विक्रांत वर्मा डेथ केस : अपनी मौत की खूनी स्क्रिप्ट

रमेश वर्मा जब सुबह अपने खेत पर स्थित बकरी फार्म पर गए तो देखा कि अलाव के पास कोयला जैसी जली एक लाश  पड़ी हुई है. उन के बेटे विक्रांत वर्मा (Vikrant Verma) की बाइक भी वहीं खड़ी थी. उस का जला हुआ मोबाइल फोन भी वहीं लाश के पास ही पड़ा था. इस आशंका से कि लाश उन के बेटे विक्रांत की तो नहीं है, उन के होश उड़ गए. रमेश वर्मा ने तुरंत घर फोन किया.

परिवार के अन्य लोग भी वहां आ गए. बड़े बेटे को भी सूचना दी गई. बाइक, मोबाइल और कपड़ों के जले हुए अंश से लाश की पहचान घर वालों ने 25 वर्षीय विक्रांत वर्मा के रूप में कर ली. देखते ही देखते खबर पूरे गांव में फैल गई. पुलिस को सूचना दी गई. सुलतानपुर के कोतवाली देहात की पुलिस मौके पर पहुंची और हालात का जायजा लिया.

उत्तर प्रदेश के जिला सुलतानपुर के गांव दुबेपुर में 25 वर्षीय विक्रांत वर्मा पत्नी और 2 जुड़वां बेटियों के साथ रहता था. वैसे उस के पास खेती की जो जमीन थी, उस से गुजारे भर पैदावार हो जाती थी, लेकिन विक्रांत और उस की पत्नी को उस से तसल्ली नहीं थी. वह ऐसी आमदनी चाहते थे, जिस से उन के पास भी भरपूर पैसा और आधुनिक सुखसुविधाओं के सारे साधन हों. दोनों इस पर विचारविमर्श भी करते रहते थे.

विक्रांत ने आमदनी बढ़ाने का जतन शुरू किया. उस ने बैंक से लोन ले कर पहले मुरगी पालन का काम किया. काफी मेहनत और लगन के बाद भी विक्रांत को मुरगी पालन में सफलता नहीं मिली. मुरगियों में बीमारियां लग गईं.

काफी इलाज के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका. उधर पोल्ट्री फार्म में काम करने वाले मजदूरों ने भी सही तरीके से उन की देखभाल नहीं की, जिस से काफी संख्या में मुरगियां मर गईं. उस का यह कारोबार फेल हो गया. जिस से विक्रांत को इस में काफी बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ.

विक्रांत ने सोचा कि मुरगी पालन बहुत जोखिम का कारोबार है. वह किसी भी तरीके से मुरगी पालन करने में सफल नहीं हो सकता है. इसलिए उस ने फिर बकरी पालन का काम किया, लेकिन वह उस में भी सफल नहीं हुआ. दोनों ही धंधों में असफलता उस के हाथ लगी. जिस से उस की पूंजी डूब गई और वह लाखों रुपए का कर्जदार हो गया था.

इस के बाद विक्रांत हर समय मोबाइल में लगा रहता था. मोबाइल पर लगे रहना पत्नी को अच्छा नहीं लगता था. उस की इस आदत से पत्नी बहुत दुखी थी. उस के मन में यही खयाल आते रहते थे कि कहीं उस के पति का किसी और से चक्कर तो नहीं है. घर की आर्थिक हालत सही नहीं थी. ऊपर से पति का कमाने की तरफ ध्यान नहीं था, इसलिए पत्नी ने विक्रांत को तिकतिकाना शुरू किया.

एक दिन विक्रांत ने पत्नी से कहा कि वह दिल्ली काम की तलाश में जा रहा है. किसी दोस्त ने बताया है कि किसी फैक्ट्री में उसकी नौकरी लग जाएगी.

अचानक दिल्ली जाने की बात सुन कर पत्नी को शक व आश्चर्य तो हुआ, फिर भी उस ने सहज ही हंसीखुशी उसे दिल्ली जाने के लिए घर से विदा किया.

सभी कामों से निराश हो जाने पर विक्रांत दिल्ली में नौकरी करने गया. दिल्ली में कुछ महीने नौकरी करने के बाद  वह घर आया. यह बात 15 जनवरी, 2024 की है. उस समय रात के लगभग 10 बजे थे. कुछ समय रात में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ समय बिताने  के बाद सभी लोग सो गए.

विक्रांत को किस ने जलाया

16 जनवरी, 2024 की सुबह अपनी दैनिक क्रियाएं करने के बाद विक्रांत नाश्ते के लिए बैठ गया. पत्नी परांठे और चाय ले कर आ गई. इस बीच एक बच्ची रोने लगी पत्नी उसे बिस्तर से गोदी में उठा लाई. संभालने चुप कराने के लिए गोदी में ले कर वह पति के पास ही बैठ गई.

इस समय विक्रांत बहुत उदास था और गुमसुम सा बैठा नाश्ता कर रहा था. पत्नी को जब उस के चेहरे से परेशानी झलकती दिखाई दी तो उस ने सवाल कर ही दिया. क्या बात है? कैसे परेशान दिख रहे हो? दिल्ली में सही काम नहीं मिला तो कोई बात नहीं. आप यहीं खेती में ही फिर नए सिरे से मेहनत करो. धीरेधीरे सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.

विक्रांत ने भी चुप्पी तोड़ी और कहा कि मुझ पर अब तक 9 लाख का कर्ज हो चुका है. उस का तगादा हो रहा है. मुझे इसी बात की चिंता हो रही है कि यह कर्ज कैसे उतरेगा. काफी देर दोनों में विचार विमर्श हुआ फिर विक्रांत गांव में घूमने निकल गया. दोपहर में घर आया. खाना खाया और फिर मोबाइल में रम गया.

शाम लगभग 6 बजे बाइक ले कर वह अपने बकरी फार्म पर गया. पत्नी से कह कर गया कि देखते हैं, खेती में कैसे और क्या हो सकता है.

रात 10 बजे तक विक्रांत जब वापस नहीं आया, तब उस की पत्नी ने फोन किया. फोन की घंटी बजती रही, लेकिन फोन उठा नहीं. इस से पत्नी की चिंता बढ़ गई. उस ने  अपने ससुर रमेश वर्मा से यह बात बताई. उन्होंने भी फोन मिलाया, लेकिन फोन नहीं उठा.

रमेश वर्मा ने कई जगह रिश्तेदारियों में फोन कर के पूछा, पर विक्रांत का कोई पता नहीं मिला. उस की पत्नी ने भी अपने रिश्तेदारों में बात की लेकिन पता नहीं चला कि विक्रांत कहां है.

दोनों के दिमाग में यह था कि अगर फार्महाउस पर होता तो अब तक घर आ जाता. इतनी सर्दी में देर रात तक बकरी फार्म पर रुकने का कोई मतलब ही नहीं है. हो सकता है कि कहीं दोस्तों के साथ चला गया हो. बात आईगई हो गई. रात को लोग अपनेअपने कमरों में सो गए.

अगले दिन राजेश वर्मा बेटे के बकरी फार्म पर पहुंचे तो वहां अलाव में जली हुई एक लाश पड़ी थी. पास में बेटे विक्रांत की बाइक खड़ी थी. इस की सूचना उन्होंने घर वालों के अलावा कोतवाली (देहात) पुलिस को भी दे दी.

पुलिस को मामला आत्महत्या का प्रतीत हो रहा था. पास में जला हुआ एक मोबाइल फोन भी पड़ा था. घर वाले लाश की शिनाख्त विक्रांत वर्मा के रूप में पहले ही कर चुके थे. घटनास्थल पर ठंड से बचाव के लिए अलाव भी जलाया गया था, ढेर सारी राख इस बात की गवाही दे रही थी. उन दिनों शीत लहर चल रही थी, जिस से भीषण सर्दी थी. पुलिस ने मौके की जरूरी काररवाई कर के लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.

लाश का पोस्टमार्टम डाक्टरों के एक पैनल द्वारा किया गया. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया कि मृतक उस वक्त बहुत ज्यादा शराब के नशे में था और आग में जल जाने से उस की मौत हुई है. मृत्यु की बहुत ज्यादा स्थिति स्पष्ट न होने के कारण इस मामले में उस का विसरा जांच के लिए भी भेजा गया.

पुलिस क्यों नहीं कर रही थी हत्या की रिपोर्ट दर्ज

रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि हुई  कि उस ने अत्याधिक शराब का सेवन कर रखा था. ऐसे में कयास लगाया जा रहा था कि विक्रांत शराब के नशे में अलाव के पास पहुंचा और वहां आग की चपेट में आने से उस की मौत हो गई. विक्रांत के पिता इसे आत्महत्या या दुर्घटना मानने को तैयार नहीं थे. उन का मानना था कि उन का बेटा विक्रांत कितने भी डिप्रेशन में हो, लेकिन अत्यधिक शराब का सेवन नहीं कर सकता. वह आत्महत्या जैसा घातक कदम भी नहीं उठा सकता.

मौके की स्थिति भी हत्या किए जाने जैसी थी. एक जगह जलने के संकेत थे. उस ने इधरउधर भागने की कोई कोशिश नहीं की, जिस से स्पष्ट होता है कि विक्रांत को मार कर सबूत मिटाने के लिए जलाया गया है. उन्होंने अंतिम संस्कार की औपचारिकता पूरी करने के बाद दूसरे दिन थाने में हत्या की आशंका जताते हुए तहरीर दे दी.

पीडि़त पिता ने दी तहरीर में कहा कि उन्हें आशंका है कि अज्ञात व्यक्तियों ने उन के बेटे की हत्या कर के सबूत मिटाने के लिए शव जला दिया है. उन की तहरीर पर पुलिस ने हत्या की रिपोर्ट दर्ज नहीं की.

पुलिस की मानें तो घटना से एक दिन पहले मृतक ने अपने दोस्त रंजीत को काल की थी. फिर उस से मिल कर वह फूटफूट कर रोया कि अब मैं जिंदा नहीं रहूंगा. मुझे कोई अच्छी निगाह से नहीं देखता.

घर परिवार में भी कोई इज्जत नहीं है. समाज भी बुरा समझने लगा है. ऐसी जिंदगी से क्या फायदा. शुरुआती जांच के बाद पुलिस का स्पष्ट मत बन चुका था कि विक्रांत ने आत्महत्या की है. बताया जाता है कि पुलिस ने युवक के मोबाइल फोन समेत कई वस्तुओं को जांच के लिए कब्जे में लिया.

विक्रांत वर्मा की हत्या को 4 दिन बीत गए और अब तक केस दर्ज नहीं हुआ. घर वाले हत्या का आरोप लगाते हुए थाने के चक्कर लगाते रहे, लेकिन पुलिस आत्महत्या का केस दर्ज कराने के लिए परिजनों पर दबाव बनाती रही.

