लाल बत्ती : किरण की बदकिस्मती – भाग 2

किरण की बेटी को पा कर कविता के दोनों बच्चों को तो जैसे छोटा सा खिलौना मिल गया था. इसलिए वे बाकी सब कुछ भूल कर उसी में व्यस्त थे. वह यही सोच रही थी कि आखिर अंत में किरण क्या कहने वाली है?

किरण कविता को लालबत्ती सिग्नल पौइंट से मिली थी. आखिर वह लालबत्ती क्या होगी? कविता ने उसे उस दिन डिस्टर्ब करना मुलतवी रखा. जब किरण पूरी तरह आराम कर के थोड़ा स्वस्थ हो जाए तो उस के बाद ही बात करने के लिए सोच कर कविता अन्य काम में लग गई.

अनिकेत बच्चों को ले कर प्रदर्शनी दिखाने चला गया तो कविता को अच्छाखासा समय मिल गया. उसने

खाना बनाया और आउटहाउस की ओर चल पड़ी.

तब तक किरण भी जाग गई थी. नहाधो कर नए कपड़े पहन कर वह तैयार हो कर बैठी थी. उस का तो पूरा रूप ही बदल गया था. वह कितनी सुंदर है कविता को अब खयाल आया था. साफसफाई और पहनावा कितना काम करता है, उसे अब पता चला था. कविता को देखते ही उस ने कहा, ‘‘दीदी, आप ने क्यों कष्ट किया. मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘कोई बात नहीं, अभी तुम बहुत कमजोर हो. इसलिए मैं ने सोचा कि मैं ही मिल आती हूं. तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं है? तुम्हें यहां अच्छा लगेगा न?’’

‘‘यह क्या कह रही हैं दीदी. आप तो मुझे स्वर्ग में ले आई हैं और अब पूछ रही हैं कि अच्छा लगेगा या नहीं? मैं तो सड़क पर रहने वाली हूं.’’ किरण ने भर्राए स्वर में कहा.

कविता को सचमुच उस पर दया आ गई. अनुकंपा से उस का शरीर कुछ पलों के लिए कांप उठा. एक जवान और सुंदर औरत ने किस तरह सड़क पर खुले में दिन बिताए होंगे?

कविता ने कहा, ‘‘उस समय तो तुम ने मेरी बात टाल दी थी. अब बताओ, इस बच्चे के बाप ने तुम्हें छोड़ दिया है या अब वह इस दुनिया में नहीं है?’’

कविता के इस सवाल पर थोड़ी देर चुप रहने के बाद किरण ने अपनी जो आपबीती सुनाई, वह कुछ इस प्रकार थी.

किरण के बाप ने उसे वेश्याओं के एक अड्डे पर बेच दिया था, लेकिन संयोग से उसे वहां से भागने का मौका मिल गया तो वह वहां से भाग निकली. घर के नाम पर जो एक झोपड़ी थी, अब वह भी उस के नसीब में नहीं रह गई थी. वह जहां भी काम मांगने जाती, वहां सब से पहले लोगों की नजर उस की आकर्षक युवा देह और सुंदरता पर पड़ती. नजर भांप कर वह वहां से खिसक लेती.

उसी बीच उस की मुलाकात अशोक नाम के एक आदमी से हुई. वह किसी गैंग के लिए काम करता था. उस ने किरण से कहा, ‘‘तुम मेरे साथ रहो. मैं गारंटी लेता हूं कि तुम्हारी इज्जत सहीसलामत रहेगी, पर तुम्हें भीख मांगनी होगी.’’

अशोक ने किरण से कहा कि वह उसे एक बच्चा देगा, जिसे ले कर वह भीख मांगेगी. इस बीच उसे कोई छेड़ेगा तक नहीं. इस की जिम्मेदारी उस ने ले ली. इस तरह किरण ने भीख मांगने का धंधा शुरू कर दिया. रेलवे प्लेटफार्म, शौपिग मौल, अस्पताल,  ट्रैफिक सिग्नल आदि अलगअलग जगहों पर अशोक उसे पहुंचा देता, जहां किरण भीख मांगती.

भीख मांगने में उसे जो कुछ भी मिलता था, वह सब उस का होता था. इस के एवज में उसे अशोक का एक काम करना पड़ता था. वह किरण को पौलीथिन का एक बैग देता था, जिसे किरण को अशोक द्वारा बताई गाड़ी में रखना होता था. शुरू में किरण को पता नहीं था कि उस पौलीथिन के बैग में अशोक उसे क्या देता था. बाद में उसे पता चला कि उस पौलीथिन के बैग में ड्रग्स होता था. इस का मतलब अशोक ड्रग्स का धंधा करता था.

एक हिसाब से देखा जाए तो किरण भी उस के इस ड्रग्स के धंधे में शामिल थी. इनकार करने का सवाल ही नहीं उठता था. वे लोग किरण के साथ कुछ भी कर सकते थे. किरण चुपचाप वहां से भाग निकली.

अब किरण के सामने फिर वही सवाल उठ खड़ा हुआ था कि इस सुंदर काया को ले कर वह कहां जाए. पर अब तक उसे भीख मांगना आ गया था. यह धंधा बुरा नहीं था.

मैलेकुचैले कपड़े पहन कर, सुंदर काया को गंदीसंदी बना लिया जाए तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि वह कितनी सुंदर है. किसी की अनुकंपा हो गई तो वह 10 के बदले 20 दे देगा. इसलिए किरण ने भीख मांगने वाला अपना काम चालू रखा. दिन भर किरण भीख मांगती. अकसर उसी के साथ कुछ न कुछ खाने को भी मिल जाता था. दिन भर भीख मांगती और रात को रेलवे प्लेटफार्म की किसी बेंच पर सो जाती.

पर शायद नियति को उस का इस तरह जीना भी मंजूर नहीं था. एक रात किरण बेंच पर सो रही थी, तभी 4-5 लड़के शराब पी कर लड़खड़ाते हुए आए. उन्हें देख कर किरण डर गई. कहीं वे उस के साथ कुछ कर न बैठें, यह सोच कर वह वहां से उठी और जहां कुछ लोग सो रहे थे, उन के बीच जा कर लेट गई.

उस दिन तो कुछ नहीं हुआ. पर एक दिन उसे थोड़ा बुखार जैसा लग रहा था. उस दिन भीख में भी कुछ नहीं मिला था, इसलिए सुबह से ही उस का पेट खाली था. भूख और हरारत की वजह से उस की आंखें नहीं खुल रही थीं. उस रात वह उन लड़कों की हवस का शिकार बन गई.

दुनिया भी गजब की है. इज्जत लुटने के बाद किरण को लगा कि अब वह कहीं की नहीं रही. यह सोच कर वह आत्महत्या करने रेलवे ट्रैक पर पहुंची. लेकिन वहां भी उसे एक संभ्रांत महिला ने बचा लिया. वह किरण को अपने घर ले गई. पर कुछ दिनों बाद उस के पेट में पल रहा पाप उजागर हो गया. उस महिला को समाज का डर लगा. उस के घर के मर्दों पर समाज अंगुली उठाएगा, यह सोच कर उस ने किरण को अपने घर से भगा दिया.

एक बार फिर वह सड़क पर आ गई. धीरेधीरे दिन पूरे होने लगे. किसी दिन कुछ खाने को मिल जाता तो किसी दिन कुछ भी न मिलता. किसी दिन कुछ पैसे मिल जाते तो किसी दिन केवल अपमान ही मिलता. इसी तरह दिन बीत रहे थे.

लाल बत्ती : किरण की बदकिस्मती – भाग 1

बिजनैस की वजह से अनिकेत अकसर शहर से बाहर ही रहता था. इधर एक सप्ताह का समयमिला तो कविता उस के इस समय का सदुपयोग कर लेना चाहती थी. उस ने उसी बीच शौपिंग की तैयारी कर ली. क्योंकि नवरात्र के त्यौहार नजदीक आ रहे थे. ्र

दोनों बच्चों के लिए कपड़े, चप्पल और जूते तो खरीदने ही थे, अपने और अनिकेत के लिए भी कुछ खरीदारी करनी थी. घर के लिए भी थोड़ाबहुत सामान खरीदना था. कविता जानती थी कि अगर आज उस ने यह काम न निपटाया तो बाद में अनिकेत से यही सुनने को मिलेगा, ‘‘प्लीज कविता, तुम बच्चों के साथ जा कर सारी खरीदारी कर लो न. यार देख तो रही हो कि मेरे पास समय कहां है.’’

जल्दीजल्दी तैयार हो कर सभी घर से बाहर निकले. दोनों बच्चे ऋतु और राज बहुत खुश थे. क्योंकि उस दिन उन्हें पूरे दिन पापा के साथ रहने को मिलने वाला था. सभी लोग गाड़ी में बैठ गए. ऋतु और राज पीछे बैठे थे तो कविता अनिकेत के बगल आगे वाली सीट पर बैठी थी.

अनिकेत ने कविता की ओर ताकते हुए कहा, ‘‘अरे वाह जानेमन, आज किस का कत्ल करने का इरादा है? यलो और ग्रीन कलर की इस ड्रेस में तो तुम बहुत सुंदर लग रही हो.’’

कविता ने भी मजाक में कहा, ‘‘अब अकेले नहीं जिया जा रहा इसलिए…’’

कविता की इस बात पर अनिकेत हंसने लगा तो उसी के साथ कविता भी हंस पड़ी. बच्चों की कुछ समझ में नहीं आया, पर मम्मीपापा को हंसते देख वे भी हंसने लगे.

अनिकेत की कार अपनी रफ्तार से आगे बढ़ी जा रही थी. शहर के एक जानेमाने मौल में उन्हें शौपिंग करनी थी. वे जिस रास्ते से जा रहे थे, उस रास्ते पर 2 ट्रैफिक सिग्नल पड़ते थे. पहला सिग्नल दिखाई दिया तो हरी बत्ती थी. अनिकेत ने कार की रफ्तार बढ़ा दी कि लालबत्ती होने से पहले ही सिग्नल पार कर जाए. पर ऐसा हुआ नहीं. सिग्नल तक पहुंचतेपहुंचते लालबत्ती हो गई. सिग्नल पर अनिकेत को कार रोकनी पड़ी.

अनिकेत के कार रोकते ही 2-3 महिलाएं छोटेछोटे बच्चे ले कर आईं और पैसे मांगने के लिए उन्होंने कार को घेर लिया. कांच को खटखटा कर वे पैसे मांग रही थीं. अनिकेत को इस सब से सख्त नफरत थी. उस का कहना था कि ये कोई भी मौका नहीं छोड़तीं. निकम्मे बने बैठे रहते हैं. जब बिना मेहनत के ही सब कुछ मिल रहा हो तो इन्हें मेहनत करने की जरूरत ही क्या है.

