20 ऑपरेशन ने बदसूरत औरत को बना दिया हसीन

जिंदगी से निराश हो चुकी ततजाना के 20 औपरेशन कर के डा. फेंज ने उस की जिंदगी संवारी ही नहीं बल्कि उस से शादी कर के उसे वह सब भी दिया, जिस की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. लेकिन ततजाना ने उन के इन अहसानों के बदले क्या दिया…   

तेज होती तालियों की गूंज उसे इस बात का अहसास करा रही थी कि वहमिस जर्मनीके खिताब की हकदार है. वैसे तो 100 से ज्यादा सुंदरियां प्रतियोगिता में भाग ले रही थीं, लेकिन उन में से कोई भी उस से ज्यादा सुंदर नहीं थी. उस ने चोर निगाहों से सब को देखा. हर निगाह उसी की खूबसूरती को निहार रही थी. उस की झील सी नीली आंखें, रेशम की तरह मुलायम गाल, गुलाब की पंखुडि़यों से नाजुक होंठ, जिसे कोई होंठों से भी छू ले तो निशान पड़ जाए. चेहरा ही क्या, अंगअंग का कोई जवाब नहीं था.

आखिरी राउंड पूरा हो चुका था. सभी दिल थामे जजों के फैसले के इंतजार में बैठे थे. सभी सुंदरियों के दिल धकधक कर रहे थे. तभी स्टेज से एक आवाज उभरी, ‘‘अब सभी अपना दिल थाम लें. इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं. इस सौंदर्य प्रतियोगिता में वैसे तो हर हसीना की खूबसूरती काबिलेतारीफ है, लेकिनमिस जर्मनीका ताज जिस के सिर की शोभा बनेगा, वह खूबसूरत होने के साथसाथ खुशनसीब भी है. उस खूबसूरत हसीना का नाम है, मिस ततजाना.’’

एक बार फिर हौल तालियों से गूंज उठा. मुसकान और अदाएं बिखेरती ततजाना आगे आई तो पूर्व मिस जर्मनी के हाथों में हीरों जडि़त ताज उस के माथे को चूमने को बेताब था. खुशी के आंसू छलक आए जब ततजाना के सिर पर ताज सजाया गया. होंठ थरथरा रहे थे उस के, लेकिन चाह कर भी जुबान नहीं खुल रही थी. तभी उस के कानों में आवाज पड़ी. ‘‘तत, आज कालेज नहीं जाना क्या? देखो, कितना समय हो गया है?’’

ततजाना की आंखें खुल गईं. वह जो खूबसूरत सपना देख रही थी, टूट गया. वह फुसफुसाई, ‘‘कुदरत ने तो मेरे साथ मजाक किया ही था, अब ख्वाब भी मेरी बदसूरती का उपहास उड़ाने लगे हैं.’’

एक लंबी आह भरी ततजाना ने. ‘काश! ख्वाब सच होता.’ लेकिन काश और हकीकत की लंबी दूरी आईने तक पहुंचते ही खत्म हो गई. आईना सच कह रहा था. कुदरत ने वाकई उस के साथ नाइंसाफी की थी. चेहरा तो बदसूरत था ही, शरीर भी लड़कों की तरह सपाट. उस की आंखों से आंसू टपक पड़े. उस ने एक बार फिर पहले कुदरत को कोसा और उस के बाद जननी को. वह इतनी बदसूरत थी तो जन्म देते ही मां ने उस का गला क्यों नहीं दबा दिया? मर जाती तो अच्छा रहता. उसे ये दिन देखने के लिए जिंदा क्यों रखा? कब तक वह इस बदसूरत शरीर का बोझ ढोती रहेगी?

ततजाना की कोई सहेली तक नहीं थी. चाहने वाले किसी लड़के की बात तो उस के लिए सपने जैसी थी. कालेज हो, कोई पार्टी हो या घर, हर जगह उस के साथ तनहाई ही रहती थी. बात यहीं तक रहती तो ठीक था, उस समय ततजाना का दिल रो उठता, जब कालेज में लड़केलड़कियां उस का मजाक उड़ाते. वह खून का घूंट पी कर रह जाती. उसे जिंदगी से कोफ्त होने लगती, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. मां अकसर समझाती रहती, ‘‘बेटा, सूरत ही सब कुछ नहीं होती, सीरत अच्छी होनी चाहिए.’’

‘‘सीरत कौन देखता है मां, पूरी दुनिया खूबसूरती की गुलाम है.’’ कह कर ततजाना सिसक उठती, ‘‘कोई विरला ही सीरत देखता है. लेकिन मेरे भाग्य में वह भी नहीं है. भाग्यशाली ही होती तो बदसूरत क्यों होती?’’

मां चुप हो जाती. सच्चाई उसे भी पता थी. उसे भी चिंता खाए जा रही थी कि कौन थामेगा बेटी का हाथ? जिंदगी में वह किसी की मोहताज रहे, यही सोच कर वह ततजाना को पढ़ाई के साथसाथ ब्यूटीशियन का भी कोर्स करवा रही थी. होश संभालने के बाद अखबार में छपे उस विज्ञापन को देख कर पहली बार उस के चेहरे पर उम्मीद की कुछ लकीरें उभरी थीं. वह विज्ञापन मशहूर प्लास्टिक सर्जन डा. फेंज जसेल का था. विज्ञापन के अनुसार, डा. फेंज पूरे यूरोप में विख्यात थे. उन्होंने अपने नरीम्बर्ग स्थितनरीम्बर्ग विला क्लीनिकमें जाने कितनों को नई जिंदगी दी थी प्लास्टिक सर्जरी कर के.

सन 1973 में जन्मी ततजाना 18 साल की हो गई थी. जब से वह समझदार हुई थी, बदसूरती को ले कर वह पूरी तरह निराश हो चुकी थी. लेकिन डा. फेंज का विज्ञापन पढ़ कर उस के मन में आशा की एक किरण जागी थी. कुदरत को चुनौती देने वाला कोई तो है इस धरती पर. लेकिन अगले ही पल उस की यह उम्मीद धूल में मिलती नजर आई, जब उसे खयाल आया कि डा. फेंज की फीस कितनी होगीवह शक्लसूरत ही नहीं, रुपयोंपैसों से भी गरीब थी. घर की हालत बस काम चलाऊ थी. वह इस से बेखबर नहीं थी. फिर भी खयाल आया कि एक बार मां से बात कर ले. लेकिन तुरंत ही इस खयाल को त्याग देना पड़ा, क्योंकि घर चलाने के लिए मां एक ड्राइविंग स्कूल चलाती थी. बाप भी सौतेला था, इसलिए उस से उम्मीद करना बेकार था.

बदसूरती ने वैसे तो ततजाना को तोड़ कर रख दिया था. एक तरह से जीवन से मोह खत्म सा हो गया था, इस के बावजूद आत्मविश्वास कहीं दबा बैठा था. वही ततजाना को हिम्मत दे रहा था. उस ने मां को दिल की बात बताई और बाम्बर्ग जहां वह रहती थी, उसे छोड़ कर जा पहुंची नरीम्बर्ग डा. फेंज जसेल की क्लीनिक. कारीगरी का बेहतरीन नमूना था नरीम्बर्ग विला. सफेद संगमरमर से बने भव्य महल में डा. फेंज का निवास और क्लीनिक दोनों थे. अपनी हैसियत देख कर ततजाना के पांव ठिठक रहे थे. किसी तरह साहस बटोर कर उस ने रिसेप्शन पर बैठी खूबसूरत रिसेप्शनिस्ट से डा. फेंज से मिलने का टाइम लिया. आशानिराशा में डूबती ततजाना सोफे पर बैठ गई. करीब आधे घंटे बाद उसे डा. फेंज से मिलने का मौका मिला. अधेड़ डा. फेंज के चेहरे पर जवानों सी ताजगी थी.

कहते हैं, अगर डाक्टर का व्यक्तित्व अच्छा हो तो मरीज इलाज से पहले ही आधा ठीक हो जाता है. ततजाना को कुछ ऐसा ही अहसास हुआ था. डा. फेंज जसेल ने उस की जांच के बाद कहा कि इलाज के बाद उस की खूबसूरती ऐसी निखर जाएगी कि देखते ही बनेगी. मगर इस के लिए उन्हें 20 औपरेशन करने पड़ेंगे और एक औपरेशन का खर्च 70 हजार डालर के करीब आएगा. इलाज का खर्च सुन कर ततजाना का खूबसूरत बन जाने का उत्साह तुरंत मायूसी में बदल गया. डा. फेंज ने उस के मन की बात भांप ली. उन्होंने कहा, ‘‘खर्च ज्यादा है, उठा नहीं पाओगी?’’

ततजाना कुछ कहती, उस के पहले ही डा. फेंज ने कुछ सोचते हुए गंभीरता से कहा, ‘‘इस का भी रास्ता है, अगर तुम चाहो तो…’’

नजर उठा कर ततजाना ने डा. फेंज को देखा. वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन जुबान चिपक सी गई. उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर डा. फेंज ने आगे कहा, ‘‘घबराने या मायूस होने की जरूरत नहीं है. बस, तुम्हें मेरे क्लीनिक में नौकरी करनी होगी. वेतन के बदले मैं तुम्हारी सर्जरी कर दूंगा.’’ अपना सपना साकार होता देख ततजाना की आंखों में खुशी के आंसू भर आए. गला भर्रा उठा और होंठ थरथराए, ‘‘मुझे मंजूर है.’’ ततजाना बस इतना ही कह पाई.

सन 1986 में ततजाना अपना घर छोड़ कर नरीम्बर्ग गई, एक नए जीवन की शुरुआत की उम्मीद ले कर. वह लगन से अपनी ड्यूटी करने लगी तो डा. फेंज ने उस के शरीर की सर्जरी शुरू कर दी. पहला औपरेशन उस के सपाट स्तनों का हुआ, जो कामयाब रहा. इस के बाद आंखों के पास नाक, गाल, ठोढी और गर्दन की सर्जरी हुईसन 1992 तक बीसों औपरेशन के बाद ततजाना का कायाकल्ल्प हो गया. इस बीच ततजाना का इलाज करतेकरते डा. फेंज कब उस की चाहत के मरीज बन गए, वह जान नहीं पाए. वह खुद हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया. वह हजारों युवतियों की सर्जरी कर चुके थे, लेकिन जो निखार ततजाना के शरीर में आया था, ऐसा किसी अन्य युवती के शरीर में उन्होंने अनुभव नहीं किया था.

अपनी सुंदरता देख कर ततजाना बेहद खुश थी. इस के बावजूद वह आईने का सामना करने से कतरा रही थी. इस दौरान डा. फेंज ने अनुभव किया था कि बदसूरती से उपजी हीनभावना की शिकार ततजाना आईने से केवल डरती है, बल्कि उस से नफरत करती है. इसीलिए इलाज के बाद वह उसे आदमकद आईने के सामने ले गए थे. ततजाना चाह कर भी आईने के सामने आंख नहीं खोल पा रही थी. खोलती भी कैसे, आखिर कितनी टीस दी थी इस आईने ने. डा. फेंज ने आगे बढ़ कर ततजाना का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘पलकें उठा कर तो देखो, आईना खुद शरमा रहा है तुम्हारी खूबसूरती को देख कर. देखो, यह कह भी रहा है, ‘मेरा जवाब तू है, तेरा जवाब कोई नहीं.’’’

डरते हुए ततजाना ने नजरें उठा कर देखा, वाकई वह हैरान रह गई थी. उस के अंधेरे अतीत की परछाई भी नहीं थी उस के चेहरे पर. उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस ने चेहरे को छू कर देखा. उस की नजरों में डा. फेंज के लिए एहसान और दिल में आदर तथा प्यार की तह सी जमी थी. वह अंजान तो नहीं थी. उसे अहसास हो गया था कि डा. फेंज के दिल में उस के लिए मोहब्बत का अंकुर फूट चुका है. लेकिन उस ने दिल की बात जुबान पर नहीं आने दी. वह ऐसा समय था, जब डा. फेंज अपनी शादीशुदा जिंदगी के नाजुक दौर से गुजर रहे थे. आखिर वह समय ही गया, जब पत्नी उन्हें तलाक दे कर अपने एकलौते बच्चे को ले कर सदा के लिए उन की जिंदगी से दूर चली गई

तनहाई के इस आलम में उन्हें ततजाना के प्यार के सहारे की जरूरत थी. लेकिन वह इजहार नहीं कर रहे थे. इसी तरह साल गुजर गया. दरअसल डा. फेंज जहां उम्र के ढलान पर थे, वहीं ततजाना यौवन की दहलीज पर कदम रख रही थी. वह 66 साल के थे, जबकि ततजाना मात्र 23 साल की थी. लेकिन यह भी सच है कि प्यार न सीमा देखता है न मजहब और न ही उम्र. एक दिन फेंज और ततजाना साथ बैठे कौफी पी रहे थे, तभी डा. फेंज ने कहा, ‘‘ततजाना, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. तुम्हारी इस खूबसूरती ने मुझे दीवाना बना दिया है.’’

‘‘यह खूबसूरती आप की ही दी हुई तो है. एक नई जिंदगी दी है आप ने मुझे. इसलिए इस पर पहला हक आप का ही बनता है.’’ ततजाना बोली.

 ‘‘नहीं ततजाना, मैं हक नहीं जताना चाहता. अगर दिल से स्वीकार करोगी, तभी मुझे स्वीकार होगा. मैं एहसानों का बदला लेने वालों में से नहीं हूं.’’ डा. फेंज ने कहा.

‘‘मैं इस बात को कैसे भूल सकती हूं कि आप ने मेरी अंधेरी जिंदगी को रोशनी से सराबोर किया है. आप की तनहाई में साथ छोड़ दूं, यह कैसे हो सकता है. इस तनहाई में आप मुझे तनमन से अपने नजदीक पाएंगे. आप यह समझें कि मैं यह बात एहसान का कर्ज अदा करने की गरज से नहीं, दिल से कह रही हूं.’’

सन 1999 में डा. फेंज से ततजाना ने विवाह कर लिया. शादी के बाद जहां डा. फेंज की तनहा जिंदगी में फिर से बहारें गईं, वहीं ततजाना भी एक काबिल और अरबपति पति की संगिनी बन कर खुद पर इतराने लगीअब सब कुछ था उस के पास. रहने को आलीशान महल, महंगी कारें, सोनेहीरों के गहने और कीमती लिबास. जिंदगी के मायने ही बदल गए थे उस के. अब वह बेशुमार दौलत की मालकिन थी. हाई सोसाइटियों में उसे तवज्जो मिल रही थी, जिस की उस ने कभी कल्पना तक नहीं की थी. ततजाना अपने जीवन की रंगीनियों में इस कद्र डूब गई कि अतीत की परछाई भी उस के पास नहीं फटक रही थी. डा. फेंज भी उस की खूबसूरती में खोए रहते थे. दोनों का 9 साल का दांपत्यजीवन कैसे गुजर गया, उन्हें पता ही नहीं चला. अचानक इस रिश्ते में तब दरार पड़ने लगी, जब ततजाना को तनहा छोड़ कर डा. फेंज अपने मरीजों में व्यस्त रहने लगे. बस यहीं से ततजाना के कदमों का रुख बदल गया.

उसी दौरान एक पार्टी में ततजाना की मुलाकात कारों के व्यापारी 60 वर्षीय हीलमुट बेकर से हुई. उस ने उस की आंखों में अपने प्रति चाहत देखी तो उस की ओर झुक गई. बेकर का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि ततजाना उस की ओर झुकती चली गई. मुलाकातों का दौर शुरू हुआ तो दोनों पर मोहब्बत का रंग चढ़ने लगा. जिस्मों के मिलन के बाद वह और निखर आया. अब ततजाना का अधिकतम समय बेकर की बांहों में गुजरने लगा. हद तो तब होने लगी, जब ततजाना डा. फेंज को अनदेखा कर के रातें भी बेकर के बिस्तर पर गुजारने लगी.

डा. फेंज सोच रहे थे कि ततजाना नादान है, राह भूल गई है. समझाने पर मान जाएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. एक रात डा. फेंज बेसब्री से ततजाना का इंतजार कर रहे थे. सारी रात बीत गई, ततजाना लौट कर नहीं आई. डा. फेंज ने कई संदेश भिजवाए लेकिन जवाब में बेरुखी ही मिली. इसी तरह एक साल गुजर गया. डा. फेंज ने यह तनहाई कैसे काटी, इस का सुबूत था उन का बिगड़ा दिमागी संतुलन. अगर हवा से खिड़कियों के परदे भी हिलते तो उन्हें लगता कि यह ततजाना के कदमों की आहट है. वह गई है. डा. फेंज 5 जनवरी, 2005 की सुबह अपनी क्लीनिक में अकेले ही खयालों में खोए बैठे थे. वह सोच रहे थे कि काश ततजाना जाती. अचानक खिड़की के शीशे जोर से खड़खड़ाए. शीशा टूट कर बाहर की तरफ गिर गया. घबरा कर उन्होंने उधर देखा तो 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. उन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे. डरेसहमे डा. फेंज ने ततजाना को फोन किया. घंटी बजती रही, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. तभी लगा, किसी ने खिड़की को ही उखाड़ दिया है

डर के मारे वह ऊपर की ओर भागे. कमरे में रखी बड़ी सी कुरसी पर 5-6 कंबल ओढ़ कर छिप गए. कदमों की आहट उन्हें साफ सुनाई दे रही थी, जो उन्हीं की ओर बढ़ रहे थे. सन्नाटे को चीरती हुई एक मर्दाना आवाज गूंजी, ‘‘डा. फेंज गनीमत इसी में है कि तुम जहां भी छिपे हो निकल आओ वरना हम तो तुम्हें ढूंढ ही लेंगे.’’

यह आवाज थमी नहीं कि दूसरी आवाज उभरी, ‘‘आज बच नहीं पाओगे डा. फेंज.’’  खौफ से डा. फेंज की नसों का खून जम सा गया. वह सांस खींचे दुबके रहे. तभी पहले वाली आवाज फिर गूंजी, ‘‘डा. फेंज, हमें बता दो कि तुम ने नकद राशि कहां छिपा रखी है? हम तुम्हारी जान बख्श देंगे.’’

कंबलों में हलचल सी हुई. डा. फेंज में जाने कहां से हिम्मत गई कि वह झटके से बाहर गए. 2 लोग उन्हें खोज रहे थे. उन्होंने फुर्ती से एक युवक का सिर पकड़ कर खिड़की की चौखट से दे मारा. चीख के साथ उस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा. दूसरा उन की ओर लपका. उस ने डा. फेंज की कलाई पकड़ कर फर्श पर गिरा दियाइस के बाद घसीटता हुआ दीवार तक ले गया और उन का सिर पकड़ कर जोर से दीवार से मारा. इसी के साथ उस के घायल साथी ने डा. फेंज पर कुल्हाड़ी से जोरदार वार सिर पर किया. बस, एक ही वार में हलकी सी चीख के साथ वह बेहोश हो गए. इस के बाद भी दोनों युवकों ने ताबड़तोड़ कई वार उन के सिर और सीने पर किए. उन्हें लगा कि डा. फेंज खत्म हो गए हैं, लेकिन यह उन का भ्रम था.

डा. फेंज की सांसें चल रही थीं. दोनों का अगला निशाना वहां रखी अलमारी थी. अलमारी के दरवाजे को कुल्हाड़ी से तोड़ कर उसे खंगाला तो उस में 5 हजार यूरो मिले, जिन्हें ले कर दोनों भाग खड़े हुए. उन के जाने के बाद घिसटघिसट कर डा. फेंज उस टेबल तक आए, जहां फोन रखा था. किसी तरह नंबर मिला कर उन्होंने पुलिस को कराहती आवाज में घटना की सूचना दी. 10 मिनट में टौप एक्शन पुलिस फोर्स वहां पहुंच गई. गंभीर रूप से घायल डा. फेंज को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. 11 सप्ताह तक जिंदगी और मौत से जूझते हुए डा. फेंज ने आखिर 26 मार्च, 2008 को दम तोड़ दिया.

पुलिस जांच में मिले सुबूत डा. फेंज की पत्नी ततजाना के दोषी होने का इशारा कर रहे थे. ततजाना को हिरासत में ले कर पूछताछ की गई. वह खुद को बेकुसूर बताती रही. उस का तर्क था कि एक साल से डा. फेंज से उस का कोई संबंध नहीं था. वह अपने प्रेमी हीलमुट बेकर के साथ रह रही थी. मगर उस की कोई भी दलील काम नहीं आई. मई, 2008 में अदालत के आदेश पर उसे डा. फेंज की हत्या और चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया. 16 महीने बर्लिन कोर्ट में यह मुकदमा चला. लेकिन सुबूतों और गवाहों के अभाव में अक्तूबर, 2009 को कोर्ट ने ततजाना को बेगुनाह करार देते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया.

कहा जाता है कि ततजाना को अपनी बदसूरती के चलते पहले जीवन से खास लगाव नहीं रहा था. लेकिन जब डा. फेंज ने 20 औपरेशन कर के उसे खूबसूरती का तोहफा दिया तो उस के अंदर की दम तोड़ चुकी महत्त्वाकांक्षाएं और हसरतें फिर से उमंगे भरने लगी थीं. इसी के चलते उस ने अपने से 44 साल बड़े डा. फेंज के प्यार को स्वीकार कर के शादी कर ली थी, क्योंकि डा. फेंज के पास अरबों डौलर की दौलत थी. पुलिस के अनुसार शादी के बाद 9 सालों तक ततजाना ने ऐश की जिंदगी बसर करते हुए अपने सभी अरमान पूरे कर लिए. इस के बाद उस का मन डा. फेंज से भर गया तो वह कार व्यापारी हीलमुट बेकर के पहलू में जा गिरी. वह उस के साथ एक साल रही, लेकिन डा. फेंज को उस ने तलाक नहीं दिया. शायद उस की निगाह डा. फेंज की बेशुमार दौलत पर थी. उस पर उस का कब्जा डा. फेंज की मौत के बाद ही हो सकता था. इसी वजह से उस ने डा. फेंज की हत्या पेशेवर हत्यारों से करवा दी थी. लेकिन सुबूतों के अभाव में वह निर्दोष मानी गई.

खैर, सच्चाई चाहे जो भी रही हो, जेल से रिहा होने के बाद ततजाना डा. फेंज की बेवा होने के नाते उस की 11 मिलियन यू.एस. डौलर की एकलौती वारिस हो गई. उस की जिंदगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी. पार्टीक्लबों में रात रंगीन करना, पुरुष मित्रों की बांहों में बांहें डाल कर डांस करना, महंगी कारों में घूमना और भोगविलास भरा जीवन उस की दिनचर्या में शुमार हो गया. एक हाईफाई पार्टी में ही ततजाना की मुलाकात नवंबर, 2011 में जर्मनी के सेक्सोनिया राज्य के आखिरी राजा 68 वर्षीय प्रिंस वौन हौमजोर्लन से हुई तो वह उस से दिल लगा बैठी. प्रिंस वौन भी उस की खूबसूरती और जवानी के ऐसे दीवाने हुए कि बस उसी के हो कर रह गए. दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन प्रिंस वौन की पत्नी और बच्चों के रहते यह संभव नहीं था. कहानी लिखे जाने तक ततजाना के प्यार में आकंठ डूबे प्रिंस वौन अपनी पत्नी से तलाक ले कर ततजाना से शादी करने का प्रयास कर रहे थे.

     

प्रेग्नेंट प्रेमिका ने बदला लेने के लिए प्रेमी की बेटी का काटा गला

शादीशुदा आदमी जब किसी अन्य लड़की या औरत के प्यार में पड़ता है तो उसे सब कुछ अच्छाअच्छा लगता है, लेकिन वह भूल जाता है कि इस सब का खामियाजा उसे उठाना पड़ेगा तो क्या होगा. संतोष के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. त्तर प्रदेश के जिला वाराणसी के रहने वाले भालचंद्र सरोज अपने परिवार के साथ महानगर मुंबई के तालुका वसई के उपनगर नालासोपारा की साईं अपर्णा बिल्डिंग में लगभग 30 सालों से रह रहे थे. अपनी रोजीरोटी के लिए उन्होंने उसी बिल्डिंग के परिसर में किराने की दुकान खोल ली थी.

परिवार में उन की पत्नी के अलावा एक बेटा संतोष सरोज था, जिस की शादी उन्होंने मालती नाम की लड़की से कर दी थी. संतोष की एक बेटी थी अंजलि. भालचंद्र सरोज का एक छोटा सा परिवार था, उन का जीवन हंसीखुशी के साथ व्यतीत हो रहा था. संतोष 10वीं जमात से आगे नहीं पढ़ सका था, इसलिए भालचंद्र ने उसे एक आटोरिक्शा खरीदवा दिया था. किराने की दुकान और आटो से जो कमाई होती थी, उस से उन की घरगृहस्थी आराम से चल रही थी.

अंजलि अपने मातापिता के अलावा दादादादी की भी लाडली थी. संतोष भले ही खुद नहीं पढ़लिख सका था, लेकिन बेटी को उच्चशिक्षा दिलाना चाहता था. इसीलिए उस ने अंजलि का दाखिला जानेमाने लोकमान्य तिलक इंगलिश स्कूल में करवा दिया था. परिवार में सब कुछ ठीकठाक चल रहा था. इसी दौरान एक ऐसी घटना घटी, जिस का दुख यह परिवार जिंदगी भर नहीं भुला सकेगा. बात 24 मार्च, 2018 की है. संतोष सरोज की 5 वर्षीय बेटी अंजलि हमेशा की तरह उस शाम 7 बजे बच्चों के साथ खेलने के लिए बिल्डिंग से नीचे आई तो फिर वह वापस नहीं लौटी. वह बच्चों के साथ कुछ देर तक तो अपने दादा भालचंद्र सरोज की दुकान के सामने खेलती रही. फिर वहां से खेलतेखेलते कहां गायब हो गई, किसी को पता नहीं चला.

जब वह 8 बजे तक वापस घर नहीं आई तो उस की मां मालती को उस की चिंता हुई. जिन बच्चों के साथ वह खेलने गई थी, मालती ने उन से पूछताछ की तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की. उसी दौरान संतोष घर लौटा तो मालती ने बेटी के गुम हो जाने की बात पति को बताते हुए उस का पता लगाने के लिए कहा. संतोष बिल्डिंग से उतरने के बाद अंजलि को इधरउधर ढूंढने लगा. वहीं पर उस के पिता की दुकान थी. वह पिता की दुकान पर पहुंचा और उन से अंजलि के बारे में पूछा. पोती के गायब होने की बात भालचंद्र को थोड़ी अजीब लगी. उन्होंने बताया कि कुछ देर पहले तक तो वह यहीं पर बच्चों के साथ खेल रही थी. इतनी देर में कहां चली गई.

उन्हें भी पोती की चिंता होने लगी. वह भी दुकान बंद कर के बेटे के साथ उसे ढूंढने के लिए निकल गए. संभावित जगहों पर तलाशने के बाद भी जब वह नहीं मिली तो उन की चिंता और बढ़ गई. अंजलि के गायब होने की बात जब पड़ोस के लोगों को पता चली तो वे भी उसे खोजने लगे. वहां आसपास खुले गटर और नालों को देखने के बाद भी अंजलि का कहीं पता नहीं चला. बेटी की चिंता में मां मालती की घबराहट बढ़ती जा रही थी. चैत्र नवरात्रि होने की वजह से लोग यह भी आशंका व्यक्त कर रहे थे कि कहीं उसे तंत्रमंत्र की क्रियाएं करने वालों ने तो गायब नहीं कर दिया.

सभी लोग अंजलि की खोजबीन कर के थक गए तो उन्होंने पुलिस की मदद लेने का फैसला किया. लिहाजा वे रात करीब 11 बजे तुलीज पुलिस थाने पहुंच गए. थानाप्रभारी किशोर खैरनार से मिल कर उन लोगों ने उन्हें सारी बातें बताईं और अंजलि की गुमशुदगी दर्ज करवा दी. अंजलि का सारा विवरण दे कर उन्होंने उस का पता लगाने का अनुरोध किया. थानाप्रभारी ने अंजलि का पता लगाने का आश्वासन दे कर उन्हें घर भेज दिया.

थाने से घर लौटे सरोज परिवार का मन अशांत था. उन का दिल अपनी मासूम बच्ची को देखने के लिए तड़प रहा था. वह रात उन के लिए किसी कालरात्रि से कम नहीं थी. सुबह होते ही संतोष सरोज का परिवार फिर से अंजलि की खोज में निकल गया. उन्होंने उस की गुमशुदगी के पैंफ्लेट छपवा कर रेलवे स्टेशनों के अलावा बसस्टैंड और सार्वजनिक जगहों पर लगवा दिए. उधर थानाप्रभारी किशोर खैरनार ने अंजलि की गुमशुदगी की जांच सहायक पीआई के.डी. कोल्हे को सौंप दी. के.डी. कोल्हे ने जब मामले पर गहराई से विचार किया, तो उन्हें लगा कि या तो बच्ची का फिरौती के लिए अपहरण किया गया है या फिर उसे किसी दुश्मनी या तंत्रमंत्र क्रिया के लिए उठा लिया गया है. 

उन्होंने सरोज परिवार से भी कह दिया कि यदि किसी का फिरौती मांगने के संबंध में फोन आए तो वह उस से प्यार से बात करें और इस की जानकारी पुलिस को जरूर दे दें. जांच के लिए पीआई के.डी. कोल्हे ने पुलिस की 6 टीमें तैयार कीं, जिस में उन्होंने एपीआई राकेश खासरकर, नितिन विचारे, शिवाजी पाटिल, एसआई भरत सांलुके, हैडकांस्टेबल सुरेश शिंदे, कांस्टेबल भास्कर कोठारी, महेश चह्वाण आदि को शामिल किया. सभी टीमें अलगअलग तरीके से मामले की जांच में जुट गईं. पुलिस ने अंजलि के फोटो सहित गुमशुदगी का संदेश अनेक वाट्सऐप गु्रप में भेजा और उसे अन्य लोगों को भी भेजने का अनुरोध किया. पीआई के.डी. कोल्हे दूसरे दिन अपनी जांच की कोई और रूपरेखा तैयार करते, इस के पहले ही उन्हें स्तब्ध कर देने वाली एक खबर मिली

खबर गुजरात के नवसारी रेलवे पुलिस की तरफ से आई थी. रेलवे पुलिस ने मुंबई पुलिस को बताया कि जिस बच्ची की उन्हें तलाश है, वह बच्ची मृत अवस्था में नवसारी रेलवे स्टेशन के बाथरूम में पड़ी मिली है. किसी ने गला काट कर उस की हत्या की है. सूचना मिलते ही पुलिस की एक टीम अंजलि के परिवार वालों को ले कर तुरंत नवसारी रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गई. नवसारी रेलवे पुलिस ने जब संतोष सरोज और उस के परिवार वालों को बच्ची की लाश दिखाई तो वे सभी दहाड़ मार कर रोने लगे, क्योंकि वह लाश अंजलि की ही थी.

जरूरी काररवाई पूरी कर के मुंबई पुलिस बच्ची के शव को अपने कब्जे में ले कर मुंबई लौट आई और उसे पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल भेज दिया. इधर जब अंजलि की हत्या की बात उस बिल्डिंग और आसपड़ोस के रहने वालों को पता लगी तो लोगों में आक्रोश फूट पड़ा. देखते ही देखते पुलिस स्टेशन के सामने हजारों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ पुलिस के खिलाफ नारेबाजी करने लगी. भीड़ तब तक शांत नहीं हुई, जब तक एसएसपी राजतिलक रोशन, एसपी मंजुनाथ शिंगे और एएसपी जयंत वंजवले ने पुलिस थाने कर 24 घंटे के अंदर हत्यारे को गिरफ्तार करने का आश्वासन नहीं दिया.

मामले को तूल पकड़ते देख पुलिस के बड़े अधिकारियों की आंखों से नींद गायब हो गई थी. उन्होंने जांच टीम को शीघ्र से शीघ्र अंजलि के हत्यारों को गिरफ्तार करने का निर्देश दिए. पुलिस टीम ने अंजलि के परिवार और आसपास के लोगों से गहराई से पूछताछ करने के अलावा इलाके में लगे सभी सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी खंगाली. लोकमान्य तिलक स्कूल के एक सीसीटीवी कैमरे की फुटेज में अंजलि एक महिला के साथ नालासोपारा स्टेशन की तरफ जाते हुए दिखाई दी. वह महिला कौन थी और कहां से आई थी, यह जानने के लिए पुलिस टीम ने उस का स्केच बनवा कर जब मामले की जांच की तो पता चला कि वह महिला कई बार अंजलि के स्कूल और उस के घर साईं अपर्णा बिल्डिंग के आसपास संदिग्ध अवस्था में दिखाई दी थी. जिस दिन अंजलि गायब हुई थी, उस दिन भी वह बिल्डिंग परिसर में आई थी

पुलिस जांच का चक्र तेजी से घूम रहा था. उस महिला का स्केच पूरे शहर में चिपकवाने के अलावा जनपद के सभी पुलिस थानों को भी भेज दिया गया. इस के अलावा स्केच अंजलि के पिता संतोष सरोज को भी दिखाया गया. स्केच देखते ही संतोष ने अपना सिर पीट लिया. उस ने कहा कि यह तो उस की प्रेमिका है. पुलिस ने संतोष को सीसीटीवी कैमरे में अंजलि के साथ जाने वाली उस महिला की फुटेज दिखाई तो संतोष ने कहा कि यह उस की प्रेमिका अनीता वाघेला है और यह नालासोपारा (पूर्व) के नगीनदास पाड़ा इलाके में रहती है. बिना देर किए पुलिस टीम अनीता के घर पहुंच गई. वह घर पर ही मिल गई. पुलिस उसे हिरासत में ले कर थाने लौट आई. पुलिस ने जब उस से अंजलि की हत्या के बारे में पूछताछ की तो उस ने आसानी से अपना जुर्म स्वीकार कर लिया. अनीता से पूछताछ के बाद अंजलि की हत्या की जो कहानी सामने आई, वह प्यार में चोट खाई नागिन के प्रतिशोध वाली निकली

22 साल की अनीता का रंग हालांकि बहुत साफ नहीं था, लेकिन कुदरत ने उसे कुछ इस तरह गढ़ा था कि जो भी उसे देखता, देखता ही रह जाता था. सांवले सौंदर्य की मालकिन अनीता के जिस्म की कसावट और फिगर देख मनचले गहरी सांसें लेते हुए फिकरे कसते थे. इस के अलावा अनीता खुले विचारों वाली महत्त्वाकांक्षी युवती थी. आमतौर पर अनीता जैसी महत्त्वाकांक्षी युवतियां जो सपने देखती हैं, उन्हें किसी भी कीमत पर या कोई भी जोखिम उठा कर पूरा करने की कोशिश करती हैं. यह अलग बात है कि इस के लिए उन्हें जो कीमत चुकानी पड़ती है, वह कभीकभी भारी पड़ जाती है. तब उन के पास हाथ मलने और अपनी नादानियों पर पछताने के सिवा कुछ नहीं रह जाता. यही हाल अनीता का हुआ था. वह आंख मूंद कर संतोष सरोज पर भरोसा कर के प्यार करने की भूल कर बैठी थी.

