गोगुंदा के राजमहल में महाराणा उदय सिंह (दीवानजी) बीमारी से जूझ रहे थे. उन के पास के कक्ष में उन की सब से प्रिय छोटी  रानी धीरकंवर अपने विश्वासपात्र सामंतों के साथ विशेष सलाहमशविरा कर रही थीं.

उसी समय सामने बैठे एक वरिष्ठ सामंत ने विनम्रता से कहा, ‘‘महारानी सा, हम हर परिस्थिति में आप के स्वामिभक्त बने रहेंगे.’’

‘‘परिहास न कीजिए ठाकुर सा. सोनगरी जी के रहते हुए मैं भला महारानी कैसे हो सकती हूं.’’

‘‘जरूर हो सकती हैं, हमारा हृदय तो यही कह रहा है और समय आने पर मेवाड़ के सभी सिरदार और प्रजा भी आप को यही कहेंगे.’’

‘‘फिर भी हमें तो विश्वास नहीं होता.’’ धीरकंवर उन के मन की और बातें जानने के लिए बोलीं.

‘‘महारानी सा, हमें आप की कृपा पर सम्मान, पद और जागीरें मिलीं हैं. मौका आने पर हम आप के लिए अपनी जान तक न्यौछावर करने में पीछे नहीं हटेंगे.’’

यह सुन कर धीरकंवर ने लंबी सांस ली. वह गंभीर हो कर बोलीं, ‘‘हमें किसी पद की लालसा नहीं है, लेकिन हम दीवानजी के हित की बात सोचते हैं. खुद को राज्य का अधिकारी मानने वालों को आज दीवानजी के स्वास्थ्य की तनिक भी चिंता नहीं है. जब वह उन का खयाल नहीं रख रहे, तो राज्य का कैसे रखेंगे?’’

तभी एक सामंत ने कहा, ‘‘महारानी सा, इस के लिए तो कुंवर जगमाल पूरी तरह से योग्य हैं.’’

कुछ पल रुक कर धीरकंवर अपनी बात का प्रभाव देख कर आगे बोलीं, ‘‘जगमाल के जन्म से पहले ही दीवानजी ने कह दिया था कि उन के बाद उन का कुंवर ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा. इसलिए अधिकांश सिरदार उन से ईर्ष्या रखते हैं.’’

‘‘आप निश्चिंत रहें महारानीजी, हम कुंवर का साथ देने का वचन देते हैं.’’

‘‘सिरदारो, हमें आप पर पूरा विश्वास है, किंतु हमारी ममता हमारे हृदय को कमजोर कर देती है. इसलिए सोनगरीजी और प्रताप के बढ़ते प्रभाव को देख कर हमें कुंवर के भविष्य के प्रति शंका पैदा हो रही है.’’

‘‘आप किसी भी तरह की चिंता न करें महारानीजी दीवानजी का आशीर्वाद कुंवर के साथ है तो और लोग भी धीरेधीरे हमारे पक्ष में आ जाएंगे.’’

‘‘हमारी तरफ से कोई कमी नहीं आने दी जाएगी लेकिन परेशानी तो यह है कि दीवानजी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है.’’

‘‘धैर्य रखिए महारानीजी, आप पर आने वाली किसी भी विपदा का सामना हमारी तलवारें करेंगी.’’ इस के बाद भावनाओं के चक्रव्यूह में फंसे सामंतों ने कक्ष से प्रस्थान कर लिया.

पुत्र मोह के कारण सामंतों को धन व धर्म के मोह में उलझाने वाली रानी भी उन के जाते ही तेजी से उठीं और पति की सेवा के लिए उन के कक्ष में चली गईं. वह ऐसी नारी थी, जो अपने पति व पुत्र के लिए कुछ भी करने को तैयार थी. उन के अंदर त्याग, ममता और सेवा करने की भावना थी लेकिन इन सब के अलावा एक बात थी कि वह स्वार्थी थीं.

पुत्रमोह की वजह से वह षड्यंत्र रचने लग गई थीं. उन्हें पति द्वारा भावुकता में दिया गया वह वचन याद आ रहा था, जिस में उन्होंने उन के बेटे को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने को कहा था.

महाराणा उदयसिंह मुगलों के हाथों अपनी राजधानी चित्तौड़ गंवाकर कुंभलगढ़ में निवास कर रहे थे किंतु अस्वस्थ होने पर वह स्वास्थ्य लाभ पाने के लिए गोगुंदा आ गए थे. उन के चेहरे की कांति जैसे लुप्त हो गई थी. उन का शरीर भी असाध्य रोग से जर्जर हो चुका था.