ऐसे में पिता ने अपने बड़े बेटे के साथ एसपी सोमेन वर्मा से मिल कर उन से हत्या का मुकदमा दर्ज कराए जाने की मांग की. थाना पुलिस के काररवाई न करने पर उन्होंने लंभुआ विधायक सीताराम वर्मा से भी हत्या का केस दर्ज कराने की गुहार लगाई.  विधायक विनोद सिंह से भी उन्होंने संपर्क किया. वह इस समय सदर सीट से विधायक हैं.

इन दोनों विधायकों की सिफारिश और बापबेटे की भागदौड़ आखिर रंग लाई और 22 जनवरी, 2024 को कोतवाली (देहात) थाने में अज्ञात के खिलाफ विक्रांत की हत्या का केस दर्ज हुआ. देहात कोतवाल श्याम सुंदर ने बताया कि विक्रांत के पिता ने बेटे की हत्या की केवल शंका जताई थी, जिस के चलते मामला दर्ज कर उन्होंने जांच शुरू की.

एसपी सोमन वर्मा ने विक्रांत वर्मा हत्याकांड के खुलासे के लिए 2 पुलिस टीमें गठित कीं. पहली टीम का नेतृत्व कोतवाल श्याम सुंदर को सौंपा गया. टीम में एसआई अखिलेश सिंह, विनय कुमार सिंह, हैडकांस्टेबल विजय कुमार, विजय यादव व आलोक यादव को शामिल किया गया.

दूसरी टीम एसओजी की गठित की. इस स्वाट टीम के प्रभारी उपेंद्र सिंह थे. इस में समरजीत सरोज, विकास सिंह, तेजभान सिंह और अबू हमजा को शामिल किया गया था. एसपी ने इस केस के खुलासे के लिए 25 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया था. दोनों टीमों की निगरानी लंभुआ क्षेत्र के सीओ अब्दुल सलाम कर रहे थे.

मुखबिर की सूचना पर क्यों चौंकी पुलिस

जांच के दौरान ही एक दिन श्याम सुंदर को मुखबिर ने सूचना दी कि विक्रांत मोबाइल फोन से गांव में कभीकभार किसी से बात करता है. यह सुन कर कोतवाल का दिमाग चकराया कि विक्रांत तो मर गया तो फिर वह फोन पर कैसे बात कर सकता है.

उन्होंने अपने उच्चाधिकारियों को यह बात बताई. अधिकारी भी सकते में आ गए. उन्होंने कहा कि विक्रांत जब किसी से बात करता है तो वह जली हुई लाश क्या किसी और की थी? इस का मतलब यह है कि विक्रांत अभी जिंदा है.

अधिकारियों ने हरी झंडी देते हुए कहा कि मुखबिर की सूचना पर जांच आगे बढ़ाई जाए. विक्रांत जिस मोबाइल नंबर से बात करता था, वह मोबाइल नंबर पुलिस के हत्थे चढ़ गया. पता चला कि इस नंबर पर रात में किसी से कभीकभार बात होती है. दिन के बाकी समय में यह नंबर बंद रहता है.

कोतवाल श्याम सुंदर को पता चला कि यह मोबाइल नंबर एक महिला का है. मोबाइल नंबर की लोकेशन हरियाणा प्रदेश के पानीपत शहर की मिल रही थी.

इस हत्याकांड को खोलने के लिए कोतवाली पुलिस पर 2-2 विधायकों और उच्चाधिकारियों का प्रेशर बना हुआ था. पानीपत की लोकेशन मिलते ही पुलिस की टीमों को वहां भेजा गया. पुलिस मुखबिर को साथ में ले कर उस क्षेत्र की निगरानी कर रही थी. जहां पर टेलीफोन नंबर की लोकेशन मिल रही थी.

पुलिस ने सर्विलांस टीम की मदद ली. लोकेशन ट्रेस हुई. इस के बाद पुलिस ने हरियाणा के पानीपत स्थित गली नंबर- 28 (वार्ड नं. 16) विकास नगर में दबिश दी. यह इलाका थाना सेक्टर- 29 इंडस्ट्रियल एरिया का है.

कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद आखिर विक्रांत वर्मा हत्थे चढ़ गया. उसे जीवित देख कर पुलिस चौंक गई. पता चला कि उस ने यहां अपना नाम विक्की कुमार रख लिया था. अपनी पहचान बदलने की उस ने पूरी कोशिश की, लेकिन मुखबिर की शिनाख्त के कारण विक्रांत वर्मा को पुलिस ने दबोच लिया.

थोड़ी सी सख्ती करने पर विक्रांत वर्मा टूट गया. उस ने अपना को विक्रांत वर्मा होना स्वीकार किया तथा गुनाह कुबूल कर लिया. वहां से पुलिस ने विक्रांत, उस के साथी शक्तिमान कुमार व अनुज साहू निवासी कासगंज के तुमरिया को गिरफ्तार कर लिया.

विक्रांत ने पुलिस को जो कुछ बताया, घटना के 25वें दिन केस का खुलासा करते हुए उस की जानकारी लंभुआ के सीओ अब्दुल सलाम ने पत्रकारों को एक प्रैस कौन्फ्रैंस में दी. कोतवाल श्याम सुंदर भी उस समय वहां मौजूद थे.

विक्रांत ने क्यों उड़ाई थी अपनी आत्महत्या की खबर

जांच में पता चला कि रोजगार के लिए दिल्ली आने पर विक्रांत की मुलाकात शक्तिमान कुमार और अनुज साहू से हुई थी. उस समय विक्रांत डिप्रेशन में था. उस की परेशानी चेहरे से साफ झलक रही थी. उन दोनों ने उस के चेहरे को पढ़ लिया. पूछने लगे  किस बात से परेशान है.

विक्रांत ने बताया कि उस की जुड़वां बच्चियां हैं, जो लगभग डेढ़ साल की हो चुकी हैं. पत्नी बच्चों के पालन पोषण में लगी रहती है, जिस से उस का उस की तरफ कोई ध्यान नहीं है. जबकि एक और लड़की जो उस का पहला प्यार है, वह अब भी मेरा इंतजार कर रही है. मैं आज भी पहले प्यार को भुला नहीं पा रहा हूं.

पत्नी की बेवफाई ने प्रेमिका से प्यार और भी बढ़ा दिया है. उस की बेबसी और लाचारी मुझ से देखी नहीं जा रही. शरीर के बीच जो दूरियां बनी हुई हैं, उस से मैं बहुत दुखी हूं. वह भी दो जिस्म मगर एक जान होने के लिए तत्पर है. मुझ पर दबाव भी बना रही है. प्रेमिका ने बताया है कि अब घर वाले उस की शादी की तैयारी कर रहे हैं. उस की यह बात सुन कर मैं बहुत परेशान हूं. मैं उसे किसी हालत में खोना नहीं चाहता.

विक्रांत ने अपने साथियों को यह भी बताया कि उस का मुरगी पालन और बकरी पालन का व्यवसाय फेल हो गया. उस से कर्जदार हो गया है. करीब 9 लाख रुपए का बैंक का कर्ज है. अब उसे वह ऐसी तरकीब बताएं कि मर कर भी जिंदा रहे और सारी प्रौब्लम दूर हो जाए.

शक्तिमान कुमार और अनुज साहू ने काफी सोचविचार के बाद क्राइम मिस्ट्री तैयार की. उन्होंने बताया कि हम किसी और व्यक्ति की हत्या कर के उस की लाश को जला देंगे और वहां पर तेरा सामान बाइक, मोबाइल आदि छोड़ देंगे, जिस से पता चले कि विक्रांत ने आत्महत्या कर ली है. इस तरह तुम्हारा पत्नी से भी पीछा छूट जाएगा और प्रेमिका भी हासिल हो जाएगी और कर्ज के 9 लाख रुपए भी देने नहीं पड़ेंगे.

किस को बनाया बलि का बकरा

अपनी कार्य योजना को अंजाम देने के लिए 15 जनवरी, 2024 को विक्रांत दोनों दोस्तों के साथ अपने गांव आ गया. उस ने अपने दोनों साथियों को फार्महाउस पर ठहरने की व्यवस्था की.

16 जनवरी की दोपहर अनुज शक्तिमान के साथ अमहट क्षेत्र में स्थित सरकारी देसी शराब के ठेके पर पहुंचा. काफी देर की निगरानी के बाद वहां नशे में झूलता हुआ एक व्यक्ति मिला, जिसे उन दोनों में से कोई नहीं जानता था. वो कदकाठी में बिलकुल विक्रांत ही जैसा था.

उसे वे यह बोल कर बाइक पर बैठाकर लाए कि चलो तुम्हें घर पहुंचा दें. वह दोनों उसे अपने बकरी फार्म पर ले आए. विक्रांत ने शराब की दुकान से एक बोतल खरीदी और फिर वह भी बकरी फार्म आ गया.

वहां उन तीनों ने उस व्यक्ति को और शराब पिलाई. वह इतना बेहोश हो गया कि अपने आप हिलडुल भी नहीं सकता था. वह शराबी सफेद कुरतापाजामा ब्राउन कलर की जैकेट पहने हुआ था. मफलर भी  पहने हुए था.

vikrant-verma-in-police-custody

आरोपी अनुज साहू, शक्तिमान कुमार और विक्रांत वर्मा पुलिस हिरासत में

विक्रांत ने जो कपड़े पहन रखे थे, जिन्हें पहन कर वह दिन भर गांव में भी घूमा था, वह कपड़े उतार कर उस व्यक्ति को पहना दिए. उस से पहले उस व्यक्ति के सारे कपड़े उतार दिए थे. काम पूरा करने के बाद बकरी फार्म से भागने के लिए उन्होंने सारा सामान बैग में पहले तैयार कर लिया था. उस में से पैंट शर्ट निकाल कर विक्रांत ने पहन लिए.

कुछ लकडिय़ां और उपले उन लोगों ने पहले ही एकत्र कर लिए थे. जिस से कि यह पता चले कि ठंड से बचने के लिए यहां अलाव जलाया गया था. फिर उस व्यक्ति पर पेट्रोल डाल कर आग लगा दी. उस के कपड़े भी जला दिए.

उस समय रात के लगभग 9 बज चुके थे. चारों तरफ सन्नाटा था. सभी लोग ठंड में अपने घरों में थे. जब उन तीनों लोगों को विश्वास हो गया कि वह व्यक्ति मर चुका है और उस की लाश को पहचाना नहीं जा सकता, फिर वे सब वहां से फरार हो गए.

वहां से पहले लखनऊ फिर कासगंज और उस के बाद में पानीपत चले गए. पानीपत में ही विक्रांत की प्रेमिका भी रहती थी.

जिस को जलाया गया आखिर वो व्यक्ति था कौन?

