शशिकला उर्फ बेबी पाटणकर : ड्रग सामाज्य की मल्लिकाशार्ट स्टोरी – भाग 2

सौरव टूर्स एंड ट्रैवल्स के नाम से बेबी पाटणकर का एक चालू खाता था. मुंबई की वर्ली पुलिस ने 30 दिसंबर, 2014 को बेबी की बहू सारिका और उस के भतीजे को 24 ग्राम मेफेड्रोन के साथ गिरफ्तार करने के बाद इस खाते से लगभग 37 लाख रुपए जब्त किए थे. उस मामले में बेबी पाटणकर वांछित थी.

उन दिनों मुंबई क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी ने कहा था, ‘यह स्पष्ट है कि बेबी के खातों में पाया गया पैसा ड्रग्स से कमाया गया है, क्योंकि चारपहिया वाहनों को किराए पर देने के धंधे से इतना मुनाफा कमाना संभव नहीं है.’

बेबी पाटणकर मुंबई वर्ली के सिद्धार्थ नगर झुग्गियों में 4 कमरों के घर में बेटों सतीश और गिरीश, बहुओं और पोतेपोतियों के साथ रहती थी. उस के 5 भाई हैं- अर्जुन, किशन, भरत, वसंत और शत्रुघ्न उर्फ बादशाह पीर खान. जबकि भरत और वसंत अब नहीं रहे, किशन कल्याण जेल में एक हत्या के मामले में बंद है जिस के लिए अर्जुन और शत्रुघ्न ने जेल की सजा काट ली है.

मुंबई के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त (क्राइम ब्रांच) धनंजय कुलकर्णी ने कहा कि बेबी पाटणकर के धर्मराज  कालोखे के साथ नाजायज रिश्ते  थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों से (उन दिनों) उन के संबंधों में खटास आ गई थी.

मुंबई नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो यानी एनसीबी ने सुशांत सिंह राजपूत केस में रिया चक्रवर्ती को गिरफ्तार किया, उसी का डीआईजी साजी मोहन कभी ड्रग्स का बड़ा कारोबारी था. अभी वह 12 साल से जेल की सजा काट रहा है. और जिस मुंबई पुलिस ने कंगना रनौत के कथित ड्रग कनेक्शन की जांच शुरू की है, उस का ट्रैक रिकौर्ड समझना हो तो हमें बेबी पाटणकर के बारे में जानना होगा.

5 साल पहले जब बेबी पकड़ी गई तो उस केस में पहले ही कई पुलिस वाले पकड़े जा चुके थे. कई अफसरों की नौकरी से छुट्टी हो गई थी. यह देश का शायद पहला मामला था, जब पुलिस स्टेशन में बने लौकर से ड्रग्स बरामद की गई थी. बेबी के दोस्त और कांस्टेबल धर्मराज कालोखे ने इसे अपने लौकर में रखा था.

बेबी यानी शशिकला पाटणकर का बचपन मुंबई के वर्ली, कोलीवाडा में बीता. इस इलाके में मारिया नाम का एक चर्चित गुंडा रहता था. किसी बात पर बेबी के भाइयों का उस से झगड़ा हुआ और उन्होंने मारिया का कत्ल कर दिया. इस केस में चारों भाइयों को जेल हो गई.

भाइयों की गिरफ्तारी के 2 महीने के अंतराल में बेबी की मां केशरबाई और पिता पांडुरंग माझगांवकर की मौत हो गई.

तब बेबी 6 साल की थी. ऐसी हालत में उस ने घरघर जा कर काम करना शुरू कर दिया, जबकि उस के एक और भाई अर्जुन ने किसी गैराज में नौकरी कर ली. मारिया के मर्डर में अर्जुन गिरफ्तार नहीं हुआ था. दोनों की रोजमर्रा का जीवनबसर बस किसी तरह चल रहा था.

15 साल की उम्र में बेबी की शादी वर्ली कोलीवाडा के ही रमेश पाटणकर से हो गई. वह शराबी था. लेकिन 1991 में रमेश को दिल का दौरा पड़ा जिस से उस की मौत हो गई. इस के बाद बेबी ने 5 साल तक मुंबई की मशहूर साधना मिल में काम किया. बाद में वह मिल भी बंद हो गई.

अयूब से सीखा ड्रग्स का धंधा

बेबी फिर से घरों में काम करने लगी. इसी बीच उस के भाइयों की मारिया मर्डर केस में सजा पूरी हो गई और वे जेल से छूट कर वापस आ गए. इस के बाद उस के एक भाई भरत ने अच्छा जीवन जीने का फैसला कर अपने इलाके की ही भारती से शादी कर ली और वर्ली के सिद्धार्थनगर इलाके में रहने लगा. तब बेबी भी उस के बगल वाले घर में रहने लगी. भरत और भारती के घर में भारती का भाई बल्लू भी रहता था, जो ड्रग्स ले कर नशे का आदी हो चुका था. वह पड़ोसी अयूब से ड्रग खरीदता था.

साल 1996 में जब एक दिन बेबी अपने भाई के घर पर थी, तब उस के घर में चोरी हो गई. इस की उस ने वर्ली थाने में एफआईआर दर्ज करवाई. कुछ देर बाद उस के घर वर्ली पुलिस थाने  की टीम पहुंची. इस में कांस्टेबल धर्मराज कालोखे भी था. चोरी के बहाने बेबी के घर हुई मुलाकात में धर्मराज की बेबी से हद से कुछ ज्यादा नजदीकियां बढ़ीं.

बेबी भी अयूब के साथ ड्रग बेचने लगी. तब बल्लू को भी ड्रग्स की अपनी तलब पूरी करने में किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं हुई. अयूब को जब मुंबई से बाहर जाना होता था तो वह ड्रग्स बेबी के घर में रख देता था. तब बेबी ही उसे बेचती थी.

अयूब की साल 1997 में ब्लड प्रेशर बढ़ने से मौत हो गई. अयूब का बचा माल बेबी ने बेचा और फिर उस की मां से यह पता किया कि वह ड्रग्स कहां से मंगाता था.

इस के बाद बेबी अपनी भाभी भारती और उस के भाई बल्लू के साथ वर्ली में ड्रग्स का धंधा करने लगी. वर्ली पुलिस स्टेशन के नजदीक एंटी नार्कोटिक्स सेल की यूनिट भी है. जब वहां के कुछ सिपाहियों को बेबी के कारोबार का पता चला तो उन्होंने बेबी से अपना हफ्ता तय कर लिया.

पुलिस वालों और बेबी के रिश्तों का यह मामला कई सालों तक छिपा रहा. पर 9 मार्च, 2015 को महाराष्ट्र के सातारा पुलिस ने खंडाला में मुंबई के मरीन लाइंस के पुलिसकर्मी धर्मराज कालोखे के ठिकाने पर छापा मारा तो वहां से 110 किलोग्राम ड्रग मिली.

अगले दिन धर्मराज के मरीन लाइंस पुलिस स्टेशन में उस के लौकर से भी 12 किलोग्राम ड्रग्स बरामद हुई तब धर्मराज कालोखे धरा गया, लेकिन पुलिस स्टेशन के अंदर ड्रग्स मिलने से पूरे देश में हंगामा मच गया.

उस तहकीकात में धर्मराज ने बेबी पाटणकर का नाम लिया, लेकिन कई दिन तक बेबी किसी को मिली नहीं. हां, बेबी की फोन मीडिया में आने पर सब उसे पहचान जरूर गए थे.

पप्पू स्मार्ट : मोची से बना खौफनाक गैंगस्टर – भाग 2

गिरोह बनाने के बाद पप्पू स्मार्ट एवं उस के भाइयों ने जाजमऊ, हरजेंद्र नगर, कानपुर देहात व अन्य क्षेत्रों में दरजनों की संख्या में अवैध संपत्तियों पर कब्जा कर बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया और अकूत संपदा अर्जित कर ली.

पप्पू स्मार्ट गिरोह के सदस्य जमीन कब्जाने के लिए पहले मानमनौती करते. न मानने पर जान से मारने की धमकी देते फिर भी न माने तो मौत के घाट उतार देते. पप्पू रंगदारी भी वसूलता था तथा धोखाधड़ी भी करता था. आपराधिक गतिविधियों से उस ने करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली थी. इस तरह वह जरायम का बादशाह बन गया था.

बेच डाला राजा ययाति का किला

पप्पू स्मार्ट व उस का गिरोह आम लोगों को ही प्रताडि़त नहीं करता था, बल्कि सरकारी संपत्तियों पर भी कब्जा करता था. तमाम सरकारी संपत्तियों को उस ने धोेखाधड़ी कर बेच दिया था. इसलिए उसे भूमाफिया भी घोषित कर दिया गया था.

पप्पू स्मार्ट ने सब से बड़ा कारनामा किया राजा ययाति के किले पर कब्जा करने का. दरअसल, जाजमऊ क्षेत्र में गंगा किनारे महाभारत कालीन राजा ययाति का किला है जो खंडहर में तब्दील हो गया है.

यह किला राज्य पुरातत्त्व विभाग की संपत्ति है. इस की देखरेख कानपुर विकास प्राधिकरण करता है. लेकिन इस किले को अपना बता कर पप्पू स्मार्ट ने कब्जा कर लिया और एक बड़े भूभाग को बेच कर बस्ती बसा दी.

एडवोेकेट संदीप शुक्ला की शिकायत पर आईजी आलोक सिंह एवं तत्कालीन एसपी अनुराग आर्य ने पप्पू स्मार्ट के खिलाफ चकेरी थाने में मुकदमा दर्ज कराया और गैंगस्टर एक्ट के तहत काररवाई की तथा उस की तमाम संपत्तियों को सीज भी किया.

राजनीतिक संरक्षण भी आया काम

पप्पू स्मार्ट जानता था कि पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों पर रौब गांठना है तो राजनीतिक चोला ओढ़ना जरूरी है, अत: उस ने सोचीसमझी रणनीति के तहत समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और पार्टी का सदस्य बन गया.

सपा के जनप्रतिनिधियों से उस ने दोस्ती कर ली और उन का खास बन गया. सपा शासन काल में उस की तूती बोलने लगी. पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों में उस ने पैठ बना ली. अपने रौब के बल पर ही पप्पू स्मार्ट ने एक डबल बैरल बंदूक व एक रिवौल्वर का लाइसेंस हासिल कर लिया.

यही नहीं, उस ने अपने भाइयों तौफीक उर्फ कक्कू व आमिर उर्फ बिच्छू को भी रिवौल्वर का लाइसेंस दिलवा दिया.

हालांकि चकेरी थाने में पुलिस ने तीनों भाइयों की हिस्ट्रीशीट खोल रखी थी. उन की हिस्ट्रीशीट में बताया गया था कि गिरोह के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, जबरन वसूली, मारपीट, जान से मारने की धमकी, जमीनों पर कब्जे, गुंडा एक्ट तथा गैंगस्टर एक्ट के मामले दर्ज है.

पप्पू स्मार्ट का घनिष्ठ संबंध कुख्यात अपराधी वसीम उर्फ बंटा से था. वह फरजी आधार कार्ड व अन्य कागजात तैयार करता था. पप्पू स्मार्ट भी उस से कागजात तैयार करवाता था. उस के फरजी कागजातों से लोग पासपोर्ट बनवा कर विदेश तक का सफर करते थे. यूपी एसटीएफ की वह रडार पर था.