अपने पलंग पर असहाय पड़े वह निरंतर करवटें बदल रहे थे. रानी धीरकंवर औषधि ले कर उन के कक्ष में पहुंची. कक्ष में पहुंचते ही उन्होंने दासियों को बाहर जाने का संकेत किया.

महाराणा को औषधि पिला कर वह उन के पांव दबाने लगीं. कुछ देर बाद रानी ने धीरे से पूछा, ‘‘स्वामी, आप ने अपना वचन पूरा करने का आश्वासन दिया था, किंतु अभी तक आप ने इस संबंध में…?’’

उन की बात पूरी होने से पहले ही वह बोले, ‘‘हम एक बार फिर कहते हैं रानी सा, आप एक बार इस पर फिर विचार कर लें. कुंवर जगमाल अपने दुर्बल कंधों पर संकटकालीन मेवाड़ का भार वहन नहीं कर सकेगा.’’ इतना कह कर वे हांफने लगे.

उन की बात सुनते ही रानी का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. वह खुद पर नियंत्रण करते हुए बोलीं, ‘‘महाराज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप को किसी ने भ्रमित कर दिया है. आप खुद सोचिए, क्या जगमाल ने कई बार अपनी योग्यता का प्रदर्शन नहीं किया है? क्या उस ने राजनीति व शासन तंत्र का अध्ययन पूरा नहीं किया है? क्या वह सभी अस्त्रशस्त्रों का संचालन नहीं कर सकता? फिर क्या कमी है उस में?’’ उन्होंने कुछ पल रुक कर नम्र स्वर में कहा, ‘‘क्या हमें आप के द्वारा दिए गए वचन को फिर से याद दिलाना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं प्रिये, याद दिलाने की जरूरत नहीं है. हम वचनबद्ध हैं परंतु…’’

‘‘वचन वचन होता है दीवानजी, उस के साथ किंतु परंतु नहीं होता.’’

‘‘प्रिये, आप हमारी तरह सोच कर देखिए, अकबर जैसा प्रबल शत्रु मेवाड़ का मान भंग करने के लिए गिद्ध दृष्टि लगाए बैठा है. ऐसी विषम परिस्थिति में परंपरा के विरुद्ध निर्णय लेने से आंतरिक स्थिति बिगड़ सकती है. फिर ऐसा करने पर मेवाड़ की प्रजा हमारी राज्य निष्ठा पर अंगुली नहीं उठाएगी?’’ तीव्र स्वर में बोलने के कारण वे हांफने लगे.

उन के तर्क से क्षुब्ध हो कर रानी ने तर्क दिया, ‘‘प्राणनाथ, ऐसा मेवाड़ में पहली बार नहीं हो रहा है. क्या महाराणा मोकल ज्येष्ठ कुंवर थे? क्या चूंडाजी ने ज्येष्ठ होते हुए भी पिताश्री के आदेश पर सिंहासन नहीं त्यागा था? मेरे पीहर जैसलमेर में राव केहर के ज्येष्ठ कुंवर केलणजी ने चौथे नंबर के कुंवर लक्ष्मणजी के लिए पिता के आदेश पर सिंहासन त्याग दिया था. आखिर आप को इस के लिए इतना संकोच क्यों हो रहा है? आप को प्रजा की नाराजगी की परवाह है लेकिन वचन की नहीं.’’

एक साथ इतने प्रश्न सुन कर महाराणा मौन हो गए फिर रानी को समझाते हुए बोले, ‘‘हम जानते हैं कि क्षत्रिय के जीवन में वचन से बढ़ कर कुछ नहीं है, पर आज परिस्थिति हमारे पक्ष में नहीं है. मेवाड़ का हृदय स्थल चित्तौड़ मुगलों के कब्जे में है. इन हालातों में चट्टान जैसा बलशाली शासक ही टिकेगा.’’

अपनी बात का प्रभाव देख कर महाराणा ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘ऐसे समय परंपरा से हट कर निर्णय करना आसान नहीं है क्योंकि आज प्रजा के मन में प्रताप का स्थान बन गया है इसलिए नवें नंबर के कुंवर जगमाल को प्रजा स्वीकार नहीं करेगी. हमारे फैसले के खिलाफ विद्रोह भी हो सकता है, क्या आप चाहती हैं कि जीवन के आखिरी समय में हमारी अवमानना हो?’’

