
आज पूरे 3 साल बाद दीपक अपने गांव पहुंचा था, लेकिन कुछ भी तो नहीं बदला था उस के गांव में. पहले अकसर गरमियों की छुट्टियों में वह अपने मातापिता और अपनी छोटी बहन प्रतिभा के साथ गांव आता था, लेकिन 3 साल पहले उसे पत्रकारिता पढ़ने के लिए देश के एक नामी संस्थान में दाखिला मिल गया था और कोर्स पूरा होने के बाद एक बड़े मीडिया समूह में नौकरी भी.
दीपक की बहन प्रतिभा को मैडिकल कालेज में एमबीबीएस के लिए दाखिला मिल गया था. इस वजह से उन का गांव में आना नहीं हो पाया था. पिताजी और माताजी भी काफी खुश थे, क्योंकि पूरे 3 साल बाद उन्हें गांव आने का मौका मिला था.
दीपक का गांव शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर की दूरी पर बड़ी सड़क के किनारे बसा हुआ था, लेकिन सड़क से गांव में जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था. गरमी के दिनों में तो लोग पंडितजी के बगीचे से हो कर आतेजाते थे, मगर बरसात हो जाने पर किसी तरह खेतों से गुजर कर सड़क पर आते थे.
जब वे गांव पहुंचे, तो ताऊ और ताई ने उन का खूब स्वागत किया. ताऊ तो घूमघूम कर कहते फिरे, ‘‘मेरा भतीजा तो बड़ा पत्रकार हो गया है. अब पुलिस भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी.’’ दीपक के ताऊ की एक ही बेटी थी, जिस का नाम कुमुद था.
ताऊजी नजदीक के एक गांव में प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे. आराम की नौकरी. जब मन किया पढ़ाने गए, जब मन किया नहीं गए. वे इस इलाके में ‘बड़का पांडे’ के नाम से मशहूर थे. वे जिस गांव में पढ़ाते थे, वहां ज्यादातर दलित जाति के लोग रहते थे, जो किसी तरह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट पालते थे.
उन बेचारों की क्या मजाल, जो इलाके के ‘बड़का पांडे’ के खिलाफ कहीं शिकायत करते. शायद इसी का नतीजा था कि उन की बेटी कुमुद 10वीं जमात में 5 बार फेल हुई थी, पर ताऊ ने नकल कराने वाले एक स्कूल में पैसे दे कर उसे 10वीं जमात पास कराई थी.
दीपक का सारा दिन लोगों से मिलनेजुलने में बीत गया. अगले दिन शाम को वह अपने एक चचेरे भाई रमेश के साथ गांव में घूमने निकला. उस ने कहा कि चलो, अपने बगीचे की तरफ चलते हैं, तो रमेश ने कहा कि नहीं, शाम के समय वहां कोई नहीं जाता, क्योंकि वहां बसंती डायन रहती है.
दीपक को यह सुन कर थोड़ा गुस्सा आया कि आज विज्ञान कहां से कहां पहुच गया है, लेकिन ये लोग अभी भी भूतप्रेतों और डायन जैसे अंधविश्वासों में उलझे हुए हैं.
दीपक ने रमेश से पूछा ‘‘यह बसंती कौन है?’’
उस ने बताया, ‘‘अपने घर पर जो चीखुर नाम का आदमी काम करता था, यह उसी की पत्नी है.’’
चीखुर का नाम सुन कर दीपक को झटका सा लगा. दरअसल, चीखुर दीपक के खेतों में काम करता था और ट्रैक्टर भी चलाता था. उस की पत्नी बसंती बहुत सुंदर थी. हंसमुख स्वभाव और बड़ी मिलनसार. लोगों की मदद करने वाली. गांव के पंडितों के लड़के हमेशा उस के आगेपीछे घूमते थे.
दीपक ने रमेश से पूछा, ‘‘बसंती डायन कैसे बनी?’’ उस ने बताया, ‘‘उस के कोई औलाद तो थी नहीं, इसलिए वह दूसरे के बच्चों पर जादूटोना कर देती थी. वह हमारे गांव के कई बच्चों की अपने जादूटोने से जान ले चुकी है.’’
बसंती के बारे सुन कर दीपक थोड़ा दुखी हो गया, लेकिन उस ने मन ही मन ठान लिया कि उसे डायन के बारे में पता लगाना होगा.
जब थोड़ी रात हुई, तो दीपक शौच के बहाने लोटा ले कर घर से निकला और अपने बगीचे की तरफ चल पड़ा. बगीचे के पास एक कच्ची दीवार और उस के ऊपर गन्ने के पत्तों का छप्पर पड़ा था, जिस में एक टूटाफूटा दरवाजा भी था.
दीपक ने बाहर से आवाज लगाई, ‘‘कोई है?’’
अंदर से किसी औरत की आवाज आई, ‘‘भाग जाओ यहां से. मैं डायन हूं. तुम्हें भी जादू से मार डालूंगी.’’
दीपक ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो. मैं दीपक हूं.’’
वह औरत बोली, ‘‘कौन दीपक?’’
दीपक ने कहा, ‘‘मैं रामकृपाल का बेटा दीपक हूं.’’
वह औरत रोते हुए बोली, ‘‘दीपक बाबू, आप यहां से चले जाइए. मैं डायन हूं. आप को भी मेरी मनहूस छाया पड़ जाएगी.’’
दीपक ने कहा, ‘‘तुम बाहर आओ, वरना मैं दरवाजा तोड़ कर अंदर आ जाऊंगा.’’
तब वह औरत बाहर आई. वह एकदम कंकाल लग रही थी. फटी हुई मैलीकुचैली साड़ी, आंखें धंसी हुईं. उस के भरेभरे गाल कहीं गायब हो गए थे. उन की जगह अब गड्ढे हो गए थे.
उस औरत ने बाहर निकलते ही दीपक से कहा, ‘‘बाबू, आप यहां क्यों आए हैं? अगर आप की बिरादरी के लोगों ने आप को मेरे साथ देख लिया, तो मेरे ऊपर शामत आ जाएगी.’’
दीपक ने कहा, ‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा. लेकिन तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?’’
वह औरत रोने लगी और बोली, ‘‘क्या करोगे बाबू यह जान कर?’’
दीपक ने उसे बहुत समझाया, तो उस औरत ने बताया, ‘‘तकरीबन 2 साल पहले मेरे पति की तबीयत खराब हुई थी. जब मैं ने अपने पति को डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने कहा कि इस के दोनों गुरदे खराब हो गए हैं. इस का आपरेशन कर के गुरदे बदलने पड़ेंगे, लेकिन पैसे न होने के चलते मैं उस का आपरेशन नहीं करा पाई और उस की मौत हो गई.
‘‘पति की दवादारू में मेरे गहने बिक गए थे और हमारी एक बीघा जमीन जगनारायण पंडित के यहां गिरवी हो गई. अपने पति का क्रियाकर्म करने में जो पैसा लगाया था, वह सारा जगनारायण पंडित से लिया था. उन पैसों के बदले उस ने हमारी जमीन अपने नाम लिखवा ली, पर मुझे तो यह करना ही था, वरना गांव के लोग मुझे जीने नहीं देते. पति तो परलोक चला गया था. सोचा कि मैं किसी तह मेहनतमजदूरी कर के अपना पेट भर लूंगी.
‘‘फिर मैं आप के खेतों में काम करने लगी, लेकिन जगनारायण पंडित मुझे अकसर आतेजाते घूर कर देखता रहता था. पर मैं उस की तरफ कोई ध्यान नहीं देती थी.
‘‘एक दिन मैं खेतों से लौट रही थी. थोड़ा अंधेरा हो चुका था. तभी खेतों के किनारे मुझे जगनारायण पंडित आता दिखाई दिया. वह मेरी तरफ ही आ रहा था.
‘‘मैं उस से बच कर निकल जाना चाहती थी, लेकिन पास आ कर उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘कहां इतना सुंदर शरीर ले कर तू दूसरों के खेतों में मजदूरी करती है. मेरी बात मान, मैं तुझे रानी बना दूंगा. आखिर तू भी तो जवान है. तू मेरी जरूरत पूरी कर दे, मैं तेरी जरूरत पूरी करूंगा.’
‘‘मैं ने उस से अपना हाथ छुड़ाया और उसे एक तमाचा जड़ दिया. मैं अपने घर की तरफ दौड़ पड़ी. पीछे से उस की आवाज आई, ‘तू ने मेरी बात नहीं मानी है न, इस थप्पड़ का मैं तुझ से जरूर बदला लूंगा.’
‘‘कुछ महीनों के बाद रामजतन का बेटा और मंगरू की बेटी बीमार पड़ गई. शहर के डाक्टर ने बताया कि उन्हें दिमागी बुखार हो गया है, लेकिन जगनारायण पंडित और उस के चमचे कल्लू ने गांव में यह बात फैला दी कि यह सब किसी डायन का कियाधरा है.
‘‘उन बच्चों को अस्पताल से निकाल कर घर लाया गया और एक तांत्रिक को बुला कर झाड़फूंक होने लगी. लेकिन अगले दिन ही दोनों बच्चों की मौत हो गई, तो जगनारायण पंडित ने उस तांत्रिक से कहा कि बाबा उस डायन का नाम बताओ, जो हमारे बच्चों को खा रही है.
‘‘उस तांत्रिक ने मेरा नाम बताया, तो भीड़ मेरे घर पर टूट पड़ी. मेरा घर जला दिया गया. मुझे मारापीटा गया. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए और सिर मुंड़वा कर पूरे गांव में घुमाया गया.
‘‘इतने से भी उन का मन नहीं भरा और उन लोगों ने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. तब से मैं यहीं झोंपड़ी बना कर और आसपास के गांवों से कुछ मांग कर किसी तरह जी रही हूं’’.
उस औरत की बातें सुन कर दीपक की आंखें भर आईं. उस ने कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूं, वैसा करना. मैं तुम्हारे माथे से डायन का यह कलंक हमेशा के लिए मिटा दूंगा.’’
दीपक ने उसे धीमी आवाज में समझाया, तो वह राजी हो गई. दीपक ने गांव में यह बात फैला दी कि बसंती को कहीं से सोने के 10 सिक्के मिल गए हैं. पूरा गांव तो डायन से डरता था, लेकिन एक दिन जगनारायण पंडित उस के घर पहुंचा और बोला, ‘‘क्यों री बसंती, सुना है कि तुझे सोने के सिक्के मिले हैं. ला, सोने के सिक्के मुझे दे दे, नहीं तो तू जानती है कि मैं क्या कर सकता हूं.
‘‘जब पिछली बार तू ने मेरी बात नहीं मानी थी, तो मैं ने तेरा क्या हाल किया था, भूली तो नहीं होगी?
‘‘मेरी वजह से ही तू आज डायन बनी फिर रही है. अगर इस बार तू ने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं तेरा पिछली बार से भी बुरा हाल करूंगा.’’
वह बसंती को मारने ही वाला था कि दीपक गांव के कुछ लोगों के साथ वहां पहुंच गया. इतने लोगों को वहां देख कर जगनारायण पंडित की घिग्घी बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा. इतने में बसंती ने अपने छप्पर में छिपा कैमरा निकाल कर दीपक को दे दिया.
जगनारायण पंडित ने कहा, ‘‘यह सब क्या?है?’’
दीपक ने कहा, ‘‘मेरा यह प्लान था कि डायन के डर से गांव का कोई आदमी यहां नहीं आएगा, लेकिन तुझे सारी हकीकत मालूम है और तू सोने के सिक्कों की बात सुन कर यहां जरूर आएगा, इसलिए मैं ने बसंती को कैमरा दे कर सिखा दिया था कि इसे कैसे चलाना है.