काफी मशक्कत के बाद एसटीएफ कानपुर इकाई ने उसे रेलबाजार के अन्नपूर्णा गेस्टहाउस से धर दबोचा. उस के साथ उस का भाई नईम भी पकड़ा गया. उस के पास से भारी मात्रा में सामान बरामद हुआ. सऊदी अरब मुद्रा रियाल तथा 6780 रुपए बरामद हुए.

एसटीएफ ने उसे जेल भेज दिया, तब से वह जेल में है. इस मामले में पप्पू स्मार्ट का नाम भी आया था. लेकिन राजनीतिक पहुंच के चलते वह बच गया.

बसपा नेता और हिस्ट्रीशीटर पिंटू सेंगर से हुई दोस्ती

पप्पू स्मार्ट का एक जिगरी दोस्त था नरेंद्र सिंह उर्फ पिंटू सेंगर. वह मूलरूप से कानपुर देहात जनपद  के गोगूमऊ गांव का रहने वाला था. लेकिन पिंटू सेंगर अपने परिवार के साथ कानपुर के चकेरी क्षेत्र के मंगला बिहार में रहता था.

वह बसपा नेता, भूमाफिया व हिस्ट्रीशीटर था. उस के पिता सोने सिंह गोगूमऊ गांव के प्रधान थे और मां शांति देवी गजनेर की कटेठी से जिला पंचायत सदस्य थी.

पिंटू सेंगर जनता के बीच तब चर्चा में आया, जब उस ने पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा सुप्रीमो मायावती को उन के जन्मदिन पर उपहार स्वरूप चांद पर जमीन देने की पेशकश की थी.

कानपुर की छावनी सीट से उस ने बसपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गया था. बसपा शासन काल में उस की तूती बोलती थी. वह अपनी हैसियत विधायक से कम नहीं आंकता था.

राजनीतिक संरक्षण के चलते ही पिंटू सेंगर ने जमीन कब्जा कर करोड़ों रुपया कमाया. उस के खिलाफ चकेरी थाने में कई मुकदमे दर्ज हुए और उस का नाम भूमाफिया की सूची में भी दर्ज हुआ.

चूंकि पिंटू सेंगर व पप्पू स्मार्ट एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. दोनों ही भूमाफिया और हिस्ट्रीशीटर थे, अत: दोनों में खूब पटती थी. जमीन हथियाने में दोनों एकदूसरे का साथ देते थे. जबरन वसूली, रंगदारी में भी वे साथ रहते थे.

पप्पू स्मार्ट को सपा का संरक्षण प्राप्त था, जबकि पिंटू सेंगर को बसपा का. दोनों अपनी अपनी पार्टी के कार्यक्रमों में हिस्सा ले कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे.

लेकिन एक दिन यह दोस्ती जमीन के एक टुकड़े को ले कर कट्टर दुश्मनी में बदल गई. दरअसल, रूमा में नितेश कनौजिया की 5 बीघा जमीन थी. यह जमीन नितेश ने जाजमऊ के प्रौपर्टी डीलर मनोज गुप्ता को बेच दी.

इस की जानकारी पिंटू सेंगर को हुई तो उस ने नितेश को धमकाया और पुन: जमीन बेचने की बात कही. दबाव में आ कर बाद में नितेश ने वह जमीन एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति के नाम कर दी.

सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा : अंडरवर्ल्ड डौन का भी महागुरु – भाग 2

सुभाष कुछ ही महीनों में मायानगरी के बारे में समझ गया था कि अगर यहां रहना है तो दब कर नहीं, बल्कि लोगों को दबा कर रहना होगा. मुंबई में यूं तो बड़ी संख्या में पूर्वांचल के लोग रहते थे, लेकिन उन का कोई माईबाप नहीं था. पूर्वांचल के कुछ लोग दबंगई भी करते थे, लेकिन मजबूरी में उन्हें भी लोकल मराठी गुंडों के लिए ही काम करना होता था.

सुभाष के पास ताकत भी थी और हिम्मत भी और साथ में लीडरशिप वाले गुण भी थे. इसलिए उस ने आए दिन होने वाले पुलिस के उत्पीड़न से बचने के लिए पूर्वांचल के ऐसे नौजवान लड़कों का गुट बनाना शुरू कर दिया, जो दिलेर थे और उन के सपने बडे़ थे.

सुभाष की मेहनत रंग लाई. उस ने 20-25 ऐसे नौजवानों का गुट बना लिया जो उस के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थे. इस के बाद सुभाष ने पहले वसई और विरार इलाके में सक्रिय मराठी गुंडों के खिलाफ लड़ना शुरू किया, जो लोकल मार्केट में उगाही करते थे. सुभाष ठाकुर ने उन दुकानदारों से पहले हफ्ता वसूली शुरू की, जिन से पहले मराठी गुंडे वसूली करते थे.

मुंबई उन दिनों तेजी से आबाद हो रही थी. बड़ीबड़ी इमारतें बन रही थीं. बिल्डिंग बनाने और प्रौपर्टी के धंधे में बड़ा मुनाफा था. लेकिन जमीन से जुड़े विवाद के कारण बिल्डरों को सब से ज्यादा नेता, पुलिस और गुंडों की मदद लेनी पड़ती थी.

सुभाष ठाकुर ने वसूली की रकम से होने वाली कमाई से कुछ हथियार खरीद कर अपने लड़कों को दिए, जिस के बूते वे बिल्डरों के पास जा कर प्रोटेक्शन मनी की मांग करने लगे. एकडेढ़ साल के बाद ही पूरे वसई और विरार में सुभाष ठाकुर को ठाकुरजी के नाम से पुकारा जाने लगा. वह महंगी गाडि़यों में घूमने लगा. और कई दरजन पूर्वांचल के नौजवान उस के गिरोह में शामिल हो गए.

सुभाष ठाकुर बिल्डरों से सहीसलामत बिना रुकावट काम करने के बदले मोटी रकम वसूल करने लगा. दूसरा गुट कोई परेशानी पैदा न करे, इस की वो गारंटी देता था. जमीन से जुड़ा कोई भी लफड़ा हो, ठाकुर गिरोह बिल्डरों की तमाम परेशानियां दूर करने लगा.

देखते ही देखते अस्सी का दशक पूरा होतेहोते सुभाष ठाकुर पूरे मुंबई शहर का एक ऐसा नाम बन गया, जिस के कारनामों से उन दिनों के मुंबई के डौन हाजी मस्तान, वरदाराज और करीम लाला भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

ये वो दौर था, जब मुंबई में 2 नाम अपराध की दुनिया में तेजी के साथ उभर रहे थे और वे दोनों बड़ा गैंगस्टर बनने के लिए अपने हाथपांव मार रहे थे. इन में एक था मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच के एक कांस्टेबल का बेटा दाऊद इब्राहिम कासकर और दूसरा था सदाशिव निखलजे यानी छोटा राजन.

ये दोनों ही इलाकाई मराठी दंबगों के लिए छोटेमोटे अपराध करते थे. लेकिन उन्हें लगा कि बड़ा काम करना है और संगठित तरीके से अपराध करना है तो सुभाष ठाकुर का साथ मिलना जरूरी है. लिहाजा उन दोनों ने ही सुभाष ठाकुर का दामन थाम लिया.

सुभाष ठाकुर को भी भरोसे के कुछ ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो लोकल मराठी हों. लिहाजा सुभाष ने दोनों को अपने गैंग में जगह दे दी. तीनों के अपनेअपने काम थे. कोई किसी के काम में हस्तक्षेप नहीं करता था. जरूरत होती तो तीनों एक साथ हो जाते. इसी तालमेल के कारण जल्द ही तीनों के संबध गहरे हो गए.

दाऊद ने बनाया सुभाष ठाकुर को गुरु

जुर्म की काली दुनिया में सुभाष ठाकुर का नाम तेजी से मशहूर हो रहा था. उस के नाम की दहशत भी मुंबई में नजर आने लगी थी. बाबा का नाम मुंबई अंडरवर्ल्ड में छाने लगा था. वह वहां के बिल्डरों और बड़े कारोबारियों पर शिकंजा कसता जा रहा था. एक वक्त था जब उस का कारोबार यूपी से ले कर मुंबई तक फैला हुआ था.

वैसे तो दाऊद का असल काम सोने और विदेशों से आने वाले दूसरे सामानों की स्मगलिंग का था. लेकिन हत्या, अपहरण व बिल्डरों, फाइनैंसरों से वसूली करने के गुर उस ने सुभाष ठाकुर के गैंग में शामिल होने के बाद सीखे थे. इस के बाद ही वह मुंबई का डौन बना था.

नब्बे का दशक आतेआते सुभाष ठाकुर से मिली ताकत के बल पर दाऊद इब्राहिम इतना ताकतवर हो गया और उस के खाते में इतने बड़ेबड़े गुनाह दर्ज हो गए कि पुलिस एनकाउंटर के डर से उसे मुंबई छोड़ कर दुबई में शरण लेनी पड़ी.

लेकिन तब तक मुंबई में उस ने अपराध का साम्राज्य इतना विकसित कर लिया था कि यहां का धंधा देखने के लिए उस ने छोटा राजन को कमान सौंप दी. छोटा राजन और दाऊद भले ही बड़े डौन बन चुके थे, लेकिन सुभाष ठाकुर उन के लिए तब भी बड़े भाई जैसा ही था.

उन दिनों मुंबई में एक दूसरा डौन भी तेजी से उभर रहा था. दगड़ी चाल में रहने वाला अरुण गवली उन दिनों लोकल मराठी गुंडों का तेजी से उभरता हुआ बौस था.

यूं तो मुंबई अपराध जगत में उन दिनों कई गैंगस्टर सक्रिय थे, लेकिन गवली और दाऊद का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि गवली जहां लोकल मराठी लोगों का गैंग चलाने वाले हिंदू डौन था तो दाऊद के गैंग में उन दिनों ज्यादातर मुसलिम और पठान जाति के गुंडों की भरमार थी. इसीलिए दाऊद के गिरोह से अकसर गवली गिरोह की टकराहट होती रहती थी.

लेकिन बाद के दिनों में जब दाऊद दुबई चला गया तो ये टकराहट दुश्मनी में बदल गई. इस दुश्मनी के बीच अरुण गवली के भाई पापा गवली की उस के दुश्मन ने हत्या कर दी.

आरोप लगा कि गवली के भाई को दाऊद ने मरवाया है. बस फिर क्या था, अरुण गवली ने अपने भाई पापा गवली की हत्या का बदला लेने के लिए दाऊद की कमर तोड़ने की कसम खा ली. उस ने अपने 4 शूटरों को इस काम पर लगा दिया. जिन्हें टारगेट दिया गया था दाऊद के बहनोई इब्राहिम पारकर को खत्म करने का.

मौके का इंतजार किया जाने लगा. आखिरकार 20 साल पहले 26 जुलाई, 1992 को नागपाड़ा में गैंगस्टर अरुण गवली के 4 शूटरों ने दाऊद इब्राहिम के बहनोई इब्राहिम पारकर की हत्या कर दी थी. इस हत्याकांड ने दाऊद को झकझोर कर रख दिया था क्योंकि दाऊद की बहन हसीना उस की सब से करीबी मानी जाती थी.

इब्राहिम पारकर की हत्या को गवली के 5 शूटरों शैलेश हलदनकर, बिपिन शेरे, राजू बटाटा, संतोष पाटील और दयानंद पुजारी ने अंजाम दिया था. जो वारदात के बाद मौके से फरार हो गए थे.