मूलरूप से गुजरात की रहने वाली अनीता वाघेला अपने मातापिता और भाईबहनों के साथ नालासोपारा (पूर्व) के नगीनदास पाड़ा इलाके में रहती थी. वह अपने और परिवार के लिए कैटरिंग का काम किया करती थी. उस की और संतोष सरोज की मुलाकात करीब 7 साल पहले नगीनदास पाड़ा के आटो स्टैंड पर हुई थीउस दिन वह अपने काम पर जाने के लिए काफी लेट हो रही थी. तब वह अपनी मंजिल तक संतोष के आटोरिक्शा से पहुंची थी. अनीता आटो से उतर कर चली तो गई लेकिन उस की शोख चंचल निगाहें, मुसकराता चेहरा संतोष के दिमाग में ही घूमता रह गया. उस की पहली ही झलक में संतोष अपना होशोहवास खो बैठा था, यह जानते हुए भी कि वह एक शादीशुदा और एक बच्ची का बाप है

लेकिन वह यह सब भूल कर अनीता का सामीप्य पाना चाहता था. इस के लिए वह अकसर नगीनदास पाड़ा के आटो स्टैंड पर अनीता के आने का इंतजार करता था. वह दिख जाती तो वह मुसकराते हुए उस से अपने आटो में चलने की बात कहता. अनीता को तो किसी किसी आटो से जाना ही था, लिहाजा वह संतोष के आग्रह पर उस के ही आटो में बैठ जाती. 2-4 बार संतोष के आटो से आनेजाने के बाद अनीता और संतोष के बीच बातों का सिलसिला शुरू हो गया. स्वयं को अविवाहित बता कर उस ने अनीता को अपने प्रभाव में ले लिया. बातों और मिलने का सिलसिला शुरू हो गया तो दोनों एकदूसरे के करीब गए. जब भी अनीता को संतोष के साथ कहीं घूमने के लिए जाना होता तो वह संतोष को बेझिझक फोन कर बुला लेती. इस तरह दोनों में गहरी दोस्ती हो गई.

दोस्ती का दायरा बढ़ा तो अनीता के मन में संतोष के प्रति प्यार का अंकुर फूट पड़ा. वह सरोज को अपने मनमंदिर में बैठा कर गृहस्थ जीवन के सुंदर सपने देखने लगी. जिस का संतोष ने भरपूर फायदा उठाया.  उस ने अनीता को शादी का लालच दे कर उस का अपनी पत्नी की तरह इस्तेमाल किया. 7 सालों में अनीता 2 बार गर्भवती भी हुई. लेकिन संतोष ने अपनी कोई न कोई मजबूरी बता कर उस का गर्भपात करवा दिया था. 7 सालों का समय कुछ कम नहीं होता. संतोष और अनीता के संबंधों की सारी जानकारी उस के परिवार वालों को हो चुकी थी. वे लोग अब उस पर शादी करने का दबाव बनाने लगे थे. अनीता भी अब और ज्यादा इंतजार नहीं करना चाहती थी. 

वह भी अपने और संतोष के प्यार को रिश्ते का नाम देने के लिए दबाव बनाए हुए थी. वह उस से शादी कर के अपना एक घर बनाना चाहती थी. इस से संतोष की परेशानी बढ़ गई थीसंतोष शादीशुदा और एक बच्ची का बाप था. वह अनीता की वजह से अपने परिवार की शांति भंग नहीं करना चाहता था. लेकिन जब पानी संतोष के गले तक गया तो मजबूरन उसे अनीता के सामने अपना मुंह खोलना पड़ा. अनीता को एक अच्छे माहौल में ले जा कर उस ने अपने शादीशुदा होने की बात बता दीउस ने कहा कि उस की शादी गांव और जाति के रस्मोरिवाज से बचपन में ही हो गई थी और अब वह एक बच्ची का पिता भी है

ऐसे में अगर वह दूसरी शादी करेगा तो उस की ब्याहता का क्या होगा. उस ने साफ कह दिया कि अब वह दूसरी शादी नहीं कर सकता. लेकिन वह चाहे तो उस के साथ जीवन भर रह सकती है. उसे किसी भी तरह की परेशानी नहीं होने देगा. यह जान कर अनीता सन्न रह गई. उसे लगा कि उस के ऊपर कोई पहाड़ गिर पड़ा. उसे लगा कि मानो उस का अस्तित्व ही खत्म हो गया. कुछ समय के लिए तो वह एक मूर्ति जैसी बन गई, लेकिन जब होश आया तो वह पागल सी हो गई थी. उस दिन अनीता और संतोष के बीच काफी कहासुनी और लड़ाईझगड़ा हुआ था. संतोष की इस बात से अनीता काफी आहत हुई थी. उस के दिल में संतोष के प्रति नफरत हो गई. जाहिर सी बात है कोई भी लड़की तलाकशुदा या विधवा हो कर रह सकती है, लेकिन रखैल बन कर रहना पसंद नहीं करेगी. 

काफी सोचनेविचारने के बाद अनीता ने यह तय किया कि बच्चे और प्यार का गम क्या होता है, अब वह संतोष को समझाएगी. जिस तरह से उस ने उस के 2-2 बच्चों का खून किया था, उस का बदला वह उसी तरह से चुकाएगी. तब उसे यह एहसास होगा कि बच्चा चाहे गर्भ में हो या गर्भ से बाहर, उसे खोने में कितना दर्द होता है. अनीता ने संतोष की बेटी अंजलि के प्रति एक खतरनाक योजना बना कर उस के घर और स्कूल का पता लगा लिया और उस की अच्छी तरह रेकी की. पहले उस की योजना अंजलि को स्कूल से उठाने की थी, लेकिन स्कूल की चाकचौबंद सुरक्षा और अकसर मां के साथ होने के कारण उस का प्लान सफल नहीं हो सका. 

इस के बाद उस ने संतोष के घर के पास से ही अंजलि को उठा लिया था. अंजलि को उठाने के पहले वह उस जगह पर कर बैठ जाती थी, जहां अंजलि बच्चों के साथ खेला करती थी. मौका देख कर वह अंजलि को अपने पास बुला कर टौफी और चौकलेट दिया करती थी. 2-4 दिनों में जब अंजलि उस के काफी करीब गई तो वह उसे अपनी मीठीमीठी बातों में बहला कर अपने साथ ले कर चली गई. अंजलि को पहले वह लोकमान्य तिलक स्कूल तक पैदल ले कर आई. फिर आटोरिक्शा से नालासोपारा रेलवे स्टेशन ले गई. वारदात को अंजाम देने के लिए उस ने अपने पास चाकू रख लिया थानालासोपारा स्टेशन से बोरीवली स्टेशन और फिर वहां से एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ कर वह गुजरात के नवसारी रेलवे स्टेशन पहुंची. वहां मौका देख कर वह अंजलि को बाथरूम में ले गई और उस 5 वर्षीय बच्ची का गला काट कर हत्या कर दी.

अपने इंतकाम का बदला लेने के बाद अनीता सुबह की गाड़ी से अपने घर लौट आई थी. वह निश्चिंत थी कि पुलिस उस के पास तक नहीं पहुंच सकेगी. लेकिन पुलिस उस तक पहुंच ही गई. अनीता वाघेला से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने उस के विरुद्ध भादंवि की धारा 302, 362 के तहत मुकदमा दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया, जहां से उसे तलोजा जेल भेज दिया गया. अंजलि सरोज की हत्या की कहानी जब लोगों के सामने आई तो उस के परिवार वालों को तो क्या पूरे इलाके के लोगों को एक धक्का सा लगा. एक मासूम बच्ची अपने पिता के इश्क की भेंट चढ़ गई थी.

कथा लिखे जाने तक अनीता वाघेला जेल में बंद थी. आगे की जांच पीआई के.डी. कोल्हे कर रहे थे.   

  

सीआरपीएफ में नौकरी लगने पर दिया गर्लफ्रेंड को धोखा

Love Crime : आलोक भारती ने रिंकी कुमारी से शादी का वादा कर के उस का सब कुछ लूट लिया. लेकिन जैसे ही उस की नौकरी सीआरपीएफ में लगी, शादी करने की कौन कहे उसे पहचानने से भी मना कर दिया. बिहार  (Bihar) के जिला अरवल के थाना कुर्था के गांव निगवां के रहने वाले फागूदास की 9 संतानों में रिंकी कुमारी बचपन से ही अपने बहनभाइयों में सब से अलग थी. देश के कई राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार के ऐसे तमाम ग्रामीण इलाके हैं, जहां आज भी पिछड़ी जातियों में बालविवाह होता है. इस बालविवाह के पीछे इन रूढि़वादियों का सोचना है कि अगर उन्होंने अपनी कन्या का विवाह (दान) रजस्वला होने से पहले कर दिया तो बहुत बड़ी पुण्य होगी. इसी पुण्य की लालसा में वे अपनी नादान बेटियों का भविष्य यानी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं. जबकि उन लड़कियों को सही मायने में शादी का पता भी नहीं होता.

फागूदास की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी भले नहीं थी, लेकिन इतनी खराब भी नहीं थी कि उन्हें किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ता. उन का गुजरबसर आराम से हो रहा था. बड़े हो कर बेटे पिता की मदद करने लगे तो फागूदास की आर्थिक स्थिति में और भी सुधार गया. फागूदास जिस जाति के थे, उस जाति में बेटियों की शादी कमउम्र में ही कर दी जाती थी. लड़की की पसंद और नापसंद का कोई मतलब नहीं था. जो कुछ करना होता था, मांबाप अपनी मर्जी से करते थे. रिंकी कुमारी 10-11 साल की हुई नहीं कि फागूदास ने तय कर लिया कि वह रिंकी की शादी उस के रजस्वला होने से पहले ही कर के पुण्य का लाभ कमा लेंगे. उन्होंने रिंकी के लिए लड़के की तलाश भी शुरू कर दी. थोड़ी भागदौड़ के बाद उन्हें रिंकी के लिए घरवर मिल गया. लड़का पड़ोसी जिला जहानाबाद के प्रखंड शर्कुराबाद के गांव रतनी फरीदपुर के रहने वाले विघ्नेश्वरदास का 23 वर्षीय बेटा अशोकदास था. बातचीत के बाद शादी तय हो गई. लेकिन शादी की तारीख उन्होंने पूरे एक साल बाद रखी.

रिंकी की शादी तय होने के बाद फागूदास तैयारी में जुट गया. एकएक दिन कर के समय बीत रहा था. रिंकी पूरे 12 साल की हो गई. महीने भर बाद ही उस की शादी होने वाली थी. लेकिन संयोग देखो, जिस पुण्य की लालसा में फागूदास नाबालिग बेटी की शादी दोगुनी उम्र के लड़के से कर रहा था, उस की यह लालसा पूरी नहीं हो सकी. विवाह के महीना भर पहले रिंकी 12 साल की उम्र में ही रजस्वला हो गई. रिंकी की मां ने जब फागूदास को बेटी के रजस्वला होने की बात बताई तो वह अपने भाग्य को कोसने लगा. लेकिन कुदरत पर इंसान का कोई वश नहीं है, इसलिए फागूदास भी सिर पीट कर रह गया.

बुझे मन से ही सही, फागूदास ने भाग्य को कोसते हुए पहले से तय तारीख पर रिंकी की शादी उस से दोगुनी उम्र के मैट्रिक पास अशोकदास के साथ कर दी. फागूदास ने रिंकी की शादी तो कर दी थी, लेकिन विदा नहीं किया था. इसलिए मांबाप के यहां रहते हुए रिंकी आगे की पढ़ाई करने लगी. वह गांव के ही मिडिल स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी. शादी के साल भर बाद सन 2000 में वादे के अनुसार फागूदास ने रिंकी को विदा कर दिया. रिंकी कुमारी विदा हो कर ससुराल पहुंची तो उस समय उस की उम्र 14 साल कुछ महीने थी. लगभग महीने भर ससुराल में रह कर रिंकी गई. रिंकी की पढ़ाई में रुचि थी, इसलिए शादी के समय ही उस ने कह दिया था कि वह अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ेगी. यही वजह थी कि शादी के बाद भी उस ने पढ़ाई जारी रखी. वह ग्रैजुएशन कर के कुछ करना चाहती थी. 

ससुराल वालों की रजामंदी से रिंकी कुमारी ने गांव से इंटरमीडिएट कर के आगे की पढ़ाई के लिए जहानाबाद के अपने एक रिश्तेदार की मदद से जहानाबाद के मुरलीधर उच्च महाविद्यालय में दाखिला ले लिया. रिंकी ने बीए फर्स्ट ईयर की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास की. इस के बाद उस का पति अशोक उसे अपने साथ कोलकाता ले कर चला गया. वहां वह किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. 2 सालों तक वह पति के साथ कोलकाता में रही. इस बीच वह 1-2 बार ही जहानाबाद आई. जिस समय रिंकी कुमारी की शादी अशोकदास से हुई थी, उस समय वह बेरोजगार था. घरगृहस्थी की सारी जिम्मेदारी रिंकी के ससुर विघ्नेश्वरदास के कंधों पर थी. यही वजह थी कि शादी के बाद भी रिंकी ने पढ़ाई जारी रखी थी.

उस का सोचना था कि युवा और हट्टाकट्टा हो कर भी उस का पति कुछ नहीं करता तो अपनी जरूरतों के लिए वह कब तक सासससुर और मांबाप का मुंह ताकती रहेगी. यही वजह थी कि रिंकी ने सोच लिया था कि जैसे भी हो, वह पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनने (अपने पैरों पर खड़े होने) का प्रयास करेगी. मैट्रिक तक पढ़े उस के पति अशोकदास को सरकारी नौकरी तो मिल नहीं सकती थी. कोई छोटामोटा काम वह करना नहीं चाहता था. इसलिए जब उसे कोलकाता में नौकरी मिली तो उसे वह नौकरी मनमाफिक लगी, जिस से वह वहां चला गया था. कुछ दिनों बाद उस ने रिंकी को भी वहीं बुला लिया था. लेकिन वहां जा कर जल्दी ही रिंकी को लगने लगा कि जैसा कुछ उस ने सोचा था, वैसा यहां भी नहीं है.

उस ने सोचा था कि अब तो पति की नौकरी लग ही गई है, इसलिए अब वह अपनी मनमरजी का खर्च कर सकेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि अभी भी उसे अपनी कुछ खास जरूरतों के लिए दूसरों के सामने ही हाथ फैलाना पड़ रहा है. दरअसल, रिंकी कुमारी को जब पति की नौकरी के बारे में पता चला था तो उसे लगा था कि अब उसे अपनी छोटीमोटी जरूरतों के लिए मांबाप या सासससुर के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा. लेकिन जल्दी ही रिंकी का यह भ्रम टूट गया. क्योंकि अशोकदास खानेकपड़े के अलावा उस की अन्य जरूरतों के लिए पैसे नहीं देता था. 

कभी वह कोई सामान लेने की जिद करती तो अशोक उसे दिलाने के बजाय समझाबुझा कर सामान लेने से मना कर देता. अगर इस पर रिंकी मानती तो वह डांटफटकार कर या मारपीट कर उसे शांत करा देता. रिंकी ने जब भी अशोक से यह जानना चाहा कि उसे वेतन कितना मिलता है तो बताने के बजाए वह टाल देता. वह उसे यह कह कर चुप करा देता कि पति कितना कमाता है, पत्नी को इस सब से क्या मतलब. उसे अपने खानेकपडे़ से मतलब होना चाहिए. उसे यह सब मिल ही रहा है. अशोक की इन बातों से रिंकी ने महसूस किया कि नौकरी लगने के बाद उस में काफी बदलाव गया है. वह उस के साथ पति जैसा व्यवहार कर के अपने दायित्वों से भाग रहा है.

रिंकी को लगता था कि अशोक उस की उपेक्षा करने के साथ उस का शारीरिक और मानसिक शोषण भी करने लगा है. रिंकी के लिए जब यह सब बरदाश्त से बाहर होने लगा तो अपने पैरों पर खड़ी होने का निर्णय ले कर वह कोलकाता से अपनी ससुराल जहानाबाद आ गई. रिंकी को पता था कि उस के ससुर विघ्नेश्वरदास की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. अब उन का स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा था. इसलिए वह स्वयं ही कुछ करने के बारे में सोचने लगी. पहले तो उस ने दलितों के लिए सरकार से मिलने वाले लाभ के बारे में पता किया. इस के बाद उस ने जहानाबाद के अपने उसी रिश्तेदार की मदद से इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत मिलने वाले आवास के लिए आवेदन किया. महादलित समाज की गरीब महिला होने की वजह से रिंकी को जल्दी ही इंदिरा आवास योजना के तहत एक घर मिल गया.

इंदिरा आवास योजना के तहत रिंकी कुमारी को घर मिलने की जानकारी कोलकाता में रह रहे अशोक को हुई तो यह बात उसे अच्छी नहीं लगी. इस की वजह यह थी कि वह घर रिंकी ने अपने नाम से एलाट कराया था. उस का कहना था कि उसे यह मकान पिता विघ्नेश्वरदास या फिर उस के नाम से एलाट कराना चाहिए था. इस बात को ले कर पतिपत्नी में तकरार भी हुई. इसी के बाद दोनों में दूरियां बढ़ने लगीं, जो समय के साथ बढ़ती ही गईं. फिर एक समय ऐसा भी गया कि रिंकी कुमारी पति के साथ एक पल भी रहना नहीं चाहती थी. उस ने तय कर लिया कि अब वह अशोक के साथ कोई संबंध नहीं रखेगी. यह निर्णय लेने के बाद उस ने पंचायत और कुछ खास रिश्तेदारों की मौजूदगी में अशोक से संबंध खत्म कर लिए. इस तरह रिंकी कुमारी अशोक के बंधन से आजाद हो गई.

पति और ससुराल से संबंध खत्म होने के बाद रिंकी कुमारी कभी मायके में तो कभी इंदिरा आवास योजना के तहत मिले अपने घर में रहने लगी. रिंकी के ये संघर्षों भरे दिन थे. उस के इस संघर्ष में जहानाबाद के उस रिश्तेदार ने उस की पूरी मदद की. उसी ने रिंकी को सुझाव दिया कि अगर वह नर्स की टे्रनिंग कर ले तो भविष्य में उसे खर्च की कोई दिक्कत नहीं रहेगी. अपने रिश्तेदार की सलाह पर रिंकी कुमारी ने दौड़धूप की तो जहानाबाद के राजाबाजार के नया टोला की विंध्यवासिनी मार्केट स्थित मंजू सिन्हा के नर्सिंग होम में उसे प्रशिक्षु नर्स की नौकरी मिल गई.

रिंकी कुमारी जिस नर्सिंग होम में काम करती थी, उसी के सामने स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करने वाले सुनील कुमार चौधरी का 2 मंजिला मकान था. उन की नियुक्ति तो अरवल में थी, लेकिन उन का परिवार जहानाबाद के अपने इसी मकान में रहता था. उन के परिवार में श्रीमती रीता देवी के अलावा 4 बेटियां और 2 बेटे थे. बेटियों में सब से बड़ी बेटी का विवाह हो चुका था. बड़े बेटे 24 वर्षीय आलोक भारती ने ग्रैजुएशन पूरा कर लिया तो सुनील ने उसे बीएचयू से मास कम्युनिकेशन (मास मीडिया) का कोर्स करने के लिए वाराणसी भेज दिया.

आलोक का छोटा भाई मूकबधिर था, इसलिए सुनील कुमार की सारी उम्मीदें आलोक पर ही टिकी थीं. उन पर अभी 3 बेटियों की शादी की भी जिम्मेदारी थी, इसलिए वह चाहते थे कि बेटा पढ़ाई पूरी कर के कहीं नौकरी से लग जाए तो उन की जिम्मेदारी में मदद मिलेगी. लेकिन दुर्भाग्य से आलोक की नौकरी नहीं लग पाई. शायद इस की एक वजह यह भी थी कि वह खुद भी नौकरी के लिए गंभीर नहीं था. बाप के पास पैसा तो था ही, उन पैसे से वह दोस्तों के साथ मटरगश्ती कर रहा था.

आलोक भारती का घर नर्सिंग होम के ठीक सामने था, इसलिए उस की छत से नर्सिंग होम की सारी गतिविधियां दिखाई देती थीं. आलोक जब भी खाली होता, छत पर जा कर नर्सिंग होम की ओर ताकता रहता. इसी ताकझांक में आलोक ने रिंकी कुमारी में ऐसा न जाने क्या देखा कि वह उस की ओर आकर्षित होने लगा. जल्दी ही उस की हालत यह हो गई कि दिन भर में जब तक वह उसे 2-4 बार देख नहीं लेता, उसे चैन नहीं मिलता. बेचैनी ज्यादा बढ़ी तो आलोक ने निर्णय लिया कि छुट्टी के बाद जब रिंकी नर्सिंग होम से घर जाने लगेगी तो उस से मिल कर वह अपने दिल की बात कहेगा.

आलोक ने निर्णय ही नहीं लिया, बल्कि शाम को अपनी ड्यूटी पूरी कर के रिंकी घर जाने के लिए नर्सिंग होम से निकली तो उस ने थोड़ा आगे बढ़ कर जहां एकांत था, रिंकी को रोक कर कहा, ‘‘जहां तक मुझे लगता है कि आप मुझे जरूर पहचानती होंगी, क्योंकि मेरा घर आप के नर्सिंग होम के ठीक सामने है?’’

आलोक का इस तरह बीच रास्ते में रोक कर बातें करना रिंकी कुमारी को अटपटा सा लगा. फिर भी उस ने जवाब में कहा, ‘‘हां, मैं ने आप को सामने वाले घर की छत पर कई बार खड़े देखा है.’’

 ‘‘मैं आप को पसंद करता हूं, इसलिए आप से दोस्ती करना चाहता हूं. उम्मीद है कि आप को मुझ से दोस्ती करने में ऐतराज नहीं होगा.’’ आलोक ने अपने मन की बात कह दी.

आलोक ने जैसे ही अपनी बात पूरी की, रिंकी कुमारी ने तुरंत जवाब में कहा, ‘‘मुझे यह नहीं पता कि आप मुझ से दोस्ती क्यों करना चाहते हैं? लेकिन मैं आप को बता दूं कि मेरे पास आप से दोस्ती करने का समय बिलकुल नहीं है. नर्सिंग होम की ड्यूटी करने के बाद थकीमांदी अपने कमरे पर पहुंचती हूं तो खाना बनाने में लग जाती हूं. बनातेखाते ही रात 11 बज जाते हैं. उस के बाद सो जाती हूं. सुबह 8 बजे ड्यूटी पर आना होता है, इसलिए जल्दी उठना पड़ता है. क्योंकि सुबह भी नाश्ताखाना बनाना होता है. ऐसे में मेरे पास दोस्ती का समय कहां है?’’

आलोक ने रिंकी कुमारी को मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन रिंकी आलोक के मनसूबों पर पानी फेरते हुए दो टूक जवाब दे कर आगे बढ़ गई. हताशनिराश आलोक उसे जाते हुए तब तक देखता रहा, जब तक वह उस की आंखों से ओझल नहीं हो गई. कोई सुनसान सड़क या गली होती तो शायद आलोक उस का पीछा कर के बात करने की कोशिश करता. लेकिन भीड़भाड़ वाली सड़क होने की वजह से पीछा नहीं कर सका. क्योंकि अगर वह शोर मचा देती तो बेकार ही उसे तमाशा बनना पड़ता.

रिंकी ने भले ही आलोक से दोस्ती के लिए मना कर दिया था, लेकिन आलोक निराश नहीं हुआ था. अब वह रोजाना नर्सिंग होम के गेट पर खड़े हो कर रिंकी का इंतजार करने लगा. लेकिन रिंकी उस की ओर देखे बगैर आगे बढ़ जाती थी. रिंकी की यह बेरुखी उसे काफी पीड़ा पहुंचा रही थी. जब काफी दिन गुजर गए और रिंकी ने उसे लिफ्ट नहीं दी तो रिंकी को अपने जाल में फांसने के लिए उस ने एक योजना बना डाली. डिलीवरी के केस के चलते एक दिन रिंकी कुमारी नर्सिंग होम से कुछ देर से निकली. देर हो जाने की वजह से उस का खाना बनाने का मन नहीं हो रहा था, इसलिए रास्ते में पड़ने वाले एक होटल में उस ने खाना खाया. इस तरह उसे और देर हो गई.

काम की अधिकता की वजह से वह काफी थक गई थी, इसलिए कमरे पर पहुंच कर उस ने कपड़े बदले और आराम करने के लिए लेट गई. लेटते ही उस की आंखें बंद होने लगीं. तभी उस के कानों में दरवाजा थपथपाने की आवाज पड़ी. अर्द्धनिद्रा में वह थी ही, इसलिए उस ने बाहर से किस ने दरवाजा खटाखटाया है, यह पूछे बगैर ही दरवाजा खोल दिया. रिंकी के दरवाजा खोलते ही गुपचुप तरीके से पीछा कर रहे आलोक ने फुरती से अंदर आ कर इस तरह दरवाजा बंद कर के कुंडी लगा दी कि रिंकी समझ ही नहीं पाई. जब तक मामला उस की समझ में आया, आलोेक अंदर आ चुका था. उतनी रात को आलोक को कमरे के अंदर देख कर रिंकी सहम उठी. उस ने डांटने वाले अंदाज में कहा, ‘‘तुम, यहां क्यों आ गए? तुरंत मेरे कमरे से बाहर निकल जाओ, वरना मैं शोर मचा कर मोहल्ले वालों को इकट्ठा कर लूंगी. उस के बाद तुम्हारी क्या गति होगी, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते.’’

‘‘यार, तुम बेकार ही गुस्सा करती हो. हम प्यार करने के मूड में आए हैं और तुम मुझे दुत्कार रही हो. प्यार करने वाले से प्यार से बात की जाती है, इस तरह भगाया नहीं जाता.’’ आलोक ने प्यार से कहा. आलोक के यह कहने पर रिंकी का गुस्सा और बढ़ गया. उस ने आगे बढ़ कर आलोक का गिरेबान पकड़ कर दरवाजे की ओर धकेलते हुए कहा, ‘‘सीधी तरह से यहां से जाते हो या बुलाऊं पड़ोसियों को?’’

रिंकी के इस गुस्से पर आलोक सहम उठा. उस ने झटके से अपना गिरेबान छुड़ाया और जेब से चाकू निकाल कर बोला, ‘‘अब एक भी शब्द बोला तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. यह चाकू देख रही हो न, यह किसी के साथ कोई रियायत नहीं करता. तुम्हारे इसी कमरे में यह चाकू अपने पेट में घुसेड़ लूंगा. उस के बाद मेरी हत्या के आरोप में तुम्हें जेल जाना पड़ेगा. तुम लाख सफाई दोगी, लेकिन तुम्हारी बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा. तुम्हें तो पता ही है कि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हूं. पागल प्रेमी के लिए ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं है.’’

रिंकी हाथ जोड़ कर कातर स्वर में बोली, ‘‘मैं तो वैसे ही बेबस और लाचार हूं. क्यों मेरी बेबसी का फायदा उठा रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी लाचारी का फायदा नहीं उठा रहा. मैं तुम से प्यार करता हूं और तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. मैं तुम से शादी करूंगा रिंकी.’’ आलोक ने कहा.

‘‘यह सब कहने की बातें हैं. आज तुम प्यार की बात कह कर मुझ से शादी करने का वादा कर रहे हो. मुझे पाने के बाद अपना यह वादा भूल जाओगे. तुम्हारे घर वाले मुझ जैसी लाचार मजबूर लड़की से तुम्हारी शादी क्यों करेंगे? ये सब कहने की बातें हैं. प्यार का नाटक कर के मेरा सब लूट लोगे, उस के बाद छोड़ कर चल दोगे.’’

‘‘रिंकी, मैं ने तुम्हारे बारे में सब पता कर लिया है. मुझे तुम्हारी पिछली जिंदगी से कोई लेनादेना नहीं है. तुम अपने भविष्य के बारे में सोचो. नर्स की इस मामूली सी नौकरी में यह जीवन बीतने वाला नहीं है. अकेली औरत का इस समाज में जीना आसान नहीं है. मेरा अपना मकान है ही, मेरे घर में भी किसी चीज की कमी नहीं है. मेरे पिता भी मेरी खुशियों में आडे़ नहीं आएंगे. मैं अपनी बात कह कर जा रहा हूं. तुम मेरी बातों पर गौर करना. मैं तुम से झूठ नहीं बोल रहा हूं, यह याद रखना.’’ 

कह कर आलोक ने दरवाजा खोला और निकलने से पहले उस ने रिंकी के चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में ले कर उस के माथे को चूम कर कहा, ‘‘तुम ठंडे दिमाग से विचार करना. मैं तुम्हें सोचने के लिए पूरे 15 दिन दे रहा हूं. इस के बाद तुम अपना फैसला बता देना. अगर तुम नहीं चाहोगी तो मैं तुम्हारे रास्ते में कभी नहीं आऊंगा.’’

आलोक के जाने के बाद रिंकी ने दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर बैठ गई. अब उस की आंखों से नींद गायब हो चुकी थी. वह अपनी जिंदगी के बारे में सोचने लगी. आलोक ने उसे ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया था, जहां से उसे सूझ ही नहीं रहा था कि वह किधर जाए. उसे एक मजबूत सहारे की जरूरत तो थी ही. अगर आलोक अपने वादे पर खरा उतरता है तो वह मजबूत सहारा बन सकता है. यही सब सोचते हुए आखिर रिंकी को नींद ही गई. रिंकी सोई भले देर से थी, लेकिन सुबह अपने समय पर ही उठी. घर के सारे काम निपटा कर वह समय से नर्सिंग होम पहुंच गई. लेकिन उस पूरे दिन उस का मन काम में नहीं लगा. उसे आलोक के किए वादे याद आते रहे. इसी सोचविचार में एकएक कर के 15 दिन बीत गए. 16वें दिन नर्सिंग होम की अपनी ड्यूटी समाप्त कर के रिंकी कमरे पर पहुंची. वह खाना बनाने की तैयारी कर रही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

रिंकी को समझते देर नहीं लगी कि कौन होगा. उस ने दरवाजा खोला, सचमुच बाहर आलोक खड़ा था. रिंकी कुछ कहती या पूछती, उस के पहले ही वह पूरे अधिकार के साथ अंदर आ गया और दरवाजा बंद कर लिया. इस के बाद चारपाई पर आराम से बैठ कर बोला, ‘‘मैं आज तुम्हारा जवाब जानने आया हूं. तुम अपना निर्णय सुनाओ, उस के पहले एक बार फिर मैं तुम्हें बता दूं कि मैं तुम से बेइंतहा प्यार करता हूं और तुम्हें अपनी बनाना चाहता हूं. तुम्हारे मना करने से मैं तुम्हारे रास्ते से तो हट जाऊंगा, लेकिन शायद जी न पाऊं. इसलिए जो भी जवाब देना, खूब सोचविचार कर देना. क्योंकि अब मेरी यह जिंदगी तुम्हारे इसी निर्णय पर निर्भर है.’’

आलोक रिंकी को पूरी तरह इमोशनली ब्लैकमेल कर रहा था. यह बात रिंकी की समझ में नहीं आई. वह इस सोच में डूबी थी कि उसे क्या जवाब दे. वह नासमझ थी, तभी उस के पिता ने उस का विवाह उम्र में दोगुने आदमी के साथ कर दिया था. वह उस के प्रति समर्पित थी, इस के बावजूद वह उसे ठीक से नहीं रख सका. 22 साल की इस छोटी सी जिंदगी में वह परेशानियां ही परेशानियां उठाती रही थी. इस स्थिति में वह आलोक पर कैसे भरोसा करे.

रिंकी ने कोई जवाब नहीं दिया तो आलोक ने उस का एक हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘अभी पढ़ना चाहती हो न? तुम पढ़ो. मैं तुम्हारी मदद करूंगा. तम्हें शायद पता नहीं है कि मेरा छोटा भाई गूंगाबहरा है. इसलिए मैं अपने मांबाप का लाडला हूं. मैं अपने घर में जो कहता हूं, उसे मान लिया जाता है. मैं ने मास मीडिया की डिग्री ली है, जल्दी ही मुझे कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. अगर मेरे घर वाले तुम्हें नहीं भी अपनाएंगे तो अपने पैरों पर खड़े होने के बाद मैं तुम्हें अपने साथ रखूंगा.’’

इतना कह कर आलोक ने जेब से सिंदूर की डिब्बी निकाली और उस में से एक चुटकी सिंदूर निकाल कर रिंकी की मांग भर दी. जिस तरह अचानक आलोक ने रिंकी की मांग भर दी थी, वह हैरान रह गई. एकबारगी उस की समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो गया? पल भर बाद वह गुस्से में बोली, ‘‘यह कैसा बेहूदा मजाक है. मुझे तुम्हारी यह हरकत बिलकुल अच्छी नहीं लगी. तुम ने जो किया, वह ठीक नहीं है.’’

रिंकी को इस तरह नाराज देख कर आलोक उसे मनाते हुए बोला, ‘‘रिंकी, यह बेहूदा मजाक नहीं, सच्चे प्यार की निशानी है. तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि मैं तुम से सच्चा प्यार करता हूं.’’

इस के बाद आलोक जाने और क्याक्या कहता रहा. आलोक ने रिंकी को अपनी इमोशनली ब्लैकमेलिंग वाली बातों से इस तरह इमोशनल कर दिया कि उसे लगा कि आलोक सचमुच उस का सहारा बन सकता है. उस की बातों का उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो आलोक उसे झकझोरते हुए बोला, ‘‘क्या सोच रही हो रिंकी, लगता है तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं है? अब तुम्हीं बताओ, तुम्हें भरोसा दिलाने के लिए मैं क्या करूं? अब एक ही उपाय बचा है कि अपने पेट में चाकू घुसेड़ लूं.’’

यह कह कर आलोक एकदम से उठा और रिंकी का सब्जी काटने वाला चाकू उठा कर जैसे ही हाथों को ऊपर उठाया, रिंकी ने उस के हाथ से चाकू छीन कर दूर फेंक दिया और उसे सीने से लग कर बोली, ‘‘आप के बाद इस तरह की बात मुंह से भी मत निकालना.’’

इस के बाद रिंकी ने खाना बनाया तो दोनों ने एक साथ खाना ही नहीं खाया, बल्कि वह रात आलोक ने रिंकी के साथ ही बिताई. इस के बाद तो जैसे रास्ता ही खुल गया. आलोक का जब मन होता, रिंकी से मिलने उस के कमरे पर पहुंच जाता. पैसे की उस के पास कमी नहीं थी, वह रिंकी को शहर में घुमाता, होटल में खाना खिलाता और रात उसी के कमरे पर बिताता. यही नहीं, वह कहीं बाहर जाता तो वहां भी रिंकी को साथ ले जाता. वह जिस होटल में ठहरता, वहां रिंकी को पत्नी के रूप में दर्ज करातारिंकी के अनुसार, आलोक 9 महीने पटना और 3 महीने गया में रहा तो उसे अपने साथ रखा. जब भी कोई आलोक से उस के बारे में पूछता, वह उस का परिचय अपनी पत्नी के रूप में कराता था. गया के बेलागंज स्थित काली मंदिर में आलोक ने देवी के सामने एक बार फिर उस की मांग में सिंदूर भर कर उस के गले में माला डाल कर शादी की थी.