लेकिन कविता का स्वभाव थोड़ा अलग था. उस के अंदर सहज ही संवेदना और सहानुभूति भरी थी. वह किसी की आंखों में जरा भी आंसू देखती तो उसे दया आ जाती. आखिर वह थी तो महिला न. खिड़की खटाखटा कर हाथ फैलाए खड़ी महिला सचमुच बीमार लग रही थी. लग रहा था, अभी जल्दी ही उसे बच्चा पैदा हुआ है. उस ने गोद में जो बच्चा ले रखा था, वह डेढ़दो महीने का लग रहा था.

कविता ने महसूस किया कि अभी इसे पैसों की सख्त जरूरत है, वरना इस हालत में यह बाहर न निकलती. उस की हालत देख कर यही लग रहा था कि कहीं यह चक्कर खा कर गिर न पड़े. कविता ने कहा, ‘‘अनिकेत, लगता है हमें इस की मदद करनी चाहिए.’’

अनिकेत को यह सब बिलकुल पसंद नहीं था. इसलिए वह उस की ओर से मुंह घुमा कर कार स्टार्ट करने लगा. कविता ने कहा, ‘‘एक सौ का नोट दो न. इस के लिए आज के खाने की व्यवस्था तो हो जाएगी.‘‘

‘‘नहीं,’’ अनिकेत ने कहा, ‘‘इस तरह पैसे दे कर इसे और निकम्मा नहीं बनाना. इसे मुफ्त में पैसे मिलते रहेंगे तो यह कभी काम करने के बारे में नहीं सोचेगी.’’

कविता से नहीं रहा गया. उस ने कहा, ‘‘चलो, इसे अपने घर ले चलते हैं, घर का काम कराने के लिए. यह भी तो हो सकता है कि इसे कोई काम न दे रहा हो. घर में कोई खयाल रखने वाला नहीं है, वरना इस हालत में यह घर से बाहर न निकलती. मुझे अभी भी याद है ऋतु के जन्म के समय तुम बाहर थे. अपनी स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी. उस समय मुझे कितना संघर्ष करना पड़ा था. पति साथ न हो तो किस तरह लगता है, यह मुझे अच्छी तरह पता है.’’

अनिकेत सिर झटकता रहा. कविता ने उसे किसी तरह मनाया तो अनिकेत ने गाड़ी किनारे खड़ी कर दी. उस के बाद कविता गाड़ी से उतर कर उस महिला के पास गई और पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

‘‘किरण,’’ उस ने कहा.

‘‘तुम्हारे परिवार में और कौनकौन है? इस बच्चे का बाप कहां है? मर गया है या तुम्हें छोड़ कर चला गया है?’’ कविता ने पूछा.

कविता के इस सवाल पर किरण ने जो जवाब दिया, उसे सुन कर उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. किरण ने कहा, ‘‘दीदी, क्या आप सचमुच मेरी मदद करना चाहती हैं? अगर कोई मदद नहीं कर सकतीं तो आज के लिए मेरे खाने की व्यवस्था ही कर दीजिए. क्योंकि मैं ने समाज की वास्तविकता और अपनी इस हालत को स्वीकार कर लिया है.’’

‘‘अगर तुम मेरे साथ मेरे घर चलना चाहो तो मैं तुम्हें ले जाने के लिए तैयार हूं. तुम मेरे घर का कामकाज करना और आराम से रहना.’’

कविता की इस बात से किरण खुश  हो गई. उस ने कहा, ‘‘दीदीजी, आप ठीक से सोचविचार लीजिए.’’

‘‘मैं ने तो सोचविचार लिया है. अब तुम बताओ. तुम राजी हो न? मैं तो राजी हूं.’’ कविता ने कहा.

किरण तैयार हो गई तो कविता ने उसे गाड़ी में बैठाया और खरीदारी का प्रोग्राम पोस्टपोन कर के किरण को ले कर सीधे अस्पताल पहुंची. उस का पूरा हैल्थ चैकअप करा कर दवा लिखवाई. उस के बाद किरण के लिए 2-3 जोड़ी कपड़े खरीद कर रास्ते में एक रेस्टोरेंट से खाना पैक कराया और घर आ गई.

किरण के रहने की व्यवस्था आउटहाउस में कर के उसे खाना खिलाया और आराम करने के लिए कह कर कविता और अनिकेत अपने कमरे में आ गए.

अनिकेत अभी भी कविता के इस काम से सहमत नहीं था. इस तरह किसी अंजान को अपने घर ले आना और उस पर इस तरह विश्वास करना उस के स्वभाव में नहीं था. जबकि इस के उलट कविता को किसी पर क्षण भर में ही विश्वास हो जाता था. भले ही वह कितनी बार धोखा खा चुकी थी, पर उस का यह स्वभाव बदल नहीं रहा था.

ढाल : रमजानी से हो गई थी कैसी भूल

अभी पहला पीरियड ही शुरू हुआ था कि चपरासिन आ गई. उसने एक परची दी, जिसे पढ़ने के बाद अध्यापिकाजी ने एक छात्रा से कहा, ‘‘सलमा, खड़ी हो जाओ, तुम्हें मुख्याध्यापिकाजी से उन के कार्यालय में अभी मिलना है. तुम जा सकती हो.’’

सलमा का दिल धड़क उठा, ‘मुख्याध्यापिका ने मुझे क्यों बुलाया है? बहुत सख्त औरत है वह. लड़कियों के प्रति कभी भी नरम नहीं रही. बड़ी नकचढ़ी और मुंहफट है. जरूर कोई गंभीर बात है. वह जिसे तलब करती है, उस की शामत आई ही समझो.’

‘तब? कल दोपहर बाद मैं क्लास में नहीं थी, क्या उसे पता लग गया? कक्षाध्यापिका ने शिकायत कर दी होगी. मगर वह भी तो कल आकस्मिक छुट्टी पर थीं. फिर?’

सामने खड़ी सलमा को मुख्या- ध्यापिका ने गरदन उठा कर देखा. फिर चश्मा उतार कर उसे साड़ी के पल्लू से पोंछा और मेज पर बिछे शीशे पर रख दिया.

‘‘हूं, तुम कल कहां थीं? मेरा मतलब है कल दोपहर के बाद?’’ इस सवाल के साथ ही मुख्याध्यापिका का चेहरा तमतमा गया. बिना चश्मे के हमेशा लाल रहने वाली आंखें और लाल हो गईं. वह चश्मा लगा कर फिर से गुर्राईं, ‘‘बोलो, कहां थीं?’’

‘‘जी,’’ सलमा की घिग्घी बंध गई. वह चाह कर भी बोल न सकी.

‘‘तुम एक लड़के के साथ सिनेमा देखने गई थीं. कितने दिन हो गए

तुम्हें हमारी आंखों में यों धूल झोंकते हुए?’’

मुख्याध्यापिका ने कुरसी पर पहलू बदल कर जो डांट पिलाई तो सलमा की आंखों में आंसू भर आए. उस का सिर झुक गया. उसे लगा कि उस की टांगें बुरी तरह कांप रही हैं.

बेशक वह सिनेमा देखने गई थी. हबीब उसे बहका कर ले गया था, वरना वह कभी इधरउधर नहीं जाती थी. अम्मी से बिना पूछे वह जो भी काम करती है, उलटा हो जाता है. उन से सलाह कर के चली जाती तो क्या बिगड़ जाता? महीने, 2 महीने में वह फिल्म देख आए तो अम्मी इनकार नहीं करतीं. पर उस ने तो हबीब को अपना हमदर्द माना. अब हो रही है न छीछालेदर, गधा कहीं का. खुद तो इस वक्त अपनी कक्षा में आराम से पढ़ रहा होगा, जबकि उस की खिंचाई हो रही है. तौबा, अब आगे यह जाने क्या करेगी.

चलो, दोचार चांटे मार ले. मगर मारेगी नहीं. यह हर काम लिखित में करती है. हर गलती पर अभिभावकों को शिकायत भेज देती है. और अगर अब्बा को कुछ भेज दिया तो उस की पढ़ाई ही छूटी समझो. अब्बा का गुस्सा इस मुख्याध्यापिका से उन्नीस नहीं इक्कीस ही है.

‘‘तुम्हारी कक्षाध्यापिका ने तुम्हें कल सिनेमाघर में एक लड़के के साथ देखा था. इस छोटी सी उम्र में भी क्या कारनामे हैं तुम्हारे. मैं कतई माफ नहीं करूंगी. यह लो, ‘गोपनीय पत्र’ है. खोलना नहीं. अपने वालिद साहब को दे देना. जाओ,’’ मुख्याध्यापिका ने उसे लिफाफा थमा दिया.

सलमा के चेहरे का रंग उड़ गया. उस ने उमड़ आए आंसुओं को पोंछा. फिर संभलते हुए उस गोपनीय पत्र को अपनी कापी में दबा जैसेतैसे बाहर निकल आई.

पूरे रास्ते सलमा के दिल में हलचल मची रही. यदि किसी लड़के के साथ सिनेमा जाना इतना बड़ा गुनाह है तो हबीब उसे ले कर ही क्यों गया? ये लड़के कैसे घुन्ने होते हैं, जो भावुक लड़कियों को मुसीबत में डाल देते हैं.

अब अब्बा जरूर तेजतेज बोलेंगे और कबीले वाली बड़ीबूढि़यां सुनेंगी तो तिल का ताड़ बनाएंगी. उन्हें किसी लड़की का ऊंची पढ़ाई पढ़ना कब गवारा है. बात फिर मसजिद तक भी जाएगी और फिर मौलवी खफा होगा.

जब उस ने हाईस्कूल में दाखिला लिया था तो उसी बूढ़े मौलवी ने अब्बा पर ताने कसे थे. वह तो भला हो अम्मी का, जो बात संभाल ली थी. लेकिन अब अम्मी भी क्या करेंगी?

सलमा पछताने लगी कि अम्मी हर बार उस की गलती को संभालती हैं, जबकि वह फिर कोई न कोई भूल कर बैठती है. वह मांबेटी का व्यवहार निभने वाली बात तो नहीं है. सहयोग तो दोनों ओर से समान होना चाहिए. उसे अपने साथ बीती घटनाएं याद आने लगी थीं.

2 साल पहले एक दिन अब्बा ने छूटते ही कहा था, ‘सुनो, सल्लो अब 13 की हो गई, इस पर परदा लाजिम है.’

