगा कि एक बार वह पार्क में घूम कर सैवी को देख लें.

उन्होंने पार्क में खेल रहे बच्चों पर नजर डाली, सैवी दिखाई नहीं दी. फोन पर घुटी हुई अस्पष्ट आवाज सुनाई दी थी. ऐसा लग रहा था, जैसे आवाज को दबा कर बदलने की कोशिश की जा रही हो. शायद रिसीवर पर कपड़ा रख कर अस्पष्ट बनाने की कोशिश की गई थी. लेकिन उस का कहने का ढंग जाना पहचाना लग रहा था.

उस समय जनार्दन याद नहीं कर पाए कि वह आवाज किस की हो सकती थी. जनार्दन के घर में कदम रखते ही फोन की घंटी बज उठी. यह संयोग था या उन पर कोई नजर रख रहा था कुछ भी हो सकता था. फोन कहीं आसपास से ही किया जा रहा था और फोन करने वाले को अपनी आवाज पहचाने जाने का डर था, इसीलिए वह अपनी आवाज को छिपा रहा था. जनार्दन ने लपक कर फोन उठा लिया.

उन के कुछ कहने के पहले ही दूसरी ओर से पहले की ही तरह कहा गया, ‘‘बेटी को सब जगह देख लिया न? अब मेरी बात पर विश्वास हो गया होगा. खैर, मेरे अगले फोन का इंतजार करो.’’

फोन की घंटी सुन कर लीना भी कमरे में आ गई थी. जनार्दन के फोन रखते ही उस ने पूछा, ‘‘किस का फोन था? आप का काम हो गया?’’

पहले सवाल के जवाब को गोल करते हुए जनार्दन ने कहा, ‘‘वह आदमी घर में नहीं था. अभी फिर जाना होगा.’’

कह कर जनार्दन ने बाहर जाने का बहाना बना दिया.

‘‘मैं चाय बनाए देती हूं. चाय पी कर जाना.’’ लीना ने कहा. लीना बीमार थी, लेकिन घर के काम करती रहती थी.

जनार्दन ने बाथरूम में जा कर ठंडे पानी से मुंह धोया. मन में उथलपुथल मची थी. फोन पड़ोस के मकान से हो सकता है या फिर ऐसी जगह से, जहां से उन के घर पर ठीक से नजर रखी जा सकती थी. उन्हें पूरी संभावना थी कि ये फोन उन्हीं की सोसाइटी के किसी मकान से आ रहे थे.

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तूफान और दिया – भाग 3

2 दिनों बाद ही उस के यहां विधायक फिर आ पहुंचा. उस के हाथ में एक झोला था. आते ही उस ने मीता से कहा, ‘‘लड़की, मेरे लिए गिलास और प्लेट ले कर आओ. आज पार्टी तुम्हारे यहां और तुम्हारे साथ होगी.’’

मीता बिना कुछ कहे गिलास और प्लेट ले आई. विधायक ने झोले से शराब की बोतल और भुने मेवे निकाल कर प्लेट में रख दिए. उस के बाद बोला, ‘‘चलो, पैग बनाओ.’’

मीता ने बेमन से बोतल खोल कर थोड़ी शराब गिलास में डाल दी. इस के बाद उस ने कहा, ‘‘ठंडा पानी तो मटके का ही दे सकती हूं.’’

इतना कह कर वह उठी और बैग से नींद की 2 गोलियां निकाल कर गिलास में डाल दी. 2 घूंट पीते ही विधायक तरंग में आ गया. बड़ीबड़ी शेखियां बघारने लगा. मौका देख कर मीता ने नींद की एक गोली और गिलास में डाल दी. धीरेधीरे नशा चढ़ने लगा. उस ने मीता के साथ कुचेष्टाएं शुरू कर दीं. वह मीता के शरीर को सहलाने लगा. मीता को लग रहा था कि उस के शरीर पर छिपकलियां रेंग रही हैं. उस ने अपना गुस्सा मुश्किल से काबू किया. पहला पैग खत्म होते ही विधायक नींद के आगोश में चला गया.

सवेरे 4 बजे ही चादर लपेट कर चोरों की तरह वह वहां से निकल गया. मीता ने चैन की सांस ली. कुछ दिन तो इसी तरह निकल गए. बीचबीच में हीराचंद 2-3 दिनों के लिए बाहर चला जाता, पर  जब यहां होता तो मीता को उस की नापाक हरकतों से जूझना पड़ता. आखिर एक दिन उस ने उस के साथ मनमानी कर ही डाली.

सुबह बच्चे उम्मीद से अपने बस्ते ले कर स्कूल आते, पर मीता उन के साथ न्याय नहीं कर पाती, क्योंकि वह उन्हें मन से नहीं पढ़ा पा रही थी. इसी बीच एक दिन शाम को विधायक की पत्नी सरला अचानक अपनी एक सेविका के साथ उस के घर आ पहुंची.

उस ने कहा, ‘‘मीता, तुम ने तो बंगले पर आना ही बंद कर दिया. तुम्हारे हाथ की बनी पंजीरी बहुत ही स्वादिष्ट थी. मैं तो ऐसी पंजीरी कभी न बना पाई. गुरु महाराज की खीर भी बहुत अच्छी बनी थी. पता है, गुरु महाराज इस बार बहुत प्रसन्न हो कर गए हैं. लो, मेरी ओर से एक छोटा सा उपहार कबूल करो.’’

कह कर सरला ने एक पैकेट मीता के हाथों में थमा दिया. इस के बाद जातेजाते उन्होंने कहा, ‘‘हां, मेरा बेटा विदेश से कुछ दिनों के लिए आने वाला है. मैं एक बार फिर गुरुजी को आमंत्रित करूंगी.’’

गुरुजी का नाम सुन कर मीता का मन कड़वाहट से भर उठा. उस ने सरला से जलपान के लिए कहा, पर वह रुकी नहीं, चली गईं.

मीता ने एक योजना बना ली थी, इसलिए वह विधायक के आने का इंतजार कर रही थी. 2 दिनों बाद विधायक आ पहुंचा. रात के एक बजे दरवाजे पर दस्तक हुई. वह दरवाजा खोल कर कुरसी पर अधलेटी हो गई. विधायक उसे देख कर मुसकराया. थोड़ी देर तक मीता चुप बैठी रही. विधायक ने कहा, ‘‘क्या बात है, कुछ नाराज हो?’’

‘‘विधायकजी, आप की जलील हरकतें और गंदे कारनामे अब रंग ला रहे हैं. आप को पता होना चाहिए कि पिछले 4 दिनों से मेरी तबीयत खराब चल रही है. उल्टियां हो रही हैं और चक्कर आ रहे हैं. मैं उठ भी नहीं पा रही हूं. प्रेगनैंसी कन्फर्म करने की किट से मैं 2-3 बार जांच चुकी हूं. मेरे पेट में आप का अंश आ चुका है.’’

