मौत के मुंह से वापसी

मौत के मुंह से वापसी – भाग 3

बस चल पड़ी. इराकी सेना ने बस को रोकने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुई. थोड़ा आगे जाने पर लड़ाकों ने नर्सों को दिलासा दिया कि वे परेशान न हों, उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. उन्हें मोसुल ले जाया जा रहा है, जहां पहुंच कर उन्हें एरबिल हवाईअड्डे से आजाद कर दिया जाएगा. बस के चलते ही नर्सों के मोबाइल बजने लगे.

फोन दिल्ली से किया जा रहा था. लेकिन नर्सों को यह पता नहीं था कि फोन कौन कर रहा था. फोन करने वालों ने उन से कहा था कि वे खिड़की से झांक कर देखें कि बाहर साइनबोर्डों पर स्थान का नाम क्या लिखा है. उस के बाद स्थान का नाम उसी नंबर पर मैसेज कर दें.

नर्सों को ले जाने वाली बस जिस रास्ते से गुजर रही थी, वह काफी घुमावदार था. शायद सड़कें सुरक्षित नहीं थीं, इसलिए उन्हें उस रास्ते से ले जाया जा रहा था. नर्सों को पता नहीं चल पा रहा था कि उन्हें कहां ले जाया जा रहा है. बस की खिड़कियों पर मोटे परदे पड़े थे, जिस से बाहर का कुछ दिखाई नहीं दे रहा था.

बस के आगे एक काला झंडा लगा था, जिस पर वहां की भाषा में कुछ लिखा था. शायद ऐसा इसलिए किया गया था कि उन के लड़ाके साथी उस पर गोली न चलाएं. बस के पीछे एक वैन थी, जिस पर नर्सों का सामान लदा था. एक लड़ाका नर्सों के साथ था. बाकी के 3 लड़ाके एक कार में सवार थे.

मोसुल पहुंचने में उन्हें 8 घंटे लगे. पूरी रास्ते सभी नर्सें रोती रहीं. उन के आंसू एक पल के लिए भी नहीं रुके. मौत के डर से सभी के शरीर कांप रहे थे. एकदूसरे से लिपट कर वे एकदूसरे को ढांढस बंधा रही थीं. वहां उन्हें 10-10 की टोली में कतार से उतरने को कहा गया. लड़ाकों के इस हुक्म से उन नर्सों को लगा कि इस तरह कतार में उतारने का मतलब है, वे उन्हें मारना चाहते हैं.

मारे जाने के डर से सब बुरी तरह कांपने लगीं. लेकिन उस तरह कतार में उतार कर उन नर्सों को गलियारे से होते हुए एक हौल में ले जाया गया. जिस में कुल 4 एसी लगे थे. उन की पैकिंग से लग रहा था कि वे अभी नए हैं. नर्सों को लग रहा था कि ये लड़ाके उन्हें बंधक बना कर भारत सरकार से अच्छीखासी रकम वसूल करेंगे. सभी नर्सें हौल में आ गईं तो उन की सुरक्षा में लगे लड़ाके ने सभी नर्सों से अपने हाथपैर ढकने को कहा.

नर्सें वैसा ही करती रहीं, जैसा लड़ाके कहते रहे. उन्होंने सभी नर्सों को दाल रोटी, और चीज खाने को दी. इस के बाद कुछ चटाइयां दे कर उन्होंने सभी को आराम करने को कहा. नर्सें भले ही लड़ाकों की बंधक थीं, लेकिन मोबाइल से उन का भारतीय दूतावास से संपर्क बना था. दूतावास से लगातार उन के मोबाइल पर मैसेज आ रहे थे. दूतावास की ओर से उन के मोबाइल रिचार्ज भी कराए गए थे.

लेकिन परेशानी की बात यह थी कि नर्सों को जिस कमरे में ठहराया गया था, उस में बिजली का कोई स्विच नहीं था. इसलिए एकएक कर के उन के मोबाइल फोन की बैट्रियां खत्म होने लगी थीं.

