
जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं.
‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’
अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.
‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?
‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.
‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.
एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’
अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं. अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.
अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.
अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदर बाहर होते रहते थे.
रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया. आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.
अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.
बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.
अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.
‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.
मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.
मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.
‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.
‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.
‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.
‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.
‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’
चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.
‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’
अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझेआज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.
‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.
‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थेऔर गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.
‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’
अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.
‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.
‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.
‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.
इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.
अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं. कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.
कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.
उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.
‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.
लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.
‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकनें लगा.
पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’
सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.
‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…
‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.
‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.
‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’
सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.
कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.
दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’
‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’
अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.
‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’
मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.
‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.
‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.
‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ा थोड़ा मरते देख रही थी.
‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.
‘‘बहुत कुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’
‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.
‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.
‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’
कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.
डर के मारे वह ऊपर की ओर भागे. कमरे में रखी बड़ी सी कुरसी पर 5-6 कंबल ओढ़ कर छिप गए. कदमों की आहट उन्हें साफ सुनाई दे रही थी, जो उन्हीं की ओर बढ़ रहे थे.
सन्नाटे को चीरती हुई एक मर्दाना आवाज गूंजी, ‘‘डा. फेंज गनीमत इसी में है कि तुम जहां भी छिपे हो निकल आओ वरना हम तो तुम्हें ढूंढ ही लेंगे.’’
यह आवाज थमी नहीं कि दूसरी आवाज उभरी, ‘‘आज बच नहीं पाओगे डा. फेंज.’’
खौफ से डा. फेंज की नसों का खून जम सा गया. वह सांस खींचे दुबके रहे. तभी पहले वाली आवाज फिर गूंजी, ‘‘डा. फेंज, हमें बता दो कि तुम ने नकद राशि कहां छिपा रखी है? हम तुम्हारी जान बख्श देंगे.’’
कंबलों में हलचल सी हुई. डा. फेंज में जाने कहां से हिम्मत आ गई कि वह झटके से बाहर आ गए. 2 लोग उन्हें खोज रहे थे. उन्होंने फुर्ती से एक युवक का सिर पकड़ कर खिड़की की चौखट से दे मारा. चीख के साथ उस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा. दूसरा उन की ओर लपका. उस ने डा. फेंज की कलाई पकड़ कर फर्श पर गिरा दिया.
इस के बाद घसीटता हुआ दीवार तक ले गया और उन का सिर पकड़ कर जोर से दीवार से मारा. इसी के साथ उस के घायल साथी ने डा. फेंज पर कुल्हाड़ी से जोरदार वार सिर पर किया. बस, एक ही वार में हलकी सी चीख के साथ वह बेहोश हो गए. इस के बाद भी दोनों युवकों ने ताबड़तोड़ कई वार उन के सिर और सीने पर किए. उन्हें लगा कि डा. फेंज खत्म हो गए हैं, लेकिन यह उन का भ्रम था.
डा. फेंज की सांसें चल रही थीं. दोनों का अगला निशाना वहां रखी अलमारी थी. अलमारी के दरवाजे को कुल्हाड़ी से तोड़ कर उसे खंगाला तो उस में 5 हजार यूरो मिले, जिन्हें ले कर दोनों भाग खड़े हुए. उन के जाने के बाद घिसटघिसट कर डा. फेंज उस टेबल तक आए, जहां फोन रखा था. किसी तरह नंबर मिला कर उन्होंने पुलिस को कराहती आवाज में घटना की सूचना दी.
10 मिनट में टौप एक्शन पुलिस फोर्स वहां पहुंच गई. गंभीर रूप से घायल डा. फेंज को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. 11 सप्ताह तक जिंदगी और मौत से जूझते हुए डा. फेंज ने आखिर 26 मार्च, 2008 को दम तोड़ दिया.
पुलिस जांच में मिले सुबूत डा. फेंज की पत्नी ततजाना के दोषी होने का इशारा कर रहे थे. ततजाना को हिरासत में ले कर पूछताछ की गई. वह खुद को बेकुसूर बताती रही. उस का तर्क था कि एक साल से डा. फेंज से उस का कोई संबंध नहीं था. वह अपने प्रेमी हीलमुट बेकर के साथ रह रही थी. मगर उस की कोई भी दलील काम नहीं आई. मई, 2008 में अदालत के आदेश पर उसे डा. फेंज की हत्या और चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया.
16 महीने बर्लिन कोर्ट में यह मुकदमा चला. लेकिन सुबूतों और गवाहों के अभाव में अक्तूबर, 2009 को कोर्ट ने ततजाना को बेगुनाह करार देते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया.
कहा जाता है कि ततजाना को अपनी बदसूरती के चलते पहले जीवन से खास लगाव नहीं रहा था. लेकिन जब डा. फेंज ने 20 औपरेशन कर के उसे खूबसूरती का तोहफा दिया तो उस के अंदर की दम तोड़ चुकी महत्त्वाकांक्षाएं और हसरतें फिर से उमंगे भरने लगी थीं. इसी के चलते उस ने अपने से 44 साल बड़े डा. फेंज के प्यार को स्वीकार कर के शादी कर ली थी, क्योंकि डा. फेंज के पास अरबों डौलर की दौलत थी.