इतना कहते कहते मीता तेजी से वाशरूम में भागी और उल्टियां करने का नाटक करने लगी. फिर वापस आ कर बोली, ‘‘अब बताओ, आगे क्या करना है? इस बच्चे को आप अपना नाम देंगे?’’

विधायक गुस्से में भड़क उठा, ‘‘क्या बकवास कर रही हो?’’ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘तू जानती है, इस इलाके के विधायक पर लांछन लगा रही है?’’

मीता भी घबराई नहीं. चोट खाई नागिन की तरह वह फुंकार उठी, ‘‘आप जो भी हो, मुझे कुछ लेनादेना नहीं. मुझे मेरे सवाल का जवाब चाहिए, वरना मैं अभी बाहर जा कर इलाके के लोगों को इकट्ठा करूंगी और तुम्हारी काली करतूतों के बारे में बताऊंगी.’’

विधायक ने मीता को मारने के लिए हाथ उठाया तो मीता ने लपक कर मजबूती से उस का हाथ पकड़ लिया. विधायक का शरीर ज्यादा शराब पीने से खोखला हो चुका था. वह कांपने लगा.

मीता ने फुरती से पलंग के गद्दे के नीचे से घास काटने वाला हंसिया निकाल लिया. मीता के तेवर देख कर विधायक के होश उड़ गए. उस ने कहा, ‘‘तू चाहती क्या है, यह तो बता?’’

उस ने कहा, ‘‘2-4 दिनों में मेरा यहां से तबादला करवा दीजिए अथवा मेरे पेट में जो आप का अंश आ गया है, उसे अपना नाम दीजिए. अगर तबादला हो जाता है तो मैं अपने शहर में जा कर चुपके से गर्भपात करवा लूंगी. किसी को कानोंकान खबर नहीं होने दूंगी. कहिए, क्या कहते हैं?’’

बौखलाया विधायक बोला, ‘‘अभी मेरा बेटा आया हुआ है. मैं कोई तमाशा नहीं करना चाहता.’’

मीता ने भी नहले पर दहला मारा, ‘‘इतने जिम्मेदार व्यक्ति होते हुए आप को अपनी हरकतों पर काबू करना चाहिए था. आग से खेलेंगे तो हाथ जलेंगे ही.’’

विधायक घबरा कर बोला, ‘‘मुझे 2-4 दिन का समय दो.’’

मीता ने कहा, ‘‘अगर अपना पद और उस की गरिमा बचाए रखना चाहते हैं, तो मेरी जगह पर किसी पुरुष अध्यापक की नियुक्ति कराइए, वरना यह कहानी दोबारा भी दोहराई जा सकती है.’’

विधायक बिना कुछ कहे पैर पटकता हुआ चला गया. मीता जानती थी कि वह अभी सुरक्षित नहीं है. विधायक अपने पाले गुंडों से उस के साथ कुछ भी करवा सकता है, इसलिए उस ने अपने छात्रों के 2 अभिभावकों से बात की. दोनों ही महिलाएं मीता की विश्वसनीय थीं. मीता ने उन्हें पूरी बात बताई तो वे दोनों उस का साथ देने को तैयार हो गईं. उस रात वे दोनों मीता के साथ ही सोईं. इस के बाद 3-4 दिनों तक मीता उन महिलाओं के यहां बारीबारी से सोई.

एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रही थी, विधायक गुस्से से भरा वहां पहुंचा. मीता को बुला कर मेज पर उस के तबादले का और्डर पटकते हुए बोला, ‘‘लो और जल्दी जा कर गर्भपात करवा लो.’’

मीता सिर झुकाए खड़ी रही. विधायक बाहर निकल गया. मीता ने लपक कर पत्र उठा लिया. वापस आ कर बच्चों को पढ़ाने लगी, पर अब उस का मन पढ़ाने से उचट गया था. सोचने लगी कि कल तो इन्हें छोड़ कर जाना ही है. उसे रुलाई फूट पड़ी. वह मुंह पीछे कर के रोने लगी. रोतेरोते उसे पछतावा भी हो रहा था. बड़ी कठिनाई से उस ने खुद को संभाला.

वह उस का आखिरी दिन था. वह झटपट उठी और विधायक की पत्नी सरला ने उसे जो उपहार दिया था, उसे खोला. उस में 2 साडि़यां और सूखे मेवे थे.

छुट्टी होने से पहले उस ने मेवे बच्चों को बांट दिए और साडि़यां उन महिलाओं को दे दीं, जिन्हें रात में अपनी सुरक्षा के लिए बुलाती थी. उस के जो थोड़ेबहुत कपड़े थे, उन्हें बैग में डाले और सवेरे की बस पकड़ने की तैयारी कर ली. उस आखिरी रात को भी वह एक विश्वसनीय के घर सोई.

जाने से पहले मीता ने अपनी विश्वासपात्र महिलाओं को अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया था कि किस तरह उस ने गर्भवती होने का मिथ्या नाटक कर विधायक के चंगुल से खुद को छुड़ाया. उस ने आगाह किया कि यदि कोई पुरुष अध्यापक यहां आता है तो ठीक है. और यदि कोई महिला अध्यापिका आती है तो आप सब महिलाएं चोरी से उस की सुरक्षा करेंगी.

इस का उस ने उन से वादा करा लिया. संगठन में शक्ति होती है. विधायक या उस के जैसे नापाक इरादे वाले व्यक्तियों के खिलाफ सभी लोग मिल कर खड़े हो जाना, तभी उन के बच्चे आगे पढ़ाई कर पाएंगे. इतना कह कर मीता रो पड़ी. पूरा माहौल भावुक हो उठा.

सवेरा होतेहोते 2 व्यक्ति मीता को बस में बैठा आए. बस घुमावदार सड़कों पर दौड़ने लगी. वह दुखी मन से घर लौट आई. उसे इस बात का दुख हो रहा था कि जितने उत्साह के साथ वह बच्चों को पढ़ाने के लिए गई थी, विधायक की वजह से वह अपना फर्ज पूरा नहीं कर पाई.

तूफान और दिया – भाग 2

एक दिन मीता बच्चों को पढ़ा रही थी, तभी अचानक विधायक हीराचंद औचक निरीक्षण के लिए आ गया. बच्चे उसे पहचानते थे, इसलिए उन्होंने खड़े हो कर अभिवादन किया. मीता ने भी उस का अभिवादन किया. विधायक खूबसूरत मीता को देख कर हैरान रह गया. टकटकी लगाए वह उसे निहारता.