दाऊद अपने बहनोई के कत्ल को भूला नहीं और उस ने इब्राहिम की हत्या में शामिल शूटरों को सबक सिखाने का फैसला किया. पुलिस तब तक एक हत्यारे दयानंद पुजारी को गिरफ्तार कर जेल भेज चुकी थी.

छोटा राजन ने संभाला दाऊद का कारोबार

करीब एक महीने बाद इन में से 2, शैलेश हलदनकर और विपिन शेरे किसी विवाद में पब्लिक के हाथ लग गए. लोगों ने इन्हें मारा. जिस से वे घायल हो गए. पुलिस ने उन्हें इलाज के लिए जेजे अस्पताल में भरती करा दिया था.

दाऊद के दुबई में शिफ्ट होने के बाद छोटा राजन के साथ उस का बहनोई इब्राहिम पारकर मुंबई में दाऊद का कारोबार देखता था. बहनोई की मौत धंधे के साथ पारिवारिक रूप से भी दाऊद के लिए बड़ा झटका थी.

पति की मौत के बाद हसीना पारकर ने मुंबई में उस का कारोबार संभाल लिया. जल्द ही मुंबई के अपराध जगत में उस के नाम का भी सिक्का चलने लगा.

जैसे ही दाऊद को इब्राहिम के कातिलों के जेजे अस्पताल में भरती होने की सूचना मिली, उस ने उसी वक्त दोनों कातिलों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया. क्योंकि दाऊद को पता था कि अगर उस ने कातिलों पर वार नहीं किया तो मुंबई में उस के अपराध का साम्राज्य छिन्नभिन्न हो जाएगा.

लिहाजा दाऊद ने मुंबई में अपने सेनापति छोटा राजन से कहा कि गवली के दोनों शूटरों को पुलिस कस्टडी में ही अस्पताल में खत्म करना है.

काम थोड़ा मुश्किल जरूर था लेकिन नामुमकिन नहीं. क्योंकि राजन जानता था जब तक भाई सुभाष ठाकुर का साथ उस के साथ है, तब तक कोई काम नामुमकिन नहीं. लिहाजा उस ने सुभाष ठाकुर से दाऊद के बहनोई की हत्या का बदला लेने के लिए बात की और अपना साथ देने के लिए तैयार भी कर लिया.

संयोग से अरुण गवली से सुभाष ठाकुर के संबंध भी ठीक नहीं थे, लिहाजा ठाकुर ने राजन को साथ देने का वायदा कर दिया. ये उन दिनों की बात है जब यूपी का रहने वाला बृजेश सिंह हत्या की कुछ वारदातों को अंजाम देने के बाद पुलिस के डर से मुंबई भाग गया था और सुभाष ठाकुर की शरण में रह कर छोटेमोटे अपराध कर रहा था.

छोटा राजन ने मांगा सुभाष ठाकुर से सहयोग

छोटा राजन के अनुरोध पर सुभाष ठाकुर ने गवली के दोनों शूटरों को अस्पताल में खत्म करने की जो प्लानिंग तैयार की, वो एकदम फिल्मी पटकथा जैसी थी.

अगर यह कहें तो गलत न होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड में दाऊद के इशारे पर गवली गिरोह के शूटरों की पुलिस हिरासत में की गई हत्या अंडरवर्ल्ड में पहली गैंगवार थी, जिस के बाद मुंबई की सड़कों पर गिरोहबाजी का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ था, जिस के दौरान मुंबई की सड़कें खून से लाल हो गई थीं.

दुनिया का सिरदर्द बने भगोड़े अपराधी

आधुनिक संचार साधनों और तेज रफ्तार हवाई यातायात के साधनों के चलते दुनिया आज एक वैश्विक गांव में तबदील हो गई है. इस के बावजूद व्यावहारिक धरातल पर आज भी दुनिया का विस्तृत भूगोल माने रखता है. खासकर बात अगर अपराध और अपराधियों के संदर्भ में हो. आज भी बड़ी तादाद में शातिर अपराधी देश के एक इलाके में अपराध कर के उसी देश के दूसरे इलाके या दूसरे देश में भाग जाते हैं.

इस तरह वे स्थानीय कानून या व्यवस्था सुनिश्चित करने वाली एजेंसियों के लिए खासा सिरदर्द बन जाते हैं. हैरानी की बात यह है कि इस मामले में हर देश पीडि़त है, चाहे वह अमेरिका जैसा ताकतवर देश हो या चीन जैसा कट्टरपंथी. भगोड़े अपराधी सभी देशों के सिरदर्द बने हुए हैं.

अंगरेजी के शब्द ‘फ्यूजिटिव’ का हिंदी में मतलब है फरार या भगोड़ा. यह शब्द उन लोगों का परिचय देने में इस्तेमाल होता है जो अपराध करने के बाद कानून की या तो गिरफ्त में नहीं आते, जैसे कि भारत के लिए मोस्ट वांटेड दाऊद इब्राहिम कासकर या गिरफ्त में ले लिए जाने के बाद मौका मिलते ही चकमा दे कर फरार हो जाते हैं, जैसे कुछ महीनों पहले थाईलैंड में पकड़ा गया बेअंत सिंह का हत्यारा जगतार सिंह तारा. 

गौरतलब है कि जगतार उन 6 सिख आतंकवादियों में से एक है जिन्हें 1995 में चंडीगढ़ में, पंजाब सचिवालय के बाहर हुए विस्फोट का दोषी ठहराया गया था. इस विस्फोट में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सहित 18 अन्य लोग मारे गए थे. बब्बर खालसा का सक्रिय सदस्य जगतार खालिस्तान टाइगर फोर्स यानी केटीएफ का स्वयंभू चीफ था.

वह बेअंत हत्याकांड के मामले में चंडीगढ़ की बुरैल जेल में सजा काट रहा था. लेकिन 2004 में वह अपने 2 साथियों–परमजीत सिंह भ्योरा और जगतार सिंह हवारा के साथ 90 फुट लंबी सुरंग बना कर सनसनीखेज तरीके से जेल से भाग निकला था. इसी दौरान कुछ और आतंकी फरार हो गए थे जिन में प्रमुख थे खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का मुखिया हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटू और उस का सहयोगी गुरप्रीत सिंह उर्फ गोपी, जिन्हें नवंबर 2004 में थाईलैंड में ही दबोच लिया गया था.

जबकि केटीएफ के एक और भगोड़े रमनदीप सिंह उर्फ गोल्डी को मलयेशिया से नवंबर 2014 में गिरफ्तार किया गया. सिर्फ जगतार ही था जिस को तब गिरफ्तार नहीं किया जा सका था. इसलिए अदालत द्वारा उसे भगोड़ा घोषित कर के उस के खिलाफ रेड कौर्नर नोटिस निकलवा दिया गया. मतलब यह कि अब उसे पकड़ने की जिम्मेदारी उन तमाम देशों की भी हो गई जो कि इंटरपोल के सदस्य हैं और इस की संधि से बंधे हुए हैं. इसी के चलते उसे हाल में थाईलैंड से गिरफ्तार किया जा सका.

यह कहानी महज एक भगोड़े की है. जबकि हकीकत यह है कि देश में हजारों की तादाद में भगोड़े हैं, जिन में मुट्ठीभर भगोड़े विदेश भी भाग चुके हैं और 99 प्रतिशत से ज्यादा भगोड़े देश के अंदर ही कानून के लंबे हाथों और उस की गहरी निगाहों को चकमा दे कर मौजूद हैं. वैसे तो गृह मंत्रालय के पास बिलकुल अपडेट आंकड़े नहीं हैं लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, देश में 5 हजार से ज्यादा भगोड़े हैं. 

हैरानी की बात यह है कि देश में जिस जेल से सब से ज्यादा अपराधी फरार हुए हैं, वह कोई बिहार या छत्तीसगढ़ की जेल नहीं है बल्कि देश की सब से कड़ी सुरक्षा व्यवस्था वाली राजधानी दिल्ली की तिहाड़ जेल है. तिहाड़ जेल प्रशासन द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 15 सालों में यहां से 915 अपराधी फरार हो चुके हैं.

लगभग हर छठे दिन एक या कहें हफ्ते में एक से ज्यादा. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितने भगोड़े होंगे. वास्तव में जेलों से भागे ज्यादातर भगोड़े वे हैं, जिन्हें उम्रकैद की सजा मिली थी. ये जब बेल या पेरोल पर जेल से बाहर निकले तो फिर कभी वापस लौट कर जेल नहीं पहुंचे. एक बार वहां से निकले तो फिर निकल ही गए.

मगर कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो फिल्मी स्टाइल में तिहाड़ जेल प्रशासन को चकमा दे कर फरार हुए हैं, जैसे फूलन देवी की हत्या करने वाला शमशेर सिंह राणा. सवाल यह है कोई आखिर भगोड़ा क्यों हो जाता है? वास्तव में अपराधी गुनाह की सजा से बचना चाहते हैं. इस के लिए वे धनबलछल सब का सहारा लेते हैं. ज्यादातर फरार अपराधी वे हैं जिन के सिर पर हत्या, हत्या की कोशिश और अपहरण जैसे संगीन इल्जाम हैं और इन जुर्मों के लिए उन्हें उम्रकैद की सजा मिली थी.

यह सजा उन्हें पूरी उम्र भुगतनी पड़ती, जो उन्हें मंजूर नहीं था. इसलिए ये कोई जतन निकाल, भाग खड़े हुए और अब वे गायब हैं यानी किसी और पहचान के साथ जिंदा हैं, किसी और अपराध को अंजाम देते हुए या कोई और गहरी साजिश रचते हुए.

साल 2013 में आईपीएल मैचों की चकाचौंध के बीच स्पौट फिक्सिंग का मामला सामने आया. मुख्यरूप से आरोपी बनाया गया अंडरवर्ल्ड डौन दाऊद इब्राहिम को, साथ ही उस का दाहिना हाथ समझा जाने वाला छोटा शकील और कुछ दूसरे सट्टेबाजों को भी आरोपी बनाया गया. चूंकि दिल्ली पुलिस इन्हें अदालत में नहीं पेश कर सकी, इसलिए पटियाला हाउस स्थित एक अदालत ने इन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया.

साथ ही इन आरोपियों की संपत्ति जब्त करने की नए सिरे से प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश भी दिया गया. मगर देखा जाए तो यह सब खानापूर्ति भर ही था क्योंकि इन में से प्रमुख गुनाहगारों (दाऊद और छोटा शकील) की संपत्ति पहले ही 1993 के मुंबई बम विस्फोट मामले में कुर्क की जा चुकी है. ये तब से ही फरार हैं या कहिए भगोड़े घोषित हैं. दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने स्पौट फिक्सिंग के इस मामले में अदालत में 6 हजार पृष्ठों का आरोपपत्र दायर किया था.

इस में दाऊद इब्राहिम, उस के सहयोगी छोटा शकील के अलावा क्रिकेटर एस श्रीसंत, राजस्थान रौयल्स के अंकित चव्हाण, अजीत चंदीला सहित पाक में रह रहे जावेद चुटानी, सलमान उर्फ मास्टर और एहतेशाम आदि के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किए गए.

यहां तक कि दिल्ली पुलिस ने आरोपपत्र में दाऊद इब्राहिम की सीएफएसएल लैब द्वारा आवाज की पहचान से संबंधित एक रिपोर्ट भी शामिल की थी जिस के चलते विशेष जज नीना बंसल ने दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील व चंडीगढ़ निवासी संदीप शर्मा को भगोड़ा घोषित किया. मगर नतीजे के रूप में हाथ कुछ नहीं लगा. मुख्य आरोपी यानी सरगना दाऊद और उस के साथी अंतर्राष्ट्रीय भगोड़े हैं.