‘‘जब तू दरवाजे पर आ कर चिल्लाया, तभी बसंती ने कैमरा चला कर छिपा दिया था और जब तू इधर आ रहा था, मैं ने तुझे देख लिया था. अब तू सीधा जेल जाएगा.’’
यह बात जब गांव वालों को पता चली, तो वे बसंती से माफी मांगने लगे. जगनारायण पंडित को उस के किए की सजा मिली. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. भीड़ से घिरी बसंती दीपक को देख रही थी, मानो उस की आंखें कह रही हों, ‘मेरे सिर से डायन का कलंक उतर गया दीपक बाबू.’
दीपक ने अपने नाम की तरह अंधविश्वास के अंधेरे में खो चुकी बसंती की जिंदगी में उजाला कर दिया था.
शकीला एस. हुसैन
रास दिन जो क्लाइंट मुझ से मिला, वह कुछ अजब किस्म का था. उस ने अपना नाम अफजल बताया. वह फ्रूट का धंधा करता था. उस की परेशानी यह थी कि वह अपनी बीवी रूमाना को तलाक दे चुका था और उस की एकलौती बेटी को उस की बीवी रूमाना साथ ले गई थी. वह अपनी बेटी को वापस लेना चाहता था.
मांबेटी अपने घर में रह रहे थे. अफजल को घर से निकलना पड़ा, क्योंकि घर रूमाना के नाम पर था. यह मकान महमूदाबाद बाजार के सिरे पर था. मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान थी, मकान का रास्ता बाजू वाली गली से था. 3 कमरों के इस घर में अफजल की छोटी सी फैमिली आराम से रह रही थी कि फरीद की नजर लग गई.
फरीद हसन 45 साल का हैंडसम आदमी था, लेकिन बेहद चालाक. वह इन लोगों का किराएदार था. बाहरी हिस्से वाली दुकान में उस ने एस्टेट एजेंसी खोल रखी थी. मकान रूमाना के नाम था इसलिए उस ने फरीद को अपनी मरजी से दुकान दी थी, जबकि अफजल इस के खिलाफ था. रूमाना सरकारी नौकरी में थी, ऊपर की आमदनी भी अच्छी थी. यह घर उसी ने बनाया था. थोड़ा पैसा अफजल का भी लगा था.
वैसे उस की ज्यादा आमदनी नहीं थी. वह मंडी से माल उठाता और घरों में पहुंचा देता. ज्यादातर ग्राहक फिल्म इंडस्ट्री के थे और अफजल को जुनून की हद तक फिल्मों में काम करने का शौक था. कोई छोटा एक्टर भी उसे फिल्मों में काम दिलाने की उम्मीद दिखाता तो उसे वह फ्री में फल सब्जी पहुंचा कर फिल्म में काम मिलने की उम्मीद में खिदमत करता रहता. अभी तक उसे कोई चांस नहीं मिला था, क्योंकि अफजल के पास न हुनर था न कोई सोर्स और न किसी डायरेक्टर से पहचान.
अफजल के इस शौक से उस की बीवी रूमाना नाराज रहती थी क्योंकि फायदा कुछ नहीं था, उलटा नुकसान होता था. इस बात पर दोनों में तकरार भी होती. वह समझाता, ‘‘देखना रूमाना, मैं जल्द टीवी के ड्रामों में नजर आऊंगा. फिर मेरे पास कार बंगला सब कुछ होगा.’’
इस लड़ाई में कभी बेटी फरजाना मां का साथ देती थी. 16-17 साल की फरजाना मैट्रिक की स्टूडेंट थी. कभी झुंझला कर कह देती, ‘‘आप दोनों कभी नहीं सुधरेंगे. इसी तरह लड़तेलड़ते जिंदगी गुजर जाएगी.’’
बेटी को बहलाने के लिए अफजल ने वादा किया, ‘‘अब ये सब छोड़ कर मैं काम में दिल लगाऊंगा.’’
कुछ दिन तो सुकून से गुजरे. फिर एक नया किस्सा शुरू हो गया. दुकान का किराएदार फरीद अकसर रूमाना से मिलने आने लगा. पहले तो वह महीने में 2-4 बार आता था, अब उस की आमद बढ़ गई थी. अफजल को उस का आनाजाना पसंद नहीं था. उस की आवाजाही बढ़ी तो अफजल ने ऐतराज किया, जिस से मेलमुलाकात रुक गई थी, फिर वह अफजल की गैरमौजूदगी में भी आने लगा.
अब रूमाना ने बाहर मिलना भी शुरू कर दिया. यह बात भी अफजल को पता चल गई. अभी तकरार चल ही रही थी कि अचानक एक दिन अफजल बेटाइम घर पहुंच गया, उस ने दोनों को घर में ही रंगेहाथों पकड़ लिया.
अफजल गुस्से से पागल हो गया. फरीद भाग निकला. पतिपत्नी की जोरदार लड़ाई हुई. अफजल बोला, ‘‘बेगैरती और बेशर्मी की हद हो गई, एक जवान लड़की के होते हुए पराए मर्द से ताल्लुक रखती हो. ये मैं बरदाश्त नहीं कर सकता.’’
रूमाना भी चीख कर बोली, ‘‘बेगैरत तुम हो, तुम अपनी बीवी पर इलजाम लगा रहे हो मेरी उस की दोस्ती है, हम अपना दुखसुख बांट लेते हैं.’’
तकरार गालीगलौज पर पहुंच गई और तलाक पर खत्म हुई.
घर रूमाना के नाम पर था. अफजल को बोरियाबिस्तर बांध कर घर छोड़ना पड़ा. बेटी फरजाना मां के पास रह गई.
अब अफजल कोर्ट में केस करने के लिए मेरे पास आया था कि मैं मुकदमा लड़ कर उस की बेटी उस के हवाले कर दूं. मैं ने उसे कहा, ‘‘देखो अफजल, तुम ने रूमाना को तलाक दे दी है. अगर तुम तलाक न देते तो वह खुला (औरत तलाक मांग लेती है) ले लेती. तुम्हारे साथ हरगिज न रहती. अब तुम चाहते हो कि कोर्ट के जरिए फरजाना को रूमाना की कस्टडी से निकाल कर तुम्हारे हवाले कर दूं.’’
‘‘हां वकील साहब, मैं हर कीमत पर अपनी बेटी को अपने पास लाना चाहता हूं. उस बेशर्म औरत की संगत में वह बिगड़ जाएगी. आप सारी बातें छोड़ें और मुकदमा लड़ कर मुझे मेरी बेटी दिला दें, मैं उस से बहुत प्यार करता हूं. मैं महीने में एक बार मिलने पर तसल्ली नहीं कर सकता. आप केस लड़ें.’’
‘‘केस लड़ने के लिए 3 बातों पर गौर करना जरूरी है, तभी मैं आप का केस ले सकता हूं.’’
‘‘कौन सी 3 बातें…जल्द बताइए.’’
‘‘पहली बात तो यह कि क्या आप के पास अपना घर है?’’
‘‘नहीं, मेरे पास अपनी रिहाइश नहीं है. मेरे दोस्त बशीर का एक होटल है, उस की ऊपरी मंजिल पर स्टाफ की रिहाइश के लिए कुछ कमरे बने हैं, उन्हीं में से एक में मैं रहता हूं.’’
‘‘अगर आप के पास घर नहीं है तो यह पौइंट आप के मुखालिफ जाता है. कोर्ट लड़की को होटल में स्टाफ के लिए बने कमरों में रखने की इजाजत नहीं देगी, जबकि मां के पास खुद का घर है. दूसरा मुद्दा यह है कि क्या आप इतना कमा लेते हैं कि बेटी व उस के महंगे स्कूल का खर्च उठा सकें?’’
‘‘मैं कमा तो लेता हूं पर आमदनी रेग्युलर नहीं है. उस का स्कूल काफी महंगा है.’’
‘‘तीसरा सवाल जो सब से जरूरी है, आप की बेटी मैट्रिक में पढ़ रही है, समझदार है. क्या वह आप के पास रहने को राजी है या मां के पास रहना चाहती है?’’
‘‘ये तो जाहिर सी बात है कि वह अपनी मां के साथ रहना पसंद करती है.’’
‘‘देखिए अफजल साहब, कोर्ट औलाद की कस्टडी के लिए इन्हीं 3 बातों पर गौर करती है. इन 3 खास मुद्दों पर आप का जवाब नेगेटिव है, कोर्ट कभी भी आप को लड़की की कस्टडी नहीं देगी और आप को साफ बात बता दूं, मैं भी आप का केस नहीं लड़ सकता. मैं बेवजह आप से पैसे झटकना नहीं चाहता. हकीकत में आप का केस बहुत कमजोर है. जीतने का कोई चांस नहीं है.’’
उस दिन अफजल मेरे पास से बेहद मायूस हो कर गया. अब दोबारा आने की उम्मीद नहीं थी, पर कुछ दिनों बाद होटल के मालिक बशीर भाई मेरे सामने आ खड़े हुए. पहले मैं उन का एक केस लड़ चुका था और वह मुकदमा जीत गए थे. उन्होंने ही अफजल को मेरे पास भेजा था. आज वह फिर मेरे सामने खड़े थे. बोले, ‘‘बेग साहब, अफजल बड़ी मुसीबत में फंस गया है. वह जेल में बंद है. पुलिस ने उसे फरीद के कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार किया है.’’
‘‘फरीद वही न, एस्टेट एजेंट, जिस की वजह से अफजल ने अपनी बीवी को तलाक दी थी.’’
‘‘जी हां, वही अफजल और वही एस्टेट एजेंट फरीद. उसी के कत्ल के इलजाम में पुलिस ने कल सुबह उसे अदालत में पेश किया और 7 दिन का रिमांड हासिल कर लिया.’’
‘‘कब हुआ ये कत्ल?’’
‘‘कत्ल 15 मई को हुआ था. उसी दिन दोपहर को मेरे होटल से उसे गिरफ्तार कर लिया गया. वह सीधा, कुछ बेवकूफ जरूर है पर वह कत्ल नहीं कर सकता. बहुत डरपोक आदमी है. मैं उसे सालों से जानता हूं, उस के खिलाफ साजिश की गई है. मेरा शक तो रूमाना पर जाता है.’’
‘‘ठीक है, मैं आज थाने जा कर अफजल से मिलता हूं. आप को पक्का यकीन है न कि वह बेकुसूर है? आप केस के बारे में और मालूमात करें. उस ने मेरी फीस अदा कर दी.’’
उसी दिन शाम को मैं उस थाने पहुंच गया, जहां अफजल बंद था. मुझे देख कर उस के चेहरे पर रौनक आ गई. वह दुखी हो कर बोला, ‘‘देखिए सर, मुझे बेवजह इस केस में फंसा दिया गया है.’’
‘‘इसीलिए तो मैं ने तुम्हारा केस हाथ में लिया है. चलो, मुझे सब कुछ सचसच बता दो.’’
वह बोला, ‘‘आप पूरी कोशिश कर के मुझे मौत से बचा लीजिए, भले ही मुझे थोड़ी सजा हो जाए. मैं फरजाना की शादी अपने हाथों से करना चाहता हूं.’’
मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ. मैं ने उसे तसल्ली दी, ‘‘तुम जल्द रिहा हो जाओगे, पर सच बोलना.’’
उस ने जो किस्सा सुनाया, उस का खुलासा यह है कि वह मेरा पहला मुलजिम था, जो थोड़ी सजा पर राजी था. जेहन में खयाल भी आया कि कहीं ये मुजरिम तो नहीं है जो कुछ उस ने कहा, मैं आप को बताता रहूंगा.
सुनयना दोनों हाथों में पोटली लिए खेत में काम कर रहे पति और देवर को खाना देने जा रही थी. उसे जब भी समय मिलता, तो वह पति और देवर के साथ खेत के काम में जुट जाती थी.