धीरेधीरे दोनों को साथ रहते डेढ़ साल का समय बीत गया. रिंकी आलोक के साथ लिव इन रिलेशन में इस विश्वास के साथ रहती रही कि एक एक दिन आलोक घरवालों के सामने उसे पत्नी बना कर ले जाएगा. आलोक के साथ जगहजगह घूमना और मौजमस्ती करना उसे भी अच्छा लग रहा था. इस बीच रिंकी 2 बार गर्भवती भी हुई, लेकिन दोनों ही बार आलोक ने उस का गर्भपात करा दिया. पहली बार तो उस ने आसानी से गर्भपात करा दिया था, लेकिन दूसरी बार वह गर्भपात नहीं कराना चाहती थी. तब आलोक ने कसम दिला कर उस का गर्भपात कराया था.

आलोक ने जब रिंकी का दूसरी बार गर्भपात कराया तो रिंकी को लगा कि आलोक उसे बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है. रिंकी की इस सोच के पीछे की मुख्य वजह यह थी कि आलोक उसे अब तक अपने घर नहीं ले गया था. रिंकी जब कभी घर चलने और मांबाप से मिलाने को कहती, वह ऐसा बहाना करता कि उसे चुप हो जाना पड़ता. रिंकी इसी कशमकश से जूझ रही थी कि अचानक आलोक की जिंदगी में एक नया मोड़ गया. संयोग से उसे सीआरपीएफ में क्लर्क की नौकरी मिल गई. टे्रनिंग के बाद उस की पहली पोस्टिंग हरियाणा के गुड़गांव में हुई. आलोक को नौकरी मिलने की खुशी रिंकी को भी थी. उस का सोचना था कि पोस्टिंग होते ही आलोक उसे अपने पास बुला लेगा. लेकिन नौकरी मिलते ही आलोक एकदम से बदल गया. वह रिंकी से कटने लगा. अब वह रिंकी को फोन भी नहीं करता था

रिंकी को समझते देर नहीं लगी कि आलोक बदल गया है. अब वह उस से पीछा छुड़ाना चाहता है. पोस्टिंग के बाद आलोक जहानाबाद पहुंचा तो रिंकी ने उस से मिल कर कहा, ‘‘अब तो तुम्हें नौकरी ही नहीं मिल गई, बल्कि सरकारी क्वार्टर भी मिल गया है. इसलिए मैं तुम्हारे साथ ही रहूंगी.’’

आलोक सचमुच उस से पिंड छुड़ाना चाहता था, इसलिए रिंकी को पट्टी पढ़ा कर लापता हो गया. उस के अचानक लापता होने से रिंकी समझ गई कि आलोक उसे बिना बताए गुड़गांव चला गया है. वहां का पता पिंकी के पास था ही, इसलिए उस के पीछेपीछे वह भी गुड़गांव गई. रिंकी के गुड़गांव पहुंचने की जानकारी आलोक को हुई तो वह परेशान हो उठा. वह खुद ही रिंकी से मिला और उसे समझाया कि वह यहां कोई बखेड़ा खड़ा करे. इस के बाद उस ने रिंकी को ले जा कर एक लौज में यह कह कर ठहरा दिया कि वह व्यवस्था कर के उसे अपने कमरे पर ले जाएगा. लेकिन 2-3 दिन बीत जाने पर भी आलोक उसे अपने कमरे पर नहीं ले गया तो चौथे दिन रिंकी खुद ही सीआरपीएफ कैंप कार्यालय जा कर वरिष्ठ अधिकारी से मिली.

उस ने उस अधिकारी से बताया कि वह यहां औफिस में काम करने वाले आलोक भारती की पत्नी है. उस ने उसे अपने साथ रखने के बजाय एक लौज में ठहरा दिया है. अधिकारी ने आलोक को बुला कर पूछताछ की तो उस ने रिंकी को पहचानने से मना कर दिया. रिंकी के लिए यह बहुत बड़ा झटका था. वह वहां से तो चुपचाप चली आई, लेकिन उस ने हार नहीं मानी. वह गुड़गांव के थाना बादलपुर जा पहुंची. उस ने सारी बात थानाप्रभारी दिलबाग सिंह को बताई तो वह रिंकी को साथ ले कर सीआरपीएफ कैंप कार्यालय पहुंचे और आलोक भारती से थाने चलने को कहा.

खुद को फंसते देख आलोक घबरा गया. उस ने सीआरपीएफ के अधिकारियों और थानाप्रभारी के सामने वादा किया कि वह 1 महीने के अंदर रिंकी से शादी कर लेगा. सीआरपीएफ अधिकारियों ने आलोक को रिंकी से शादी करने के लिए एक महीने की छुट्टी भी दे दीआलोक ने रिंकी को समझाबुझा कर जहानाबाद भेज दिया और वादा किया कि 4 दिनों बाद वह घर जाएगा. इस के बाद वह वहीं घर वालों से कह कर सब के सामने पूरे रस्मोरिवाज के साथ उस से शादी करेगा. रिंकी आलोक की बातों पर विश्वास कर के जहानाबाद गई. 4 दिनों की कौन कहे, धीरेधीरे एक साल बीत गया, आलोक जहानाबाद नहीं पहुंचा.

रिंकी ने आलोक को पाने के लिए न्याय की शरण ली है. उधर आलोक का कहना है कि वह रिंकी को इसलिए जानतापहचानता है क्योंकि जहानाबाद में जहां उस का घर है, उस के ठीक सामने स्थित नर्सिंगहोम में वह नर्स के रूप में काम किया करती थी. अकसर घर से निकलते या घर में जाते समय वह दिख जाती थी. दोनों के बीच बातचीत भी होती थी, एकदो बार उस ने मुसीबत के समय उस की आर्थिक मदद भी की थी, इस से ज्यादा उस का उस से कोई संबंध नहीं है. रिंकी उस पर झूठा आरोप लगा कर उसे बदनाम कर रही है. क्योंकि उस ने उसे सरकारी अस्पताल में नर्स के रूप में काम दिलाने की बात कही थी, जो किन्हीं कारणों से पूरा नहीं हो सका.

(प्रस्तुत कथा रिंकी के बयान और मीडिया सूत्रों से प्राप्त जानकारी पर आधारित)

सच्चिदानंद सिंह/राजीव मणि

पति के होते हुए भी पत्नी ने समलैंगिक संबंध बनाए

बैडमिंटन खेलतेखेलते दीपा शादीशुदा और अपनी से दोगुनी उम्र के बबलू से इस कदर प्यार करने लगी कि अपने घर वालों की खिलाफत के बावजूद भी, उस ने बबलू से शादी कर ली. बाद में सुमन नाम की एक महिला के साथ बनी नजदीकी ने दीपा को समलैंगिक संबंधों तक पहुंचा दिया, फिर… 

‘‘मम्मी मैं जानता हूं कि आप को मेरी एक बात बुरी लग सकती है. वो यह कि सुमन आंटी जो आप की सहेली हैं, उन का यहां आना मुझे अच्छा नहीं लगता. और तो और मेरे दोस्त तक कहते हैं कि वह पूरी तरह से गुंडी लगती हैं.’’ बेटे यशराज की यह बात सुन कर मां दीपा उसे देखती ही रह गई. दीपा बेटे को समझाते हुए बोली, ‘‘बेटा सुमन आंटी अपने गांव की प्रधान है वह ठेकेदारी भी करती है. वह आदमियों की तरह कपड़े पहनती है, उन की तरह से काम करती है इसलिए वह ऐसी दिखती है. वैसे एक बात बताऊं कि वह स्वभाव से अच्छी है.’’

मां और बेटे के बीच जब यह बहस हो रही थी तो वहीं कमरे में दीपा का पति बबलू भी बैठा था. उस से जब चुप नहीं रहा गया तो वह बीच में बोल उठा,‘‘दीपा, यश को जो लगा, उस ने कह दिया. उस की बात अपनी जगह सही है. मैं भी तुम्हें यही समझाने की कोशिश करता रहता हूं लेकिन तुम मेरी बात मानने को ही तैयार नहीं होती हो.’’

‘‘यश बच्चा है. उसे हमारे कामधंधे आदि की समझ नहीं है. पर आप समझदार हैं. आप को यह तो पता ही है कि सुमन ने हमारे एनजीओ में कितनी मदद की है.’’ दीपा ने पति को समझाने की कोशिश करते हुए कहा. ‘‘मदद की है तो क्या हुआ? क्या वह अपना हिस्सा नहीं लेती है? और 8 महीने पहले उस ने हम से जो साढ़े 3 लाख रुपए लिए थे. अभी तक नहीं लौटाए.’’ पति बोला. मां और बेटे के बीच छिड़ी बहस में अब पति पूरी तरह शामिल हो गया था. ‘‘बच्चों के सामने ऐसी बातें करना जरूरी है क्या?’’ दीपा गुस्से में बोली.

‘‘यह बात तुम क्यों नहीं समझती. मैं कब से तुम्हें समझाता रहा हूं कि सुमन से दूरी बना लो.’’ बबलू सिंह ने कहा तो दीपा गुस्से में मुंह बना कर दूसरे कमरे में चली गई. बबलू ने भी दीपा को उस समय मनाने की कोशिश नहीं की. क्योंकि वह जानता था कि 2-4 घंटे में वह नारमल हो जाएगी. बबलू सिंह उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर के इस्माइलगंज में रहता था. कुछ समय पहले तक इस्माइलगंज एक गांव का हिस्सा होता था. लेकिन शहर का विकास होने के बाद अब वह भी शहर का हिस्सा हो गया है. बबलू सिंह ठेकेदारी का काम करता था. इस से उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी इसलिए वह आर्थिकरूप से मजबूत था

उस की शादी निर्मला नामक एक महिला से हो चुकी थी. शादी के 15 साल बाद भी निर्मला मां नहीं बन सकी थी. इस वजह से वह अकसर तनाव में रहती थी. बबलू सिंह को बैडमिंटन खेलने का शौक था. उसी दौरान उस की मुलाकात लखनऊ के ही खजुहा रकाबगंज मोहल्ले में रहने वाली दीपा से हुई थी. वह भी बैडमिंटन खेलती थी. दीपा बहुत सुंदर थी. जब वह बनठन कर निकलती थी तो किसी हीरोइन से कम नहीं लगती थी. बैडमिंटन खेलतेखेलते दोनों अच्छे दोस्त बन गए. 40 साल का बबलू उस के आकर्षण में ऐसा बंधा कि शादीशुदा होने के बावजूद खुद को संभाल न सका. दीपा उस समय 20 साल की थी. बबलू की बातों और हावभाव से वह भी प्रभावित हो गई. लिहाजा दोनों के बीच प्रेमसंबंध हो गए. उन के बीच प्यार इतना बढ़ गया कि उन्होंने शादी करने का फैसला कर लिया.

दीपा के घर वालों ने उसे बबलू से विवाह करने की इजाजत नहीं दी. इस की एक वजह यह थी कि एक तो बबलू दूसरी बिरादरी का था और दूसरे बबलू पहले से शादीशुदा था. लेकिन दीपा उस की दूसरी पत्नी बनने को तैयार थी. पति द्वारा दूसरी शादी करने की बात सुन कर निर्मला नाराज हुई लेकिन बबलू ने उसे यह कह कर राजी कर लिया कि तुम्हारे मां बनने की वजह से दूसरी शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. पति की दलीलों के आगे निर्मला को चुप होना पड़ा क्योंकि शादी के 15 साल बाद भी उस की कोख नहीं भरी थी. लिहाजा न चाहते हुए भी उस ने पति को शौतन लाने की सहमति दे दी.

घरवालों के विरोध को नजरअंदाज करते हुए दीपा ने अपनी उम्र से दोगुने बबलू से शादी कर ली और वह उस की पहली पत्नी निर्मला के साथ ही रहने लगी. करीब एक साल बाद दीपा ने एक बेटे को जन्म दिया जिस का नाम यशराज रखा गया. बेटा पैदा होने के बाद घर के सभी लोग बहुत खुश हुए. अगले साल दीपा एक और बेटे की मां बनी. उस का नाम युवराज रखा. इस के बाद तो बबलू दीपा का खास ध्यान रखने लगा. बहरहाल दीपा बबलू के साथ बहुत खुश थी.

दोनों बच्चे बड़े हुए तो स्कूल में उन का दाखिला करा दिया. अब यशराज जार्ज इंटर कालेज में कक्षा 9 में पढ़ रहा था और युवराज सेंट्रल एकेडमी में कक्षा 7 में. दीपा भी 35 साल की हो चुकी थी और बबलू 55 का. उम्र बढ़ने की वजह से वह दीपा का उतना ध्यान नहीं रख पाता था. ऊपर से वह शराब भी पीने लगा. इन्हीं सब बातों को देखने के बाद दीपा को महसूस होने लगा था कि बबलू से शादी कर के उस ने बड़ी गलती की थी. लेकिन अब पछताने से क्या फायदा. जो होना था हो चुका.

बबलू का 2 मंजिला मकान था. पहली मंजिल पर बबलू की पहली पत्नी निर्मला अपने देवरदेवरानी और ससुर के साथ रहती थी. नीचे के कमरों में दीपा अपने बच्चों के साथ रहती थी. उन के घर से बाहर निकलने के भी 2 रास्ते थे. दीपा का बबलू के परिवार के बाकी लोगों से कम ही मिलनाजुलना  होता था. वह उन से बातचीत भी कम करती थी. बबलू को शराब की लत हो जाने की वजह से उस की ठेकेदारी का काम भी लगभग बंद सा हो गया था. तब उस ने कुछ टैंपो खरीद कर किराए पर चलवाने शुरू कर दिए थे. उन से होने वाली कमाई से घर का खर्च चल रहा था.

शुरू से ही ऊंचे खयालों और सपनों में जीने वाली दीपा को अब अपनी जिंदगी बोरियत भरी लगने लगी थी. खुद को व्यस्त रखने के लिए दीपा ने सन 2006 में ओम जागृति सेवा संस्थान के नाम से एक एनजीओ बना लिया. उधर बबलू का जुड़ाव भी समाजवादी पार्टी से हो गया. अपने संपर्कों की बदौलत उस ने एनजीओ को कई प्रोजेक्ट दिलवाए. इसी बीच सन 2008 में दीपा की मुलाकात सुमन सिंह नामक महिला से हुई. सुमन सिंह गोंडा करनैलगंज के कटरा शाहबाजपुर गांव की रहने वाली थी. वह थी तो महिला लेकिन उस की सारी हरकतें पुरुषों वाली थीं. पैंटशर्ट पहनती और बायकट बाल रखती थी. सुमन निर्माणकार्य की ठेकेदारी का काम करती थी. उस ने दीपा के एनजीओ में काम करने की इच्छा जताई. दीपा को इस पर कोई एतराज था. लिहाजा वह एनजीओ में काम करने लगी

सुमन एक तेजतर्रार महिला थी. अपने संबंधों से उस ने एनजीओ को कई प्रोजेक्ट भी दिलवाए. तब दीपा ने उसे अपनी संस्था का सदस्य बना दिया. इतना ही नहीं वह संस्था की ओर से सुमन को उस के कार्य की एवज में पैसे भी देने लगी. कुछ ही दिनों में सुमन के दीपा से पारिवारिक संबंध बन गए. दीपा को ज्यादा से ज्यादा बनठन कर रहने और सजनेसंवरने का शौक था. वह हमेशा बनठन कर और ज्वैलरी पहने रहती थी. 2 बच्चों की मां बनने के बाद भी उस में गजब का आकर्षण था. उसे देख कर कोई भी उस की ओर आकर्षित हो सकता था. एनजीओ में काम करने की वजह से सुमन दीपा को अकसर अपने साथ ही रखती थी. दीपा इसे सुमन की दोस्ती समझ रही थी पर सुमन पुरुष की तरह ही दीपा को प्यार करने लगी थी.

एक बार जब सुमन दीपा को प्यार भरी नजरों से देख रही थी तो दीपा ने पूछा, ‘‘ऐसे क्या देख रही हो? मैं भी तुम्हारी तरह एक महिला हूं. तुम मुझे इस तरह निहार रही हो जैसे कोई प्रेमी प्रेमिका को देख रहा हो.’’

‘‘दीपा, तुम मुझे अपना प्रेमी ही समझो. मैं सच में तुम्हें बहुत प्यार करने लगी हूं.’’ सुमन ने मन में दबी बातें उस के सामने रख दीं. सुमन की बातें सुनते ही वह चौंकते हुए बोली, ‘‘यह तुम कैसी बातें कर रही हो? कहीं 2 लड़कियां आपस में प्रेमीप्रेमिका हो सकती हैं?’’

 ‘‘दीपा, मैं लड़की जरूर हूं पर मेरे अंदर कभीकभी लड़के सा बदलाव महसूस होता है. मैं सबकुछ लड़कों की तरह करना चाहती हूं. प्यार और दोस्ती सबकुछ. इसीलिए तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. मैं तुम से शादी भी करना चाहती हूं.’’

‘‘मैं पहले से शादीशुदा हूं. मेरे पति और बच्चे हैं.’’ दीपा ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं तुम्हें पति और बच्चों से अलग थोड़े कर रही हूं. हम दोस्त और पतिपत्नी दोनों की तरह रह सकते हैं. सब से अच्छी बात तो यह है कि हमारे ऊपर कोई शक भी नहीं करेगा. दीपा, मैं सच कह रही हूं कि मुझे तुम्हारे करीब रहना अच्छा लगता है.’’

‘‘ठीक है बाबा, पर कभी यह बातें किसी और से मत कहना.’’ दीपा ने सुमन से अपना पीछा छुड़ाने के अंदाज में कहा.

 ‘‘दीपा, मेरी इच्छा है कि तुम मुझे सुमन नहीं छोटू के नाम से पुकारा करो.’’

‘‘समझ गई, आज से तुम मेरे लिए सुमन नहीं छोटू हो.’’ इतना कह कर सुमन और दीपा करीब आ गए. दोनों के बीच आत्मीय संबंध बन गए थे. सुमन ने रिश्ते को मजबूत करने के लिए एक दिन दीपा के साथ मंदिर जा कर शादी भी कर ली. सुमन के करीब आने से दीपा के जीवन को भी नई उमंग महसूस होने लगी थी कि कोई तो है जो उसे इतना प्यार कर रही है. इस के बाद सुमन एक प्रेमी की तरह उस का खयाल रखने लगी थी. समय गुजरने लगा. दीपा के पति और परिवार को इस बात की कोई भनक नहीं थी. वह सुमन को उस की सहेली ही समझ रहे थे. एनजीओ के काम के कारण सुमन अकसर ही दीपा के साथ उस के घर पर ही रुक जाती थी. 

सुमन को भी शराब पीने का शौक था. बबलू भी शराब पीता था. कभीकभी सुमन बबलू के साथ ही पीने बैठ जाती थी. जिस से सुमन और बबलू की दोस्ती हो गई. सुमन के लिए उस के यहां रुकना और ज्यादा आसान हो गया था. उस के रुकने पर बबलू भी कोई एतराज नहीं करता था. वह भी उसे छोटू कहने लगा. साल 2010 में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए तो सुमन ने अपने गांव कटरा शाहबाजपुर से ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ा. सुमन सिंह का भाई विनय सिंह करनैलगंज थाने का हिस्ट्रीशीटर बदमाश था. उस के पिता अवधराज सिंह के खिलाफ भी कई आपराधिक मुकदमे करनैलगंज थाने में दर्ज थे. दोनों बापबेटों की दबंगई का गांव में खासा प्रभाव था. जिस के चलते सुमन ग्रामप्रधान का चुनाव जीत गई. उस ने गोंडा के पूर्व विधायक अजय प्रताप सिंह उर्फ लल्ला भैया की बहन सरोज सिंह को भारी मतों से हराया.

ग्राम प्रधान बनने के बाद सुमन सिंह सीतापुर रोड पर बनी हिमगिरी में फ्लैट ले कर रहने लगी. सन 2010 में प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के बाद उस ने अपने संबंधों की बदौलत फिर से ठेकेदारी शुरू कर दी. अपनी सुरक्षा के लिए वह .32 एमएम की लाइसैंसी रिवाल्वर भी साथ रखने लगी. उस की और दीपा की दोस्ती अब और गहरी होने लगी थी. सुमन किसी न किसी बहाने से दीपा के पास ही रुक जाती थी. ऐसे में दीपा और सुमन एक साथ ही रात गुजारती थीं. यह सब बातें धीरेधीरे बबलू और उस के बच्चों को भी पता चलने लगी थीं. तभी तो उन्हें सुमन का उन के यहां आना अच्छा नहीं लगता था. 

सुमन महीने में 20-25 दिन दीपा के घर पर रुकती थी. शनिवार और रविवार को वह दीपा को अपने साथ हिमगिरी कालोनी ले जाती थी. दीपा को सुमन के साथ रहना कुछ दिनों तक तो अच्छा लगा, लेकिन अब वह सुमन से उकता गई थी. एक बार सुमन ने दीपा से किसी काम के लिए साढ़े 3 लाख रुपए उधार लिए थे. तयशुदा वक्त गुजर जाने के बाद भी सुमन ने पैसे नहीं लौटाए तो दीपा ने उस से तकादा करना शुरू कर दिया. तकादा करना सुमन को अच्छा नहीं लगता था. इसलिए दीपा जब कभी उस से पैसे मांगती तो सुमन उस से लड़ाईझगड़ा कर बैठी थी. 27 जनवरी, 2014 की देर रात करीब 9 बजे सुमन दीपा के घर अंगुली में अपना रिवाल्वर घुमाते हुए पहुंची. दीपा और बबलू में सुमन को ले कर सुबह ही बातचीत हो चुकी थी. अचानक उस के धमकने से वे लोग पशोपेश में पड़ गए.

‘‘क्या बात है छोटू आज तो बिलकुल माफिया अंदाज में दिख रहे हो.’’ दीपा बोली.

इस के पहले कि सुमन कुछ कहती. बबलू ने पूछ लिया, ‘‘छोटू अकेले ही आए हो क्या?’’

‘‘नहीं, भतीजा विपिन और उस का दोस्त शिवम मुझे छोड़ कर गए हैं. कई दिनों से दीपा के हाथ का बना खाना नहीं खाया था. उस की याद आई तो चली आई.’’

सुमन और बबलू बातें करने लगे तो दीपा किचन में चली गई. सुमन ने भी फटाफट बबलू से बातें खत्म कीं और दीपा के पीछे किचन में पहुंच कर उसे पीछे से अपनी बांहों में भर लिया. पति और बच्चोें की बातें सुन कर दीपा का मूड सुबह से ही खराब था. वह सुमन को झिड़कते हुए बोली, ‘‘छोटू ऐसे मत किया करो. अब बच्चे बड़े हो गए हैं. यह सब उन को बुरा लगता है.’’

उस समय सुमन नशे में थी. उसे दीपा की बात समझ नहीं आई. उसे लगा कि दीपा उस से बेरुखी दिखा रही है. वह बोली, ‘‘दीपा, तुम अपने पति और बच्चों के बहाने मुझ से दूर जाना चाहती हो. मैं तुम्हारी बातें सब समझती हूं.’’ दीपा और सुमन के बीच बहस बढ़ चुकी थी दोनों की आवाज सुन कर बबलू भी किचन में पहुंच गया. लड़ाई आगे बढ़े इस के लिए बबलू सिंह ने सुमन को रोका और उसे ले कर ऊपर के कमरे में चला गया. वहां दोनों ने शराब पीनी शुरू कर दी. शराब के नशे में खाने के समय सुमन ने दीपा को फिर से बुरा भला कहा.

दीपा को भी लगा कि शराब के नशे में सुमन घर पर रुक कर हंगामा करेगी. उस की तेज आवाज पड़ोसी भी सुनेंगे जिस से घर की बेइज्जती होगी इसलिए उस ने उसे अपने यहां रुकने के लिए मना लिया. बबलू सिंह ऊपर के कमरे में सोने चला गया. दीपा के कहने के बाद भी सुमन उस रात वहां से नहीं गई बल्कि वहीं दूसरे कमरे में जा कर सो गई. 28 जनवरी, 2014 की सुबह दीपा के बच्चे स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे. वह उन के लिए नाश्ता तैयार कर रही थी. तभी किचन में सुमन पहुंच गई. वह उस समय भी नशे की अवस्था में ही थी. उस ने दीपा से कहा, ‘‘मुझ से बेरुखी की वजह बताओ इस के बाद ही परांठे बनाने दूंगी.’’

‘‘सुमन, अभी बच्चों को स्कूल जाना है नाश्ता बनाने दो. बाद में बात करेंगे.’’ पहली बार दीपा ने छोटू के बजाय सुमन कहा था.

‘‘तुम ऐसे नहीं मानोगी.’’ कह कर सुमन ने हाथ में लिया रिवाल्वर ऊपर किया और किचन की छत पर गोली चला दी. गोली चलते ही दीपा डर गई. वह बोली, ‘‘सुमन होश में आओ.’’ इस के बाद वह उसे रोकने के लिए उस की ओर बढ़ी. सुमन उस समय गुस्से में उबल रही थी. उस ने उसी समय दीपा के सीने पर गोली चला दी. गोली चलते ही दीपा वहीं गिर पड़ी. गोली की आवाज सुन कर बच्चे किचन की तरफ आए. उन्होंने मां को फर्श पर गिरा देखा तो वे रोने लगे. बबलू उस समय ऊपर के कमरे में था. बच्चों की आवाज सुन कर वो और उस की पहली पत्नी निर्मला भी नीचे आ गए. निर्मला सुमन से बोली, ‘‘क्या किया तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं यह गिर पड़ी है. इसे कुछ चोट लग गई है.’’ सुमन ने जवाब दिया. निर्मला ने दीपा की तरफ देखा तो उस के पेट से खून बहता देख वह सुमन पर चिल्ला कर बोली, ‘‘छोटू तुम ने इसे मार दिया.’’ दीपा की हालत देख कर बबलू के आंसू निकल पड़े. उस ने पत्नी को हिलाडुला कर देखा. लेकिन उन की सांसें तो बंद हो चुकी थीं. वह रोते हुए बोला, ‘‘छोटू, यह तुम ने क्या कर दिया.’’ वह दीपा को कार से तुरंत राममनोहर लोहिया अस्पताल ले गया जहां डाक्टरों ने दीपा को मृत घोषित कर दिया. चूंकि घर वालों के बीच सुमन घिर चुकी थी. इसलिए उस ने फोन कर के अपने भतीजे विपिन सिंह और उस के साथी शिवम मिश्रा को वहीं बुला लिया. तभी सुमन ने अपना रिवाल्वर विपिन सिंह को दे दिया. विपिन ने रिवाल्वर से बबलू के घरवालों को धमकाने की कोशिश की लेकिन जब घरवाले उलटे उन पर हावी होने लगे वे दोनों वहां से भाग गए

तब अपनी सुरक्षा के लिए सुमन ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया. बबलू के भाई बलू सिंह ने गाजीपुर थाने फोन कर के दीपा की हत्या की खबर दे दी. घटना की जानकारी पाते ही थानाप्रभारी नोवेंद्र सिंह सिरोही, एसएसआई रामराज कुशवाहा, सीटीडी प्रभारी सबइंसपेक्टर अशोक कुमार सिंह, रूपा यादव, ब्रजमोहन सिंह के साथ मौके पर पहुंच गए. हत्या की सूचना पाते ही एसएसपी लखनऊ प्रवीण कुमार, एसपी(ट्रांसगोमती) हबीबुल हसन और सीओ गाजीपुर विशाल पांडेय भी घटनास्थल पर पहुंच गए.

बबलू के घर पहुंच कर पुलिस ने दरवाजा खुलवा कर सब से पहले सुमन को हिरासत में लिया. उस के बाद राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंच कर दीपा की लाश कब्जे में ले कर उसे पोस्टमार्टम हाउस भेज दियापुलिस ने थाने ला कर सुमन से पूछताछ की तो उस ने सच्चाई उगल दी. इस के बाद कांस्टेबल अरुण कुमार सिंह, शमशाद, भूपेंद्र वर्मा, राजेश यादव, ऊषा वर्मा और अनीता सिंह की टीम ने विपिन को भी गिरफ्तार कर लिया. उन से हत्या में प्रयोग की गई रिवाल्वर और सुमन की अल्टो कार नंबर यूपी32 बीएल6080 बरामद कर ली. जिस से ये दोनों फरार हुए थे.

देवरिया जिले के भटनी कस्बे का रहने वाला शिवम गणतंत्र दिवस की परेड देखने लखनऊ आया था. वह एक होनहार युवक था. लखनऊ घूमने के लिए विपिन ने उसे 1-2 दिन और रुकने के लिए कहा. उसे क्या पता था कि यहां रुकने पर उसे जेल जाना पड़ जाएगा. दोनों अभियुक्तों के खिलाफ पुलिस ने भादंवि की धारा 302, 506 के तहत मामला दर्ज कर के उन्हें 29 जनवरी, 2014 को मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर जेल भेज दियाजेल जाने से पहले सुमन अपने किए पर पछता रही थी. उस ने पुलिस से कहा कि वह दीपा से बहुत प्यार करती थी. गुस्से में उस का कत्ल हो गया. सुमन के साथ जेल गए शिवम को लखनऊ में रुकने का पछतावा हो रहा था.

अपराध किसी तूफान की तरह होता है. वह अपने साथ उन लोगों को भी तबाह कर देता है जो उस से जुड़े नहीं होते हैं. दीपा और सुमन के गुस्से के तूफान में शिवम के साथ विपिन और दीपा का परिवार खास कर उस के 2 छोटेछोटे बच्चे प्रभावित हुए हैं. सुमन का भतीजा विपिन भागने में सफल रहा. कथा लिखे जाने तक उस की तलाश जारी थी.

   — कथा पुलिस सूत्रों और मोहल्ले वालों से की गई बातचीत के आधार पर

लव मैरिज की सजा देने के लिए कुल्हाड़ी से दामाद के पैर काटे

बेटी का पड़ोसी से ब्याह करना फूल सिंह को इतना खला कि गुस्से में उस ने पड़ोसी सुरेंद्र का ही नहीं, अपना भी परिवार बरबाद कर दिया.  गांवों में आज भी ज्यादातर घरों में दिन ढलते ही रात का खाना बन जाता है. शाम के यही कोई साढ़े 6 बजे खाना खा कर सुरेंद्र सोने के लिए जानवरों के बाड़े में चला गया था. उस के जाने के बाद सुरेंद्र की पत्नी ममता, बेटा कुलदीप, दीपक, रतन और बहू प्रभा खाना खाने की तैयारी करने लगी थी. सभी खाने के लिए बैठने जा रहे थे कि तभी प्रभा के पिता फूल सिंह पाल, चाचा रामप्रसाद, भाई लाल सिंह उस के मौसेरे भाई टुंडा के साथ उन के यहां पहुंचे

किसी के हाथ में कुल्हाड़ी थी तो कोई चापड़ लिए था तो कोई डंडा. उन्हें इस तरह आया देख कर घर के सभी लोग समझ गए कि इन के इरादे नेक नहीं हैं. वे कुछ कर पाते, उस से पहले ही उन्होंने प्रभा को पकड़ा और कुल्हाड़ी से उस की हत्या कर दी. प्रभा की सास ममता बहू को बचाने के लिए दौड़ी तो हमलावरों ने उसे भी कुल्हाड़ी से काट डाला. ममता प्रभा की 9 महीने की बेटी को लिए थी, हत्यारों ने उसे छीन कर एक ओर फेंक दिया था. 2 लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद हमलावरों ने कुलदीप को पकड़ कर जमीन पर गिरा दिया. कुलदीप जान की भीख मांगने लगा तो फूल सिंह ने कहा, ‘‘कुलदीप, तुझे हम जान से नहीं मारेंगे, तुझे तो अपाहिज बना कर छोड़ देंगे, ताकि तू उम्र भर चलने को तरसे और अपनी बरबादी पर रोता रहे.’’

इतना कह कर फूल सिंह ने कुलदीप के दोनों पैर कुल्हाड़ी से काट दिए. सुरेंद्र की बुआ श्यामा और छोटेछोटे बच्चे चीखतेचिल्लाते रहे और गांव वालों से मदद की गुहार लगाते रहे, लेकिन गांव का कोई भी उन की मदद को नहीं आया. लोग अपनीअपनी छतों पर खड़े हो कर इस वीभत्स नजारे को देखते रहे. कुछ ही देर में इतनी बड़ी वारदात को अंजाम दे कर जिस तरह हमलावर आए थे, उसी तरह फरार हो गए. सुरेंद्र का घर खून से डूब गया था. 2 महिलाओं की खून से लथपथ लाशें पड़ी थीं, जबकि कुलदीप दर्द से तड़प रहा था. हमलावरों के जाने के बाद गांव वाले जुटने शुरू हुए. खबर सुन कर सुरेंद्र और उस के मातापिता, भाई, चाचा आदि गए. लोमहर्षक नजारा देख कर वे सन्न रह गए

सुरेंद्र ने पुलिस चौकी साढ़ को फोन कर के इस घटना की सूचना दी. सूचना मिलते ही चौकीप्रभारी वीरेंद्र प्रताप यादव घटना की सूचना कोतवाली घाटमपुर को दे कर हेडकांस्टेबल अरविंद तिवारी, कांस्टेबल रईस अहमद, भीम प्रकाश, प्रवेश मिश्रा, संजय कुमार के साथ घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. घटना की सूचना पा कर कोतवाली घाटमपुर के प्रभारी गोपाल यादव और सीओ जे.पी. सिंह गांव ढुकुआपुर के लिए चल पड़े थे. ढुकुआपुर से पुलिस चौकी 8 किलोमीटर दूर थी इसलिए पुलिस टीम को वहां पहुंचने में पौन घंटा लग गया. 3 लोगों को खून में लथपथ देख कर पुलिस हैरान रह गई. देख कर ही लग रहा था कि कि यह सब दुश्मनी की वजह से हुआ है.

2 महिलाओं की मौत हो चुकी थी. कुलदीप दर्द से तड़प रहा था. पुलिस ने कुलदीप को स्वरूपनगर के एसएनआर अस्पताल भिजवाया. सूचना मिलने पर एसपी (देहात) अनिल मिश्रा भी वहां गए थे. पुलिस अधिकारियों ने आसपास के लोगों से घटना के बारे में जानना चाहा, लेकिन पुलिस के सामने किसी ने मुंह नहीं खोला. लोग अलगअलग बहाने बना कर वहां से खिसकने लगे. पुलिस समझ गई कि डर या किसी अन्य वजह से लोग कुछ भी बताने से कतरा रहे हैं

हमलावरों ने सुरेंद्र की पत्नी ममता और बहू प्रभा की हत्या कर दी थी, जबकि बेटे कुलदीप के दोनों पैर काट दिए थे. पुलिस ने जब सुरेंद्र से पूछताछ की तो उस ने बताया कि यह सब कुलदीप की ससुराल वालों ने किया है. पुलिस ने सुरेंद्र पाल की ओर से फूल सिंह, उस के बेटे, भाई रामप्रसाद पाल, लाल सिंह, टुंडा उर्फ मामा और रामप्रसाद उर्फ छोटे के खिलाफ भादंवि की धारा 302, 307, 452, 34 के तहत रिपोर्ट दर्ज कर ली. पुलिस ने दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए कानपुर भिजवा दिया था. इस लोमहर्षक कांड के बाद गांव में दहशत फैल गई थी. गांव वाले दबी जुबान से तरहतरह की बातें कर रहे थे. एसएसपी यशस्वी यादव ने सीओ जे.पी. सिंह को निर्देश दिए कि वह जल्द से जल्द हमलावरों को गिरफ्तार करें. सीओ ने तुरंत ही प्रभारी निरीक्षक गोपाल यादव और चौकीप्रभारी वीरेंद्र प्रताप यादव के नेतृत्व में 2 टीमें गठित कीं

पहली टीम में एसआई अखिलेश मिश्रा, कांस्टेबल धर्मेंद्र सिंह, प्रवेश बाबू और इरशाद अहमद को शामिल किया गया, जबकि दूसरी टीम में हेडकांस्टेबल अरविंद तिवारी, कांस्टेबल रईस अहमद, अजय कुमार यादव और भीम प्रकाश को भी शामिल किया गया. चूंकि आरोपी अपने घरों से फरार थे, इसलिए पुलिस टीमें उन की तलाश में संभावित जगहों पर छापे मारने लगीं. आखिर सुबह होतेहोते पुलिस को सफलता मिल ही गई. पुलिस ने फूल सिंह, लाल सिंह और रामप्रसाद उर्फ छोटे को गिरफ्तार कर लिया. थाने ला कर उन से पूछताछ की गई तो इस खूनी तांडव की जो कहानी सामने आई, वह प्यार की प्रस्तावना पर लिखी हुई थी.