4 जुलाई को लड़ाकों ने नर्सों से कहा कि वे एयरपोर्ट चलने को तैयार हो जाएं. नर्सों ने राजदूत अजय कुमार से संपर्क किया. उन्होंने पहले की ही तरह लड़ाकों का हुक्म मानने को कहा. एयरपोर्ट जाते हुए 3 जगहों पर उन की बस रोकी गई. शायद वे उन्हीं के साथी लडाके रहे होंगे. क्योंकि बातचीत के बाद उन्हें जाने के लिए कह दिया गया था.

बस एक मकान के सामने रुकी. सभी नर्सों को बस से उतार कर उस मकान में ले जाया गया. अच्छी बात यह थी कि उस मकान में बिजली का स्विच था. जिस से सभी नर्सों ने अपने मोबाइल फोन चार्ज किए. लेकिन वहां मोबाइल सिगनल नहीं मिल रहा था. उन नर्सों में से 2 के पास किसी दूसरी कंपनी का सिम था. उन्होंने उस सिम को मोबाइल में डाला तो सिगनल मिल गया.

इस के बाद उन्होंने राजदूत अजय कुमार से बात की. उन्होंने कहा कि मकान के बाहर एक बस खड़ी है, जिस का ड्राइवर अब्दुल शाह है. ड्राइवर का नाम पूछ कर सभी नर्सें उसी बस में बैठ जाएं. लेकिन नर्सों ने बाहर आ कर देखा तो वहां कोई बस नहीं थी.

लेकिन कुछ देर बाद कुछ लड़ाके एक बस ले कर आए और उस में सभी नर्सों को सवार होने के लिए कहा. इस के बाद वह बस सभी नर्सों को वहां ले गई, जहां भारतीय दूतावास के कुछ अधिकारी उन का इंतजार कर रहे थे. इस से यह साबित हो गया था कि दूतावास के अधिकारी लगातार आईएसआईएस के लड़ाकों के संपर्क में थे. रात पौने 9 बजे वे अधिकारी सभी नर्सों को एरबिल इंटरनेशनल एयरपोर्ट ले गए, जहां 5 जुलाई की सुबह 4 बजे उन्हें एयर इंडिया के विमान पर सवार करा दिया गया.

विमान 12 बजे दोपहर को केरल के कोच्चि एयरपोर्ट पर उतरा तो इराक से मुक्त हुई नर्सों ने राहत की सांस ली. घर वालों को पहले ही सूचना दे दी गई थी, इसलिए सभी के घर वाले हवाई अड्डे पर आ गए थे. सभी अपनेअपने घर घर वालों के गले लगीं तो उन की आंखों से आंसू बहने लगे.

इराक से सोना, वीना, नीनू जोंस, मरीना, श्रुथी शशिकुमार, ऐंसी जोसफ और सलीजा जोसफ अपनी साथिन नर्सों के साथ तो वापस आ गई हैं, लेकिन उन की दुश्वारियां कम होने के बजाय बढ़ गई हैं. ये बेहतर जिंदगी का जो सपना ले कर इराक गई थीं, वहां आए संकट ने इन के संकट को कम करने के बजाय और बढ़ा दिया है.

इस की वजह यह है कि अपना सपना पूरा करने के लिए किसी ने कर्ज लिया था तो किसी ने प्रौपर्टी बेची थी कि कमा कर फिर से खरीद लेंगे. लेकिन अब क्या होगा, क्योंकि भारत में नौकरी करने पर शायद उतना भी वेतन न मिले, जिस में वे ठीक से गुजरबसर कर सकें.

मौत के मुंह से वापसी – भाग 2

इराक में जो हिंसा फैली थी, उस से टिकरित के उस विशाल अस्पताल के मरीज अस्पताल छोड़ कर जाने लगे थे. सोना, वीना और उस की अन्य साथी नर्सें टेलीविजन और मोबाइल फोन पर इंटरनेट के माध्यम से समाचार देख कर जानकारी प्राप्त करने के साथ समय काट रही थीं.