अपनी धुन में वह पगडंडी पर तेज कदमों से चली जा रही थी, तभी सामने से आ रहे सरपंच के लड़के अवधू और मुनीम गंगादीन पर उस की नजर पड़ी. वह ठिठक कर पगडंडी से उतर कर खेत में खड़ी हो गई और उन दोनों को जाने का रास्ता दे दिया.
अवधू और मुनीम गंगादीन की नजर सुनयना की इस हरकत और उस के गदराए जिस्म के उतारचढ़ावों पर पड़ी. वे दोनों उसे गिद्ध की तरह ताकते हुए आगे बढ़ गए.
कुछ दूर जाने के बाद अवधू ने गंगादीन से पूछा, ‘‘क्यों मुनीमजी, यह ‘सोनचिरैया’ किस के घर की है?’’
‘‘यह तो सुखिया की बहू है. जा रही होगी खेत पर अपने पति को खाना पहुंचाने. सुखिया अभी 2 महीने पहले ही तो मरा था. 3 साल पहले उस ने सरपंचजी से 8 हजार रुपए उधार लिए थे. अब तक तो ब्याज जोड़ कर 17 हजार रुपए हो गए होंगे,’’ अवधू की आदतों से परिचित मुनीम गंगादीन ने मसकेबाजी करते हुए कहा.
‘लाखों का हीरा, फिर भी इतना कर्ज. आखिर हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है न,’ अवधू ने कुछ सोचते हुए पूछा, ‘‘और मुनीमजी, कैसी है तुम्हारी वसूली?’’
‘‘तकाजा चालू है बेटा. जब तक सरपंचजी तीर्थयात्रा से वापस नहीं आते, तब तक इस हीरे से थोड़ीबहुत वसूली आप को ही करा देते हैं.’’
‘‘मुनीमजी, जब हमें फायदा होगा, तभी तो आप की तरक्की होगी.’’
दूसरे दिन मुनीम गंगादीन सुबहसुबह ही सुनयना के घर जा पहुंचा. उस समय सुखिया के दोनों लड़के श्यामू और हरिया दालान में बैठे चाय पी रहे थे.
गंगादीन को सामने देख श्यामू ने चाय छोड़ कर दालान में रखे तख्त पर चादर बिछाते हुए कहा, ‘‘रामराम मुनीमजी… बैठो. मैं चाय ले कर आता हूं.’’
‘‘चाय तो लूंगा ही, लेकिन बेटा श्यामू, धीरेधीरे आजकल पर टालते हुए 8 हजार के 17 हजार रुपए हो गए. तू ने महीनेभर की मुहलत मांगी थी, वह भी पूरी हो गई. मूल तो मूल, तू तो ब्याज तक नहीं देता.’’
‘‘मुनीमजी, आप तो घर की हालत देख ही रहे हैं. कुछ ही दिनों पहले हरिया का घर बसाया है और अभीअभी पिताजी भी गुजरे हैं,’’ श्यामू की आंखों में आंसू भर आए.
‘‘मैं तो समझ रहा हूं, लेकिन जब वह समझे, जिस की पूंजी फंसी है, तब न. वैसे, तू ने महीनेभर की मुहलत लेने के बाद भी फूटी कौड़ी तक नहीं लौटाई,’’ मुनीम गंगादीन ने कहा.
तब तक सुनयना गंगादीन के लिए चाय ले कर आ गई. गंगादीन उस की नाजुक उंगलियों को छूता हुआ चाय ले कर सुड़कने लगा और हरिया चुपचाप बुत बना सामने खड़ा रहा.
‘‘देख हरिया, मुझ से जितना बन सका, उतनी मुहलत दिलाता गया. अब मुझ से कुछ मत कहना. वैसे भी सरपंचजी तुझ से कितना नाराज हुए थे. मुझे एक रास्ता और नजर आ रहा है, अगर तू कहे तो…’’ कह कर गंगादीन रुक गया.
‘कौन सा रास्ता?’ श्यामू व हरिया ने एकसाथ पूछा.
‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि इन दिनों सरपंचजी तीर्थयात्रा करने चले गए हैं. आजकल उन का कामकाज उन का बेटा अवधू ही देखता है.
‘‘वह बहुत ही सज्जन और सुलझे विचारों वाला है. तुम उस से मिल लो. मैं सिफारिश कर दूंगा.
‘‘वैसे, तेरे वहां जाने से अच्छा है कि तू अपनी बीवी को भेज दे. औरतों का असर उन पर जल्दी पड़ता है. किसी बात की चिंता न करना. मैं वहां रहूंगा ही. आखिर इस घर से भी मेरा पुराना नाता है,’’ मुनीम गंगादीन ने चाय पीतेपीते श्यामू व हरिया को भरोसे में लेते हुए कहा.
सुनयना ने दरवाजे की ओट से मुनीम की सारी बातें सुन ली थीं. श्यामू सुनयना को अवधू की कोठी पर अकेली नहीं भेजना चाहता था. पर सुनयना सोच रही थी कि कैसे भी हो, वह अपने परिवार के सिर से सरपंच का कर्ज उतार फेंके.
दूसरे दिन सुनयना सरपंच की कोठी के दरवाजे पर जा पहुंची. उसे देख कर मुनीफ गंगादीन ने कहा, ‘‘बेटी, अंदर आ जाओ.’’
सुनयना वहां जाते समय मन ही मन डर रही थी, लेकिन बेटी जैसे शब्द को सुन कर उस का डर जाता रहा. वह अंदर चली गई.
‘‘मालिक, यह है सुखिया की बहू. 3 साल पहले इस के ससुर ने हम से 8 हजार रुपए कर्ज लिए थे, जो अब ब्याज समेत 17 हजार रुपए हो गए हैं. बेचारी कुछ और मुहलत चाहती है,’’ मुनीम गंगादीन ने सुनयना की ओर इशारा करते हुए अवधू से कहा.
‘‘जब 3 साल में कुछ भी नहीं चुका पाया, तो और कितना समय दिया जाए? नहींनहीं, अब और कोई मुहलत नहीं मिलेगी,’’ अवधू अपनी कुरसी से उठते हुए बोला.
‘‘देख, ऐसा कर. ये कान के बुंदे बेच कर कुछ पैसा चुका दे,’’ अवधू सुनयना के गालों और कानों को छूते हुए बोला.
‘‘और हां, तेरा यह मंगलसूत्र भी तो सोने का है,’’ अवधू उस के उभारों को छूता हुआ मंगलसूत्र को हाथ में पकड़ कर बोला.
सुनयना इस छुअन से अंदर तक सहम गई, फिर भी हिम्मत बटोर कर उस ने कहा, ‘‘यह क्या कर रहे हो छोटे ठाकुर?’’
‘‘तुम्हारे गहनों का वजन देख रहा हूं. तुम्हारे इन गहनों से शायद मेरे ब्याज का एक हिस्सा भी न पूरा हो,’’ कह कर अवधू ने सुनयना की दोनों बाजुओं को पकड़ कर हिला दिया.
‘‘अगर पूरा कर्ज उतारना है, तो कुछ और गहने ले कर थोड़ी देर के लिए मेरी कोठी पर चली आना…’’ अवधू ने बड़ी बेशर्मी से कहा, ‘‘हां, फैसला जल्दी से कर लेना कि तुझे कर्ज उतारना है या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि तेरे ससुर के हाथों लिखा कर्ज का कागज कोर्ट में पहुंच जाए.
‘‘फिर भेजना अपने पति को जेल. खेतघर सब नीलाम करा कर सरकार मेरी रकम मुझे वापस कर देगी और तू सड़क पर आ जाएगी.’’
सुनयना इसी उधेड़बुन में डूबी पगडंडियों पर चली जा रही थी. अगर वह छोटे ठाकुर की बात मानती है, तो पति के साथ विश्वासघात होगा. अगर वह उस की बात नहीं मानती, तो पूरे परिवार को दरदर की ठोकरें मिलेंगी.
कुछ दिनों बाद मुनीम गंगादीन फिर सुनयना के घर जा पहुंचा और बोला, ‘‘बेटी सुनयना, कर लिया फैसला? क्या अपने गहने दे कर ठाकुर का कर्ज चुकाएगी?’’
‘‘हां, मैं ने फैसला कर लिया है. बोल देना छोटे ठाकुर को कि मैं जल्दी ही अपने कुछ और गहने ले कर आ जाऊंगी कर्जा उतारने. उस से यह भी कह देना कि पहले कर्ज का कागज लूंगी, फिर गहने दूंगी.’’
‘‘ठीक है, वैसे भी छोटे ठाकुर सौदे में बेईमानी नहीं करते. पहले अपना कागज ले लेना, फिर…’’
वहीं खड़े सुनयना के पति और देवर यही सोच रहे थे कि शायद सुनयना ने अपने सोने और चांदी के गहनों के बदले पूरा कर्ज चुकता करने के लिए छोटे ठाकुर को राजी कर लिया है. उन्हें इस बात का जरा भी गुमान न हुआ कि सोनेचांदी के गहनों की आड़ में वह अपनी इज्जत को दांव पर लगा कर के परिवार को कर्ज से छुटकारा दिलाने जा रही है.
‘‘और देख गंगादीन, अब मुझे बेटीबेटी न कहा कर. तुझे बेटी और बाप का रिश्ता नहीं मालूम है. बाप अपनी बेटी को सोनेचांदी के गहनों से लादता है, उस के गहने को उतरवाता नहीं है,’’ सुनयना की आवाज में गुस्सा था.
दूसरे दिन सुनयना एक रूमाल में कुछ गहने बांध कर अवधू की कोठी पर पहुंच गई.
‘‘आज अंदर कमरे में तेरा कागज निकाल कर इंतजार कर रहे हैं छोटे ठाकुर,’’ सुनयना को देखते ही मुनीम गंगादीन बोला.
सुनयना झटपट कमरे में जा पहुंची और बोली, ‘‘देख लो छोटे ठाकुर, ये हैं मेरे गहने. लेकिन पहले कर्ज का कागज मुझे दे दो.’’
‘‘ठीक है, यह लो अपना कागज,’’ अवधू ने कहा.
सुनयना ने उस कागज पर सरसरी निगाह डाली और उसे अपने ब्लाउज के अंदर रख लिया.
‘‘ये गहने तो लोगों की आंखों में परदा डालने के लिए हैं. तेरे पास तो ऐसा गहना है, जिसे तू जब चाहे मुझे दे कर और जितनी चाहे रकम ले ले,’’ अवधू कुटिल मुसकान लाते हुए बोला.
‘‘यह क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर?’’ सुनयना की आवाज में शेरनी जैसी दहाड़ थी.
अवधू को इस की जरा भी उम्मीद नहीं थी. सुनयना बिजली की रफ्तार से अहाते में चली गई. तब तक गांव की कुछ औरतें और आदमी भी कोठी के सामने आ कर खड़े हो गए थे. वहां से अहाते के भीतर का नजारा साफ दिखाई दे रहा था.
लोगों को देख कर नौकरों की भी हिम्मत जाती रही कि वे सुनयना को भीतर कर के दरवाजा बंद कर लें. अवधू और गंगादीन भी समझ रहे थे कि अब वे दिन नहीं रहे, जब बड़ी जाति वाले नीची जाति वालों से खुलेआम जबरदस्ती कर लेते थे.
सुनयना बाहर आ कर बोली, ‘‘छोटे ठाकुर और गंगादीन, देख लो पूरे गहने हैं पोटली में. उतर गया न मेरे परिवार का सारा कर्ज. सब के सामने कह दो.’’
‘‘हांहां, ठीक है,’’ अवधू ने घायल सांप की तरह फुंफकार कर कहा.
सभी लोगों के जाने के बाद अवधू और गंगादीन ने जब पोटली खोल कर देखी, तो वे हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गए. उस में सुनयना के गहनों के साथसाथ गंगादीन की बेटी के भी कुछ गहने थे, जो सुनयना की अच्छी सहेलियों में से एक थी.
