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1997 के दौर में श्रीप्रकाश शुक्ला एक कुख्यात डौन का नाम था, जिस के नाम से बड़ेबड़े सूरमाओं की घिग्घी बंध जाती थी. उस के एक फोन से व्यापारियों की तिजोरियों के ताले खुल जाया करते थे. मंत्रियों और राजनेताओं की जान उन के गले में अटकी रहती थी कि किस गोली पर उन का नाम लिखा है. उस के नाम से वे थरथर कांपते थे.

हालांकि विनोद उपाध्याय कभी डौन श्रीप्रकाश शुक्ला से मिला नहीं था, लेकिन 1997 में श्रीप्रकाश शुक्ला ने बाहुबली वीरेंद्र प्रताप शाही को लखनऊ में गोलियों से भून डाला, तब विनोद उपाध्याय का कहीं नाम भी नहीं था. श्रीप्रकाश शुक्ला के उस खूनी खेल को देख विनोद को हाथों में बंदूक थामने की सनक सवार हुई और वह गिरोह के सदस्यों से संपर्क में आ गया.

जब श्रीप्रकाश शुक्ला गाजियाबाद में एसटीएफ के हाथों मुठभेड़ में मारा गया था, तब विनोद गिरोह के सदस्यों सत्यव्रत राय और सुजीत चौरसिया के नजदीक आ गया था. उस के दिलोदिमाग पर श्रीप्रकाश शुक्ला के कारनामों की अमिट छाप छप गई और उस के आदर्श का चोला पहन कर अपने जीवन में पूरी तरह से उतार लिया और उस के जैसा डौन बनने का संकल्प ले लिया था.

सत्यव्रत राय की अंगुलियां पकड़ कर विनोद उपाध्याय ने जुर्म की डगर पर चलना शुरू किया था. एक तरह से वह अपराध के विश्वविद्यालय का एक माहिर प्रोफेसर था. अपराध के हर एक दांवपेंच को बखूबी जानता था. अपराध के चक्रव्यूह में प्रवेश करने और उस के सभी द्वारों को सफलतापूर्वक तोड़ कर बाहर निकलने की कला में भी वह माहिर था. विनोद धीरेधीरे सारे गुणों में माहिर हो चुका था.

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