संकोच से मीता ने नजरें झुका लीं. लेकिन उसे विधायक की आंखों में अपने भविष्य की भयावह झलक नजर आ गई थी. उस समय विधायक कुछ कहे बगैर चला गया.

शाम को मीता बच्चों की कौपियां जांच रही थी कि विधायक के दरबान ने कहा कि उसे बंगले में बुलाया गया है. मीता चप्पल पहन दरबान के पीछे चल पड़ी. मन में चिंताओं के बादल उमड़ घुमड़ रहे थे. भव्य बंगले के हौल में विधायक पत्नी सहित बैठा था.

मीता नमस्कार कर के बैठ गई. विधायक की पत्नी गोरीचिट्टी थोड़ी स्थूल काया की सीधीसादी सी महिला थी. विधायक ने अपनी पत्नी सरला का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘यह प्रभुभक्ति में लीन रहती हैं, जबकि मैं देशभक्ति में.’’ इतना कह कर उस ने जोर से ठहाका लगाया. आत्मप्रशंसा कर के जब वह थक गया तो उस ने दरबान को चाय भिजवाने का आदेश दिया. मीता खड़ी हो कर बोली, ‘‘नहीं, फिर कभी.’’

पर सरला ने उस का हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा, ‘‘हमारे यहां गुरु महाराज का समागम होता रहता है. उस में तुम्हें भी आना होगा.’’

चाय पी कर मीता जाने लगी तो दीवार से सटे 2 दरबान खड़े आपस में बातें कर रहे थे. उन्होंने मीता को देखा नहीं. मीता ने उन की बातें सुन लीं. उन में से एक कह रहा था, ‘‘इस बार तो जाल में बड़ी ही सुंदर चिडि़या फंसी है.’’

उन की बात सुन कर मीता सन्न रह गई. घर पहुंच कर वह सोचने लगी कि ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए. 2 दिनों बाद रात को हलकी बारिश हुई तो मौसम खुशनुमा हो गया था. मीता खाना खा कर सो गई. देर रात खटखट की आवाज से उस की नींद टूटी. उस ने लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘कौन है?’’

बाहर से आवाज आई, ‘‘मैं हीराचंद. जल्दी दरवाजा खोलो, बहुत जरूरी काम है.’’

डरीसहमी मीता बिस्तर से उठी और दरवाजा खोल कर दीवार से लग कर खड़ी हो गई. शराब के नशे में चूर लड़खड़ाता हुआ हीराचंद अंदर आ गया. मीता हाथ जोड़ कर उस से जाने की विनती करने लगी. लेकिन हीराचंद ने उस की एक नहीं सुनी और उसे घसीटता हुआ पलंग तक ले आया. मीता ने छुड़ाने की बहुत कोशिश की, पर उस ने उस का हाथ नहीं छोड़ा. बिस्तर पर बैठा कर वह उस से बातें करने लगा. डरी सहमी उस के पास बैठी रही.

हीराचंद ने शायद बहुत शराब पी रखी थी, इसलिए बातें करतेकरते वह बिस्तर पर लुढ़क गया और गहरी नींद सो गया. मीता ने राहत की सांस ली. वह जल्दी से बाहर आई और कुंडी लगा कर दूसरे कमरे में चली गई. सारी रात वह फर्श पर दीवार के सहारे बैठी रही. सुबह तड़के उस ने चुपके से दरवाजा खोला और स्कूल में जा कर छिप गई. थोड़ी देर बाद उस ने हीराचंद को एक चादर ओढ़े वहां से जाते देखा.

अगले दिन उस ने अपने तबादले की अरजी लिख कर बीएसए औफिस में भिजवा दी. वहां से इस की खबर फोन द्वारा विधायक को दी गई तो वह दोपहर से पहले ही वहां पहुंच गया. खबर भेज कर उस ने मीता को भी वहां बुलवा लिया था. विधायक को देख कर मीता सिर झुका कर खड़ी हो गई. उस के तबादले का आवेदन विधायक ने फाड़ कर फेंक दिया.

इस के बाद उस ने गरजते हुए कहा, ‘‘कभी गलती से भी तबादले के बारे में मत सोचना. नौकरी को मजाक समझ रखा है क्या? भागने की भी कोशिश मत करना. तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरी आज्ञा के बिना यहां पत्ता तक नहीं हिलता.’’

इतना कह कर हीराचंद तीर की तरह निकल कर अपनी कार में बैठ कर फुर्र हो गया. मीता भी अपने स्कूल लौट आई. मीता अब असमंजस में थी. वह क्या करे, कहां जाए? नौकरी छोड़े या करे? उस की समझ में नहीं आ रहा था. आंसू आंखों की सीमा तोड़ कर तेजी से निकल रहे थे. बाहर बच्चे बैठे थे. उन की मैडम क्यों रो रही है, इसे बच्चे नहीं समझ सके?

छुट्टी के बाद मीता बिना खाना खाए बिस्तर पर लेट गई. खूब सोचविचार कर उस ने यह तय कर लिया कि वह विधायक के आगे घुटने नहीं टेकेगी. अगले दिन वह स्कूल से आ कर बैठी ही थी कि बंगले से दरबान ने आ कर कहा कि उसे मेमसाहब ने याद किया है.

‘‘ठीक है, अभी आती हूं.’’ कह कर मीता सोचने लगी कि वह किस चक्रव्यूह में आ फंसी. पहले विधायक और अब उन की पत्नी. पता नहीं क्या फरमान निकालने वाली है.

मीता बंगले पर पहुंची तो सरला हाल में मिली. मीता ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तो सरला ने कहा, ‘‘आओ मीता, बैठो.’’

मीता सकुचाती हुई बैठ गई. उस ने पूछा, ‘‘कहिए मैम, मुझे कैसे याद किया?’’

‘‘तुम्हें कल की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपना चाहती हूं. मुझे लगता है कि उसे तुम ही ढंग से निभा पाओगी. कल हमारे घर नित्यानंद गुरु महाराज का समागम है. उन का खाना और संगत का प्रसाद तुम्हें ही बनाना है. गुरुजी भोग में सिर्फ मेवे की खीर लेते हैं. संगत के लिए मेवे से भरी पंजीरी बनेगी. पंजीरी दोने में डाल कर रख देना. जो समागम के बाद संगत में वितरित की जाएगी.

‘‘वैसे तो यह काम मैं खुद ही करना पसंद करती हूं, परंतु अभी कुछ दिनों से मैं कमर दर्द से परेशान हूं. तुम्हारी सहायता के लिए 2 नौकर रहेंगे. हां, प्रसाद बनाते समय मैं तुम्हें शुद्ध स्वच्छ रेशम की साड़ी दूंगी, वही पहन कर प्रसाद बनाना है. कल स्कूल के बाद तुम सीधे यहीं आ जाना.’’