‘अब मैं अपनी बेटी के सामने कौन सा मुंह ले कर जाऊंगा. क्या सुनयना उस से मेरी सब करतूतें बता कर ये गहने ले आई है?’ सोच कर गंगादीन का सिर घूम रहा था.
अवधू और गंगादीन दोनों समझ गए कि सुनयना एक माहिर खिलाड़ी की तरह बहुत अच्छा खेल खिला कर गई है.
‘प्रभा, जल्दी से मेरी चाय दे दो…’
‘प्रभा, अगर मेरा नाश्ता तैयार है, तो लाओ…’
‘प्रभा, लंच बौक्स तैयार हुआ कि नहीं?’
जितने लोग उतनी ही फरमाइशें. सुबह से ही प्रभा के नाम आदेशों की लाइन लगनी शुरू हो जाती थी. वह खुशीखुशी सब की फरमाइश पूरी कर देती थी. उस ने भी जैसे अपने दो पैरों में दस पहिए लगा रखे हों. उस की सेवा से घर का हर सदस्य संतुष्ट था. वर्मा परिवार उस की सेवा और ईमानदारी को स्वीकार भी करता था.
प्रभा थी भी गुणों की खान. दूध सा गोरा और कमल सा चिकना बदन. कजरारे नैन, रसीले होंठ, पतली कमर, सुतवां नाक, काली नागिन जैसे काले लंबे बाल और ऊपर से खनकती हुई आवाज. उस की खूबसूरती उस के किसी फिल्म की हीरोइन होने का एहसास कराती थी.
मालकिन मिसेज वर्मा की बेटी ज्योति, जो प्रभा की हमउम्र थी, के पुराने, मगर मौडर्न डिजाइन के कपड़े जब वह पहन लेती थी, तो उस की खूबसूरती में और भी निखार आ जाता था.
मिसेज वर्मा का बेटा अविनाश तो उस पर लट्टू था. हमेशा उस के आसपास डोलते रहने की कोशिश करता रहता था. वह भी मन ही मन उसे चाहने लगी थी. अब तक दोनों में से किसी ने भी अपनेअपने मन की बात एकदूसरे से जाहिर नहीं की थी.
घर के दूसरे कामों के अलावा मिसेज वर्मा की बूढ़ी सास की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी भी प्रभा के कंधों पर ही थी. दरअसल, मिसेज वर्मा एक इंटर कालेज की प्रिंसिपल थीं. उन्हें सुबह के 9 बजे तक घर छोड़ देना पड़ता था. बड़ा बेटा अविनाश और बेटी ज्योति दोनों सुबह साढ़े 9 बजे तक अपनेअपने कालेज के लिए निकल जाते थे.
घर के मालिक पीके वर्मा पेशे से वकील थे और उन के मुवक्किलों के चायनाश्ते का इंतजाम भी प्रभा को ही देखना पड़ता था. प्रभा सुबह के 8 बजतेबजते वर्मा परिवार के फ्लैट पर पहुंच जाती थी. पूरे 8 घंटे लगातार काम करने के बाद शाम के 5 बजे तक ही वह अपने घर लौट पाती थी.
उस दिन प्रभा मिस्टर वर्मा के घर पर अकेली थी. बूढ़ी अम्मां भी किसी काम से पड़ोस में गई हुई थीं. घर का काम निबटा कर थोड़ा सुस्ताने के लिए प्रभा जैसे ही बैठी, दरवाजे की घंटी बज उठी.
प्रभा ने दरवाजा खोला, तो सामने अविनाश खड़ा था. ‘‘घर में और कोई नहीं है क्या?’’ अविनाश ने अंदर आते हुए पूछा.
‘‘नहीं,’’ प्रभा ने छोटा सा जवाब दिया.
कमरे में खुद के अलावा अविनाश की मौजूदगी ने उस के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थीं. वह अपनी नजरें चुरा रही थी. उधर अविनाश का दिमाग प्रभा को अकेला पा कर बहकने लगा था.
अविनाश ने अपने कमरे में जाते हुए प्रभा को एक गिलास पानी देने के लिए आवाज लगाई. वह पानी ले कर कमरे में पहुंची. अविनाश ने उसे गिलास मेज पर रख देने का इशारा किया.
गिलास रख कर जब प्रभा लौटने लगी, तो अविनाश ने उसे पीछे से अपनी बांहों में कस कर जकड़ लिया. एक तो लड़की की गदराई देह, मुश्किल से मिली तनहाई और मालिक होने का रोब… अविनाश पूरी तरह अपने अंदर के हैवान के आगे मजबूर हो चुका था.
‘‘यह आप क्या कर रहे हैं साहब?’’ प्रभा बुरी तरह डर गई थी.
‘‘वही, जो तुम चाहती हो. तुम्हें तो फिल्मों की हीरोइन होना चाहिए था, किन कंगालों के घर पैदा हो गई तुम… कोई बात नहीं. तुम तो किसी बड़े घर की बहू बनने के लायक हो मेरी जान.
‘‘मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं. मैं तुम से शादी करना चाहता हूं,’’ फिर अविनाश ने उसे बिस्तर पर गिरा दिया और उस के जिस्म पर सवार होने लगा.
प्रभा पर ताकत का इस्तेमाल करते हुए अविनाश बड़ी बेशरमी से बोला, ‘‘पहले अपनी जवानी का मजा चखाओ, फिर मैं तुम्हें वर्मा परिवार की बहू बनाता हूं.’’
‘‘लेकिन, शादी के पहले यह सब करना पाप होता है,’’ प्रभा गिड़गिड़ाते हुए बोली.
‘‘पापपुण्य का हिसाब बाद में समझाना बेवकूफ लड़की. पहले मैं जो चाहता हूं, वह करने दे.’’
अविनाश वासना की आग में पूरी तरह दहक रहा था. इस के आगे वह कोई हरकत करता, घर का दरवाजा‘खटाक’ से खुला. सामने मिसेज वर्मा खड़ी थीं.
अपनी मां को देख अविनाश पहले तो झेंपा, फिर पैतरा बदल कर पलंग से उतर गया. प्रभा भी उठ खड़ी हुई.
‘‘यह सब क्या हो रहा है?’’ मिसेज वर्मा चीखते हुए बोलीं.
‘‘देखिए न मम्मी, कैसी बदचलन लड़की को आप ने घर में नौकरी दे रखी है? अकेला देख कर इस ने मुझे जबरन बिस्तर पर खींच लिया. यह इस घर की बहू बनने के सपने देख रही है,’’ अविनाश ने एक ही सांस में अपना कुसूर प्रभा के सिर पर मढ़ दिया.
‘‘नहीं मालकिन, नहीं. यह सच नहीं है,’’ कहते हुए प्रभा रो पड़ी.
‘‘देख रही हैं मम्मी, कितनी ढीठ है यह लड़की? यह कब से मुझ पर डोरे डाल रही है. आज मुझे अकेला पा कर अपनी असलियत पर उतर ही आई,’’ अविनाश सफाई देता हुआ बोला.
‘‘मैं खूब जानती हूं इन छोटे लोगों को. अपनी औकात दिखा ही देते हैं. अब मैं इसे काम पर नहीं रख सकती,’’ मिसेज वर्मा प्रभा पर आंखें तरेरते हुए बोलीं.
‘‘नहीं मालकिन, ऐसा मत कीजिए. हम लोग भूखे मर जाएंगे,’’ प्रभा बोली.
‘‘भूखे क्यों मरोगे? अपनी टकसाल ले कर बाजार में बैठ जाओ. अपनी
भूख के साथसाथ दूसरों की भी मिटाओ. घरों में झाड़ूपोंछा कर के कितना कमाओगी. चलो, निकलो अभी मेरे घर से. मेरे बेटे पर लांछन लगाती है,’’ मिसेज वर्मा बेरुखी से बोलीं. प्रभा हैरान सी सबकुछ सुनतीदेखती रही. उस का सिर चकराने लगा. कुछ देर में जा कर वह संभली और बिना उन की तरफ देखे दरवाजे से बाहर निकल गई.
घर आ कर उस ने रोतेरोते सारी दास्तान अपनी मां को सुनाई. उस की मां लक्ष्मी हैरान रह गई.
‘‘मां, इस में मेरी कोई गलती नहीं है. यह सच है कि मैं मन ही मन अविनाश बाबू को चाहने लगी थी, पर इन सब बातों के लिए कभी तैयार नहीं थी. वह तो ऐन वक्त पर मालकिन आ गईं और मैं बरबाद होने से बच गई. मुझे माफ कर दो मां,’’ प्रभा रोने लगी.
मां लक्ष्मी ने बेटी प्रभा को खींच कर गले से लगा लिया. प्रभा काफी देर तक मां से लिपट कर रोती रही. रो लेने के बाद उस का जी हलका हो गया. वह लुटतेलुटते बची थी. इस के लिए वह मन ही मन मिसेज वर्मा को धन्यवाद भी दे रही थी. ऐन वक्त पर उन का आ धमकना प्रभा के लिए वरदान साबित हुआ था.
प्रभा को अब अपने सपनों के टूट जाने का कोई गम नहीं था. उस के सपनों का राजकुमार तो अंदर से बड़ा ही बदसूरत निकला था.
‘‘महीने की पगार की आस टूट गई तो क्या हुआ, इज्जत का कोहिनूर तो बच गया. वह अगर लुट जाता, तो किस दुकान पर वापस मिलता?’’ इतना कह कर उस की मां लक्ष्मी ने इतमीनान की एक लंबी सांस ली.
कुछ खोतेखोते बहुतकुछ बच जाने का संतोष प्रभा के चेहरे पर भी दिखने लगा था.
राम रहमानपुर गांव सालों से गंगाजमुनी तहजीब की एक मिसाल था. इस गांव में हिंदुओं और मुसलिमों की आबादी तकरीबन बराबर थी. मंदिरमसजिद आसपास थे. होलीदीवाली, दशहरा और ईदबकरीद सब मिलजुल कर मनाते थे. रामरहमानपुर गांव में 2 जमींदारों की हवेलियां आमनेसामने थीं. दोनों जमींदारों की हैसियत बराबर थी और आसपास के गांव में बड़ी इज्जत थी.
दोनों परिवारों में कई पीढि़यों से अच्छे संबंध बने हुए थे. त्योहारों में एकदसूरे के यहां आनाजाना, सुखदुख में हमेशा बराबर की साझेदारी रहती थी. ब्रजनंदनलाल की एकलौती बेटी थी, जिस का नाम पुष्पा था. जैसा उस का नाम था, वैसे ही उस के गुण थे. जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. उस की उम्र नादान थी. रस्सी कूदना, पिट्ठू खेलना उस के शौक थे. गांव के बड़े झूले पर ऊंचीऊंची पेंगे लेने के लिए वह मशहूर थी.
शौकत अली के एकलौते बेटे का नाम जावेद था. लड़कों की खूबसूरती की वह एक मिसाल था. बड़ों की इज्जत करना और सब से अदब से बात करना उस के खून में था. जावेद के चेहरे पर अभी दाढ़ीमूंछों का निशान तक नहीं था.
जावेद को क्रिकेट खेलने और पतंगबाजी करने का बहुत शौक था. जब कभी जावेद की गेंद या पतंग कट कर ब्रजनंदनलाल की हवेली में चली जाती थी, तो वह बिना झिझक दौड़ कर हवेली में चला जाता और अपनी पतंग या गेंद ढूंढ़ कर ले आता.
पुष्पा कभीकभी जावेद को चिढ़ाने के लिए गेंद या पतंग को छिपा देती थी. दोनों में खूब कहासुनी भी होती थी. आखिर में काफी मिन्नत के बाद ही जावेद को उस की गेंद या पतंग वापस मिल पाती थी. यह अल्हड़पन कुछ समय तक चलता रहा. बड़ेबुजुर्गों को इस खिलवाड़ पर कोई एतराज भी नहीं था.