इतने लंबे तर्कों का रानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, वे हठ भरे स्वर में बोलीं, ‘‘हमें इन तर्कों से बहलाने की चेष्टा न करें, हम तो इतना जानते हैं कि आप ने हमें वचन दिया था कि हमारा पुत्र ही आप का उत्तराधिकारी होगा.’’

‘‘रानी सा, हमारी बात समझने का प्रयास कीजिए, भावी महाराणा का जीवन बहुत संघर्षपूर्ण होगा. हमें जगमाल की योग्यता पर बिलकुल भी संदेह नहीं है किंतु वह भविष्य की कसौटी पर प्रताप की तरह खरा नहीं उतरता है. अगर आप कहें तो हम उस के लिए राज्य की कुछ जागीरों का संघ बना देते हैं, सिंहासन के अधीन होते हुए भी वह संघ स्वतंत्र निर्णय कर सकेगा?’’

‘‘इतनी कृपा करने की आवश्यकता नहीं है स्वामी? बप्पा रावल के वंशज अपने वचन से विचलित हो सकते हैं, तो उन की कुलवधू उन को वचन मुक्त करती है. मैं अपने पुत्रों सहित अभी मेवाड़ से पलायन करती हूं. प्रणाम स्वामी… अच्छा विदा.’’ इतना कह कर रानी ने उन के चरण स्पर्श किए और कक्ष से बाहर जाने लगी.

यह देख महाराणा उदय सिंह तड़प कर उठ बैठे, ‘‘नहीं रानी सा… प्रिये, आप ऐसा नहीं कर सकती. एक बार रुक जाइए, आप को हमारी सौगंध.’’

महाराणा की करुण आवाज सुन कर रानी धीरकंवर के कदम दरवाजे के पास ही रुक गए. वह वहीं खड़ेखड़े फूटफूट कर रोने लगीं.

महाराणा ने कहा, ‘‘भाटियाणी सा, आप हमें मृत्यु शय्या पर असहाय छोड़ कर जा रही हैं, क्यों हमारी मृत्यु को और अधिक कष्टदायक बना रही हैं प्रिये? बोलिए.’’ रानी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह रोए जा रही थीं.

वह कुछ क्षण रोती हुई रानी को देखते रहे फिर थके स्वर में बोले, ‘‘विद्वानों से सुना था कि 3 हठ बड़े मजबूत होते हैं, बाल हठ, राज हठ और त्रिया हठ लेकिन आज त्रिया हठ के आगे राज हठ हार गया. लौट आइए, हम अपना वचन अवश्य पूरा करेेंगे.’’ इतना कह कर वे खांसने लगे.

यह देख रानी पलंग की तरफ दौड़ पड़ी. सुराही से पानी ले कर उन्हें पिलाया. पानी पी कर वे हांफने लगे. उन की यह स्थिति देख रानी को अपनी कही बातों पर पश्चाताप हुआ. वह महाराणा के चरणों में गिर कर रोते हुए बोलीं, ‘‘हमें धिक्कार है स्वामी. हम ने आप का दिल दुखाया. हमें क्षमा कर दीजिए प्राणनाथ. हम से भारी भूल हो गई.’’ वह बारबार क्षमा मांगते हुए विलाप करने लगीं.

महाराणा ने सहज हो कर उन्हें चुप कराया और उठा कर गले लगा लिया. कुछ समय तक वृद्ध दंपति स्नेह वर्षा से भीगते रहे. रानी ने उठ कर उन्हें पलंग पर सुलाया और पांव दबाने लगीं. तभी महाराणा उदय सिंह बोले, ‘‘रानी सा हम अपना वचन पूरा करेंगे परंतु…’’

‘‘परंतु क्या प्राणनाथ?’’ रानी के मन में शंका का पहाड़ फिर उठ खड़ा हुआ.

‘‘प्रिये, हम जगमाल को हमारा उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा राज्यसभा में नहीं कर सकेंगे.’’

यह सुन कर रानी चौंक कर बोलीं, ‘‘ऐसा क्यों?’’ क्या आप को अपनी निर्णयशक्ति पर विश्वास नहीं रहा?’’

‘‘मर्म के वचन मत बोलो प्रिये, ये रूग्ण हृदय में कांटें की तरह चुभते हैं, आप जानती हैं कि मेवाड़ पति तो पूज्य एकलिंग है. हम तो बस उन के दीवान हैं. तब हम परंपरा के खिलाफ लिए गए निर्णय को कैसे सार्वजनिक कर सकते हैं? अब हमारे शरीर में इतनी शक्ति नहीं है कि विद्रोह की आवाज को निस्तेज कर सकें.’’