पुलिस के अनुसार शादी के बाद 9 सालों तक ततजाना ने ऐश की जिंदगी बसर करते हुए अपने सभी अरमान पूरे कर लिए. इस के बाद उस का मन डा. फेंज से भर गया तो वह कार व्यापारी हीलमुट बेकर के पहलू में जा गिरी. वह उस के साथ एक साल रही, लेकिन डा. फेंज को उस ने तलाक नहीं दिया. शायद उस की निगाह डा. फेंज की बेशुमार दौलत पर थी. उस पर उस का कब्जा डा. फेंज की मौत के बाद ही हो सकता था. इसी वजह से उस ने डा. फेंज की हत्या पेशेवर हत्यारों से करवा दी थी. लेकिन सुबूतों के अभाव में वह निर्दोष मानी गई.
खैर, सच्चाई चाहे जो भी रही हो, जेल से रिहा होने के बाद ततजाना डा. फेंज की बेवा होने के नाते उस की 11 मिलियन यू.एस. डौलर की एकलौती वारिस हो गई. उस की जिंदगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी. पार्टीक्लबों में रात रंगीन करना, पुरुष मित्रों की बांहों में बांहें डाल कर डांस करना, महंगी कारों में घूमना और भोग विलास भरा जीवन उस की दिनचर्या में शुमार हो गया.
एक हाईफाई पार्टी में ही ततजाना की मुलाकात नवंबर, 2011 में जर्मनी के सेक्सोनिया राज्य के आखिरी राजा 68 वर्षीय प्रिंस वौन हौमजोर्लन से हुई तो वह उस से दिल लगा बैठी. प्रिंस वौन भी उस की खूबसूरती और जवानी के ऐसे दीवाने हुए कि बस उसी के हो कर रह गए. दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन प्रिंस वौन की पत्नी और बच्चों के रहते यह संभव नहीं था.
सन 1992 तक बीसों औपरेशन के बाद ततजाना का कायाकल्ल्प हो गया. इस बीच ततजाना का इलाज करते करते डा. फेंज कब उस की चाहत के मरीज बन गए, वह जान नहीं पाए. वह खुद हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया. वह हजारों युवतियों की सर्जरी कर चुके थे, लेकिन जो निखार ततजाना के शरीर में आया था, ऐसा किसी अन्य युवती के शरीर में उन्होंने अनुभव नहीं किया था.
अपनी सुंदरता देख कर ततजाना बेहद खुश थी. इस के बावजूद वह आईने का सामना करने से कतरा रही थी. इस दौरान डा. फेंज ने अनुभव किया था कि बदसूरती से उपजी हीनभावना की शिकार ततजाना आईने से न केवल डरती है, बल्कि उस से नफरत करती है. इसीलिए इलाज के बाद वह उसे आदमकद आईने के सामने ले गए थे. ततजाना चाह कर भी आईने के सामने आंख नहीं खोल पा रही थी. खोलती भी कैसे, आखिर कितनी टीस दी थी इस आईने ने.
डा. फेंज ने आगे बढ़ कर ततजाना का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘पलकें उठा कर तो देखो, आईना खुद शरमा रहा है तुम्हारी खूबसूरती को देख कर. देखो, यह कह भी रहा है, ‘मेरा जवाब तू है, तेरा जवाब कोई नहीं.’’’
डरते हुए ततजाना ने नजरें उठा कर देखा, वाकई वह हैरान रह गई थी. उस के अंधेरे अतीत की परछाई भी नहीं थी उस के चेहरे पर. उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस ने चेहरे को छू कर देखा. उस की नजरों में डा. फेंज के लिए एहसान और दिल में आदर तथा प्यार की तह सी जमी थी. वह अंजान तो नहीं थी. उसे अहसास हो गया था कि डा. फेंज के दिल में उस के लिए मोहब्बत का अंकुर फूट चुका है. लेकिन उस ने दिल की बात जुबान पर नहीं आने दी.
वह ऐसा समय था, जब डा. फेंज अपनी शादीशुदा जिंदगी के नाजुक दौर से गुजर रहे थे. आखिर वह समय आ ही गया, जब पत्नी उन्हें तलाक दे कर अपने एकलौते बच्चे को ले कर सदा के लिए उन की जिंदगी से दूर चली गई.
तनहाई के इस आलम में उन्हें ततजाना के प्यार के सहारे की जरूरत थी. लेकिन वह इजहार नहीं कर रहे थे. इसी तरह साल गुजर गया. दरअसल डा. फेंज जहां उम्र के ढलान पर थे, वहीं ततजाना यौवन की दहलीज पर कदम रख रही थी.
वह 66 साल के थे, जबकि ततजाना मात्र 23 साल की थी. लेकिन यह भी सच है कि प्यार न सीमा देखता है न मजहब और न ही उम्र. एक दिन फेंज और ततजाना साथ बैठे कौफी पी रहे थे, तभी डा. फेंज ने कहा, ‘‘ततजाना, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. तुम्हारी इस खूबसूरती ने मुझे दीवाना बना दिया है.’’
‘‘यह खूबसूरती आप की ही दी हुई तो है. एक नई जिंदगी दी है आप ने मुझे. इसलिए इस पर पहला हक आप का ही बनता है.’’ ततजाना बोली.