लेकिन जल्दी ही टेलीविजन भी बंद हो गया और इंटरनेट भी. अब वे बाहर की दुनिया से पूरी तरह कट गईं. उन्हें बिलकुल भी पता नहीं चलता था कि बाहर क्या हो रहा है. वे बस उतना ही जानती थीं, जो उन की खिड़कियों से दिखाई देता था.

सोना और उस की साथी नर्सें बाहर की दुनिया से पूरी तरह कटी थीं, इसलिए उन्हें असलियत का पता नहीं था. वे सिर्फ यही जानती थीं कि केवल टिकरित में ही स्थानीय 2 गुटों के बीच लड़ाई चल रही है. लेकिन जब बारबार तेज धमाकों से अस्पताल की बिल्डिंग थर्राने लगी तो उन्हें लगा कि यहां तो युद्ध हो रहा है. यह संदेह होते ही सभी नर्सें कांप उठीं. उन्हें सामने मौत नाचती नजर आने लगी. अपने बचाव का उन के पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए वे एकदूसरे के गले लग कर रोने लगीं. कोई आश्वासन देने वाला नहीं था, इसलिए खुद ही चुप भी हो गईं.

धमाके लगातार हो रहे थे. डरीसहमी नर्सें किसी तरह एकएक पल काट रही थीं. उन के पास खानेपीने का सामान भी कुछ ही दिनों का बचा था. तभी स्वास्थ्य विभाग के एक रहमदिल अधिकारी मदद के लिए आ गए. अगर उन्होंने साहस न दिखाया होता तो इन नर्सों को भूखी रहना पड़ता. उस अधिकारी ने अपनी ओर से सभी नर्सों के लिए अगले 2 सप्ताह के भोजन की व्यवस्था कर दी थी.

वह अधिकारी अस्पताल के नजदीक ही रहते थे. इसलिए नर्सें उन के मोबाइल पर जैसे ही मिस काल करतीं, वह तुरंत उन की मदद के लिए आ जाते थे. लेकिन जून के अंत में उन्होंने कहा कि अब वह उन की मदद नहीं कर पाएंगे. क्योंकि आईएसआईएस लड़ाके आगे बढ़ते आ रहे हैं, जो जल्दी ही इस अस्पताल पर भी कब्जा कर लेंगे. इसलिए वह यहां से जा रहे हैं. उस समय तक अस्पताल की सुरक्षा के लिए 2 फौजी तैनात थे. लेकिन उस अधिकारी के जाते ही, वे भी गायब हो गए थे.

सचमुच अगले दिन लड़ाके अस्पताल पहुंच गए. वे काले कपड़े पहने हुए थे. आंखों पर काला चश्मा लगाए वे अपने चेहरे को काले दुपट्टे से ढांपे हुए थे. उन्हें देख कर नर्सें बुरी तरह से डर गईं. वे लड़ाके बुरी तरह से जख्मी अपने साथियों को ले कर आए थे. लड़ाकों ने नर्सों से उन की मरहमपट्टी कराने के बाद अगले दिन यानी 30 जून की शाम तक अस्पताल को खाली करने के लिए कहा.

लड़ाकों के जाने के बाद नर्सों ने एक बार फिर राजदूत अजय कुमार और केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी को फोन किया. दोनों ने ही नर्सों को सलाह दी कि लड़ाके जैसा कहते हैं, वे वैसा ही करें. क्योंकि उन की बात न मानना उन के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकता है. संयोग से उस शाम लड़ाके नहीं आए. इसीलिए उस दिन संकट टल गया.

इस के अगले दिन केरल सरकार के आप्रवासी केरलवासी मामलों के विभाग से नर्सों को फोन कर के उन्हें वहां से निकालने के लिए उन के पासपोर्ट के नंबर तथा अन्य जानकारी ली गई.

2 जुलाई को अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में ऐसा धमाका हुआ कि ब्लड बैंक सहित वह पूरा हिस्सा ढह गया. इसी के साथ पूरा अस्पताल हिल उठा. इस धमाके से नर्सें थरथर कांपने लगीं. चारों ओर उसी तरह के धमाके हो रहे थे. अस्पताल के पास ही कई इमारतें जल रही थीं. चारों ओर आग की लपटें, जली कारें और ट्रक दिखाई दे रहे थे.