उत्तर प्रदेश के जिला कानपुर की एक तहसील है घाटमपुर. यहां से लगभग 50 किलोमीटर दूर बसा है एक गांव ढुकुआपुर. इस गांव में वैसे तो सभी जाति के लोग रहते हैं, लेकिन गड़रियों की संख्या कुछ ज्यादा है. इसी गांव में सुरेंद्र सिंह पाल भी अपने परिवार के साथ रहता था. वैसे सुरेंद्र पाल का पुश्तैनी मकान गांव के बीचोंबीच था, लेकिन भाइयों में जब बंटवारा हुआ तो वह गांव के बाहर खाली पड़ी जमीन पर मकान बना कर रहने लगा. सुरेंद्र के परिवार में पत्नी ममता के अलावा 3 बेटे, कुलदीप, दीपक और करण थे. कुलदीप पढ़ाई के साथ पिता के काम में भी हाथ बंटाता था. सुरेंद्र के पड़ोस में ही फूल सिंह पाल का परिवार रहता था. उस के परिवार में पत्नी के अलावा 3 बेटे और 1 बेटी प्रभा थी. प्रभा और कुलदीप एक ही स्कूल में पढ़ते थे. दोनों आसपास ही रहते थे, इसलिए स्कूल भी साथसाथ आतेजाते थे. दोनों साथसाथ खेलते और पढ़ते हुए जवान हुए तो उन की दोस्ती प्यार में कब बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला.

कुलदीप और प्रभा का प्यार कुछ दिनों तक तो चोरीछिपे चलता रहा, लेकिन वह इसे ज्यादा दिनों तक लोगों की नजरों से छिपा सके. वैसे भी प्यार कहां छिप पाता है. दोनों के प्रेमसंबंधों की बात गांव के लोगों तक पहुंची तो लोग उन के बारे में चटखारे ले ले कर बातें करने लगे. गांव वालों से होते हुए यह बात किसी तरह प्रभा और कुलदीप के घर वालों के कानों तक पहुंची तो फूल सिंह ने पत्नी रानी से बात कर के प्रभा पर पाबंदी लगा दी कि वह घर के बाहर अकेली नहीं जाएगी. कहते हैं, बंदिशें लगाने से मोहब्बत और बढ़ती है. प्रभा की कुलदीप से मुलाकात भले ही नहीं हो पा रही थी, लेकिन फोन के जरिए बात होती रहती थी. चूंकि उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि वे प्यार में आने वाली हर रुकावट का विरोध करेंगे, इसलिए वे बगावत पर उतर आए. जमाने की परवाह किए बगैर अपने प्यार को मंजिल तक पहुंचाने के लिए वे जनवरी, 2012 में अपनेअपने घरों को छोड़ कर हरियाणा के गुड़गांव शहर चले गए. 

गुड़गांव में कुलदीप का एक दोस्त रहता था. कुलदीप ने उसी की मदद से आर्यसमाज रीति से प्रभा के साथ विवाह भी कर लिया. दोस्त की मदद से उसे दिल्ली की एक फैक्ट्री में नौकरी भी मिल गई. इस के बाद कुलदीप दिल्ली में किराए पर कमरा ले कर प्रभा के साथ रहने लगा. प्रभा के इस तरह भाग जाने से फूल सिंह की बहुत बदनामी हुई. उस ने 16 जनवरी, 2012 को थाना घाटमपुर में कुलदीप के खिलाफ प्रभा को बरगला कर भगा ले जाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. रिपोर्ट में उस ने प्रभा को नाबालिग बताया था. मामला नाबालिग लड़की का था, इसलिए पुलिस ने सुरेंद्र पाल और उस के परिवार वालों पर शिकंजा कसा. मजबूरन कुलदीप को वापस जाना पड़ा

चूंकि कुलदीप के खिलाफ पहले से रिपोर्ट दर्ज थी, इसलिए पुलिस ने कुलदीप को गिरफ्तार कर के पूछताछ की. प्रभा का मैडिकल परीक्षण कराया. मैडिकल में प्रभा की उम्र 18 साल से ऊपर निकली. वह संभोग की अभ्यस्त पाई गई. प्रभा ने कुलदीप की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए कहा था कि उस ने कुलदीप के साथ अपनी मरजी से जा कर शादी की थी. प्रभा ने सुबूत के तौर पर अपने और कुलदीप के शादी के फोटो भी दिखाए. लेकिन पुलिस ने उस की एक सुनी और कुलदीप को अदालत में पेश कर जेल भेज दियामजिस्ट्रेट के सामने प्रभा के बयान कराए गए तो प्रभा ने वही सब कहा जो उस ने पुलिस के सामने चीखचीख कर कहा था. प्रभा के बयान और उस के बालिग होने की रिपोर्ट के मद्देनजर मजिस्ट्रेट ने प्रभा को उस की मरजी के अनुसार जहां और जिस के साथ जाने रहने की इजाजत दे दी.

अदालत के फैसले के बाद प्रभा ने अपने घर के बजाय सासससुर के साथ जाने की इच्छा जताई तो पुलिस ने उसे कुलदीप के घर पहुंचा दिया. बेटी के इस फैसले से फूल सिंह और उस के धर वालों ने बड़ी बेइज्जती महसूस की. कुछ दिनों बाद कुलदीप भी छूट कर घर आ गया. माहौल खराब हो, इसलिए कुलदीप प्रभा को ले कर फिर से दिल्ली चला गया. जनवरी, 2013 में प्रभा ने एक बेटी को जन्म दिया, जिस का नाम उस ने शिवानी रखा. समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा. शिवानी भी 9 महीने की हो गई. अपने मातापिता से भी कुलदीप के संबंध ठीक हो गए थे. वह अकसर घर वालों से फोन पर बातचीत करता रहता था. लेकिन फूल सिंह ने बेटी से हमेशा के लिए संबंध खत्म कर लिए थे. कुलदीप बेटी का मुंडन संस्कार कराना चाहता था, इसलिए घर वालों से बात कर के वह पत्नी और बेटी को ले कर 9 अक्तूबर, 2013 को अपने गांव ढुकुआपुर गया.

सुरेंद्र पाल ने मुंडन संस्कार की सारी तैयारियां पहले से ही कर रखी थीं. 10 अक्तूबर को बड़ी धूमधाम से शिवानी का मुंडन संस्कार हुआ. प्रभा के मातापिता ने कुलदीप को अपना दामाद स्वीकार नहीं किया था. वह कुलदीप से खुंदक खाए बैठा था. इसलिए सुरेंद्र ने मुंडन कार्यक्रम में फूल सिंह और उस के परिवार वालों को नहीं बुलाया था. गांव वाले मुंडन की दावत खा कर जब लौट रहे थे तो तरहतरह की बातें कर रहे थे. वे बातें फूल सिंह ने सुनीं तो उस का खून खौल उठा. उस ने उसी समय कुलदीप और उस के घर वालों को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया. इस बारे में उस ने मोहद्दीपुर थाना बकेवर में रहने वाले अपने भाई रामप्रसाद से सलाहमशविरा कर के उसे भी शामिल कर लिया. अब इंतजार था, सुरेंद्र के मेहमानों के चले जाने का. 13 अक्तूबर को उस के यहां से सभी मेहमान चले गए. केवल सुरेंद्र की बुआ श्यामा रह गई थीं.

14 अक्तूबर, 2013 की शाम सुरेंद्र खाना खा कर घर से करीब 50 मीटर दूर जानवरों के बाड़े में सोने चला गया. उस की पत्नी ममता बच्चों को खाना खिलाने की तैयारी कर रही थी तभी फूल सिंह, लाल सिंह, रामप्रसाद आदि कुल्हाड़ी, चापड़ और डंडे ले कर सुरेंद्र के घर में दाखिल हुए. घर वाले कुछ समझ पाते उस से पहले उन्होंने प्रभा की हत्या की, क्योंकि उसी की वजह से समाज में उन की नाक कटी थी. ममता बहू को बचाने आई तो उन्होंने उसे भी काट डाला. उस के बाद कुलदीप के दोनों पैर काट दिए. इतना सब कर के वे फरार हो गए. पुलिस ने फूल सिंह, लाल सिंह, रामप्रसाद उर्फ छोटे पाल से पूछताछ कर के सभी को जेल भेज दिया.

पुलिस ने टुंडा उर्फ मामा से पूछताछ करने के बाद उसे छोड़ दिया. पुलिस का कहना था कि उस का एक हाथ कटा था. एक हाथ से वह किसी पर हमला नहीं कर सकता. दूसरे पुलिस जब उस के घर फरीदपुर पहुंची तो वह घर पर ही सोता मिला था. अगर वह हत्या जैसे जघन्य अपराध में शामिल होता तो अन्य हमलावरों की तरह वह भी घर से फरार होता. वह आराम से अपने घर में नहीं सो रहा होता. उधर सुरेंद्र का कहना है कि टुंडा घटना में शामिल था. पुलिस ने जानबूझ कर उसे छोड़ दिया. सच्चाई जो भी हो, इस लोमहर्षक कांड ने यह तो साबित कर दिया है कि लोग खुद को कितना भी आधुनिक कहें, लेकिन अभी उन की सोच नहीं बदली है. अगर फूल सिंह बेटी की पसंद को स्वीकार कर लेता तो उसे इस जघन्य अपराध के आरोप में जेल जाना पड़ता. कथा लिखे जाने तक कुलदीप अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा था.

   —कथा पुलिस सूत्र और जनचर्चा पर आधारित

पत्नी ने नींद की गोली देकर पति का चाकू से काटा गला

गायत्री रंजीत को प्यार करती थी, लेकिन घर वालों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए उस की शादी संजीव से कर दी. नतीजा यह निकला कि गायत्री और रंजीत के प्यार में संजीव बलि का बकरा बन गया…   

त्तर प्रदेश के जिला फिरोजाबाद में एक कस्बा है एका. इस कस्बे में थाना भी है. एका कस्बे से कुछ दूर एक गांव है नगलाचूड़. सोनेलाल अपने परिवार के साथ इसी गांव में रहता था. सोनेलाल के 3 बेटे थे गोपाल, कुलदीप और संजीव. इन के अलावा 2 बेटियां भी थीं. सोनेलाल के पास खेती की जमीन थी, जिस से उस के घरपरिवार का गुजारा बडे़ आराम से हो जाता था. सोनेलाल के बड़े बेटे गोपाल और एक बेटी की शादी  चुकी थी. शादी के बाद गोपाल अपने परिवार के साथ काम के लिए पंजाब गया था. वहां से वह कभीकभी ही घर आता था. सोनेलाल की एक बेटी और बेटा कुलदीप अपनी पढ़ाई कर रहे थे. जबकि संदीप अपने पिता के साथ खेती के कामों में हाथ बंटाता था.

घर की व्यवस्था सोनेलाल की पत्नी सरला के जिम्मे थी. सरला चाहती थी कि संजीव का भी घर बस जाए इसलिए वह 24 साल के संजीव के लिए कोई लड़की देखने लगी. इसी सिलसिले में रिजौर निवासी छबिराम नाम के एक रिश्तेदार ने रिजौर के ही रामबाबू शाक्य की बेटी गायत्री के बारे में बताया. छबिराम की मार्फत सोनेलाल ने रामबाबू से बात की. उन्हें रामबाबू की बेटी गायत्री अपने बेटे संजीव के लिए सही लगी. दोनों ओर से चली बातचीत के बाद संजीव और गायत्री का रिश्ता तय कर के जल्द ही दोनों की शादी कर दी गई. यह लगभग डेढ़ साल पहले की बात है.

खूबसूरत गायत्री से शादी कर के संजीव ही नहीं बल्कि उस के घर वाले भी बहुत खुश थे. लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि आगे चल कर यही खूबसूरत दुलहन कितनी बड़ी मुसीबत बनने वाली है. शादी के बाद गायत्री की शिकायत गायत्री ससुराल तो गई थी पर उस के तेवर किसी की समझ में नहीं रहे थे. संजीव की मां सरला ने सोचा था कि बहू घर जाएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. घर की जिम्मेदारी बहू के हवाले कर के वह आराम करेगी, क्योंकि बड़ी बहू शादी के कुछ दिनों बाद ही गोपाल के साथ पंजाब चली गई थी. पर सरला का यह सपना अधूरा रहा. क्योंकि गायत्री पूरे दिन अपने कमरे में बैठी टीवी देखती रहती थी

टीवी से फुरसत मिल जाती तो वह मोबाइल पर लग जाती. वह काफीकाफी देर तक किसी से बातें करती रहती थी. कुछ दिन तक तो सरला ने गायत्री से कुछ नहीं कहा. लेकिन जब पगफेरे के लिए उस का भाई टीटू उसे लेने आया तो सरला ने टीटू से कहा, ‘‘अपनी बहन को समझाओ. वह ससुराल में रहने का सलीका सीखे. यह इस घर की बहू है, इसे यहां बहू की तरह ही रहना होगा.’’

बहन की शिकायत सुन कर टीटू के माथे पर शिकन गई. उस ने घूर कर गायत्री की तरफ देखा लेकिन उस से कहा कुछ नहीं. टीटू के पिता बीमार रहते थे, इसलिए वह ही सब्जी की दुकान चलाता था. भाई के साथ गायत्री अपने मायके गई. घर पहुंचते ही टीटू ने अपनी मां रामश्री से कहा, ‘‘संभालो अपनी लाडली को, यह हमें जीने नहीं देगी.’’

गायत्री अपने कमरे में चली गई. इस के बाद रामश्री और टीटू देर तक बातें करते रहे. रामबाबू कुछ देर बाद घर आया तो उसे भी पता चल गया कि गायत्री के ससुराल वाले उस से खुश नहीं हैं. वह गुस्से में बोला, ‘‘हम ने तो सोचा था कि गायत्री शादी के बाद सुधर जाएगी, पर लगता है ये लड़की उन लोगों को भी नहीं जीने देगी.’’

दरअसल शादी के पहले से ही रामबाबू के घर में तनाव था. इस की वजह यह थी कि गायत्री संजीव से शादी करने से इनकार कर रही थी. पर घर वालों के सामने उस की एक नहीं चली. रामबाबू और रामश्री इस बात को ले कर बहुत चिंतित थे कि कहीं गायत्री की वजह से वह लोग किसी नई परेशानी में पड़ जाएं. रिजौर में ही रामबाबू के घर से कुछ दूरी पर किशनलाल का घर था. उस के बेटे रंजीत ने भी अपने घर वालों को परेशान कर रखा था. यूं तो किशनलाल के 4 बेटे थे, जिन में से 3 पढ़ेलिखे थे पर छोटे बेटे रंजीत का पढ़ाई में मन नहीं लगता था. वह सारे दिन गांव में अपने दोस्तों के साथ गपशप करता रहता था. वह अपने पिता के खेती के काम में भी हाथ नहीं बंटाता था.

रंजीत की जिंदगी में आई गायत्री एक दिन अचानक रंजीत की नजर गायत्री से टकराई और वह उस की ओर खिंचता चला गया. वह उस से बात करने के लिए मौके की तलाश में था. एक दिन मोबाइल की दुकान पर उसे मौका मिल गया, जहां गायत्री अपना मोबाइल रीचार्ज कराने आई थी. उस से बात की शुरुआत करने का कोई बहाना चाहिए था. लिहाजा उस ने गायत्री से कहा, ‘‘गायत्री, देखें तुम्हारा मोबाइल किस कंपनी का है.’’

गायत्री ने उस के हाथ में मोबाइल दे दिया. रंजीत हाथ में मोबाइल ले कर देखते हुए बोला, ‘‘यह मोबाइल तो तुम्हारी तरह ही स्मार्ट है.’’

गायत्री ने उसे घूर कर देखा फिर खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘तुम भी काफी स्मार्ट लगते हो.’’

सुन कर रंजीत की हिम्मत और बढ़ गई. गायत्री वहां से चलने लगी तो रंजीत ने कहा, ‘‘अगर आप बुरा न मानो तो मैं बाइक से तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूंगा.’’ गायत्री मुसकराई और उस की बाइक पर बैठ गई. रंजीत बहुत खुश हुआ. पहली बार किसी लड़की ने उस की दोस्ती कबूल की थी.

‘‘रंजीत वैसे तुम आजकल क्या कर रहे हो.’’ गायत्री ने पूछा.

‘‘इंटरमीडिएट पास कर के घर पर ही मौज कर रहा हूं. वैसे भी तुम्हें तो पता ही है कि घर में किसी चीज की कमी तो है नहीं. जब जिम्मेदारी जाएगी, देखा जाएगा’’ रंजीत बोला, ‘‘गायत्री, क्या तुम अपना मोबाइल नंबर दे सकती हो?’’

‘‘हांहां क्यों नहीं, तुम मुझे अपना मोबाइल नंबर बताओ, मैं मिस्ड काल कर देती हूं.’’ गायत्री बिना किसी झिझक के बोली. बाइक चलातेचलाते रंजीत ने उसे अपना मोबाइल नंबर बता दिया. गायत्री ने तुरंत उस के नंबर पर मिस्ड काल दे दी. गायत्री ने अपने घर से कुछ पहले ही मोटरसाइकिल रुकवा ली और बाइक से उतर कर पैदल अपने घर चली गई ताकि कोई घर वाला उसे बाइक पर बैठे देख ले. उसे उतार कर रंजीत भी मुसकराता हुआ अपने घर चला गया. अगले दिन रंजीत ने अपने मोबाइल पर किसी अनजान नंबर की घंटी सुनी. जैसे ही उस ने हैलो कहा तो दूसरी तरफ से लड़की की आवाज सुनाई दी. वह बोला, ‘‘कौन, किस से बात करनी है.’’

  ‘‘ओह हम ने तो सोचा था कि तुम काफी स्मार्ट हो, पर तुम तो जीरो निकले मि. स्मार्ट.’’ कहते हुए लड़की हंसने लगी

 रंजीत समझ गया कि वह गायत्री है. रंजीत मन ही मन बहुत खुश हुआ. वह सफाई देते हुए वह बोला, ‘‘सौरी गायत्री, मैं समझा किसी और का फोन है. अब मैं तुम्हारा फोन नंबर मोबाइल में सेव कर लूंगा.’’

 ‘‘हां, समझदार दिखते हो. सुनो, आज मुझे 2 घंटे के बाद एटा जाना है. तुम मोड़ पर मिलो.’’ गायत्री ने कहा.

रंजीत निर्धारित समय से पहले ही वहां पहुंच गया. उस के कुछ देर बाद गायत्री भी गई. उस दिन से रंजीत और गायत्री के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं. दोनों ही लोगों की नजरों से छिप कर मिलने लगे. लेकिन लाख छिपाने पर भी ऐसी बातें छिप नहीं पातीं. गांव के किसी आदमी ने गायत्री को रंजीत की बाइक पर बैठे देखा तो उस ने रामबाबू को यह बात बता दी. घर वालों की परेशानी बढ़ाई गायत्री ने रामबाबू परेशान हो गया. घर कर उस ने गायत्री से पूछताछ की तो उस ने इस बात से इनकार कर दिया. रामबाबू ने सोचा कि शायद पड़ोसी को कोई गलतफहमी हो गई होगी.

लेकिन अब गायत्री सतर्क हो गई थी. उस का और रंजीत का प्यार परवान चढ़ने लगा था. अपनी मुलाकातों के दौरान प्रेमी युगल भविष्य के सपने बुनने लगा था. हालांकि दोनों की जाति एक थी पर रंजीत तो कोई कामधंधा करता था और ही उस की छवि अच्छी थी. गायत्री अच्छी तरह जानती थी कि घर वाले उस के इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे. दूसरी ओर दोनों के इश्क की खबरें लोगों तक पहुंचने लगी थीं. लोग दोनों के बारे में खुसुरफुसुर करने लगे. कई लोगों ने रामबाबू से शिकायत की कि उसे अपनी बेटी पर कंट्रोल करना चाहिए. लोगों की बातें सुन कर वह परेशान हो गया था. जबकि गायत्री यही कहती कि लोगों को तो बातें बनाने की आदत होती है. फालतू में उसे बदनाम कर रहे हैं.

लेकिन एक दिन गायत्री और रंजीत ने रात को मिलने का फैसला किया. गायत्री के घर के सभी लोग सो चुके थे. देर रात को रंजीत उस के यहां पहुंच गया. गायत्री बाहरी गेट खोल कर उसे अंदर ले आई, पर वह दिन उन की मुलाकात के लिए ठीक नहीं रहा. उस रात गायत्री के भाई टीटू की तबीयत ठीक नहीं थी. वह टौयलेट जाने को उठा तो देखा, मेन गेट की कुंडी खुली हुई है. उसे कुछ शक हुआ तो उस ने गायत्री के कमरे में झांक कर देखा, गायत्री वहां नहीं थी. वह टौयलेट जाने के बजाए तेजी से गेट खोल कर बाहर आया. तभी कोई व्यक्ति छत से कूद कर भाग गया. टीटू भाग कर अंदर आया तो देखा, गायत्री कमरे में थी.

 ‘‘तू कहां गई थी?’’ टीटू ने उस से पूछा.

 ‘‘मैं तो यहीं थी भैया, क्यों क्या हुआ आप कुछ परेशान से दिख रहे हैं?’’ गायत्री ने कहा.

टीटू की समझ में नहीं रहा था कि सच क्या है. कुछ देर पहले गायत्री कमरे में नहीं थी. किसी के छत से कूदने की आवाज भी उस ने सुनी थी, पर देखा किसी को नहीं था. क्या उसे भ्रम हुआ था. पर बाहरी दरवाजे की कुंडी भी खुली हुई थी. उस की समझ में कुछ नहीं रहा था. वह वहां से चुपचाप चला गया. गुपचुप खेला जाने लगा खेल गायत्री ने राहत की सांस ली. वह जानती थी कि अगर भाई ने रंजीत को देख लिया होता तो उस की खैर नहीं थी. अगले दिन उस ने रंजीत को फोन पर सारी बात बताई और सतर्क रहने को कह दिया. इधर टीटू को लगने लगा था कि कुछ तो है जो वह देख नहीं पा रहा, जबकि लोग देख रहे हैं. बहन पर उस का शक पक्का होने लगा था

अब वह गायत्री पर गहरी नहर रखने लगा. गायत्री भी मन ही मन डर गई थी. इधर टीटू ने एक दिन मां से कहा कि वह बहन को ले कर काफी चिंतित है. अगर कोई ऊंचनीच हो गई तो कहीं के नहीं रहेंगे. लेकिन मां ने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है, गायत्री ऐसी लड़की नहीं है. एक दिन टीटू ने खुद गायत्री को रंजीत के साथ देख लिया. वह उस के साथ बाइक पर थी. टीटू जब घर आया तो उस ने देखा गायत्री घर पर ही थी. उस ने उस से पूछा कि अभी कुछ देर पहले वह कहां थी. गायत्री ने कहा मैं तो अपनी सहेली के घर गई थी. टीटू को लगा कि वह झूठ बोल रही है. लिहाजा उस ने उस की पिटाई कर दी और कहा, ‘‘आइंदा अगर मैं ने तुझे किसी के साथ देखा तो जान से मार दूंगा.’’

मां को भी लगने लगा कि गायत्री कुछ तो गड़बड़ कर रही है. जब देखो तब बाहर भागने की कोशिश करती है. इसलिए मां ने भी उस से कहा, ‘‘आज से तेरा घर से बाहर जाना बंद, अब घर का काम सीख, वरना ससुराल जा कर हमारी बेइज्जती कराएगी.’’

‘‘मैं क्या कोई कैदी हूं मां, जो मुझे बांध कर रखोगी. आखिर मैं ने किया क्या है.’’ गायत्री ने कहा तो टीटू ने उसे कस कर तमाचा जड़ दिया, ‘‘तू क्या समझती है, हम अंधे हैं.’’

गायत्री रोती हुई कमरे में चली गई और उस ने मौका देख कर रंजीत को सारी बात बता दी. उस ने कहा कि जल्दी कुछ सोचो, वरना ये लोग हमें अलग कर देंगे. अगले दिन टीटू ने रंजीत को रास्ते में रोक कर कहा, ‘‘तू गायत्री का पीछा करना छोड़ दे वरना बुरा होगा.’’ रंजीत ने टीटू को समझाने की कोशिश की कि उसे शायद कोई गलतफहमी हुई है. गायत्री और रंजीत की हकीकत आई सामने इधर रंजीत ने प्रेमिका से मिलने का एक उपाय खोज लिया. उस ने कैमिस्ट से नींद की गोलियां खरीद कर गायत्री को देते हुए कहा कि वह रात के खाने में कुछ गोलियां मिला दिया करे.

फिर दोनों बेखौफ हो कर मिला करेंगे. गायत्री ने अब रात का खाना बनाने की जिम्मेदारी ले ली. इस के बाद वह जब अपने प्रेमी से मिलने का प्रोग्राम बना लेती तो खाने में नींद की गोलियां मिला देती. पूरा परिवार गोलियों के असर से गहरी नींद में सो जाता लेकिन सुबह जब वे लोग उठते तो सब का सिर भारी होता. एक दिन गायत्री की मां रामश्री की रात को नींद खुल गई. उस दिन मां ने गायत्री और रंजीत को रंगे हाथों पकड़ लिया. इस पर घर वालों ने गायत्री की पिटाई कर दी. इस के बाद गायत्री के लिए रिश्ते की तलाश होने लगी. आखिर उन्होंने गायत्री की शादी संजीव से कर के राहत की सांस ली. हालांकि गायत्री ने इस शादी का विरोध किया था लेकिन घर वालों ने उस की एक नहीं सुनी थी.

बेटी की शादी के बाद सब निश्चिंत थे, लेकिन शादी के बाद भी गायत्री के नाजायज संबंध रंजीत से बने रहे. एक दिन रंजीत उस की ससुराल भी पहुंच गया. गायत्री ने उसे अपना दूर का रिश्तेदार बताया. ससुराल वालों ने भी मान लिया, लेकिन बाद में दूर के इस रिश्तेदार का कुछ ज्यादा ही आनाजाना होने लगा तो ससुराल वालों ने आपत्ति जताई. गायत्री नहीं चाहती थी कि यह बात मायके वालों तक जाए. अत: उस ने अब अपना पुराना फारमूला अपनाया. वह ससुरालियों को भी रात के खाने में नींद की गोलियां देने लगी. इस तरह वह ससुराल में भी बेखौफ इश्क लड़ाती रही. गायत्री यह जानती थी कि ऐसा हमेशा नहीं चल सकता.

अब संजीव को भी उस पर शक होने लगा था. उस ने साफ शब्दों में कहा कि अगर अब कभी उस ने रंजीत को घर में देखा तो बुरा होगा. गायत्री पर ससुराल में भी लगाम लगनी शुरू हो गई तो वह परेशान हो उठी. उसे अपना पति ही दुश्मन लगने लगा. एक दिन गायत्री ने तय किया कि संजीव से छुटकारा पाने के बाद ही वह पे्रमी से बेखौफ मिल सकती है. इस बारे में उसे रंजीत से बात की. दोनों ने तय किया कि संजीव को ठिकाने लगा कर वे कहीं दूर जा कर दुनिया बसा लेंगे.

गायत्री को शादी के डेढ़ साल बाद भी बच्चा नहीं हुआ था. गायत्री ने एक दिन अपनी सास से कहा कि एटा में एक अच्छा डाक्टर  है. उस के इलाज से कई औरतों को बच्चा हुआ है. गायत्री ने सास से अपना इलाज उसी डाक्टर से कराने की बात कही. सास ने सोचा, अगर बच्चा हो गया तो गायत्री का मन भी घर में रमने लगेगा. अत: उस ने एटा के डाक्टर से इलाज कराने की इजाजत दे दी. गायत्री को कोई इलाज वगैरह नहीं कराना था, बल्कि यह उस का पति को ठिकाने लगाने का एक षड्यंत्र था.

लिखी जाने लगी हत्या की पटकथा अब गायत्री का खुराफाती दिमाग काम करने लगा. उस ने पति के नाम मौत का वारंट जारी कर दिया और इस के लिए 13 मई, 2018 का दिन भी तय कर दिया. मौत की इस दस्तक से पूरा परिवार बेखबर था. पूरे घटनाक्रम की कहानी मोबाइल पर तय हो गई थी. अपने इस काम में रंजीत ने रिजौर के ही रहने वाले अपने दोस्त राजेश उर्फ पप्पू को भी मिला लिया. 13 मई को गायत्री अपने पति संजीव के साथ बाइक नंबर यूपी 83एएल 6985 से एटा के लिए निकली. उस ने प्रेमी रंजीत को अपने एटा जाने की सूचना दे दी. रंजीत अपने दोस्त राजेश के साथ रिजौर से एटा पहुंच गया. इस के बाद तो बहू और ही बेटा घर वापस लौटे.

शाम तक जब दोनों घर नहीं लौटे तो पूरा परिवार चिंतित हो गया. उन्होंने एका थाने के थानाप्रभारी जितेंद्र सिंह भदौरिया को सूचना दे दी और अपने सभी रिश्तेदारों से भी फोन द्वारा पूछा. उन्होंने गायत्री के घर वालों को भी बता दिया था. दोनों का फोन भी स्विच्ड औफ था. रोरो कर घर वालों का बुरा हाल था. इधर मायके वाले परेशान थे कि कहीं गायत्री ने ही तो कुछ नहीं कर डाला. गायत्री और संजीव के गुम होने की सूचना अन्य थानों को भी दे दी गई थी. 18 मई, 2018 को रिजौर के चौकीदार रमेश को किसी ने बताया कि कुरीना दौलतपुर मोड़ के पास जैन फार्महाउस के खेत में एक युवक की लाश पड़ी हुई है. चौकीदार ने तुरंत इस की सूचना रिजौर के थानाप्रभारी जितेंद्र सिंह भदौरिया को दी. थानाप्रभारी तुरंत मौके पर पहुंचे

उन्हें वहां एक युवक की लाश मिली, जिस की गला रेत कर हत्या की गई थी. मौके पर काफी भीड़ इकट्ठा हो गई थी लेकिन शव को कोई नहीं पहचान पाया. कुछ दूरी पर पुलिस को एक मोबाइल फोन मिला जिस में मिले नंबर पर काल की गई तो पता चला कि मोबाइल रंजीत नाम के व्यक्ति का है. लेकिन उस के परिवार वालों ने जब लाश देखी तो कहा कि वह उन का बेटा नहीं है. रंजीत और गायत्री की हकीकत आई सामने जब लाश रंजीत की नहीं थी तो उस का मोबाइल वहां क्यों मिला. यह बात कोई नहीं समझ पा रहा था. इसी बीच सोशल मीडिया पर लाश का फोटो वायरल हो गया तो सोनेलाल ने एका थाने से संपर्क किया. पता चला कि जैन फार्महाउस रिजौर में मिलने वाली लाश उन के बेटे संजीव की है. संजीव के घर वाले समझ गए कि जरूर इस हत्या में गायत्री का हाथ है. उन्होंने रिजौर थानाप्रभारी को सारी बात बता दी.

गायत्री का भाई और पिता भी रिजौर आ गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि गायत्री ऐसा कर सकती है. मौके पर संजीव की बाइक भी बरामद हो गई थी, लेकिन गायत्री का कोई अतापता नहीं था. रिजौर थानाप्रभारी ने मुखबिरों का जाल फैला दिया. पुलिस को गायत्री और रंजीत के प्रेम संबंधों का भी पता चल चुका था. रंजीत भी घर से गायब था. अत: अब पुलिस उन दोनों की तलाश में लग गई. अगले दिन संजीव की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ गई. जिसे देख कर पुलिस चौंक गई. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि युवक ने नशे का सेवन किया था. पूछताछ करने पर पता चला कि संजीव तो नशा करता ही नहीं था.

इसी बीच 18 मई, 2018 को मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने प्रेमी युगल को बख्शीपुर तिराहे से गिरफ्तार कर लिया. दोनों किसी वाहन का इंतजार कर रहे थे. थाने ला कर गायत्री और रंजीत से पूछताछ की गई. गायत्री ने बताया कि वह तो रंजीत से प्यार करती थी. उसे जबरन प्रेमी से दूर कर के संजीव के गले बांध दिया गया. इसलिए उस ने उस से छुटकारा पाने का निश्चय कर किया. उस ने बताया कि उस ने रंजीत से पूर्व में शादी कर ली थी लेकिन पुलिस को वह शादी की कोई साक्ष्य नहीं दे पाई. रंजीत ने भी अपना गुनाह कबूल करते हुए कहा कि पिछले 2-3 सालों से वह और गायत्री एकदूसरे से प्यार करते थे और शादी भी करना चाहते थे लेकिन गायत्री के घर वाले इस के लिए राजी नहीं हुए. गायत्री की शादी के बाद भी वे दोनों अलग नहीं रह पाए और आखिर संजीव को रास्ते से हटाने का फैसला कर लिया.

गायत्री के प्यार की भेंट चढ़ा संजीव उस दिन जब गायत्री अपने पति के साथ एटा पहुंची तो रास्ते में उस ने बाइक रुकवाई. मौका पा कर वह बोतल में भरे पानी में नींद की गोलियां मिला चुकी थीं. वही पानी उस ने पति संजीव को पीने को दिया. जिस जगह पर बैठ कर उस ने पानी पिया था कुछ ही देर में वह वहीं पर बेहोश हो गया. तभी रंजीत अपने दोस्त के साथ वहां पहुंच गया. राजेश ने संजीव की बाइक संभाली और वह और गायत्री बेहोश हो चुके संजीव को आटो में डाल कर कुरीला गांव के पास दौलतपुर मोड़ पर ले आए. आटो वाले को पैसे दे कर उन्होंने वापस भेज दिया

तभी राजेश भी वहां आ गया, फिर वे लोग संजीव को जैन फार्म हाउस के खेतों में ले आए. जहां गायत्री ने खुद चाकू से अपने पति का गला रेत दिया. इस के बाद राजेश अपने घर चला गया और वह दोनों एटा घूमते रहे. दोनों दिल्ली भाग जाना चाहते थे पर पैसों का इंतजाम करना था, इस से पहले कि वे एटा छोड़ पाते पुलिस के हत्थे चढ़ गए. गायत्री के मायके वालों को जब पता चला कि उन की बेटी ने खुद अपना सुहाग मिटा डाला है तो वे हैरान रह गए. उन्होंने कहा कि अब गायत्री से उन का कोई संबंध नहीं है. उसे उस की करनी की सजा मिलनी ही चाहिए.