‘हां, हां, मैं ने इस के लिए नकाब बनवा लिया है,’ अम्मी ने एक बुरका ला कर अब्बा की गोद में डाल दिया था, ‘और सुनो, अब तो हमारी सल्लो नमाज भी पढ़ने लगी है.’

‘वाह भई, एकसाथ 2-2 बंदिशें हमारी बेटी पर न लादो,’ अब्बा बहुत खुश हो रहे थे.

‘देख लीजिए. फिर एक बंदिश रखनी है तो क्या रखें, क्या छोड़ें?’

‘नमाज, यह जरूरी है. परदा तो आंख का होता है?’

और अम्मी की चाल कामयाब रही थी. नमाज तो ‘दीनदार’ होने और दकियानूसी समाज में निभाने के लिए वैसे भी पढ़नी ही थी. उस का काम बन गया.

फिर उस का हाईस्कूल में आराम से दाखिला हो गया था. बातें बनाने वालियां देखती ही रह गई थीं. अब्बा ने किसी की कोई परवा नहीं की थी.

सलमा को दूसरी घटना याद आई. वह बड़ी ही खराब बात थी. एक लड़के ने उस के नाम पत्र भेज दिया था. यह एक प्रेमपत्र था. अम्मी की हिदायत थी, ‘हर बात मुझ से सलाह ले कर करना. मैं तुम्हारी हमदर्द हूं. बेशक बेटी का किरदार मां की शख्सियत से जुड़ा होता है.’

मैं ने खत को देखा तो पसीने छूटने लगे. फिर हिम्मत कर के वह पत्र मैं ने अम्मी के सामने रख दिया. अम्मी ने दिल खोल कर बातें कीं. मेरा दिल टटोला और फिर खत लिखने वाले महमूद को घर बुला कर वह खबर ली कि उसे तौबा करते ही बनी.

मां ने उस घटना के बाद कहा, ‘सलमा, मुसलिम समाज बड़ा तंगदिल और दकियानूसी है. पढ़ने वाली लड़की को खूब खबरदार रहना होता है.’

सलमा ने पूछा, ‘इतना खबरदार किस वास्ते, अम्मी?’

वह हंस दी थीं, ‘केवल इस वास्ते कि कठमुल्लाओं को कोई मौका न मिले. कहीं जरा भी कोई ऐसीवैसी अफवाह उड़ गई तो वे अफवाह उदाहरण देदे कर दूसरी तरक्की पसंद, जहीन और जरूरतमंद लड़कियों की राहों में रोड़े अटका सकते हैं.’

‘आप ठीक कहती हैं, अम्मी,’ और सलमा ने पहली बार महसूस किया कि उस पर कितनी जिम्मेदारियां हैं.

पर 2-3 साल बाद ही उस से वह भूल हो गई. अब उस अम्मी को, जो उस की परम सहेली भी थीं, वह क्या मुंह दिखाएगी? फिर अब्बा को तो समझाना ही मुश्किल होगा. इस बार किसी तरह अम्मी बात संभाल भी लेंगी तो वह आइंदा पूरी तरह सतर्क रहेगी.

सलमा ने अपनी अम्मी रमजानी को पूरी बात बता दी थी. सुन कर वह बहुत बिगड़ीं, ‘‘सुना, इस गोपनीय पत्र में क्या लिखा है?’’

सलमा ने लिफाफा खोल कर पढ़ सुनाया.

रमजानी बहुत बिगड़ीं, ‘‘अब तेरी आगे की पढ़ाई गई भाड़ में. तू ने खता की है, इस की तुझे सजा मिलेगी. जा, कोने में बैठ जा.’’

शाम हुई. अब्बा आए, कपड़े बदल कर उन्होंने चाय मांगी, फिर चौंक उठे, ‘‘यह इस वक्त सल्लो, यहां कोने में कैसे बैठी है?’’

‘‘यह मेरा हुक्म है. उस के लिए सजा तजवीज की है मैं ने.’’

‘‘बेटी के लिए सजा?’’

‘‘हां, हां, यह देखो…खर्रा,’’ सलमा की अम्मी गोपनीय पत्र देतेदेते रुक गईं, ‘‘लेकिन नहीं. इसे गोपनीय रहने दो. मैं ही बता देती हूं.’’

और सलमा का कलेजा गले में आ अटका था.

‘‘…वह बात यह है कि अपनी सल्लो की मुख्याध्यापिका नीम पागल औरत है,’’ अम्मी ने कहा था.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि मसजिद के मौलवी से भी अधिक दकियानूसी और वहमी औरत.’’

‘‘बात क्या हो गई?’’

‘‘…वह बात यह है कि मैं ने सल्लो से कहा था, अच्छी फिल्म लगी है, जा कर दिन को देख आना. अकेली नहीं, हबीब को साथ ले जाना. उसे बड़ी मुश्किल से भेजा. और बेचारी गई तो उस की कक्षाध्यापिका ने, जो खुद वहां फिल्म देख रही थी, इस की शिकायत मुख्याध्यापिका से कर दी कि एक लड़के के साथ सलमा स्कूल के वक्त फिल्म देख रही थी.’’

‘‘लड़का? कौन लड़का?’’ अब्बा का पारा चढ़ने लगा.

रमजानी बेहद होशियार थीं. झट बात संभाल ली, ‘‘लड़का कैसा, वह मेरी खाला है न, उस का बेटा हबीब. गाजीपुर वाली खाला को आप नहीं जानते. मुझ पर बड़ी मेहरबान हैं,’’ अम्मी सरासर झूठ बोल रही थीं.

‘‘अच्छा, अच्छा, अब मर्द किस- किस को जानें,’’ अब्बा ने हथियार डाल दिए.

बात बनती दिखाई दी तो अम्मी, अब्बा पर हावी हो गईं, ‘‘अच्छा क्या खाक? उस फूहड़ ने हमारी सल्लो को गलत समझ कर यह ‘गोपनीय पत्र’ भेज दिया. बेचारी कितनी परेशान है. आप इसे पढ़ेंगे?’’

‘शाबाश, वाह मेरी अम्मी,’ सलमा सुखद आश्चर्य से झूम उठी. अम्मी बिगड़ी बात यों बना लेंगी, उसे सपने में भी उम्मीद न थी, ‘बहुत प्यारी हैं, अम्मी.’

सलमा ने मन ही मन अम्मी की प्रशंसा की, कमाल का भेजा पाया है अम्मी ने. खैर, अब आगे जो भी होगा, ठीक ही होगा. अम्मी ढाल बन कर जो खड़ी रहती हैं अपनी बेटी के लिए.

शायद अब्बा ने खत पढ़ना ही नहीं चाहा. बोले, ‘‘रमजानी, वह औरत सनकी नहीं है. दरअसल, मैं ने ही उन मास्टरनियों को कह रखा है कि सलमा का खयाल रखें. वैसे कल मैं उन से मिल लूंगा.’’

‘‘तौबा है. आप भी वहमी हैं, कैसे दकियानूसी. बेचारी सल्लो…’’

‘‘छोड़ो भी, उसे बुलाओ, चाय तो बने.’’

‘‘वह तो बहुत दुखी है. आई है जब से कोने में बैठी रो रही है. आप खुद ही जा कर मनाओ. कह रही थी, मुख्याध्यापिका ने शक ही क्यों किया?’’

‘‘मैं मनाता हूं.’’

और शेर मुहम्मद ने अपनी सयानी बेटी को उस दिन जिस स्नेह और दुलार से मनाया, उसे देख कर सलमा अम्मी की व्यवहारकुशलता की तारीफ करती हुई मन ही मन सोच रही थी, ‘आइंदा फिर कभी ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए.’

और सलमा यों अपने चारों ओर फैली दकियानूसी रिवायतों की धुंध से जूझती आगे बढ़ी तो अब वह कालिज की एक छात्रा है. उस के इर्दगिर्द उठी आंधियां, मांबेटी के व्यवहार के तालमेल के आगे कभी की शांत हो गईं.

संबंधों का कातिल : जब आंखों पर चढ़ जाए स्वार्थ का चश्मा

‘‘माफ करना भाई, तुम्हें तो बात भी करना नहीं आता,’’ इतना बोल कर सुबोध ने अपने हाथ जोड़ लिए तो मानव खीज कर रह गया.

अचानक बात करतेकरते दोनों को ऐसा करता देख मैं भी घबरा गया. कमरे में झगड़ा हो और नकारात्मक माहौल बन जाए तो बड़ी घुटन होती है. मैं तनाव में नहीं जी सकता. पता नहीं कैसाकैसा लगने लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी ने नाक तक मुझे पानी में डुबो दिया हो.

‘‘शांत रहो भाई, तुम दोनों को क्या हो गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं भूल गया था कि कुपात्र को सीख नहीं देनी चाहिए. जिसे कुछ लेने की चाह ही न हो उसे कुछ कैसे दिया जा सकता है. बरतन सीधे मुंह रखा हो तभी उस में कोई चीज डाली जा सकती है, उलटे बरतन में कुछ नहीं डाला जा सकता. चाहे पूरी की पूरी सावन की बदली बरस कर चली जाए पर उलटे पात्र में एक बूंद तक नहीं डाली जा सकती. जिस चरित्र का यह मालिक है उस चरित्र पर तो किसी की अच्छी सलाह काम ही नहीं कर सकती. ऐसे लोग कभी किसी के हो कर नहीं रहते.’’

मानव चेहरे पर विचित्र भाव लिए कभी मेरा मुंह देख रहा था और कभी सुबोध का…जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो, जैसे उस का कोई परदा उठा दिया हो किसी ने. अभी कुछ दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. हम तीनों एक ही कमरा शेयर करते हैं. हमारे पेशे अलगअलग हैं लेकिन रहने को छत एक ही है जिस के नीचे हमारी रात और सुबह बीतती है.

‘‘चरित्र से…क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘क्या इस का मतलब तुम्हें नहीं पता? इतने तो नासमझ नहीं हो तुम, जो तुम्हें चरित्र का मतलब पता ही न हो. पढ़ेलिखे हो, अच्छी कंपनी में काम करते हो, हर महीने अच्छाखासा वेतन पाते हो, जूता तक तो तुम्हारा ब्रांडेड होता है. कंपनी में ऊपर तक जाने की जितनी तीव्र इच्छा  तुम्हें है उस के लिए अनैतिकता के कितने गहरे गड्ढे में धंस चुके हो, तुम्हें खुद ही नहीं पता…तुम कहां से हो और कहां जा रहे हो तुम्हें जरा सी भी समझ है? क्या जानते भी हो, कहां जा रहे हो…और कहां तक जाना चाहते हो उस की कोई तो सीमा होगी?’’