समय तो किसी के रोकने से रुकता नहीं. पुष्पा अब सयानी हो चली थी और जावेद के चेहरे पर दाढ़ीमूंछ आने लगी थीं. अब जावेद गेंद या पतंग लेने हवेली के अंदर नहीं जाता था, बल्कि हवेली के बाहर से ही आवाज दे देता था.
पुष्पा भी अब बिना झगड़ा किए नजर झुका कर गेंद या पतंग वापस कर देती थी. यह झुकी नजर कब उठी और जावेद के दिल में उतर गई, किसी को पता भी नहीं चला.
अब जावेद और पुष्पा दिल ही दिल में एकदूसरे को चाहने लगे थे. उन्हें अल्हड़ जवानी का प्यार हो गया था.
कहावत है कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. गांव में दोनों के प्यार की बातें होने लगीं और बात बड़ेबुजुर्गों तक पहुंची.
मामला गांव के 2 इज्जतदार घरानों का था. इसलिए इस के पहले कि मामला तूल पकड़े, जावेद को आगे की पढ़ाई के लिए शहर भेज दिया गया. यह सोचा गया कि वक्त के साथ इस अल्हड़ प्यार का बुखार भी उतर जाएगा, पर हुआ इस का उलटा.
जावेद पर पुष्पा के प्यार का रंग पक्का हो गया था. वह सब से छिप कर रात के अंधेरे में पुष्पा से मिलने आने लगा. लुकाछिपी का यह खेल ज्यादा दिन तक नहीं चल सका. उन की रासलीला की चर्चा आसपास के गांवों में भी होने लगी.
आसपास के गांवों की महापंचायत बुलाई गई और यह फैसला लिया गया कि गांव में अमनचैन और धार्मिक भाईचारा बनाए रखने के लिए दोनों को उन की हवेलियों में नजरबंद कर दिया जाए.
ब्रजनंदनलाल और शौकत अली को हिदायत दी गई कि बच्चों पर कड़ी नजर रखें, ताकि यह बात अब आगे न बढ़ने पाए. कड़ी सिक्योरिटी के लिए दोनों हवेलियों पर बंदूकधारी पहरेदार तैनात कर दिए गए.
अब पुष्पा और जावेद अपनी ही हवेलियों में अपने ही परिवार वालों की कैद में थे. कई दिन गुजर गए. दोनों ने खानापीना छोड़ दिया था. आखिरकार दोनों की मांओं का हित अपने बच्चों की हालत देख कर पसीज उठा. उन्होंने जातिधर्म के बंधनों से ऊपर उठ कर घर के बड़ेबुजुर्गों की नजर बचा कर गांव से दूर शहर में घर बसाने के लिए अपने बच्चों को कैद से आजाद कर दिया.
रात के अंधेरे में दोनों अपनी हवेलियों से बाहर निकल कर भागने लगे. ब्रजनंदनलाल और शौकत अली तनाव के कारण अपनी हवेलियों की छतों पर आधी रात बीतने के बाद भी टहल रहे थे. उन दोनों को रात के अंधेरे में 2 साए भागते दिखाई दिए. उन्हें चोर समझ कर दोनों जोर से चिल्लाए, पर वे दोनों साए और तेजी से भागने लगे.
ब्रजनंदनलाल और शौकत अली ने बिना देर किए चिल्लाते हुए आदेश दे दिया, ‘पहरेदारो, गोली चलाओ.’
‘धांयधांय’ गोलियां चल गईं और 2 चीखें एकसाथ सुनाई पड़ीं और फिर सन्नाटा छा गया.
जब उन्होंने पास जा कर देखा, तो सब के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई. पुष्पा और जावेद एकदूसरे का हाथ पकड़े गोलियों से बिंधे पड़े थे. ताजा खून उन के शरीर से निकल कर एक नई प्रेमकहानी लिख रहा था.
आननफानन यह खबर दोनों हवेलियों तक पहुंच गई. पुष्पा और जावेद की मां दौड़ती हुई वहां पहुंच गईं. अपने जिगर के टुकड़ों को इस हाल में देख कर वे दोनों बेहोश हो गईं. होश में आने पर वे रोरो कर बोलीं, ‘अपने जिगर के टुकड़ों का यह हाल देख कर अब हमें भी मौत ही चाहिए.’
ऐसा कह कर उन दोनों ने पास खड़े पहरेदारों से बंदूक छीन कर अपनी छाती में गोली मार ली. यह सब इतनी तेजी से हुआ कि कोई उन को रोक भी नहीं पाया.
यह खबर आग की तरह आसपास के गांवों में पहुंच गई. हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी. सवेरा हुआ, पुलिस आई और पंचनामा किया गया. एक हवेली से 2 जनाजे और दूसरी हवेली से 2 अर्थियां निकलीं और उन के पीछे हजारों की तादाद में भीड़.
अंतिम संस्कार के बाद दोनों परिवार वापस लौटे. दोनों हवेलियों के चिराग गुल हो चुके थे. अब ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की जिंदगी में बच्चों की यादों में घुलघुल कर मरना ही बाकी बचा था.
ब्रजनंदनलाल और शौकत अली की निगाहें अचानक एकदसूरे से मिलीं, दोनों एक जगह पर ठिठक कर कुछ देर तक देखते रहे, फिर अचानक दौड़ कर एकदूसरे से लिपट कर रोने लगे.
गहरा दुख अपनों से मिल कर रोने से ही हलका होता है. बरसों का आपस का भाईचारा कब तक उन्हें दूर रख सकता था. शायद दोनों को एहसास हो रहा था कि पुरानी पीढ़ी की सोच में बदलाव की जरूरत है.
तबादले पर जाने वाला नौजवान अफसर विजय आने वाले नौजवान अफसर नितिन को अपने बंगले पर ला कर उसे चपरासी रामलाल के बारे में बता रहा था. नितिन ने जब चपरासी रामलाल की फिल्म हीरोइन जैसी खूबसूरत बीवी को देखा, तो वह उसे देखता ही रह गया. नितिन बोला, ‘‘यार, तुम्हारी यह चपरासी की बीवी तो कमाल की है. तुम ने तो इस के साथ खूब मजे किए होंगे?’’ ‘‘नहीं यार, ये छोटे लोग बहुत ही धर्मकर्म पर चलते हैं और इस के लिए अपना सबकुछ कुरबान कर देते हैं. ये लोग पद और पैसे के लिए अपनी इज्जत को नहीं बेचते हैं. मैं ने भी इसे लालच दे कर पटाने की खूब कोशिश की थी, मगर इस ने साफ मना कर दिया था.’’
यह सुन कर नितिन विजय की ओर हैरानी से देखने लगा. नितिन को इस तरह देख विजय अपनी सफाई में बोला, ‘‘ये छोटे लोग हम लोगों की तरह नहीं होते हैं, जो अपने किसी काम को बड़े अफसर से कराने के लिए अपनी बहनबेटियों और बीवियों को भी उन के साथ सुला देते हैं. हमारी बहनबेटियों और बीवियों को भी सोने में कोई दिक्कत नहीं होती है, क्योंकि वे तो अपने स्कूल और कालेज की पढ़ाई करते समय अपने कितने ही बौयफ्रैंड्स के साथ सो चुकी होती हैं.’’ इतना सुन कर नितिन मन ही मन उस चपरासी की बीवी को पटाने की तरकीब सोचने लगा.
विजय से चार्ज लेने के बाद नितिन अपने सरकारी बंगले में रहने लग गया था. शाम को जब वह अपने बंगले पर आया, तो चपरासी रामलाल उस से बोला, ‘‘साहब, आप को शराब पीने का शौक हो तो लाऊं? पुराने साहब तो रोजाना पीने के लिए बोतल मंगवाते थे.’’
‘‘और क्याक्या मंगवाते थे तुम्हारे पुराने साहब?’’ चपरासी रामलाल बोला, ‘‘कालेज में पढ़ने वाली लड़की भी मंगवाते थे. वे पूरी रात के उसे 2 हजार रुपए देते थे.’’ ‘‘ले आना,’’ सुन कर नितिन ने उस से कहा, तो वह उन के लिए शराब की बोतल और उस लड़की को ले आया था.
उस लड़की और उस अफसर ने शराब पी कर रातभर खूब मजे किए. जाते समय नितिन ने उसे 3 हजार रुपए दिए और उस से कहा कि वह चपरासी रामलाल से कहे कि तुम्हारे ये कैसे साहब हैं, जिन्होंने रातभर मेरे साथ कुछ किया ही नहीं था, बल्कि मुझे छुआ भी नहीं था, फिर भी मुझे 3 हजार रुपए मुफ्त में दे दिए हैं.’’ उस लड़की ने चपरासी रामलाल से यह सब कहने की हामी भर ली.
जब वह लड़की वहां से जाने लगी, तो चपरासी रामलाल से बोली, ‘‘तुम्हारे ये साहब तो बेकार ही रातभर लड़की को अपने बंगले पर रखते हैं, उस के साथ कुछ करते भी नहीं हैं, मगर फिर भी उस को पैसे देते हैं. तुम्हारे साहब का तो दिमाग ही खराब है.’’
यह सुन कर चपरासी रामलाल हैरान हो कर उस की ओर देखने लगा, तो वह उस से बोली, ‘‘तुम्हारे साहब ने तो रातभर मुझे छुआ भी नहीं, फिर भी मुझे 3 हजार रुपए दे दिए हैं,’’ कह कर वह वहां से चली गई. उस लड़की की बातें सुन कर चपरासी रामलाल सोचने लगा था कि उस के अफसर का दिमाग खराब है या वे औरत के काबिल नहीं हैं, फिर भी उन्हें औरतों को अपने साथ सुला कर उन पर अपने पैसे लुटाने का शौक है.
चपरासी रामलाल अपने कमरे पर आ कर बीवी सरला से बोला, ‘‘हमारे ये नए साहब तो बेकार ही अपने पैसे लड़की पर लुटाते हैं.’’ ‘‘वह कैसे?’’ सुन कर सरला ने रामलाल से पूछा, तो वह बोला, ‘‘कल रात को मैं साहब के लिए एक लड़की लाया था, लेकिन उन्होंने उस के साथ कुछ भी नहीं किया. यहां तक कि उन्होंने उसे छुआ भी नहीं, मगर फिर भी उन्होंने उसे 3 हजार रुपए दे दिए.’’
यह सुन कर उस की बीवी सरला हैरानी से उस की ओर देखने लगी, तो वह उस से बोला, ‘‘क्यों न अपने इस साहब से हम पैसे कमाएं?’’ ‘‘वह कैसे?’’ सरला ने उस से पूछा, तो वह बोला, ‘‘तुम इस साहब के साथ सो जाया करो. यह साहब तुम्हारे साथ कुछ करेगा भी नहीं और उस से मुफ्त में ही हम को पैसे मिल जाएंगे. उन पैसों से हम अपने लिए नएनए गहने भी बनवा लेंगे और जरूरत का सामान भी खरीद लेंगे.
‘‘मेरा कितने दिनों से नई मोटरसाइकिल खरीदने का मन कर रहा है, मगर पैसे न होने से खरीद ही नहीं पाता हूं. जब तुम्हें नएनए गहनों में नए कपड़े पहना कर मोटरसाइकिल पर बिठा कर अपने गांव और ससुराल ले जाऊंगा, तो वे लोग हम से कितने खुश होंगे. हमारी तो वहां पर धाक ही जम जाएगी.’’ ‘‘कहीं यह तुम्हारा साहब मुझ से मजे लेने लग गया तो…’’ खूबसूरत बीवी सरला ने अपना शक जाहिर किया, तो वह उसे तसल्ली देते हुए बोला, ‘‘तुम इस बात की चिंता मत करो. वह तुम से मजे नहीं लेगा.’’