अपनी बात खत्म कर के उन्होंने चाय मंगवा ली थी. उन्होंने मीता को कुछ कहने का अवसर नहीं दिया था. बेमन से चाय गटक कर मीता लौट आई. वह सोच रही थी कि हमारे समाज में धार्मिक पाखंड ने बड़ी गहरी जड़ें जमा ली हैं. सरलाजी जैसी पढ़ीलिखी महिला इन दुष्ट ढोंगी साधुओं और गुरुओं के जाल में फंसी हैं. काश, इस के बजाय वह समाज की दीनदुखी महिलाओं के बारे में कुछ सोचतीं.

सरला के आदेशानुसार, मीता अगले दिन स्कूल के बाद विधायक के बंगले पर पहुंच गई. गुरु महाराज पहुंचने ही वाले थे. उन के स्वागत के लिए अपार संगत फूल बरसाने के लिए तैयार खड़ी थी. गुरुजी की जीप दिखाई देते ही गगनभेदी जयकारों से इलाका गूंजने लगा. मीता इन मूर्ख लोगों की हरकतें देख कर हैरान थी.

रसोई में एक सेवक और एक सेविका पहले से ही उपस्थित थे. वे सूखे मेवे कतर रहे थे. रसोई में एक बड़े भगौने में पिस्ता बादाम डला दूध औटाया जा रहा था. मीता सरला द्वारा दी गई साड़ी पहन कर बड़े ही मनोयोग से काम में जुट गई. 2 घंटे की अथक मेहनत के बाद पंजीरी और गुरु महाराज की मेवा की खीर तैयार हुई. मीता ने बडे़ ही करीने से पंजीरी को दोनों में रख कर बड़ेबड़े थालों में सजा दिया.

बाहर प्रवचन समाप्त होने वाला था. उस के बाद प्रसाद बंटना था. गुरुजी प्रवचन के बीच इस तरह राधेराधे की पुकार लगाते, मानो राधा कहीं गुम हो गई हो.

रसोई का काम खत्म हो चुका था. मीता अब अपने घर जाना चाहती थी. वह संगत के पास से छिपतीछिपाती कमरे की ओर जा रही थी कि गुरुजी की नजर उस पर पड़ गई. राधेराधे की पुकार करते हुए वह उस के पास आए और सकुचाती हुई मीता का हाथ पकड़ कर राधेराधे कह कर नाचने लगे. पूरी संगत उसी ओर देखते हुए राधेराधे का आलाप करने लगी.

बेचारी मीता असहाय भेड़बकरी की तरह साथसाथ घिसट रही थी. उसे इतना गुस्सा आ रहा था कि इस पाखंडी, कामुक ढोंगी को धक्का मार कर गिरा दे. उस ने बड़ी मुश्किल से अपने हाथ छुड़ाए और कमरे में चली गई. अंदर से कुंडी बंद कर के उस ने साड़ी बदली. उस ने कमरे में इधरउधर देखा. कमरे में डबलबैड पर सुंदर रेशमी चादर बिछी थी.

सामने दीवार पर एक बड़ी सी गुरुदेव की तसवीर लगी थी. पलंग के बराबर वाली मेज पर ताजे फूलों का गुलदस्ता रखा था. वहां एक शीशी भी रखी थी. उठा कर उस पर चिपका लेबल पढ़ा तो उस में नींद की गोलियां थीं. अचानक मीता के दिमाग में बिजली सी कौंधी. उस ने शीशी उठा कर बैग में रख ली और बाहर आ गई.

बाहर प्रसाद वितरण हो रहा था. वह चुपके से निकल कर अपने घर आ गई. घर पहुंच कर वह कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर गिर पड़ी. फिर से आंखों में आंसू आ गए. उस एक छोटी सी नौकरी के लिए इतना जलील होना पड़ रहा था.

रसोई में काम करने वाले नौकरों में एक लड़की ने कुछ सूखे मेवे छिपा लिए थे. तब लड़के ने कहा था, ‘‘तू पकड़ी जा सकती है. मालकिन सब याद रखती हैं. वह मालिक की तरह नहीं हैं कि थोड़ी सी पी कर बेहोश हो जाते हैं. फिर क्या हुआ, कुछ याद नहीं रहता. मैं ने कई बार उन की आधी बची स्कौच की बोतल छिपा ली थी. अगले दिन वह नई बोतल खोल लेते हैं. पिछली रात कितनी पी थी, कितनी बची थी, उन्हें कुछ याद नहीं रहता.’’

मीता ने सोचा कि उसे विधायक और उस की पत्नी से सावधान ही रहना होगा. अगले दिन मीता स्कूल के बाद इलाके में घूमने निकल गई. दरअसल, वह इलाके के लोगों से विधायक के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाना चाहती थी. इलाके के लोग सीधेसादे लोग थे. एक अध्यापिका होने के कारण उसे बहुत ही आदरसम्मान दे रहे थे. वह उसे हर तरह की मदद देने को तैयार थे.

इलाके में विधायक की छवि बहुत खराब थी. पता चला कि उस की पत्नी और बेटा बहुत दयालु हैं. मीता ने यह भी पता लगा लिया था कि वहां से एकमात्र बस सवेरे साढ़े 5 बजे चलती है. उस के दिमाग में एक योजना आ रही थी. हालांकि वह जानती थी कि उस की यह योजना तलवार की धार पर चलने के समान है. अगर विधायक ने उस की चालाकी पकड़ ली तो जान और इज्जत दोनों से हाथ धोना पड़ सकता था. पर ऐसा हुआ तो आगे आने वाली अध्यापिकाओं की राह आसान हो जाएगी.

तूफान और दिया – भाग 1

पहर को मीता स्कूल से इंटरव्यू दे कर घर लौटी तो उस का सिर दर्द और गरमी से घूम रहा था. वह मटके से पानी ले कर पी रही थी, तभी उस की मां आ गईं. वह उसे आशा भरी नजरों से देख रही थीं. हताश मीता ने चेहरा झुका लिया. इस से मां समझ गईं कि आज भी नौकरी पाने के महायुद्ध में बेटी परास्त हो कर आई है. मीता की हिम्मत बढ़ाने के लिए उन्होंने उस के सिर पर हाथ फेरा और रसोई में चली गईं.

मीता के साथ पिछले 6 महीने से यही हो रहा था. जहां भी उसे जगह खाली होने की जानकारी मिलती, वह तुरंत आवेदन कर देती. अच्छे नंबरों से बीएड करने के बाद नौकरी के लिए भटकना पड़ रहा था. कभीकभी उसे अपने देश के शिक्षातंत्र पर बहुत गुस्सा आता, क्योंकि जो भी जगहें निकलती थीं, उन में से आधी तो आरक्षित वर्ग को मिल जाती थीं, बाकी में सामान्य श्रेणी के सिफारिश वाले हो जाते थे. मध्यवर्गीय बेचारे मुंह ताकते रह जाते हो.