‘‘नहीं ततजाना, मैं हक नहीं जताना चाहता. अगर दिल से स्वीकार करोगी, तभी मुझे स्वीकार होगा. मैं एहसानों का बदला लेने वालों में से नहीं हूं.’’ डा. फेंज ने कहा.
‘‘मैं इस बात को कैसे भूल सकती हूं कि आप ने मेरी अंधेरी जिंदगी को रोशनी से सराबोर किया है. आप की तनहाई में साथ छोड़ दूं, यह कैसे हो सकता है. इस तनहाई में आप मुझे तनमन से अपने नजदीक पाएंगे. आप यह न समझें कि मैं यह बात एहसान का कर्ज अदा करने की गरज से नहीं, दिल से कह रही हूं.’’
सन 1999 में डा. फेंज से ततजाना ने विवाह कर लिया. शादी के बाद जहां डा. फेंज की तनहा जिंदगी में फिर से बहारें आ गईं, वहीं ततजाना भी एक काबिल और अरबपति पति की संगिनी बन कर खुद पर इतराने लगी.
अब सब कुछ था उस के पास. रहने को आलीशान महल, महंगी कारें, सोने हीरों के गहने और कीमती लिबास. जिंदगी के मायने ही बदल गए थे उस के. अब वह बेशुमार दौलत की मालकिन थी. हाई सोसाइटियों में उसे तवज्जो मिल रही थी, जिस की उस ने कभी कल्पना तक नहीं की थी.
ततजाना अपने जीवन की रंगीनियों में इस कद्र डूब गई कि अतीत की परछाई भी उस के पास नहीं फटक रही थी. डा. फेंज भी उस की खूबसूरती में खोए रहते थे. दोनों का 9 साल का दांपत्यजीवन कैसे गुजर गया, उन्हें पता ही नहीं चला. अचानक इस रिश्ते में तब दरार पड़ने लगी, जब ततजाना को तनहा छोड़ कर डा. फेंज अपने मरीजों में व्यस्त रहने लगे. बस यहीं से ततजाना के कदमों का रुख बदल गया.
उसी दौरान एक पार्टी में ततजाना की मुलाकात कारों के व्यापारी 60 वर्षीय हीलमुट बेकर से हुई. उस ने उस की आंखों में अपने प्रति चाहत देखी तो उस की ओर झुक गई. बेकर का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि ततजाना उस की ओर झुकती चली गई. मुलाकातों का दौर शुरू हुआ तो दोनों पर मोहब्बत का रंग चढ़ने लगा. जिस्मों के मिलन के बाद वह और निखर आया. अब ततजाना का अधिकतम समय बेकर की बांहों में गुजरने लगा. हद तो तब होने लगी, जब ततजाना डा. फेंज को अनदेखा कर के रातें भी बेकर के बिस्तर पर गुजारने लगी.
डा. फेंज सोच रहे थे कि ततजाना नादान है, राह भूल गई है. समझाने पर मान जाएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. एक रात डा. फेंज बेसब्री से ततजाना का इंतजार कर रहे थे. सारी रात बीत गई, ततजाना लौट कर नहीं आई. डा. फेंज ने कई संदेश भिजवाए लेकिन जवाब में बेरुखी ही मिली.
इसी तरह एक साल गुजर गया. डा. फेंज ने यह तनहाई कैसे काटी, इस का सुबूत था उन का बिगड़ा दिमागी संतुलन. अगर हवा से खिड़कियों के परदे भी हिलते तो उन्हें लगता कि यह ततजाना के कदमों की आहट है. वह आ गई है.
डा. फेंज 5 जनवरी, 2005 की सुबह अपनी क्लीनिक में अकेले ही खयालों में खोए बैठे थे. वह सोच रहे थे कि काश ततजाना आ जाती. अचानक खिड़की के शीशे जोर से खड़खड़ाए. शीशा टूट कर बाहर की तरफ गिर गया. घबरा कर उन्होंने उधर देखा तो 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. उन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे. डरेसहमे डा. फेंज ने ततजाना को फोन किया. घंटी बजती रही, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. तभी लगा, किसी ने खिड़की को ही उखाड़ दिया है.
तेज होती तालियों की गूंज उसे इस बात का अहसास करा रही थी कि वह ‘मिस जर्मनी’ के खिताब की हकदार है. वैसे तो 100 से ज्यादा सुंदरियां प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं, लेकिन उन में से कोई भी उस से ज्यादा सुंदर नहीं थी. उस ने चोर निगाहों से सब को देखा. हर निगाह उसी की खूबसूरती को निहार रही थी. उस की झील सी नीली आंखें, रेशम की तरह मुलायम गाल, गुलाब की पंखुडि़यों से नाजुक होंठ, जिसे कोई होंठों से भी छू ले तो निशान पड़ जाए. चेहरा ही क्या, अंग अंग का कोई जवाब नहीं था.
आखिरी राउंड पूरा हो चुका था. सभी दिल थामे जजों के फैसले के इंतजार में बैठे थे. सभी सुंदरियों के दिल धकधक कर रहे थे. तभी स्टेज से एक आवाज उभरी, ‘‘अब सभी अपना दिल थाम लें. इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं. इस सौंदर्य प्रतियोगिता में वैसे तो हर हसीना की खूबसूरती काबिलेतारीफ है, लेकिन ‘मिस जर्मनी’ का ताज जिस के सिर की शोभा बनेगा, वह खूबसूरत होने के साथसाथ खुशनसीब भी है. उस खूबसूरत हसीना का नाम है, मिस ततजाना.’’