पति रामलाल की इस बात को सुन कर बीवी सरला अपने साहब के साथ सोने के लिए तैयार हो गई. शाम को अपने साहब के लिए शराब लाने के बाद रात को चपरासी रामलाल ने अपनी बीवी सरला को उन के कमरे में भेज दिया. साहब जब उस पर हावी होने लगे, तो उसे बड़ी हैरानी हो रही थी, क्योंकि उस के पति ने तो उस से कहा था कि साहब उसे छुएगा भी नहीं, मगर उस का साहब तो उस पर ऐसा हावी हुआ था कि… रातभर में साहब ने उसे इतना ज्यादा थका दिया था कि वह सो न सकी.
सरला को अपने पति पर बहुत गुस्सा आ रहा था, लेकिन गुस्से को दबा कर मुसकराते हुए दूसरे दिन अपने पति से वह बोली, ‘‘तुम्हारे साहब ने तो मुझे छुआ भी नहीं. हम ने मुफ्त में ही उन से पैसे कमा लिए.’’ यह सुन कर उस का पति रामलाल अपनी अक्लमंदी पर खुशी से मुसकराने लगा, तो वह उस से बोली, ‘‘मुझे रातभर तुम्हारी याद सताती रही थी. क्यों न हम तुम्हारी बहन नीता को गांव से बुला कर तुम्हारे साहब के साथ सुला दिया करें. ‘‘तुम्हारा साहब उस के साथ कुछ करेगा भी नहीं और उस से मिले पैसों से हम उस की शादी भी धूमधाम से कर देंगे.’’
यह सुन कर रामलाल बीवी सरला की इस बात पर सहमत हो गया. वह उस से बोला, ‘‘तुम इस बारे में नीता को समझा देना. मैं आज ही उसे फोन कर के बुलवा लूंगा.’’ शाम को जब चपरासी रामलाल की बहन नीता वहां पर आई, तो सरला उस से बोली, ‘‘ननदजी, तुम गांव के लड़कों को मुफ्त में ही मजे देती फिरती हो.
किसी दिन किसी ने देख लिया, तो गांव में बदनामी हो जाएगी. इसलिए तुम यहीं रह कर हमारे साहब के साथ रातभर सो कर मजे भी लो और पैसे भी कमाओ.’’ यह सुन कर उस की ननद नीता खुशी से झूम उठी थी. रातभर वह साहब के साथ मौजमस्ती कर के सुबह जब उन के कमरे से निकली, तो बहुत खुश थी. साहब ने उसे 5 हजार रुपए दिए थे.
कुछ ही दिनों में चपरासी रामलाल अपने लिए नई मोटरसाइकिल ले आया था और अपनी बीवी सरला और बहन नीता के लिए नएनए जेवर और कपड़े भी खरीद चुका था, क्योंकि उस के साहब अपने से बड़े अफसरों को खुश रखने के लिए उन दोनों को उन के पास भेजने लगे थे. एक दिन सरला और नीता आपस में बातें करते हुए कह रही थीं कि उन के साहब तो रातभर उन्हें इतने मजे देते हैं कि उन्हें मजा आ जाता है.
उन की इन बातों को जब चपरासी रामलाल ने सुना, तो वह अपने साहब की इस चतुराई पर हैरान हो उठा था. लेकिन अब हो भी क्या सकता था. रामलाल ने सोचा कि जो हो रहा है, होने दो. उन से पैसे तो मिल ही रहे हैं. उन पैसों के चलते ही उस की अपने गांव और ससुराल में धाक जम चुकी थी, क्योंकि आजकल लोग पैसा देखते हैं, चरित्र नहीं.
बहुत देर से अपनी बीवी प्रेमा को सजतासंवरता देख बलवीर से रहा नहीं गया. उस ने पूछा, ‘‘क्योंजी, आज क्या खास बात है?’’
‘‘देखोजी…’’ कहते हुए प्रेमा उस की ओर पलटी. उस का जूड़े में फूल खोंसता हुआ हाथ वहीं रुक गया, ‘‘आप को कितनी बार कहा है कि बाहर जाते समय टोकाटाकी न किया करो.’’
‘‘फिर भी…’’
‘‘आज मुझे जनप्रतिनिधि की ट्रेनिंग लेने जाना है,’’ प्रेमा ने जूड़े में फूल खोंस लिया. उस के बाद उस ने माथे पर बिंदिया भी लगा ली.
‘‘अरे हां…’’ बलवीर को भी याद आया, ‘‘कल ही तो चौधरी दुर्जन सिंह ने कहलवाया था कि इलाके के सभी जनप्रतिनिधियों को ब्लौक दफ्तर में ट्रेनिंग दी जानी है,’’ उस ने होंठों पर जीभ फिरा कर कहा, ‘‘प्रेमा, जरा संभल कर. आजकल हर जगह का माहौल बहुत ही खराब है. कहीं…’’
‘‘जानती हूं…’’ प्रेमा ने मेज से पर्स उठा लिया, ‘‘अच्छी तरह से जानती हूं.’’
‘‘देख लो…’’ बलवीर ने उसे चेतावनी दी, ‘‘कहीं दुर्जन सिंह अपनी नीचता पर न उतर आए.’’
‘‘अजी, कुछ न होगा,’’ कह कर प्रेमा घर से बाहर निकल गई.
प्रेमा जब 7वीं क्लास में पढ़ा करती थी, तभी से वह देश की राजनीति में दिलचस्पी लेने लगी थी. शादी के बाद वह गांव की औरतों से राजनीति पर ही बातें किया करती. कुरेदकुरेद कर वह लोगों के खयाल जाना करती थी.
इस साल के पंचायती चुनावों में सरकार ने औरतों के लिए कुछ रिजर्व सीटों का ऐलान किया था. प्रेमा चाह कर भी चुनावी दंगल में नहीं उतर पा रही थी.
गांव की कुछ औरतों ने अपने नामांकनपत्र दाखिल करा दिए थे. तभी एक दिन उस के यहां दुर्जन सिंह आया और उसे चुनाव लड़ने के लिए उकसाने लगा.
इस पर बलवीर ने खीजते हुए कहा था, ‘नहीं चौधरी साहब, चुनाव लड़ना अपने बूते की बात नहीं है.’
‘क्यों भाई?’ दुर्जन सिंह ने पूछा था, ‘ऐसी क्या बात हो गई?’
‘हमारे पास पैसा नहीं है न,’ बलवीर ने कहा था.
‘तू चिंता न कर…’ दुर्जन सिंह ने छाती ठोंक कर कहा था, ‘वैसे, इस चुनाव में ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं है. फिर भी जो भी खर्चा आएगा, उसे पार्टी दे देगी.’
‘तो क्या यह पार्टी की तरफ से लड़ेगी?’ बलवीर ने पूछा था.
‘हां…’ दुर्जन सिंह ने मुसकरा कर कहा था, ‘मैं ही तो उसे पार्टी का टिकट दिलवा रहा हूं.’
‘फिर ठीक है,’ बलवीर बोला था.
इस प्रकार प्रेमा उस चुनावी दंगल में उतर गई थी. सच में चौधरी दुर्जन सिंह ने चुनाव प्रचार का सारा खर्चा पार्टी फंड से दिला दिया था.
प्रेमा भी दिनरात महिला मतदाताओं से मुलाकात करने लगी थी. उस का चुनावी नारा था, ‘शराब हटाओ, देहात बचाओ.’
चुनाव होने से पहले ही मतदाताओं की हवा प्रेमा की ओर बहने लगी थी. चुनाव में वह भारी बहुमत से जीत गई थी. एक उम्मीदवार की तो जमानत तक जब्त हो गई थी. तब से चौधरी साहब का प्रेमा के यहां आनाजाना कुछ ज्यादा ही होने लगा था.
गांव से निकल कर प्रेमा सड़क के किनारे बस का इंतजार करने लगी. वहां से ब्लौक दफ्तर तकरीबन 20 किलोमीटर दूर था. बस आई, तो वह उस में चढ़ गई. बस में कुछ और सभापति भी बैठी हुई थीं. वह उन्हीं के साथ बैठ गई.
ब्लौक दफ्तर में काफी चहलपहल थी. प्रेमा वहां पहुंची, तो माइक से ‘हैलोहैलो’ कहता हुआ कोई माइक को चैक कर रहा था. उस शिविर में राज्य के एक बड़े नेता भी आए हुए थे. मंच पर उन्हें माला पहनाई गई. उस के बाद उन्होंने लोगों की ओर मुखातिब हो कर कहा, ‘‘भाइयो और बहनो, आप लोग जनता के प्रतिनिधि हैं. यहां आप सब का स्वागत है. तजरबेकार सभासद आप को बताएंगे कि आप को किनकिन नियमों का पालन करना है.
‘‘इस शिविर में आप लोगों की मदद यही तजरबेकार जनप्रतिनिधि किया करेंगे. आप को उन्हीं के बताए रास्ते पर चलना है.’’
प्रेमा की नजर मंच पर बैठे चौधरी दुर्जन सिंह पर पड़ी. वह खास सभासदों के बीच बैठा हुआ था.
समारोह खत्म होने के बाद दुर्जन सिंह प्रेमा के पास चला आया. उस ने उस से अपनेपन से कहा, ‘‘प्रेमा, जरा सुन तो.’’
‘‘जी,’’ प्रेमा ने कहा.
दुर्जन सिंह उसे एक कोने में ले गया. उस का हाथ प्रेमा के कंधे पर आतेआते रह गया. उस ने कहा, ‘‘कल तुम मुझ से मेरे घर पर मिल लेना. मुझे तुम से कुछ जरूरी काम है.’’
‘‘जी,’’ कह कर प्रेमा दूसरी औरतों के पास चली गई.
ट्रेनिंग के पहले ही दिन इलाकाई जनप्रतिनिधियों को उन के फर्ज की जानकारी दी गई. राज्य के एक बूढ़े सभासद ने बताया कि किस प्रकार सभी सभासदों को सदन की गरिमा बनाए रखनी चाहिए. उस के बाद सभी चायनाश्ता करने लगे.
दोपहर बाद प्रेमा ब्लौक दफ्तर से घर चली आई. उधर दुर्जन सिंह को याद आया कि जब पहली बार उस ने प्रेमा को देखा था, उसी दिन से उस का मन डगमगाने लगा था. उसे पहली बार पता चला था कि देहात में भी हूरें हुआ करती हैं. आज दुर्जन सिंह बिस्तर से उठते ही अपने खयालों को हवा देने लगा. उस ने दाढ़ी बनाई और शीशे के सामने जा खड़ा हुआ. 60 साल की उम्र में भी वह नौजवान लग रहा था.
आज दुर्जन सिंह की बीवी पति के मन की थाह नहीं ले पा रही थी. ऐसे तो वह कभी भी नहीं सजते थे.
आखिरकार उस ने पूछ ही लिया, ‘‘क्योंजी, आज क्या बात हो गई?’’
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ दुर्जन सिंह ने मासूम बनते हुए पूछा.
‘‘आज तो आप कुछ ज्यादा ही बनठन रहे हैं.’’
‘‘अरे हां,’’ दुर्जन सिंह ने मूंछों पर ताव दे कर कहा, ‘‘आज मैं ने 2-3 सभासदों को अपने घर पर बुलाया है. उन से पार्टी की बातें करनी हैं.’’
‘‘फिर उन की खातिरदारी कौन करेगा?’’ चौधराइन ने पूछा.
‘‘हम ही कर लेंगे…’’ दुर्जन सिंह ने लापरवाही से कहा, ‘‘उन्हें चाय ही तो पिलानी है न? मैं बना दूंगा.’’
‘‘ठीक है,’’ चौधराइन भी बाहर जाने की तैयारी करने लगी.
चौधराइन के बड़े भाई के यहां गांव में पोता हुआ था, उसे उसी खुशी में बुलवाया गया था.
चौधराइन पति के पास आ कर बोली, ‘‘मैं जा रही हूं.’’