यह सुन कर पुलिस के भी होश उड़ गए. पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट को ध्यान से नहीं देखा था. क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृतक की आयु लगभग 60 वर्ष जरूर बताई गई होगी. जबकि विक्रांत की उम्र मात्र 25 साल थी. पुलिस की जांच में सामने आया कि जिस व्यक्ति को शराब के नशे में धुत कर के जिंदा जलाया था, वह सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, दुबेपुर में चालक द्वारिकानाथ शुक्ला पुत्र चंद बहादुर शुक्ला था. द्वारिकानाथ शुक्ला की बंधु आकला थाने में गुमशुदगी दर्ज थी. वह इसी क्षेत्र में रहता था.

लगभग 60 वर्षीय द्वारिकानाथ शुक्ला उत्तर प्रदेश के अयोध्या जनपद के गांव रौतवां का मूल निवासी था. यह भी पता चला कि शक्तिमान इस समय पानीपत में ही रहता है. विक्रांत वर्मा ने भी यहीं पर नौकरी कर ली थी. पुलिस ने द्वारिकानाथ शुक्ला की गुमशुदगी  को हत्या में तरमीम किया.

कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद पुलिस ने शक्तिमान कुमार, अनुज साहू और विक्रांत वर्मा को गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया, जहां से तीनों को जेल भेज दिया.

—कथा पुलिस सूत्रों व जनचर्चा पर आधारित है

विनोद उपाध्याय : एक थप्पड़ ने बनाया गैंगस्टर

विनोद उपाध्याय : एक थप्पड़ ने बनाया गैंगस्टर – भाग 4

स्थानीय थानों में भी रहता था दबदबा

बात जनवरी, 2017 की है. विनोद उपाध्याय के दोस्त और खोराबार कजाकपुर का प्रौपर्टी डीलर संजय यादव घर से निकलते समय रहस्यमय तरीके से लापता हो गया.

उन दिनों योगी आदित्यनाथ प्रदेश के नएनए मुख्यमंत्री बने थे. भाई की गुमशुदगी का मामला ले कर पीडि़त दीपक मुख्यमंत्री के दरबार (गोरखनाथ मंदिर में) पेश हुआ और मामले की पूरी जानकारी दे कर भाई की हत्या किए जाने की आशंका जताई थी.

चूंकि मामला मुख्यमंत्री के गृह जनपद से जुड़ा हुआ था और एक बड़े प्रौपर्टी डीलर से भी जुड़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से लिया और गोरखपुर पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए तुरंत काररवाई करने का आदेश दिया.

मुख्यमंत्री के सख्त तेवर के बाद पुलिस हरकत में आई और संजय यादव की तलाश तेजी से शुरू की. लापता होने के बाद संजय यादव की आखिरी लोकेशन बेलीपार थाना क्षेत्र के चोरिया की मिली. बाद में दानबहादुर के खेत में उस की लाश मिली.

जिस क्षेत्र में संजय की लाश बरामद हुई थी, उसी इलाके में मृतक लाल बहादुर यादव का घर था. इस मौके को विनोद अपने हाथों से जाने देना नहीं चाहता था.

लाल बहादुर गैंग के लोगों ने विनोद के 2 आदमियों को दर्दनाक तरीके से मौत के घाट उतारा था. यह बात विनोद अभी तक नहीं भूल पाया था. उस ने इसी बात का फायदा उठाया और दोस्त संजय यादव की हत्या में लाल बहादुर गैंग के दुश्मनों को झूठे केस में फंसा दिया.

दरअसल, दीपक को भरोसा नहीं था कि खोराबार पुलिस मामले की जांच ठीक तरीके से करेगी. विनोद के बहकावे में दीपक पूरी तरह आ गया था, जो वह यही चाहता था. विनोद के उकसाने पर दीपक ने मामले की जांच खोराबार से शाहपुर थाने में स्थानांतरित करवा दी.

शाहपुर थाने में विनोद उपाध्याय की तूती बोलती थी. थाने की पुलिस उस के इशारों पर नाचती थी. संजय यादव हत्याकांड की जांच एसआई विमलेंदु को सौंपी गई थी. विमलेंदु विनोद का खासमखास था. उसी के इशारों पर विवेचक विमलेंदु ने फरजी नाम जोड़ दिया था और लाल बहादुर गैंग के दुश्मनों को आरोपी बना दिया था.

सच्चाई जब सामने आई तो वादी मुकदमा दीपक यादव को शासन के सामने पेश कर आरोपी पक्ष के मुकदमे को कुशीनगर जिले स्थानांतरण करवा दिया. बाद में गोरखपुर से लखनऊ तक पुलिस विभाग में हड़कंप मच गया था.

17 सालों से माफिया विनोद उपाध्याय पुलिस की आंखों की किरकिरी बन गया था. आतंक के बल पर अपराध की दुनिया में बादशाहत का परचम लहराया था. साथ ही उस ने फिरौती की रकम से करीब 6 करोड़ की संपत्ति भी बना ली थी. यही नहीं उस ने अपनी संपत्ति का विस्तार गोरखपुर, लखनऊ और प्रयागराज तक कर लिया था.

फिलवक्त विनोद गुलरिहा थाने के मोगलहा मोहल्ले में आलीशान इमारत बनवा कर परिवार सहित रहता था. जुर्म की दौलत से खड़ा मकान पुलिस ने बुलडोजर चलवा कर जमीदोंज कर दिया.

बात 25 मई, 2023 की है. कैंट मोहल्ले के दाउदपुर नहर रोड पर रहने वाले प्रवीण श्रीवास्तव ने गुलरिहा थाने में माफिया विनोद कुमार उपाध्याय, उस के भाई संजय, नौकर छोटू और 2 अन्य व्यक्तियों के खिलाफ रंगदारी मांगने, जान से मारने की धमकी देने और तोडफ़ोड़ करने का मुकदमा दर्ज कराया था.

प्रवीण का आरोप था कि जमीन बेचने के लिए उन के ऊपर दबाव बनाया जा रहा था. बात न मानने पर प्रति प्लौट 5 लाख रुपए मांग रहा था. इस मामले में मुकदमा दर्ज होने के बाद संजय और नौकर छोटू गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए थे. विनोद चकमा दे कर फरार हो गया था.

इस के ठीक 9वें दिन यानी 3 जून, 2023 को कोतवाली थानाक्षेत्र स्थित धम्माल मोहल्ला निवासी राजकुमार श्रीवास्तव ने विनोद उपाध्याय, सहयोगी बाबू नंदन यादव, रमेश शर्मा और 2 अज्ञात लोगों के खिलाफ रंगदारी और जान से मारने की धमकी का मुकदमा दर्ज कराया था. इन्हीं दोनों मुकदमों में विनोद की तलाश तेज कर दी गई थी.

फरारी के दौरान विनोद लखनऊ में मंत्री बन कर छिपा था. वहीं उस की बेटी एक कौन्वेंट स्कूल में पढ़ती थी. उस ने बेटी का नाम कटवा कर वहां से हटा दिया था. विनोद को इस बात की भनक लग चुकी थी, पुलिस कभी भी उस की बेटी को मोहरा बना कर उसे हाजिर होने के लिए दबाव बना सकती थी. वह हरगिज ऐसा होने देना नहीं चाहता था, इसीलिए उस ने बेटी का नाम कटवा दिया था.

खैर, फरारी के दौरान आईजी रेंज ने अगस्त 2023 में विनोद के ऊपर 50 हजार का इनाम घोषित किया. सितंबर में एडीजी (जोन) डा. के.एस. प्रताप कुमार ने इनाम की राशि बढ़ा कर एक लाख रुपए कर दी थी. इस के बाद उस का नाम मोस्टवांटेड अपराधियों की सूची में जुड़ा और उसे गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी एसटीएफ को सौंपी गई. अदालत से कुख्यात डौन विनोद उपाध्याय के खिलाफ गैरजमानती वारंट भी जारी हो चुका था. जबकि विनोद किसी कीमत पर पुलिस के हाथों चढऩा नहीं चाहता था.

आखिरकार लखनऊ से प्रयागराज आते समय सुलतानपुर के हनुमानगंज गोपालपुरवा इलाके में एसटीएफ ने उसे घेर लिया. 4/5 जनवरी, 2024 की सुबह साढ़े 3 बजे आतंक का पर्याय बने विनोद उपाध्याय की कहानी उस के गुरु श्रीप्रकाश शुक्ला की तरह खत्म कर दी.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

विनोद उपाध्याय : एक थप्पड़ ने बनाया गैंगस्टर – भाग 3

बात 2007 की है. किसी बात को ले कर विनोद के छोटे भाई संजय का पुलिसकर्मियों से विवाद हो गया. शाहपुर थाने की पुलिस संजय को हिरासत में कौवा बाग पुलिस चौकी पर ले गई.

विनोद को जैसे ही पता चला कि भाई को पुलिस पकड़ कर ले गई है तो वह अपने साथ बड़े लावलश्कर को साथ ले कर कौवा बाग चौकी पहुंच गया और पुलिस के कब्जे से दबंगई के बल पर भाई को छुड़ा कर ले गया. पुलिस वालों के साथ मारपीट भी की.

इस मामले में विनोद और उस के भाइयों पर केस भी दर्ज हुआ. धीरेधीरे मामला राजनैतिक रूप लेने लगा, जिस के बाद विनोद उपाध्याय और संजय उपाध्याय को जेल जाना पड़ा.

अपराधी से राजनेता और फिर राजनेता से माफिया बन चुका था विनोद उपाध्याय. साल 2007 में हुई कैंट थानाक्षेत्र के पीडब्ल्यूडी कांड की याद जब आती है तो रूह अपने आप कांप जाती है. माफिया विनोद उपाध्याय और माफिया लालबहादुर यादव के बीच लोक निर्माण विभाग के ठेके को ले कर लंबे समय से तनातनी चल रही थी.

टेंडर वाले दिन टेंडर डालने को ले कर विनोद के साथियों का लाल बहादुर यादव के साथ विवाद हो गया था. धीरेधीरे मामला बढ़ता गया. मामला बढऩे पर लालबहादुर ने उपाध्याय के साथियों को घेर लिया. दोनों ओर से गोलियां चलीं.

विनोद उपाध्याय गिरोह पर माफिया लाल बहादुर यादव भारी पड़ा. इस गैंगवार में उपाध्याय के 2 करीबी साथी रिपुंजय राय और सत्येंद्र कुमार मौत के घाट उतार दिए गए. रिपुंजय की तो खोपड़ी ही उड़ गई थी. जिलाधिकारी आवास के पास हुई दिनदहाड़े हुई इस लोमहर्षक घटना के बाद पूरे शहर में सनसनी फैल गई थी.

इस मामले में अजीत शाही, संजय यादव, संजीव सिंह, इंद्रकेश पांडेय सहित 6 लोगों के खिलाफ केस दर्ज हुआ, लेकिन लालबहादुर यादव को आरोपी नहीं बनाया गया. यह देख विनोद का खून खौल उठा और उस दिन से दोनों गुटों में दुश्मनी और भी ज्यादा बढ़ गई थी.