एक बार फिर हौल तालियों से गूंज उठा. मुसकान और अदाएं बिखेरती ततजाना आगे आई तो पूर्व मिस जर्मनी के हाथों में हीरों जडि़त ताज उस के माथे को चूमने को बेताब था. खुशी के अांसू छलक आए जब ततजाना के सिर पर ताज सजाया गया. होंठ थरथरा रहे थे उस के, लेकिन चाह कर भी जुबान नहीं खुल रही थी. तभी उस के कानों में आवाज पड़ी. ‘‘तत, आज कालेज नहीं जाना क्या? देखो, कितना समय हो गया है?’’
ततजाना की आंखें खुल गईं. वह जो खूबसूरत सपना देख रही थी, टूट गया. वह फुसफुसाई, ‘‘कुदरत ने तो मेरे साथ मजाक किया ही था, अब ख्वाब भी मेरी बदसूरती का उपहास उड़ाने लगे हैं.’’
एक लंबी आह भरी ततजाना ने. ‘काश! ख्वाब सच होता.’ लेकिन काश और हकीकत की लंबी दूरी आईने तक पहुंचते ही खत्म हो गई. आईना सच कह रहा था. कुदरत ने वाकई उस के साथ नाइंसाफी की थी. चेहरा तो बदसूरत था ही, शरीर भी लड़कों की तरह सपाट.
उस की आंखों से आंसू टपक पड़े. उस ने एक बार फिर पहले कुदरत को कोसा और उस के बाद जननी को. वह इतनी बदसूरत थी तो जन्म देते ही मां ने उस का गला क्यों नहीं दबा दिया? मर जाती तो अच्छा रहता. उसे ये दिन देखने के लिए जिंदा क्यों रखा? कब तक वह इस बदसूरत शरीर का बोझ ढोती रहेगी?
ततजाना की कोई सहेली तक नहीं थी. चाहने वाले किसी लड़के की बात तो उस के लिए सपने जैसी थी. कालेज हो, कोई पार्टी हो या घर, हर जगह उस के साथ तनहाई ही रहती थी. बात यहीं तक रहती तो ठीक था, उस समय ततजाना का दिल रो उठता, जब कालेज में लड़के लड़कियां उस का मजाक उड़ाते. वह खून का घूंट पी कर रह जाती. उसे जिंदगी से कोफ्त होने लगती, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी.
मां अकसर समझाती रहती, ‘‘बेटा, सूरत ही सब कुछ नहीं होती, सीरत अच्छी होनी चाहिए.’’
‘‘सीरत कौन देखता है मां, पूरी दुनिया खूबसूरती की गुलाम है.’’ कह कर ततजाना सिसक उठती, ‘‘कोई विरला ही सीरत देखता है. लेकिन मेरे भाग्य में वह भी नहीं है. भाग्यशाली ही होती तो बदसूरत क्यों होती?’’
मां चुप हो जाती. सच्चाई उसे भी पता थी. उसे भी चिंता खाए जा रही थी कि कौन थामेगा बेटी का हाथ? जिंदगी में वह किसी की मोहताज न रहे, यही सोच कर वह ततजाना को पढ़ाई के साथसाथ ब्यूटीशियन का भी कोर्स करवा रही थी. होश संभालने के बाद अखबार में छपे उस विज्ञापन को देख कर पहली बार उस के चेहरे पर उम्मीद की कुछ लकीरें उभरी थीं.
वह विज्ञापन मशहूर प्लास्टिक सर्जन डा. फेंज जसेल का था. विज्ञापन के अनुसार, डा. फेंज पूरे यूरोप में विख्यात थे. उन्होंने अपने नरीम्बर्ग स्थित ‘नरीम्बर्ग विला क्लीनिक’ में जाने कितनों को नई जिंदगी दी थी प्लास्टिक सर्जरी कर के.
सन 1973 में जन्मी ततजाना 18 साल की हो गई थी. जब से वह समझदार हुई थी, बदसूरती को ले कर वह पूरी तरह निराश हो चुकी थी. लेकिन डा. फेंज का विज्ञापन पढ़ कर उस के मन में आशा की एक किरण जागी थी. कुदरत को चुनौती देने वाला कोई तो है इस धरती पर. लेकिन अगले ही पल उस की यह उम्मीद धूल में मिलती नजर आई, जब उसे खयाल आया कि डा. फेंज की फीस कितनी होगी?
वह शक्लसूरत ही नहीं, रुपयोंपैसों से भी गरीब थी. घर की हालत बस काम चलाऊ थी. वह इस से बेखबर नहीं थी. फिर भी खयाल आया कि एक बार मां से बात कर ले. लेकिन तुरंत ही इस खयाल को त्याग देना पड़ा, क्योंकि घर चलाने के लिए मां एक ड्राइविंग स्कूल चलाती थी. बाप भी सौतेला था, इसलिए उस से उम्मीद करना बेकार था.