भारत ने कई बार उन मोस्ट वांटेड अपराधियों की लिस्ट बनाई है जो भारत से फरार हैं. इन सभी फेहरिस्तों में हमेशा दाऊद पहले नंबर पर रहा है. ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि दाऊद सिर्फ भारतीय पुलिस और खुफियातंत्र के लिए ही सिरदर्द नहीं है बल्कि दुनिया के स्तर पर भी ऐसा ही है.

कैसे फरार हो जाते हैं कैदी?

इन सवालों का जवाब ढूंढ़ते हुए इस संबंध में एक कैदी की अपील की सुनवाई के दौरान एक अजीब सा सच सामने आया. आखिर जेल से ऊंची अदालत में अपील के आधार पर बेल या पेरोल पर छूटा सजायाफ्ता मुजरिम फिर जेल वापस पहुंचे, यह सुनिश्चित करना आखिरकार किस की जिम्मेदारी है? अगर वह कोर्ट की अगली तारीख पर हाजिर नहीं होता तो उस के लिए जवाबदेह कौन है? पुलिस या फिर जेल प्रशासन? मगर रुकिए, कोई जवाबदेह तो तब होगा जब इन कैदियों की हर जानकारी या रिकौर्ड कोई एक संस्था रखेगी और वक्तवक्त पर उन की जांच करेगी.

दिल्ली हाईकोर्ट भी तब शायद हैरान रह गया था जब उस ने तिहाड़ जेल से ऐसे कैदियों की लिस्ट मंगवाई जिन को उम्रकैद दिए जाने के बाद अपील के आधार पर बेल मिली हो. पता है, इस मांग पर क्या हुआ? तिहाड़ में हड़कंप मच गया, धूल फांकती पीली पड़ चुकी पुरानी फाइलें पलटी गईं और तब जोड़जोड़ कर जुटाए गए 729 नाम. लेकिन आफत तो अभी शुरू हुई थी. हाईकोर्ट ने पुलिस से कहा, कैदियों की तलाश कीजिए वे कहां गए? अब मरता क्या न करता. दिल्ली पुलिस ने हर एक थाने को जिम्मा सौंपा, तलाश के लिए विशेष टीमें बनाई गईं.

काफी पसीना बहाने पर भी सिर्फ 10 फीसदी ही कैदी मिल सके जो रिकौर्ड में दर्ज पतों पर मिले. तब हाईकोर्ट का एक और फरमान आया, ‘ऐड्रेस पू्रफ लाओ?’ ऐड्रेस पू्रफ तो तब मिलते जब लापता कैदी पकड़ में आते. पुलिस को पता लगा कि 46 कैदी मर चुके हैं. 563 कैदी सरकारी रिकौर्ड में दर्ज पतों पर नहीं मिले. इन के जमानती भी गायब थे. 26 मई, 2014 को तिहाड़ ने कोर्ट को नई लिस्ट सौंपी और कानूनी पेंच का लाभ उठा कर फरार होने वाले उम्रकैदियों की तादाद बढ़ कर हो गई 915. ऐसे में पुलिस को सोचना होगा कि इन भगोड़ों को दोबारा कानून की गिरफ्त में लाने के लिए वह युद्ध स्तर पर क्या कार्यवाही करे?

तिहाड़ जेल से भाग निकलने वाले इन 915 भगोड़ों ने कानून के क्षेत्र में एक नई बहस को जन्म दे दिया है. कानून के जानकारों की इस पूरे मुद्दे पर अलगअलग राय है. देश में यह आम धारणा है कि अगर एक बार कोर्टकचहरी के चक्कर लग गए तो उम्र बीत जाती है. देश की अदालतों में 3 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमों के अंबार लगे हैं. दबाव इतना ज्यादा है कि देश का कानूनी सिस्टम ही चरमरा रहा है. ऐसे में सब से बुरी गत बनती है सजायाफ्ता कैदियों की.

निचली अदालतें उन्हें सजा दे चुकी हैं, लेकिन ऊपरी अदालतों से उन्हें इंसाफ की उम्मीद है, सो वे अपील करते हैं लेकिन सुनवाई की तारीख कितने साल बाद आएगी, इस का अंदाजा उन्हें नहीं होता. जस्टिस एस एन धींगरा के मुताबिक, एक बार जब अपील दाखिल हो गई तो 8 साल, 10 साल या 15 साल भी लग सकते हैं. ऐसे ज्यादातर मामलों में मुजरिम बेल जंप कर जाता है क्योंकि वह (सजायाफ्ता मुजरिम) भी जानता है कि कई सालों तक उस की खोजखबर नहीं ली जा सकेगी.

हमारे देश में न जेलों के पास ऐसा कोई सिस्टम है और न पुलिस के पास कि ऐसे कैदी का अतापता रख सकें. तिहाड़ जेल भगोड़ों के केस में कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. जेल का साफ कहना है कि जेल से बाहर निकलते ही उन की जिम्मेदारी खत्म और पुलिस की जिम्मेदारी शुरू हो जाती है. ऐसे में जब 2 बड़ी संस्थाएं अपनी जिम्मेदारियों को ले कर स्पष्ट न हों तो कैदी भागें न, तो क्या करें?

अब्दुल रज्जाक : दूधिया से बना गैंगस्टर – भाग 2

शहर में रज्जाक की दहशत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जुलाई 2020 में न्यू आनंद नगर, हनुमानताल निवासी मोहम्मद शब्बीर ने अब्दुल रज्जाक की आपराधिक गतिविधियों और अनैतिक कार्य से बनाई गई संपत्ति के बारे में लिखित शिकायत की थी.

आरोपी रज्जाक, उस के बेटे सरताज ने शिकायतकर्ता पर बयान बदलने का दबाव बनाया. अक्तूबर 2020 में शब्बीर ने फिर से शिकायत की तो बापबेटे ने ऐसा धमकाया कि वह आज तक अपना बयान नहीं दर्ज करा पाया.

रज्जाक की दहशत और खौफ के चलते इलाके के लोग डरते थे. आरोपी पर 14 मार्च, 2012 को एनएसए की काररवाई हुई थी. बावजूद उस की आदतों में कोई सुधार नहीं हुआ. उस के कृत्य और आपराधिक वारदात को देखते हुए एसपी सिद्धार्थ बहुगुणा के प्रतिवेदन पर जिला दंडाधिकारी कर्मवीर शर्मा ने 3 महीने के लिए एनएसए में निरुद्ध करने का आदेश जारी करते हुए वारंट जारी किया.

अकसर दोनों गैंगों में होती थी गैंगवार

दोनों गैंगों के बीच रंजिश इस कदर थी कि एकदूसरे को गैंग के लोग फूटी आंख भी नहीं सुहाते थे. इसी रंजिश का नतीजा  7 अप्रैल, 2004 को जबलपुर के कपूर क्रौसिंग के पास देखने को मिला था. उस दिन मंडला में रेत खदान की नीलामी थी.

रज्जाक और महबूब अली दोनों गैंग के लोग नीलामी में बढ़चढ़ कर बोली लगा रहे थे. हथियारों से लैस दोनों गैंग के लोग वहां मौजूद थे. आखिरकार रेत खदान का ठेका महबूब अली के भाई रहमान को मिल गया था.

रहमान मंडला से रेत नाका का टेंडर ले कर कार से जबलपुर लौट रहा था. मौका पा कर रज्जाक के बेटे सरफराज और गैंग में शामिल मजीद करिया और अब्बास ने अन्य साथियों के साथ मिल कर रहमान अली की कार पर फायरिंग कर दी.

फायरिंग में रहमान अली तो बच निकला, मगर कार में सवार रहमान के दोस्त रजनीश सक्सेना की मौत हो गई. इस के अलावा बबलू खान और चमन कोरी को गंभीर चोटें आई थीं.

इस प्रकरण में भी गोरखपुर थाने में रहमान अली की शिकायत पर हत्या, हत्या के प्रयास का मामला रज्जाक, उस के बेटे सरफराज आदि के खिलाफ दर्ज हुआ था. रज्जाक शातिर बदमाश था, यही वजह थी कि कपूर क्रौसिंग पर हुई  रजनीश सक्सेना की हत्या के प्रकरण की जांच में रहमान अली का दावा पलट गया था.

रज्जाक ने अपने रसूख के दम पर जांच में यह साबित कर दिया कि रहमान अली ने अपने साथियों के साथ मिल कर ही रजनीश की हत्या की थी और सरफराज को उस के दोस्तों के साथ फंसाने की साजिश रची गई थी. इस मामले में गोरखपुर पुलिस ने उलटे रहमान अली व अन्य को गिरफ्तार कर जेल भेजा था.

अब्दुल रज्जाक के जुर्म की डायरी में अपराध के तमाम पन्ने दर्ज हैं. अब्दुल रज्जाक इस के बाद जमीन कब्जाने, जमीन खाली कराने से ले कर धमकी दे कर पैसे वसूलने सहित कई तरह के अपराध करने लगा था.

उस की दहशत इस तरह कायम हुई कि कई राजनीतिक दल से जुड़े लोग भी उस से अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने या फिर धमकाने के लिए उस का इस्तेमाल करने लगे.

रज्जाक पर पहले बीजेपी के कुछ कद्दावर नेताओं का वरदहस्त रहा था, बाद में वह कांग्रेस नेताओं का भी खास बन गया था.

अब्दुल रज्जाक जबलपुर शहर का नामी डौन बन चुका था. 2006 में रज्जाक ने गोहलपुर निवासी मोहम्मद अकरम के घर में घुस कर जान से मारने की धमकी दी थी. अकरम ने जब इस की शिकायत पुलिस थाने में दर्ज की और अदालत में मुकदमा चला तो आरोपी ने गवाहों को धमका कर अपने पक्ष में कर लिया था.

बाप सेर तो बेटा सवा सेर

जुर्म की स्याह राहों पर अकेला रज्जाक ही नहीं, उस के बेटे भी उस के साथ कदमताल कर रहे थे. अब्दुल रज्जाक के 3 बेटों में सरफराज और सरताज जुर्म की दुनिया के बेताज बादशाह हैं, उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाने में रज्जाक का बड़ा हाथ है.

कुछ साल पहले 2007 में रज्जाक के बेटे सरताज ने जेल में कुरान फाड़े जाने की अफवाह फैला कर शहर में दंगे कराने का भी प्रयास किया था. इस मामले में कई थानों में उस के खिलाफ मामले दर्ज हुए थे. आरोपी सरताज के खिलाफ कानूनी काररवाई हुई तो वह 5 साल तक फरार रहने में सफल रहा. इस के बाद वह गिरफ्तार हो पाया.

2009 में रज्जाक ने बरेला निवासी सुमन पटेल की जमीन कब्जा करने का प्रयास किया था. विरोध करने पर उस के घर में घुस कर गुर्गों से धमकी दिलवाई थी.

जबलपुर शहर के पुलिस थानों में रज्जाक के खिलाफ लगातार बढ़ रहे मुकदमों की संख्या को देखते हुए कलेक्टर ने 16 मार्च, 2012 को उस के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत काररवाई करते हुए उसे जबलपुर जेल भेज दिया.