इस घटना ने विनोद उपाध्याय को एक शातिर खिलाड़ी के रूप में कुख्यात कर दिया था. साथी की मौत से विनोद उपाध्याय पागल सा हो गया था और लाल बहादुर यादव से बदला लेने के लिए इंतकाम की आग में जल रहा था.

अब लाल बहादुर इस के निशाने पर था. उस ने शतरंज के बिसात पर अपने मोहरों को खेलना शुरू कर दिया था. शातिर विनोद ने लाल बहादुर को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चक्रव्यूह की रचना शुरू की. 2014 की शाम कैंट थाने के पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के मुख्य गेट के सामने लाल बहादुर यादव की गोली मार कर हत्या करवा दी थी. इस मामले में विनोद सहित कुल 11 लोग आरोपी बनाए गए.

घटना की जांच चली तो 3 महीने बाद प्रकाश में आया कि चिडिय़ाघर बनाने के लिए गिराई जा रही मिट्टी को ले कर लालबहादुर और विनोद के करीबी धनंजय तिवारी के बीच में अदावत चल रही थी.

धनंजय विनोद का पक्का दोस्त था. उस का सपोर्ट खुद विनोद कर रहा था. धनंजय के कंधे पर विनोद ने बंदूक रख कर घटना की रोचक पटकथा लिखी. बाद में विनोद सहित सभी आरोपी जेल भेज दिए थे.

विनोद उपाध्याय कितना शातिर किस्म का माफिया था, इस घटना से साफ जाहिर होता है. लाल बहादुर यादव हत्याकांड के जुर्म में विनोद गोरखपुर मंडलीय कारागार में बंद था.

जेल में बंद होते ही वहां अपनी हुकूमत चलानी शुरू कर दी थी. इस बात को ले कर डिप्टी जेलर राजेश मौर्या और विनोद उपाध्याय के बीच ठन गई थी. किसी भी कीमत पर जेलर राजेश मौर्या उस की गुंडागर्दी की खेती जेल के अंदर फैलने देना नहीं चाहते थे.

जेलर राजेश मौर्या को उन की औकात बताने के लिए जेल में रह कर ही माफिया विनोद ने खतरनाक साजिश रच कर सनसनी फैला दी थी. 8 दिसंबर, 2014 की रात डिप्टी जेलर राजेश मौर्या के सरकारी आवास में पिस्टल ले कर एक बदमाश घुस गया. जेलर मौर्या को पिस्टल सटा कर नकदी, गहने, मोबाइल फोन और सरकारी रिवौल्वर छीनने के बाद उन की स्कूटी की चाबी ले कर बदमाश फरार हो गया.

इस घटना से पुलिस महकमा दहल गया तो वहीं पुलिसकर्मी भी रात को कमरे से बाहर निकलने में बुरी तरह कांपते थे. फिर जेलर की सुरक्षा के लिए पीएसी की बड़ी टुकड़ी तैनात कर दी गई थी. लेकिन जेलर मौर्या बुरी तरह अंदर से भयभीत हो गए थे और कुछ दिनों बाद उन्होंने वहां से अपना स्थानांतरण करवा लिया था.

फिलहाल, पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर के जांच शुरू की. जांच के दौरान पता चला कि घटना की साजिश जेल के भीतर ही रची गई थी. साजिश को रचने वाला कोई और नहीं बल्कि माफिया विनोद ही था. 3 महीने बाद 6 मार्च, 2015 की रात जेल परिसर में फिर से एक घटना घटी.

जेल टावर पर चढ़े मंकी कैप पहने बदमाश ने ड्यूटी कर रहे सिपाही की पिस्टल की नोक पर वरदी उतरवा ली. बदमाश ने दूसरे टावर पर तैनात बंदीरक्षक के साथ भी ऐसा ही किया. इस घटना के बाद जेल में हड़कंप मच गया. एक बार फिर जेल के सिपाही बुरी तरह दहशत में आ गए थे.

घटना की जांच हुई. 27 मार्च, 2015 को पुलिस ने शाहपुर थानाक्ष़ेत्र स्थित घोषीपुरवा पुरानी मसजिद निवासी सैफ अली उर्फ सोनू और सुडिय़ाकुंआ बशारतपुर के रहने वाले विजय उपाध्याय को गिरफ्तार कर घटना का परदाफाश किया.

जेल में कैसे रची खौफनाक साजिश

दोनों बदमाश जेल में बंद माफिया विनोद उपाध्याय के इशारे पर दहशतगर्दी का नंगा खेल खेले थे. हद तो तब हो गई थी, जब 2014 में एक घटना को ले कर गोरखपुर के एक एसएसपी ने विनोद उपाध्याय को गिरफ्तार कर जेल भिजवाया था. इस ने अपनी राजनैतिक रसूख का इस्तेमाल कर एसएसपी पर उसे छोडऩे का दबाव बना रहा था, लेकिन एसएसपी ने उस की एक न सुनी.

फिर क्या था, सत्ता के गलियारे में अपनी पहुंच के बल पर उस ने एसएसपी का ट्रांसफर पीएसी में करा दिया. हालांकि बाद में उन का स्थानांतरण इसी पद पर बड़े जिले में कर दिया गया.

माफिया विनोद उपाध्याय के नाम से पुलिस विभाग में दहशत कायम थी. सलाखों के पीछे रहते हुए भी अपना वर्चस्व बनाए रखता था. लाल बहादुर यादव हत्याकांड के बाद एक बार फिर विनोद चर्चाओं में था.

सलाखों के पीछे कैद विनोद बाहर आने के लिए तड़प रहा था. साम, दाम, दंड, भेद सारी नीति अपना कर हर हाल में जेल के बाहर आना चाहता था. 2017 में ही एक और घटना घटी थी, जिस में खुद को बचाने के लिए अपने दुश्मनों को झूठे केस में फंसा दिया था.

विनोद उपाध्याय : एक थप्पड़ ने बनाया गैंगस्टर – भाग 2

1997 के दौर में श्रीप्रकाश शुक्ला एक कुख्यात डौन का नाम था, जिस के नाम से बड़ेबड़े सूरमाओं की घिग्घी बंध जाती थी. उस के एक फोन से व्यापारियों की तिजोरियों के ताले खुल जाया करते थे. मंत्रियों और राजनेताओं की जान उन के गले में अटकी रहती थी कि किस गोली पर उन का नाम लिखा है. उस के नाम से वे थरथर कांपते थे.

हालांकि विनोद उपाध्याय कभी डौन श्रीप्रकाश शुक्ला से मिला नहीं था, लेकिन 1997 में श्रीप्रकाश शुक्ला ने बाहुबली वीरेंद्र प्रताप शाही को लखनऊ में गोलियों से भून डाला, तब विनोद उपाध्याय का कहीं नाम भी नहीं था. श्रीप्रकाश शुक्ला के उस खूनी खेल को देख विनोद को हाथों में बंदूक थामने की सनक सवार हुई और वह गिरोह के सदस्यों से संपर्क में आ गया.

जब श्रीप्रकाश शुक्ला गाजियाबाद में एसटीएफ के हाथों मुठभेड़ में मारा गया था, तब विनोद गिरोह के सदस्यों सत्यव्रत राय और सुजीत चौरसिया के नजदीक आ गया था. उस के दिलोदिमाग पर श्रीप्रकाश शुक्ला के कारनामों की अमिट छाप छप गई और उस के आदर्श का चोला पहन कर अपने जीवन में पूरी तरह से उतार लिया और उस के जैसा डौन बनने का संकल्प ले लिया था.

सत्यव्रत राय की अंगुलियां पकड़ कर विनोद उपाध्याय ने जुर्म की डगर पर चलना शुरू किया था. एक तरह से वह अपराध के विश्वविद्यालय का एक माहिर प्रोफेसर था. अपराध के हर एक दांवपेंच को बखूबी जानता था. अपराध के चक्रव्यूह में प्रवेश करने और उस के सभी द्वारों को सफलतापूर्वक तोड़ कर बाहर निकलने की कला में भी वह माहिर था. विनोद धीरेधीरे सारे गुणों में माहिर हो चुका था.

विनोद और सत्यव्रत राय ने जमीन के कारोबार से अपने दोस्ताना सफर को आगे बढ़ाना शुरू किया. जमीन खरीदफरोख्त को ले कर गोरखपुर में जमीन के एक मालिक से विवाद हो गया. दबंग विनोद ने उसे जान से मारने की कोशिश की, लेकिन वह बच गया. जमीन मालिक ने उस के खिलाफ गोरखपुर के गोरखनाथ थाने में मुकदमा दर्ज करा दिया.

1999 में विनोद के खिलाफ पहली बार हत्या का प्रयास (धारा 307 आईपीसी) का मुकदमा दर्ज हुआ था और उसे जेल भेज दिया गया. कुछ दिन जेल में रहने के बाद उस की जमानत हो गई और वह जेल से बाहर आ गया और फिर जुर्म की राह चल निकला.

जेल से बाहर आने के बाद विनोद और सत्यव्रत राय दोनों फिर से अपने जमीन और सूद वाले धंधे में जुड़ गए थे. इस बार दोनों की यह दोस्ती ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी, बल्कि कुछ ही समय में दोनों के बीच दुश्मनी की बड़ी लकीर खिंच गई.

जुर्म की दुनिया का बड़ा खिलाड़ी था सत्यव्रत राय. जबकि विनोद जुर्म के बीज से अंकुरित हुआ एक पौधा था. उस के सामने उस की न कोई औकात थी और न कोई वजूद ही. उस ने अपनी तिकड़म वाली चाल से विनोद उपाध्याय को जेल भिजवा दिया.

वह साल 2004 था, जब विनोद विवाद में गोरखपुर जिला कारागार में बंद हुआ था. वह गजब का शातिर और उतना ही मनबढ़ किस्म का बदमाश था. जेल में बंद दबदबे को ले कर वहां पहले से निरुद्ध नेपाल के भैरहवा जिले के माफिया डौन जीतनारायण मिश्र से कहासुनी हो गई थी. माफिया जीत के सामने विनोद बौना था. उस ने विनोद को जम कर अपमानित करने के साथ ही एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया था.

थप्पड़ इतना जोरदार था कि उसे दिन में तारे नजर आने लगे थे. इस के बाद माफिया जीतनारायण मिश्र को बस्ती जेल भेज दिया गया.

कुछ दिनों बाद विनोद जमानत पर जेल से बाहर आया और जीतनारायण से बदला लेने की जुगत में जुट गया था. जेल में हुआ अपमान और थप्पड़ की मार वह चाह कर भी भुला नहीं पा रहा था.

उस दिन साल 2005 के अगस्त की 7 तारीख थी. विनोद को पता चला कि जेल से छूटने के बाद जीतनारायण मिश्र बहनोई गोरेलाल मिश्र के साथ नेपाल जा रहा है. इसी मौके के इंतजार में विनोद कब से फडफ़ड़ा रहा था.