‘‘सीमा…सीमा कौन? किस की बात कर रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी सीमा की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो उस सीमा की बात कर रहा हूं जिसे हद भी कहा जाता है. हद यानी एक वह सूक्ष्म सी रेखा जिस के पार जाने से पहले मनुष्य को लाख बार सोचना चाहिए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. सीमा नाम की लड़की मानव की पत्नी है लेकिन मानव ने तो कहा था कि वह अविवाहित है और अपनी ही कंपनी में साथ काम कर रही एक सहयोगी के साथ उस के संबंध बहुत गहराई तक जुड़े हैं, सब जानते हैं. तो क्या मानव सब के साथ झूठ बोल रहा है? हाथ का काम छोड़ मैं सुबोध के समीप चला आया. मानव की शक्ल से तो लग रहा था जैसे काटो तो खून का कतरा भी न निकले. एक निश्छल सी मुसकान थी सुबोध के होंठों पर. बेदाग चरित्र है उस का. पहले ही दिन जब मिला था बहुत प्यारा सा लगा था. बड़े मस्त भाव से दाढ़ी बनाता जा रहा था.

‘‘हर इच्छा की सीमा होती है, कितनी भूख है तुम्हें पैसे की? सोचा जाए तो मात्र पैसे की ही नहीं, तुम्हें तो हर शह की भूख है. इतनी भूख से पेट फट जाएगा मानव, बदहजमी हो जाती है. प्रकृति ने इंसानों का हाजमा इतना मजबूत नहीं बनाया कि पत्थर या शीशा खा सके. हम अनाज या ज्यादा से ज्यादा जानवर खा सकते हैं.’’

यह कह कर मुंह धोने चला गया सुबोध और मानव मेरे सामने बुत बना यों खड़ा था मानो उसे बीच चौराहे पर किसी ने नंगा कर दिया हो.

‘‘तुम ये कैसी बातें कर रहे हो, सुबोध?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्या हुआ? जी मिचलाने लगा क्या? मानव का जी तो नहीं मिचलाता. पूछो, इसे इंसान का गोश्त कितना स्वाद लगता है. पिछले 4 साल से यह इंसान का गोश्त ही तो खा रहा है…अपने मांबाप का गोश्त, उस के बाद अपनी पत्नी और उस के पिता का गोश्त, यह तो एक बच्चे का पिता भी होता यदि पत्नी का गर्भपात न हो जाता. एक तरह से अपने बच्चे का गोश्त भी खा चुका है यह इंसान.’’

‘‘बकवास बंद करो सुबोध,’’ मानव ने चिढ़ कर कहा.

‘‘मेरी क्या मजाल है जो मैं बकवास करूं. उस का ठेका तो तुम ने ले रखा है. साल भर पहले घर गए थे तुम, सोचो, तब वहां क्या बकवास कर के आए थे? पत्नी को छोड़ना चाहते थे इसलिए उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया.

‘‘एमबीए करने के लिए अपनी पत्नी के पिता से 8 लाख रुपए ले लिए. उन की बेटी का घरसंसार समृद्धि से भर जाएगा, उन को तुम ने ऐसा आश्वासन दिया था. पत्नी बेचारी घर पर इस के मातापिता की सेवा करती रही, इसी उम्मीद पर कि उस का पति बड़ा आदमी बन कर लौटेगा.

‘‘अजन्मा बच्चा अपने पिता का दोषारोपण सुनते ही चलता बना. मुड़ कर कभी नहीं देखता पीछे क्याक्या छूट गया. किसकिस के सिर पर पैर रख कर यहां तक पहुंचे हो, मानव. क्या जरा सा भी एहसास है?

‘‘अब क्या उस नेहा नाम की लड़की के कंधे पर पैर नहीं हैं तुम्हारे, जिस का भाई तुम्हें अमेरिका ले जाने वाला है? अमेरिका पहुंच कर नेहा को भी छोड़ देना. मानव नहीं हो तुम तो दानव बन गए हो. क्या तुम्हारे अंदर सारी की सारी संवेदनाएं मर गई हैं? पता है न तुम्हें कि कौनकौन कोस रहा है तुम्हें. तुम्हारे मातापिता, तुम्हारे ससुर…जिन की भविष्यनिधि भी तुम खा गए और उन की बेटी का घर भी नहीं बस पाया.’’

मानव की अवस्था विचित्र सी हो गई. बारबार कुछ कहने को वह मुंह खोलता तो सुबोध उस पर नया वार कर देता. प्याज के छिलकों की तरह परतदरपरत उस के भूतकाल की परतें उतारता जा रहा था. सफाई दे भी तो कैसे दे और शुरू कहां से करे, उस का तो आदि से अंत सब ही विश्वास और अपनत्व से शून्य था. जो इंसान अपने मांबाप का सगा न हुआ, अपनी पत्नी के प्रति वफादार न हुआ वह किसी और का भी क्या होगा? सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. अपनी संतान के प्रति भी जिस ने कोई जिम्मेदारी न समझी, वह कहांकहां से पलायन कर रहा है समझा जा सकता है.

‘‘सुबोध, तुम यह सब कैसे जानते हो. जरा बताओ तो?’’ मैं ने सुबोध का हाथ पकड़ कर पूछा था. शांत रहने वाला सुबोध इस पल जरा आवेश में था.

‘‘तुम मुझ से क्यों पूछ रहे हो कि मैं यह सब कैसे जानता हूं. तुम इस नाशुक्रे इंसान से सिर्फ यह पूछो कि जो कुछ भी मैं ने इस के लिए कहा है वह सच है या नहीं. मैं कैसे जानता हूं कैसे नहीं, इस से क्या फर्क पड़ता है. पूछो इस से कि इस के मातापिता आजकल कहां हैं? जिंदा भी हैं या मर गए? तलाक के बाद इस की पत्नी और उस के पिता का क्या हुआ? क्या यह जानता है? अपने ससुर के 8 लाख रुपए यह कब लौटाने वाला है जो अब सूद मिला कर 10-12 लाख रुपए तो होने ही चाहिए.’’

‘‘सीमा ने अभी मुझे तलाक दिया कहां है…’’ पहली बार मानव ने अपने होंठ खोले, ‘‘और क्या सुबूत है उस के पास कि वे रुपए उस के पिता ने ही दिए थे.’’

‘‘जिस दिन अदालत का नोटिस तुम्हारे औफिस पहुंच जाएगा, उस दिन अपनेआप पता चल जाएगा किस के पास कितने और कैसे सुबूत हैं…इतना लाचार और बेवकूफ किसे समझ रहे हो तुम?’’

सुबोध इतना सब कह कर अपने कपड़े बदलने लगा.

‘‘आजकल मुंह छिपा कर भागना आसान कहां है. इंसान मोबाइल नंबर से पकड़ा जाता है, जिस कंपनी में काम करो वहां से छोड़ कर कहीं और भी चले जाओ तो भी सिरा हाथ में आ जाता है. यह दुनिया इतनी बड़ी कहां रह गई है कि इंसान पकड़ में ही न आए. जल्दी ही नेहा को भी पता चल जाएगा तुम्हारा कच्चा चिट्ठा. यह मत सोचो कि तुम सारी दुनिया को बेवकूफ बना लोगे.’’

बदहवास सा होने लगा मानव. 15 दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. उस ने कहा था जम्मू से है, मानव भी जम्मू से है, तब मुझे क्षण भर को लगा भी था कि मानव जम्मू का नाम सुन कर जरा सा परेशान हो गया था, बड़ी गहराई से परख रहा था कि वह किस हिस्से से है, किस कोने से है.

‘‘अगर इंसान जिंदा है और अच्छी नौकरी में है तो छिप नहीं सकता और मुझे पूरा विश्वास है तुम अभी जिंदा हो.’’

धड़ाम से वहीं बैठ गया मानव. सुबोध जल्दीजल्दी तैयार होने लगा. उस ने अपना नाश्ता किया और जातेजाते मानव का कंधा थपथपा दिया.

‘‘अभी भी देर नहीं हुई. मर जाओ या जिंदा रहो, अपने ही काम आते हैं. रोते भी अपने ही हैं, ऐसा दुनिया कहती है. अपना घरपरिवार संभालो, अपनों के साथ छल मत करो वरना वह दिन दूर नहीं जब यही छल घूमफिर कर तुम्हारे ही सामने परोसा जाएगा…अपने घर जाओ मानव, तुम्हारी मां बहुत बीमार हैं.’’

‘‘क्या?’’ मानव के होंठों से पहली बार यह शब्द अपनेआप ही निकला था.

‘‘अपनी मां तो याद हैं न. जाओ उन के पास. नेहा जैसी कल बहुत मिल जाएंगी. आज मां हाथ से निकल गईं तो पूरी उम्र जमीन से जुड़ने को ही तरस जाओगे. पत्नी को छोड़ा है, जाहिर है वह भी मर तो नहीं जाएगी. वह तो कल अपना रास्ता स्वयं ढूंढ़ लेगी, लेकिन आज जो छूट जाएगा वह कभी हाथ नहीं आएगा. अच्छे इंसान बनो मानव…मांबाप ने इतना अच्छा नाम रखा था…कुछ तो उसे सार्थक करो.’’

सुबोध चला गया. कहां से बात शुरू हुई थी और कहां आ पहुंची थी. हैरान हूं मानव के बारे में इतना सब जानते हुए वह 15 दिन से चुप क्यों था. और मानव का चरित्र भी कैसा था, जिस ने साल भर में कभी मांबाप का जिक्र तक नहीं किया. घर में पालतू जानवर पाल लो तो उस का भी नाम कभीकभार इंसान ले ही लेता है.

सुबोध ने बताया था कि उस के कई मित्र मानव के गांव से हैं. हो सकता है उन्हीं से उसे सारी कहानी पता चली हो. मैं तो कितना अच्छा दोस्त समझ रहा था मानव को. अब लग रहा है अपनी समझ को अभी मुझे और परिपक्व करना पड़ेगा. इंसान को परखना अभी मुझे नहीं आया.

मैं सोचने लगा हूं…मानव, जो अच्छा इंसान ही नहीं है वह अच्छा मित्र कैसे होगा. प्यार पाने के लिए तो प्यार बोना पड़ता है और विश्वास पाने के लिए विश्वास. मानव के तो दोनों हाथ खाली हैं, यह क्या लेगा जब कभी दिया ही नहीं. इस के हिस्से तो मात्र खालीपन और अकेलापन ही है. मानव बुत बना चुपचाप बैठा रहा.