इस के दूसरे दिन 17 मार्च, 2012 को रज्जाक के बेटे सरताज को नरसिंहपुर जिले के गांव रांकई पिपरिया से गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

जबलपुर जेल में बापबेटे के एक साथ रहने से जेल में भी गैंगवार की आशंका बढ़ गई थी, जिसे देखते हुए जेल के अधिकारियों ने रज्जाक को ग्वालियर और उस के बेटे सरताज को सागर सेंट्रल जेल शिफ्ट कर दिया था.

रज्जाक की बेनामी संपत्ति

अब्दुल रज्जाक ने कई बेनामी संपत्ति अपने करीबियों और 100 से अधिक शेल कंपनियों के नाम पर बनाई है. रज्जाक ने सीधी में ग्रेनाइट का 800 हेक्टेयर में खनन का पट्टा ले रखा था. अनूपपुर शहडोल में भी उस के ग्रेनाइट व आयरन  के 16 पट्टे हैं.

बैतूल, शहगढ़ सागर, कटनी छपरा, स्लिमनाबाद, बहोरीबंद, सिहोरा, नरसिंहपुर, देवास, छतरपुर में बड़े पैमाने पर लीज ले रखी है, पिछले 12 सालों में 165 खनिज पट्टे करवा कर खुद अपने बेटों के साथ मिल कर खनन का कारोबार कर रहा है. माइनिंग से ही करोड़ों रुपए की कमाई रज्जाक को हर महीने होती है.

रज्जाक के मुंबई, गोवा, हैदराबाद समेत देश के कई दूसरे शहरों में कारोबार हैं. रज्जाक के विरार मुंबई के भाई ठाकुर और वहीं के राजूभाई से कारोबारी रिश्ते हैं. राजू विरार और भाई ठाकुर के बारे में कहा जाता है कि दोनों दाऊद इब्राहिम की डी कंपनी से जुड़े हैं.

रज्जाक जबलपुर, सिहोरा, कटनी, नरसिंहपुर जिले में पिछले 10 सालों में 6000 एकड़ जमीन का मालिक बन बैठा है.

पुलिस को मिली रज्जाक की काल डिटेल्स में इस बात का खुलासा हुआ है कि रज्जाक पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई में बैठे अपने आकाओं से बात करता था.

रज्जाक के बारे में कहा जाता है कि वह काली कमाई से होने वाली आमदनी अपने पास नहीं रखता था. वह इतना शातिर है कि अपना सारा पैसा चश्मे के व्यापार से जुड़े एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता के घरों में रखता था. इसी तरह नया मोहल्ला, बड़ी ओमती, रद्दी चौकी व आनंद नगर के कई घरों में इस के पैसे रखे जाते थे.

पुलिस सूत्रों के हवाले से मिली जानकारी में यह बात भी पता चली है कि वह 80 से 100 करोड़ तो इन लोगों के पास हर वक्त कैश रखता था. हिस्ट्रीशीटर अब्दुल रज्जाक के काले कारनामे एकएक कर सामने आने के बाद पुलिस की जांच में यह बात सामने आई है कि अपनी काली करतूत छिपाने के लिए पत्नी के नाम से कारोबार करता है. अधिकतर संपत्ति और कारोबार पत्नी सुबीना बेगम के नाम पर है.

2 कलेक्टरों की बरसती थी इस पर कृपा

रज्जाक ने उत्तर प्रदेश के बांदा के हथियार तस्कर उमर कट्टा से बड़े पैमाने पर अवैध हथियारों की खरीदी की है. उस ने अवैध तरीके से खरीदे इन हथियारों को अपने गांव रांकई, लिंगा पिपरिया, सर्रापीपर से लगे गांव में छिपा कर अपने करीबियों के यहां जमा करवा रखे हैं. जबलपुर में कई रियल एस्टेट के धंधे में इस के सीधे या परोक्ष रूप से जुड़ाव की जानकारी सामने आई है.

सीधी के कलेक्टर रहे विशेष गड़पाले और कटनी कलेक्टर रहे प्रकाश चंद जांगड़े के रहते कई शस्त्र लाइसेंस दोनों जिले से रज्जाक के परिजनों और खास गुर्गों के नाम जारी हुए थे. जैसे ही रज्जाक का प्रकरण तूल पकड़ा, कटनी शस्त्र शाखा से लाइसेंस संबंधी फाइल ही गुम हो गई.

बदन सिंह बद्दो : हौलीवुड एक्टर जैसे कुख्यात गैंगस्टर – भाग 1

बदन सिंह बद्दो मूलरूप से पंजाब का रहने वाला है. उस के पिता चरण सिंह पंजाब के जालंधर से 1970 में मेरठ आए और यहां के एक मोहल्ला पंजाबीपुरा में बस गए. चरण सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे. ट्रक चला कर उस आमदनी से किसी तरह अपने 7 बेटेबेटियों के बड़े परिवार को पाल रहे थे.

बदन सिंह बद्दो सभी भाईबहनों में सब से छोटा था. 8वीं के बाद उस ने स्कूल जाना बंद कर दिया. कुछ बड़ा हुआ तो बाप के साथ ट्रक चलाने लगा. एक शहर से दूसरे शहर माल ढुलाई के दौरान उस का वास्ता पहले कुछ छोटेमोटे अपराधियों से और फिर शराब माफियाओं से पड़ा. उस ने कई बार पैसे ले कर शराब की खेप एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाई.

धीरेधीरे पश्चिमी यूपी के बौर्डर के इलाकों में उस ने बड़े पैमाने पर शराब की तस्करी शुरू कर दी. फिर स्मगलिंग के बड़े धंधेबाजों से उस की दोस्ती हो गई.

वह स्मगलिंग का सामान बौर्डर के आरपार करने लगा. हरियाणा और दिल्ली बौर्डर पर तस्करी से उस ने खूब पैसा कमाया. इस के बाद तो वह पूरी तरह अपराध के कारोबार में उतर गया और उस की दिन की कमाई लाखों में होने लगी. दिखने के लिए बद्दो खुद को ट्रांसपोर्ट के बिजनैस से जुड़ा दिखाता रहा, मगर उस का धंधा काला था.

अपराध की राह पर बड़ी तेजी से आगे बढ़ते बद्दो की मुलाकात जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 2 बड़े बदमाश सुशील मूंछ और भूपेंद्र बाफर से हुई तो इन दोनों के साथ उस का मन लग गया. इन के साथ ने बद्दो को निडर बनाया.

बद्दो ने कई गुर्गे पाल लिए जो उस के इशारे पर सुपारी ले कर हत्या और अपहरण का धंधा चलाने लगे. सुशील मूंछ और बद्दो के गठजोड़ ने जमीनों पर अवैध कब्जे का धंधा भी शुरू कर दिया. सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे कर वहां दुकानें बना कर करोड़ों में खरीदनेबेचने के इस धंधे में सरकारी सिस्टम में बैठी काली भेड़ें भी शामिल थीं, जो अपना हिस्सा ले कर किसी भी फाइल को आगे बढ़ा देती थीं.

बदन सिंह बद्दो और सुशील मूंछ की दोस्ती जब बहुत गहरी हुई तो भूपेंद्र बाफर और सुशील मूंछ में दूरियां बढ़ गईं और एक समय वह आया जब बाफर सुशील मूंछ का दुश्मन हो गया. तब मूंछ और बद्दो एकदूसरे का सहारा बन गए.

सुशील मूंछ का बड़ा गैंग था. विदेश तक उस के कारनामों की गूंज थी. जरायम की दुनिया के इन 2 बड़े कुख्यातों का याराना पुलिस फाइल और अपराध की काली दुनिया में बड़ी चर्चा में रहता था. दोस्ती भी अजीबोगरीब थी.

हैरतअंगेज था कि जब एक किसी अपराध में गिरफ्तार हो कर जेल जाता तो दूसरा बाहर रहता था और धंधा संभालता था. 3 दशकों तक ये दोनों पुलिस से आंखमिचौली खेलते रहे. मूंछ जब 3 साल जेल में बंद रहा तो उस दौरान बद्दो जेल से बाहर था. मूंछ का सारा काम बद्दो संभालता था.

वहीं 2017 में जब बद्दो को उम्रकैद की सजा हुई तो मूंछ बाहर था और बद्दो की पूरी मदद कर रहा था. 2019 में जब बद्दो पुलिस को चकमा दे कर कस्टडी से फरार हुआ तो दूसरे ही दिन सुशील मूंछ ने सरेंडर कर दिया और जेल चला गया. पुलिस कभी भी इन दोनों की साजिश को समझ नहीं पाई.

कहते हैं कि बद्दो को कस्टडी से फरार करवाने की सारी प्लानिंग सुशील मूंछ ने की. इस के लिए पुलिस और कुछ सफेदपोशों को बड़ा पैसा खिलाया गया. लेकिन बद्दो कहां है यह राज आज तक पुलिस सुशील मूंछ से नहीं उगलवा पाई. कहा जाता है कि वह दुनिया के किसी कोने में बैठ कर हथियारों का धंधा करता है.

पर्सनैलिटी में झलकता रईसी अंदाज

बदन सिंह बद्दो सिर्फ 8वीं पास था, लेकिन उस में बात करने की सलाहियत ऐसी थी कि लगता वह दर्शन शास्त्र का कोई बड़ा गहन जानकार हो. बातबात में वह शायरी और महापुरुषों के वक्तव्यों को कोट करता था.

एक पार्टी के दौरान जब एक रिपोर्टर ने उस से पूछ लिया कि जरायम की दुनिया से कैसे जुड़ गए तो विलियम शेक्सपियर को कोट करते हुए बद्दो ने कहा, ‘ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब इस मंच के कलाकार.’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कुख्यात गैंगस्टर बदन सिंह बद्दो अब खुल कर लग्जरी लाइफ जीने लगा था. बद्दो का रहनसहन देख कर कोई भी उस के रईसी शौक का अंदाजा आसानी से लगा सकता है. लूई वीटान जैसे महंगे ब्रांड के जूते और कपड़े पहनना बदन सिंह बद्दो को अन्य अपराधियों से अलग बनाता है. वह आंखों पर लाखों रुपए मूल्य के विदेशी चश्मे लगाता है. हाथों में राडो और रोलैक्स की घडि़यां पहनता है.

बदन सिंह बद्दो महंगे विदेशी हथियार रखने का भी शौकीन है. उस के पास विदेशी नस्ल की बिल्लियां और कुत्ते थे, जिन के साथ वह अपनी फोटो फेसबुक पर भी शेयर करता था. इन तसवीरों को देख कर कोई कह नहीं सकता कि मासूम जानवरों को गोद में खिलाने वाले इस हंसमुख चेहरे के पीछे एक खूंखार गैंगस्टर छिपा हुआ है.

बुलेटप्रूफ कारों का लंबा जत्था उस के साथ चलता था. उस के महलनुमा कोठी में सीसीटीवी कैमरे समेत आधुनिक सुरक्षा तंत्र का जाल बिछा है.

ब्रांडेड कपड़े और जूते पहन कर जब वह किसी फिल्मी हस्ती की तरह विदेशी हथियारों से लैस बौडीगार्ड्स और बाउंसर्स की फौज के साथ घर से निकलता तो आसपास देखने वालों की भीड़ लग जाती थी. वह हमेशा बुलेटप्रूफ बीएमडब्ल्यू या मर्सिडीज कार से ही चलता था. उस की शानोशौकत भरी जिंदगी देख कर कोई यकीन नहीं करता था कि वह एक हार्डकोर क्रिमिनल है.