जैसे ही उसे जानकारी हुई, उस ने साथियों के साथ संतकबीर नगर के बखिरा क्षेत्र में जीतनारायण मिश्र और बहनोई गोरेलाल को घेर लिया. और दोनों को गोलियों से भून कर मौत के घाट उतार दिया. विनोद ने अपने अपमान का बदला ले लिया. इस के बाद वह पूर्वी उत्तर प्रदेश में चर्चा में आ गया था.

अपराध सिंडीकेट में विनोद ने अपना नाम दर्ज करा लिया था और दुस्साहस का एक पर्याय बन गया था. उस के नाम का डंका बजने लगा था. पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय को उस ने राजनीति का अखाड़ा बना लिया था.

उस के सामने कोई भी खड़ा होने का दुस्साहस नहीं कर सकता था. जो भी टकराने की जुर्रत करता, उस के हाथपांव तोड़वा कर अपाहिज बना देता था. अब उस के साथ युवाओं की एक बड़ी फौज तैयार हो चुकी थी.

अपराधी से राजनेता कैसे बना विनोद

विनोद उपाध्याय ने छात्र राजनीति से सियासी शुरुआत की. वह खुद छात्र संगठन का चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि अपने प्रत्याशी मैदान में उतारने लगा. जिस प्रत्याशी के सिर पर हाथ रखता था, उस का विजयी होना तय था. उस से विनोद का जलवा और भी ज्यादा बढ़ गया था. अब तो उस के नाम पर छात्र हफ्तावसूली करने लगे.

इसी दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बाहुबली और कद्दावर नेता की जब उस पर नजर पड़ी तो उस ने उस के सिर पर अपना हाथ रख दिया था.

उस बाहुबली नेता का वरदहस्त प्राप्त होते ही विनोद के पैर जमीन पर नहीं थे. उसी नेता ने बहुजन समाज पार्टी की मुखिया बहन मायावती से उसे मिलवाया और साल 2007 में बसपा से गोरखपुर सदर विधानसभा से टिकट दिलवाया.

विनोद के चुनाव प्रचार में खुद बसपा सुप्रीमो मायावती ने हिस्सा लिया और उस के हिस्से में वोट डालने की जनता से अपील की थी, लेकिन गोरखपुर की जनता ने उसे सिरे से नकार दिया.

चुनाव में उसे बुरी तरह हार का सामना करना पड़़ा और दूसरी बार जीत का सेहरा भाजपा के कद्दावर नेता राधामोहन दास अग्रवाल के सिर बंधा और वह एक बार फिर से विधायक बनेे.

विनोद उपाध्याय का आपराधिक चरित्र उस के सामने आया, जो हार का सब से बड़ा कारण बना था और वह चौथे स्थान पर आ गया था. इस हार के बाद मायावती ने उसे बसपा की सदस्यता से बरखास्त कर दिया और किसी राजनैतिक पार्टी ने उसे अपने यहां स्थान नहीं दिया तो उस ने अपना पुराना धंधा शुरू कर दिया.

विनोद उपाध्याय : एक थप्पड़ ने बनाया गैंगस्टर – भाग 1

मुखबिर के जरिए एसटीएफ को पक्की सूचना मिली थी कि विनोद सुलतानपुर के रास्ते प्रयागराज भागने की कोशिश में है. सूचना मिलते ही  डीएसपी सिंह भी सुलतानपुर पहुंच चुके थे और टीम के साथ उसे हनुमानगंज गोपालपुरवा इलाके में घेर लिया.

खुद को पुलिस टीम से घिरा देख माफिया विनोद पसीना पसीना हो गया और किसी कीमत पर पुलिस के हाथों चढऩा नहीं चाहता था. उस ने पुलिस के ऊपर स्टेनगन से फायर झोंक दिया. इंसपेक्टर हेमंत सिंह और हैडकांस्टेबल शशिकांत बालबाल बचे. एसटीएफ ने भी अपनी सुरक्षा में जबावी काररवाई शुरू कर दी.

गोलियों की तड़तड़ाहट से पूरा इलाका थर्रा उठा था जैसे दीपावली की आतिशबाजी हो रही हो. गोलियों की आवाज सुन कर गांव वालों की नींद टूट गई थी. वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि रात के समय कौन आतिशबाजी कर रहा है.

इधर जब दूसरी ओर से फायरिंग होनी बंद हुई, तब एसटीएफ सावधानी बरतते हुए दबेपांव मिट्टी के टीले के पीछे पहुंची तो देखा हाथ में स्टेनगन लिए माफिया विनोद लुढ़का पड़ा था. पुलिस विनोद के पास पहुंची तो देखा कि गोलियों से उस का जिस्म छलनी हो चुका था, लेकिन अभी भी उस की हलकी हलकी सांसें चल रही थीं.

एसटीएफ ने तुरंत सरकारी एंबुलेंस को फोन कर मौके पर बुलाया और उसे सरकारी अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने देखते ही मृत घोषित कर दिया था.

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर का रहने वाला माफिया विनोद कुमार उपाध्याय पिछले 17 सालों से आतंक का पर्याय बना हुआ था. वह बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले विधायक का चुनाव भी लड़ चुका था. राज्य के टौप टेन अपराधियों में शुमार था, जिस की गोरखनाथ थाने में हिस्ट्रीशीट नंबर-1 बी दर्ज थी.

इस पर गोरखपुर के एडीजी (जोन) डा. के.एस. प्रताप कुमार ने एक लाख रुपए का इनाम रखा था. यह इनाम गोरखपुर के गुलरिहा थाने में दर्ज एक गंभीर मामले में वांछित होने पर रखा गया था और पिछले 8 महीने से पुलिस को विनोद उपाध्याय की तलाश जारी थी.

एडीजी (जोन) डा. के.एस. प्रताप कुमार ने नवयुवकों के रोलमाडल बने माफिया विनोद कुमार उपाध्याय को गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी एसटीएफ के डिप्टी एसपी दीपक सिंह को सौंपी थी. उन्होंने अपने कुछ तेजतर्रार और पुलिस अधिकारियों को अपनी टीम में शामिल किया था, जो विनोद की जिंदगी का एकएक राज जानते थे.

इस बार उस की युद्ध स्तर पर तलाश हो रही थी और उन के बीच में लड़ाई आरपार की थी. मुख्यमंत्री का सख्त आदेश पा कर पुलिस अधिकारी सक्रिय हो गए थे. इस मिशन पर स्थानीय पुलिस के साथसाथ एसटीएफ को भी लगा दिया गया था और मिशन अतिगोपनीय रखा गया था, ताकि चाटुकार पुलिसकर्मी गुप्त मिशन की जानकारी डौन विनोद तक पहुंचा न सकें.

गोपनीय औपरेशन की काररवाई एडीजी (जोन) प्रताप कुमार के साथसाथ एसटीएफ के हैड अमिताभ यश के हाथों संचालित हो रही थी और दोनों पुलिस अधिकारियों का दिशानिर्देश डीएसपी दीपक को मिल रहा था. इस मिशन में डीएसपी दीपक सिंह के साथ इंसपेक्टर हेमंत सिंह और हैडकांस्टेबल शशिकांत भी शामिल थे.

कुख्यात गैंगस्टर कैसे मिला मिट्टी में

मुखबिर के जरिए एसटीएफ को माफिया डौन विनोद उपाध्याय के लखनऊ या प्रयागराज में छिपे होने की सूचना मिल रही थी. अपनी तरफ से पुलिस ने इन्हीं दोनों जिलों में छापेमारी तेज कर दी थी.

4 जनवरी, 2024 को फिर मुखबिर के जरिए एसटीएफ को सूचना मिली कि डौन उपाध्याय लखनऊ में छिपा था और वह पुलिस से बचने के लिए छिपतेछिपाते प्रयागराज की ओर अपनी स्विफ्ट कार से अकेला जा रहा है. उस की कार में 9 एमएम की फैक्ट्री मेड स्टेनगन भी है.

सूचना अहम थी. एसटीएफ टीम किसी भी सूरत में माफिया विनोद को इस बार हाथ से निकलना नहीं देना चाहती थी. इसलिए सूचना मिलते ही डीएसपी दीपक सिंह सचेत हो गए और उन्होंने अपनी टीम को सतर्क कर दिया था.

यही नहीं, पुलिस अधिकारी बुलेटप्रूफ जैकेट और एके 47 असलहे से लैस हो गए थे ताकि किसी काररवाई का मुंहतोड़ जबाव दिया जा सके. आखिर सुलतानपुर के हनुमानगंज गोपालपुरवा इलाके में एसटीएफ और स्थानीय पुलिस की टीम ने डौन विनोद उपाध्याय को मुठभेड़ के बाद ढेर कर दिया. उस के मरने पर पुलिस ने राहत की सांस ली.

पुलिस और माफिया के बीच करीब 8 राउंड फायरिंग हुई थी. थोड़ी ही देर में माफिया विनोद कुमार उपाध्याय के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर पूरे जिले में फैल गई थी.

पोस्टमार्टम के बाद विनोद के शव को उस के घर वालों को सौंप दिया गया. फिलहाल चेले का भी अंत वैसा ही हुआ, जैसा उस के गुरु श्रीप्रकाश शुक्ला का हुआ था. आखिर विनोद उपाध्याय एक सीधेसादे नौजवान से आतंक का पर्याय कैसे बन गया था, उस के सिर पर किनकिन बाहुबलियों का हाथ था, उस ने कैसे माफियागिरी से राजनीति का सफर तय किया था? आइए जानते हैं—

विनोद श्रीप्रकाश शुक्ला को मानता था आदर्श

विनोद उपाध्याय के पिता राजकुमार उपाध्याय मूलरूप से उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के महाराजगंज थाना क्षेत्र के मुइयां माया बाजार के रहने वाले थे. वह करीब 35 साल पहले पत्नी शोभा को साथ ले कर गोरखपुर आ गए और गोरखनाथ थाना क्षेत्र के धर्मशाला बाजार में एक किराए का कमरा ले कर रहने लगे.

जीवनयापन के लिए उन्होंने एक सुनार की दुकान पर मुनीम की नौकरी कर ली. आगे चल कर वह 3 बच्चों के पिता बने. उन का जीवन खुशियों से भर गया था और घर में किसी चीज की कमी नहीं थी.

राजकुमार जिस सुनार के यहां नौकरी करते थे, वह सूद पर पैसे बांटने का भी काम करता था. जिस का लेखाजोखा वही रखते थे. जब इस गोरखधंधे में वह पूरी तरह पारंगत हो गए तो आगे चल कर उन्होंंने भी यही धंधा शुरू किया. इस धंधे में मुनाफा ही मुनाफा था.

देखते ही देखते वह सूद कारोबारी बन गए और छोटे कारोबारियों को सूद पर पैसे बांटने लगे. जो भी कारोबारी पैसे देने से आनाकानी करता, वसूलने के लिए वह अपने बेटे विनोद उपाध्याय को लगाते थे. विनोद दबंगई से उस के साथ पेश आता था और रकम वसूल हो जाती थी.