उस दिन भी कुछ लड़ाके आए और सभी नर्सों से कहा कि वे अपना सामान बांध कर तैयार हो जाएं, शाम को उन्हें उन के साथ चलना है. इतना कह कर लड़ाके चले गए. उन के जाते ही नर्सों ने एक बार फिर राजदूत अजय कुमार और मुख्यमंत्री ओमन चांडी को फोन किया. दोनों ने सभी नर्सों को आश्वासन देने के साथ शांति से रहने को कहा और बताया कि भारत सरकार उन्हें हरसंभव वहां से किसी भी तरह निकालने की कोशिश में लगी है. मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने उन से यह भी कहा कि वह लगातार भारत सरकार की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के संपर्क में हैं.

संयोग से उस शाम भी लड़ाके नहीं आए, जिस से नर्सों ने थोड़ी राहत महसूस की. लेकिन अगले ही दिन वे दोपहर के आसपास फिर आ धमके. उन्होंने सभी नर्सों को 15 मिनट में अस्पताल से बाहर आने को कहा. उन का कहना था कि वे इस अस्पताल को अभी बम से उड़ाएंगे और उन्हें अपने साथ मोसुल ले जाएंगे.

नर्सों ने तुरंत भारतीय दूतावास को फोन किया. दूतावास के अधिकारी ने उन से कहा कि वे लड़ाकों से छोड़ देने की विनती करें. अगर वे मान जाते हैं तो कोई बात नहीं. अगर नहीं मानते हैं तो वे जैसा कहते हैं, सभी लोग वैसा ही करो. इसी के साथ उस अधिकारी ने यह भी कहा कि अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ती है तो सरकार उन्हें बचाने के लिए कमांडो का उपयोग भी कर सकती हैं.

उन नर्सों को ले जाने के लिए इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) के 4 लड़ाके आए थे. वे काले कपड़े पहने थे और चेहरे पर काला दुपट्टा बांधे थे. आंखों पर काला चश्मा भी लगाए थे. सभी के कंधों पर एसाल्ट राइफलें लटक रही थीं. उन के आदेश का पालन करते हुए नर्सें अपना सामान समेट रही थीं कि तभी उन लड़ाकों में से एक ने मुड़ कर अपनी एसाल्ट राइफल की नाल अस्पताल की ऊपरी मंजिल की ओर कर के तड़ातड़ गोलियां चला दीं.

उसी मंजिल पर बने कमरों में सोना, वीना और उस की साथी नर्सें रहती थीं. जब से बम धमाके हो रहे थे और गोलियां चल रही थीं, ये नर्सें यहीं पर शरण लिए हुए थीं. लेकिन उस युवा लड़ाके ने जो गोलियां चलाई थीं. उस से उस मंजिल पर लगे शीशे टूटने लगे. उन शीशों के टुकड़े कुछ नर्सों के ऊपर गिरे, जिस से वे बुरी तरह से जख्मी हो कर खून से लथपथ हो गईं. बाकी नर्सें चीखतीचिल्लाती उन घायल नर्सों की ओर दौड़ीं.

लड़ाकों ने सभी नर्सों को बाहर खड़ी बस में चढ़ने को कहा. नर्सें जल्दीजल्दी बस में सवार होने लगीं. नर्सें बस में सवार हो रही थीं, तभी उस विशाल अस्पताल में एक जोरदार धमाका हुआ. उस से उठा काला धुआं चारों ओर फैलने लगा. धुएं के बाद ऊंचीऊंची उठती आग की लपटें दिखाई दीं. अस्पताल से बाहर निकलते समय नर्सों ने देखा कि पिछले दिन हुए धमाके से गिरी दीवारों पर खून लगा था. चारों ओर मांस के लोथडे़ बिखरे थे.