बदसूरती ने वैसे तो ततजाना को तोड़ कर रख दिया था. एक तरह से जीवन से मोह खत्म सा हो गया था, इस के बावजूद आत्मविश्वास कहीं दबा बैठा था. वही ततजाना को हिम्मत दे रहा था. उस ने मां को दिल की बात बताई और बाम्बर्ग जहां वह रहती थी, उसे छोड़ कर जा पहुंची नरीम्बर्ग डा. फेंज जसेल की क्लीनिक.
कारीगरी का बेहतरीन नमूना था नरीम्बर्ग विला. सफेद संगमरमर से बने भव्य महल में डा. फेंज का निवास और क्लीनिक दोनों थे. अपनी हैसियत देख कर ततजाना के पांव ठिठक रहे थे. किसी तरह साहस बटोर कर उस ने रिसेप्शन पर बैठी खूबसूरत रिसेप्शनिस्ट से डा. फेंज से मिलने का टाइम लिया. आशा निराशा में डूबती ततजाना सोफे पर बैठ गई. करीब आधे घंटे बाद उसे डा. फेंज से मिलने का मौका मिला. अधेड़ डा. फेंज के चेहरे पर जवानों सी ताजगी थी.
कहते हैं, अगर डाक्टर का व्यक्तित्व अच्छा हो तो मरीज इलाज से पहले ही आधा ठीक हो जाता है. ततजाना को कुछ ऐसा ही अहसास हुआ था. डा. फेंज जसेल ने उस की जांच के बाद कहा कि इलाज के बाद उस की खूबसूरती ऐसी निखर जाएगी कि देखते ही बनेगी. मगर इस के लिए उन्हें 20 औपरेशन करने पड़ेंगे और एक औपरेशन का खर्च 70 हजार डालर के करीब आएगा.
इलाज का खर्च सुन कर ततजाना का खूबसूरत बन जाने का उत्साह तुरंत मायूसी में बदल गया. डा. फेंज ने उस के मन की बात भांप ली. उन्होंने कहा, ‘‘खर्च ज्यादा है, उठा नहीं पाओगी?’’
ततजाना कुछ कहती, उस के पहले ही डा. फेंज ने कुछ सोचते हुए गंभीरता से कहा, ‘‘इस का भी रास्ता है, अगर तुम चाहो तो…’’
नजर उठा कर ततजाना ने डा. फेंज को देखा. वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन जुबान चिपक सी गई. उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर डा. फेंज ने आगे कहा, ‘‘घबराने या मायूस होने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें मेरे क्लीनिक में नौकरी करनी होगी. वेतन के बदले मैं तुम्हारी सर्जरी कर दूंगा.’’
अपना सपना साकार होता देख ततजाना की आंखों में खुशी के आंसू भर आए. गला भर्रा उठा और होंठ थरथराए, ‘‘मुझे मंजूर है.’’
ततजाना बस इतना ही कह पाई.
सन 1986 में ततजाना अपना घर छोड़ कर नरीम्बर्ग आ गई, एक नए जीवन की शुरुआत की उम्मीद ले कर. वह लगन से अपनी ड्यूटी करने लगी तो डा. फेंज ने उस के शरीर की सर्जरी शुरू कर दी. पहला औपरेशन उस के सपाट स्तनों का हुआ, जो कामयाब रहा. इस के बाद आंखों के पास नाक, गाल, ठोढी और गर्दन की सर्जरी हुई.
तीनों कमा चुके थे 50-50 करोड़
“मेरे हिस्से लगभग 22 लाख रुपए आए थे. मैं उन पैसों को ले कर महानगर में आ गया. यहां आ कर यहां के एक पिछड़े इलाके में एक जिम खोल लिया. यह इस पिछड़े इलाके का एकमात्र जिम था, अत: जल्दी ही प्रसिद्ध हो गया और काफी चलने लगा. धीरेधीरे मैं ने शहर के और इलाकों में भी अपने जिम की ब्रांचेें खोल दीं. प्रसिद्धि के साथसाथ बिजनैस भी अच्छा बढ़ गया. आज लगभग हर बड़े शहर में हमारे जिम की ब्रांच है.
“आज 7 सालों के बाद मेरी चलअचल संपत्ति की कीमत 50 करोड़ से अधिक है. मैं ने अपने सभी वेंचर्स का नाम गेलार्ड रखा है. आज तुम जहां बैठे हो, उस का मालिक भी मैं ही हूं.” जगन ने बताया.
“मैं उस घटना के बाद एक इंडस्ट्रियल एरिया में चला गया. जहां मैं ने देखा कि ज्यादातर इंडस्ट्री में खेती के बाद निकले हुए हस्क यानी भूसे को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते है. लेकिन किसानों को पेमेंट 15-20 दिन बाद ही मिल पाता था. इस से उन्हें बड़ी परेशानी होती थी. मैं ने किसानों से सस्ता भूसा तत्काल पेमेंट का खरीदा. फिर उसे इंडस्ट्री में सप्लाई करना शुरू कर दिया. इस में निश्चित प्रौफिट तो था ही, साथ ही पैसा भी सुरक्षित रिसाइकल हो रहा था. आज मैं उस इलाके में भूसा किंग के नाम से जाना जाता हूं.