दहशत की हवा : कैसे बदल गए खूंखार दरिंदे

सारी गली सुनसान थी. शाम अंधेरे में बदल गई थी. पहाड़ी इलाका था. यहां साल भर सर्दी का ही मौसम रहता था. गरमियों में सर्दी कम हो जाती. सर्दियों में तो रातें सर्द ही रहतीं. जिन को सर्दी की आदत थी उन को कम या ज्यादा सर्दी से क्या फर्क पड़ता था.  हाथ में पकड़ी ए.के. 47 राइफल की नोक से अरबाज खान ने अधखुले दरवाजे को खटखटाया. कोई जवाब नहीं मिला. फिर वह थोड़ी धीमी आवाज में चिल्लाया, ‘‘कोई है?’’

उत्तर में कोई जवाब नहीं.  उस के पीछे खड़े उस के 7 साथियों के चेहरों पर गुस्से के भाव उभर आए. आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था. जिस किसी भी गांव में दिन या रात में कदम रखा था, उन के खौफ से वहां के लोग थरथर कांपते हुए उन की किसी बादशाह या सुलतान के समान आवभगत करते थे. मगर यहां अभी तक कोई बाहर नहीं आया था.

‘‘मार डालो इन को. कोई भी जिंदा न बच पाए,’’ सभी ए.के. 47 राइफल व हैंडगे्रनेडधारी जनों के नेता सुलतान ने अपने आदमियों से कहा तो उन के चेहरों के भावों ने एकदूसरे को कहा, ‘मगर पहले कोई सामने तो आए.’  दरवाजा आधा खुला था. पल्ला जोर पड़ते ही एक तरफ हो गया. ट्रिगर पर उंगली सख्त किए सभी अंदर प्रवेश कर गए. उन का गुस्सा माथे पर था. सामने जो भी आया गोली खाएगा. मगर सामने कोई आए तो सही.  सारा मकान खाली था. खाने का सामान तो दूर की बात थी वहां तो पानी का मटका भी खाली था. सब कहां गए? शायद कहीं बाहर गए थे?

मगर दूसरा मकान भी पहले की तरह खाली. तीसरा, चौथा मकान भी खाली. तनी हुई मशीनगनें ढीली पड़ एक तरफ कंधे पर लटक गईं. चढ़ा हुआ गुस्सा उतरने लगा. गरमी या जोश भी ढीला पड़ने लगा.  एक ही कतार में, सारे मकान खाली थे. अंधेरा बढ़ रहा था. ऐसा कैसे हो सकता था? क्या कोई साजिश थी? सेना या खुफिया विभाग वालों की साजिश भी हो सकती है.

क्या पता एकदम से चारों तरफ से घेर कर सब पर गोलियों की बरसात कर दें…सभी के चेहरों पर डर और दहशत उभर आई.  पिछले माह जब वे आए थे, तब इन्हीं 4-5 मकानों में रहने वालों ने किस तरह डर कर उन की अगवानी की थी. बकरे का मांस पेश किया था. काजूसेब से बनी शराब पेश की थी. रात को जब सब ने उन की जवान बहुओं और कुंआरी बेटियों को लपक लिया था तब किसी ने विरोध नहीं किया था.

मगर आज इन्हीं मकानों में कोई नहीं था. इनसान तो क्या कोई परिंदा भी नहीं था. पशु नहीं था. इनसान कहीं बाहर किसी काम से जा सकते थे. मगर क्या परिंदे और जानवर भी जा सकते थे?  जरूर कोई साजिश थी. अंधेरा कभी उन को सुरक्षा और हिम्मत देता था. आज वही अंधेरा उन्हें डरा रहा था. दूसरों पर बिना बात गोली चलाने वाले अब इस सोच से डर रहे थे कि कहीं एकदम किसी ओर से कोई फौजी सामने आ कर गोली न चला दे या आसपास के मकानों से उन सब पर गोलियों की बौछार न हो जाए.

जिस दबंगता, अकड़ और जोश से वे सब गांव में प्रवेश करते समय भरे हुए थे वह अब एक अनजाने डर, दहशत में बदल गया था. सभी के चेहरों पर अब मातम छा गया था. प्यास से सब के गले सूख रहे थे. मगर किसी मकान के मटके में पानी नहीं था.  प्यास से गला सूख रहा था. शाम आधी रात में बदल गई थी. मगर अभी तक खाना नहीं मिला था. कहां तो सोचा था कि मुरगेबकरे का मांस, गरमागरम तंदूरी रोटियां, मिस्सी रोटियां मिलेंगी, शराब मिलेगी. रात को साथ सोने के लिए अनछुई जवान महिला मिलेगी…मगर आज सब सुनसान था. कोई भी नहीं था. खाली मकान थे. सब खालीखाली था.

‘‘अब क्या करें?’’ एक साथी ने सरदार से कहा.

सरदार चुप रहा. क्या जवाब दे? वापस चलें? मगर कहां? सामने के पहाड़ों पर बर्फ पड़ रही थी. आसमान साफ था.  मगर इस सुनसान आधी रात में जाएं कहां? सारे मकान खाली थे. सारा गांव खाली था.  सभी थक चुके थे. धीरेधीरे चलते गांव के बाहर चले आए. एक मकान पत्थरों से घिरी चारदीवारी के अंदर बना हुआ था. चारदीवारी में शायद सब्जियां बो रखी थीं. खाने को कच्ची सब्जियां तो मिल जाएंगी, सभी यह सोच कर वहां प्रवेश कर गए.

एक आतंकवादी ने हिम्मत कर टौर्च   जलाई. सचमुच सब्जियां थीं मगर   कच्चा घीया, बैगन और तोरी, कौन और कैसे खाता? शायद मकान मेें ईंधन और चूल्हा है. सभी मकान की तरफ बढ़े तभी उन के कानों में किसी के धीमेधीमे सुबकनेकी आवाज आई.  मकान में कोई था. टौर्च जलाने वाला आगे बढ़ा. एक लंबे आयताकार कमरे के भीतर खूंटे में रस्सी से बंधी एक बकरी खोली में रखी घास चर रही थी.

समीप एक 2 साल का मासूम बच्चा सुबक रहा था.  गांव में इस अकेले मकान में 2 प्राणी थे. थोड़ीबहुत शराब थी. दालान के कोने में एक मटका पानी से भरा था. थोड़ाबहुत राशन भी वहां मौजूद था.  पानी देख कर सब की निगाहों में चमक आ गई. एक आतंकी रसोई में गया मगर वहां कोई गिलास नहीं था. हाथों को चुल्लू बना सब ने बारीबारी से पानी पिया. सब बकरी और बच्चे वाले कमरे में चले आए.

बच्चा अभी भी सुबक रहा था. वह भूखा था.  एक खाट दीवार से लगी सीधी खड़ी थी. सब उस को बिछा कर उस पर बैठ गए.

‘‘रहमत, देखो, क्या बकरी के थनों में दूध है?’’ सरदार के कहने पर एक आतंकी उठा और बकरी के समीप गया. थन दूध से भारी थे. मुट्ठी में थन पकड़ उसे भींचा, दूध की पतली धार एक फुहार के समान बाहर निकल आई.  रहमत ने आसपास देखा तो कोई बरतन नहीं था. वह भाग कर रसोई मेें गया. वहां भी बरतन नहीं था. दालान में एक तरफ मिट्टी से बनी एक खाली सिगड़ी थी. इस में शायद आग जला कर भट्ठी का काम लिया जाता था. उस को उठा कर झाड़ा. मटके से पानी ले, उसे धो लाया.

दूध भरपूर था. सारी सिगड़ी भर गई. दूध ले कर वह बच्चे के समीप गया. दूध देखते ही बच्चा मचल पड़ा. रहमत ने सिगड़ी उस के मुंह से लगा दी. बच्चा दूध पी गया. आधी सिगड़ी खाली हो गई. थनों में अभी काफी दूध था. बकरी शायद पिछले कई दिन से दुही नहीं गई थी. सिगड़ी फिर भर गई.  सिगड़ी उठा कर रहमत दल के सरदार के समीप पहुंचा.

‘‘आप भी दूध पी लीजिए.’’

‘‘दूध तो बच्चे के लिए है.’’

‘‘बच्चे को मैं ने दूध पिला दिया है. बकरी के थनों में अभी काफी दूध है.’’  सरदार ने सिगड़ी को मुंह से लगाने में संकोच किया. फिर हाथों की केतली बना जैसे पानी पी रहा हो, थोड़ा सा दूध पी लिया और सिगड़ी एक साथी की तरफ बढ़ा दी. सभी ने थोड़ाथोड़ा दूध पी लिया.  बच्चा अब तक जमीन पर लेटा सो गया था. बकरी भी बैठ गई थी.  ‘‘बच्चे को खाट पर लिटा दो,’’ सरदार ने कहा. 2 साथी उठ कर जमीन पर बैठे. फिर रहमत ने बच्चे को उठा कर खाट पर लिटा दिया. सरदार ने अपना ओढ़ा कंबल उतार कर उस को ओढ़ा दिया. गरमाई मिलते ही बच्चा मीठी नींद सो गया.

बकरी का थोड़ाथोड़ा दूध पीते ही अंतडि़यां राहत पा गई थीं. जैसे चोट पर मरहम लग गया हो. सभी भूखे दीवार से लगेलगे सो गए. सुबह की चमकती धूप की किरणों ने उन के चेहरों पर गरमी की, तब सब की नींद खुली. बच्चा अभी भी सो रहा था. बकरी उठ कर खड़ी हो में…में करने लगी थी. उस के थन फिर से दूध से भारी हो गए थे.

सब उठ कर नित्यक्रिया को निकल गए थे. रहमत और परवेज समीप की पहाड़ी के झरने से मटके में पानी भर लाए थे. अरबाज खान और मुश्ताक अली खाली पड़े मकानों में खाली बरतन ढूंढ़ने निकल पड़े. किसी घर में 1-2 गिलास, किसी में थालीकटोरी किसी से गड़वा, परात मिल गई.  आटा गूंध कर टिक्कड़ सेंक सब ने पेट भरा. बच्चा भी रोटी देख कर चिल्लाया. रहमत ने उस को नमक डाल कर एक टिक्कड़ सेंक कर थमा दिया.

‘‘अब क्या करें?’’ सरदार ने कहा.

‘‘ठिकाने पर वापस चलते हैं. अगले गांव में तो सुरक्षा बलों का बड़ा नाका है. इस बार फौज की चौकसी काफी बढ़ गई है,’’ मुश्ताक अली ने कहा.  ‘‘यह सारा गांव खाली क्यों है?’’ रहमत अली ने कहा. हालांकि वह जानता था कि इस सवाल का जवाब सब को मालूम था. उन्हीं की दहशत की वजह से सब निवासी गांव छोड़ कर चले गए थे. हर समय दहशत के साए में कौन जीता? कब किस को बिना वजह गोली मार दें. कब किसी के घर में घुस कर बहूबेटी की इज्जत लूट लें.  अभी तक घाटी से हिंदू, सिख ही गए थे, मगर अब अपने मुसलमान भी पलायन कर रहे थे…वह भी सारे के सारे एकसाथ. अगर सारी घाटी खाली हो जाए तो?