दरअसल, 21 साल की उम्र में ही विनोद उपाध्याय ने जुर्म की दुनिया में पांव रख दिया था. उस ने कुख्यात माफिया डान श्रीप्रकाश शुक्ला को अपना आदर्श और गुरु मान लिया था, जिस ने तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी ली थी.

प्रेमिका की कब्र पर आम का पेड़

प्रेमिका की कब्र पर आम का पेड़ – भाग 3

समरजीत दीपा को जीजान से चाहता था, इसलिए उसे पत्नी पर विश्वास था. लेकिन उसे इस बात की भनक तक नहीं लगी कि उस के विश्वास को धता बता कर वह क्या गुल खिला रही है. कहते हैं कि कोई भी गलत काम ज्यादा दिनों तक छिपाया नहीं जा सकता. एक न एक दिन किसी तरीके से वह लोगों के सामने आ ही जाता है.

दीपा की आशिकमिजाजी भी एक दिन समरजीत के सामने आ गई. हुआ यह था कि एक बार समरजीत की रात की ड्यूटी लगी थी. वह शाम 7 बजे ही घर से चला गया था. दीपा को पता था कि पति की ड्यूटी रात 8 बजे से सुबह 8 बजे तक की है. जब भी पति की रात की ड्यूटी होती थी, दीपा प्रेमी को रात 10 बजे के करीब अपने कमरे पर बुला लेती थी. मौजमस्ती करने के बाद वह रात में ही चला जाता था. उस दिन भी उस ने अपने प्रेमी को घर बुला लिया.

रात 11 बजे के करीब समरजीत की तबीयत अचानक खराब हो गई. ड्यूटी पर रहते वह आराम नहीं कर सकता था. वह चाहता था कि घर जा कर आराम करे. लेकिन उस समय घर जाने के लिए उसे कोई सवारी नहीं मिल रही थी. इसलिए उस ने अपने एक दोस्त से घर छोड़ने को कहा. तब दोस्त अपनी मोटरसाइकिल से उसे उस के कमरे के बाहर छोड़ आया.

समरजीत ने जब अपने कमरे का दरवाजा खटखटाया तो प्रेमी के साथ गुलछर्रे उड़ा रही दीपा दरवाजे की दस्तक सुन कर घबरा गई. उस के मन में विचार आया कि पता नहीं इतनी रात को कौन आ गया. प्रेमी को बेड के नीचे छिपने को कह कर उस ने अपने कपड़े संभाले और बेमन से दरवाजे की तरफ बढ़ी.

जैसे ही उस ने दरवाजा खोला, सामने पति को देख कर वह चौंक कर बोली, ‘‘तुमऽऽ, आज इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है इसलिए ड्यूटी बीच में ही छोड़ कर आ गया.’’ समरजीत कमरे में घुसते हुए बोला.

कमरे में बेड के नीचे दीपा का प्रेमी छिपा हुआ था. दीपा इस बात से डर रही थी कि कहीं आज उस की पोल न खुल जाए. समरजीत की तो तबीयत खराब थी. वह जैसे ही बेड पर लेटा, उसी समय बेड के नीचे से दीपा का प्रेमी निकल कर भाग खड़ा हुआ. अपने कमरे से किसी आदमी को निकलते देख समरजीत चौंका. वह उस की सूरत नहीं देख पाया था. समरजीत उस भागने वाले आदमी को भले ही नहीं जानता था, लेकिन उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उस की गैरमौजूदगी में यह आदमी कमरे में क्या कर रहा होगा.

वह गुस्से में भर गया. उस ने पत्नी से पूछा, ‘‘यह कौन था और यहां क्यों आया था?’’

‘‘पता नहीं कौन था. कहीं ऐसा तो नहीं कि वह चोर हो. कोई सामान चुरा कर तो नहीं ले गया.’’ दीपा ने बात घुमाने की कोशिश करते हुए कहा और संदूक का ताला खोल कर अपना कीमती सामान तलाशने लगी.

तभी समरजीत ने कहा, ‘‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो क्या? मुझे पता है कि वह यहां क्यों आया था. उसे जो चीज चुरानी थी, वह तुम ने उसे खुद ही सौंप दी. अब बेहतर यह है कि जो हुआ उसे भूल जाओ. आइंदा यह व्यक्ति यहां नहीं आना चाहिए. और न ही ऐसी बात मुझे सुनने को मिलनी चाहिए.’’

पति की नसीहत से दीपा ने राहत की सांस ली. समरजीत तबीयत खराब होने पर घर आराम करने आया था, लेकिन आराम करना भूल कर वह रात भर इसी बात को सोचता रहा कि जिस दीपा के लिए उस ने अपना गांव छोड़ा, उसे पत्नी बनाया, उसी ने उस के साथ इतना बड़ा विश्वासघात क्यों किया. वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि जब कोई भी महिला एक बार देहरी लांघ जाती है तो उस पर विश्वास करना मूर्खता होती है.

अगले दिन जब वह ड्यूटी पर गया तो वहां भी उस का मन नहीं लगा. उस के मन में यही बात घूम रही थी कि दीपा अपने यार के साथ गुलछर्रे उड़ा रही होगी. घर लौटने के बाद उस ने अपने भाइयों अरविंद और धर्मेंद्र से दीपा के बारे में बात की. यह बात उस ने अपने मामा नरेंद्र को भी बताई.

उन सभी ने फैसला किया कि ऐसी कुलच्छनी महिला की चौकीदारी कोई हर समय तो कर नहीं सकता. इसलिए उसे खत्म करना ही आखिरी रास्ता है. दीपा को खत्म करने का फैसला तो ले लिया, लेकिन अपना यह काम उसे कहां और कब करना है, इस की उन्होंने योजना बनाई.

काफी सोचनेसमझने के बाद उन्होंने तय किया कि दीपा को दिल्ली में मारना ठीक नहीं रहेगा, क्योंकि लाख कोशिशों के बाद भी वह दिल्ली पुलिस से बच नहीं पाएंगे. अपने जिला क्षेत्र में ले जा कर ठिकाने लगाना उन्हें उचित लगा.

समरजीत को पता था कि दीपा सुलतानपुर जाने के लिए आसानी से तैयार नहीं होगी. उसे झांसे में लेने के लिए उस ने एक दिन कहा, ‘‘दीपा, सुलतानपुर के ही नगईपुर में मेरे मामा रहते हैं. उन के कोई बच्चा नहीं है और उन के पास जमीनजायदाद भी काफी है. उन्होंने हम दोनों को अपने यहां रहने के लिए बुलाया है. तुम्हें तो पता ही है कि दिल्ली में हम लोगों का गुजारा बड़ी मुश्किल से हो रहा है. इसलिए मैं चाहता हूं कि हम लोग कुछ दिन मामा के घर पर रहें.’’

पति की बात सुन कर दीपा ने भी सोचा कि जब उन की कोई औलाद नहीं है तो उन के बाद सारी जायदाद पति की ही हो जाएगी. इसलिए उस ने मामा के यहां रहने की हामी भर दी.

23 दिसंबर, 2013 को समरजीत दीपा को ट्रेन से सुलतानपुर ले गया. उस के साथ दोनों भाई अरविंद और धर्मेंद्र भी थे. जब वे सुलतानपुर स्टेशन पहुंचे, अंधेरा घिर चुका था. नगईपुर सुलतानपुर स्टेशन से दूर था. नगईपुर गांव से पहले ही समरजीत के मामा नरेंद्र का आम का बाग था. प्लान के मुताबिक नरेंद्र उन का उसी बाग में पहले से ही इंतजार कर रहा था. बाग के किनारे पहुंच कर तीनों भाइयों ने दीपा की गला घोंट कर हत्या कर दी और बाग में ही गड्ढा खोद कर लाश को दफना दिया.

जिस गड्ढे में उन्होंने लाश दफन की थी, जल्दबाजी में वह ज्यादा गहरा नहीं खोदा गया था. नरेंद्र को इस बात का अंदेशा हो रहा था कि जंगली जानवर मिट्टी खोद कर लाश न खाने लगें. ऐसा होने पर भेद खुलना लाजिमी था इसलिए इस के 2 दिनों बाद नरेंद्र रात में ही अकेला उस बाग में गया और वहां से 20-25 कदम दूर दूसरा गहरा गड्ढा खोदा. फिर पहले गड्ढे से दीपा की लाश निकालने के बाद उस ने उसे उसी की शाल में गठरी की तरह बांध दिया.

उस गठरी को उस ने दूसरे गहरे गड्ढे में दफना कर उस के ऊपर आम का एक पेड़ लगा दिया ताकि किसी को कोई शक न हो. दीपा को ठिकाने लगाने के बाद वे इस बात से निश्चिंत थे कि उन के अपराध की किसी को भनक न लगेगी. यह जघन्य अपराध करने के बाद अरविंद और धर्मेंद्र पहले की ही तरह बनठन कर घूम रहे थे. उन को देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि उन्होंने हाल ही में कोई बड़ा अपराध किया है.

गांव के ज्यादातर लोगों को पता था कि दीपा दिल्ली में समरजीत के साथ पत्नी की तरह रह रही है. जब उन्होंने समरजीत को गांव में अकेला देखा तो उन्होंने उस से दीपा के बारे में पूछा.

जब दीपा के पिता रामसनेही को भी जानकारी मिली कि समरजीत के साथ दीपा गांव नहीं आई है तो उस ने उस से बेटी के बारे में पूछा. तब समरजीत ने उसे झूठी बात बताई कि दीपा एक महीने पहले उस से झगड़ा कर के दिल्ली से गांव जाने की बात कह कर आ गई थी.

समरजीत की यह बात सुन कर रामसनेही घबरा गया था. फिर वह बेटी की छानबीन करने दिल्ली पहुंचा और बाद में दिल्ली के पुल प्रहलादपुर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी.

इस के बाद ही पुलिस अभियुक्तों तक पहुंची. पुलिस ने समरजीत, अरविंद, धर्मेंद्र और मामा नरेंद्र को अपहरण कर हत्या और लाश छिपाने के जुर्म में गिरफ्तार कर 9 जनवरी, 2013 को दिल्ली के साकेत न्यायालय में महानगर दंडाधिकारी पवन कुमार की कोर्ट में पेश किया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों और जनचर्चा पर आधारित

प्रेमिका की कब्र पर आम का पेड़ – भाग 2

पुलिस ने लाश का मुआयना किया तो उस के गले पर कुछ निशान पाए गए. इस से अनुमान लगाया कि दीपा की हत्या गला घोंट कर की गई थी. मौके की जरूरी काररवाई निपटाने के बाद पुलिस ने लाश को पोस्टमार्टम के लिए सुलतानपुर के पोस्टमार्टम हाऊस भेज दिया और चारों अभियुक्तों को गिरफ्तार कर के दिल्ली ले आई.