संजीव के घर वाले दुखी हैं, उन्होंने तो सोचा तक नहीं था कि वह अपने सीधेसादे बेटे को खो देंगे. पुलिस ने भादंवि की धारा 302, 120बी के अंतर्गत तीनों को गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. कथा लिखे जाने तक उन की जमानत नहीं हुई थी.

   — कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

कौन थी मरजान जिसे गुल का प्यार नहीं मिला तो कहा अलविदा

समर गुल हत्या कर के फरार हुआ था, सरहद पार कबीले के सरदार नौरोज खान ने उसे शरण दी. लेकिन नौरोज की बेटी समर गुल और मरजाना एकदूसरे को प्यार कर बैठे, जो कबाइली परंपरा के विपरीत था. आखिर क्या हुआ उन के प्यार का अंजाम…    

मर गुल ने जानबूझ कर एक अभागे की हत्या कर दी थी. पठानों में ऐसी हत्या को बड़ी इज्जत की नजर से देखा जाता था और हत्यारे की समाज में धाक बैठ जाती थी. समर गुल की उमर ही क्या थी, अभी तो वह विद्यार्थी था. मामूली तकरार पर उस ने एक आदमी को चाकू घोंप दिया था और वह आदमी अस्पताल ले जाते हुए मर गया था. गिरफ्तारी से बचने के लिए समर गुल कबाइली इलाके की ओर भाग गया था.

 जब वह वहां के गगनचुंबी पहाड़ों के पास पहुंचा तो उसे कुछ ऐसा सकून मिला, जैसे वे पहाड़ उस की सुरक्षा के लिए हों. सरहदें कितनी अच्छी होती हैं, इंसान को नया जन्म देती हैं. फिर भी यह इलाका उस के लिए अजनबी था, उसे कहीं शरण लेनी थी, किसी बड़े खान की शरण. क्योंकि मृतक के घर वाले किसी कबाइली आदमी को पैसे दे कर उस की हत्या करवा सकते थे. पठानों की यह रीत थी कि अगर वे किसी को शरण देते थे तो वे अपने मेहमान की जान पर खेल कर रक्षा करते थे.

वह एक पहाड़ी पर खड़ा था, उसे एक गांव की तलाश थी. दूर नीचे की ओर उसे कुछ भेड़बकरियां चरती दिखाई दीं. उस ने सोचा, पास ही कहीं आबादी होगी. वह रेवड़ के पास पहुंच कर इधरउधर देखने लगा. गड़रिया उसे कहीं दिखाई नहीं दिया. अचानक एक काले बालों वाला कुत्ता भौंकता हुआ उस की ओर लपका. उस ने एक पत्थर उठा कर मारा, लेकिन कुत्ता नहीं रुका. उस ने चाकू निकाल लिया, तभी एक लड़की की आवाज आई, ‘‘खबरदार, कुत्ते पर चाकू चलाया तो…’’ 

उस ने उस आवाज की ओर देखा तो कुत्ता उस से उलझ गया. उस की सलवार फट गई. कुत्ते ने उस की पिंडली में दांत गड़ा दिए थे. आवाज एक लड़की की थी, उस ने कुत्ते को प्यार से अलग किया और उसे एक पेड़ से बांध दिया. समर गुल एक चट्टान पर बैठ कर अपने घाव का देखने लगा. लड़की ने पास कर कहा, ‘‘मुझे अफसोस है, मेरी लापरवाही की वजह से आप को कुत्ते ने काट लिया.’’

समर गुल ने गुस्से से लड़की की ओर देखा तो उसे देखता ही रह गया. वह बहुत सुंदर लड़की थी. उस की शरबती आंखों में शराब जैसा नशा था. लड़की ने पिंडली से रिसता हुआ खून देखा तो भाग कर पानी लाई और उस का खून साफ किया. फिर अपना दुपट्टा फाड़ कर उसे जलाया और समर के घाव पर उस की राख रखी, जिस से खून बंद हो गया. समर गुल उस लड़की की बेचैनी और तड़प को देखता रहा. खून बंद हो गया तो वह खड़ी हो गई.

‘‘कोई बात नहीं,’’ समर गुल ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘कुत्ते ने अपनी ड्यूटी की और इंसान ने अपनी ड्यूटी.’’

‘‘अजनबी लगते हैं आप.’’ लड़की ने कहा तो उस ने अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी.

‘‘अच्छा तो आप फरार हो कर आए हैं. मैं बाबा को आप की कहानी सुनाऊंगी तो वह खुश होंगे, क्योंकि काफी दिन बाद हमारे घर में किसी फरारी के आने की चर्चा होगी.’’

मलिक नौरोज खान एक जिंदादिल इंसान था. 70-75 साल की उमर होने पर भी स्वस्थ और ताकतवर जवान लड़कों जैसा. बड़ा बेटा शाहदाद खान सरकारी नौकरी में था जबकि छोटा बेटा शाहबाज खान जिसे सब प्यार से बाजू कहते थे, बड़ा ही खिलंदड़ा और नटखट था. वह बहन ही की तरह सुंदर और प्यारा था. बेटी की जुबानी समर गुल की कहानी सुन कर नौरोज ने सोचा कि इतनी कम उम्र का बच्चा हत्यारा कैसे हो सकता है. फिर भी उस के लिए अच्छेअच्छे खाने बनवाए गए. उसे घर में रख लिया गया. कुछ दिन के बाद समर गुल ने सोचा, कब तक मेहमान बन कर इन के ऊपर बोझ बनूंगा, इसलिए कोई काम देखना चाहिए. उस ने नौरोज खान से बात करना ठीक नहीं समझा. के लिए उसे मरजाना से बात करना ठीक लगा. हां, उस लड़की का ही नाम मरजाना था.

अगले दिन सुबह उस ने मरजाना से कहा, ‘‘बात यह है कि मुझे लकड़ी काटना नहीं आता, हल चलाना नहीं आता. मैं ने सोचा कि रेवड़ तो चरा सकता हूं. मुफ्त की रोटी खाते मुझे शरम आती है.’’

‘‘यह काम भी तुम से नहीं होगा, तुम इस काम के लिए पैदा ही नहीं हुए हो. मुझे तो हैरानी है कि तुम ने हत्या कैसे कर दी. तुम ऐसे ही रहो, तुम्हें मुफ्त की रोटी खाने का ताना कोई नहीं देगा.’’

‘‘अगर मुझे सारा जीवन फरारी बन कर रहना पड़ा तो?’’

‘‘मैं बाबा से बात करूंगी, वह भी यही कहेंगे जो मैं ने कहा है.’’ इतना कह कर वह रेवड़ ले कर चली गई और समर गुल उसे जाते हुए देखता रहा. हकीकत जान कर नौरोज ठहाका मार कर हंसा और समर से बोला, ‘‘फरारी बाबू, मैं ने तुम्हारे लिए काम ढूंढ लिया है. तुम बाजू को पढ़ाया करोगे.’’

यह काम उस के लिए बहुत अच्छा था. अगले दिन से उस ने केवल बाजू को बल्कि गांव के और बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ाना शुरू कर दिया. शाम के समय चौपाल लगती थी, गांव के सब बूढ़ेबच्चे इकट्ठे हो जाते. समर गुल भी चौपाल पर चला जाता था. वहां कोई कहानी सुनाता, कोई चुटकुले और कोई शेरोशायरी. यह सभा आधीआधी रात तक जमी रहती थी. रात को लौट कर समर गुल जब दरवाजा खटखटाता तो मरजाना ही दरवाजा खोलती, क्योंकि मलिक नौरोज खान ऊपर के माले पर सोता था.

समर गुल को यहां आए हुए 2-3 महीने हो गए थे, लेकिन मरजाना से उस की बात नहीं हो पाई थी, क्योंकि वह उस से डराडरा सा रहता था. वह समर से हंस कर पूछती, ‘‘ गए…’’ वह उसे सिर झुकाए जवाब देता, लेकिन एक पल के लिए भी वहां नहीं रुकता था और अपने कमरे में जा कर लेट जाता था. वह बिस्तर पर भी मरजाना के बारे में सोचता रहता थामरजाना का व्यवहार सदैव उस के प्रति प्यार भरा होता था. लेकिन अब वह उस की तरफ और भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. एक रात जब वह आया तो मरजाना ने रोज की तरह कहा, ‘‘ गए…’’

वह कुछ नहीं बोला और खड़ा रहा. दोनों के ही दिल तेजी से धड़क रहे थे. दोनों ने एक अनजानी सी खुशी और डर अपने अंदर महसूस किया. मरजाना ने धीरे से कहा, ‘‘अंदर आ जाओ.’’ वह अंदर आ गया. मरजाना ने दरवाजा बंद कर के कुंडी लगा दी. फिर भी वह वहीं खड़ा रहा. मरजाना भी वहीं खड़ी उसे निहारती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘जाओ, सो जाओ.’’ वह चला गया, लेकिन मरजाना वहीं खड़ी रही. उस का अंगअंग एक अनोखी मस्ती से बहक रहा था. साथ ही दिल भी एक अनजानी खुशी से भर गया था. समर गुल अपने कमरे में पहुंचा तो उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए. वह बारबार होंठों ही होंठों में दोहरा रहा था, ‘‘जाओ,सो जाओ.’’

मरजाना का प्यारभरा स्वर उस की आत्मा को झिंझोड़ गया था. वह भावुक हो गया और सिसकियां ले कर रोने लगा. यह खुशी के आंसू थे. उस की हालत एक बच्चे जैसी हो गई थी. उसे यह अहसास डंक मार रहा था कि उस ने किसी की हत्या की हैवह पहली बार दिल की गहराइयों से अपने किए पर लज्जित था, उस की आत्मा पर पाप का बोझ पड़ा था. इस बोझ को उस ने पहले महसूस नहीं किया था, लेकिन प्रेम की अग्नि ने उसे कुंदन बना दिया था. आज वह किसी का दुश्मन नहीं रहा. मरजाना अपने बिस्तर पर लेट कर अंदर ही अंदर खुश हो रही थी, ऐसी खुशी उसे पहली बार मिली थी. वह सोच रही थी कि जब मैं ने दरवाजा बंद किया तो समर वहीं खड़ा रहा. वह चुपचाप था. उस की खामोशी ने मुझे अंदर तक हिला डाला. क्या इसी को प्रेम कहते हैं?

सोच रही थी कि क्या यही मीठामीठा प्रेम का दर्द है, जिस के लिए दरखुई आदम खान के लिए मर गई थी और आदम खान दरखुई के लिए मरा था. गुल मकई मूसा खान के लिए मरी और मूसा खान गुल मकई के लिएहां, ये सब प्रेम के लिए मर गए थे, लेकिन लोग प्रेम करने वालों के दुश्मन क्यों होते हैं. इतनी पवित्र चीज और खुशी से इंसानों को क्यों दूर रखा जाता है. लेकिन मेरी अंतरात्मा पवित्र है, मैं ने कोई पाप नहीं किया. वह झटके से बोली, ‘‘नहींनहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. अपने आप को इस अनजानी खुशी से वंचित नहीं होने दूंगी.’’ सुबह हुई तो मरजाना ने उजाले में वह सुंदरता देखी जो उसे पहले कभी दिखाई नहीं दी थी. समर गुल जाग रहा था. वह उठा और उस ने बाहर जा कर देखा, मरजाना रेवड़ ले कर जा चुकी थी. उस की निगाहें हवेली की दीवारों पर टिक गईं, ऐसा लगा जैसे उस का बचपन यहीं गुजरा हो.

तभी बाजू पास कर बोला, ‘‘गुल लाला चलो, सब बच्चे आप का इंतजार कर रहे हैं. आप अभी तक पढ़ाने नहीं आए.’’ उस ने बाजू को गोद में उठा लिया और उसे चूमने लगा. बाजू बोला, ‘‘लाला, इतना प्यार तो आप ने मुझे कभी नहीं किया.’’ उस ने कहा, ‘‘हां बाजू, मैं ने कभी इतना प्यार नहीं किया, लेकिन दिल में तुम्हारे लिए बहुत प्यार रखता था.’’ फिर वह उसे नीचे उतार कर बोला, ‘‘बाजू, जाओ आज तुम सब छुट्टी कर लो.’’ वह खुश हो कर चला गया. गुल घर में रखी रायफल ले कर जंगल चला गया. मरजाना रेवड़ के पास डलिया बुन रही थी. साथ ही धीमे स्वर में गा रही थी. समर गुल चुपके से उस के पीछे खड़ा हो कर उस का गाना सुनने लगा.

मरजाना जो गा रही थी, उस का सार कुछ इस तरह था, ‘तुम नहीं आए थे तो दिल में कोई हलचल नहीं थी, जीवन शांति से अपनी डगर पर चल रहा था. तुम आते तो यह जीवन इसी तरह कट जाता. लेकिन तुम ने अपनी सुंदर आंखों से मेरे दिल को जगमगा दिया है. तुम ने यह क्या कियापलक झपकते ही मेरी दुनिया ही बदल डाली. बाप, भाई, मां सब से नाता टूट गया, यह तुम ने क्या किया. अब तुम मेरे खून में दौड़ने लगे.’ समर गुल चुपचाप सुनता रहा. फिर धीरे से बोला, ‘‘मरजाना!’’ वह एकदम चौंक पड़ी. उस के होंठ कांपने लगे. उस की भूरी आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं.

समर गुल उस के आंसू पोंछते हुए बोला, ‘‘तुम मुझे दूर पहाडि़यों में ढूंढ रही थी, लेकिन मैं यहां तुम्हारे दिल के पास खड़ा था.’’ ‘‘खुदा करे, मैं तुम्हें हर पल ढूंढती रहूं.’’ वह उस के पास बैठते हुए बोला, ‘‘मरजाना, मैं हत्या कर के बहुत पछता रहा हूं. लेकिन लगता है कि कुदरत ने तुम से मिलवाने के लिए मुझ से यह हत्या करवाई थी. मुझे हैरानी है कि पाप के बदले इतनी बड़ी खुशी मिली. डरता हूं कि यह खुशी छिन जाए.’’

मरजाना बोली, ‘‘तुम्हारे बिना मैं जीने की चाहत भी नहीं कर सकती. मुझे तुम पहले दिन से ही अच्छे लगने लगे थे. कुछ भी हो जाए, मुझे तुम अपने साथ ही पाओगे. मैं तुम्हारे बिना जिंदा नहीं रह सकती.’’ ‘‘मरने की बात न करो मरजाना.’’ ‘‘मेरा नाम मरजाना है गुल, मुझे मर जाना आता है. मरने की बात क्यों न करूं?’’ ‘‘नहीं मरजाना नहीं, मैं तुम्हें बाबा से मांग लूंगा. पूरी जिंदगी की गुलामी कर लूंगा. अगर तब भी नहीं माने तो बापभाइयों से कहूंगा कि मरजाना के कदमों में पैसे का ढेर लगा दो, उसे हीरेजवाहरात में तोल दो. सब कुछ ले लो मगर मरजाना को दे दो.’’

‘‘यह सब तो ठीक है, लेकिन गुल यहां के कानून के मुताबिक यहां के लोग अपनी बेटियों को सरहद के पार नहीं देते. देख लेना, बाबा तुम से यही कहेगा.’’ ‘‘इस का मतलब मरजाना, मैं तुम्हें कभी नहीं पा सकूंगा?’’ ‘‘मैं ने कह तो दिया मेरा नाम मरजाना है और मुझे मरना आता है.’’  ‘‘मरने की बातें मत करो मरजाना,’’ गुल ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया. अचानक कहीं से उस का कुत्ता गया और गुल के पांव चाटने लगा. गुल बोला, ‘‘देखो, एक दिन इस ने मेरी टांग पर काटा था और अब पैर चाट रहा है.’’ मरजाना बोली, ‘‘यह तुम्हारे प्रेम को समझ गया है.’’

कुछ देर बातें करने के बाद दोनों घर पहुंचे तो गुल के पिता, भाई और मामा बैठे थे और चाय पी रहे थे. गुल को उन्होंने गले लगा लिया. गुल के चेहरे की रंगत और सेहत देख कर सब हैरत में पड़ गए. उन के आने से केस के बारे में पता चला, पुलिस ने दोनों पार्टियों का समझौता करा कर केस बंद कर दिया था. वे लोग गुल को लेने के लिए आए थे. रात में गुल ने बड़े भाई को सब बातें बता दीं. साथ ही अपना फैसला भी सुना दिया कि वह वापस नहीं जाएगा और अगर जाएगा तो मरजाना भी साथ जाएगी. 

उस की बातें सुन कर उस का भाई परेशान हो गया. अंत में यह तय हुआ कि मरजाना के पिता से रिश्ता मांग लिया जाए. बहुत झिझक के साथ मरजाना के बाबा से उस के रिश्ते की बात की तो उस ने कहा, ‘‘देखो, मैं बहादुर आदमियों की इज्जत करता हूं. घर में शरण भी देता हूं लेकिन सरहद पार का पठान कितना भी बड़ा क्यों हो, हमारे कबीले के सरदारों का मुकाबला नहीं कर सकता. मैं किसी ऐसे आदमी को दामाद नहीं बना सकता, जो हमारे खून की बराबरी कर सके.’’

समर गुल के बाप ने मिन्नत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हजारों रुपयों का लालच दिया, लेकिन रुपयों की बात सुन कर उस ने कहा, ‘‘हमें रुपयों का लालच दो, हमारे पास पैसे की कोई कमी नहीं है. हम सरहद पार अपनी लड़की नहीं देंगे.’’ समर गुल ने ये बातें सुनीं तो उस की आंखों से नींद ही गायब हो गई. कुछ दिन पहले उस ने जो ख्वाब देखे थे, वे तिनके की तरह बिखर गए. इस का मतलब यह कि उसे बिना मरजाना के जाना होगा. अगली सुबह वे लोग अपने घर की ओर चल दिए. समर गुल ने आखिरी बार पीछे मुड़ कर देखा. वह रोने लगा. उस के भाई ने उसे गले से लगा लिया. उस का बाप, भाई और मामा उस के दुख को समझते थे. सब लोग चले जा रहे कि अचानक कुत्ते के भौंकने की आवाज आई. वह गुल की ओर दौड़ा चला आ रहा था. उस के पीछे मरजाना दौड़ी आ रही थी.

‘‘मरजाना…’’ गुल जोर से चीखा. मरजाना उस के पास आ कर उस के सामने खड़ी हो गई. वह हांफते हुए बोली, ‘‘मैं ने कहा था न, मेरा नाम मरजाना है, मुझे मरना आता है.’’ गुल ने अपने बाप की ओर इशारा करते हुए  मरजाना से कहा, ‘‘यह मेरे बाबा हैं.’’ मरजाना उस के बाप के पैरों में गिर गई और बोली, ‘‘बाबा, मुझे भी अपनी बेटी बना लो, अब मैं वापस नहीं जाऊंगी.’’ समर गुल का बाप उसे देख कर भौचक्का रह गया. उस ने उसे उठाया और ध्यान से देखा. वह लड़की उस के बेटे के लिए अपना परिवार, अपना वतन सब कुछ छोड़ कर आ गई थी. लेकिन वह तुरंत संभल गया. उस ने सोचा कि यह उस आदमी की बेटी भी तो है, जिस ने मेरे बेटे पर बड़े उपकार किए हैं. 

गुल के पिता ने उस के सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी इज्जत करता हूं. तुम ने मेरे बेटे से प्यार किया है, तुम जैसी लड़की लाखों में भी नहीं मिलेगी. लेकिन बेटी तुझे साथ ले जा कर मैं दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा. लोग कहेंगे सरहद के पठान का क्या यही किरदार होता है कि जिस थाली में खाए उसी में छेद करे.’’ मरजाना गिड़गिड़ाई, ‘‘बाबा, मैं वापस नहीं जाऊंगी, आप के साथ ही चलूंगी. यह सब दुनियादारी की बातें हैं.’’

समर गुल के बाप ने मरजाना को गले लगा कर कहा, ‘‘बेटी, जरा सोचो तुम अपने बाप की इज्जत हो. अपने भाइयों की आन हो, जब दुनिया यह सुनेगी, नौरोज खान की बेटी घर से भाग गई है तो तुम्हारे बाप के दिल पर क्या गुजरेगी? एक बाप के लिए यह बात मरने के बराबर होगी.’’ उस ने कहा, ‘‘बाबा, रात मैं ने कसम खाई थी कि जो रास्ता मैं ने चुना है, उस से पीछे नहीं हटूंगी.’’

समर गुल ने बाप से कहा, ‘‘बाबा, मान जाइए. इस ने कसम खा ली है. अगर यह मेरी नहीं हुई तो अपनी जान दे देगी और फिर मैं भी जिंदा नहीं रहूंगा.’’ बाप चुप हो गया और समर गुल का भाई व मामा भी चुप रहे. लगता था मोहब्बत जीत गई थी. मरजाना का कुत्ता बारीबारी से सब को सूंघ रहा था, जैसे सब को पहचानने की कोशिश कर रहा हो. समर गुल के बाप ने भीगी आंखों से मरजाना को गले लगा लिया और उस के सिर पर हाथ रख दिया.

शाम को इक्कादुक्का भेड़ें घर पहुंचीं, लेकिन उन के साथ मरजाना नहीं थी. कुत्ता भी गायब था, नौरोज का दिल बैठा जा रहा था. कुछ ही देर में पूरे गांव में यह खबर फैल गई कि नौरोज की लड़की मरजाना घर से भाग गई.अगले दिन तक आसपास के कबीलों में यह खबर पहुंच गई. दोस्त या दुश्मन सब के लिए यह खबर दुख की थी. यह सवाल नौरोज के घर की इज्जत का ही नहीं, बल्कि पूरे कबीले की इज्जत का था. तक हर गांव से हथियारबंद लड़के पहुंचने शुरू हो गए. कबीले का जिरगा (कबीले की संसद) बुलाया गया और यह तय किया गया कि हर गांव से एक जवान चुना जाए और ये जवान चारों ओर फैल जाएं. इन्हें हर हाल में मरजाना को ले कर आना होगा. जो जवान खाली हाथ सरहद पर वापस आता दिखाई दे, उसे तुरंत गोली मार दी जाए. इसलिए 25 जवानों का दस्ता मालिक नौरोज के नेतृत्व में रवाना हो गया.

समर गुल के बाप ने अपने गांव पहुंचते ही समर गुल और मरजाना का निकाह करा दिया. अभी उन की शादी को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि उन के गांव को चारों ओर से घेर कर अंधाधुंध फायरिंग होने लगी. गांव के लोग भी चुप नहीं थे. एक कबीले के सरदार की बेटी उन की बहू बनी थी, इसलिए गोली का जवाब गोली से दिया गया. 2 दिन तक फायरिंग होती रही, दोनों ओर से कई लोग घायल भी हुए लेकिन फायरिंग बंद नहीं हुई. मरजाना के हाथों की मेहंदी का रंग अभी ताजा था, उस में अभी तक महक थी. तीसरे दिन पुलिस की भारी कुमुक पहुंच गई और बहुत मुश्किल से फायरिंग पर काबू पाया गया. लेकिन नौरोज घेरा तोड़ने को तैयार नहीं हुआ. पुलिस औफीसर ने सोचा अगर इन पर सख्ती की गई तो यह कबीला मरनेमारने पर तैयार हो जाएगा. पुलिस अधिकारी ने समझदारी से काम लेते हुए दोनों ओर के 4-4 जवानों को चुना और उन की मीटिंग बैठा दी.

समर गुल के बाप ने कहा, ‘‘जो कुछ हुआ, मुझे उस का खेद है. हम पहले से ही मरजाना के पिता के सामने आंख उठा कर नहीं देख सकते. मैं उस से माफी मांगने के लिए भी पीछे नहीं हटूंगा. यह मैं किसी दबाव में नहीं कह रहा हूं बल्कि यह मेरे दिल की आवाज है. नौरोज ने हमारे ऊपर उपकार किया है, हम नौरोज से दगा करने वाले लोग नहीं हैं. अगर वह चाहे तो मरजाना के बदले मैं अपनी बेटी उस के बेटे से ब्याह सकता हूं. और अगर खून बहाना हो तो मेरे बेटे के बदले मैं अपना खून दे सकता हूं. मैं उन के साथ सरहद पर जा सकता हूं. वे मेरी हत्या कर के अपने दिल की भड़ास निकाल लें. जहां तक मरजाना का सवाल है, मेरा बेटा उसे भगा कर नहीं लाया है. हम ऐसा कर ही नहीं सकते. अब वह मेरी बहू बन चुकी है और उसे मैं किसी भी कीमत पर वापस नहीं करूंगा. बहू परिवार की इज्जत होती है.’’

जिरगे में मौजूद नौरोज खान ने कहा, ‘‘मुझे समर गुल के बाप का खून नहीं चाहिए. उस से मेरी प्यास नहीं बुझ सकती और ही उस की लड़की का रिश्ता चाहिए. उस से मेरी तसल्ली नहीं होगी. मुझे हीरेजवाहरात भी नहीं चाहिए, उन से मेरे घाव नहीं भर सकते. भागी हुई बेटी बाप की आत्मा में जो घाव लगा देती है, दुनिया की कोई दवा उसे ठीक नहीं कर सकती. थप्पड़ के बदले थप्पड़, हत्या के बदले हत्या की जा सकती है, लेकिन मैं दिल वालों से पूछता हूं, भागी हुई बेटी का बदला कोई किस तरह ले? मुझे समझाओ, मैं यहां क्या लेने आया हूं? समर के पिता को गोली मारूं, समर को गोली मारूं या अपनी बेटी को? कोई बतलाए कि मैं क्या करूं?’’ 

इतना कह कर मलिक नौरोज फूटफूट कर रोने लगा. सब ने पहली बार एक चट्टान को रोते देखा. मरजाना ने सब कुछ सुन लिया था. अपनी खुशी के लिए उस ने जो कदम उठाया था, वह अपने बाप के दुख के सामने कितना मामूली था. यह जीवन कितना अजीब है, दूसरों के लिए जीना, दूसरों के लिए मरना, उस ने समर गुल से कहा, ‘‘मेरे प्रियतम, अब मैं बहुत दूर चली जाऊंगी.’’

समर गुल कुछ नहीं बोला. उसे हक्काबक्का देखता रहा.

‘‘समर गुल,’’ उस ने रुंधी आवाज में कहा, ‘‘मुझे जाना ही होगा, मुझे मान लेना चाहिए. मैं बाप की इज्जत से खेली हूं. जीवन दूसरों के लिए होता है, मुझे आज इस का अहसास हुआ है.’’ ‘‘जो होना था, वह तो हो चुका.’’ समर गुल ने तड़प कर कहा, ‘‘गई हुई इज्जत तो गिरे हुए आंसुओं की तरह होती है, जो फिर हाथ नहीं आते.’’

‘‘हां, इज्जत वापस नहीं सकती, लेकिन मैं उस का प्रायश्चित करना चाहती हूं, मेरे जानम.’’ ‘‘तो तुम मरना चाहती हो?’’ ‘‘हां, मेरे बाप का कुछ तो बोझ हलका होगा, उस की आनबान को कुछ तो सहारा मिल जाएगा.’’ उस ने समर के सीने पर अपना सिर रख कर कहा, ‘‘यह मेरा आखिरी फैसला है, समर गुल. मेरे बाबा से कह दो, मैं उस के साथ जाने के लिए तैयार हूं.’’ जिरगे को बता दिया गया. समर गुल के बाप को बड़ी हैरत हुई. लेकिन मरजाना के बाप के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. उस ने राइफल की गोलियां निकाल कर फेंक दी, जंग खत्म हो गईवे लोग मरजाना को ले कर चल दिए. पूरा गांव उदास था. आई थी तो गई ही क्यों, हर एक की जुबान पर यही सवाल था. उस के जाने का कारण समर गुल के अलावा और कोई नहीं जानता था.

अगले दिन वे सरहद पर पहुंच गए. सब लोग सरहद पर रुक गए, लेकिन मरजाना नहीं रुकी. वह आगे बढ़ती रही. अचानक गोलियां की बौछार हुई, मरजाना तड़प कर मुड़ी और गिर पड़ी. हिचकी ली, एकदो बार मुंह खोला और शांत हो गई. उस की आंखें आसमान की ओर थीं, जैसे कह रही हों, ‘मेरा नाम मरजाना है, मुझे मर जाना आता है.’  

एक टुकड़ा सुख

संस्था में सुनील से मुलाकात के होने के बाद मुक्ता के मन में संस्था से निकल कर अपनी लाइफ को अपनी तरह से जीने की उम्मीद जागी थी. सुनील ने भी उस की सोच को नए पंख दे दिए थे. लेकिन यह पंख भी मुक्ता को एक टुकड़ा सुख से ज्यादा कुछ न दे सके.

आज सुबह से ही न जाने क्यों मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. किसी अनहोनी आशंका से मेरा मन घिरा हुआ था. मैं चाहते हुए भी स्वयं को संयत नहीं रख पा रहा था. जल्दीजल्दी नाश्ता किया और औफिस के लिए निकल पड़ा. मेरी पत्नी मानसी ने एकदो बार पूछा भी परंतु मैं उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया. बस, अनमने मन से कहा, ”नहीं, बस यूं ही, औफिस में थोड़ा ज्यादा काम है.’’ कह कर मैं ने बात टाल दी. अभी मैं अपने घर के दरवाजे तक भी नहीं पहुंचा था कि पीछे से मानसी ने आवाज दे कर याद दिलाया कि आप कार की चाबी और टिफिन बौक्स तो घर पर ही भूल गए हैं. वह मेरे पास आ कर बोली, ”तबीयत ठीक नहीं है तो मत जाओ.’’ 

जवाब में मैं ने कुछ नहीं कहा और बेमन से औफिस चला गया. अभी मैं औफिस में अपने कामों को देख ही रहा था कि याद आया आज तो मैं ने अपनी केबिन में रखे छोटे से मंदिर की दीयाबाती भी नहीं की. क्या हो गया है मुझे आज! मैं सोचने लगा. तब तक औफिस का चपरासी टेबल पर चाय और पानी का गिलास रख कर जाने लगा तो मैं ने उस से कहा, ”मिसेज शर्मा को भेज देना.’’ फिर कुछ सोच कर बोला, ”अच्छा रहने दो, मैं बाद में बुला लूंगा.’’ वह मेरा मुंह देखने लगा.

हमारे औफिस में मोबाइल सुनने पर पाबंदी थी, इसलिए सभी स्टाफ अपना मोबाइल साइलेंट मोड पर रखते थे. मैं ने भी अपना फोन वाइब्रेट मोड पर रख कर सामने रख दिया. तभी फोन धीरे से बज उठा. किसी अंजान नंबर से फोन था. मैं ने जैसे ही रिसीव किया तो दूसरी तरफ से किसी महिला की आवाज आई, ”नमस्ते सर, क्या मैं सुनीलजी से बात कर सकती हूं?’’

जी, बोल रहा हूं… आप कौन?’’

मैं देहरादून से बोल रही हूं बसेरासे.’’ 

मैं चौंक गया. बसेरावृद्ध असहाय लोगों का एक आश्रम था, जिसे एक एनजीओ चलाता था. 

जी, बात यह है कि आप को प्रशांतजी याद कर रहे थे… आज आप यहां आ सकते हैं क्या?’’

क्यों, क्या बात हो गई? सब ठीक तो है न?’’ मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.

सब कुछ तो ठीक नहीं है, बस आप यहां आ जाइए.’’

ठीक है, मैं एकदो दिन में आता हूं,’’ मैं ने कहा.

क्या आप आज नहीं आ सकते?’’ उस के स्वर में थोड़ी कंपन थी. शायद थोड़ा घबराई हुई भी थी.

अच्छा, मैं कोशिश करता हूं.’’ कह कर मैं ने काल डिसकनेक्ट कर दी.

10 बज चुके थे और मैं कितनी भी जल्दी करूं, 12 बजे से पहले की बस तो पकड़ ही नहीं सकता था. मैं ने जल्दीजल्दी अपना सारा काम मिसेज शर्मा को समझा दिया. उधर पत्नी मानसी को भी मैं ने जाने की तैयारी के लिए कह दिया. मुझे इसी भागदौड़ में बस मिल गई. मैं ने जानबूझ कर पीछे की सीट ली ताकि आगे के शोर से बच सकूं. बस चलते ही बाहर का शोर तो कम हो गया, पर अपने भीतर के शोर का क्या करता, वह तो देहरादून और बसेराकी यादों में उलझा रहा. मैं यादों को जितना दबाता, वह उतना ही उभर कर सामने आ जातीं और उन्हीं यादों में एक याद मुक्ता की भी थी.

 

2 साल पहले मुझे मेरी कंपनी ने उत्तराखंड में सर्वे के लिए भेजा था, ताकि हम अपना प्रोडक्ट ठीक से बाजार में उतार सकें. हमारी कंपनी हौट वाटर बोटल यानी गर्म पानी की रबर की बोतलें बनाती थी और उत्तराखंड ही ऐसा राज्य था, जहां इस का प्रचारप्रसार हो सकता था. मैं ने देहरादून को अपना स्टेशन बनाया और सर्वे करता रहा. कभी मसूरी, कभी नैनीताल और कभी ऋषिकेश में. मैं अपने सर्वे का दायरा बढ़ाता रहा. बीचबीच में जब भी समय मिलता, मैं आश्रमों और मंदिरों में जाने लगा. राजपुर रोड पर कई आश्रम थे और कहीं न कहीं कोई प्रोग्राम चलता ही रहता था.

एक दिन मैं यूं ही घूम रहा था कि मेरी नजर एक बोर्ड पर जा पड़ी. जिस पर लिखा था कि बसेरा नाम की संस्था भागवत सप्ताह मनाने जा रही है और योगदान की सारी राशि वृद्धाश्रम के लिए उपयोग की जाएगी. उन दोनों ही बातों ने मुझ में जिज्ञासा पैदा की. पता पढ़ कर मैं अगले दिन सुबह ही बसेरापहुंच गया. उस दिन रविवार था. जैसे ही मैं हाल में पहुंचा, लगभग सारी सीटें भर चुकी थीं. वह एक छोटा सा हाल था, जिस में 30-35 व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी. मैं ने उड़ती हुई नजर हाल में दौड़ाई और पीछे की एक कुरसी पर बैठ गया.

सामने की तरफ एक कोने में कुछ देवीदेवताओं की फोटो के सामने एक दीया जल रहा था और एक वृद्ध कुरसी पर बैठे किसी किताब के पन्ने पलट रहे थे. दूसरी तरफ एक मंडली भजन गा रही थी. भजन समाप्त होते ही महाराजजी ने धीमे मगर मधुर स्वर से भूमिका बांधनी शुरू की और भागवत का महत्त्व समझाने लगे. तभी एक 28-30 साल की महिला ने मेरे पास आ कर बड़ी विनम्रता से जूते बाहर उतारने के लिए निवेदन किया. मैं ने इस बात को पहले नहीं महसूस किया कि सभी के जूतेचप्पल हाल के बाहर रखे थे. मैं सब से पीछे बैठा था, इसलिए किसी का ध्यान मेरी तरफ नहीं गया. मेरे लिए जूते उतार कर बाहर रखना या जूते पहन कर बाहर जाना, सब का ध्यान आकर्षित करने जैसा था. 