पिछले दिनों मैं ने भूसे को कंप्रेस्ड कर कोयले जैसा ईंधन बनाने की फैक्ट्री भी डाल ली है, जिस से काफी मटेरियल एक्सपोर्ट भी होता है. मुझे बैंक में की गई एडवेंचर से लगभग 22 लाख रुपए मिले थे. आज मैं भी लगभग 50 करोड़ की संपत्ति का मालिक हूं.” छगन ने अपने बारे में बताया.
“मैं भी बचने के लिए एक छोटे से गांव में आ गया. वहां पर सब्जियों की पैदावार भरपूर होती थी, लेकिन सडक़ से काफी अंदर होने के कारण सब्जियों की ढुलाई का साधन पर्याप्त समय पर न मिल पाने के कारण काफी सब्जियां नष्ट करनी पड़ती थी. जिस से उन्हें काफी नुकसान होता था. मैं ने अपने पैसों से एक सेकेंडहैंड ट्रक खरीद कर सब्जियों की शहरों में ढुलाई शुरू कर दी.
आज मैं आसपास के लगभग 20 गांवों से फल व सब्जियां अलगअलग माल्स, स्टार रेटेड होटल्स और मार्किट में सप्लाई करता हूं. मेरे पास आज लगभग 40 बड़े लोडिंग व्हीकल्स हैं और अब मैं अर्थ मूविंग मतलब खुदाई की बड़ी मशीनें भी खरीद कर बड़ेबड़े कौन्ट्रैक्ट लेता हूं. मैं भी कुल जमा 50 करोड़ की हैसियत रखता हूं.” मगन ने बताया.
“मतलब हम अपने इस मिशन में पूरी तरह से कामयाब रहे?” जगन ने सब के बीच प्रश्न रखा.
“हां ऐसा कह सकते हैं. हालांकि हम ने यह काम सिर्फ एडवेंचर के लिए किया था, मगर इस ने हमारी जिंदगी ही बदल दी.” छगन बोला.
“बिलकुल ठीक. लोग आज भी उन एडवेंचरस लूट को याद करते हैं. क्या जोश था यार.” मगन भी सहमत होते हुए बोला,
“आज यकीन नहीं होता अपने आप पर.”
उन के एडवेंर की मीडिया में हुई खूब प्रशंसा
“हम ने जो एडवेंचर किया था, वह अधूरा था. उस समय कुछ मजबूरियां थीं इस कारण उसे पूरा नहीं कर सकते थे. मगर अब कर सकते हैं.” जगन चाय की चुस्कियों के साथ बोला.
“मतलब एक और अडवेंचरस लूट? नहीं भाई, अब मुझ से नहीं होगा. अब उतनी तेजी और चुस्तीफुरती नहीं रही.” मगन बोला.
“मुझे तो वैसे ही शुगर की प्राब्लम हो गई है. सांसें तो जल्दी ही उखड़ जाती हैं आजकल.” छगन भी मगन से सहमत होते हुए बोला
“नहींनहीं, तुम लोग गलत समझ रहे हो. इस बार लूटना नहीं है. लूट का पैसा वापस बैंकों को लौटाना है. मैं इस बोझ के साथ मरना नहीं चाहता कि हम ने अपने स्वार्थ के लिए जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों को लूटा. आज हम तीनों स्थापित हैं और इस कंडीशन में हैं कि उन पैसों को बिना किसी आपत्ति के वापस लौटा सकते हैं.” जगन बोला.
“सच कहते हो जगन. कभीकभी जब मैं यह सब सोचता हूं तो लगता है हम ने गलत ही किया. और यह ख्याल मुझे अंदर तक कचोटता है.” मगन बोला.
“मगर दोस्तो, यह सब इतना आसान भी नहीं है. लूटते समय जितना साहस दिखाया थी, उस से ज्यादा दिलेरी की जरूरत अभी पड़ेगी. दूसरा लोगों को हमारा नाम भी पता चल जाएगा. उस समय लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी, यह भी सोचना आवश्यक है. इस का असर हमारे जमे जमाए बिजनैस पर भी पड़ सकता है.” छगन ने अपने विचार रखें.
“मैं ने यह सब सोच रखा है दोस्तों. जिस तरह हम ने लूट के समय अपना चेहरा ढंका था, उसी तरह पैसे लौटाते समय हम अपना नाम व पहचान गुप्त ही रखेंगे. सब से बड़ी बात पैसा लौटाने की सूचना अकेले बैंक मैनेजर्स को न दे कर पुलिस, कलेक्टर और यथासंभव न्यूजपेपर्स व चैनल्स वालों को भी देंगे.” जगन बोला .
“अच्छा विचार है. अगर हमारी पहचान गुप्त रहती है तो हम यह एडवेंचर भी करना चाहेंगे.” मगन बोला.
“बिलकुल,” छगन भी सहमति दिखाते हुए बोला.
“योजना यह है कि हम ने बैंकों से लूट का जितना पैसा अपने पास रखा है, उतना ही पैसा हम अलगअलग लौक किए हुए सूटकेस में रख कर रेलवे के क्लौकरूम में रख देंगे.
“क्लौकरूम वाले बिना रिजर्वेशन टिकट के सामान नहीं रखते हैं. अत: हमें किसी फरजी नाम से रिजर्वेशन करवाना होगा. यह रिजर्वेशन हम टिकट विंडो से ही करवाएंगे. इस से मिले पीएनआर नंबर के बेस पर हम क्लौकरूम में सामान आसानी से रख पाएंगे.