पिछली बार जब वह एक ही स्कूल में दूसरी बार इंटरव्यू दे कर लौट रही थी तो एक आदमी पीछे से आ कर उसे स्कूल के गेट पर मिला. वह रिक्शे पर बैठने जा रही थी, तभी उस ने आवाज दे कर उसे रोका. मीता ने उसे स्कूल के औफिस में बैठे देखा था. वह मीता के नजदीक आ कर धीमे से बोला, ‘‘20 लाख हो तो ले आइए. पैनल में आप का नाम दूसरे या तीसरे नंबर पर करवा दूंगा. डील बिलकुल पक्की और गोपनीय होगी.’’ कह कर वह आदमी लौट गया था.

मीता कुछ नहीं बोली, लेकिन उस की बात सुन कर वह हैरान जरूर रह गई थी कि एक छोटी सी टीचर की नौकरी के लिए 20 लाख रुपए. वह चुपचाप रिक्शे में बैठ कर घर चली आई थी.

एक बार एक स्कूल में उस का चयन हो गया तो वह बहुत खुश हुई थी. पर जब वह औफिस में कागजी काररवाई पूरी कराने पहुंची तो उस से कहा गया कि उसे पे स्लिप तो 10 हजार रुपए की दी जाएगी, लेकिन वह केवल दिखावटी होगी. उसे वेतन 3 हजार रुपए ही मिलेंगे. क्षुब्ध मीता नौकरी जौइन किए बिना ही लौट आई थी.

उस के बड़े भाई राजेश पर भी यही गुजर रही थी. पिताजी एक निजी कंपनी में क्लर्क थे. वह अपने फंड से आधा पैसा मीता से बड़ी 2 बेटियों की शादी में निकाल चुके थे. उन की बड़ी इच्छा थी कि बेटा इंजीनियर बने और अच्छी जिंदगी जिए. उन की सारी उम्र पुरानी खड़खड़ाती साइकिल पर बीत गई थी. मां भी रसोई की ही हो कर रह गई थीं.

जैसेतैसे कर के उन्होंने मीता को बीएड और राजेश को इंजीनियरिंग करा दी थी. इन की पढ़ाई के लिए मां के 2-4 गहने भी बिक गए थे, पर उम्मीद थी कि दोनों की नौकरी लगते ही सब कुछ सूद सहित वापस आ जाएगा.

3 बहनों का एकलौता भाई होने के कारण राजेश घर में सभी का लाडला था. कई कंपनियों में इंटरव्यू दे कर वह भी हताश हो चुका था. उस में मीता जैसी सहनशक्ति नहीं थी. एक बार वह एक कंपनी में इंटरव्यू देने गया. इंटरव्यू खुद कंपनी के मालिक ने लिया. वह एक छोटो मोटा उद्योगपति था. उस उद्योगपति को राजेश अपनी बेटी के लिए पसंद आ गया. उस की एकलौती बेटी काली और नकचढ़ी थी. उस ने राजेश के सामने बेटी से शादी करने का प्रस्ताव रखा. वह उसे घरजंवाई बनाना चाहता था.

राजेश अपने घर के बिगड़ते हालात को अच्छी तरह जानता था, साथ ही वह नौकरी के लिए भटकते भटकते पूरी तरह टूट चुका था. इसलिए उस ने हां कर दी और बिना सोचे समझे अमीरों के बाजार में बिक गया. लाखों के व्यापार में उस की हैसियत घरजंवाई की नहीं, बल्कि बिना वेतन के मजदूर की थी.

मीता के मातापिता राजेश पर बहुत आशा लगाए बैठे थे. जब उन्हें बेटे के फैसले के बारे में पता चला तो सन्न रह गए. स्वाभिमानी मातापिता ने राजेश से नाता तोड़ लिया. मीता के जीवन में पहले ही इतनी कठिनाइयां थीं, अब मातापिता को भी संभालने की जिम्मेदारी उसी पर आ गई थी.

एक दिन हिम्मत कर के राजेश अकेला ही घर वालों से मिलने आया. तब उस के माता पिता मूर्तियों की तरह खामोश बैठे रहे. उन्होंने उस से बात तक नहीं की. मीता ने भाई से चायपानी पूछने के बहाने माहौल को सामान्य बनाने की कोशिश की, पर सफल नहीं हो सकी. थोड़ी देर बाद अपमानित हो कर राजेश तीर सा बाहर चला गया. मीता ‘भैया…भैया…’ कह कर पीछे भागी, पर राजेश कार में बैठ कर आंखों से ओझल हो गया.

मीता के लिए नौकरी ईद का चांद बन कर रह गई. कभी पैदल, कभी रिक्शे से, कभी बस के पीछे भागते भागते अब वह तन और मन से बुरी तरह टूट चुकी थी. कोई सांत्वना के दो शब्द बोलने वाला भी नहीं था.  उस के पिता के रिटायरमेंट के केवल 4 महीने बचे थे. बुजुर्ग मातापिता की जिम्मेदारी अब उसी पर थी. पेंशन से मिलने वाली थोड़ी सी धनराशि से कैसे घर चलेगा, यह सोचसोच कर उसे रात में नींद नहीं आती थी.

एक दिन उस ने अपने मातापिता के स्वाभिमान को नजरअंदाज कर घर से बाहर जा कर भाई को फोन लगाया. उस ने उसे घर के सारे हालात बता कर विनती की कि किसी से सिफारिश कर के वह जल्दी ही कहीं उस की नौकरी लगवा दे.

मीता जानती थी कि राजेश के ससुर पहुंच वाले आदमी हैं. तमाम नेताओं, विधायकों से उन की जानपहचान है. घर की परेशानी को समझते हुए राजेश ने उस से अपना बायोडाटा और अन्य आवश्यक कागजात मेल करने को कह दिया. मीता ने उसी दिन सारे कागजात मेल कर दिए. लगभग 20 दिनों बाद ही उत्तराखंड के एक छोटे से पहाड़ी इलाके के स्कूल में मीता की नौकरी लग गई.

नौकरी मिलने से मीता बहुत खुश हुई. अपना जरूरी सामान एक बैग में रख कर वह उत्तराखंड के लिए निकल पड़ी. अपनी कार्यस्थली पर पहुंच कर उस का मन खुश हो गया. प्राकृतिक सुंदरता से भरे इलाके ने उस का मन मोह लिया. वहां एक छोटा स्कूल था, जिस में वही एकमात्र अध्यापिका थी. उस के अलावा एक चपरासी था.