मैं थोड़ा हिचकिचाने लगा कि अब क्या करूं. वह मेरी ही पंक्ति में कोने में बैठी थी. उस ने मेरी इस हिचकिचाहट को भांप लिया और इशारा किया कि चुपचाप जूते उतार कर अपनी कुरसी के नीचे रख दूं. उस दिन की भागवत की क्लास समाप्त होने पर शांति पाठ हुआ और सभी लोग महाराज के पीछे चले गए. वह जैसे ही अपने स्थान से उठी, मैं ने हाथ जोड़ कर उन्हें धन्यवाद दिया और जूते बाहर ले जा कर पहनने लगा. 

हाल में 2 व्हील चेयर पर वृद्ध से व्यक्ति बैठे थे. वह उठ कर उन में से एक को धीरेधीरे बाहर ले जाने लगी. मैं अपने स्थान पर खड़ा हो गया और धीरे से कहा, ”मैं कुछ मदद करूं?’’ तब तक वह दूसरी व्हील चेयर भी बाहर ले आई और हाल का दरवाजा बाहर से बंद करती हुई बोली, ”आप को कोई परेशानी न हो तो एक व्हील चेयर के साथ मेरे पीछेपीछे आ जाइए.’’  मैं ने अपने जीवन में कभी व्हील चेयर को हाथ तक नहीं लगाया था और किसी की मदद करने में बड़ा सुख महसूस हो रहा था. भीतर से कोई आवाज ऐसी भी आ रही थी कि कोई ऐसा मोहताज कभी न बने. उन में से एक को पार्क के पास छोड़ कर और दूसरे व्यक्ति को पास के ही एक कमरे में छोड़ कर वह मेरे पास आ गई.

आप पहली बार आए हैं यहां?’’ उस ने पूछा. 

मैं वहां का वातावरण देख कर इतना भावुक हो गया था कि मुंह से कोई शब्द नहीं निकला, सिर्फ सिर नीचा कर के हांकी. तब तक सामने से 2 व्यक्ति आ रहे थे. उस ने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम किया. मेरे हाथ भी खुदबखुद जुड़ गए. वह उन में से एक व्यक्ति की तरफ देखते हुए बोली, ”ये पहली बार आए हैं यहां, औफिस के बारे में पूछ रहे थे.’’ उन्होंने मुसकरा कर मेरा अभिनंदन किया और गेट के पास एक कमरे की तरफ इशारा कर के कहा कि आप वहां बैठिए, मैं थोड़ी देर में आता हूं. 

तब तक वह बोली, ”चलिए, आप को वहां तक ले चलती हूं. जिन से आप मिले थे, वह यहां के ट्रस्टी हैं.’’  बातों का सिलसिला जारी रखते हुए मैं ने अपना परिचय दिया, ”मेरा नाम सुनील है, अभी 3 महीने पहले ही यहां आया हूं. परसों आप की संस्था का बोर्ड पढ़ा था. सोचा एक बार देख लूं. किसी भी आश्रम में आने का मेरा यह पहला अनुभव है और वह भी ऐसी संस्था जहां ज्यादातर शायद वृद्ध ही रहते हैं. आप यहां के बारे में कुछ बताइए.’’

उस ने मुझे बताना शुरू किया, ”बसेरा नाम का यह ट्रस्ट केवल वृद्ध व्यक्तियों की सेवा करता है. सीनियर सिटिजन होम भी इसे कह सकते हैं. प्रशांतजी, जिन से आप अभी मिले थे, यहां के प्रधान ट्रस्टी हैं. उन्हीं का बनाया हुआ यह ट्रस्ट है. कुछ तो यहां अपनी खुशी से रह रहे हैं और कुछ मजबूरी से. समय बिताने के लिए यहां एक छोटा सा मंदिर, पार्क, सत्संग हाल और एक पुस्तकालय है, जिन की जैसी रुचि हो वहां चला जाता है. और एक किचन भी है जहां सभी पहुंच जाते हैं और जो नहीं पहुंच सकते, उन के कमरों तक भोजन, नाश्ता वगैरह पहुंचाया जाता है.’’

और इन सब के लिए धन कहां से आता है, मेरा मतलब खर्चे भी बहुत होते होंगे इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए.’’

हां, वह तो है… यह सब तो मैनेजमेंट ही जाने.’’ कह कर उस ने सामने के कमरे की तरफ इशारा कर के इंतजार करने के कहा.

मैं उन के कमरे के बाहर बरामदे में बैठ गया. थोड़ी देर में प्रशांतजी आए, मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया और बातोंबातों में कुछ अपनी गर्म पानी की बोतलें भेंट करने का आश्वासन दिया. वह लगभग 68 वर्ष के सौम्य और शालीन नेचर के व्यक्ति थे. लगभग 20 वर्ष पहले उन्होंने यह संस्था शुरू की थी. समय बीतता गया और लोग जुड़ते गए. समयसमय पर सत्संग, भजन, प्रवचन, होलीदिवाली मेलों इत्यादि का आयोजन करते रहते और इकट्ठा हुए धन से संस्था का काम करते रहते.

मेरे जीवन का किसी भी संस्था में जाने का यह पहला अनुभव था. मैं बहुत ही नपेतुले शब्दों का प्रयोग करता रहा और मेरे इसी व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर उन्होंने मुझे यहां आने का एक खुला आमंत्रण दे दिया. यहां पर 3-4 दंपतियों के अलावा 12 पुरुष और 8 महिलाएं भी रहते थे. मैं ने उस संस्था में जाना शुरू कर दिया और एकदम पीछे की कुरसी पर जा बैठता. कुछ व्यक्ति तो बैठेबैठे ही सो जाते और कुछ ध्यान से भागवत कथा सुनते रहते. मेरी मिलीजुली प्रक्रिया थी. कभी मन लगता, कभी इधरउधर देखने लगता. मैं यहां इसलिए आ जाता था कि मेरे पास औफिस के बाद और कोई काम नहीं था, दूसरा प्रसाद इतना मिल जाता कि रात को खाना खाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी. 

शायद इस के अलावा भी एक और बात थी, वह थी उस 28-30 वर्षीय महिला का आकर्षक व्यक्तित्त्व. न जाने उस में ऐसा क्या था कि मेरी नजरें उसी पर अटक जातीं. एक दिन सत्संग के बाद सारे पंखे और लाइटें बंद कर के वह हाल से बाहर निकल रही थी तो मैं ने उस से पूछा, ”यहां कोई कैंटीन भी है, जहां चायनाश्ता मिलता हो.’’

जी,’’ वह थोड़ा मुसकरा कर बोली, ”लाइब्रेरी के पीछे किचन है, आप चाहें तो पेंमेंट दे कर ले सकते हैं. आइए, मैं आप को दिखा देती हूं.’’ कह कर वह मेरे साथ चलने लगी.

आप यहीं रहती हैं क्या?’’ मैं ने पूछा.

जी,’’ कह कर वह अपनी चुन्नी सिर पर लेती हुई मेरी ओर देखने लगी. 

बातों का सिलसिला जारी रखते हुए मैं ने कहा, ”कब से?’’

पता नहीं शायद 7-8 साल तो हो गए होंगे, मेरा नाम मुक्ता है.’’

उस ने फिर से एक बार मुझे मुसकरा कर देखते हुए कहा, ”आप इधर से सामने की तरफ चले जाइए, वहां लिखा हुआ है. अच्छा, अब मैं चलती हूं, मेरा लाइब्रेरी का समय हो गया है.’’

वहां पढ़ती हैं आप?’’

ऐसा ही कुछ समझ लीजिए. मैं यहां की लाइब्रेरी संभालती हूं… जीने का कोई तो बहाना चाहिए…’’ कह कर वह मुंह फेर कर वहां से चली गई. 

वह नम्र और संयत स्वर में बात करती थी. एकदम नपातुला. कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो आंखों को बांध लेते हैं. वह भी ऐसी ही थी. परंतु उस के आखिरी वाक्य ने मेरे भीतर कई प्रश्न खड़े कर दिए. मैं रातभर उसी के बारे में सोचता रहा. अगले दिन मेरा आश्रम में जाना तय था. मैं सब से पहले वहां पहुंच गया और पीछे बैठ गया. धीरेधीरे लोग आते रहे, कुछ मेरी तरह बाहर से तो कुछ यहीं के. कुछ जानेपहचाने चेहरों ने मेरा मुसकरा कर स्वागत किया. मेरी नजरें जिसे तलाश रही थीं, वह वहां नहीं थी. 

इतने में एक व्हील चेयर के साथ वह आई. व्हील चेयर को एक कोने में खड़ा कर के टेबल पर रखी फोटो के सामने एक दीया और अगरबत्ती जला कर पीछे बैठ गई. मैं उसी को देखता रहा. उस ने भी चोर निगाहों से मुझे देखा और नजरें फेर लीं. सप्ताह के अंत तक यह भी स्पष्ट हो गया कि उसे भी मेरा इंतजार रहता है. बातचीत हम दोनों के बीच इतनी जरूरी नहीं थी जितना की आंखों का भाव. आखिरी दिन प्रसाद भंडारे में भी मैं ने अंत तक अपना योगदान दिया. यहां तक कि 10-12 सहायकों में मुझे भी शामिल कर लिया गया. मुझे जब भी समय मिलता, मैं किसी न किसी काम में शामिल कर लिया जाता. मुक्ता से भी मेरी मुलाकात लगभग हर रोज हो जाती. शायद यह भी झूठ नहीं होगा कि मैं मुक्ता से मिलने के बहाने इस संस्था से जुड़ता चला गया.

हमारे छोटे वाक्यों में बातचीत का सिलसिला चलता रहा. वह इस संस्था में काम न करती होती तो शायद मैं उसे कहीं घूमने के लिए कह देता. मुझे यहां की सीमाओं और मर्यादाओं ने बांध रखा था. एक दिन सुबह रविवार को मैं थोड़ा जल्दी पहुंच गया. पहुंचने का तो बहाना था. मैं ने सामने से मुक्ता को आते देखा. बजाय पार्क में जाने के, जहां पहले से ही कई बुजुर्ग व्यक्ति बैठे धूप का आनंद ले रहे थे, मैं लाइब्रेरी में चला गया. थोड़ी देर में वह इशारे से पूछने लगी कि मैं औफिस या पार्क में क्यों नहीं गया. यह मेरा सामान्य नियम था कि मैं औफिस से प्रशांतजी को मिल कर कुछ समय यहां सेवा करता रहता.

वो प्रशांतजी तो 11 बजे से पहले आएंगे नहीं, मुझे अपनी गाड़ी सर्विस करानी है तो सोचा पहले यहीं आ जाता हूं.’’ कह कर मैं ने मैगजीन स्टैंड से कुछ पत्रिकाएं उठा लीं और एक कोने में बैठ गया. वह इधरइधर पड़ी किताबें और अखबार समेटती रही.

एक बात पूछनी थी आप से?’’ मैं ने धीमे से कहा. वह मेरे पास आ कर बैठ गई और बहाने से एक रजिस्टर सामने रख लिया, जैसे वह भी मुझ से बात करने का कोई अवसर ढूंढ़ रही हो.

उस दिन आप ने कहा था कि जीने का कोई तो बहाना होना चाहिए, यह तो इतनी शांत जगह है फिर आप की शायद कोई जिम्मेदारियां भी नहीं लगतीं, यहां भी बहाने ढूंढने पड़ते हैं क्या?’’

वह मुझे ऐसे देखने लगी जैसे मैं ने कोई गलत बात पूछ ली हो. उस का चेहरा सफेद होने लगा. मुझे यहां आते लगभग 2 महीने बीत चुके थे पर मैं ने उस के चेहरे पर कभी कोई खुशी नहीं देखी. हमारे बीच एक सन्नाटा सा पसर गया. मुझे लगा कि या तो वह कुछ बताना नहीं चाहती थी या बताने के लिए शब्द ढूंढ रही थी. मैं ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ”माफ कीजिए, मैं कुछ ज्यादा ही बोल गया. कोई संकोच हो तो रहने दीजिए. मुझे तो यहां के तौरतरीके, बातचीत करने का ढंग भी नहीं आता.’’ कहतेकहते मैं ने अपनी लाचारी जताई और मैगजीन के पन्ने पलटने लगा.

मेरे पास बताने या छिपाने जैसी कोई बात नहीं है,’’ उस ने अपनी नजरें नीची कर लीं, ”अपने मम्मीपापा के साथ मैं काफी समय से यहां आती थी, लगभग हर छुट्टियों में. एक दिन पापा अचानक एक हादसे में चल बसे. न तो हमारे पास कोई जमापूंजी थी, न कोई अपना मकान. प्रशांतजी ने हमें हमारी हालत पर तरस खा कर यहां रहने की इजाजत दे दी. मम्मी भंडार घर में काम करने लगीं और मैं स्कूल जाने लगी.

”मेरी अभी इंटरमीडिएट की पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई कि मम्मी को कैंसर हो गया, न वह बच पाईं न मेरी पढ़ाई. मैं एकदम अकेली पड़ गई. कहां जाती. बस तब से यहीं पड़ी हूं. मेरा फिर हर चीज से मोह टूट गया. कुछ भी करने का मन नहीं करता…’’

तो क्या सारी जिंदगी यूं ही काट देंगी?’’

फिर कहां जाऊं, न कोई मेरी आमदनी है न कोई और ठिकाना, बस मजबूरी है. इतनी पढ़ीलिखी भी नहीं कि कोई मुझे काम दे देगा. और अकेली जवान लड़की. पापा को अपने परिवार के बारे में कुछ सोचना चाहिए था. कहीं कुछ तो जोड़ते.’’

कहतेकहते वह रुआंसी सी हो गई. मेरे पास कहने के लिए शब्द कम पड़ गए. मैं उस की तरफ देखता रहा. उस की आंखों में आंसू थे, जो मुझ से छिपा रही थी. घबरा कर मैं ने नजरें फेर लीं, हालात जैसे नजर आते हैं वैसे होते नहीं.

जिस का नसीब ही खोटा है वह क्या करे.’’ एक लंबी सांस भर कर उस ने कहा और वहां से चल दी. मैं भी बिना कुछ कहे वहां से उठ कर चला गया. दिन बीतते गए उन को तो बीतना ही था. मुक्ता मेरा अभिवादन अब मुसकरा कर करती. मैं कभीकभी चुपके से उस के लिए कोई मिठाई या कोई नियमित प्रयोग होने वाला कोई सामान देता रहता. कभीकभी वह भी छोटामोटा सामान मंगवाती रहती. मैं उस की मदद करना चाहता था. एक बार देर रात प्रशांतजी का फोन आया कि अचानक एक माताजी की तबीयत खराब हो गई है, उन को एम्स ले जाना है, वह स्वयं कहीं बाहर गए हुए थे. उन्होंने मुझ से निवेदन किया जो मैं मना नहीं कर सका. मेरे लिए उन वृद्ध माताजी को अस्पताल ले जाने का सौभाग्य तो था ही और उस से ज्यादा खुशी की बात यह थी कि मुक्ता को उन की सेवा में लगा दिया.

मैं ने उन दोनों को साथ ले जा कर इमरजेंसी में सारी औपचारिकताएं पूरी कर के भरती करा दिया. जब तक उन का चैकअप होता रहा, मुझे बाहर ही बैठना था, मुक्ता को उन माताजी के साथ रहना था. थोड़ी देर में मुक्ता भी बाहर आ कर मेरे पास बैठ गई. मैं ने सामने के कैफेटेरिया से 2 कप कौफी ली और उस के साथ बैठ गया. रात काफी हो चुकी थी. हमारे पास डाक्टर की रिपोर्ट का इंतजार करने के सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं था. मुझे तो जैसे 

इसी अवसर की तलाश थी. मुक्ता के चेहरे पर मैं ने पहली बार खुशी देखी. कहने लगी, ”पिछले एक साल से मैं पहली बार बाहर निकली हूं.’’

आप के निकलने पर कोई पाबंदी है क्या?’’

”पाबंदी तो नहीं है पर जाऊं भी कहां? मेरा और है ही कौन? जो कोई दूर पास के रिश्तेनाते थे, उन्होंने भी मां के मरने के बाद किनारा कर लिया. शायद मैं कोई डिमांड ही न कर बैठूं… या शायद उन पर बोझ ही न बन बैठूं. यहां कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो साधनसंपन्न हैं, उन के मिलने वाले कभीकभी उन को मसूरी, देहरादून या ऋषिकेश घुमाने ले जाते हैं, वह मुझे भी साथ ले जाना चाहते थे, पर यहां से इजाजत नहीं मिली.’’

कह कर वह वहां से मेरा भी खाली कप ले कर उठ गई. शायद वह भरे गले से मुझ से और बातचीत करने से बचना चाहती थी. तब तक ड्यूटी डाक्टर ने आ कर बताया, ”कोई घबराने वाली बात नहीं है, थोड़ी गैस्ट्रिक प्राब्लम है, अब थोड़ा ठीक है, सुबह तक हम उन को यहां रखेंगे, आप चाहें तो उन्हें सुबह ले जा सकते हैं.’’

मैं मुक्ता की तरफ देखने लगा, वह मेरा इशारा समझ गई. वह इतनी नादान भी नहीं थी, जितना मैं समझता था. कहने लगी, ”आप चाहें तो इन्हें यहां भरती कर लीजिए, हम लोग तो वृद्धाश्रम से आए हैं इन को ले कर. एकदो दिन में उन का कोई न कोई रिश्तेदार भी आ जाएगा, आश्रम में इन की देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है.’’

अस्पताल को भला इस में क्या परेशानी हो सकती थी, उन्होंने थोड़ी ही देर में उन को रूम में शिफ्ट कर दिया. मैं भी उन से इजाजत ले कर वहां से चला गया. मैं ने अगले 3 दिनों के लिए अपने औफिस से छुट्टी ले ली और दोपहर तक फिर से उन के रूम में पहुंच गया. माताजी मुझे देख कर बहुत खुश हुईं. बोली, ”बेटा, बहुतबहुत आशीर्वाद, कल रात तुम ने जो कुछ भी मेरे लिए किया, मैं हृदय से आभारी हूं. लोग अपनों के लिए इतना नहीं करते,’’ कहतेकहते उन की आवाज भर्रा गई.

तो क्या मैं पराया हूं. माताजी, जब एक रास्ता बंद हो जाता है तो कई और खुल जाते हैं. आप जब तक यहां हैं, मैं आप की सेवा में रहूंगा, आप चिंता मत कीजिए.’’ कह कर मैं सामने पड़ी कुरसी पर बैठ गया. 

मुक्ता ने मुझे देखते ही कहा, ”माताजी काफी समय से आप को याद कर रही थीं, उन का कुछ सामान, कपड़े, दवाइयां वगैरह उन के कमरे से लाना है, आप चल सकेंगे क्या?’’

इन का काम तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है, पर अकेले इन के कमरे में…’’

नहीं, मुझे साथ जाना होगा… मैं ने प्रशांतजी से बात कर ली है,’’ वह बोली.

कब जाना है?’’ मैं ने पूछा.

अभी चलें… अगर आप को कोई परेशानी न हो तो?’’

परेशानी होती तो यहां आता ही क्यों, आप बाहर आ जाइए, मैं गाड़ी निकाल कर लाता हूं.’’ कह कर मैं पार्किंग में चला गया. 

मेरी तो बांछें ही खिल गईं. अब तो मेरे पास उस के साथ जाने का आधिकारिक फरमान था. मैं ने उसे गाड़ी में बिठाया और रास्ते में पूछा, ”कुछ खाओगी क्या… कचौरी समोसे या कुछ और..?’’

हांहां क्यों नहीं…’’ उस ने चहकते हुए कहा.

चलो, फिर तुम को साउथ इंडियन खिलाता हूं,’’ कह कर मैं ने गाड़ी मद्रास कैफे की तरफ मोड़ दी. 

समोसेकचौरी तो तुम्हारे यहां भी मिल जाती होंगी, नहींï?’’ मैं ने उस की तरफ देखते हुए कहा, ”तुम्हें कोई जल्दी तो नहीं?’’

”मुझे कौन सी जल्दी है.’’ वह बोली तो मुझे लगा जैसे उस का बचपन फिर से लौट आया है. कितने अरमानों को मार कर वह बेचारी सी महसूस करती होगी. अपनी मरजी का कुछ भी नहीं. मैं ने थोड़ाथोड़ा कर के काफी कुछ मंगवा दिया. वह ऐसे खाती रही जैसे जीवन में पहली बार खाया हो.

कार में बैठते ही उस ने बिना किसी संकोच मेरे हाथ पर हाथ रख कर कहा, ”थैंक्यू.’’

उस के कोमल हाथों का स्पर्श मुझ में भीतर तक सिहरन पैदा करने लगा. स्पर्श का अपना ही एक सुख होता है. एक अनकहा पूरा वाक्य. मैं गियर बदलने के लिए वहां से हाथ हटाना नहीं चाहता था, देर तक हम दोनों यूं ही बैठे रहे. चुप्पी तोड़ते हुए मैं ने कहा, ”जानती हो, उस दिन रविवार सुबह मैं जल्दी आश्रम क्यों आ गया था?’’

”क्या आप नहीं जानते कि रविवार को लाइब्रेरी बंद रहती है? आप को दूर से आता देख कर मैं ने जानबूझ कर खोली थी कि शायद आप किसी बहाने वहां आओ. मुझे क्या मालूम था कि आप के भीतर कुछ चल रहा है.’’

मुक्ता के इस प्रतिप्रश्न से मेरे भीतर कुछ झन्न सा टूट गया. मैं ने यह तो सोचा भी न था, दिलों के इस खेल की शुरुआत तो दोनों तरफ से हो ही चुकी थी.

और शायद ऊपर वाले को मेरी नीरस सी जिंदगी पर तरस आ गया होगा, तभी तो आप मिल गए. अब मैं आप को खोना नहीं चाहती. सुना है इस जन्म के सारे संबंध पिछले जन्मों के बकाया लेनदेन को पूरा करने आते हैं.’’ कहतेकहते वह अपने विचारों में खो गई. मैं भी खयालों की दुनिया से यथार्थ में आ गया और यंत्रचलित हाथ कार को ठेल कर आश्रम आ गए. हमारे संबंध अब नजदीकी और मजबूत होते गए. मैं छोटेछोटे पल भी उस के साथ गुजारने लगा. उस को आश्रम से लाना, छोडऩा वगैरहवगैरह. तीसरे दिन माताजी को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी. 

मुक्ता ने बहुत कोशिश की कि किसी बहाने कुछ दिन और यहां माताजी को रखा जाए, पर ऐसा हो न सका. माताजी के घर से किसी व्यक्ति ने आ कर अस्पताल का सारा हिसाब कर दिया. मुक्ता माताजी के पास थी और मैं नीचे रिसैप्शन पर. जब सब कुछ सैटल हो गया तो मुक्ता भागीभागी मेरे पास आ कर बोली, ”अब तो यहां से जाना ही होगा. पता नहीं अब मेरा क्या होगा. कैसे रहूंगी आप के बिना.’’ कहतेकहते वह सारे संकोच छोड़ कर मुझ से लिपट गई और रोने लगी, ”मैं अब आश्रम नहीं जाना चाहती.’’

मेरे पास शब्द ही नहीं थे, अपने साथ भी नहीं रख सकता था और उस के बिना रहना भी मुश्किल था. पता नहीं वह कौन सा पल था, जो मुझे मुझ से ही चुरा कर ले गई. उस के शब्दों के साथ मेरा भी दिल बैठने लगा.

”क्या ऐसा कोई रास्ता नहीं कि मैं आप के आसपास रह सकूं… मेरा दिल बैठा जा रहा है, कोई तो उपाय होगा. झूठ ही कह दो कि आप भी मेरे बिना नहीं रह सकते.’’ वह भावुक हो कर बोली. तब तक दूर से माताजी को व्हील चेयर पर आते देख कर मैं उस से अलग हो गया. बड़े बेमन से वहां से उठा और कार ला कर पोर्च में खड़ी कर दी. माताजी रास्ते भर ढेर सारे आशीर्वचनों से मुझे लादती रहीं. उन सब को वृद्धाश्रम छोडऩे के बाद मैं वहां से निकल गया. मुक्ता से आंखें मिलाने का साहस अब मुझ में नहीं था, शब्दों की यहां कोई जरूरत नहीं थी.

दिन बीतते गए. बसेरा में मेरा आनाजाना लगा रहा. उस के निकट रहता तो सीमाएं टूटतीं और दूर रहता तो मन टूटता. सुबह उठते ही पहला खयाल उस का होता और आखिरी भी उस का. जिस दिन मैं नहीं आता, वह कहीं न कहीं से फोन करती. उस की आवाज भर्रा जाती और टूट भी जाती थी. जब से मैं ने माताजी की सेवा की, मेरा परिचय वहां के लोगों से बढऩे लगा. उन के मन में मेरे प्रति एक आदर का भाव था.

और एक दिन वही हुआ, जिस का मुझे डर था. प्रशांतजी ने मुझे बुला कर कहा, ”सुनीलजी, यह समाज पतिपत्नी के अलावा बाकी सभी रिश्तों को संदेह की नजर से देखता है, उन का न कोई नाम होता है न मुकाम. इन थोड़े से शब्दों को ही अधिक समझना, बाकी जैसा आप को ठीक लगे.’’ उन के शब्दों को मैं न समझ सकूं, ऐसा नासमझ भी नहीं था मैं. मुझ से न तो कोई जवाब देते बना, न ही मैं नजरें मिला सका. आगे कुछ और अप्रिय न सुनना पड़े, मैं वहां से उठ कर चला गया.

उस रात मेरी आंखों को नींद ने धोखा दे दिया. हार कर मुझे अपनी कामनाओं के पंख समेटने पड़े, जो इतना आसान नहीं था. मैं ने खुद को समझाने की कोशिश की, पर दिल कहां मानने वाला था. मैं ने वहां जाना अब कम करने का मन बनाया. मैं कोशिश करता कि उन जगहों पर न जाऊं, जहां मुक्ता के मिल जाने की संभावना थी. मैं अपने आप को ही धोखा दे रहा था. मैं उस को देखना भी चाहता था और उस से छिपना भी. महाशिवरात्रि के दिन मैं चुपचाप मंदिर में आया और पूजाअर्चना कर के पीछे के रास्ते से निकल रहा था. तभी अचानक मेरी नजर मुक्ता पर पड़ी. वह एक कोने में बैठी हुई थी. उस से नजरें मिलते ही मैं बेचैन हो गया. उस का चेहरा उतरा हुआ था और रंग भी पीला पड़ चुका था. निष्प्राण सा शरीर और निस्तेज आंखें मानों कई सालों से बीमार हो. मैं उस से नजरें चुरा कर पीछे के रास्ते से जा ही रहा था कि न जाने वह कहां से सामने आ गई.

ऐसा क्या गुनाह कर दिया मैं ने, एक टुकड़ा साथ ही तो मांगा था.’’ वह बोली.

क्या?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.

न आप लाइब्रेरी में मुझ से मिलने आते हैं, न मेरा फोन ही सुनते हैं. मुझ से मिलना नहीं चाहते क्या? आप से मिल कर जीवन जीने की कुछ आस बंधी थी और अब वह भी टूटती जा रही है. मैं ने ऐसा क्या जुर्म कर दिया, जिस का फैसला आप सुना रहे हैं? तुम क्यों आए थे यहां…’’ कहतेकहते वह रो पड़ी और नजरें हटा कर वहां से चली गई.

सच्चाई से ज्यादा मुश्किल सवाल था यह, जिस का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था. बस यह मेरी उस से आखिरी मुलाकात थी. इस के बाद मैं ने अपने दिल को मजबूत किया और वहां आनाजाना बंद कर दिया. उस ने कुछ दिनों तक तो बहुत फोन किए और करवाए भी, पर बड़ी विनम्रता से मैं ने पीठ दर्द का बहाना बना कर टाल दिया. असली दर्द तो मेरे सीने में था. मन के घावों को वक्त पर छोड़ कर वहां से चला आया. और आज अचानक ‘बसेरा’ से फोन आ गया. देहरादून छोड़े हुए मुझे 6 महीने से अधिक का समय हो गया था. मैं मुक्ता का सामना किस मुंह से कर पाऊंगा. सच कहूं तो एक भी दिन ऐसा नहीं गया, जब मैं ने उसे याद न किया हो. उस की यादें अब मेरी पर्सनल लाइफ को भी प्रभावित कर रही थीं.

शाम काफी हो चुकी थी. बसेराके गेट पर पहुंचते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. मैं दुआ करता रहा कि मुक्ता से सामना न हो तो अच्छा. मैं सीधा प्रशांतजी के औफिस गया, जहां वह मेरा ही इंतजार कर रहे थे.

कैसा रहा सफर, बहुत थक गए होगे. कुछ बात ही ऐसी है कि तुम को बुलाना पड़ा और तुम ने मेरा आग्रह मान कर फौरन हां कर दी, यह मेरा सौभाग्य है.’’ प्रशांतजी बोले.

मैं सामने की कुरसी पर बैठ गया और अगले वाक्य का इंतजार करने लगा.

तुम्हारे लिए चायनाश्ता मंगवाता हूं. फिर आराम से बात करेंगे. रात में तुम्हारे रहने की व्यवस्था भी यहीं करवा देता हूं.’’

नहीं रहने दीजिए… थोड़ी देर बाद ले लूंगा…’’ कह कर मैं ने बात टाल दी. मैं नहीं चाहता था कि मेरे आने का पता सब को चले.

उन्होंने अपनी कुरसी पीछे की और फिर आराम से बैठ गए.

बात यह है सुनीलजी कि मैं ने इस संस्था की 20 वर्षों से अधिक सेवा की. इस को वृद्ध लोगों का बसेराबनाया. अच्छे दिन भी देखे और बुरे भी. कई आए और चले गए. मुझ से अब यह बसेरानहीं संभलता. इसलिए मैं ने इस को नए लोगों के हाथों में सौंपने का फैसला किया है. कल हमारे ट्रस्ट की आखिरी मीटिंग है. आप ने इस संस्था के लिए जो भी योगदान दिया, उस के लिए मैं हृदय से आभारी हूं. यदि आप चाहें तो मैं आप का नाम ट्रस्टी में करवा सकता हूं, अभी इतना अधिकार मेरे पास है.’’

मैं खामोश रहा और उन की बातों का मतलब समझने लगा. परंतु मेरे मन में तो कुछ और ही चल रहा था. मैं ने एक लंबी सांस भर कर कहा, ”मुझे सोचने के लिए थोड़ा वक्त चाहिए. खैर… यहां और सब लोग कैसे हैं?’’

आप का मतलब मुक्ता से है?’’ उन्होंने सीधा प्रश्न किया. मैं खामोश रहा.

मिलना चाहेंगे उस से?’’

मैं ने धीरे से सिर हिला कर इंकार कर दिया. इतना तो पता चल गया कि वह यहीं है. मुझे उस समय उस के साथ बिताए एकएक पल याद आने लगे. उन का यह ऐसा प्रश्न था, जिस की उम्मीद नहीं थी. यह प्रश्न पूछने का साफ मतलब था कि उन्हें हमारे संबंधों का पता है.

”सर, यदि आप मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं तो मुक्ता के लिए कोई ऐसी व्यवस्था कर दीजिए कि उस को यहां से कोई निकाल न सके. मैं नहीं चाहता कि वह स्वयं को लाचार महसूस करे, अनाथ और बेसहारा महसूस करे.’’ पता नहीं उस समय मेरे मन में ऐसे विचार कहां से आए और मैं कह गया. वह कुछ देर मुझे देखते रहे. ट्रस्टी जैसे महत्त्वपूर्ण पद को छोड़ कर मैं मुक्ता के लिए कुछ मांग रहा था. फिर गंभीर हो कर कहने लगे, ”ठीक है, मैं उस को एक कमरा दिलवा देता हूं. वह जब तक जीवित रहेगी, उसे यहां से कोई नहीं निकालेगा, साथ ही वह यहां काम भी करती रहेगी, यह भी अभी तक मेरे अधिकार में है. परंतु आप को एक लाख रुपए की व्यवस्था करनी होगी. ट्रस्ट का ऐसा ही नियम है. मैं इस बारे में भी आप से बात करना चाहता था.’’

मैं अपनी कंपनी से आप को इस फंड में रुपए भिजवा देता हूं. यह मेरे अधिकार में है. हमारी कंपनी को ऐसे कार्य में योगदान के लिए कोई आपत्ति नहीं है.’’ मैं ने उन से धीरे से कहा.

मुक्ता को जीवन भर संस्था में रखने का भरोसा पा कर मैं बहुत खुश हुआ. मुझे बहुत सुकून मिला कि वह बेचारी अब जिंदगी भर वहां रह सकेगी.

लेखक –   डा. पंकज धवन

Webseries इल्लीगल : सीजन 3

वेब सीरीज इल्लीगल-3’ की कहानी तो कोई खास नहीं है, लेकिन इस में कई तरह के सब प्लौट हैं, जो कथा को व्यस्त और तनावपूर्ण रखते हैं. सीरीज में कानूनी लड़ाई से ले कर व्यक्तिगत संघर्षों तक कहानी एक तेज गति में दिखती है.

कलाकार: नेहा शर्मा, पीयूष मिश्रा, सत्यदीप मिश्रा, अक्षय ओबेराय, नील भूपलम, इरा दुबे, अचिंत कौर, विक्की अरोरा, अंशुमान मल्होत्रा, कीर्ति बिज, सोनाली सचदेवा, अशीमा वरदान

निर्माता: समर खान, आदित्य, निर्देशक: साहिर रजा, पटकथा: सुदीप निगम और भारत मिश्रा, लेखक: राधिका आनंद, ओटीटी: जियो सिनेमा

बौलीवुड एक्ट्रैस नेहा शर्मा और पीयूष मिश्रा की वेब सीरीज इल्लीगलका तीसरा सीजन 8 एपिसोड में जियो सिनेमा पर आ चुका है. पहले 2 सीजन की तरह इस बार भी इल्लीगल 3’ वेब सीरीज एक कोर्टरूम ड्रामा है. इस सीरीज में नेहा शर्मा एडवोकेट निहारिका सिंह के रोल में नजर आ रही हैं. सीरीज में नील भूपलम की एंट्री हुई है. नील भूपलम ने दुष्यंत राठौर के किरदार में लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.

सीरीज की शुरुआत निहारिका सिंह और उन के सहयोगी पुनीत (सत्यदीप मिश्रा) के अलग होने से होती है. सीरीज में कोर्टरूम ड्रामा को काफी अच्छे से दिखाया गया है. नेहा सिंह के अलावा वेब सीरीज में मुख्यमंत्री जनार्दन जेटली के रूप में पीयूष मिश्रा का किरदार भी दर्शकों पर असर छोड़ता है. इस वेब सीरीज की स्टोरी कुछ खास नहीं है. सीरीज राजनैतिक दांवपेंच और कानूनी काररवाई से भरी पड़ी है. कहानी कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच के अधिकारों की याद दिलाती है तो मुख्यमंत्री की नाजायज औलाद रनदीप की कहानी से लगता है कि यह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी हुई नजर आती है.

‘इल्लीगल 3’ की कहानी वकील निहारिका सिंह पर केंद्रित है, जो दिल्ली के जानेमाने वकील जनार्दन जेटली की प्रेस्टिजियस ला फर्म में अपना करिअर शुरू करती है. जैसेजैसे सीरीज आगे बढ़ती है, निहारिका कई चौंकाने वाले खुलासे करती जाती है. पूरे सीजन में निहारिका का किरदार दिल्ली की प्रमुख वकील बनने की महत्त्वाकांक्षा में अपने सिद्धांतों से समझौता करने से जूझता है. कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आते हैं, जब वह जिन मामलों पर काम करती है, उन से जुड़ी छिपी सच्चाइयों और काले रहस्यों का परदाफाश करती है.