‘‘अभी वापस चलते हैं… आगे जो होगा देखेंगे,’’ सब उठ खड़े हुए.

‘‘इस बच्चे का क्या करें?’’ अरबाज खान ने पूछा.

सब सोचने लगे. क्या इसे गोली मार दें? अभी तक कभी किसी ने किसी मासूम बच्चे को नहीं मारा. बड़ी उम्र के आदमी और औरतों पर ही गोली चलाई थी. किसी का हाथ स्टेनगन की तरफ नहीं गया.  ‘‘क्या बच्चे को यहीं छोड़ दें,’’ सब सोच रहे थे. मगर इस सुनसान खाली पड़े मकान में अकेला मासूम बच्चा कैसे रहेगा? जैसे हालात थे, उन में इस के परिवार या मांबाप का आना मुश्किल था. जाने की जल्दी में वह बच्चा छूट गया था.  बच्चे को वापस लेने आने वाला अकेला शायद ही आए. सुरक्षा बल या फौजी दस्ता साथ आ सकता है. इसलिए उन का यहां ज्यादा देर तक ठहरना भी खतरनाक था. सरदार ने कुछ देर सोचा.

‘‘बच्चे को और बकरी को भी साथ ले चलो,’’ सरदार का हुक्म सुन सब ने एकदूसरे की तरफ देखा.

‘‘सरदार, बच्चे का हम क्या करेंगे?’’ मुश्ताक अली ने कहा.

‘‘यहां अकेला भूखाप्यासा बच्चा मर जाएगा.’’

‘‘हमारे साथ भी इसे कुछ हो सकता है.’’

‘‘बाद में देखेंगे. अभी इसे साथ ले चलो.’’  आंखों पर शक्तिशाली दूरबीन चढ़ाए ऊंचे टावर पर बैठे फौजियों ने सामने की पहाड़ी पर बनी पगडंडी पर कुछ आतंकवादियों को चढ़ते देखा. सब सचेत हो गए. ऐसा कभीकभी ही होता था. अधिकतर दहशतगर्द रात के अंधेरे में ही निकलते थे. उस ने दूरबीन का फोकस और करीब किया. बुदबुदाया, ‘अरे, यह तो अरबाज खान है. इस ने अपनी बांहों में एक बच्चा उठा रखा है. इस के पीछे चल रहे व्यक्ति ने एक बकरी के गले में बंधी रस्सी थाम रखी है.’

‘वाकीटाकी’ औन कर फौजी ने अपने कमांडर को खबर दी.

‘‘इस बच्चे के बारे में हमारे पास कल शाम खबर आई थी. गांव छोड़ते समय अफरातफरी में इस के मांबाप बच्चा वहीं छोड़ आए थे,’’ कमांडर ने कहा.

‘‘सर, क्या करें? सब रेंज में हैं. गोली चलाऊं?’’

‘‘उन्हें जाने दो. बच्चा उन के हाथ में है, उसे गोली लग सकती है.’’  सभी पहाड़ी पार कर अपने ठिकाने पर सुरक्षित पहुंच गए. अरबाज खान जानता था कि दिन में घाटी के किसी इलाके में निकलना खतरे से खाली नहीं था. किसी भी वक्त सुरक्षा बलों की गोली लग सकती थी. इसलिए आड़ बनाने के लिए बच्चा अपने साथ लाया था.  ठिकाने पर सब नहानेधोने, खाना बनाने में लग गए. बच्चा भी जाग गया था.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ अरबाज खान ने पूछा.

‘‘उमर अली.’’

‘‘तुम्हारे अम्मीअब्बा का क्या नाम है?’’

‘‘अहमद अली व फरजाना खातून.’’

‘‘सब कहां गए हैं?’’

‘‘पता नहीं.’’

सब खाना खा कर सो गए. उमर अली भी एक चपाती और दूध पी कर सो गया.  रात हो गई. हर रात को किसी न किसी गांव में इन दहशतगर्दों का दल जाता था. कहीं कत्ल तो कहीं लूटमार का खेल खेला जाता था. मगर आज कोई कहीं नहीं गया था. कल रात जैसा वाकया पहले कभी नहीं हुआ था कि सारा गांव खाली हो जाए.  आज किसी दूसरे गांव में जाएं, वहां भी अगर वैसा ही हो गया तब? ऊपर से सुरक्षाबल के जवान घात लगाए बैठे हों.

अचानक सब पर हमला हो जाए. इतनी सारी संभावनाएं कभी दिमाग में नहीं आई थीं. मगर कल के हालात ने उन को खुद के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया था.  लगभग 1 साल तक लुटेरों ने कश्मीर के विभिन्न इलाकों में स्थापित ट्रेनिंग कैंपों में इन सब को तरहतरह के हथियार चलाने व गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दे कर सीमा पार करा दी थी. एकमुश्त मोटी रकम हर एक को अपने परिवार को देने के लिए थमा दी गई थी.

साथ ही, एक बंधीबंधाई रकम हर माह इन के परिवारों को देने का वादा भी किया था.  इस जंग को अल्लाह के नाम पर जेहाद का नाम दिया गया था. काफिरों के खत्म होने पर ही पाक हुकूमत कायम होगी, जिस में कुछ भी नापाक नहीं होगा. यह सब जेहादियों के दिमाग में भरा गया था.

सब इस सचाई से वाकिफ थे कि उन्हें मरने के बाद कफन भी नहीं मिलेगा. मगर जेहाद के नाम पर दिमाग बंद था. अब कल के हालात ने सब को सोचने पर मजबूर कर दिया था. क्या थे वे सब? क्या भविष्य था उन का?  घाटी में अब काफिर कहां थे? सारे हिंदू, जिन्हें काफिर कहा जाता था, चले गए थे. फिर अब किस बात पर जेहाद था? साथ में जो बच्चा आया था उस ने भी उन के दिमाग में हलचल मचा दी थी. सब को अपनाअपना परिवार, बच्चे याद आ रहे थे. यह जेहाद तो पता नहीं कब खत्म होगा? घर कब जाएंगे? किसी के बेटे का नाम फिरोज था, कोई अशरफ था, कोई सलीम था, कोई अशफाक था. कैसे होंगे वे?

दूसरा दिन भी हो गया. उमर अली सब के साथ हिलमिल गया. सब को उस में अपनेअपने बच्चों का अक्स दिख रहा था.

‘‘मैं भी बंदूक चलाऊंगा.’’

अरबाज खान ने उसे अपनी पिस्तौल खाली कर थमा दी. उस के खेल का सब आनंद ले रहे थे.  क्या उन का बेटा भी बड़ा हो कर इस तरह बंदूक थामेगा? एक दहशतगर्द बनेगा, गोली खा मरेगा और एक कुत्ते या जानवर के समान दफन हो जाएगा?  रात हो गई. आज भी कोई कहीं नहीं गया. हर वारदात या जीत के बाद आकाओं को रिपोर्ट भेजनी पड़ती थी. मगर यह दूसरी रात थी जब कुछ न किया. तीसरी रात भी गई, चौथी भी. 5वीं रात पीछे से लपकती आ पहुंची.

‘‘कमांडर पूछता है सब कहीं जाते क्यों नहीं? 4 दिन से कुछ नहीं हुआ?’’

‘‘अभी हालात खराब हैं. जब काबू में हो जाएंगे तब जाएंगे.’’  8 दिन बीत गए. दिमाग में भारी हलचल थी.

हरकारा फिर आया. इस बार चेतावनी दे गया. ‘ड्यूटी’ करो या नतीजा भुगतो. नतीजा यानी वापस लौटे तो खत्म कर सुपुर्देखाक. ड्यूटी पर जाते हैं तो कभी न कभी सुरक्षा बलों की गोली का शिकार बनना ही था. सुपुर्देखाक इधर भी था उधर भी था. क्या करें?  जेहाद का जनून उतर चुका था. एक मासूम बच्चे ने उन्हें अपने बच्चों, परिवार आदि की याद दिला कर उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया था.

10 दिन बाद सुबह एक सफेद झंडा, जो सफेद कमीज फाड़ कर बनाया गया था, लिए 8 दहशतगर्दों का दल एक मासूम बच्चे की अगुआई में साथ में एक बकरी लिए आत्मसमर्पण के लिए सुरक्षा बलों के सामने हाजिर हुआ. स्टेनगन, हथगोले व अन्य हथियार पटाखों के समान एक ढेर में एक तरफ पड़े थे.  उमर अली अपने अम्मीअब्बा की गोद में पहुंच गया. सभी दहशतगर्द इस नन्हे बच्चे को मोहब्बत से देख रहे थे जिस ने उन के दिमागों से जेहाद का जनून उतार दिया था.

सासुजी हों तो हमारी जैसी

पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आई. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं.

सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.  उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए.

आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

एक गलत सोच : जब बहू चुनने में हुई सरला से गलती

किचन में खड़ा हो कर खाना बनातेबनाते सरला की कमर दुखने लगी पर वे क्या करें, इतने मेहमान जो आ रहे हैं. बहू की पहली दीवाली है. कल तक उसे उपहार ले कर मायके जाना था पर अचानक बहू की मां का फोन आ गया कि अमेरिका से उन का छोटा भाई और भाभी आए हुए हैं. वे शादी पर नहीं आ सके थे इसलिए वे आप सब से मिलना चाहते हैं. उन्हीं के साथ बहू के तीनों भाई व भाभियां भी अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं.

कुकर की सीटी बजते ही सरला ने गैस बंद कर दी और ड्राइंगरूम में आ गईं. बहू आराम से बैठ कर गिफ्ट पैक कर रही थी.

‘‘अरे, मम्मी देखो न, मैं अपने भाईभाभियों के लिए गिफ्ट लाई हूं. बस, पैक कर रही हूं…आप को दिखाना चाहती थी पर जल्दी है, वे लोग आने वाले हैं इसलिए पैक कर दिए,’’ बहू ने कुछ पैक किए गिफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा. तभी सरलाजी का बेटा घर में दाखिल हुआ और अपनी पत्नी से बोला, ‘‘सिमी, एक कप चाय बना लाओ. आज आफिस में काफी थक गया हूं.’’