मीता ने मन लगा कर बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. स्कूल के पीछे ही रहने के लिए उसे एक मकान दिया गया था. मकान छोटा तो था, लेकिन उस में सभी सुविधाएं थीं. बच्चों को पढ़ाने में एक महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला. पहले वेतन से कुछ रुपए अपने खर्चे के लिए रख कर बाकी रुपए उस ने पिताजी के एकाउंट में जमा करा दिए.

मीता वहां बहुत खुश थी, लेकिन उस की खुशियों की उम्र लंबी नहीं निकली. जो बच्चे उस के स्कूल में पढ़ने आते थे, वह उन के मातापिता से भी मिलती रहती थी. एक दिन एक लड़की की मां ने बताया कि यहां का विधायक हीराचंद अच्छा आदमी नहीं है. वह एक नंबर का शराबी और अय्याश है. स्कूल से थोड़ी दूरी पर ही उस का आलीशान बंगला था.

विधायक तो अकसर राजनैतिक दौरों पर रहता था, लेकिन उस की पत्नी सरला नौकर और नौकरानियों के साथ वहीं रहती थी. उस का एक ही बेटा था, जो विदेश में पढ़ रहा था. 2 महीने में ही मीता ने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के मातापिता से संबंध बना लिए थे. वे मीता का बहुत आदर करते थे.

बरसों की साध : क्या प्रशांत अपना वादा निभा पाया? – भाग 3

अगले दिन इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं. ईश्वर भैया शाम की गाड़ी से आ गए. लेकिन आते ही उन्होंने फरमान सुना दिया कि वह इस दुलहन को नहीं रखेंगे. लोगों ने समझायाबुझाया पर वह किसी की नहीं माने.

पति का फरमान सुन कर भाभी रोने लगीं. सुबह भाभी का चेहरा उतरा हुआ था. आंखें इस तरह लाल और सूजी थीं, जैसे वह रात भर रोई थीं. प्रशांत ने इस बारे में पूछा तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. रूपमती की चुप्पी पर प्रशांत ने अगला सवाल किया, ‘‘भाभी, दिल्ली से भैया आप के लिए क्या लाए हैं?’’

‘‘मौत.’’ रूपमती ने प्रशांत को संक्षिप्त सा जवाब दिया.

भाभी के इस जवाब पर प्रशांत को गहरा आघात लगा. उस ने कहा, ‘‘लगता है भाभी आप रात में बहुत रोई हैं. क्या हुआ है, कुछ बताओ तो सही.’’

‘‘भैया, अभी यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. दूसरे के दुख में आप क्यों दुखी हो रहे हैं. मेरे भाग्य में जो है वही होगा.’’ कह कर भाभी फफक कर रो पड़ी. दिल का बोझ थोड़ा हलका हुआ तो आंचल से मुंह पोंछ कर बोली, ‘‘आप के भैया बहुत बड़े अधिकारी हैं. मैं उन के काबिल नहीं हूं. उन्हें खूब पढ़ीलिखी पत्नी चाहिए. इसीलिए वह मुझे साथ रखने को तैयार नहीं हैं.’’

रूपमती के साथ जो हुआ था. वह ठीक नहीं हुआ था. लेकिन प्रशांत कुछ नहीं कर सकता था. उसी दिन ईश्वर चला गया. जाने से पहले उस ने प्रशांत के पिता से कहा, ‘‘काका, मुझे यह औरत नहीं चाहिए. इस देहाती गंवार औरत को मैं अपने साथ हरगिज नहीं रख सकता.’’

ईश्वर के जाने के बाद रूपमती ननद के गले लग कर रोते हुए कहने लगी, ‘‘अगर इस आदमी को ऐसा ही करना था तो मुझे विदा ही क्यों कराया गया. विदा करा कर मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की गई. अब कौन मुझे कुंवारी मानेगा. मैं न इधर की रही न उधर की.’’

अब सवाल था रूपमती को मायके पहुंचाने का. मामला तलाक का था. इसलिए घर का कोई बड़ा रूपमती को मायके ले जाने के लिए राजी नहीं था. जब कोई बड़ाबुजुर्ग रूपमती को ले जाने के लिए राजी नहीं हुआ तो उसे मायके ले जाने की जिम्मेदारी प्रशांत की आ गई.

रेलवे स्टेशन से रूपमती का घर ज्यादा दूर नहीं था. कोई संदेश मिला होता तो शायद स्टेशन पर कोई लेने आ जाता. प्रशांत और रूपमती पैदल ही घर की ओर चल पडे़. सामान स्टेशन पर ही एक परिचित की दुकान पर रख दिया गया था.

राह चलते हुए अपनी व्यथा व्यक्त करने की खातिर गांव के ज्ञानेश उर्फ ज्ञानू के बारे में बता कर प्रशांत ने कहा, ‘‘आज मुझे अपने देर से पैदा होने पर अफसोस हो रहा है भाभी. अगर मैं 8-10 साल पहले पैदा हुआ होता तो…’’

दुख की उस घड़ी में भी रूपमती के चेहरे पर मुसकान आ गई. मासूम देवर के कंधे पर हाथ रख कर उस ने कहा, ‘‘तो फिर मैं तुम्हारे बड़े होने की राह देखूं?’’

प्रशांत झेंप गया. गांव आया, फिर घर. गौने गई लड़की के चौथे दिन मायके आने पर उसे देखने के लिए आसपड़ोस की औरतें इकट्ठा हो गईं. उस समय दिल पर पत्थर रख कर रूपमती मुसकराती रही. उस के इस भोलेभाले देवर को ताना न सुनना पड़े, इस के लिए उस ने किसी से कुछ नहीं बताया.

प्रशांत उसी दिन शाम की गाड़ी से लौट आया. रूपमती गांव के बाहर तक उसे छोड़ने आई. विदा करते समय उस ने कहा, ‘‘इस जन्म में फिर कभी मुलाकात हो, तो देवरजी पहचान जरूर लेना. इन चार दिनों में तुम ने जो दिया,’’ प्रशांत का हाथ पकड़ कर सीने पर रख कर कहा, ‘‘इस में समाया रहेगा.’’

इतना कहते हुए रूपमती की आंखों में जो आंसू आए थे, प्रशांत उन्हें आज तक नहीं भूल सका था. इस के बाद से प्रशांत को हमेशा लगता रहा कि जिंदगी में कहीं कुछ छूटा हुआ है, जो तमाम तलाशने पर भी नहीं मिल रहा है.

धीरेधीरे यह प्रसंग मन के किसी कोने में दबता गया और इस के मुख्य पात्रों की स्मृति धुंधली होती गई. इस की मुख्य वजह यह थी कि दोनों ओर से संबंध लगभग खत्म हो गए थे. बदल रही जीवन की घटनाओं के बीच यह दु:सह याद उस ने अंतरात्मा के किसी कोने में डाल दी थी.