मौत के मुंह से वापसी – भाग 1

खाड़ी देशों से कमाई कर के आने वाले लोगों के चमक दमक वाले कपड़े, आटोमैटिक घडि़यां, तरहतरह  के खूब अच्छे लगने वाले टेपरिकौर्डर, छोटेछोटे रेडियो तथा बटन दबाने से खुलने वाले छाते देख कर बचपन में मैं भी सपने देखने लगा था कि बड़ा हो कर जब मैं कमाने लायक होऊंगा तो  इन्हीं लोगों की तरह खाड़ी देशों में नौकरी करने जाऊंगा. लेकिन जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया,  मेरी आंखों से वह सपना ओझल होता गया.

किन्हीं कारणों से भले ही खाड़ी देशों में नौकरी करने जाने का मेरा सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन केरल के एक गांव के मजदूर बाप की बेटी सोना ने बड़ी हो कर खाड़ी देश जाने का जो सपना बचपन में देखा था, कुछ पाईपाई जोड़ कर तो कुछ रिश्तेदारों से तो कुछ महाजन से कर्ज ले कर पूरा कर ही लिया.

सोना का बाप रातदिन मेहनत कर के उसे और उस की जुड़वां बहन वीना को पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाना चाहता था कि उस की ये बेटियां उस की तरह किसी के यहां गुलामी न करें. वह चाहता था कि बहुत ज्यादा नहीं तो उस की दोनों बेटियां इतना जरूर पढ़लिख लें कि कम से कम अपने लिए 2 जून की रोटी और कपड़े का इज्जत के साथ जुगाड़ कर सकें. अपने बच्चों को भी कायदे से पढ़ालिखा सकें.

बेटियों ने भी बाप की तरह मेहनत कर के उस के सपने को साकार करने में कोताही नहीं बरती. बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण करतीं. फिर भी 12वीं कर के उन्होंने नर्सिंग की ट्रेनिंग जरूर कर ली, जिस से इतना तो हो ही गया कि वे कहीं भी नौकरी कर के इज्जत की जिंदगी जी सकती थीं. जब दोनों बहनें नर्स की ट्रेनिंग कर रही थीं, तभी से वे सपना देखने लगी थीं कि अगर वे किसी तरह खाड़ी के किसी देश चली जाती हैं तो कुछ ही सालों में इतना कमा लाएंगी, जितना भारत में शायद पूरी जिंदगी में न कमा सकें.

ट्रेनिंग के दौरान सोना और वीना देख रही थीं कि जो नर्सें भारत में नौकरी करती हैं, वे किसी तरह गुजरबसर कर पाती हैं. जबकि जो खाड़ी देशों में चली जाती हैं, वे शान की जिंदगी जीती हैं. वैसी ही शान की जिंदगी सोना भी जीना चाहती थीं. इसी के साथ वे अपने मातापिता के लिए भी कुछ करना चाहती थीं, जिन्होंने कभी एक जून खा कर तो कभी भूखे पेट रह कर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया था कि वे किसी की मोहताज न रहें.

सोना और वीना ने खाड़ी देशों में जा कर कमाने का जो सपना देखा था, अपनी नर्स की ट्रेनिंग के बाद से उसे साकार करने की कोशिश शुरू कर दी थी. मात्र ट्रेनिंग से काम चलने वाला नहीं था. बाहर जाने के लिए अच्छेखासे अनुभव की जरूरत थी. अनुभव के लिए नौकरी की जरूरत थी. अनुभव के लिए सोना और वीना ने केरल के एक अस्पताल में नौकरी कर ली. 12 घंटे की ड्यूटी थी और वेतन था 6 हजार रुपए. ड्यूटी चाहे दिन की होती या रात की, जब तक अस्पताल में रहतीं, पलभर बैठने को न मिलता.