‘‘अरे, आप देख नहीं रहे हैं कि मैं गिफ्ट पैक कर रही हूं. मां, आप ही बना दीजिए न चाय. मुझे अभी तैयार भी होना है. मेरी छोटी भाभी बहुत फैशनेबल हैं. मुझे उन की टक्कर का तैयार होना है,’’ इतना कह कर सिमी अपने गिफ्ट पैक करने में लग गई.

शाम को सरलाजी के ड्राइंगरूम में करीब 10-12 लोग बैठे हुए थे. उन में बहू के तीनों भाई, उन की बीवियां, बहू के मम्मीपापा, भाई के बच्चे और उन सब के बीच मेहमानों की तरह उन की बहू सिमी बैठी थी. सरला ने इशारे से बहू को बुलाया और रसोईघर में ले जा कर कहा, ‘‘सिमी, सब के लिए चाय बना दे तब तक मैं पकौड़े तल लेती हूं.’’

‘‘क्या मम्मी, मायके से परिवार के सारे लोग आए हैं और आप कह रही हैं कि मैं उन के साथ न बैठ कर यहां रसोई में काम करूं? मैं तो कब से कह रही हूं कि आप एक नौकर रख लो पर आप हैं कि बस…अब मुझ से कुछ मत करने को कहिए. मेरे घर वाले मुझ से मिलने आए हैं, अगर मैं यहां किचन में लगी रहूंगी तो उन के आने का क्या फायदा,’’ इतना कह कर सिमी किचन से बाहर निकल गई और सरला किचन में अकेली रह गईं. उन्होंने शांत रह कर काम करना ही उचित समझा.

सरलाजी ने जैसेतैसे चाय और पकौड़े बना कर बाहर रख दिए और वापस रसोई में खाना गरम करने चली गईं. बाहर से ठहाकों की आवाजें जबजब उन के कानों में पड़तीं उन का मन जल जाता. सरला के पति एकदो बार किचन में आए सिर्फ यह कहने के लिए कि कुछ रोटियों पर घी मत लगाना, सिमी की भाभी नहीं खाती और खिलाने में जल्दी करो, बच्चों को भूख लगी है.

सरलाजी का खून तब और जल गया जब जातेजाते सिमी की मम्मी ने उन से यह कहा, ‘‘क्या बहनजी, आप तो हमारे साथ जरा भी नहीं बैठीं. कोई नाराजगी है क्या?’’

सब के जाने के बाद सिमी तो तुरंत सोने चली गई और वे रसोई संभालने में लग गईं.

अगले दिन सरलाजी का मन हुआ कि वे पति और बेटे से बीती शाम की स्थिति पर चर्चा करें पर दोनों ही जल्दी आफिस चले गए. 2 दिन बाद फिर सिमी की एक भाभी घर आ गई और उस को अपने साथ शौपिंग पर ले गई. शादी के बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा था. कभी किसी का जन्मदिन, कभी किसी की शादी की सालगिरह, कभी कुछ तो कभी कुछ…सिमी के घर वालों का काफी आनाजाना था, जिस से वे तंग आ चुकी थीं.

एक दिन मौका पा कर उन्होंने अपने पति से इस बारे में बात की, ‘‘सुनो जी, सिमी न तो अपने घर की जिम्मेदारी संभालती है और न ही समीर का खयाल रखती है. मैं चाहती हूं कि उस का अपने मायके आनाजाना कुछ कम हो. शादी को साल होने जा रहा है और बहू आज भी महीने में 7 दिन अपने मायके में रहती है और बाकी के दिन उस के घर का कोई न कोई यहां आ जाता है. सारासारा दिन फोन पर कभी अपनी मम्मी से, कभी भाभी तो कभी किसी सहेली से बात करती रहती है.’’

‘‘देखो सरला, तुम को ही शौक था कि तुम्हारी बहू भरेपूरे परिवार की हो, दिखने में ऐश्वर्या राय हो. तुम ने खुद ही तो सिमी को पसंद किया था. कितनी लड़कियां नापसंद करने के बाद अब तुम घर के मामले में हम मर्दों को न ही डालो तो अच्छा है.’’

सरलाजी सोचने लगीं कि इन की बात भी सही है, मैं ने कम से कम 25 लड़कियों को देखने के बाद अपने बेटे के लिए सिमी को चुना था. तभी पति की बातों से सरला की तंद्रा टूटी. वे कह रहे थे, ‘‘सरला, तुम कितने दिनों से कहीं बाहर नहीं गई. ऐसा करो, तुम अपनी बहन के घर हो आओ. तुम्हारा मन अच्छा हो जाएगा.’’

अपनी बहन से मिल कर अपना दिल हलका करने की सोच से ही सरला खुश हो गईं. अगले दिन ही वे तैयार हो कर अपनी बहन से मिलने चली गईं, जो पास में ही रहती थीं. पर बहन के घर पर ताला लगा देख कर उन का मन बुझ गया. तभी बहन की एक पड़ोसिन ने उन्हें पहचान लिया और बोलीं, ‘‘अरे, आप सरलाजी हैं न विभाजी की बहन.’’

‘‘जी हां, आप को पता है विभा कहां गई है?’’

‘‘विभाजी पास के बाजार तक गई हैं. आप आइए न.’’

‘‘नहींनहीं, मैं यहीं बैठ कर इंतजार कर लेती हूं,’’ सरला ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, नहीं, सरलाजी आप अंदर आ कर इंतजार कर लीजिए. वे आती ही होंगी,’’ उन के बहुत आग्रह पर सरलाजी उन के घर चली गईं.

‘‘आप की तसवीर मैं ने विभाजी के घर पर देखी थी…आइए न, शिखा जरा पानी ले आना,’’ उन्होंने आवाज लगाई.

अंदर से एक बहुत ही प्यारी सी लड़की बाहर आई.

‘‘बेटा, देखो, यह सरलाजी हैं, विभाजी की बहन,’’ इतना सुनते ही उस लड़की ने उन के पैर छू लिए.

सरला ने उसे मन से आशीर्वाद दिया तो विभा की पड़ोसिन बोलीं, ‘‘यह मेरी बहू है, सरलाजी.’’

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मम्मीजी, मैं चाय रखती हूं,’’ इतना कह कर वह अंदर चली गई. सरला ने एक नजर घुमाई. इतने सलीके से हर चीज रखी हुई थी कि देख कर उन का मन खुश हो गया. कितनी संस्कारी बहू है इन की और एक सिमी है.

‘‘बहनजी, विभा दीदी आप की बहुत तारीफ करती हैं,’’ मेरा ध्यान विभा की पड़ोसिन पर चला गया. इतने में उन की बहू चायबिस्कुट के साथ पकौड़े भी बना कर ले आई और बोली, ‘‘लीजिए आंटीजी.’’

‘‘हां, बेटा…’’ तभी फोन की घंटी बज गई. पड़ोसिन की बहू ने फोन उठाया और बात करने के बाद अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मी, पूनम दीदी का फोन था. शाम को हम सब को खाने पर बुलाया है पर मैं ने कह दिया कि आप सब यहां बहुत दिनों से नहीं आए हैं, आप और जीजाजी आज शाम खाने पर आ जाओ. ठीक कहा न.’’

‘‘हां, बेटा, बिलकुल ठीक कहा,’’ बहू किचन में चली गई तो विभा की पड़ोसिन मुझ से बोलीं, ‘‘पूनम मेरी बेटी है. शिखा और उस में बहुत प्यार है.’’

‘‘अच्छा है बहनजी, नहीं तो आजकल की लड़कियां बस, अपने रिश्तेदारों को ही पूछती हैं,’’ सरला ने यह कह कर अपने मन को थोड़ा सा हलका करना चाहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा बहनजी, पर मेरी बहू अपने मातापिता की अकेली संतान है. एकदम सरल और समझदार. इस ने यहां के ही रिश्तों को अपना बना लिया है. अभी शादी को 5 महीने ही हुए हैं पर पूरा घर संभाल लिया है,’’ वे गर्व से बोलीं.

‘‘बहुत अच्छा है बहनजी,’’ सरला ने थोड़ा सहज हो कर कहा, ‘‘अकेली लड़की है तो अपने मातापिता के घर भी बहुत जाती होगी. वे अकेले जो हैं.’’

‘‘नहीं जी, बहू तो शादी के बाद सिर्फ एक बार ही मायके गई है. वह भी कुछ घंटे के लिए.’’

हम बात कर ही रहे थे कि बाहर से विभा की आवाज आई, ‘‘शिखा…बेटा, घर की चाबी दे देना.’’

विभा की आवाज सुन कर शिखा किचन से निकली और उन को अंदर ले आई. शिखा ने खाने के लिए रुकने की बहुत जिद की पर दोनों बहनें रुकी नहीं. अगले ही पल सरलाजी बहन के घर आ गईं. विभा के दोनों बच्चे अमेरिका में रहते थे. वह और उस के पति अकेले ही रहते थे.

‘‘दीदी, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ विभा ने मेज पर सामान रखते हुए कहा.

‘‘बस, यों ही. तू बता कैसी है?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं दीदी पर आप को क्या हुआ कि कमजोर होती जा रही हो,’’ विभा ने कहा. शायद सरला की परेशानियां उस के चेहरे पर भी झलकने लगी थीं.

‘‘आंटीजी, आज मैं ने राजमा बनाया है. आप को राजमा बहुत पसंद है न. आप तो खाने के लिए रुकी नहीं इसलिए मैं ले आई और इन्हें किचन में रख रही हूं,’’ अचानक शिखा दरवाजे से अंदर आई, किचन में राजमा रख कर मुसकराते हुए चली गई.

‘‘बहुत प्यारी लड़की है,’’ सरला के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘अरे, दीदी, यही वह लड़की है जिस की बात मैं ने समीर के लिए चलाई थी. याद है न आप को इन के आफिस के एक साथी की बेटी…दीदी आप को याद नहीं आया क्या…’’ विभा ने सरला की याददाश्त पर जोर डालने को कहा.

‘‘अरे, दीदी, जिस की फोटो भी मैं ने मंगवा ली थी, पर इस का कोई भाई नहीं था, अकेली बेटी थी इसलिए आप ने फोटो तक नहीं देखी थी.’’

विभा की बात से सरला को ध्यान आया कि विभा ने उन से इस लड़की के बारे में कहा था पर उन्होंने कहा था कि जिस घर में बेटा नहीं उस घर की लड़की नहीं आएगी मेरे घर में, क्योंकि मातापिता कब तक रहेंगे, भाइयों से ही तो मायका होता है. तीजत्योहार पर भाई ही तो आता है. यही कह कर उन्होंने फोटो तक नहीं देखी थी.