पिछले सीजन में निहारिका ने लगातार अपने सीनियर जेजे (अब सीएम) को काम के प्रति उन के क्रूर रवैए के लिए दोषी ठहराया, लेकिन इस सीजन में उसे उसी राक्षस में बदलते हुए दिखाया गया है, जिस का उस ने कभी सामना किया था. निहारिका और जेजे के अलावा, ज्यादातर किरदार कार्डबोर्ड के टुकड़ों की तरह लगते हैं, जिन्हें ज्यादा बेहतरीन व्यक्तित्व की जरूरत होती है. अगर पुनीत एक आदर्शवादी है तो अक्षय डैडीमुद्दों वाला पुरुष है, जबकि जोया अहमद  निहारिका और दुष्यंत के युवा संस्करण की तरह लगती है.

इल्लीगल में सब से दिलचस्प एपिसोड दुष्यंत और उस की अभिनेत्री पत्नी अतीशा के बीच घरेलू हिंसा है, जिस में निहारिका न्याय के गलत छोर पर होने के बावजूद मामले को आगे बढ़ाती है. राजनीतिक ड्रामा तुलनात्मक रूप से उतना असरकारी नहीं है और पुनीत की पत्नी सू के गर्भपात के इर्दगिर्द का सबप्लौट भी बकवास लगता है.

एपीसोड

मेड लायर रिटर्ननाम के 40 मिनट के इस एपीसोड में पहले सीजन 2 का रिकैप दिखाया गया है, जिस में जनार्दन जेटली की ला फर्म में निहारिका काम करती है और बाद में दोनों आमनेसामने हो जाते हैं. जनार्दन जेटली के एक वकील से ले कर मुख्यमंत्री की कुरसी पाने की कहानी है. सीजन 3 की शुरुआत में एक एंबुलैंस में निहारिका सिंह (नेहा शर्मा) अपने साथी एडवोकेट पुनीत टंडन (सत्यदीप मिश्रा) को  हौस्पिटल ले कर पहुंचती है. एक घंटे पहले के घटनाक्रम को फ्लैशबैक में दिखाया गया है. 

नरेला में जिंगलपुर इंडस्ट्रीज के खिलाफ अर्थ नेक्स्ट एनजीओ के लोग प्रदर्शन कर रहे हैं, उस प्रदर्शन में पुनीत और निहारिका शामिल होते हैं, तभी दुष्यंत राठौर के कहने पर पुलिस वहां आ कर प्रदर्शनकारियों को रोकती है. भीड़ में से कोई पुलिस पर पथराव कर देता है और पुलिस बल प्रयोग करती है, जिस में पुनीत घायल हो जाता है.

हौस्पिटल में पुनीत की पत्नी सू उस से मिलने आती है, तभी पुनीत बाहर आ कर कोर्ट जा कर अर्थ नेक्स्ट के फाउंडर रीमा और फरहान की बेल करने की बात कहता है. उसी समय अक्षय जेटली भी निहारिका से मिलने आता है. अक्षय जेटली जिस होटल में रहता है, वहां उस का पिता दिल्ली सरकार का मुख्यमंत्री जनार्दन जेटली उर्फ जेजे (पीयूष मिश्रा) मिलने आता है, जहां वह अक्षय को सफाई दे कर कहता है कि उस की मां रोहिणी का खून उस ने नहीं किया है, लेकिन अक्षय उस की बात सुनने के बजाय उसे होटल से बाहर जाने को कहता है. 

कार में जाते समय जेजे अपने पीए को पत्थरबाजी करने वालों की जानकारी लेने को कहता है. इधर पुनीत कोर्ट में जिरह कर के रीमा और फरहान की जमानत करवा लेता है. अंकुश सिंघल जो अर्थ नेक्स्ट संस्था का फाउंडर है, मीडिया के सामने पत्थरबाजी की जिम्मेदारी लेता है. इस के बाद पुलिस रीमा और फरहान को रात के समय घर से अरेस्ट कर लेती है. पुनीत और निहारिका फिर से उन की जमानत के लिए कोशिश करने लगते हैं. अक्षय निहारिका को बहुत सारे पार्सल भेज कर उस के घर मिलने पहुंच जाता है और फिर से दोस्ती का वास्ता दे कर उस के नजदीक आना चाहता है.

इधर निहारिका दुष्यंत राठौर (नील भूपलम) से मिल कर बताती है कि उस की फर्म ने उस की फर्म से लाखों रुपए के चैक से पारस जैम्स कंपनी को फायदा पहुंचाया है. यह कंपनी मिस्टर मुंजाल की है, जिस का दामाद अंकुश सिंघल है. जिंगलपुर इंडस्ट्रीज के खिलाफ आंदोलन को रोकने के लिए अंकुश सिंघल को पैसे देने की बात कहने पर दुष्यंत बिना डरे निहारिका को कोर्ट जाने की सलाह देता है.

जनार्दन जेटली प्रेस कौन्फ्रैंस कर जानकारी देता है कि सरकार अपनी जमीन दुष्यंत जैसे पूंजीपतियों के हाथों में नहीं जाने देगी. निहारिका कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर के जिंगलपुर इंडस्ट्रीज की जमीन शरणार्थियों को (आईडीपीएस) को वापस देने की गुहार लगाती है. निहारिका दुष्यंत से मिल कर नया दांव खेलती है. वह दुष्यंत से लिंगलपुर इंडस्टी से प्रभावित लोगों को मजनू का टीला के पास जमीन दे कर मुआवजा देने और सभी कामगारों को 2 साल तक फैक्ट्री में काम देने और अर्थ नेक्स्ट के खिलाफ शिकायतों को वापस लेने की शर्त पर पिटीशन वापस लेने का प्रस्ताव रखती है, जिन्हें दुष्यंत मान लेता है. 

लेखक ने डायलौग लिखते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा कि दुष्यंत जैसा बिजनैसमैन, जो कई कंपनियों का मालिक है, वह बातचीत में तो अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल करता है, मगर दूसरी तरफ भद्दी और फूहड़ गालियां भी बकता है, जिन से उस के कैरेक्टर पर सवालिया निशान लगता है.

एपीसोड 2

37 मिनट के दूसरे एपीसोड का नाम लव एंड लासहै, जिस की शुरुआत एक गरमागरम सीन से होती है. दुष्यंत एक अवार्ड फंक्शन में जाने से पहले बंद कमरे में लड़की के साथ रोमांस कर रहा है. पुनीत रीमा और फरहान की रिहाई के लिए निहारिका के पास पहुंचता है, मगर निहारिका अपनी सहायक शायना के साथ किसी क्लाइंट से मिलने चली जाती है. अक्षय निहारिका को पुरानी बातें भुला कर फिर से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश करता है. पार्टी में दुष्यंत की तीसरी बीवी अतीसा (इरा दुबे) किसी बात को ले कर दुष्यंत को भलाबुरा कहती हैं तो दुष्यंत गुस्से से उसे जमीन पर गिरा देता है. एपीसोड में अंगरेजी डायलौग की भरमार है. जिसे देख कर लगता है कि दर्शक कोई इंगलिश मूवी देख रहे हैं.

निहारिका पुनीत के किसी काम में रुचि नहीं ले रही है. शनाया इस बात से चिंतित हैं कि कहीं पुनीत को निहारिका और दुष्यंत के बीच की डील का पता न चल जाए. पुंडीर साहब की पार्टी में सीएम जेटली पहुंचता है, वहां महिला लीडर मृणालिनी (अचिंत कौर) से मुलाकात में पता चलता है कि वे दिल्ली की एलजी बनने वाली है. धर दुष्यंत के खिलाफ अतीशा कोर्ट में केस कर देती है और दुष्यंत की तरफ से निहारिका वकालत करती है. अतीशा की तरफ से जोया अहमद (जयन मेरी खान) कोर्ट में खड़ी होती है. 

जेटली पत्रकार के माध्यम से एक इंटरव्यू रिकौर्ड करवा कर यह बताता है कि नरेला की जमीन शरणार्थियों को दिलाने वह दुष्यंत जैसे दुशासन से लड़ता रहेगा. वह अपने पीए ओपी को कहता है कि सोशल मीडिया में यह खबर फैला दो कि लेफ्टिनेंट गवर्नर सीएम को काम नहीं करने दे रही.

एपीसोड

34 मिनट के तीसरे एपीसोड का नाम ‘लोनली ऐट द टौप’ है, जिस की शुरुआत कोर्ट के एक अर्दली शरद और एडवोकेट जोया अहमद की बातचीत से शुरू होती है. जोया अहमद शरद की बेटी सोनाली के डायवोर्स केस को लडऩे का फैसला करती है तो भावनात्मक रूप से शरद उस का शुक्रिया अदा करता है. दूसरे सीन में सीएम जेटली हुमायूं के मकबरे में अपने नाजायज बेटे रनदीप (विक्की अरोरा) से मिलता है तो रनदीप मेरठ से दिल्ली में उस के साथ रहने की जिद करता है. मगर जेटली उसे लंदन भेजने का बंदोबस्त करने को कह कर वहां से चला जाता है.

जेटली पुनीत को बुला कर बताता है कि पत्थरबाजी अर्थ नेक्स्ट के लोगों ने नहीं, बल्कि किसी और ने की थी. जेटली पुनीत को इस का सबूत देने और सरकार का चीफ पब्लिक प्रौसीक्यूटर बनाने का प्रलोभन देता है.  अक्षय जोया को उस की फर्म में उस का औफिस दिखाता है तो जोया कहती है कि वह निहारिका के खिलाफ केस लड़ कर उसे खत्म करना चाहती तो अक्षय मना करता है. तभी अतीसा का फोन आने पर जोया वहां से चली जाती है.

पुनीत पत्नी सुलेखा (कीर्ति विज) से जेजे के प्रपोजल पर बात करता है तो वह भी अपनी सहमति देते हुए कहती है कि रीमा और फरहान को जेल से बाहर निकालने के लिए जेजे की बात मान लेना ही समझदारी है. इधर दुष्यंत न्यूज सुन कर घबरा जाता है और निहारिका से फोन पर बात करता है तो निहारिका उस की जमानत करने की बात कहती है. मगर जोया अपनी चाल से किसी दूसरे क्लाइंट में निहारिका को उलझा देती है और जब तक निहारिका कोर्ट पहुंचती है, कोर्ट के दरवाजे बंद हो चुके होते है. 

दुष्यंत की जमानत के लिए निहारिका कोर्ट में देर से पहुंचे इस के लिए जोया द्वारा जिस पागल खानदान को भेजा गया है, वह दृश्य भी कोई खास प्रभाव दर्शकों पर नहीं छोड़ पाता है. यहां पर कमजोर पटकथा और निर्देशन की कमी साफ दिखाई देती है. पुलिस दुष्यंत को 2 दिन की न्यायिक हिरासत में लेती है, यह समाचार सुन कर सीएम जेटली बेहद खुश होता है. निहारिका पुलिस लौकअप में बंद दुष्यंत से मिलने जाती है तो दुष्यंत उसे डांटता है. इस पर निहारिका माफी मांगते हुए 2 दिन बाद जमानत करवाने का वचन देती है.

पुनीत को रात के अंधेरे में जेटली का पीए ओपी किसी लालू नाम के पेशेवर अपराधी से मिलवाता है जो पुनीत को बताता है कि दुष्यंत के लिए काम करने वाले लाखन मंडल और सुरेश जैन के कहने पर उस ने पत्थरबाजी की थी.

एपीसोड

35 मिनट के चौथे एपीसोड का नाम गेम औनहै. इस में शनाया के पास निखिल मेहरा (अंशुमान मल्होत्रा) की मां उसे ले कर आती है. निखिल को मल्टीपल स्केलिरिस बीमारी है, जिस की वजह से उसे असहनीय दर्द होता है. देशविदेश में इलाज के बाद भी कोई दवा, थैरेपी से उसे राहत नहीं मिल रही. निखिल इच्छामृत्यु के लिए कोर्ट में पिटीशन दाखिल करना चाहता है. इधर पुनीत रीमा और फरहान को रिहा करवा देता है. पुनीत और निहारिका में उसूलों को ले कर फिर बहस होती है. सबइंसपेक्टर दानियल शेख पुलिस स्टेशन में रनदीप को लंदन का टिकट, होटल बुकिंग के पेपर और खर्च के लिए पैसे दे कर कहता है कि कल सुबह की फ्लाइट से लंदन जाना है, ये जेजे सर का आदेश है, मगर रनदीप पेपर फाड़ कर कहता है कि वह कहीं नहीं जाएगा.

शनाया और निहारिका दुष्यंत की बेल के बारे में चर्चा करते हैं. सीएम जेजे पुनीत के औफिस खुद मिलने पहुंच जाता है और पुनीत को कहता है कि यदि दुष्यंत को हराना है तो दिल्ली पुलिस से 2 कदम आगे चलना होगा. अंकुश सिंघल को पकड़ो और कोर्ट में साबित कर दो कि उस बयान के पीछे दुष्यंत का हाथ था, फिर देखो यह जमीन हमारे कब्जे में होगी. निहारिका के घर में अक्षय उसे दुष्यंत की बेल के लिए शुभकामनाएं देता है तो निहारिका अक्षय को जोया अहमद को हायर करने की बधाई देती है. इस को ले कर निहारिका नाराज हो जाती है, मगर अक्षय उसे मना लेता है. दोनों खाना खाने मेज पर पहुंचते हैं, तभी दिलबहार आ कर निहारिका को उस दिन की घटना के संबंध में बताता है. 

दुष्यंत की रिहाई के बाद निहारिका अतीसा मेवानी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करती है. कोर्ट में जोया और निहारिका के बीच शानदार जिरह होती है. निहारिका अतीसा के खिलाफ जिंगलपुर इंडस्ट्रीज हड़पने का आरोप लगाती है तो जोया और निहारिका कोर्टरूम में भिड़ जाती हैं. इस पर मजिस्ट्रैट उन्हें फटकार लगाता है और सुनवाई की अगली तारीख देता है.

शनाया और निहारिका एक बार में बैठ कर बातें कर रहे होते हैं, तभी एक जगह से लड़की शोर मचाती है. शनाया का ध्यान उस तरफ जाता है, जहां तान्या नाम की लड़की निखिल पर इसलिए गुस्सा हो रही है कि निखिल ने पैंट में पेशाब कर ली है. वह सफाई देता है, मगर तान्या उस से गुस्सा हो कर भाग जाती है.  निखिल व्हीलचेयर से गिर जाता है. शनाया और निहारिका उसे उठा कर कपड़े साफ करती हैं और उस के घर छोडऩे जाती हैं. वहां उस की मां से बातचीत में निखिल की बीमारी और परेशानी से वाकिफ होती हैं और निखिल की इच्छामृत्यु का केस लडऩे के लिए तैयार होती है.

अर्थ नेक्स्ट के एक प्रोग्राम में सीएम जेटली मीडिया के सामने कहता है कि दिल्ली सरकार ने इस जमीन को दोबारा वापस लेने के लिए एक अरजी एलजी साहिबा के पास लगाई थी, मगर एलजी साहिबा केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं. न्यूज सुन रही मृणालिनी दिल्ली के पुलिस कमिश्नर से कहती है कि जांच को डिले करने से कुछ नहीं होगा, वह मीडिया के कंधे पर बंदूक रख कर चला रहा है. 

एपीसोड

41 मिनट के पांचवें एपीसोड का नाम पावर प्लेहै. इस एपिसोड की शुरुआत में दिखाया गया है कि लाखन मंडल अपने बेटे बिजू के घावों पर मरहमपट्टी लगाते हुए पूछ रहा है कि ये किस ने कियाबिजू बताता है कि जेटली की पार्टी की स्टूडेंट्स यूनियन के लड़कों ने उसे इसलिए मारा है, क्योंकि वह विरोधी पार्टी का है. एलजी मृणालिनी अक्षय को वह फाइल सौंपती है, जिस में जेटली और रनदीप के कारनामों का काला चिट्ठा है.

कोर्ट में निखिल मेहरा के इच्छामृत्यु के केस की सुनवाई होती है, जिस में निहारिका और पुनीत के द्वारा बेहतरीन तरीके से जिरह की जाती है और मजिस्ट्रैट भी इमोशनल हो कर एक्सपर्ट की राय सुनना चाहता है. इस रोग की एक्सपर्ट डा. भारती कोर्ट को बताती है कि इस रोग के इलाज हेतु नई थैरेपी ईजाद हो रही है. निहारिका के पूछने पर डा. भारती स्वीकार करती है कि निखिल का केस यूनिक है. निहारिका और पुनीत कोर्ट में बहस के दौरान आमनेसामने आ जाते हैं तो मजिस्ट्रैट डांटते हुए अगली सुनवाई की तारीख दे देता है.

पुनीत की पत्नी सुलेखा, जिस को 20 सप्ताह का गर्भ है, को डा. जाह्नïवी के क्लीनिक ले जाता है, जहां डा. जाह्नïवी बताती है कि भ्रूण का ब्रेन विकसित नहीं हुआ है, ऐसी स्थिति में यदि वह बच्चे को जन्म देगी तो बच्चे की अधिकतम उम्र 10 साल होगी और वह हमेशा दर्द से परेशान रहेगा, इसलिए डाक्टर एबार्शन करवाने की सलाह देती है. पुनीत की पत्नी सुलेखा की प्रेगनेंसी की रिपोर्ट में आने वाले बच्चे के रोग की वजह से एबार्शन की कहानी ज्यादा असर नहीं डाल पाई. इस समस्या की तुलना निखिल मेहरा के असहनीय दर्द और लाइलाज बीमारी से करना दर्शकों के गले नहीं उतरता.

कोर्ट में अतीसा मेवानी राठौर के केस की सुनवाई में भी जोया और निहारिका की बहस को रोचक अंदाज में पेश किया गया है. दुष्यंत के थप्पड़ मारने की रिपोर्ट में आंख के नीचे जिस चोट के निशान का उल्लेख किया गया है, उसे निहारिका फोरैंसिक एक्सपर्ट के बयान से यह साबित कर देती है कि वह मेकअप आर्टिस्ट द्वारा बनाया गया है. फोन काल आने पर पुनीत सीएम जेटली से मिलने जाता है, जहां पर वह बताता है कि जोया अहमद अब उन के लिए काम करेगी. सीएम का पीए ओमप्रकाश पुनीत को बताता है कि जोया ने कंफर्म किया है कि अंकुश ने दुष्यंत से पैसे ले कर मीडिया में बयान दिया था. मजिस्ट्रैट जोया को अपने क्लाइंट से बात करने का समय और चेतावनी दे कर अगली सुनवाई बंद कमरे की बजाय प्रिंट मीडिया की उपस्थिति में करने का आदेश देता है.

सीएम जेटली अपने निवास से एलजी से मिलने पदयात्रा करने का ड्रामा करता है. एलजी मृणालिनी से मिलबांट कर खाने और काम करने का समझौता होता है. रेस्टोरेंट में निहारिका अक्षय का इंतजार कर रही है. उधर अक्षय मृणालिनी की दी गई फाइल खोल कर देखता है तो रनदीप का पता लगाने वह फोन पर बुरी तरह चीखने लगता है. कुछ देर बाद निहारिका उस के पास पहुंचती है तो वह बताता है कि रनदीप ने उस की मां का मर्डर किया था और अब रनदीप मेरठ में है.

दिलबहार निहारिका को फोन कर के बताता है कि वह अतीसा के बौडीगार्ड रौकी का पीछा कर रहा है. इस के बाद निखिल मेहरा और निहारिका के बीच इमोशनल बातचीत होती है, जिस में निखिल अपनी परेशानी बता कर निहारिका को यह केस जीत लेने की बात कह कर रो पड़ता है.

एपीसोड

40 मिनट के छठवें एपीसोड का नाम सीक्रेट ऐंड सैक्रीफाइसहै, जिस की शुरुआत में शनाया हाथ में मोबाइल लिए रेलवे स्टेशन से बाहर निकलती है. उस के मोबाइल पर किसी बच्चे के रोने की आवाज आती है. शनाया घर पहुंचती है, जहां उस की बहन बेहोश पड़ी है और उस का बच्चा रो रहा है. वह एंबुलैंस से उन्हें हौस्पिटल पहुंचाती है. लाखन मंडल सीएम जेटली से मिल कर अपने बेटे पर हुए हमले का दुखड़ा सुनाता है तो जेटली उस का स्टेटमेंट रिकौर्ड कराता है, जिस में वह दुष्यंत राठौर पर आरोप लगाता है कि उस ने झूठी दिलासा दे कर शरणार्थियों की जमीन धोखे से अपने कब्जे में कर ली. सीएम जेटली इस स्टेटमेंट को सभी टीवी चैनल पर चलवाने का निर्देश देता है.

शनाया और प्रीति की बातचीत से पता चलता है कि शनाया का असली नाम आकांक्षा तिवारी है. मगर इस छोटे से सीन से दर्शकों को समझ नहीं आता कि आखिर आकांक्षा अपना असली नाम क्यों छिपा रही है. रनदीप अक्षय को कुरसी से बांध कर टौर्चर करता है और उस की फोटो जेटली को भेज देता है. इधर अक्षय किसी नुकीली चीज से अपने हाथों में बंधी रस्सी खोल लेता है. दर्शकों के लिए यह समझना बड़ा मुश्किल है कि बंधे हाथों में वह नुकीली चीज आई कहां से. 

अक्षय और रनदीप के बीच हाथापाई होती है, तभी रनदीप की पिस्टल गिर जाती है, जिसे अक्षय उठा कर उस के ऊपर तान देता है. उसी समय जेटली भी वहां पहुंचता है और गोली चलने की आवाज आती है. यह सस्पेंस बना रहता है कि रनदीप पर गोली किस ने चलाई. कोर्ट में निखिल मेहरा के केस की सुनवाई हो रही है. मजिस्ट्रैट निखिल की मां श्वेता और पिता हरीश के पक्ष को सुनते हैं, जहां मां निखिल के असहनीय दर्द और बीमारी का कोई इलाज न होने की बात कह कर इच्छा मृत्यु मांगती है तो वहीं पिता उसे जिंदा रखने की बात रखता है. मजिस्ट्रैट यह कह कर एक हफ्ते का वक्त मांगता है कि हिंदुस्तान में अभी तक इच्छामृत्यु के पक्ष में कोई फैसला नहीं हुआ है.

कोर्ट में दुष्यंत अतीसा केस की सुनवाई में निहारिका की जगह हड़बड़ी में देर से शनाया पहुंचती है और जज उसे बताता है कि जोया ने एक गवाह एंड किया है. इस पर शनाया वक्त मांगती है तो जज सुनवाई टाल देता है. कोर्टरूम से बाहर निकल कर शनाया दुष्यंत से उस गवाह आरती भटनागर के बारे में पूछती है तो पता चलता है कि आरती दुष्यंत की कालेज में क्लासमेट रही है, जिस के साथ दुष्यंत ने मारपीट की थी. 

निहारिका अक्षय को ले कर पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराती है और अक्षय मीडिया के सामने बयान दे कर बताता है कि रनदीप का खून जेजे ने किया है. यह खबर सुन कर जेजे को दिल का दौरा पड़ता है.

एपीसोड

सातवें एपीसोड का नाम टेबल्स टर्नहै, जो 37 मिनट का है. मुख्यमंत्री जेटली के निवास के सामने लोग तख्तियां लिए जेटली के विरोध में नारेबाजी कर रहे हैं. दिल्ली और मेरठ पुलिस स्थिति पर नजर रख काररवाई करने की बात कर रही है. जेटली जोया और एसके से निहारिका को उस का केस लडऩे को कहते हैं. जोया और एसके के साथ जेटली एक फोटो शेयर करते हुए लिखता है कि जेटली एसोसिएट अब जनार्दन जेटली को रिप्रेजेंट करेंगे तो अक्षय बौखला जाता है.

जोया और निहारिका के बीच जोरदार बहस होती है. निहारिका अतीसा से कुछ सवाल पूछती है, जिस के उत्तर में अतीसा बताती है कि दुष्यंत नशे में धुत हो कर उस की पिटाई करता था और नशा उतरते ही अपने व्यवहार के लिए माफी मांगता. इस वजह से उस ने कभी इस की शिकायत नहीं की. एक फाइल देते हुए अतीसा से आखिरी सवाल पूछने की इजाजत निहारिका जज से मांगती है, जोया विरोध करती है. जज की इजाजत पर निहारिका अतीसा से पूछती है कि वह दुष्यंत की मार सहने के बाद कभी डाक्टर के पास गईं तो अतीसा मना कर देती है. इस पर निहारिका जज को अतीसा की मैडिकल रिपोर्ट पढऩे को कहती है, जिस में डाक्टर ने ऐसी बीमारी डायग्नोस की है, जिस में उस के रक्त का थक्का नहीं जमता. 

निहारिका अतीसा को झूठा साबित कर देती है. तब दुष्यंत को घरेलू हिंसा के केस में बाइज्जत बरी कर देता है. इधर पुनीत अक्षय को समझाता है कि उस की इमेज मीडिया में एक पागल की तरह बन गई है. वह पुनीत की सलाह पर एक यूट्यूबर की मदद से अक्षय के इंटरव्यू को रिकौर्ड कराता है, जिस में जेटली के खिलाफ बहुत सारे सबूत हैं. यही सबूत पुलिस को भी सौंपे जाते हैं. जेटली के खिलाफ मनी ट्रांसफर के सबूत तो हैं, परंतु रनदीप की बौडी न मिलने से जेटली के खिलाफ ऐक्शन नहीं हो रहा. अक्षय मृणालिनी से बात करता है तो दिल्ली पुलिस जेजे को गिरफ्तार कर लेती है.

मृणालिनी के कहने पर अक्षय मेरठ पुलिस स्टेशन जा कर इंसपेक्टर डेनियल शेख से रनदीप की बौडी खोजने की बात कहता है, उसी समय उस का सस्पेंशन और्डर का फोन आ जाता है. केस की जांच दिल्ली पुलिस के हाथों में आ जाती है और वह रनदीप की डैडबौडी खोज निकालती है. कोर्ट में सीएम जेटली के केस की सुनवाई शुरू होने वाली होती है. जज काररवाई शुरू करने के लिए निहारिका को बुलाते हैं. वह बताती है कि वह जेटली की अटर्नी नहीं है. तब जज उसे वकालतनामा दिखाते हुए पूछता है कि ये दस्तखत तो आप के ही हैं. निहारिका आश्चर्य से देखती है. तब पता चलता है कि किसी ने धोखे से उस के हस्ताक्षर वकालतनामा पर करवा लिए हैं.

एपीसोड

43 मिनट के आखिरी एपीसोड का नाम द बर्डन औफ ट्रुथहै. एपीसोड की शुरुआत में जज निहारिका को जेजे का केस न लडऩे पर लाइसेंस रद्द करने की हिदायत देता है. निहारिका के नाम का वकालतनामा के संबंध में शनाया कुछ सफाई देना चाहती है, मगर निहारिका उसे डांट लगाती है. अक्षय भी यह सुन कर नाराज हो जाता है. जेजे निहारिका को बुला कर बताता है कि रनदीप को उस ने नहीं, अक्षय ने मारा है. वह निहारिका को बताता है कि रनदीप उस का बेटा था, मगर उसे वह सब नहीं मिल सका, जो उस का हक था. वह निहारिका से कहता है कि केस तो कोई भी लड़ सकता है, मगर तुम दोनों को डिफेंड करोगी. 

तुम्हारा प्यार गुनहगार को बचाएगा और तुम्हारा ईमान बेकुसूर को न्याय दिलाएगा. कोर्ट में पुनीत और निहारिका की गरमागरम बहस होती है और निहारिका को कोर्ट एक हफ्ते का वक्त देता है. हौस्पिटल आ कर निखिल के पिता उसे क्लीनिकल ट्रायल के लिए बंगलुरु ले जाने की बात कह कर रूम से बाहर निकलते हैं. तभी निहारिका निखिल के पास लगे उपकरण को स्विच औफ करना चाहती है, मगर निखिल की मां वहां आ जाती है. वह निहारिका के गाल पर प्यार से हाथ फेरती है. निहारिका रूम से जैसे बाहर जाती है, निखिल की मां उस स्विच को बंद कर देती है और कुछ ही क्षणों में निखिल की मौत हो जाती है. बाहर निहारिका की आंखों में आंसू देख कर निखिल के पिता अंदर आते हैं.

शनाया निहारिका के घर जा कर बताती है कि उस का असली नाम आकांक्षा तिवारी है, वह गरीब परिवार से है. वकालत करने के बाद उसे जौब नहीं मिल रही थी, इसलिए उस ने अपना नाम शनाया रख लिया.  जोया को यह सब पता चल गया तो वह ब्लैकमैल करने लगी. जोया के कहने पर ही उस ने जेजे के केस के वकालतनामा पर आप से दस्तखत करवा लिए. निहारिका टीवी चैनल पर एक न्यूज देख रही होती है, जिस में बताया जा रहा है कि दिल्ली की उपराज्यपाल मृणालिनी ने उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाए जाने को ले कर वहां के मुख्यमंत्री की निंदा की है. एक किसान माधव चौहान कहता है कि जेटली के जाते ही यह सब आरोप लगना शुरू हो गए. किसान तो वही करेगा, जो उस के बापदादा करते आए हैं.

निहारिका जज को एक एफिडेविट दे कर बताती है कि मेरठ के श्याम नगर में रहने वाले उत्कर्ष गुप्ता ने रनदीप से 2 लाख रुपए उधार लिए थे, जो वह चुका नहीं सका. इस वजह से उस ने रनदीप को मार दिया है. निहारिका रनदीप के पास मिले गन और दूसरे सबूत भी अदालत में पेश करती है. कोर्ट दिल्ली पुलिस को उन के खिलाफ घूस का प्रकरण दर्ज करने और उत्कर्ष गुप्ता के खिलाफ रनदीप का मर्डर करने का केस दर्ज करने का निर्देश देता है. कोर्टरूम से बाहर निकलते ही अक्षय निहारिका के पास जा कर जेटली की तरफ इशारा कर कहता कि वह जेल जाएगा.

दिल्ली पुलिस अक्षय को गोली मारने के आरोप में डेनियल को गिरफ्तार कर लेती है. निहारिका की मौजूदगी में अक्षय का अंतिम संस्कार होता है, वहीं पर पुलिस आ कर निहारिका को निखिल के खिलाफ जान से मारने की कोशिश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है. वेब सीरीज का अंत बोरिंग तरीके से दिखाया गया है, जिस में जेल में बीड़ी पीते हुए जेटली को उपदेशक की भूमिका में दिखाया गया है.

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा का जन्म 21 नवंबर, 1987 को भागलपुर बिहार में हुआ था. नेहा शर्मा के पिता अजित शर्मा एक राजनेता हैं, जो भागलपुर से कांग्रेसी विधायक हैं. उन के पिता ने 2024 का लोकसभा चुनाव भागलपुर सीट से लड़ा था, परन्तु उन्हें हार का सामना करना पड़ा. नेहा शर्मा ने अपनी शुरुआती पढाई माउंट कार्मेल स्कूल भागलपुर से कर नैशनल इंस्टीट्यूट औफ फैशन टेक्नोलौजी (हृढ्ढस्नञ्ज) से फैशन डिजाइन की पढ़ाई की थी. नेहा शर्मा ने अपने करिअर की शुरुआत तेलुगू फिल्म चिरुथासे की थी. इस फिल्म में चरण तेज के अपोजिट नजर आई थी. उस ने हिंदी सिनेमा में मोहित सूरी की फिल्म क्रुकसे शुरुआत की थी, जिस में इमरान हाशमी भी था. 

उस की यह पहली फिल्म बौक्स औफिस पर कोई कमाल नहीं दिखा सकी. इस के बाद वह तेरी मेरी कहानीऔर कौमेडी फिल्म क्या सुपर कूल हैं हममें नजर आई. इस फिल्म में उस के अलावा रितेश देशमुख और तुषार कपूर भी थे. उसे इस फिल्म में अभिनय के लिए आलोचकों से मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली थी. इस के बाद वह कौमेडी लव स्टोरी जयंतु भाई की लवस्टोरी में विवेक ओबराय संग नजर आई और यह फिल्म भी बौक्स औफिस पर बुरी तरह फ्लौप साबित हुई. उस का अब तक हिंदी फिल्मों का करिअर कुछ खास नहीं रहा. साल 2020 में आई फिल्म तान्हाजीउन के करिअर की इकलौती ब्लौकबस्टर फिल्म है. नेहा की आने वाली फिल्म जोगीरा सारा रा राहै, जिस में वह नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ नजर आएगी.

पीयूष मिश्रा

पीयूष मिश्रा का जन्म 13 जनवरी, 1963 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था. पीयूष मिश्रा को उस के पिता की बड़ी बुआ ने गोद लिया था, जिस के बाद उस का नाम प्रियाकांत शर्मा हुआ. पीयूष मिश्रा ने अपनी पढाई कार्मेल कौन्वेंट स्कूल, ग्वालियर से पूरी की थी. बचपन से ही पीयूष सिंगिंग, पेंटिंग और ऐक्टिंग में दिलचस्पी रखता था. ऐक्टिंग के शौक ने उसे नैशनल स्कूल औफ ड्रामा पहुंचा दिया. पीयूष मिश्रा की शादी प्रिया नारायण से हुई, दोनों की मुलाकात वर्ष 1992 में हुई थी.

वर्ष 1986 में नैशनल स्कूल औफ ड्रामा से पास आउट होने के बाद पीयूष ने दिल्ली में ही थिएटर करना शुरू कर दिया. फिल्मी दुनिया में कदम रखने से पहले पीयूष कई लोकप्रिय थिएटर स्टेज शोज का हिस्सा बना. उस ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा वर्ष 1998 में फिल्म ‘दिल से’ में, इस फिल्म में वह एक सीबीआई इनवैस्टीगेशन औफिसर की भूमिका में नजर आया था. इस के बाद उस ने कुछ खास फिल्मों के डायलौग भी लिखे. पीयूष को हिंदी सिनेमा में पहचान विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ से मिली, इस फिल्म में पीयूष ने काका की भूमिका निभाई थी, जिसे दर्शकों ने बेहद सराहा था. इस के बाद पीयूष ने ‘गुलाल’, ‘गैंग औफवासेपुर’ में महत्त्वपूर्ण किरदार निभाया है.

अक्षय ओबेराय

अक्षय ओबेराय भारतीय मूल का एक अमेरिकी अभिनेता है, जो हिंदी फिल्मों में ऐक्टिंग करता है. 2002 की कौमेडी-ड्रामा अमेरिकन चायमें बतौर बाल कलाकार के रूप में अभिनय की शुरुआत की थी, अक्षय ने 2010 में राजश्री प्रोडक्शंस में बनी फिल्म इसी लाइफमें अपनी पहली प्रमुख भूमिका निभाई थी. अक्षय ओबेराय का जन्म पहली जनवरी, 1985 को संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यू जर्सी में हुआ था. अक्षय के पिता कृष्ण ओबेराय, अभिनेता सुरेश ओबेराय के भाई हैं और अक्षय विवेक ओबेराय का चचेरा भाई है. 

अक्षय ने नेवार्क एकेडमी से स्कूली शिक्षा प्राप्त की और बाल्टीमोर में जोंस हापकिंस विश्वविद्यालय से रंगमंच कला और अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की है. उस ने न्यूयार्क शहर में स्टेला एडलर और फिर लौस एंजिल्स में प्लेहाउस वेस्ट में अभिनय प्रशिक्षण पूरा किया. अपनी शिक्षा के दौरान उस ने द एडम्स फैमिलीसे जौन एस्टिन के साथ अभिनय का अध्ययन किया. साथ ही, उस ने ब्रौडवे डांस सेंटर में बैले, जैज और हिपहौप नृत्य का भी अध्ययन किया.