थाना पुल प्रहलादपुर में समरजीत, अरविंद, धर्मेंद्र और इन के मामा नरेंद्र से जब पूछताछ की गई तो दीपा और समरजीत के प्रेमप्रसंग से ले कर मौत का तानाबाना बुनने तक की जो कहानी सामने आई, वह बड़ी ही दिलचस्प निकली.

उत्तर प्रदेश के जिला सुलतानपुर के थाना कूंड़ेभार में आता है एक गांव धनजई, इसी गांव में सूर्यभान सिंह परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी के अलावा 3 बेटे धर्मेंद्र, अरविंद और समरजीत थे. अरविंद और धर्मेंद्र शादीशुदा थे. दोनों भाई दिल्ली में ड्राइवर की नौकरी करते थे. समरजीत गांव में ही खेतीकिसानी करता था. वह खेती किसानी करता जरूर था, लेकिन उसे अच्छे कपड़े पहनने का शौक था.

वह जवान तो था ही. इसलिए उस का मन ऐसा साथी पाने के लिए बेचैन था, जिस से अपने मन की बात कह सके. इसी दौरान उस की नजरें दीपा से दोचार हुईं. दीपा रामसनेही की 20 वर्षीया बेटी थी. दीपा तीखे नयननक्श और गोल चेहरे वाली युवती थी. दीपा उस की बिरादरी की नहीं थी, फिर भी उस का झुकाव उस की तरफ हो गया. फिर दोनों के बीच बातों का सिलसिला ऐसा शुरू हुआ कि वे दोनों एकदूसरे के करीब आते गए.

दोनों ही चढ़ती जवानी पर थे, इसलिए जल्दी ही उन के बीच शारीरिक संबंध बन गए. एकदूसरे को शरीर सौंपने के बाद उन की सोच में इस कदर बदलाव आया कि उन्हें अपने प्यार के अलावा सब कुछ फीका लगने लगा. उन्हें ऐसा लग रहा था, जैसे उन की मंजिल यहीं तक हो.

मौका मिलने पर दोनों खेतों में एकदूसरे से मिलते रहे. उन के प्यार को देख कर ऐसा लगता था, जैसे भले ही उन के शरीर अलगअलग हों, लेकिन जान एक हो. उन्होंने शादी कर के अपनी अलग दुनिया बसाने तक की प्लानिंग कर ली. घर वाले उन की शादी करने के लिए तैयार हो सकेंगे, इस का विश्वास दोनों को नहीं था. इस की वजह साफ थी कि दोनों की जाति अलगअलग थी और दूसरे दोनों एक ही गांव के थे.

घर वाले तैयार हों या न हों, उन्हें इस बात की फिक्र न थी. वे जानते थे कि प्यार के रास्ते में तमाम तरह की बाधाएं आती हैं. सच्चे प्रेमी उन बाधाओं की कभी फिक्र नहीं करते. वे परिवार और समाज के व्यंग्यबाणों और उन के द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा को लांघ कर अपने मुकाम तक पहुंचने की कोशिश करते हैं.

समरजीत और दीपा भले ही सोच रहे थे कि उन का प्यार जमाने से छिपा हुआ है, लेकिन यह केवल उन का भ्रम था. हकीकत यह थी कि इस तरह के काम कोई चाहे कितना भी चोरीछिपे क्यों न करे, लोगों को पता चल ही जाता है. समरजीत और दीपा के मामले में भी ऐसा ही हुआ. मोहल्ले के कुछ लोगों को उन के प्यार की खबर लग गई.

फिर क्या था. मोहल्ले के लोगों से बात उड़तेउड़ते इन दोनों के घरवालों के कानों में भी पहुंच गई. समरजीत के पिता सूर्यभान सिंह ने बेटे को डांटा तो वहीं दूसरी तरफ दीपा के पिता रामसनेही ने भी दीपा पर पाबंदियां लगा दीं. उसे इस बात का डर था कि कहीं कोई ऐसीवैसी बात हो गई तो उस की शादी करने में परेशानी होगी.

कहते हैं कि प्यार पर जितनी बंदिशें लगाई जाती हैं, वह और ज्यादा बढ़ता है यानी बंदिशों से प्यार की डोर टूटने के बजाय और ज्यादा मजबूत हो जाती है. बेटी पर बंदिशें लगाने के पीछे रामसनेही की मंशा यही थी कि वह समरजीत को भूल जाएगी. लेकिन उस ने इस बात की तरफ गौर नहीं किया कि घर वालों के सो जाने के बाद दीपा अभी भी समरजीत से फोन पर बात करती है. यानी भले ही उस की अपने प्रेमी से मुलाकात नहीं हो पा रही थी, वह फोन पर दिल की बात उस से कर लेती थी.

एक बार रामसनेही ने उसे रात को फोन पर बात करते देखा तो उस ने उस से पूछा कि किस से बात कर रही है. तब दीपा ने साफ बता दिया कि वह समरजीत से बात कर रही है. इतना सुनते ही रामसनेही को गुस्सा आ गया और उस ने उस की पिटाई कर दी. रामसनेही ने सोचा कि पिटाई से दीपा के मन में खौफ बैठ जाएगा. लेकिन इस का असर उलटा हुआ. सन 2012 में दीपा समरजीत के साथ भाग गई.

समरजीत प्रेमिका को ले कर हरिद्वार में अपने एक परिचित के यहां चला गया. तब रामसनेही ने थाना कूंडे़भार में बेटी के गायब हेने की सूचना दर्ज करा दी.

चूंकि गांव से समरजीत भी गायब था. इसलिए लोगों को यह बात समझते देर नहीं लगी कि दीपा समरजीत के संग ही भागी है. तब रामसनेही ने गांव में पंचायत बुला कर पंचों की मार्फत समरजीत के पिता सूर्यभान सिंह पर अपनी बेटी को ढूंढ़ने का दबाव बनाया.

आज भी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के कुछ गांवों में पंचों की बातों का पालन किया जाता है. सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए कई मामलों में पंचायतों के फैसले सही भी होते हैं. अपनी मानमर्यादा और सामाजिक दबाव को देखते हुए लोग पंचों की बात का पालन भी करते हैं. पंचायती फैसले के बाद सूर्यभान सिंह ने अपने स्तर से समरजीत और दीपा को तलाशना शुरू किया. बाद में उसे पता लगा कि समरजीत और दीपा हरिद्वार में हैं तो वह उन दोनों को हरिद्वार से गांव ले आया.

दोनों के घर वालों ने उन्हें फिर से समझाया. समरजीत और दीपा कुछ दिनों तक तो ठीक रहे, इस के बाद उन्होंने फिर से मिलनाजुलना शुरू कर दिया. फिर वे दोनों अंबाला भाग गए. वहां पर समरजीत की बड़ी बहन रहती थी. समरजीत दीपा को ले कर बहन के यहां ही गया था. उस ने भी उन दोनों को समझाया. उस ने पिता को इस की सूचना दे दी. सूर्यभान सिंह इस बार भी उन दोनों को गांव ले आए.

बेटी के बारबार भागने पर रामसनेही और उस के परिवार की खासी बदनामी हो रही थी. अब उस के पास एक ही रास्ता था कि उस की शादी कर दी जाए. लिहाजा उस ने उस की फटाफट शादी करने का प्लान बनाया. वह उस के लिए लड़का देखने लगा.

दीपा को जब पता चला कि घर वाले उस की जल्द से जल्द शादी करने की फिराक में हैं तो उस ने आखिर अपनी मां से कह ही दिया कि वह समरजीत के अलावा किसी और से शादी नहीं करेगी. उस की इस जिद पर मां ने उस की पिटाई कर दी.

इस के बाद 27 फरवरी, 2013 को दीपा और समरजीत तीसरी बार घर से भाग गए. इस बार समरजीत उसे दिल्ली ले गया. दक्षिणपूर्वी दिल्ली के पुल प्रहलादपुर गांव में समरजीत के भाई धर्मेंद्र और अरविंद रहते थे. वह उन्हीं के पास चला गया. बाद में समरजीत और दीपा ने मंदिर में शादी कर ली. फिर उसी इलाके में कमरा ले कर पतिपत्नी की तरह रहने लगे.

पुल प्रहलादपुर में रामसनेही के कुछ परिचित भी रहते थे. उन्हीं के द्वारा उसे पता चला कि दीपा समरजीत के साथ दिल्ली में रह रही है. खबर मिलने के बावजूद भी रामसनेही ने उसे वहां से लाना जरूरी नहीं समझा. वह जानता था कि दीपा घर से 2 बार भागी और दोनों बार उसे घर लाया गया था. जब वह घर रुकना ही नहीं चाहती तो उसे फिर से घर लाने से क्या फायदा.

समरजीत के भाई अरविंद और धर्मेंद्र ड्राइवर थे. जबकि समरजीत को फिलहाल कोई काम नहीं मिल रहा था. उस की गृहस्थी का खर्चा दोनों भाई उठा रहे थे. समरजीत भाइयों पर ज्यादा दिनों तक बोझ नहीं बनना चाहता था, इसलिए कुछ दिनों बाद ही एक जानकार की मार्फत ओखला फेज-1 स्थित एक सिक्योरिटी कंपनी में नौकरी कर ली. उस की चिंता थोड़ी कम हो गई.

दोनों की गृहस्थी हंसीखुशी से चल रही थी. चूंकि समरजीत सिक्योरिटी गार्ड के रूप में काम कर रहा था, इसलिए कभी उस की ड्यूटी नाइट की लगती थी तो कभी दिन की. वह मन लगा कर नौकरी कर रहा था. जिस वजह से वह पत्नी की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा था. इस का नतीजा यह निकला कि पास में ही रहने वाले एक युवक से दीपा के नाजायज संबंध बन गए.

प्रेमिका की कब्र पर आम का पेड़ – भाग 1

समरजीत करीब एक साल बाद दिल्ली से अपने भाइयों अरविंद और धर्मेंद्र के साथ गांव धनजई लौटा तो मोहल्ले वालों ने उस  में कई बदलाव देखे. उस के पहनावे और बातचीत में काफी अंतर आ चुका था. उस का बातचीत का तरीका गांव वालों से एकदम अलग था. इस से गांव वाले समझ गए कि दिल्ली में उस का काम ठीकठाक चल रहा है. धनजई गांव उत्तर प्रदेश के जिला सुलतानपुर के थाना कूंड़ेभार में पड़ता है.

देखने से ही लग रहा था कि समरजीत की हालत अब पहले से अच्छी हो गई है, लेकिन गांव वाले एक बात नहीं समझ पा रहे थे कि जब वह गांव से गया था तो गांव के ही रहने वाले रामसनेही की बेटी दीपा को भगा कर ले गया था. लेकिन उस के साथ दीपा दिखाई नहीं दे रही थी.