‘‘दीदी, इस लड़की की फोटो हमारे घर पर पड़ी थी. श्रीमती वर्मा ने देखी तो उन को लड़की पसंद आ गई और आज वह उन की बहू है. बहुत गुणी है शिखा. अपने घर के साथसाथ हम पतिपत्नी का भी खूब ध्यान रखती है. आओ, चलो दीदी, हम खाना खा लेते हैं.’’

राजमा के स्वाद में शिखा का एक और गुण झलक रहा था. घर वापस आते समय सरलाजी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि लड़की के गुणों को अनदेखा कर के उन्होंने भाई न होने के दकियानूसी विचार को आधार बना कर शिखा की फोटो तक देखना पसंद नहीं किया. इस एक चूक की सजा अब उन्हें ताउम्र भुगतनी होगी.

बेटी : मरियम अब बड़ी हो गई थी

जब वह छोटी थी, तो मां यह कह कर उसे बहला दिया करती थी कि पापा परदेश में नौकरी कर रहे हैं और उस के लिए ढेर सारा पैसा ले कर आएंगे. लेकिन मरियम अब बड़ी हो गई थी और स्कूल जाने लगी थी.

एक बार मरियम ने मां से कहा, ‘‘मम्मी, न तो पापा खुद आते हैं, न ही कभी उन का फोन आता है. क्या वे हम से नाराज हैं?’’

मरियम के इस सवाल पर फिरदौस कहतीं, ‘‘नहीं बेटी, तुम्हारे पापा तो दुनिया में सब से अच्छे पापा हैं. वे हम लोगों से बहुत प्यार करते हैं, लेकिन वे जहां नौकरी करते हैं, वहां छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए आ नहीं पाते हैं.’’

मां की बातों से मरियम को तसल्ली तो मिल जाती, लेकिन पिता की याद कम नहीं हो पाती थी.

समय हवा के झोंके की तरह बीतता रहा. मरियम अब 5वीं जमात की एक समझदार बच्ची बन चुकी थी.

एक दिन स्कूल की छुट्टी के समय मरियम ने देखा कि उस के स्कूल की एक छात्रा सुमन ने दौड़ कर अपने पापा के गले से लिपट कर कहा कि आज हम पहले आइसक्रीम खाएंगे, उस के बाद घर जाएंगे.

यह देख कर मरियम को अपने पापा की याद बहुत आई. वह स्कूल से घर आई, तो बगैर कुछ खाएपीए सीधे अपने कमरे में जा कर लेट गई.

घर के काम निबटा कर फिरदौस मरियम के पास आ कर बैठ गईं और उस के काले खूबसूरत बालों में हाथ से कंघी करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज हमारी बेटी कुछ उदास लग रही है?’’

फिरदौस का इतना पूछना था कि मरियम फफक कर रो पड़ी, ‘‘मम्मी, आप मुझ से झूठ बोलती हैं न कि पापा दुबई में नौकरी करते हैं? अगर वे दुबई में हैं, तो फोन पर हम लोगों से बात क्यों नहीं करते हैं?’’

अब फिरदौस के लिए सचाई को छिपा कर रख पाना बहुत मुश्किल हो गया.

‘‘अच्छा, पहले तुम खाना खा लो. आज मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बता दूंगी,’’ कहते हुए फिरदौस मरियम के लिए खाना लेने चली गईं.

जब फिरदौस खाना ले कर कमरे आईं, तो मरियम ने उन से कहा, ‘‘मम्मी, आप को पापा के बारे में जोकुछ बताना है, बताती जाइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा इंजीनियर थे और दुबई में नौकरी करते थे. मैं भी उन्हीं के साथ रहती थी.’’

‘‘मम्मी, आप बारबार ‘थे’ शब्द का क्यों इस्तेमाल कर रही हैं? क्या पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं?’’ इतना कह कर वह रोने लगी.

‘‘नहीं बेटी, पापा जिंदा हैं.’’

मरियम तुरंत आंसू पोंछ कर चुप हो गई. उसे डर था कि कहीं मम्मी सचाई बताए बगैर चली न जाएं.

फिरदौस ने बात का सिलसिला फिर से शुरू करते हुए कहा, ‘‘12 साल पहले की बात है, जब तुम्हारे पापा और मैं दुबई से भारत आए थे. हम दोनों ही बहुत खुश थे, लेकिन हमें क्या पता था कि इस के बाद हम सब एक ऐसी मुसीबत में पड़ जाएंगे, जिस से छुटकारा पाना नामुमकिन हो जाएगा.’’

‘‘शहर में दंगा हो गया. हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे.

‘‘जैसेतैसे कर के जब फसाद थोड़ा थमा, तो हम दुबई जाने के लिए तैयार हो गए. यह भी एक अजीब इत्तिफाक था कि जिस दिन हमारी फ्लाइट थी, उसी दिन शहर में बम धमाके हो गए. इस में काफी लोगों की जानें चली गईं.

‘‘हम लोग दुबई तो पहुंच गए, लेकिन भारत से आने वाली हर खबर बड़ी संगीन थी. बम धमाकों के अपराधियों में तुम्हारे पापा का नाम भी आ रहा था.

‘‘तुम्हारे पापा को यह बात नामंजूर थी कि उन्हें कोई देशद्रोही या आतंकवादी समझे. उन्होंने किसी तरह भारत में रहने वाले अपने घरपरिवार और दोस्तों के जरीए पुलिस तक यह बात पहुंचाई कि वे बेकुसूर हैं और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए भारत आना चाहते हैं. कुछ दिनों के बाद तुम्हारे पापा भारत आ गए.

‘‘फिर वही हुआ, जिस का डर था. पुलिस ने हाथ आए तुम्हारे बेगुनाह मासूम पापा को उन बम धमाकों का मास्टरमाइंड बना कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया.

‘‘पिछले 12 सालों से तुम्हारे पापा जेल में हैं,’’ इतना कह कर फिरदौस फूटफूट कर रोने लगीं.

मरियम ने किसी संजीदा शख्स की तरह पूछा, ‘‘क्या मैं अपने पापा से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां बेटी, जरूर मिल सकती हो,’’ फिरदौस ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर रविवार को तुम्हारे पापा से मिलने जेल जाती हूं. अब तुम भी मेरे साथ चल सकती हो.’’

12 साल की बेटी जब सामने आई, तो शहजाद ने अपना चेहरा छिपा लिया. अपनी बेटी के सामने वे एक अपराधी की तरह जेल की सलाखों के पीछे खड़े हो कर जमीन में धंसे जा रहे थे.

‘‘पापा, क्या आप सचमुच अपराधी हैं?’’ मरियम के इस सवाल पर शहजाद घबरा गए.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा बेकुसूर हैं. उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है. बस, हालात ने जेल की सलाखों के पीछे ला कर खड़ा कर दिया है,’’ इतना कह कर शहजाद बेटी की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप निश्चिंत हो जाइए. चाहे सारी दुनिया आप को अपराधी समझे, पर बेटी की नजर में आप एक ईमानदार नागरिक और देशभक्त रहेंगे.’’

अब मरियम हर रविवार को अपने पापा से मिलने जेल जाने लगी. वह जब भी पापा से मिलने जाती, तो उन की पसंद की खाने की कोई न कोई चीज बना कर ले जाती और अपने हाथों से खिलाती.

बापबेटी की इस मुलाकात को 10 साल और गुजर गए. 22 साल की मरियम अब स्कूल से निकल कर कालेज में जाने लगी थी.

पिछले 10 सालों से जेल का पूरा स्टाफ पिता और बेटी का मुहब्बत भरा मेलमिलाप बड़े शौक से देखता चला आ रहा था.

शहजाद ने अपनी जिंदगी के 22 साल जेल में कुछ इस तरह बिता दिए कि दुश्मन भी दोस्त बन गए. अनपढ़ कैदियों को पढ़ाना, बीमार कैदियों की सेवा करना व जरूरतमंद कैदियों की मदद करने की आदत ने उन्हें जेल में मशहूर बना दिया था.

कानून अंधा होता है, यह सिर्फ कहावत ही नहीं, बल्कि सच भी है. वह उतना ही देखता है, जितना उसे दिखाया जाता है. कानून के रखवालों ने शहजाद को एक आतंकवादी बना कर पेश किया था. उन के खिलाफ जो तानाबाना बुना गया, वह इतना मजबूत था कि इस अपराध से छुटकारा पाना उन के लिए नामुमकिन हो गया.

वैसे भी जिस पर आतंकवाद का ठप्पा लग जाए, फिर उस की सुनता कौन है? शहजाद के साथ मुल्क के नामीगिरामी वकील थे, लेकिन सब मिल कर भी उन्हें बेगुनाह साबित करने में नाकाम रहे.

निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक ने मौत की सजा को बरकरार रखा. मरियम और फिरदौस की दया की अपील को राष्ट्रपति महोदय ने भी ठुकरा दिया. फांसी की तारीख तय हो गई.

सुबह 4 बजे शहजाद को फांसी दी जानी थी. मरियम और फिरदौस के साथ जेल के कैदी भी उदास थे.

फिरदौस और मरियम आखिरी दीदार के लिए शहजाद की कोठरी में भेजे गए. बेटी और बीवी को देख शहजाद की आंखों की वीरानी और बढ़ गई.

मरियम ने बाप की हालत देख कर कहा, ‘‘पापा, आप की मौत का हम लोग जश्न मनाएंगे. लीजिए, आखिरी बार बेटी के हाथ की बनी खीर खा लीजिए.’’

शहजाद एक फीकी मुसकराहट के साथ करीब आए, तो मरियम ने अपने हाथों से उन्हें खीर खिलाई.

2 चम्मच खीर खाने के बाद ही शहजाद का चेहरा जर्द पड़ने लगा. मुंह से खून की उलटी शुरू हो गई.

शहजाद को उलटी करते देख जहां फिरदौस घबरा गईं, वहीं मरियम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप की बेगुनाही तो साबित न करा सकी, लेकिन आप को फांसी से बचा लिया.

‘‘अब दुनिया यह न कह सकेगी कि आतंकवाद के अपराध में शहजाद को फांसी पर लटका दिया गया. आप को इज्जत की जिंदगी तो न मिल सकी, पर हां, इज्जत की मौत जरूर मिल गई.’’

फिरदौस की चीख सुन कर जब तक पहरेदार शहजाद की खबर लेते, तभी मरियम ने भी जहरीली खीर के 2 चम्मच खा लिए. जेल की उस काल कोठरी में अब 2 लाशें पड़ी थीं. एक को अदालत ने आतंकवादी होने की उपाधि दी थी, तो दूसरी को समाज ने आतंकवादी की बेटी करार दिया था. दोनों ही समाज और दुनिया से अब आजाद हो चुके थे.