प्रशांत को सोच में डूबा देख कर रूपमती ने कहा, ‘‘आप बड़े तो हो गए, पर किया गया वादा भूल गए, निभा नहीं पाए.’’

‘‘भाभी, आप ने भी तो मेरी राह कहां देखी.’’

‘‘देखी देवरजी, बिलकुल देखी. बहुत दिनों तक देखी. आप का इंतजार आज तक करती रही. राह आंख से नहीं, दिल से देखी जाती है देवरजी.’’

प्रशांत आगे कुछ कहता, उस के पहले ही रूपमती ने उठते हुए बहु से कहा, ‘‘सुधा बेटा, तुम्हारे यह चाचाजी, मेरे सगे देवर हैं, तुम इन के पास बैठो. इन के लिए आज मैं खुद खाना बनाऊंगी और सामने बैठ कर खिलाऊंगी. बरसों की अधूरी साध आज पूरी करूंगी.’’

बरसों की साध : क्या प्रशांत अपना वादा निभा पाया? – भाग 2

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी. अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

जब इस बात की जानकारी प्रशांत को हुई तो वह खुशी से फूला नहीं समाया. विदाई से पहले ईश्वर की बहन को दुलहन के स्वागत के लिए बुला लिया गया था. जिस दिन दुलहन को आना था, सुबह से ही घर में तैयारियां चल रही थीं.

प्रशांत के पिता सुबह 11 बजे वाली टे्रन से दुलहन को ले कर आने वाले थे. रेलवे स्टेशन प्रशांत के घर से 6-7 किलोमीटर दूर था. उन दिनों बैलगाड़ी के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं होता था. इसलिए प्रशांत बहन के साथ 2 बैलगाडि़यां ले कर समय से स्टेशन पर पहुंच गया था.

ट्रेन के आतेआते सूरज सिर पर आ गया था. ट्रेन आई तो पहले प्रशांत के पिता सामान के साथ उतरे. उन के पीछे रेशमी साड़ी में लिपटी, पूरा मुंह ढापे मजबूत कदकाठी वाली ईश्वर की पत्नी यानी प्रशांत की भाभी छम्म से उतरीं. दुलहन के उतरते ही बहन ने उस की बांह थाम ली.

दुलहन के साथ जो सामान था, देवनाथ के साथ आए लोगों ने उठा लिया. बैलगाड़ी स्टेशन के बाहर पेड़ के नीचे खड़ी थी. एक बैलगाड़ी पर सामान रख दिया गया. दूसरी बैलगाड़ी पर दुलहन को बैठाया गया. बैलगाड़ी पर धूप से बचने के लिए चादर तान दी गई थी.

दुलहन को बैलगाड़ी पर बैठा कर बहन ने प्रशांत की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘यह आप का एकलौता देवर और मैं आप की एकलौती ननद.’’

मेहंदी लगे चूडि़यों से भरे गोरेगोरे हाथ ऊपर उठे और कोमल अंगुलियों ने घूंघट का किनारा थाम लिया. पट खुला तो प्रशांत का छोटा सा हृदय आह्लादित हो उठा. क्योंकि उस की भाभी सौंदर्य का भंडार थी.

कजरारी आंखों वाला उस का चंदन के रंग जैसा गोलमटोल मुखड़ा असली सोने जैसा लग रहा था. उस ने दशहरे के मेले में होने वाली रामलीला में उस तरह की औरतें देखी थीं. उस की भाभी तो उन औरतों से भी ज्यादा सुंदर थी.

प्रशांत भाभी का मुंह उत्सुकता से ताकता रहा. वह मन ही मन खुश था कि उस की भाभी गांव में सब से सुंदर है. मजे की बात वह दसवीं तक पढ़ी थी. बैलगाड़ी गांव की ओर चल पड़ी. गांव में प्रशांत की भाभी पहली ऐसी औरत थीं. जो विदा हो कर ससुराल आ गई थीं. लेकिन उस का वर तेलफुलेल लगाए उस की राह नहीं देख रहा था.

इस से प्रशांत को एक बात याद आ गई. कुछ दिनों पहले मानिकलाल अपनी बहू को विदा करा कर लाया था. जिस दिन बहू को आना था, उसी दिन उस का बेटा एक चिट्ठी छोड़ कर न जाने कहां चला गया था.

उस ने चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं घर छोड़ कर जा रहा हूं. यह पता लगाने या तलाश करने की कोशिश मत करना कि मैं कहां हूं. मैं ईश्वर की खोज में संन्यासियों के साथ जा रहा हूं. अगर मुझ से मिलने की कोशिश की तो मैं डूब मरूंगा, लेकिन वापस नहीं आऊंगा.’

इस के बाद सवाल उठा कि अब बहू का क्या किया जाए. अगर विदा कराने से पहले ही उस ने मन की बात बता दी होती तो यह दिन देखना न पड़ता. ससुराल आने पर उस के माथे पर जो कलंक लग गया है. वह तो न लगता. सब सोच रहे थे कि अब क्या किया जाए. तभी मानिकलाल के बडे़ भाई के बेटे ज्ञानू यानी ज्ञानेश ने आ कर कहा, ‘‘दुलहन से पूछो, अगर उसे ऐतराज नहीं हो तो मैं उसे अपनाने को तैयार हूं.’’

दुर्भाग्य के भंवरजाल में फंसी नवोदा के लिए ज्ञानू का यह कथन डूबते को तिनके का सहारा की तरह था. उस ने ज्ञानू से शादी कर ली थी. प्रशांत का भी मन ज्ञानू बनने का हो रहा था. लेकिन अभी वह छोटा था. उस की उम्र महज 13 साल थी. दुलहन को घर में बैठा कर पिया का इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया.

मौत का खेल : कौन था शिम्ट का कातिल? – भाग 3

वैगन आई तो हम लोग उस में बैठ गए. पिछली सीट पर मेरे साथ प्यानो वादक कैलर के अतिरिक्त और कोई नहीं था. वह इस तरह जड़ हुई बैठी थी, जैसे उसे लकवा मार गया हो.  स्टेशन वैगन शहर की तरफ जाने वाली सुनसान सड़क पर दौड़ रही थी. कैलर की वीरान निगाहें तेजी से पीछे भागते हुए दृश्यों पर जमी थीं.

अचानक वह इस तरह बड़बड़ाई जैसे अपने आप से मुखातिब हो और उस का दिलोदिमाग काबू में न हो, ‘‘मैं…मैं अपने आप को माफ नहीं कर सकती. इस की जिम्मेदार मैं हूं.’’ वह कुछ पल खामोश रही फिर बड़बड़ाई, ‘‘ओह, यह सब मेरी वजह से हुआ है. उस की कातिल मैं हूं.’’