दरअसल, दीपा और समरजीत के बीच काफी दिनों से प्रेमसंबंध चल रहा था. जिस के चलते वह और दीपा करीब एक साल पहले गांव से भाग गए थे. बाद में रामसनेही को पता लगा कि समरजीत दीपा के साथ दक्षिणपूर्वी दिल्ली के पुल प्रहलादपुर गांव में रह रहा है.

गांव के ही लड़के के साथ बेटी के भाग जाने की बदनामी रामसनेही झेल रहा था. उसे जब पता लगा कि समरजीत के साथ दीपा नहीं आई है तो यह बात उसे कुछ अजीब सी लगी. बेटी को भगा कर ले जाने वाला समरजीत उस के लिए एक दुश्मन था. इस के बावजूद भी बेटी की ममता उस के दिल में जाग उठी. उस ने समरजीत से बेटी के बारे में पूछ ही लिया.

तब समरजीत ने बताया, ‘‘वह तो करीब एक महीने पहले नाराज हो कर दिल्ली से गांव चली आई थी. अब तुम्हें ही पता होगा कि वह कहां है?’’

यह सुन कर रामसनेही चौंका. उस ने कहा, ‘‘यह तुम क्या कह रहे हो? वो यहां आई ही नहीं है.’’

‘‘अब मुझे क्या पता वह कहां गई? आप अपनी रिश्तेदारियों वगैरह में देख लीजिए. क्या पता वहीं चली गई हो.’’

समरजीत की बात रामसनेही के गले नहीं उतरी. वह समझ नहीं पा रहा था कि समरजीत जो दीपा को कहीं देखने की बात कह रहा है, वह कहीं दूसरी जगह क्यों जाएगी? फिर भी उस का मन नहीं माना. उस ने अपने रिश्तेदारों के यहां फोन कर के दीपा के बारे में पता किया, लेकिन पता चला कि वह कहीं नहीं है. बात एक महीना पुरानी थी. ऐसे में वह बेटी को कहां ढूंढ़े. बेटी के बारे में सोचसोच कर उस की चिंता बढ़ती जा रही थी. यह बात दिसंबर, 2013 के आखिरी हफ्ते की थी.

समरजीत के साथ उस के भाई अरविंद और धर्मेंद्र भी गांव आए थे. रामसनेही ने दोनों भाइयों से भी बेटी के बारे में पूछा. लेकिन उन से भी उसे कोई ठोस जवाब नहीं मिला. 10-11 दिन गांव में रहने के बाद समरजीत दिल्ली लौट गया.

बेटी की कोई खैरखबर न मिलने से रामसनेही और उस की पत्नी बहुत परेशान थे. वह जानते थे कि समरजीत दिल्ली के पुल प्रहलादपुर में रहता है. वहीं पर उन के गांव का एक आदमी और रहता था. उस आदमी के साथ जनवरी, 2014 के पहले हफ्ते में रामसनेही भी पुल प्रहलादपुर आ गया.

थोड़ी कोशिश के बाद उसे समरजीत का कमरा मिल गया. उस ने वहां आसपास रहने वालों से बेटी दीपा का फोटो दिखाते हुए पूछा. लोगों ने बताया कि जिस दीपा नाम की लड़की की बात कर रहा है, वह 22 दिसंबर, 2013 तक तो समरजीत के साथ देखी गई थी, इस के बाद वह दिखाई नहीं दी है.

समरजीत ने रामसनेही को बताया था दीपा एक महीने पहले यानी नवंबर, 2013 में नाराज हो कर दिल्ली से चली गई थी, जबकि पुल प्रहलादपुर गांव के लोगों से पता चला था कि वह 22 दिसंबर, 2013 तक समरजीत के साथ थी. इस से रामसनेही को शक हुआ कि समरजीत ने उस से जरूर झूठ बोला है. वह दीपा के बारे में जानता है कि वह इस समय कहां है?

रामसनेही के मन में बेटी को ले कर कई तरह के खयाल पैदा होने लगे. उसे इस बात का अंदेशा होने लगा कि कहीं इन लोगों ने बेटी के साथ कोई अनहोनी तो नहीं कर दी. यही सब सोचते हुए वह 6 जनवरी, 2014 को दोपहर के समय थाना पुल प्रहलादपुर पहुंचा और वहां मौजूद थानाप्रभारी धर्मदेव को बेटी के गायब होने की बात बताई.

रामसनेही ने थानाप्रभारी को बेटी का हुलिया बताते हुए आरोप लगाया कि समरजीत और उस के भाइयों, अरविंद व धर्मेंद्र ने अपने मामा नरेंद्र, राजेंद्र और वीरेंद्र के साथ बेटी को अगवा कर उस के साथ कोई अप्रिय घटना को अंजाम दे दिया है. थानाप्रभारी धर्मदेव ने उसी समय रामसनेही की तहरीर पर भादंवि की धारा 365, 34 के तहत रिपोर्ट दर्ज कराकर सूचना एसीपी जसवीर सिंह मलिक को दे दी.

मामला जवान लड़की के अपहरण का था, इसलिए एसीपी जसवीर सिंह मलिक ने थानाप्रभारी धर्मदेव के नेतृत्व में एक पुलिस टीम बनाई. टीम में इंसपेक्टर आर.एस. नरुका, सबइंसपेक्टर किशोर कुमार, युद्धवीर सिंह, हेडकांस्टेबल श्रवण कुमार, नईम अहमद, राकेश, कांस्टेबल अनुज कुमार तोमर, धर्म सिंह आदि को शामिल किया गया.

उधर दिल्ली में रह रहे समरजीत और उस के भाइयों को जब पता चला कि दीपा का बाप रामसनेही पुल प्रहलादपुर आया हुआ है तो तीनों भाई दिल्ली से फरार हो गए. पुलिस टीम जब उन के कमरे पर गई तो वहां उन तीनों में से कोई नहीं मिला.

चूंकि तीनों आरोपी रामसनेही के गांव के ही रहने वाले थे, इसलिए पुलिस टीम रामसनेही को ले कर यूपी स्थित उस के गांव धनजई पहुंची. लेकिन घर पर समरजीत और उस के घर वालों में से कोई नहीं मिला.

अब पुलिस को अंदेशा हो गया कि जरूर कोई न कोई गड़बड़ है, जिस की वजह से ये लोग फरार हैं. गांव के लोगों से बात कर के पुलिस ने यह पता लगाया कि इन के रिश्तेदार वगैरह कहांकहां रहते हैं, ताकि वहां जा कर आरोपियों को तलाशा जा सके.  इस से पुलिस को पता चला कि सुलतानपुर और फैजाबाद के कई गांवों में समरजीत के रिश्तेदार रहते हैं. उन रिश्तेदारों के यहां जा कर दिल्ली पुलिस ने दबिशें दीं, लेकिन वे सब वहां भी नहीं मिले.

दिल्ली पुलिस ने समरजीत के सभी रिश्तेदारों पर दबाव बनाया कि आरोपियों को जल्द से जल्द पुलिस के हवाले करें. उधर बेटी की चिंता में रामसनेही का बुरा हाल था. वह पुलिस से बारबार बेटी को जल्द तलाशने की मांग कर रहा था. समरजीत या उस के भाइयों से पूछताछ करने के बाद ही दीपा के बारे में कोई जानकारी मिल सकती थी. इसलिए दिल्ली पुलिस की टीम अपने स्तर से ही आरोपियों को तलाशती रही.

9 जनवरी, 2014 को पुलिस को सूचना मिली कि समरजीत सुलतानपुर के ही गांव नगईपुर, सामरी बाजार में रहने वाले अपने मामा के यहां आया हुआ है. खबर मिलते ही पुलिस नगईपुर गांव पहुंच गई. सूचना एकदम सही निकली. वहां पर समरजीत, उस के भाई अरविंद और धर्मेंद्र के अलावा उस का मामा नरेंद्र भी मिल गया.

चूंकि दीपा समरजीत के साथ ही रह रही थी, इसलिए पुलिस ने सब से पहले उसी से दीपा के बारे में पूछा. इस पर समरजीत ने बताया, ‘‘सर, नवंबर, 2013 में दीपा उस से लड़ झगड़ कर दिल्ली से अपने गांव जाने को कह कर चली आई थी. इस के बाद वह कहां गई, इस की उसे जानकारी नहीं है.’’

‘‘लेकिन पुल प्रहलादपुर में जहां तुम लोग रहते थे, वहां जा कर हम ने जांच की तो जानकारी मिली कि दीपा 23 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में ही तुम्हारे साथ थी.’’ थानाप्रभारी धर्मदेव ने कहा तो समरजीत के चेहरे का रंग उड़ गया.

थानाप्रभारी उस का हावभाव देख कर समझ गए कि यह झूठ बोल रहा है. उन्होंने रौबदार आवाज में उस से कहा, ‘‘देखो, तुम हम से झूठ बोलने की कोशिश मत करो. दीपा के साथ तुम लोगों ने जो कुछ भी किया है, हमें सब पता चल चुका है. वैसे एक बात बताऊं, सच्चाई उगलवाने के हमारे पास कई तरीके हैं, जिन के बारे में तुम जानते भी होगे. अब गनीमत इसी में है कि तुम सारी बात हमें खुद बता दो, वरना…’’

इतना सुनते ही वह डर गया. वह समझ गया कि अगर सच नहीं बताया कि पुलिस बेरहमी से उस की पिटाई करेगी. इसलिए वह सहम कर बोला, ‘‘सर, हम ने दीपा को मार दिया है.’’

‘‘उस की लाश कहां है?’’ थाना प्रभारी ने पूछा.

‘‘सर, उस की लाश बाग में दफन कर दी है.’’ समरजीत ने कहा तो पुलिस चारों आरोपियों के साथ उस बाग में पहुंची, जहां उन्होंने दीपा की लाश दफन करने की बात कही थी. समरजीत के मामा नरेंद्र ने पुलिस को आम के बाग में वह जगह बता दी. लेकिन उस जगह तो आम का पेड़ लगा हुआ था. नरेंद्र ने कहा कि लाश इसी पेड़ के नीचे है.

उन लोगों की निशानदेही पर पुलिस ने वहां खुदाई कराई तो वास्तव में एक शाल में गठरी के रूप में बंधी एक महिला की लाश निकली. उस समय रामसनेही भी पुलिस के साथ था. लाश देखते ही वह रोते हुए बोला, ‘‘साहब यही मेरी दीपा है. देखो न इन्होंने मेरी बेटी का क्या हाल कर दिया. मुझे पहले ही इन लोगों पर शक हो रहा था. इन के खिलाफ आप सख्त से सख्त काररवाई कीजिए, ताकि ये बच न सकें.’’

वहां खड़े गांव वालों ने तसल्ली दे कर किसी तरह रामसनेही को चुप कराया. गांव वाले इस बात से हैरान थे कि समरजीत दीपा को बहुत प्यार करता था, जिस के कारण दोनों गांव से भाग गए थे. फिर समरजीत ने उस के साथ ऐसा क्यों किया?