बाप ने नर्स की ट्रेनिंग में जो फीस भरी थी, वह कर्ज ले कर भरी थी. उस का ब्याज भी लगता था. इसलिए कर्ज अदा करने के लिए नौकरी तो करनी ही थी. वेतन भले ही कम मिले और उस वेतन में काम चाहे जितना करना पड़े. किसी तरह पूरे 4 साल नौकरी कर के सोना और वीना ने अच्छाखासा अनुभव प्राप्त कर लिया तो खाड़ी के किसी देश जाने की तैयारी शुरू कर दी.

पहले उन्होंने पासपोर्ट बनवाया और फिर ऐसी एजेंसी की तलाश में लग गईं, जो उन्हें खाड़ी के किसी देश में नौकरी दिला सके. उन की यह तलाश जल्दी ही पूरी हो गई और दिल्ली की एक एजेंसी ने डेढ़ लाख रुपए प्रति आदमी ले कर इराक में नौकरी दिलाने का वादा किया. एजेंसी के अनुसार वहां उन्हें 750 डौलर तनख्वाह मिलने वाली थी.

सोना और वीना ने एजेंसी की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया. इस की वजह यह थी कि उन की जानपहचान की कई नर्सें वहां पहले से ही नौकरी कर रही थीं. उन्होंने उन्हें बताया था कि वहां उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

सोना और वीना की ही तरह मरीना, श्रुथी, सलीजा जोसेफ और ऐंसी जोसेफ पिछले साल अगस्त में 27 अन्य नर्सों के साथ इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के गृह शहर टिकरित जा पहुंची. लेकिन वहां पहुंच कर ये नर्सें टिकरित के उस अस्पताल की इमारत तक ही सीमित रह गई थीं. इन नर्सों को अस्पताल से बाहर जाने की बिलकुल इजाजत नहीं थी.

टिकरित के उसी अस्पताल में इस साल फरवरी महीने में 13 अन्य नर्सें भारत से भेजी गईं. इस तरह वहां भारत की 46 नर्सें हो गईं. इन में 45 नर्सें केरल की थीं. बाकी एक नर्स दूसरे राज्य की थी. ये सभी नर्सें अस्पताल की दूसरी मंजिल पर बने कमरों में रहती थीं. एक कमरे में 6 नर्सों के रहने की व्यवस्था थी. बाहर की दुनिया से उन का ताल्लुक सिर्फ कमरे की खिड़की से दिखाई देने वाले आसमान से था.

इराक में यह जो नया संकट पैदा हुआ था, इस की जानकारी इन नर्सों को 12 जून को तब हुई, जब अस्पताल के आसपास बम धमाके और गोलियों के चलने की आवाजें सुनाई दीं. रात में जलती हुई इमारतें दिखाई दीं. तभी उस अस्पताल में काम करने वाली इराकी नर्सों ने इन से कहा कि वे शहर छोड़ कर भाग रही हैं.

और सचमुच वे नर्सें भाग गईं. भारतीय नर्सें कहां जातीं, उन्होंने तो कभी अस्पताल के बाहर कदम ही नहीं रखा था. उन की दुनिया तो अस्पताल और उन के उस कमरे तक सीमित थी, जिस में वे रह रही थीं. सभी भारतीय नर्सें वहां बुरी तरह से फंस चुकी थीं. लेकिन अभी उन के पास एक सहारा यह था कि उन के मोबाइल फोन चालू थे. उन के पास भारतीय दूतावास के नंबर भी थे.

13 जून को इन नर्सों ने बगदाद स्थित भारतीय दूतावास में वहां के भारतीय राजदूत अजय कुमार को फोन कर के सभी नर्सों को वहां से किसी भी तरह निकालने की गुहार लगाई. 46 नर्सों में एक को छोड़ कर बाकी 45 नर्सें केरल की थीं. उन के पास केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी का नंबर था, नर्सों ने उन्हें भी फोन किया.

मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने उन्हें धैर्य ही नहीं बंधाया, बल्कि मदद का वादा भी किया. लेकिन तब तक टिकरित की सड़के बंद हो चुकी थीं, इसलिए सड़क मार्ग से उन नर्सों को कोई मदद नहीं मिल सकती थी. ऐसे में उन्हें कहीं बाहर नहीं ले जाया जा सकता था.