गैंगस्टरों का गढ़ बनता पंजाब और पुलिस की बढ़ती परेशानी

जरा नब्बे के दशक की मुंबई को याद करें. महानगर मुंबई में सक्रिय दरजनों छोटेबडे़ क्रिमिनल गैंग के खौफ ने लोगों की नींद उड़ा रखी थी. अपहरण, फिरौती, हफ्तावसूली आम बात थी. क्रिमिनल गैंग के बीच की रंजिश और अंडरवर्ल्ड में वर्चस्व की लड़ाई को ले कर खूनी गैंगवार भी अपने चरम पर था. उस समय मुंबई में इतने क्रिमिनल गैंग सक्रिय थे कि पुलिस के लिए उन्हें सूचीबद्ध करना मुश्किल हो रहा था. फिर भी अंडरवर्ल्ड में दाऊद, छोटा राजन, सुलेमान, छोटा शकील और अरुण गावली जैसे बड़े नाम थे.

इस समय पंजाब में भी नब्बे के दशक वाले मुंबई जैसी हालत बन चुके हैं, जो काफी चिंताजनक होने के साथसाथ हैरान करने वाली बात है. पंजाब ने अतीत में सिख चरमपंथियों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का खूनी और हिंसक दौर अवश्य देखा था, लेकिन संगठित, आक्रामक और खुल्लमखुल्ला कानून एवं व्यवस्था को चुनौती देने वाले संगठित अपराध के मामले में उस का कोई इतिहास नहीं रहा है.

मादक पदार्थों के धंधे ने पंजाब में अनेक क्रिमिनल गैंग पैदा किए हैं. कल तक जो आपराधिक मानसिकता वाले नौजवान आतंकवाद की तरफ आकर्षित हो रहे थे, वे अब मादक पदार्थों के धंधे में ऊंचे मुनाफे को देखते हुए क्रिमिनल गैंग तैयार करने लगे हैं.

देखते ही देखते पंजाब में अनेक खतरनाक क्रिमिनल गैंग तैयार हो गए और पुलिस एक तरह से कुंभकर्णी नींद सोती रही. इन क्रिमिनल गैंगों को किसी न किसी रूप से राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था. शायद यह भी एक बड़ी वजह थी कि पुलिस लगातार चुनौती बनते जा रहे गैंगों के विरुद्ध प्रभावी काररवाई नहीं कर सकी और ये गैंग दुस्साहसी और खतरनाक होते गए.

कुकुरमुत्तों की तरह पंजाब में क्रिमिनल गैंग पैदा हुए तो जल्दी ही जरायम की दुनिया में वर्चस्व को ले कर उन में आपसी मारकाट शुरू हो गई. यह गैंगवार पुलिस के लिए सिरदर्द बन गया. खूनी गैंगवार को रोकने के लिए पुलिस पर जब दबाव पड़ा तो उस ने कुछ गैंगस्टरों को गिरफ्तार कर के जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.crime news

पर गैंगस्टरों के खिलाफ कोई भी काररवाई करने में पुलिस ने बड़ी देर कर दी. गैंगस्टर अब तक बडे़ खतरनाक और दुस्साहसी हो चुके थे. सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करने वाले गैंगस्टरों की धमक और हिम्मत का सही अंदाजा पुलिस को उस समय कुछकुछ हुआ, जब वे पुलिस पर हमला कर के हिरासत से अपने साथियों को छुड़ाने के साथ अपने विरोधियों को मारने जैसी अत्यंत दुस्साहस से भरी काररवाइयां करने लगे.

सभी गैंगस्टर कमोवेश जवान हैं और उन के काम करने का स्टाइल फिल्मों से प्रभावित लगता है. वे सोशल मीडिया पर पुलिस को खुल्लमखुल्ला चुनौती देते हुए विरोधी ग्रुप के लोगों की हत्या करने और जेल में बंद अपने साथियों को छुड़ाने जैसी बात कहने लगे हैं. पुलिस ने शुरू में ऐसी धमकियों को गंभीरता से नहीं लिया. आतंकवाद जैसा गंभीर समस्या का सामना कर चुकी पंजाब पुलिस का खयाल था कि गैंगस्टरों में इतनी हिम्मत नहीं कि जेलों में बंद अपने साथियों को जेल से छुड़ा सकें.

पुलिस का उक्त खयाल उस की खुशफहमी ही साबित हुआ. गैंगस्टरों ने जैसा कहा, वैसा कर के दिखा भी दिया. आतंकवादी भी ऐसी हिम्मत कर सके थे, जैसी हिम्मत इन गैंगस्टरों ने कर दिखाई. पंजाब की नाभा जेल काफी सुरक्षित मानी जाती रही है.

नाभा जेल को सुरक्षित और अभेद्य समझते हुए खूंखार और खतरनाक अपराधियों को उसी में रखने को सुरक्षा एजेंसियां प्राय: प्राथमिकता देती रही हैं. गिरफ्तारी के बाद पंजाब के खतरनाक विक्की गौंडर गैंग के कुछ खूंखार सदस्यों को इसी जेल में रखा गया था.

27 नवंबर, 2016 को चौंकाने वाली अप्रत्याशित काररवाई करते हुए विक्की गौंडर गैंग के सदस्यों ने पूरी तैयारी के साथ बेहद सुरक्षित मानी जाने वाली नाभा जेल पर धावा बोल कर सारी सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए वहां बंद अपने 6 साथियों को छुड़ा कर फिल्मी अंदाज में भाग खड़े हुए. गौंडर गैंग के सारे सदस्य पुलिस की वरदी में आए थे.

नाभा जेल की इस घटना ने यह साबित कर दिया कि पंजाब में सक्रिय क्रिमिनल गैंग कितने खतरनाक हो चुके हैं और वे जैसा कहते हैं, वैसा करने में समर्थ भी हैं. नाभा जेल से अपराधियों को भगाने के मास्टरमाइंड विक्की गौंडर ने इस के बाद विरोधी गैंग के लोगों पर हमले शुरू कर के गैंगवार को और भयानक रूप दे दिया.

सारी कोशिशों के बाद भी पुलिस खतरनाक और तेजतर्रार गैंगस्टरों के सामने असहाय और फिसड्डी साबित हुई. पुलिस की सारी सावधानियां और दावों के बावजूद नाभा जेल से अपराधियों को भगाने के लिए जिम्मेदार गैंगस्टर विक्की गौंडर ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर 20 अप्रैल, 2017 को गुरदासपुर के गांव कोठे पराला में दुश्मन गैंग के सरगना हरप्रीत उर्फ सूबेदार और उस के 2 साथियों सुखचैन तथा हैप्पी को सरेआम मौत के घाट उतार दिया.crime news

इतना ही नहीं, अपने खूनी कारनामे को महिमामंडित करते हुए इस घटना को फेसबुक पर भी डाला. इस वारदात के बाद पंजाब पुलिस के एक अधिकारी ने स्वीकार किया कि गैंगस्टरों को ले कर पंजाब में स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है और अगर शीघ्र ही इस से निपटा नहीं गया तो पंजाब की शांति को एक बार फिर से खतरा हो सकता है. हिंसा, हिंसा है, यह आप की मर्जी है कि इस पर आतंकवाद का ठप्पा लगाएं या आम अपराध का.

पंजाब में गैंगवार की स्थिति कितनी विस्फोटक और गंभीर हो रही है, इस का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पंजाब सरकार मकोका की तर्ज पर पकोका कानून बनाने की तैयारी कर रही है. स्मरण रहे कि मकोका की मदद से मुंबई पुलिस को अपराधियों से निपटने में आसानी हुई थी.

पंजाब पुलिस की माने तो इस समय पंजाब में 60 के करीब छोटेबड़े गैंग सक्रिय हैं. इन गैंगों से जुड़े 35 गैंगस्टर को पुलिस बेहद खतरनाक मानती है और शीघ्र ही उन्हें जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहती है. गैंगस्टरों को काबू किए बिना नशे के कारोबार पर अंकुश लगाना मुश्किल है.

पंजाब के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की छवि अपराधियों के प्रति कठोर रवैया रखने वाले प्रशासक वाली रही है. हालिया चुनाव उन्होंने पंजाब के लिए नासूर बन चुके नशे के मुद्दे पर जीता है. ऐसे में नशे की समस्या के साथसाथ गैंगस्टरों से भी निपटना उन के लिए दोहरी चुनौती है.   crime news

अब्दुल रज्जाक : दूधिया से बना गैंगस्टर – भाग 1

यूंतो मध्य प्रदेश के जबलपुर को संस्कारधानी कहा जाता है, मगर यह शहर मुजरिम और उन के ठिकानों के लिए भी जाना जाता है. जबलपुर शहर में अब्दुल रज्जाक, महादेव पहलवान, पिंकू काला, छोटू चौबे की डबल टू डबल टू गैंग, विजय यादव की वी कंपनी, सावन बेन की सावन हौआ गैंग, रावण उर्फ ऋषभ शर्मा जैसे दरजनों गैंगस्टरों का आतंक रहा है.

इन गैंगस्टरों का काम शहर में अपने बाहुबल के दम पर रंगदारी वसूलना और सुपारी ले कर हत्या जैसी वारदात को अंजाम देना था. इन गैंगस्टर में अब्दुल रज्जाक उर्फ रज्जाक पहलवान का रिकौर्ड ज्यादा खौफनाक रहा है.

अब्दुल रज्जाक का बचपन भी जबलपुर के ओमती थाना इलाके के रिपटा नाला के पास नया मोहल्ला में बीता है. जबलपुर के इस कुख्यात गैंगस्टर रज्जाक पहलवान के नाम से बड़ेबड़े अपराधी भी खौफ खाते हैं.

30 साल की उम्र में जुर्म की दुनिया में कदम रखने वाला अब्दुल रज्जाक आज भले ही 62 साल का हो गया है, मगर मध्य प्रदेश के खूंखार गैंगस्टर्स की लिस्ट में उस का नाम अभी भी शुमार किया जाता है.

कभी पुलिस की आंखों की किरकिरी रहे अब्दुल रज्जाक पर मध्य प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र के पुलिस थानों में करीब 86 आपराधिक मामले दर्ज हैं. इतना ही नहीं, इटली और अमेरिका मेड रायफल और धारदार हथियारों के दम पर जबलपुर में अपने जुर्म का साम्राज्य खड़ा करने वाले  कुख्यात गैंगस्टर अब्दुल रज्जाक के गैंग में सैकड़ों की संख्या में उस के गुर्गों की पूरे इलाके में तूती बोलती है.

अब्दुल रज्जाक की आसपास के जिलों में ही नहीं बल्कि मुंबई, गोवा, हैदराबाद जैसे शहरों के अलावा दुबई, दक्षिण अफ्रीका में भी करोड़ों रुपयों की प्रौपर्टी के साथ माइनिंग का अवैध कारोबार भी फैला हुआ है.

अब्दुल रज्जाक के गैंग में उस के भाई, बेटे और भतीजे के साथ बड़ा गिरोह है, जिस पर जमीन कब्जाने, गैंगवार, अवैध हथियारों की तसकरी, हत्या, बमबारी जैसे संगीन मामलों में मध्य प्रदेश के अलगअलग थानों में केस दर्ज है. आरोपी अपने बाहुबल का उपयोग कर के अदालतों में गवाहों को पलट देता है. चुनावों में शराब और पैसे बांट कर नेताओं को अपने हाथ की कठपुतली बनाने वाले कुख्यात रज्जाक पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों के नेताओं की छत्रछाया हमेशा बनी रही, जिस से उस के अपराध सिर चढ़ कर बोलते रहे.