“सामान रखते समय क्लौकरूम का क्लर्क पहचान पत्र मांग सकता है. इस के लिए 3 आधार कार्ड को ग्राफ्टिंग मेथड से एक बना कर नया आधार कार्ड तैयार कर लेंगे.” जगन बता रहा था.
“मतलब नंबर किसी और का, नाम किसी और का और पता किसी तीसरे का?” मगन ने पूछा.
“बिलकुल सही. मैं जिम में एंट्री लेते समय कस्टमर का आधार कार्ड लेता हूं. मैं उन में से ही किसी पुराने ग्राहक के आधार कार्ड की फोटोकौपी निकलवा लूंगा. बाकी 2 आधार कार्ड का इंतजाम तुम्हारे डाटाबेस में से करना ताकि इन्क्वायरी के समय किसी एक प्रतिष्ठान पर शक ना जाए.
क्लौकरूम में सामान जमा करते समय हम अपने चेहरे कवर रखेंगे ताकि स्टेशन के कैमरों में हमारा चेहरा दिखाई न पड़े. सामान्यत: क्लौकरूम में कोई भी व्यक्ति 7 दिनों तक हमारे सामान को लावारिस नहीं मानता है.
क्लौकरूम में सामान जमा करने के बाद इस की सूचना स्पीड पोस्ट के माध्यम से कलेक्टर, एसपी, बैंक मैनेजर और न्यूजपेपर व चैनल्स को दे देंगे. यहां इस बात का भी ध्यान रखेंगे कि यह सूचना कंप्यूटर के प्रिंटर से न निकाल कर हाथों से लिखी होगी. ताकि कंप्यूटर प्रिंटर की आईपी के द्वारा हम लोग सुरक्षित रहें.” जगन बोला.
20 दिनों के बाद तीनों दोस्त एक बार फिर गेलार्ड कैफे में पार्टी कर रहे थे. सभी न्यूजपेपर्स और चैनल्स पर उन के एडवेंचर की कहानियां सुनाई जा रही थीं.
तीनों बैंकों का कर लिया चुनाव
“चलो, अभी हमारे पास एक महीने का समय है. इस बीच हम उन बैंकों की पहचान कर लेते हैं, जो हमारी उम्मीद के मुताबिक कैश रखते हैं.” जगन बोला.
“मैं ऐसी बैंकों की पहचान कर चुका हूं जो कम से कम 20 लाख का मिनिमम बैलेंस तो मेंटेन करते ही हैं.” लगभग 15 दिनों के बाद जब तीनों मिले तो छगन बोला.
“कहां पर है ये बैंक?” जगन ने पूछा.
“एक ब्रांच कृषि उपज मंडी समिति की है. दूसरी ब्रांच इंडस्ट्रियल एरिया की है और तीसरी बैंक वह है जहां पर ज्यादातर सरकारी पैसा जमा होता है.” छगन ने बताया.
“वैरी गुड छगन, मैं भी इन तीनों बैंकों के बारे में ही सोच रहा था.” जगन भी सहमत होते हुए बोला.
“सब से बड़ी बात यह कि तीनों ही बैंकों के बंद होने के समय में आधे आधे घंटे का अंतर है. इंडस्ट्रियल एरिया वाली ब्रांच सुबह 9 बजे खुलती है और ग्राहकों के लिए 3 बजे बंद होती है. सरकारी लेनदेन वाली ब्रांच साढ़े 3 बजे और कृषि उपज मंडी समिति वाली ब्रांच 4 बजे बंद होती है,” छगन ने बताया.
“मतलब हमें अपना ऐक्शन ढाई बजे चालू करना होगा और ज्यादा से ज्यादा साढ़े 4 बजे तक खत्म करना ही होगा.” जगन बोला
“मगर रहमत तो गाड़ी खराब होने की सूचना तो तुरंत दे देगा. ऐसे में अगर समय रहते मैकेनिक आ गया तो क्या होगा? बिना गाड़ी के तो एडवेंचर पूरा नहीं होगा न.” मगन बोला.
“रहमत को गाड़ी खराबी की सूचना और बाकी की औपचारिकताएं पूरी करते करते 4-5 पांच घंटे तो लग ही जाएंगे. तब तक हम वैन को उड़ा चुके होंगे. सरकारी तंत्र में कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर निर्णय नहीं ले सकता है. हमें इसी लूप होल का फायदा उठाना है.” जगन ने समझाया.
“वाह जगन, तुम्हारी स्टडी सौलिड और स्ट्रांग है.” मगन तारीफ करते हुए बोला.
“मैं ने अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए 15 जून की तारीख सोची है.” जगन बोला.
“मगर आज तो 20 मई ही है. 15 जून की तारीख क्यों सोची? इस के पीछे कोई कारण है क्या?” मगन ने पूछा.
“हां, कई कारण हैं. एक तो हम इस बीच के समय में बैंक के स्टाफ की ऐक्टिविटीज अच्छी तरह से नोट कर सकेंगे. और जो ज्यादा ऐक्टिव दिखाई पड़ेंगे उन्हें कंट्रोल करने की तरकीबें भी निकाल सकेंगे.