यह सुन कर रानी का मुंह लटक गया, वह टूटते स्वर में बोलीं, ‘‘जाने दीजिए स्वामी, हम आप को वचन की बेडि़यों से मुक्त करते हैं.’’ कह कर वह फिर से रोने लगीं.

यह देख महाराणा ने आहत हो कर कहा, ‘‘अब इन प्राणों का कोई विश्वास नहीं है जाने कब…’’ उन की बात पूरी होने से पहले ही रानी ने झट उन के मुंह पर हाथ रख दिया. बोलीं, ‘‘ऐसा न कहें स्वामी, हमारी उम्र भी आप को लग जाए.’’

मुंह से रानी का हाथ हटा कर उन्होंने कहा, ‘‘हम अपने मित्र सामंतों और कुलगुरु के माध्यम से जगमाल के राजतिलक की व्यवस्था कर देंगे. कल सुबह हम ने उन्हें बुलाया है. उसी समय हम जगमाल को महाराणा बनाने की घोषणा कर देंगे.’’

‘‘कुंवर के भी कुछ मित्र सामंत हैं, जो उन के लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं.’’

‘‘अच्छी बात है, उन्हें भी आमंत्रित कर दीजिएगा, मगर याद रहे यह सब अति गोपनीय तरीके से होना चाहिए.’’

सुन कर रानी का चेहरा मारे प्रसन्नता से दमकने लगा. वह उत्साहित हो कर बोलीं, ‘‘जैसी आप की आज्ञा. वैसे हमें जल्दी नहीं है. यह काम आप स्वस्थ होने के बाद भी कर सकते हैं.’’

‘‘नहीं, आप का वचन हमारे अंत:करण पर बोझ बन गया है. इसलिए जितना जल्दी हो सके हम इस से मुक्त होना चाहते हैं. हमारी मृत्यु के बाद राजतिलक कैसे होगा, यह आप जानें.’’

‘‘यह आप कैसी बात कर…’’

‘‘अब हमें एकांत चाहिए.’’ कहते हुए महाराणा उदय सिंह ने पीठ फेर ली. उन का आशय जान रानी कक्ष से बाहर आ गईं. उन्होंने द्वार पर खड़े प्रहरी से कहा, ‘‘देखो बिना हमारी अनुमति के कोई भी महाराणा से मिलने न पाए.’’ प्रहरी ने आज्ञा पालन की सहमति देते हुए सिर झुका लिया.

अपने कक्ष में लेटे महाराणा उदय सिंह का चेहरा भावहीन था. उन की आंखें एक टक छत को घूर रही थीं और मस्तिष्क अतीत में विचरण कर रहा था. उन के सामने बचपन की शरारत भरी तसवीरें घूमने लगीं. उन रंगीन खुशियों के बीच से खौफनाक चेहरा उभरा. वह बनवीर था. महाराणा विक्रमादित्य की खून से सनी नंगी तलवार उस की तरफ बढ़ी, तभी उस के स्थान पर चंदन आ गया. वह कुछ समझ पाते उस से पहले ममतामयी पन्ना ने उसे अपनी तरफ खींच कर अपने पुत्र की बलि चढ़वा दी.

तभी गगनभेदी जयघोष हुआ, ‘‘परम प्रतापी महाराणा उदय सिंह की जय.’’ वे अपने घोड़े पर बैठे पाली से लौट रहे थे. पीछे आ रही पालकी में पाली नरेश अखैराज सोनगरा की 16 वर्षीय राजकुमारी उन की मांग भरे बैठी थी. वही उन की पटरानी जयवंत कंवर थीं.

अचानक आए हवा के झोंके ने उन का ध्यान भंग कर दिया. पानी पीने के बाद वह फिर से यादों के सागर में तैरने लगे. महल में धूम मची थी. चारों तरफ युवराज प्रताप के जन्म की खुशियां मनाई जा रही थीं. वह पटरानी जयवंत कंवर के पास बैठे अपने ज्येष्ठ पुत्र को आशीर्वाद दे रहे थे.