‘‘ठीक है…’’ दुर्जन सिंह उसे सड़क तक छोड़ने चल दिया, ‘‘जब मन करे, तब चली आना.’’
अब दुर्जन सिंह घर में अकेला ही रह गया. प्रेमा को उस ने सोचसमझ कर ही बुलाया था. वह बारबार घड़ी देखता और मन के लड्डू फोड़ता.
दुर्जन सिंह ने अपने कपड़ों पर इत्र छिड़का और खिड़की पर जा खड़ा हुआ. सामने से उन्हें अपना कारिंदा मोर सिंह आता दिखाई दिया.
दुर्जन सिंह ने उस से पूछा, ‘‘हां भई, क्या बात है?’’
‘‘मालिक…’’ कारिंदे ने कहा, ‘‘कल रात जंगली जानवर हमारी फसल को बरबाद कर गए.’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘वे मक्के के खेतों को नुकसान पहुंचा गए हैं…’’ मोर सिंह ने बताया, ‘‘मैं ने बहुत हांक लगाई, तब जा कर कुछ फसल बच पाई.’’
‘‘तू इस समय चला जा…’’ दुर्जन सिंह ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘इस समय मेरे पास कोई खास मेहमान आने वाला है. मैं कल आऊंगा.’’
‘‘ठीक है मालिक,’’ मोर सिंह हाथ जोड़ कर चल दिया.
अब दुर्जन सिंह था और उस की कुलबुलाती ख्वाहिशें थीं. वह वहीं आंगन में एक कुरसी पर बैठ गया और आंखें मूंद कर प्रेमा की छवि को अपनी आंखों में भरने लगा.
चूडि़यों की खनक से दुर्जन सिंह ने अपनी आंखें खोलीं. सामने हूर की तरह खूबसूरत प्रेमा खड़ी थी.
वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘आ प्रेमा, तेरी लंबी उम्र है. मैं अभीअभी तुझे ही याद कर रहा था.
‘‘और सुना…’’ दुर्जन सिंह उस की ओर घूम गया, ‘‘शिविर में तुम ने कुछ सीखा या नहीं?’’
‘‘बहुतकुछ सीखा है मैं ने चौधरी साहब,’’ प्रेमा ने हंसते हुए कहा.
‘‘मैं चाहता हूं कि तुझे मैं एक दबंग नेता बना दूं,’’ दुर्जन सिंह उस के आगे चारा डालने लगा.
‘‘जी,’’ प्रेमा बोली.
दुर्जन सिंह ने कहा, ‘‘यह सब सिखाने वाले पर ही निर्भर करता है.’’
‘‘जी.’’
‘‘देख प्रेमा,’’ दुर्जन सिंह ने चालबाजी से कहा, ‘‘सोना भी आग में तप कर ही चमका करता है.’’
‘‘जी.’’
‘‘आ, अंदर चल कर बातें करते हैं,’’ इतना कह कर दुर्जन सिंह कुरसी से उठ गया.
‘‘चलिए,’’ कह कर प्रेमा भी उस के पीछेपीछे चल दी.
बैठक में पहुंच कर दुर्जन सिंह ने प्रेमा को सोफे पर बैठा दिया और उसे एक बहुत बड़ा अलबम थमा दिया, ‘‘तब तक तू इसे देखती रह. मैं ने जिंदगी में जो भी काम किया है, इस में उन सभी का लेखाजोखा है. तुझे बड़ा मजा आएगा.’’
‘‘आप भी बैठिए न,’’ प्रेमा ने कहा.
‘‘मैं तेरे लिए चायनाश्ते का इंतजाम करता हूं,’’ दुर्जन सिंह ने कहा.
‘‘चौधराइनजी नहीं हैं क्या?’’ प्रेमा ने पूछा.
‘‘अचानक ही आज उसे मायके जाना पड़ गया,’’ दुर्जन सिंह ने बताया.
दुर्जन सिंह रसोईघर की ओर चल दिया. प्रेमा अलबम के फोटो देखने लगी.
तभी दुर्जन सिंह एक बड़ी प्लेट में ढेर सारी भुजिया ले आया और उसे टेबल पर रख दिया.
साथ ही, दुर्जन सिंह ने टेबल पर 2 गिलास और 1 बोतल दारू रख दी. उसे देख कर प्रेमा बिदक पड़ी, ‘‘आप तो…’’
‘‘अरे भई, यह विदेशी चीज है…’’ दुर्जन सिंह मुसकरा दिया, ‘‘यह लाल परी मीठामीठा नशा दिया करती है.’’
‘‘तो आप शराब पीएंगे?’’ प्रेमा ने तल्खी से पूछा.
‘‘मैं कभीकभी ले लेता हूं,’’ दुर्जन सिंह गिलासों में शराब उड़ेलने लगा.
‘‘यह तो अच्छी बात नहीं है चौधरी साहब,’’ प्रेमा नाकभौं सिकोड़ते हुए बोली.
‘‘प्रेमा रानी…’’ इतना कह कर दुर्जन सिंह का भारीभरकम हाथ प्रेमा के कंधे पर आ लगा.
प्रेमा ने उस का हाथ झिड़क दिया और बोली, ‘‘आप तो बदतमीजी करने लगे हैं.’’
दुर्जन सिंह ने शराब का घूंट भर कर कहा, ‘‘इसे पी कर मैं तुम्हें ऐसी बातें बताऊंगा कि तुम भूल नहीं पाओगी. रातोंरात आसमान को छूने लगोगी.’’
प्रेमा चुप ही रही. दुर्जन सिंह ने उस से गुजारिश की, ‘‘लो, कुछ घूंट तुम भी ले लो. दिमाग की सारी खिड़कियां खुल जाएंगी.’’
‘‘मैं तो इसे छूती तक नहीं,’’ प्रेमा गुस्से से बोली.
‘‘लेकिन, हम तो इसे गले लगाए रहते हैं,’’ दुर्जन सिंह उसे बरगलाने लगा.
प्रेमा ने नफरत से कहा, ‘‘लानत है ऐसी जिंदगी पर.’’
‘‘देख…’’ दुर्जन सिंह के हाथ उस के कंधों पर फिर से जा लगे, ‘‘तू मेरा कहा मान. मैं तेरी राजनीतिक जिंदगी संवार दूंगा.’’
इतना सुनते ही प्रेमा दहाड़ उठी, ‘‘आप जैसे पिता की उम्र के आदमी से मुझे इस तरह की उम्मीद नहीं थी.’’
मगर तब भी दुर्जन सिंह के हाथों का दबाव बढ़ता ही गया. प्रेमा शेरनी से बिजली बन बैठी. उस ने एक ही झटके में चौधरी के हाथ एक ओर झटक दिए और दहाड़ी, ‘‘मुझे मालूम न था कि आप इतने गिरे हुए हैं.’’
दुर्जन सिंह खिसियाई आवाज में बोला, ‘‘राजनीति का दलदल आदमी को दुराचारी बना देता है. तू मेरा कहा मान ले. तेरी पांचों उंगलियां घी में रहा करेंगी. तुझे लोग याद करेंगे.’’
‘‘नहीं…’’ प्रेमा जोर से चीख उठी, ‘‘मैं अपने ही बूते पर एक दबंग नेता बनूंगी.’’
इस के बाद वह झट से बाहर निकल गई. दुर्जन सिंह को लगा, जैसे उस के हाथ से मछली फिसल गई हो.
रात के 2 बजे थे. अमर अपने कमरे में बेसुध सोया हुआ था कि तभी दरवाजे पर ठकठक हुई. ठकठक की आवाज से अमर की नींद खुल गई. लेकिन उस ने सोचा कि शायद यह आवाज उस के मन का भरम है, इसलिए वह करवट बदल कर फिर सो गया.
लेकिन कुछ देर बाद फिर ठकठक की आवाज आई. ‘लगता है कोई है,’ उस ने मन ही मन सोचा, फिर उठ कर लाइट जलाई और दरवाजा खोलने लगा. तभी उस के मन में खयाल आया कि कहीं बाहर कोई चोर तो नहीं है.
यह खयाल आते ही वह थोड़ा सहम सा गया. फिर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘कौन है?’’
‘‘मैं हूं,’’ बाहर से किसी लड़की की मीठी सी आवाज आई. अमर ने दरवाजा खोल दिया. सामने पारो को खड़ा देख कर वह हैरान हो कर बोला, ‘‘अरे तुम?’’
‘‘क्यों, कोई अनहोनी हो गई क्या?’’ पारो मुसकराते हुए बोली. अमर ने देखा कि पारो नारंगी रंग का सलवारसूट पहने हुए थी. दुपट्टा न होने से उस के उभरे अंग दिख रहे थे.
पारो की आंखों में एक अनोखी मस्ती थी. उसे देख कर अमर को ऐसा लगा, जैसे उस के आगे कोई जन्नत की हूर खड़ी हो. तभी पारो कमरे के अंदर आ गई और अमर को अपनी बांहों में भर कर उस के होंठों पर अपने होंठ टिका दिए.
पारो की गरमगरम सांसों के साथ उस के उभरे अंगों की छुअन से अमर को एक अजीब तरह की मस्ती का एहसास होने लगा. वह पारो के आगे बेबस सा हो गया. इस से पहले कि अमर कुछ और करता, उस के मन के किसी कोने से आवाज आई कि यह तू क्या कर रहा है. जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर अपने मालिक के एहसानों का यह बदला दे रहा है.
‘लेकिन मैं ने तो पहल नहीं की है. पारो खुद ही ऐसा चाहती है, तभी तो इतनी रात गए मेरे पास आई है,’ उस ने सोचा और खुद को पारो से अलग करते हुए बोला, ‘‘पारो, अब तुम चली जाओ और फिर कभी मेरे करीब न आना.’’ ‘‘क्या ऐसे ही चली जाऊं,’’ पारो ने प्यासी नजरों से अमर को देखा.
अमर के दिमाग में एकएक कर के पिछली बातें घूमने लगीं. अमर बीए पास हो कर भी बेरोजगार था. उस ने कई इंटरव्यू दिए, पर कहीं भी कामयाब नहीं हुआ. आखिर में निराश हो कर उस ने एक दोस्त के कहने पर गाड़ी चलाना सीखा और बतौर ड्राइवर डाक्टर भुवनेश की कार चलाने लगा.
अमर की मेहनत और ईमानदारी से खुश हो कर भुवनेश उसे बेटे की तरह मानने लगे और उस की हर जरूरत को फौरन पूरा कर देते. पारो डाक्टर भुवनेश की एकलौती बेटी थी. वह बहुत शोख, चंचल और खूबसूरत थी. वह हमेशा अपनी अदाओं से अमर को रिझाती, पर अमर मन से उसे अपनी बहन मानता था और पिछले रक्षाबंधन पर पारो ने उस को राखी भी बांधी थी.
डाक्टर भुवनेश ने अपने घर के पिछवाड़े वाला कमरा अमर को रहने के लिए दिया था. वह वहीं अपनी रात बिताता और दिन में डाक्टर साहब की कार चलाता था. इधर कुछ दिनों से अमर महसूस कर रहा था कि पारो की नीयत ठीक नहीं है. वह तरहतरह से उसे अपने जाल में फांसने की कोशिश कर रही थी. उस की हरकतें देख कर कई बार अमर की वासना भड़कने लगती थी, पर बदनामी और नौकरी जाने के डर से वह मन मसोस कर रह जाता था.
पिछले हफ्ते की बात है. डाक्टर भुवनेश अमर से बोले, ‘अमर, पारो अपनी कुछ सहेलियों के साथ पिकनिक पर जा रही है. तुम सब को कार से ले जाओ. ध्यान रखना, किसी को कोई तकलीफ न हो.’ ‘जी,’ अमर ने बस इतना ही कहा.