“दूसरा गरमी अभी ही इतनी बढ़ गई है उस समय तो अपने चरम पर होगी. इसी कारण एसी को सुचारु रूप से चलाने के लिए फ्रंट के शीशे के दरवाजे पहले से बंद होंगे. ऐसे में हमें स्टाफ और ग्राहकों को अंदर ही कंट्रोल करने में आसानी होगी. आने वाले ग्राहक भी बाहर ही रोके जा सकेंगे. तीसरा उस दिन सोमवार भी है. जैसा हम ने प्लान किया था. और चौथा, यह याद रखने के लिए सब से आसान दिन है. क्योंकि यह साल के बीचोबीच का दिन है. याद रहे 7 साल बाद हमें इसी दिन गेलार्ड कैफे में मिलना है.” जगन उत्साहित होते हुए बोला.
“15 जून साल के बीचोबीच का दिन कैसे हो सकता है?” छगन ने हैरानी से पूछा.
“साल का छठा महीना और उस के बीच का दिन. सीधा सा गणित.” जगन ने मुसकराते हुए समझाया.
“बहुत सही और आसान कैलकुलेशन.” मगन बोला, “अच्छा, अब हम 14 जून की शाम को ही मिलेंगे. अपनी चुनी हुई बैंकों के स्टाफ की ऐक्टिविटीज पर नजर रखते हैं तब तक.”
हिम्मत करने वालों की जीत होती है. अभी यही बात उन तीनों पर लागू हो रही थी. उन के सभी पांसे सही पड़ रहे थे. सभी कुछ उन की योजना के मुताबिक ही चल रहा था. 10 जून को ही रहमत कि बीवी डिलीवरी के लिए अपने सासससुर के पास चली गई.
14 जून की रात को ही जगन ने बाजार में मिलने वाली साड़ी की सस्ती फाल ले कर कैश वैन के साइलैंसर में घुसा कर उसे जाम कर दिया. इस से पहले वह अपनी डुप्लीकेट चाबी से वैन का इग्नीशियन चैक कर चुका था. मतलब साफ था चाबी अपना काम बराबर कर रही थी.
और 15 जून को वह सब हो गया, जो इन तीनों के अलावा किसी ने कल्पना में भी नहीं की होगी. हालांकि थोड़ाबहुत विरोध अवश्य हुआ, मगर इन तीनों ने अपनी तुरत बुद्धि और साहस के बल पर विपरीत परिस्थियों का सामना करते हुए उस दुष्कर कार्य को कर ही दिया.
तीनों बैंकों से कुल मिला कर लगभग 65 लाख की लूट हुई थी. किसी भी बैंक में 21 लाख से कम की रकम नहीं थी, जो इन तीनों की कल्पना के अनुरूप ही थी. तीनों लूट के बाद एकदूसरे से अनजान अलगअलग शहर में चले गए.
पहली प्लानिंग में मिले 65 लाख रुपए
दूसरे दिन देश के सभी अखबारों और न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर सिर्फ और सिर्फ इस दुस्साहसी घटनाओं का ही जिक्र था. पुलिस और प्रशासन अपनी नाकामी से हाथ मल रही थी. लंबे समय तक लोगों के होंठों पर इस घटना का बखान था. तीनों का मिशन सफल रहा. एक स्वनिर्धारित एडवेंचरस टास्क उन्होंने पूरा कर सब को चौंका दिया.
7 साल बाद. वही तारीख 15 जून समय शाम के 7 बजे. गेलार्ड कैफे के सामने एक मर्सिडीज गाड़ी आ कर खड़ी हुई. उस में से शानदार सूट और सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए छगन उतरा. कुछ ही मिनट बाद फोर्ड की एक बड़ी सी गाड़ी आई. उतरने वाला शख्स मगन था, जो अपने चिरपरिचित महंगी जींस और शर्ट पहने था. लगभग 15 मिनट इंतजार करने के बाद भी जब जगन नहीं आया तो दोनों निराश भाव से कैफे के अंदर चले गए.
“हमें टाइम मैनेजमेंट का पाठ पढ़ाने वाला जगन खुद ही लेट हो गया.” छगन बोला.
“कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस ने उसे पकड़ लिया हो. क्योंकि कैश वैन का ड्राइवर उसे ही पहचानता था. यह संभव है कि वैन की बरामदगी के बाद उस ने जगन का हुलिया पुलिस को बता दिया हो.” मगन ने शंका जाहिर की.
“यदि ऐसा है तो हमें भी तुरंत ही यहां से निकलना चाहिए. बहुत संभव है कि जगन ने पुलिस को हमारे यहां आने की सूचना भी दे दी हो.” छगन चिंतित स्वर में बोला.
7 साल बाद मिले तीनों दोस्त
अभी छगन और मगन बातें कर ही रहे थे कि वेटर ने आ कर उन दोनों को एक परची दी. परची में लिखा था, “सामने वाला केबिन हम लोगों के लिए बुक है उसी में आ जाओ.”
“अरे जगन तो हम से पहले ही यहां पहुंच चुका है. चलो, उसी केबिन में चलते हैं.” छगन खुश होते हुए बोला.
“आओ दोस्तों.” दोनों को देखते ही जगन गर्मजोशी से बोल पड़ा. तीनों एकदूसरे को देख कर बहुत खुश थे.
“सुनाओ अपने 7 साल की प्रोग्रेस.” छगन मुसकराते हुए बोला.