नरसिंहपुर में पुलिस एनकाउंटर में ढेर जबलपुर के कुख्यात बदमाश गोरखपुर निवासी विजय यादव को रज्जाक ने ही अपराध का ककहरा सिखाया.

एक वक्त ऐसा भी आया, जब विजय यादव को उस ने अपना चौथा बेटा बना लिया था. विजय यादव घर भी नहीं जाता था. पर बाद में इन दोनों के रिश्तों में खटास आ गई. यही खटास विजय यादव के अंत की वजह भी बनी.

रज्जाक गैंग का संबंध दूसरे प्रदेश के अपराधियों से भी है. यही वजह है कि दूसरे प्रदेशों में आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने के बाद अपराधी फरारी काटने रज्जाक के ठिकानों पर महीनों पड़े रहते हैं.

रज्जाक के खौफ के चलते या तो गवाह बदल जाते हैं या फिर शिकायतकर्ता ही अपनी रिपोर्ट वापस ले लेते हैं. इस गैंगस्टर के डर से कई लोगों ने अपनी कीमती जमीन उसे औनेपौने दामों पर बेच दी. कई तो दहशत में उस के खिलाफ थाने में शिकायत तक नहीं करा पाए.

आरोपी ने जबलपुर, कटनी, नरसिंहपुर, हैदराबाद, गोवा, मुंबई, दुबई, साउथ अफ्रीका तक होटल, खनिज, प्रौपर्टी का बिजनैस खड़ा कर लिया है. खुद उस का बेटा सरताज पहले से दुबई में शिफ्ट हो चुका है.

डेयरी के धंधे से गैंगस्टर बनने तक का सफर

अब्दुल रज्जाक कभी अपने परिवार के साथ मिल कर दूध का धंधा करता था. रज्जाक को बचपन से ही पहलवानी और कसरत का शौक था, इसी कारण लोग उसे पहलवान के नाम से जानते थे.

पहलवानी करतेकरते ताकत और दौलत का नशा रज्जाक पर इस कदर हावी हुआ कि उस ने दूध डेयरी के बाद टोल टैक्स वसूलने वाले टोल बूथ के ठेके लेने शुरू कर दिए. यहीं से उस के गैंगस्टर बनने की दिलचस्प कहानी शुरू होती है.

अब्दुल रज्जाक का जन्म 1959 में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के छोटे से मुसलिम बाहुल्य गांव राकई पिपरिया में हुआ था. उस के वालिद अब्दुल वहीद रज्जाक के जन्म के कुछ ही महीनों के बाद अपनी पैतृक संपत्ति बेच कर राकई से जबलपुर के नया मोहल्ला में रहने लगे थे.

अब्दुल वहीद ने गौर नदी के पास बरेला में दूध की डेयरी खोल कर अपने धंधे की शुरुआत की. रज्जाक ने क्राइस्ट चर्च स्कूल से 8वीं तक पढ़ाई की और फिर पिता के साथ दूध की डेयरी में हाथ बंटाने लगा. डेयरी के धंधे में खूब पैसा कमाने के बाद रज्जाक ने वहां पर 40 एकड़ जमीन खरीद ली.

दूध डेयरी से हुई कमाई के बाद रज्जाक 1990 में टोल टैक्स बैरियर के ठेके में उतरा. रज्जाक ने प्रकाश खंपरिया, लखन घनघोरिया (कांग्रेस विधायक एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री), शमीम कबाड़ी, सिविल लाइंस स्थित पुराने आरटीओ परिसर में रहने वाले मुन्ना मालवीय (फैक्ट्री में तब एकाउंटेंट) के साथ मिल कर मंडला जिले के बीजाडांडी, सिवनी जिले के छपारा, नागपुर के भंडारा और जबलपुर के तिलवारा और मेरेगांव में टोल बूथ के ठेके ले लिए थे. अपनी गुंडागर्दी और दहशत की वजह से देखते ही देखते वह ठेकेदारी के इस कारोबार में स्थापित हो गया.

पुलिस के रिकौर्ड में इस कुख्यात गैंगस्टर के जुर्म का हर पन्ना स्याह है. ठेके के धंधे में उतरने के बाद रज्जाक की प्रतिस्पर्धा बढ़ गई थी. इस के बाद उस ने अपना एक गैंग बना लिया. गोरखपुर का महबूब अली गैंग भी इसी धंधे में था.

टोल नाका का ठेका लेने के बाद रज्जाक का सामना टोलनाका ठेकेदार महबूब अली से हुआ. उन दिनों जबलपुर सहित आसपास के जिलों के कई टोल बूथों के ठेके महबूब अली के पास थे.

बादशाहत कायम करने के लिए गैंगवार

1991 में रज्जाक ने टोल बूथों की नीलामी में बढ़चढ़ कर बोली लगाई और महबूब अली के ठेके हथिया लिए. इस बात को ले कर महबूब अली रज्जाक को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगा. टोल ठेका में वर्चस्व स्थापित करने से शुरू हुई गिरोहबंदी गैंगवार में तब्दील हो गई.

रज्जाक ने बसस्टैंड मदनमहल में पहली बार 6 फरवरी, 1996 को महबूब गैंग पर जानलेवा हमला कर दिया. इस प्रकरण में रज्जाक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई थी. यहीं से रज्जाक चर्चाओं में आया और उस की बादशाहत कायम हुई.

रज्जाक ने अपनी बादशाहत कायम करने के लिए अपने गुर्गों की मदद से लोगों को धमकी देना, मकान और जमीन को कौडि़यों के भाव में खरीदना शुरू कर दिया.

महबूब अली की सल्तनत पर जब रज्जाक ने कब्जा कर लिया तो महबूब अली गैंग भी रज्जाक से इंतकाम लेने के लिए कमर कस चुकी थी. जबलपुर शहर में दोनों गैंगों के बीच आए दिन मारपीट और खूनखराबा की घटनाएं आम हो चुकी थीं. शहर के लोग हरदम इन के खौफ के साए में रहते थे.

रज्जाक पर हमले की फिराक में रह रहे महबूब अली ने 29 अगस्त, 2000 को हाईकोर्ट जबलपुर के पास अब्दुल रज्जाक पर गोली चला कर कातिलाना हमला किया. इस वारदात के बाद दोनों गैंग एकदूसरे के खून के प्यासे बन गए.

पैसे और प्रभाव से पलट जाते थे गवाह

अब्दुल रज्जाक अपने ऊपर हुए कातिलाना हमले से इस कदर बौखला गया कि हर वक्त वह बदला लेने की योजना बनाता रहता. आखिरकार 14 जुलाई, 2003 को गोरखपुर क्षेत्र में महबूब अली के छोटे भाई अक्कू उर्फ अकबर की गोली मार कर हत्या कर दी गई.

इस हत्या में अब्दुल रज्जाक सहित उस के गैंग के 19 गुर्गों को आरोपी बनाया गया था. लेकिन रज्जाक ने पैसे और अपने प्रभाव का उपयोग कर गवाहों को प्रभावित कर दिया. इस के चलते कोर्ट से वह दोषमुक्त हो गया.

रज्जाक इस मामले में धारा 120बी आईपीसी का आरोपी बना था, मगर उस ने घटना वाले दिन को ग्वालियर स्टेशन पर आरपीएफ में बिना टिकट यात्रा में खुद का चालान करा कर प्रकरण से बचने के प्रयास में सफल रहा.

2006 में रज्जाक ने गोहलपुर निवासी मोहम्मद अकरम के घर में घुस कर जान से मारने की धमकी दी थी. इन सभी मामलों में आरोपी ने गवाहों को धमका कर अपने पक्ष में कर लिया था.

शशिकला उर्फ बेबी पाटणकर : ड्रग सामाज्य की मल्लिकाशार्ट स्टोरी – भाग 1

आज हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है. अपराध के क्षेत्र में भी महिलाएं पुरुषों से आगे निकली हैं. चंबल के बीहड़ों की कुछ हसीनाओं के खौफ के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं. ऐसी ही मुंबई की एक हसीना है शशिकला उर्फ बेबीताई पाटणकर.

बेबीताई के बारे में हम जितना जानना चाहेंगे, जितना पढ़नालिखना चाहेंगे, उतना कम ही है. क्योंकि बेबीताई कोई नन्ही सी बेबी नही हैं, बल्कि वह सफेद पाउडर की दुनिया की समृद्ध मलिका है.

सफेद पाउडर मतलब जिसे हम गर्द, ब्राऊन शुगर और कई विभिन्न नामों से जानते हैं. इसी सफेद पाउडर के धंधे की बेबीताई पाटणकर 100 करोड़ की लेडी डौन है.

शक्तिवर्द्धक दवा मेफेड्रोन (एमडी), जिसे लोकप्रिय रूप से म्याऊंम्याऊं कहा जाता है, को कथित तौर पर एक महिला द्वारा मुंबई लाया गया था, जो 1980 के दशक में शहर में दूध बेचती थी.

फिल्मों में ड्रग्स के काले कारोबार की कहानियां आप ने कई देखी होंगी. हम देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की एक ऐसी लेडी के बारे में बता रहे हैं, जो ड्रग्स के धंधे की रानी है. इस के रुतबे की कहानी जान कर दंग रह जाएंगे आप.

ड्रग्स के कारोबार की माफिया बेबीताई पाटणकर एक ऐसी ड्रग्स क्वीन है, जो साड़ी पहनती है. गले में मंगलसूत्र और माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाती है.

किसी हौलीवुड फिल्म से कम नहीं है बेबी पाटणकर की कहानी. आज से कुछ सालों पहले बेबी अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुंबई के घरों में दूध बेचा करती थी.

बताया जाता है कि उस के घर में कई सदस्य ड्रग्स के आदी थे. इसी बीच उसे ड्रग्स से होने वाली कमाई के बारे में पता लगा. फिर क्या था, उस ने हिम्मत दिखाते हुए दूध बेचने का काम छोड़ कर ड्रग्स की दुनिया में कदम रखा.

वैसे शशिकला उर्फ बेबी के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. वह धीरेधीरे ड्रग्स की दुनिया में अपनी पहचान बनाती गई. उस ने पहले ब्राउन शुगर और हशीश बेची और फिर मेफेड्रोन नाम की ड्रग्स का लेनदेन करने लगी.

जुर्म की दुनिया में अकसर लोगों के नामकरण होते हैं, वैसा ही कुछ हुआ शशिकला के साथ. लोगों ने उसे बेबी नाम से बुलाना शुरू कर दिया और इसी तरह उस का नाम बेबी पड़ा.

ड्रग्स के धंधे को बेबी अकेली ही चलाती थी. अप्रैल 2015 में मेफेड्रोन ड्रग्स मामले में पुलिस ने बेबी को महाराष्ट्र के नवी मुंबई के पनवेल से गिरफ्तार किया था, लेकिन उसे जमानत मिल गई थी.

बेबी के बारे में यह भी बताया जाता है कि ड्रग तसकरी में अपना सिक्का जमाने के बाद उस ने पुलिस के खबरी के तौर पर भी काम किया और कुछ बड़े ड्रग माफियाओं को पकड़वाने में पुलिस की मदद की.

100 करोड़ की मालकिन है बेबी

जानकारी के अनुसार, शशि के पास कई आलीशान कारें हैं और मुंबई के वर्ली में एक बंगला है, जिस की कीमत 2 करोड़ के आसपास बताई जा रही है.