यह बात मेरे लिए आश्चर्यजनक थी. वह मेरे सामने अपने आप को मुलजिम ठहरा रही थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि वह खुद को शिम्ट का कातिल क्यों समझ रही थी? और यह सब कुछ मुझे क्यों बता रही थी?

‘‘कत्ल? नहीं मिस कैलर, यह महज एक हादसा था और किसी को इस का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘नहीं, यह हादसा नहीं कत्ल है. अगर हम यह खेल शुरू न करते तो यह सब नहीं होता. हम इस खेल में शरीक थे, इसलिए किसी को भी इलजाम से बरी नहीं किया जा सकता.’’ वह पहले की तरह ही बड़बड़ाई.

‘‘मुमकिन है तुम्हारा ख्याल सही हो, लेकिन सब की पर्चियां नष्ट की जा चुकी हैं और अब यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कातिल कौन है?’’ मैं ने कहा.

वह कुछ देर खामोशी से मेरी तरफ देखती रही, फिर हाथ मेरे सामने कर के मुट्ठी खोल दी. उस की हथेली पर कागज का एक पुरजा रखा हुआ था, जिस पर ‘कातिल’ शब्द लिखा हुआ था.

‘‘अब तुम समझ गए होगे कि मैं ऐसी बातें क्यों कर रही हूं.’’ वह दुखी स्वर में बोली.

मैं वाकई हैरत में था कि वह ऐसी बातें क्यों कर रही थी. मैं कुछ देर उस के चेहरे की तरफ देखता रहा, फिर बोला, ‘‘यह सिर्फ एक हादसा था. तुम्हें इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए मिस कैलर.’’

‘‘ओह. तुम्हें शायद उस की मौत का कोई गम नहीं है. जबकि शिम्ट तुम्हारा दोस्त था.’’ उस के अंदाज में व्यंग्य साफ झलक रहा था.

‘‘मुझे उस की मौत का बहुत अफसोस है, लेकिन मौत पर किसी का बस तो नहीं है न. यह संगीन इत्तेफाक मेरे साथ भी पेश आ सकता था.’’

‘‘संगीन इत्तेफाक?’’ उस ने सुलगती हुई निगाहों से मेरी तरफ देखा, ‘‘तुम्हें शायद अपने दोस्त से मोहब्बत नहीं, नफरत थी.’’

‘‘तुम गलत सोच रही हो. लेकिन मैं यह जरूर जानना चाहता हूं कि तुम अपने आप को उस की मौत का जिम्मेदारक्यों समझ रही हो?’’

‘‘मेरी पर्ची से तुम समझ चुके होगे कि इस खेल में मेरा किरदार क्या था. मुझे किसी एक को कत्ल करना था. मैं ऊपरी मंजिल पर किसी को तलाश करती रही, लेकिन जब कोई नहीं मिला तो मैं नीचे चली आई. वह दीवार से टेक लगाए खड़ा था. मैं ने मौका पा कर जब उस पर हमला किया तो उस ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘यह देख मैं ने उस का गला दबोच लिया. उसे खत्म करने के बाद मैं वहां से हट गई, ताकि वह दूसरों को सूचना दे सके कि कातिल अपना रोल अदा कर चुका है. लेकिन उस की जगह तुम ने हम लोगों को कत्ल की सूचना दी. क्या ऐसी हालत में मैं यह न समझूं कि उस की मौत मेरे हाथों हुई थी? मैं अपनेआप को उस की मौत की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं कर सकती.’’

कैलर खामोश हो कर सिसकियां भरने लगी.

मैं ने परेशानी से दूसरे साथियों की तरफ देखा. वह हम पर ध्यान दिए बिना अपनी बातों में मग्न थे. वैगन शहर की सरहद में दाखिल हो चुकी थी.

पूरब के क्षितिज पर फैलने वाली लाली बता रही थी कि सूरज निकलने ही वाला है. स्टेशन वैगन जैसे ही एक सड़क के मोड़ पर घूमी, कैलर ने ड्राइवर को गाड़ी रोक देने का निर्देश दिया.

कैलर का निवास शहर के एक मध्यमवर्गीय इलाके में था. जबकि यह इलाका शहर की घटिया आबादी वाला था. उस के द्वारा वहां गाड़ी रुकवाने पर मुझे आश्चर्य हुआ. वहां न रोशनी का इंतजाम था और न सफाई पर तवज्जो दी गई थी. दूर तक कच्चे और बेतरतीब मकान फैले हुए थे. आबादी के शुरू में चर्च था. बस्ती की यह अकेली पक्की इमारत थी. चर्च का कलश, अभीअभी निकले सूरज की किरणों में चमकने लगा था.

कैलर के उतरते ही मैं भी गाड़ी से नीचे उतर आया. उस ने मुड़ कर मेरी तरफ देखा और कुछ कहे बिना तेज कदमों से चर्च की तरफ चल दी.  मैं कुछ देर देखता रहा, फिर खुद भी उस के पीछे चल दिया. जब मैं गली में पहुंचा तो वह चर्च में दाखिल हो रही थी.

मैं चर्च के दरवाजे पर रुक कर उस की तरफ देखने लगा. वह इबादत वाले कमरे में पैर मोड़े बैठी अपने उस गुनाह की माफी मांग रही थी, जो उस की समझ के हिसाब से खेल ही खेल में उस के हाथों हो गया था.

वह खुद को शिम्ट का कातिल समझ रही थी. उसे यकीन था कि उस ने शिम्ट का गला घोंट कर उसे मार डाला था. अगर वह दूसरों के सामने इस बात को प्रकट करती तो मुमकिन था कि वे उस की बात मान लेते, लेकिन कम से कम मैं इस बात को मानने को तैयार नहीं था.

क्योंकि कैलर के गला दबोचने से पहले ही शिम्ट मर चुका था. यह कारनामा तो मैं ने अंजाम दिया था. खेल के शुरू में लाइट औफ होते ही मैं ने बाहर निकल कर उसे दबोच लिया था और हलक से आवाज निकालने का मौका दिए बिना जिंदगी से उस का संबंध खत्म कर दिया था.

दरअसल, मैं लंबे अरसे से किसी ऐसे ही मौके की तलाश में था. उस की खूबसूरत बीवी, जो मुझ से बहुत ज्यादा प्यार करती थी और उस की बेशुमार दौलत, इन दोनों पर कब्जा करने के लिए मुझे इस से बेहतर मौका फिर कभी नहीं मिल सकता था और अगर मैं इस सुनहरे मौके से फायदा न उठाता तो मुझ से बड़ा बेवकूफ कोई न होता.