भारत आने के बाद अक्षय ने पृथ्वी थिएटर  में नाटक किए और किशोर नमित कपूर से प्रशिक्षण लिया. फिल्म लाल रंगऔर गुडग़ांवमें दर्शकों ने अक्षय के काम को पसंद किया है. इल्लीगल 3’ में अक्षय ने सीएम के बेटे अक्षय जेटली का किरदार निभाया है. मानसिक रूप से अस्थिर और एक पागल प्रेमी के किरदार में फिट नजर आया है.

 

 

दीवार की नींव खोदी तो मिला तीन किलो सोने का घंटा

नजीर और सुगरा बेहद गरीब थे. बरसात में घर की दीवार गिर जाने के बाद जब उन्होंने नींव खोदी तो 3 सेर का एक घंटा मिला. नजीर ने वह घंटा 50 रुपए में रंजन को बेच दिया. पता चला वह सोने का घंटा था, उसी को ले कर 2 कत्ल हुए लेकिन घंटा…   

ला बिलकुल सीधी पड़ी थी. सीने पर दो जख्म थे. एक गरदन के करीब, दूसरा ठीक दिल पर. नीचे नीली दरी बिछी थी, जिस पर खून जमा था. वहीं मृतक के सिर के कुछ बाल भी पडे़ थे. वारदात अमृतसर के करीबी कस्बे ढाब में हुई थी. मरने वाले का नाम रंजन सिंह था, उम्र करीब 45 साल. उस की किराने की दुकान थी. फिर अचानक ही उस के पास कहीं से काफी पैसा गया था. उस ने एक छोटी हवेली खरीद ली थी. 3 महीने पहले उस ने उसी पैसे से बड़ी धूमधाम से अपनी बेटी की शादी की थी. रंजन का कत्ल उस की नई हवेली में हुआ था. उस के 2 बेटे थे, दोनों अलग रहते थे. बाप से उन का मिलनाजुलना नहीं था. बीवी 3 साल पहले मर चुकी थी. घर पर वह अकेला रहता था. नौकरानी सुगरा दोपहर में रंजन के घर तब आती थी, जब वह अपने काम पर होता था. सुगरा घर का काम और खाना वगैरह बना कर चली जाती थी

रंजन ने घर के ताले की एक चाबी उसे दे रखी थी. कत्ल के रोज भी सुगरा खाना बना कर चली गई थी. रात को रंजन आया और खाना खा कर सो गया. सुबह कोई उस से मिलने आया. खटखटाने पर भी दरवाजा नहीं खुला तो वह पड़ोसी की छत से रंजन के घर में घुसा, जहां खून में लथपथ उस की लाश पड़ी मिली. मैं ने बहुत बारीकी से जांच की. कमरे में संघर्ष के आसार साफ नजर रहे थे. चीजे बिखरी हुई थीं. सबूत इकट्ठा कर के मैं ने लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दी. उस के बाद मैं गवाहों के बयान लेने लग गया. सब से पहले पड़ोसी गफूर का बयान लिया गया

उस ने दावे से कहा कि रात को रंजन की हवेली से लड़ाईझगडे़ की कोई आवाज नहीं आई थी. उस ने बताया कि रंजन सिंह बेटी की शादी के बाद से खुद शादी करना चाहता था. उस ने एक दो लोगों से रिश्ता ढूंढने को कहा था. बेटों और बहुओं से उस की कतई नहीं बनती थी. मैं ने गफूर से पूछा, ‘‘तुम पड़ोसी हो तुम्हें तो पता होगा उस के पास 6-7 महीने पहले इतना पैसा कहां से आया था?’’ गफूर ने सोच कर जवाब दिया, ‘‘साहब, यह तो मुझे नहीं मालूम, पर सब कहते हैं कि उसे कहीं से गड़ा हुआ खजाना मिल गया. पर रंजन कहता था उस का अनाज का व्यापार बहुत अच्छा चल रहा है.’’

जरूरी काररवाई कर के मैं थाने लौट आया. शाम को मैं ने बिलाल शाह को भेज कर सुगरा और उस के शौहर को बुलवाया. सुगरा 22-23 साल की खूबसूरत औरत थी. उस की गोद में डेढ़ साल का प्यारा सा बच्चा था. गरीबी और भूख ने उस की हालत खराब कर रखी थी. उस के कपड़े पुराने और फटे हुए थे. यही हाल उस के शौहर का था. उस के हाथ पर पट्टी बंधी हुई थी. मैं ने नजीर से पूछा, ‘‘तुम्हारे हाथ पर चोट कैसे लगी?’’

‘‘साहब, खराद मशीन में हाथ गया था. 2 जगह से हड्डी टूट गई थी. 2-3 औपरेशन हो चुके हैं पर फायदा नहीं है.’’

‘‘क्या खराद मशीन तुम्हारी अपनी है?’’

‘‘नहीं जनाब, मैं दूसरे के यहां 50 रुपए महीने पर नौकरी करता था. हाथ टूटने के बाद उस ने निकाल दिया.’’

दोनों मियां बीवी सिसकसिसक कर रो रहे थे. पर मैं अपने फर्ज से बंधा हुआ था. मैं ने नजीर को बाहर भेज दिया और सुगरा से पूछा, ‘‘सुना है तुम्हारा शौहर पसंद नहीं करता था कि तुम किसी और के घर काम करो. इस बात पर वह तुम से झगड़ता भी था. क्या यह सच है?’’ ‘‘जी हां साहब, उसे पसंद नहीं था पर मेरी मजबूरी थी. मेरे तीनों बच्चे भूखे मर रहे थे. काम कर के मैं उन्हें खाना तो खिला सकती थी. मैं ने गुड्डू के अब्बा से हाथ जोड़ कर रंजन चाचा के घर काम करने की इजाजत मागी थी और वह मान भी गया था.’’

‘‘पर गांव वाले तुम्हारे और रंजन के बारे में बेहूदा बातें करते थे. यह बातें तुम्हें और तुम्हारे शौहर को भी पता चलती होंगी?’’ ‘‘साहब, जिन के दिल काले हैं, वही गंदी बातें सोचते हैं. रंजन चाचा मेरे साथ बहुत अच्छा सलूक करते थे. जब मैं काम करती थी, तब वह घर पर होते ही नहीं थे. लोगों की जुबान बंद करने के लिए मैं अपने बच्चों को भूखा नहीं मार सकती थी.’’

‘‘सुगरा, ऐसा भी तो हो सकता है कि गुस्से में कर नजीर ने रंजन सिंह को मार डाला हो?’’

‘‘नहीं साहब, वह कभी किसी का खून नहीं कर सकता. वैसे भी वह हाथ से मजबूर है, सीधा हाथ हिला भी नहीं सकता.’’

इस बारे में मैं ने नजीर से भी पूछताछ की. उस ने बताया कि उस रात 11 बजे तक वह अपने दोस्त अशरफ के यहां था. मैं ने नजीर से कहा, ‘‘लोग तुम्हारी बीवी के बारे में जो बेहूदा बातें करते थे, उस पर तुम्हें गुस्सा नहीं आता था, कहीं इसी गुस्से में तो तुम ने रंजन को नहीं मार डाला?’’ ‘‘तौबा करें साहब, हम गरीब मजबूर इंसान हैं. ऐसा सोच भी नहीं सकते. हमारी भूख और मजबूरी के आगे गैरत हार जाती है.’’ मैं ने उन दोनों को घर जाने दिया, क्योंकि वे लोग बेकसूर नजर आ रहे थे.

मैं ने एक बार फिर रंजन के घर की अच्छे से तलाशी ली. दरी के ऊपर एक घड़ी पड़ी थी. अलमारियां खुली हुई थीं, पर यह पता लगाना मुश्किल था कि क्याक्या सामान गया है? बेटों को भी कुछ पता नहीं था, क्योंकि वह बाप की दूसरी शादी के सख्त खिलाफ थे, इसलिए आनाजाना बंद था. पोस्टमार्टम के बाद रंजन सिंह का अंतिम संस्कार कर दिया गया. इस मौके पर सभी रिश्तेदार मौजूद थे. उस के दोनों बेटे रूप सिंह और शेर सिंह भी थे. बाद में मैं ने रूप सिंह को बुलाया. वह आते ही फट पड़ा, ‘‘थानेदार साहब, हमारे बापू को किसी और ने नहीं नजीर ने ही मारा है. दोनों मियांबीवी बापू के पीछे हाथ धो कर पड़े थे. सुगरा को पता होगा जेवर और पैसे कहां हैं. उसी के लिए मेरा बापू मारा गया.’’

मैं ने उसे समझाया, ‘‘हमारी नजर सब पर है. तुम उस की फिक्र मत करो. तुम यह बताओ कि हादसे की रात तुम कहां थे और बाप से क्यों झगड़ा चल रहा था?’’

‘‘मैं अपने घर में था. मेरी घर वाली को बेटा हुआ था. दोस्त और रिश्तेदार मिल कर जश्न माना रहे थे.’’

‘‘तुम्हारे यहां बेटा हुआ, जश्न मना, पर बाप को खबर देने की जरूरत नहीं समझी, क्यों? तुम काम क्या करते हो.’’ 

‘‘बापू की दूसरी शादी की वजह से झगड़ा चल रहा था. इसलिए उसे नहीं बताया. मैं मोमबत्ती और अगरबत्ती बनाने का काम करता हूं.’’

दोनों बेटों से पूछताछ करने से भी कोई नतीजा नहीं निकला. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट गई, जिस से पता चला रंजन नींद की गोलियों के नशे में था. इस रिपोर्ट से मेरा शक सुगरा की तरफ बढ़ गया. पर मेरे पास कोई सबूत नहीं था. रिपोर्ट मिलने के बाद मैं रंजन सिंह के घर पहुंचा. वहां देनों बेटे और बेटी भी मौजूद थे. बेटी रोरो कर बेहाल थी. मैं ने नींद की गोलियों की तलाश में अलमारी छान मारी पर कहीं कुछ नहीं मिला. उस की बेटी का कहना था कि उस का बापू नींद की गोलियां नहीं खाता था. 2 दिन बाद डीएसपी बारा सिंह खुद ढाब पहुंचा. वह बहुत गुस्से में था. कहने लगा, ‘‘सारी कहानी और सबूत सुगरा और नजीर की तरफ इशारा कर रहे हैं कि कत्ल उन्होंने ही किया है. फौरन उन्हें गिरफ्तार कर के पूछताछ करो.’’

मैं ने उन दोनों को गिरफ्तार कर के जेल में डाल दिया और सख्ती भी की, पर दोनों रोते रहे, कसमें खाते रहे कि उन्होंने कुछ नहीं किया है. मैं डीएसपी के हुक्म के आगे मजबूर था. डीएसपी के जाने के बाद मैं ने सुगरा को छोड़ दिया, क्योंकि उस की हालत बहुत बुरी थी. वह बच्चों के लिए तड़प रही थी. मेरी हमदर्दी सुगरा के साथ थी. क्योंकि वह बेकसूर लग रही थी, पर नींद की गोलियां का मामला साफ होने के बाद ही यकीन से कुछ कहा जा सकता था. मुझे यह पता करना था कि गोलियां कहां से खरीदी गई थीं. कस्बे में एक ही बड़ी दुकान थी. उस के मालिक गनपत लाल को मैं जानता था

उस ने पूछताछ के बाद बताया कि करीब एक महीने पहले रंजन सिंह उस की दुकान से कुछ दवाइयां ले कर गया था, जिस में नींद की गोलियां भी शामिल थीं. यह एक पक्का सबूत था. मैं ने उस से बयान लिखवा कर साइन करवा लिया. मैं वापस थाने पहुंचा तो सुगरा नजीर से मिलने आई थी. वही बुरे हाल, फटे कपड़े, रोता बच्चा, अखबार में लिपटी 2 रोटियां और प्याज. उसे देख कर बड़ा तरस आया. काश, मैं उस के लिए कुछ कर सकता. दूसरे दिन गांव में एक झगड़ा हो गया. दोनों पार्टियां मेरे पास गईं. मैं उन दोनों की रिपोर्ट लिखवा रहा था. तभी मुझे खबर मिली कि ढाब का नंबरदार लहना सिंह मुझ से मिलने आया है. उस ने अंदर कर कहा, ‘‘नवाज साहब, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है. कुछ वक्त दे दें.’’ 

मुझे लगा कि वह इसी लड़ाई के बारे में कुछ कहना चाहता होगा. मैं ने उसे बाहर बैठ कर कुछ देर इंतजार करने को कहा. वह अनमना सा बाहर चला गया. इस झगड़े में एक आदमी बहुत जख्मी हुआ था, जो अस्पताल में भरती था. काम निपटाते निपटाते 2 घंटे लग गए. फिर मैं ने लहना सिंह को बुलवाया तो पता चला वह चला गया है. मैं ने शाम को एक सिपाही को यह कह कर लहना सिंह के घर भेजा कि उसे बुला लाएपता चला कि वह अभी तक घर ही नहीं पहुंचा है. मुझे कुछ गड़बड़ नजर रही थी. 11 बजे के करीब लहना सिंह का छोटा भाई बलराज आया. कहने लगा, ‘‘इंसपेक्टर साहब, लहना सिंह का कहीं पता नहीं चल रहा है. हम सब जगह देख चुके हैं.’’

मैं परेशान हो गया, क्योंकि लहना सिंह का इस तरह से गायब होना किसी हादसे की तरफ इशारा कर रहा था. मैं ने बलराज से पूछा, ‘‘लहना सिंह की किसी से लड़ाई तो नहीं थी?’’

‘‘साहब, एक दो महीने पहले उन की चौधरी श्याम सिंह से जम कर लड़ाई हुई थी. दोनों एकदूसरे को मरने मारने पर उतारू थे. मेरा पूरा शक श्याम सिंह पर है.’’ मुझे मालूम था कि श्याम सिंह रसूखदार आदमी है. उसी वक्त लहना सिंह का बेटा और एक दो लोग भागते हुए थाने आए और कहने लगे, ‘‘साहब, जल्दी चलिए. श्याम सिंह ने लहना सिंह को कत्ल कर दिया है या फिर जख्मी कर के अगवा कर लिया है. हवेली के पीछे मैदान में खून के धब्बे मिले हैं.’’

मैं फौरन मौका वारदात के लिए रवाना हो गया. उन दोनों की लड़ाई के बारे में मैं ने भी सुना था. श्याम सिंह शहर से एक तवायफ ले आया था, जिसे उस ने अपने डेरे पर रख रखा था. एक दिन मौका पा कर नशे में धुत लहना सिंह वहां पहुंच गया और उस ने दो साथियों के साथ उस तवायफ से ज्यादती कर डाली. इस बात को ले कर दोनों में बहुत झगड़ा हुआ था. यह बात गांव में सब को पता थी. लहना सिंह की हवेली के पीछे एक सुनसान मैदान था. वहां शौर्टकट के लिए एक पगडंड़ी थी. वहीं पर कच्ची जमीन पर 3-4 जगह खून के धब्बे थे. वहीं पर लहना सिंह की एक जूती भी पड़ी थी. संघर्ष के भी निशान थे. कुछ दूर तक जख्मी को घसीट कर ले जाया गया था. उस के बाद उसे उठा कर ले गए थे. मैं ने मौके की जगह की अच्छी तरह जांच की. कुछ बयान लिए. लेकिन हादसे का चश्मदीद गवाह एक भी नहीं मिला.

 मैं थाने पहुंचा तो देखा चौधरी श्याम सिंह शान से बैठा हुआ था. मैं ने उस से अकेले में बात करना बेहतर समझा. मैं ने कहा, ‘‘देखो चौधरी, लंबे चक्कर में पड़ना ठीक नहीं है. अगर लहना सिंह तुम्हारे पास है तो उसे बरामद करा दो. मैं कोई केस नहीं बनाऊंगा.’’ वह मुस्कुरा कर बोला, ‘‘नवाज साहब, हम केस से या कोर्ट कचहरी से नहीं डरते, पर सच्ची बात यह है कि मैं ने एक हफ्ते से लहना सिंह को नहीं देखा. हमारी लड़ाई जरूर हुई थी पर मुझे उसे उठा कर छुपाने की क्या जरूरत है?’’

 छुपाने की बात कहते हुए वह कुछ घबरा सा गया था, इसलिए बात बदलते हुए फिर बोला, ‘‘मुझे पता नहीं है जी उस ने आप के क्या कान भर दिए और वह चंदर तो…’’ फिर वह एकदम चुप हो गया. मैं ने पूछा, ‘‘चंदर कौन?’’

‘‘जीजीवह कोई नहीं आप चाहे तो मेरा पर्चा कटवा दें.’’

मैं समझ गया कि कोई राज की बात थी, जो उस ने भूल से कह दी और अब छुपा रहा है. मुझे यकीन हो गया कि लहना सिंह के अगवा करने में उसी का हाथ है. 2-4 सवाल कर के मैं ने उसे जाने दिया. फिर लहना सिंह के बेटों को बुला कर समझाया कि कोई लड़ाईझगड़ा ना करे, हम शांति से उसे बरामद करेंगे. मैं ने बिलाल शाह को भेजा कि मालूम करे कि चंदर किस का नाम है. दूसरे दिन बिलाल शाह खबर ले कर आया कि चंदर रंजन सिंह का ही दूसरा नाम हैजवानी में वह पहलवानी करता था. लोग उसे चंदर कह कर पुकारते थे. मैं चौंका. इस का मतलब रंजन सिंह के कत्ल और लहना सिंह के गायब होने में कोई संबंध जरूर था. अब मुझे अफसोस हुआ कि काश मैं ने लहना सिंह की बात सुन ली होती.

मैं ने चौधरी श्याम सिंह की निगरानी शुरू करवा दी. इस काम के लिए मेरी नजर शांदा पर अटक गई. वह दाई थी. उस का चौधरियों के यहां खूब आनाजाना था. उन के घर के सभी बच्चे उसी के हाथों पैदा हुए थे. वह लालची या डरने वाली औरत नहीं थी. पर उस की एक कमजोरी मेरे हाथ गई थी. उसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए मैं ने उसे चौधरी  के खिलाफ मुखबिरी करने के लिए राजी कर लिया. शांदा से खबर लाने का काम बिलाल शाह के जिम्मे था. तीसरे दिन बिलाल शाह ने आ कर बताया कि शांदा के मुताबिक हवेली का एक कारिंदा जोरा सिंह हवेली से बाहर हैं. पांचवे दिन एक खास खबर मिली कि नंबरदार लहना सिंह चौधरी श्याम सिंह के कारिंदे जोरा सिंह की कुएं वाली कोठरी में जख्मी हालत में बंद है.

पिछली रात जब जोरा सिंह चौधरी से मिलने आया था तो शांदा ने अपने बेटे को उस के पीछे लगा दिया था. उस ने देखा लहना सिंह कुएं के पास बने एक कमरे में बंद था. एक रायफल धारी उस का पहरा दे रहा था. शांदा के बेटे ने अपनी जान जोखिम में डाल कर बहुत बड़ी जानकारी प्राप्त की थी. मैं फौरन मुहिम पर रवाना हो गया. मैं ने अपनी टीम के साथ जोरा सिंह की कोठरी पर धावा बोल दिया. उस वक्त सुबह के 9 बजे थे. खेतखलिहान सुनसान थे. किस्मत से श्याम सिंह बाहर गया हुआ था. हमें देखते ही जोरा सिंह ने छलांग लगाई और खेतों की तरफ भागा. मेरे हाथ में भरा हुआ रिवाल्वर था. मैं चिल्लाया, ‘‘रुक जाओ, नहीं तो गोली चला दूंगा.’’ लेकिन जोरा सिंह नहीं रुका. मैं ने उस की पिंडली का निशाना ले कर गोली दाग दी. वह औंधे मुंह गिरा. 

उसे काबू कर के और उस के 2 आदमियों के हाथ से बंदूक छीन कर हम कमरा खुलवा कर अंदर पहुंचे. लहना सिंह एक कोने में खाट पर सुकड़ासिमटा पड़ा था. वह मुश्किल से पहचाना जा रहा था. उस के कपड़ों पर खून के धब्बे थे. सिर पर जख्म था. 2 दांत टूटे हुए थे. एक कलाई टूट कर लटकी हुई थी. जिस्म पर कुल्हाड़ी के कई जख्म थे. वह बेहोश पड़ा था. हम उसे संभाल कर बाहर ले कर आए. फायरिंग की आवाज से लोग जमा हो गए थे. लहना सिंह को इतनी बुरी हालत में देख कर सब हैरान रह गए. उस की एक जूती भी कमरे से बरामद हुई. मैं ने फौरन गाड़ी का इंतजाम कर के उसे अमृतसर के अस्पताल रवाना किया. उस के जख्म बहुत खराब हो चुके थे. अस्पताल पहुंचने के पांचवे दिन उस की तबीयत जरा संभली और वह बयान देने के काबिल हुआ.

उस से पहले ही मैं चौधरी श्याम सिंह और उस के भाई को गिरफ्तार कर चुका था. क्योंकि मुझे खतरा था कि लहना सिंह के बयान के बाद वह फरार हो जाएगा. चौधरी ने अपना जुर्म कबूल नहीं किया और मुझे धमकियां दे रहा था. लहना सिंह के बयान के बाद चौधरी श्याम सिंह के खिलाफ केस मजबूत हो गया. अस्पताल के सर्जिकल वार्ड के बिस्तर पर लेटेलेटे लहना सिंह ने बहुत कमजोर आवाज में अपना बयान कलमबंद करवाया.

‘‘साहब, रंजन सिंह का कातिल चौधरी श्याम सिंह ही है. उस ने अपने बदमाश जोरा सिंह के जरिए उसे कत्ल करवाया है. मैं उस रोज थाने में यही खबर देने के लिए आप के पास आया था, पर बदकिस्मती से आप से बात नहीं हो सकी. आप अपने काम में बहुत मसरूफ थे

‘‘मैं बैठेबैठे थक गया था. सोचा घर का एक चक्कर लगा लूं. मैं घर के पीछे पहुंचा ही था कि श्याम सिंह के बंदों ने मुझ पर कुल्हाड़ी से हमला कर दिया. फिर उठा कर ले गए और कुएं वाले कमरे में बंद कर दिया. बाकी जो कुछ हुआ वह आप के सामने है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘रंजन सिंह को कत्ल करने की कोई ना कोई वजह होगी. उस ने कत्ल क्यों किया? तुम निडर हो कर बोलो. तुम्हारा एकएक शब्द श्याम सिंह के खिलाफ गवाही बनेगा.’’

‘‘बड़ी खास वजह थी जनाब, रंजन सिंह के पास सोने का एक घंटा था. इस घंटे का वजन करीब 3 सेर था. जिस के पास 3 सेर खालिस सोना हो उसे कोई भी जान से मार सकता है. चौधरी श्याम सिंह को इस सोने का पता चल गया था. उस ने रंजन का कत्ल करवा कर सोना हड़प लिया. यह सोना चौधरी के पास ही है. उसे जूते पड़ेंगे तो सब सच बक देगा.’’

लहना सिंह की खबर बहुत सनसनीखेज थी. 3 सेर सोना उस वक्त भी लाखों रुपयों का था. मैं ने लहना सिंह से फिर पूछा, ‘‘यह घंटा रंजन को मिला कहां से था?’’

लहना सिंह ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘यह तो पक्का पता नहीं, पर रंजन अपनी दुकान पर पुराना सामान ले कर भी पैसे दिया करता था. सोने का वह घंटा भी किसी को जमीन में से मिला था. टूटाफूटा, मिट्टी में सना हुआ. उस का रंग भी काला थाकोई देहाती बंदा उसे पीतल का समझ कर रंजन को कुछ सौ रुपए में बेच गया था. घंटे के साथ आधा किलो की एक जंजीर भी थी. रंजन बहुत चालाक आदमी था. उस ने लाहौर जा कर पता किया तो वह असली सोना निकला. उस ने जंजीर बेच दी और यह हवेली खरीदी. साथ ही शहर में अनाज की आढ़त का काम शुरू कर दिया. धूमधाम से बेटी की शादी की. फिर अपने लिए रिश्ता ढूंढने लगा.’’

मैं ने लहना सिंह से पूछा, ‘‘तुम्हें इन सारी बातों का कैसे पता चला?’’

उस ने एक लंबी कराह लेते हुए कहा, ‘‘उन दिनों मेरी और श्याम सिंह की अच्छी दोस्ती थी. वह सब बातें मुझे बताता था. उसे अपने किसी मुखबिर के जरिए पता लग चुका था कि रंजन के पास सोने का घंटा है. 3 सेर सोना कोई छोटी बात नहीं थी. उसने सोच लिया था कि रंजन का कत्ल कर के सोने पर कब्जा कर लेगा. यह बात उस ने मुझे खुद बताई थी. 

‘‘उस वक्त वह शराब के नशे में था. जब 2 हफ्ते पहले रंजन का कत्ल हुआ तो मेरा ध्यान फौरन श्याम सिंह की तरफ गया. मुझे पूरा यकीन था रंजन को मार कर घंटा उसी ने गायब किया है. थानेदार साहब, मैं ने आप से वादा किया था झूठ नहीं बोलूंगा. मैं ने सारा सच बता दिया है, अब श्याम सिंह को फांसी के तख्ते पर पहुंचाना आप का काम है.’’

मैं ने ध्यान से उस का बयान सुना फिर पूछा, ‘‘उस ने तुम्हें मारने की कोशिश क्यों की?’’

वह सिसकी ले कर बोला, ‘‘साहब, मैं ने श्याम सिंह से कहा था कि सोने के घंटे में से मुझे भी हिस्सा दे, नहीं तो मैं यह बात पुलिस को बता दूंगा. पहले तो वह मुझे टालता रहा. जब मैं ने धमकी दी तो उस ने मेरा यह हाल कर दिया. उस दिन मैं आप को यही बात बताने आया था.’’

  मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे खयाल में अब वह घंटा कहां है?’’

‘‘साहब, उस ने उस घंटे को हवेली में ही कहीं छुपा कर रखा है. हो सकता है कहीं गायब भी कर दिया हो.’’

मैं ने लहना सिंह को तसल्ली दी और अमृतसर से फौरन ढाब के लिए रवाना हो गया. ढाब पहुंचते ही हम ने चौधरी श्याम सिंह की हवेली पर धावा बोल दिया. चौधरी श्याम सिंह और उस का एक भाई गिरफ्तार थे. इसलिए खास विरोध नहीं हुआ. सारी हवेली की बारीकी से तलाशी ली गई. काफी मेहनत के बाद चावल के ड्रम में से सोने का घंटा बरामद हो गया. घंटे को देख कर लगता था कि वह काफी दिन तक जमीन में गड़ा रहा था. निस्संदेह वह या तो किसी मंदिर का घंटा था या फिर किसी राजा महाराजा के हाथी के गले में सजता होगा. घंटे को जब्त कर के थाने में हिफाजत से रखवा दिया गया. उस जमाने में भी उस की कीमत करीब छह लाख होगी.

कोई बदनसीब उस घंटे को रंजन को 2-3 सौ में बेच गया था. इतना कीमती घंटा देख कर कई लोगों के ईमान डोलने लगे, पर मैं इमान का पक्का था. घंटे की बरामदगी बाकायदा दर्ज की गईफिर उसे हिफाजत से कस्बे के चौराहे पर नुमाइश के लिए रख दिया गया. इस का नतीजा बहुत अच्छा निकला. एक घंटे के बाद एक आदमी ने मेरे पास कर कहा, ‘‘थानेदार साहब, मैं इस घंटे को पहचानता हूं. यह मैं ने सुगरा के आदमी नजीर के पास देखा था.’’

मैं भौंचक्का रह गया. फौरन पूछा, ‘‘तुम ने इसे उस के पास कब देखा था?’’

वह दिमाग पर जोर देते हुए बोला, ‘‘करीब 6-7 महीने पहले की बात है. मैं रंजन की दुकान पर खड़ा था. तभी नजीर वहां यह घंटा ले कर आया था. उस का रंग उस वक्त काला था और मिट्टी में लिथड़ा हुआ था. मेरे सामने ही रंजन ने उसे तराजू में डाला और तौल कर कुछ रुपए नजीर के हाथ पर रख दिए. उस के बाद मैं वहां से चला गया. पता नहीं फिर उन दोनों के बीच क्या बात हुई.’’

यह एक सनसनीखेज खबर थी कि लाखों का घंटा कौडि़यों में बिक गया और बेचने वाला दानेदाने को मोहताज था. गरीब नजीर जेल में बंद था. मैं फौरन सुगरा के घर पहुंचा, लेकिन घर बंद था. लोगों का खयाल था कि भूख और गरीबी से तंग आ कर रोजी की तलाश में वह किसी और कस्बे में चली गई होगी. मुझे बेहद अफसोस हो रहा था. उस के मासूम बच्चे याद आ रहे थे. उसे तलाश करने का हुक्म दे कर मैं थाने आ गया. वहां से घंटा ले कर अमृतसर के लिए रवाना हो गए. क्योंकि नजीर अमृतसर में ज्यूडीशियल रिमांड पर जेल में था. मैं ने उसे कपड़े में लिपटा हुआ घंटा दिखा कर पूछा, ‘‘क्या यह घंटा कुछ महीने पहले तुम ने रंजन को बेचा था. इसे लाए कहां से थे?’’

‘‘हां बेचा था. मैं अपने घर से लाया था. बैसाखी के पहले की बात है साहब, एक दिन तेज बारिश हुई. मेरे घर की दीवार गिर गई. जब दोबारा दीवार उठाने के लिए बुनियाद रखी तो यह घंटा मिलाबच्चे मचलने लगे मिठाई खाएंगे. मैं इसे ले कर रंजन के पास गया. उस ने इसे 50 रुपए में मुझ से खरीद लिया. मैं बच्चों के लिए मिठाई ले कर गया. कुछ घर का सामान खरीदा. पर साहब, आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’ मैं ने उसे टाल दिया और सिपाही से कह दिया कि सुगरा आए तो मुझ से जरूर मिलाए. दूसरी दिन सुबह मैं अस्पताल पहुंचा. दरवाजे के करीब ही मुझे स्टै्रचर पर लहना सिंह की लाश मिल गई. बेचारा बेवजह मारा गया. चौधरी श्याम सिंह अब दोहरे कत्ल का दोषी था

लहना सिंह के आखिरी बयान और हवेली से घंटा मिलने से वह पूरी तरह फंस गया था. अब यह बात भी समझ में गई थी कि रंजन सिंह सुगरा के खानदान पर मेहरबान क्यों था? क्यों उन की मदद करता था. क्योंकि वह उन्हीं के पैसे पर ऐश कर रहा था. लोगों ने उस की बिना बात के बदनामी फैला दी थी. मैं ने सुगरा की तलाश में 2 लोग लगा दिए, पर उस का कोई पता नहीं चला. लहना सिंह के बयान के बाद सुगरा और नजीर बेकसूर साबित हो गएरंजन के पेट से मिलने वाली नींद की गोली का मसला भी हल हो गया था. वह उस ने खुद खरीद कर खाई थी. पहले बेटी के सामने वह नींद की गोली नहीं लाता था, पर बाद में लेने लगा. इसलिए उस की बेटी ने नहीं कहा था.

श्याम सिंह ने जोरा सिंह से रंजन का कत्ल  इसलिए करवाया था कि वह उस का सोने का घंटा हासिल कर सके. जब जोरा सिंह रंजन के घर घंटे को ढूंढ रहा था तो रंजन की आंख खुल गई. वह हिम्मत कर के जोरा सिंह पर टूट पड़ा. एक जमाने में वह पहलवानी करता था और चंदर के नाम से जानाजाता थाउस ने अपने बाजूओं में उसे बुरी तरह से जकड़ लिया था. जरा सी छूट मिलते ही जोरा सिंह ने अपनी कृपाण से उस के सीने पर वार कर दिया. जब वह गिर गया तो छाती पर चढ़ कर उसे खत्म कर दिया. उसे मारने के बाद उस ने हवेली से घंटा ढूंढ लिया. इस सारे मामले में सुगरा और नजीर शुरू से आखिर तक बेकसूर थे. उस वक्त के कानून के मुताबिक बरामद होने वाली चीज की हैसियत एंटीक ना हो और किसी का मालिकाना हक ना साबित हो पाए तो यह चीज उस शख्स की मानी जाती थी, जिस के घर से वह बरामद हुई हो

वह घंटा नजीर के घर की टूटी दीवार से बरामद हुआ था. अगर सरकार मामले को हमदर्दी से देखती तो यह घंटा नजीर और सुगरा का था, भले ही वह उस की कीमत समझ सके थे. नजीर के जमानत पर रिहा होने के बाद सुगरा की तलाश और जोर पकड़ गई. मुझे कहीं से खबर मिली कि मरनवाल नाम के गांव में जो ढाब से करीब 20 किलोमीटर दूर था, वहां सुगरा के हुलिए की एक औरत दिखाई दी थीहम लोग वहां पहुंचे तो पता चला वह एक रिटायर्ड हवलदार के यहां काम कर रही थी. उस के घर पूछताछ करने पर उस ने बताया कि एक औरत 3 बच्चों के साथ उस के यहां पनाह लेने आई थी. उस ने उसे रख भी लिया था. फिर एक दिन चोरी करते पकड़ी गई तो मैं ने उसे निकाल दिया.

आसपास के लोगों से पता चला कि वह झूठ बोल रहा था. हवलदार की नीयत सुगरा पर खराब हो गई थी. सुगरा ने शोर मचा दिया. लोगों के पहुंचने पर उस ने सुगरा को मारपीट कर निकाल दिया. किसी ने बताया वह रामपुर की तरफ गई थी. उस बेगुनाह मजबूर औरत की तलाश में हम रामपुर पहुंचे और जगहजगह उस की तलाश करते रहे. रामपुर के छोटे से अस्पताल में हमें सुगरा मिल गई, लेकिन वह जिंदा नहीं लाश की सूरत में मिली. उस के बच्चे वहीं बैठे रो रहे थे. उस की मौत दिमाग की नस फटने से हुई थी. इतने दुख और गरीबी की मार सह कर उस का बच पाना मुश्किल ही था. सुगरा की लाश ढाब पहुंची. पूरा कसबा जमा हो गया. सभी की आंखों में आंसू थे. नजीर रोरो कर पागल हो रहा था. अब लोग सुगरा की तारीफें कर रहे थे.

चौधरी श्याम सिंह और जोरा सिंह पर दोहरे कत्ल का इलजाम साबित हुआ. एक सुबह वह दोनों और उन के 2 साथियों की डिस्ट्रिक्ट जेल के अहाते में फांसी दे दी गईनजीर अपने तीनों बच्चों के साथ ढाब छोड़ कर चला गया. अब उस के पास इतनी रकम थी कि सारी उम्र बैठ कर खा सकता था. 3 सेर सोने के घंटे में से सरकार ने अपना तयशुदा सरकारी हिस्सा काटने के बाद बाकी नकद रकम नजीर के हवाले कर दी थी. इस के बाद 2-3 बार नजीर के घर की खुदाई की गई पर एक खोटा सिक्का नहीं मिला.

इस घटना के सालों बाद भी मैं उस मासूम और मरहूम सुगरा को नहीं भूल सका.