उस के बाद पुलिस ने उसे छोड़ दिया. लेकिन ऐसे ही नहीं. अतीक भेष बदल कर अपने एक साथी के साथ बुलेट से कचहरी पहुंचा. उस ने एक पुराने मामले की जमानत तुड़वा कर आत्मसमर्पण कर दिया और जेल चला गया. उस के जेल जाते ही पुलिस उस पर टूट पड़ी. उस पर एनएसए लगा दिया. इस से लोगों को लगा कि अतीक बरबाद हो गया है.
एक साल बाद वह जेल से बाहर आ गया. उसे कांग्रेसी सांसद का साथ मिल ही रहा था, जिस की वजह से वह जिंदा बचा था. इस बात से अतीक को पता चल गया था कि उसे अब राजनीति ही बचा सकती है. फिर उस ने किया भी यही.
1989 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव होना था. अतीक अहमद ने इलाहाबाद पश्चिमी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में पर्चा भर दिया. सामने उम्मीदवार के रूप में था चांदबाबा. चांदबाबा और अतीक में अब तक कई बार गैंगवार हो चुकी थी.
अपराध जगत में अतीक की तरक्की चांदबाबा को खल रही थी. चांदबाबा के आतंक से छुटकारा पाने के लिए आम लोगोें ने ही नहीं, पुलिस और राजनीतिक पार्टियों ने भी अतीक अहमद का समर्थन किया. परिणामस्वरूप चांदबाबा चुनाव हार गया. इस तरह अतीक अहमद पहली बार विधायक बन गया.
विधायक चुने जाने के कुछ ही महीनों बाद अतीक अहमद ने चांदबाबा की भरे बाजार हत्या करा दी. इस के बाद चांदबाबा के पूरे गैंग का सफाया हो गया. कुछ मारे गए तो कुछ भाग गए. जो बचे वे अतीक के साथ मिल गए.
अब इलाहाबाद पर एकलौते डौन अतीक अहमद का राज हो गया. अतीक अहमद ने अपना एक पूरा गैंग बना लिया. उसे राजनीतिक सपोर्ट भी मिल रहा था. विधायक बनने के बाद तो व्यापारियों का अपहरण, रंगदारी की वसूली, सरकारी ठेके लेना अतीक अहमद का धंधा बन गया.
अतीक अहमद का इलाहाबाद में ऐसा आतंक छा गया था कि इलाहाबाद पश्चिमी सीट से लोग चुनाव में विधायकी का टिकट लेने से खुद ही मना कर देते थे.
राजनीति में आने के बाद ज्यादातर अपराधी धीरेधीरे अपराध करना छोड़ देते हैं, पर अतीक के मामले में इस का उल्टा था. अतीक भले ही नेता बन गया था, लेकिन उस ने अपनी माफिया वाली छवि नहीं बदली.
सफेदपोश बनने के बाद उस के द्वारा किए जाने वाले अपराध और बढ़ गए थे. राजनीति की आड़ में वह अपना आपराधिक साम्राज्य और मजबूत करता रहा. यही वजह है कि उस पर दर्ज होने वाले ज्यादातर आपराधिक मुकदमे विधायक, सांसद रहते हुए ही दर्ज हुए.
वह अपने विरोधियों को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ता था. कोई एक अपराध नहीं था उस का. 1999 में चांदबाबा की हत्या, 2002 में नस्सन की हत्या, 2004 में मुरली मनोहर जोशी के करीबी बताए जाने वाले भाजपा नेता अशरफ की हत्या, 2005 में राजू पाल की हत्या उस के खाते में दर्ज हुईं.
जो भी अतीक के खिलाफ सिर उठाता था, वह मारा जाता था. इलाहाबाद के कसारी मसारी, बेली गांव, चकिया, मरियाडीह और धूमनगंज इलाके में उस की अक्सर गैंगवार होती रहती थी.
विधायक बनने के बाद अतीक ने अपराध करना और बढ़ा दिया था. 1991 और 1993 के विधानसभा के चुनाव में भी अतीक अहमद निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में विधायक चुना गया.
1996 के विधानसभा के चुनाव में मुलायम सिंह ने अतीक अहमद को अपनी समाजवादी पार्टी से टिकट दिया. इस तरह चौथी बार अतीक अहमद समाजवादी पार्टी से फिर विधायक चुना गया.