उन के भावहीन चेहरे पर मुसकान उभरी और दूसरे ही क्षण लुप्त हो गई. उन का प्रताप दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. पुत्र के जन्म के बाद उन के राज्य की सीमाएं बढ़ने लगीं. कई छोटी रियासतें बड़ी आसानी से उन के राज्य में शामिल हो गईं. लग रहा था जैसे प्रताप चमत्कारी भाग्य ले कर जन्मा था.

उन की वीरता व तेज बढ़ता देख अनेक राजपूत शाखाओं के राजा और सामंतों ने उन्हें अपना जंवाई बना कर खुद को धन्य समझा. धीरेधीरे उन का राजवंश बढ़ने लगा. महाराणा सांगा के जीवित बचे एक मात्र उत्तराधिकारी का परिवार चंद्रकला के समान बढ़ने लगा.

जवानी की उमंगों के बीच उन के कई विवाह हुए. जिन से उन के कई पुत्र पैदा हुए. सज्जाकंवर सोलंकिनी से शक्ति सिंह व वीरमदेव, जयवंत कंवर मादड़ेची से जैत सिंह, करमचंद परमार की पुत्री लालकंवर से कान्हा, वीरकंवर झाली से रायसिंह, लखकंवर झाली से शार्दूल व रुद्र, सब से आखिर में उन का विवाह जैसलमेर की रूपवती राजकुमारी धीरकंवर भाटियाणी से हुआ जिन से जगमाल, सिंह, अगर, साह और पच्याण नामक राजकुमार पैदा हुए.

उन्हें अब इतने बड़े परिवार को याद करना भी कठिन होता जा रहा था. उन की याद्दाश्त काफी कमजोर हो गई थी. इतना याद था कि इन के अलावा अन्य रानियों से 13 राजकुमार और हैं.

इतने वर्षों में वह 18 रानियों और 24 राजकुमारों व 29 राजकुमारियों सहित 63 हो गए थे. कठिनाइयों से उठ कर वह सुख के झूले में बैठे थे. उसी दौरान एक दिन पूरब से 25 फरवरी, 1568 में इसलाम की काली आंधी अकबर के रूप में उन्हीं की जाति के सहयोग से आई. उन्होंने उस के साथ खून की होली खेली, लेकिन चित्तौड़ उन के हाथ से निकल गया.

उन्होंने नवीन स्वप्न के रूप में उदयपुर बसाया पर अभी वह पूरा विकसित भी नहीं हुआ कि वृद्धावस्था ने उन्हें आ घेरा. हाथ से चित्तौड़ जाने की पीड़ा वह किसी तरह भूले ही थे कि इस नई आफत ने उन के पूरे वजूद को हिला कर रख दिया. वह एक गहरे धर्मसंकट में फंस गए थे.

पटरानी जयवंत कंवर से बेटा प्रताप पैदा होने के बाद वह उन का सम्मान करते थे. धीरेधीरे जब उन के अन्य विवाह होने से उन का प्यार बंटने लगा. अंत में धीर कंवर ने अपनी सुंदरता, नफासत, समर्पण और सेवा के बल पर उन के हृदय पर एकाधिकार कर लिया. जैसेजैसे समय गुजरा. धीरकंवर ने उन का दिल जीत लिया.

सुहागरात के समय उन्होंने धीरकंवर को जो वचन दिया था, वही वचन उन्हें धर्मसंकट में डाल देगा ऐसा उन्होंने सोचा भी नहीं था. यह वचन आज उन के सब से प्रिय और तेजस्वी पुत्र प्रताप को उस के नैसर्गिक अधिकार से वंचित करने के लिए विवश कर रहा था.

वे जानते थे कि आने वाले समय में केवल प्रताप ही मेवाड़ के गौरव व मर्यादा को पुनर्स्थापित कर सकता है, अगर जगमाल महाराणा बना तो मेवाड़ विखंडित हो जाएगा और इतिहास उन्हें ही इस का दोषी ठहराएगा.

अगर वे अपने वचन को रद्द करते हैं तो एक समर्पिता नारी के सामने उन के पौरुष और आत्मसम्मान की पराजय होती. यही बात उन के स्वाभिमानी हृदय को अस्वीकार थी. अंत में उन्होंने अपना वचन पूरा करने का निश्चय कर लिया.

इस मानसिक संघर्ष ने उन को अचानक अशक्त बना दिया. धीरेधीरे बिंब छंटने लगे और निंद्रा ने उन की चेतना पर अपना डेरा डाल दिया. महाराणा उदय सिंह ने धीरकंवर को दिया वचन पूरा कर के रानी का मान रखा.

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