पुलिस जानकारी के अनुसार, उस के कम से कम 3 बैंक अकाउंट थे, जिन में कम से कम 40-40 लाख रुपए जमा थे. कुल मिला कर बताया जाता है कि उस के पास 100 करोड़ की चलअचल संपत्ति है. पिछले साल गिरफ्तारी के बाद सत्र न्यायालय ने बेबी को 5 लाख के बेल बांड पर जमानत दे दी थी.

शशिकला पाटणकर उर्फ बेबी अपने 5 भाइयों में एकलौती थी और सब से छोटी थी.  मुंबई के वर्ली स्थित झुग्गीझोपडि़यों में रहने वाली शशिकला पाटणकर ने जब ड्रग्स बेचनी शुरू की थी, तब शुरुआत में वह आसानी से पुलिस की पकड़ में आ जाती थी, लेकिन 1980-90 के दशक में उस ने अचानक अपना कारोबार बढ़ाया.

उस कारोबार से बेबी पाटणकर ने एमडी बनने से पहले मुंबई में मारिजुआना और ब्राउन शुगर का कारोबार शुरू किया था. और उसी से संपत्ति और कीमती सामान अर्जित किया. फिर मध्य मुंबई, लोनावाला और पुणे के साथ मुंबई के ही वर्ली में अचल संपत्ति में निवेश किया.

धीरेधीरे दूध बेचने वाली बेबी की पहचान मुंबई के इलाकों में ड्रग्स डीलर की हो गई. जल्दी ही वह अपने पति रमेश पाटणकर से अलग हो गई और अपने बच्चों के साथ अलग घर में रहने लगी. यह वह समय था, जब बेबी पर हत्या के आरोप भी लगे थे.

साल 1993 में उस के अपने चचेरे भाइयों मनीष और विवेक ने उस के खिलाफ केस दर्ज कराया था और कहा था कि बेबी ने उन की मां को जला कर मार दिया. पर उस बारे में यह भी कहा जाता है कि मनीष और विवेक की मां भी ड्रग्स के कारोबार में आ गई थी और वह धीरेधीरे शशिकला को टक्कर दे रही थी.

बिजनैस में बढ़ती प्रतिद्वंदिता ही उस की हत्या का कारण बनी थी. इस घटना के कुछ सालों बाद शशिकला मेफेड्रोन का धंधा करने लगी. कहा जाता है कि यह एक ऐसा ड्रग होता है जो उस समय कोकिन से ज्यादा आसानी से उपलब्ध था.

शशिकला पाटणकर पर पुलिस की नजर तब टेढ़ी हुई, जब एक पुलिस कांस्टेबल धर्मराज कालोखे के ठिकाने से 114 किलोग्राम मेफेड्रोन, जिसे म्याऊंम्याऊं भी कहा जाता है, बरामद किया गया था.

इस कांस्टेबल ने उस वक्त कहा था कि इस ड्रग्स को शशिकला ने उसे दिया था. कहा जाता है कि इस के बाद शशिकला को पकड़ने के लिए 100 पुलिस वालों की एक टीम बनाई गई थी.

अब 61 साल की हो चुकी ड्रग माफिया शशिकला उर्फ बेबी पाटणकर, जिसे साल 2015 में मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार किया था, ने पिछले 30 सालों में नशीले पदार्थों के व्यापार में शानदार वृद्धि हासिल की थी.

मसलन बेबी पाटणकर को उस के प्रेमी, पुलिस कांस्टेबल धर्मराज कालोखे को 9 मार्च को गिरफ्तार किया गया था और बाद में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था. साथ ही आगे कालोखे और बेबी पाटणकर  के बेटे सतीश को भी मामले में गिरफ्तार कर लिया था.

बेबी पाटणकर के 22 बैंक खाते थे. उस ने एक खाते में सावधि जमा (एफडी) के लिए 1.45 करोड़ रुपए जमा किए थे.

राजू ठेहठ : अपराध की दुनिया का बादशाह – भाग 1

आनंदपाल की मौत के बाद राजू ठेहठ के गैंग की ताकत बढ़ गई है. वह जेल से ही अपने गैंग को संचालित करता है. राजू यह बात अच्छी तरह जानता है कि कोई भी गैंगस्टर स्वाभाविक मौत नहीं मरता. या तो वह पुलिस की गोली का निशाना बनता है या फिर अपने दुश्मन की गोली का. इसलिए अब वह किसी तरह राजनीति में आने की कोशिश कर रहा है.

राजस्थान के सीकर जिले के ठेहठ गांव का रहने वाला राजेंद्र उर्फ राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा में गहरी दोस्ती थी. दोनों पक्के दोस्त थे. वे साथ में शराब के ठेके लिया करते थे. दिनरात एकदूजे के साथ रहते थे. साथ में खाना तो होता ही था, दोनों एकदूसरे से कोई बात भी नहीं छिपाते थे. उन में गहरी छनती थी.

राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा शराब के ठेके ले कर अच्छा मुनाफा कमा रहे थे. कहते हैं न कि दोस्ती के बीच जब धन बेशुमार आने लगता है, तब दोस्ती में यह धन दरार पैदा करा देता है. यही बात इन दोनों में हुई. इन में मतभेद हुए तो ये शराब के ठेके अलगअलग लेने लगे.

ऐसे में दोनों के बीच होड़ लग गई कि कौन ज्यादा पैसे कमाए. वैसे तो दोनों ही व्यवहारिक थे लेकिन जब उन के पास मोटा पैसा आया तो वे अकड़ दिखाने लगे. उन के शराब ठेकों पर अकसर मारपीट होने लगी. यानी वह रौबरुतबा कायम करने लगे.

उन की दोस्ती टूटने की भी एक वजह थी. दरअसल, बलबीर बानूड़ा का रिश्ते में साला लगता था विजयपाल. विजयपाल शराब के ठेके पर सेल्समैन था. सन 2005 की बात है. विजयपाल की किसी बात को ले कर राजू ठेहठ से अनबन हो गई. राजू ठेहठ ने अपने गुर्गों के साथ विजयपाल की जबरदस्त पिटाई की, जिस से विजयपाल की मौत हो गई.

बस, उसी दिन से राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा की दोस्ती टूट गई. दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए. उन्होंने अपनेअपने गैंग बना कर एकदूसरे पर हमले शुरू कर दिए.

विजयपाल की हत्या का बदला लेने के लिए बलबीर बानूड़ा उतावला हो रहा था. बलबीर बानूड़ा के गैंग से उन्हीं दिनों आनंदपाल आ जुड़ा. बस फिर क्या था. वे राजू ठेहठ का काम तमाम करने का मौका तलाशने लगे.

राजू ठेहठ गैंग और बलबीर बानूड़ा गैंग के गुंडे आपस में जबतब टकराने लगे. जिस गैंग का व्यक्ति मारा जाता, उस गैंग के लोग बदला ले लेते. इस तरह दोनों गैंग के बीच खूनी खेल शुरू हो गया था.

गैंगवार से पुलिस की नींद उड़ गई थी. पुलिस इन सभी के पीछे हाथ धो कर पड़ी थी. आनंदपाल, बलबीर बानूड़ा और राजू ठेहठ के ऊपर अलगअलग थानों में मुकदमे दर्ज होने लगे.

राजू ठेहठ पर विजयपाल की हत्या का मुकदमा चल रहा था. आनंदपाल ने अपने मित्र की मौत का बदला जीवनराम गोदारा की हत्या कर ले लिया. इस तरह कुख्यात अपराधी राजू ठेहठ और आनंदपाल की गहरी दुश्मनी हो गई. दोनों एकूसरे के खून के प्यासे बन गए थे.

सन 2012 में पुलिस ने जयपुर से बलबीर बानूड़ा को गिरफ्तार कर लिया था. इस के 8 महीने बाद ही आनंदपाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों जेल में रह कर ही अपने गैंग का संचालन कर रहे थे.

आनंदपाल और राजू ठेहठ में हो गई दुश्मनी

इस के बाद सन 2013 में राजू ठेहठ भी पकड़ा गया. जेल में रहते हुए ही आनंदपाल और बलबीर बानूड़ा ने सुभाष को राजू ठेहठ की हत्या के लिए तैयार कर दिया. मौका मिलने पर सुभाष ने सीकर जेल में ही राजू ठेहठ को गोली मारी, जो उस के जबड़े में लगी लेकिन वह बच गया.

इस के बाद राजू ठेहठ ने इस का बदला लेने के लिए बीकानेर जेल में बंद आनंदपाल पर अपने आदमियों से फायरिंग करवाई, जिस में आनंदपाल तो बच गया लेकिन बलबीर बानूड़ा चपेट में आ गया और जेल में ही उस की मौत हो गई.

इस वारदात को अंजाम देने वाले राजू ठेहठ के आदमी को उसी वक्त जेल में पीटपीट कर मार दिया गया था. राजू ठेहठ का भाई ओम ठेहठ भी गैंग से जुड़ा था और वह भाई राजू के कंधे से कंधा मिला कर गैंग चलाता था. इन शातिर गैंगस्टरों के एक इशारे पर धन्नासेठ लाखों रुपए दे देते थे.

राजू ठेहठ और आनंदपाल का इतना खौफ था कि उन के आदमी फोन कर के सेठ लोगों को धमकी देते कि ‘सेठ जीना है तो 20 लाख शाम तक पहुंचा देना.’ सेठ की क्या मजाल कि वह इन्हें मना करे. मना करने वाले को ये लोग दूसरी दुनिया में भेज देते थे. इन की नागौर, सीकर, चुरू, बीकानेर, जयपुर, अजमेर आदि जिलों में तूती बोलती थी.

बाद में आनंदपाल पेशी के दौरान फरार हो गया और इस के बाद पुलिस द्वारा किए गए एक एनकाउंटर में वह मारा गया था. उस की मौत से राजू ठेहठ एकमात्र ऐसा गैंगस्टर था, जिस को सब से ज्यादा खुशी हुई. वह बलबीर बानूड़ा को पहले ही निपटा चुका था. अब पुलिस ने आनंदपाल को निपटा कर उसे दोहरी खुशी दे दी थी.

सीकर जिले के रानोली गांव के विजयपाल हत्याकांड में आरोपी गैंगस्टर राजू ठेहठ और उस के साथी मोहन माडोता को कोर्ट ने सन 2018 में उम्रकैद की सजा सुनाई. 23 जून, 2005 को ठेहठ ने विजयपाल की हत्या कर दी थी. सीकर अपर सेशन न्यायाधीश सुरेंद्र पुरोहित ने यह सजा सुनाई.

सीकर और शेखावटी में बदमाशों के बीच गैंगवार शुरू होने के बाद थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. राजू ठेहठ को उम्रकैद की सजा के बाद लगा था कि गैंग खत्म होगा, मगर ऐसा नहीं हो सका. पुलिस सूत्रों के अनुसार जेल से ही राजू और उस का भाई ओम ठेहठ गैंग को संचालित कर रहे थे.

खैर, आनंदपाल गैंग के सब से बड़े दुश्मन राजू ठेहठ की जान को खतरा था. सीकर पुलिस को आशंका थी राजू ठेहठ के दुश्मन मौका मिलते ही उसे गोलियों से छलनी कर देंगे. यही वजह थी कि सीकर पुलिस राजू ठेहठ की कोर्ट में पेशी के दौरान भारी पुलिस सुरक्षा और बुलेटप्रूफ जैकेट पहना कर ले जाती थी.