बाद में किसी वजह से अतीक अहमद के समाजवादी पार्टी से संबंध बिगड़ गए तो 1999 में अतीक अहमद अपना दल में शामिल हो गया. सोनेलाल पटेल द्वारा बनाई गई पार्टी अपना दल में अतीक अहमद 1999 से 2003 तक इलाहाबाद का पार्टी का जिला अध्यक्ष रहा. 1999 में उस ने अपना दल से चुनाव लड़ा, परंतु हार गया. उस के बाद 2003 में फिर एक बार अपना दल के टिकट से अतीक अहमद पांचवीं बार विधायक बना.
विदेशी गाडि़यों और हथियारों का शौक
जिस सांसद ने अतीक पर हाथ रखा था, वह इलाहाबाद के बड़े कारोबारी थे. कहते हैं कि उस समय शहर में सिर्फ उन्हीं के पास निसान और मर्सिडीज जैसी विदेशी गाडि़यां थीं. लेकिन जल्दी ही अतीक को भी इस का चस्का लग गया. विधायक बनने के कुछ ही दिनों बाद उस ने भी विदेशी गाड़ी खरीद ली. जल्दी ही उस का नाम सांसद से भी बड़ा हो गया.
सांसद को यह बात इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने विदेशी गाडि़यां रखनी ही छोड़ दीं. गाडि़यों के बाद नंबर था हथियारों का. इस तरह के आदमी को तो वैसे भी हथियारों की जरूरत होती है. उस ने विदेशी हथियार खरीदने शुरू किए. उस ने विदेशी गाडि़यों का तो पूरा काफिला ही खड़ा कर दिया था. अतीक चकिया तक ही सीमित नहीं रहना चाहता था. इसलिए वह विरोधियों को खत्म कर देता था.
अतीक अहमद का एक रहस्य और भी दिलचस्प है. वह चुनाव के दौरान चंदा किसी को फोन कर के या डराधमका कर नहीं मांगता था. वह शहर के पौश इलाके में बैनर लगवा देता था कि आप का प्रतिनिधि आप से सहयोग की अपेक्षा रखता है. इस के बाद लोग खुद ही अतीक के औफिस में चंदा पहुंचा देते थे.
अगर अतीक को अपने गुर्गों को कोई संदेश देना होता तो वह बाकायदा अखबारों में विज्ञापन निकलवा देता कि क्या करना है और क्या नहीं करना.
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. 2004 में लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई. मुलायम सिंह को बाहुबली नेताओं की जरूरत थी. मुलायम सिंह के कहने पर अतीक अहमद फिर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गया तो इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से सपा ने अतीक अहमद को उम्मीदवार बनाया. अतीक अहमद चुनाव जीत गया और सांसद बन गया.
अतीक अहमद के सांसद बन जाने पर इलाहाबाद पश्चिमी विधानसभा की सीट खाली हो गई. इस पर अतीक अहमद ने अपने भाई अशरफ को चुनाव लड़ाया. अशरफ के सामने एक समय अतीक अहमद का ही दाहिना हाथ रहे राजू पाल को बहुजन समाज पार्टी ने उम्मीदवार बनाया. उस समय राजू पाल पर 25 मुकदमे दर्ज थे. इस चुनाव में अतीक का भाई अशरफ 4 हजार वोटों से चुनाव हार गया और राजू पाल चुनाव जीत गया.
राजू पाल की यह जीत अतीक अहमद से हजम नहीं हुई और परिणाम आने के महीने भर बाद यानी नवंबर, 2004 में राजू पाल के औफिस के पास बमबाजी और फायरिंग हुई. दिसंबर में उस की गाड़ी पर फायरिंग हुई. पर इन दोनों हमलों मे वह बच गया.
25 जनवरी, 2005 को राजू पाल की कार पर एक बार फिर हमला हुआ. इस में राजू पाल को कई गोलियां लगीं. हमलावर फरार हो गए. गोलीबारी में घायल राजू पाल के साथी उसे टैंपो से अस्पताल ले जा रहे थे तो हमलावरों को लगा कि राजू पाल अभी जिंदा है तो उस पर दोबारा हमला किया गया. इस बार उस पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गईं. जब तक राजू जीवनज्योति अस्पताल पहुंचता, उस की मौत हो चुकी थी. उसे 19 गोलियां लगी थीं.
इस हत्या का एक कारुणिक पहलू यह था कि हत्या के 9 दिन पहले ही राजू पाल की शादी हुई थी. उस की पत्नी पूजा पाल ने अतीक, उस के भाई अशरफ, फरहान और आबिद समेत कई लोगों पर नामजद हत्या का मुकदमा दर्ज कराया.