अमर ने कार निकाली, तो पारो कार पर सवार हो गई. कार चल पड़ी. ‘कहां जाना है?’ तभी अमर ने पारो से पूछा.
पारो बोली, ‘होटल मयूरी.’ ‘क्या तुम होटल में पिकनिक मनाओगी? तुम्हारी सहेलियां कहां रह गईं?’ अमर ने पूछा.
‘पिकनिक वाली बात मनगढ़ंत थी. मैं ने पापा से झूठ बोला था,’ पारो हंसते हुए बोली, ‘पहले तुम एक कमरा तो बुक कराओ.’ अमर ने हैरानी से पारो की ओर देखा और कमरा बुक कराने होटल की ओर चला गया.
जब दोनों कमरे में आए, तो पारो ने कहा, ‘अमर, कुछ नाश्ता मंगाओ.’ थोड़ी देर बाद दोनों नाश्ता कर चुके, तो पारो रूमाल से हाथ पोंछती हुई अमर के और करीब खिसक आई और बोली, ‘कुछ बात नहीं करोगे?’
‘कौन सी बात?’ ‘वही, जो आधी रात के समय पतिपत्नी के बीच होती है,’ इतना कह कर पारो ने अमर को चूम लिया, फिर बोली, ‘अमर, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो.’
अमर गुस्से में बोला, ‘पारो, होश में आओ. एक भले घर की लड़की का इस तरह बहकना ठीक नहीं है.’ चढ़ती जवानी के नशे में चूर पारो अमर की बात को अनसुना करते हुए बोली, ‘मैं एक अरसे से इस मौके की तलाश में थी. क्या मेरे कपड़े नहीं उतारोगे?’ कह कर पारो ने अमर को अपनी बांहों में भींच लिया.
अमर खुद पर काबू रखते हुए बोला, ‘पारो, इतना भी मत बहको. मैं तो तुम्हें अपनी बहन मानता हूं. याद है, पिछले साल तुम ने मुझे राखी बांधी थी और फिर तुम्हारे पिता मुझ पर कितना भरोसा करते हैं. क्या मैं उन के भरोसे को तोड़ दूं?’ ‘तुम मेरे सगे भाई तो हो नहीं,’
कह कर पारो ने अपने ब्लाउज के बटन खोल दिए. अमर की हालत सांपछछूंदर की सी थी. वह पारो से छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ, फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘पारो, तुम इस तरह की हरकतें कर के मुझे मत भड़काओ, वरना कुछ गलत कर बैठूंगा.’
इतना कह कर अमर ने पारो को कपड़े पहन कर आने को कहा और वह कार में जा कर बैठ गया. ‘‘कहां खो गए अमर?’’ तभी पारो ने अमर को टोका, तो वह चौंक कर उसे देखने लगा.
‘‘पारो, मुझ पर रहम करो. तुम जल्दी यहां से चली जाओ. मैं कमजोर हो रहा हूं,’’ अमर गिड़गिड़ाते हुए बोला. तभी दूसरे कमरे से खांसने की आवाज आई और पारो अपने कमरे की ओर भाग गई.
अमर ने अब चैन की सांस ली. अगले दिन अमर का कुछ अतापता नहीं था. डाक्टर भुवनेश ने कमरे की तलाशी ली, तो एक चिट्ठी मिली. उस चिट्ठी में लिखा था:
‘मैं आप की नौकरी छोड़ कर जा रहा हूं. कृपया परेशान न होइएगा और न ही मुझे खोजने की कोशिश कीजिएगा. ‘आप का, अमर.’
चिट्ठी पढ़ कर डाक्टर भुवनेश हैरान रह गए. अमर का इस तरह बिना कुछ बताए जाना उन की समझ में नहीं आ रहा था. पारो को जब यह बात मालूम हुई, तो वह भी हक्कीबक्की रह गई.
दीपू के साथ आज मालिक भी उस के घर पधारे थे. उस ने अंदर कदम रखते ही आवाज दी, ‘‘अजी सुनती हो?’’ ‘‘आई…’’ अंदर से उस की पत्नी कलावती ने आवाज दी.
कुछ ही देर बाद कलावती दीपू के सामने खड़ी थी, पर पति के साथ किसी अनजान शख्स को देख कर उस ने घूंघट कर लिया. ‘‘कलावती, यह राजेश बाबू हैं… हमारे मालिक. आज मैं काम पर निकला, पर सिर में दर्द होने के चलते फतेहपुर चौक पर बैठ गया और चाय पीने लगा, पर मालिक हालचाल जानने व लेट होने के चलते इधर ही आ रहे थे.
‘‘मुझे चौक पर देखते ही पूछा, ‘क्या आज काम पर नहीं जाना.’ ‘‘इन को सामने देख कर मैं ने कहा, ‘मेरे सिर में काफी दर्द है. आज नहीं जा पाऊंगा.’ ‘‘इस पर मालिक ने कहा, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’
‘‘देखो, आज पहली बार मालिक हमारे घर आए हैं, कुछ चायपानी का इंतजाम करो.’’ कलावती थोड़ा सा घूंघट हटा कर बोली, ‘‘अभी करती हूं.’’
घूंघट के हटने से राजेश ने कलावती का चेहरा देख लिया, मानो उस पर आसमान ही गिर पड़ा. चांद सा दमकता चेहरा, जैसे कोई अप्सरा हो. लंबी कदकाठी, लंबे बाल, लंबी नाक और पतले होंठ. सांचे में ढला हुआ उस का गदराया बदन. राजेश बाबू को उस ने झकझोर दिया था. इस बीच कलावती चाय ले आई और राजेश बाबू की तरफ बढ़ाती हुई बोली, ‘‘चाय लीजिए.’’
राजेश बाबू ने चाय का कप पकड़ तो लिया, पर उन की निगाहें कलावती के चेहरे से हट नहीं रही थीं. कलावती दीपू को भी चाय दे कर अंदर चली गई. ‘‘दीपू, तुम्हारी बीवी पढ़ीलिखी कितनी है?’’ राजेश बाबू ने पूछा.
‘‘10वीं जमात पास तो उस ने अपने मायके में ही कर ली थी, लेकिन यहां मैं ने 12वीं तक पढ़ाया है,’’ दीपू ने खुश होते हुए कहा. ‘‘दीपू, पंचायत का चुनाव नजदीक आ रहा है. सरकार ने तो हम लोगों के पर ही कुतर दिए हैं. औरतों को रिजर्वेशन दे कर हम ऊंची जाति वालों को चुनाव से दूर कर दिया है. अगर तुम मेरी बात मानो, तो अपनी पत्नी को उम्मीदवार बना दो.
‘‘मेरे खयाल से तो इस दलित गांव में तुम्हारी बीवी ही इंटर पास होगी?’’ राजेश बाबू ने दीपू को पटाने का जाल फेंका.
‘‘आप की बात सच है राजेश बाबू. दलित बस्ती में सिर्फ कलावती ही इंटर पास है, पर हमारी औकात कहां कि हम चुनाव लड़ सकें.’’ ‘‘अरे, इस की चिंता तुम क्यों करते हो? मैं सारा खर्च उठाऊंगा. पर मेरी एक शर्त है कि तुम दोनों को हमेशा मेरी बातों पर चलना होगा,’’ राजेश बाबू ने जाल बुनना शुरू किया.
‘‘हम आप से बाहर ही कब थे राजेश बाबू? हम आप के नौकरचाकर हैं. आप जैसा चाहेंगे, वैसा ही हम करेंगे,’’ दीपू ने कहा. ‘‘तो ठीक है. हम कलावती के सारे कागजात तैयार करा लेंगे और हर हाल में चुनाव लड़वाएंगे,’’ इतना कह कर राजेश बाबू वहां से चले गए.
कुछ दिन तक चुनाव प्रचार जोरशोर से चला. राजेश बाबू ने इस चुनाव में पैसा और शराब पानी की तरह बहाया. इस तरह कलावती चुनाव जीतने में कामयाब हो गई. कलावती व दीपू राजेश बाबू की कठपुतली बन कर हर दिन उन के यहां दरबारी करते. खासकर कलावती तो कोई भी काम उन से पूछे बिना नहीं करती थी.
एक दिन एकांत पा कर राजेश बाबू ने घर में कलावती के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘कलावती, एक बात कहूं?’’ ‘‘कहिए मालिक,’’ कलावती राजेश बाबू के हाथ को कंधे से हटाए बिना बोली.
‘‘जब मैं ने तुम्हें पहली बार देखा था, उसी दिन मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्यार जाग गया था. तुम को पाने के लिए ही तो मैं ने तुम्हें इस मंजिल तक पहुंचाया है. आखिर उस अनपढ़ दीपू के हाथों की कठपुतली बनने से बेहतर है कि तुम उसे छोड़ कर मेरी बन जाओ. मेरी जमीनजायदाद की मालकिन.’’
‘‘राजेश बाबू, मैं कैसे यकीन कर लूं कि आप मुझ से सच्चा प्यार करते हैं?’’ कलावती नैनों के बाण उन पर चलाते हुए बोली. ‘‘कल तुम मेरे साथ चलो. यह हवेली मैं तुम्हारे नाम कर दूंगा. 5 बीघा खेत व 5 लाख रुपए नकद तुम्हारे खाते में जमा कर दूंगा. बोलो, इस से ज्यादा भरोसा तुम्हें और क्या चाहिए.’’
‘‘बस… बस राजेश बाबू, अगर आप इतना कर सकते हैं, तो मैं हमेशा के लिए दीपू को छोड़ कर आप की हो जाऊंगी,’’ कलावती फीकी मुसकान के साथ बोली. ‘‘तो ठीक है,’’ राजेश ने उसे चूमते हुए कहा, ‘‘कल सवेरे तुम तैयार रहना.’’
दूसरे दिन कलावती तैयार हो कर आई. राजेश बाबू के साथ सारा दिन बिताया. राजेश बाबू ने अपने वादे के मुताबिक वह सब कर दिया, जो उन्होंने कहा था. 2 दिन बाद राजेश बाबू ने कलावती को अपने हवेली में बुलाया. वह पहुंच गई, तो राजेश बाबू ने उसे अपने आगोश में भरना चाहा, तभी कलावती अपने कपड़े कई जगह से फाड़ते हुए चीखी, ‘‘बचाओ… बचाओ…’’
कुछ पुलिस वाले दौड़ कर अंदर आ गए, तो कलावती राजेश बाबू से अलग होते हुए बोली, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, यह शैतान मेरी आबरू से खेलना चाह रहा था. देखिए, मुझे अपने घर बुला कर किस तरह बेइज्जत करने पर तुल गया. यह भी नहीं सोचा कि मैं इस पंचायत की मुखिया हूं.’’ इंस्पैक्टर ने आगे बढ़ कर राजेश बाबू को धरदबोचा और उस के हाथों में हथकड़ी डालते हुए कहा, ‘‘यह आप ने ठीक नहीं किया राजेश बाबू.’’
राजेश बाबू ने गुस्से में कलावती को घूरते हुए कहा, ‘‘धोखेबाज, मुझ से दगाबाजी करने की सजा तुम्हें जरूर मिलेगी. आज तू जिस कुरसी पर है, वह कुरसी मैं ने ही तुझे दिलाई है.’’ ‘‘आप ने ठीक कहा राजेश बाबू. अब वह जमाना लद गया है, जब आप लोग छोटी जातियों को बहलाफुसला कर खिलवाड़ करते थे. अब हम इतने बेवकूफ नहीं रहे.
‘‘देखिए, इस कुरसी का करिश्मा, मुखिया तो मैं बन ही गई, साथ ही आप ने रातोंरात मुझे झोंपड़ी से उठा कर हवेली की रानी बना दिया. लेकिन अफसोस, रानी तो मैं बन गई, पर आप राजा नहीं बन सके. राजा तो मेरा दीपू ही होगा इस हवेली का.’’ राजेश बाबू अपने ही बुने जाल में उलझ गए.