बात उस समय की है, जब लंदन, लंदन था. उस के मोहल्ले, उस की ज्यादातर गलियां और सड़कें खुशनुमां पार्क जैसी हुआ करती  थीं. वह कारों और बसों का जुलूस बन कर नहीं रह गया था. लंदन की हवा में पर्वतीय हवाओं वाली ऐसी कशिश थी कि जितनी सीनें में पहुंचे, उतनी ही और पा लेने के लिए सीना फूलता जाए. मैं लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से सोशल प्लानिंग विषय में एमएससी करने के लिए पिछले दिन ही लंदन आया था.

मुझे लंदन विश्वविद्यालय के लिलियन पेंसन हौल में रहने के लिए कमरा मिल गया था. आज स्कूल जाने का पहला दिन था. मैं नजदीक के पैडिंग्टन स्टेशन से अंडरग्राउंड (मेट्रो) द्वारा चल कर हौबर्न स्टेशन पर उतरा. मैं हैरान परेशान सा झिझकता हुआ लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स का रास्ता तलाश रहा था.

मन में एक ओर सुंदर नगर में रहने की खुशी एवं अप्सरा जैसी गोरियों के नैनसुख का असीम आकर्षण था तो अनजाने में छलांग लगाने जैसी रोमांचकारी घबराहट भी थी. कल लंदन आते समय एक सज्जन ने सलाह दी थी कि रास्ता पूछना हो तो पुलिस वाले अथवा टैक्सी वाले से पूछना. लेकिन यहां न तो कोई पुलिस वाला नजर आ रहा था न टैक्सीवाला.

फुटपाथ पर चलने वाले लोग ऐसे भागे जा रहे थे, जैसे मैराथन वौक में हिस्सा ले रहे हों. विशेषकर ऊंची ऊंची हील की जूतियां और घुटने के ऊपर तक की स्कर्ट पहने लंबी छरहरी कोमलांगियां तो पुरुषों के कान काटने पर तुली लगती थीं. उन में से किसी को रोक कर उस की स्पर्धा को भंग करने का साहस मैं नहीं कर पा रहा था.

मैं भौचक्का सा इधरउधर ताक रहा था कि तभी झुर्रियों भरे मुख वाली एक संभ्रांत वृद्धा बेंत के सहारे कांखते हुए पीछे से आती दिखाई दी. उन की सुस्त चाल देख कर मेरा साहस बढ़ा और आगे बढ़ कर मैं ने पूछा, ‘‘एक्सक्यूज मी, व्हेयर इज लंडन स्कूल औफ इकोनौमिक्स?’’

वृद्धा ने आराम से बेंत के सहारे खड़ी हो कर मुझे ऊपर से नीचे तक देखा, इस के बाद सवाल का उत्तर देने के बजाय मुझ से ही पूछ लिया, ‘‘आर यू ए न्यू स्टूडैंट देयर?’’

मेरे ‘यस’ कहने पर उन्हें जैसे किसी आत्मीय से मिलने की प्रसन्नता हुई हो, इस तरह के भाव ला कर वह (अंगे्रजी में) बोलीं, ‘‘मेरा बेटा भी उसी स्कूल में पढ़ा था. थोड़ा आगे सामने ‘इंडिया हाउस’ है, उस से पहले बाईं तरफ मुड़ कर 2 ब्लाक के बाद बाईं ओर लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स है.’’

मैं थैंक्स कह कर आगे बढ़ता, उस के पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘मुझे पता है, उस विश्वविख्यात स्कूल का छोटा और साधारण सा भवन देख कर तुम्हें निराशा होगी. लेकिन यह मत भूलो कि विश्व के एक से एक नामी अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, प्रोफेसर और राजनेता उसी की चारदीवारी से निकले हैं.’’

मैं आगे बढ़ना चाहता था, लेकिन वह महिला मुझे जल्दी नहीं छोड़ना चाहती थी. बेचैनी के भाव से उन्होंने आगे कहा, ‘‘तुम मेरे पीछेपीछे चले आओ. मैं उधर ही जा रही हूं.’’

पहला दिन होने के कारण मैं लिलियन पेंसन हौल से दो घंटे पहले ही निकल पड़ा था. इसलिए मुझे कोई जल्दी नहीं थी. मैं उस महिला के साथ धीरेधीरे चल पड़ा. महिला ने मेरे बारे में जानने के लिए सवाल किए. उस के बाद बिना कुछ पूछे ही अपने एवं अपने बेटे के बारे में बताती रही, जिसे मैं ने अनमने मन से एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया.

विदा लेने से पूर्व उन्होंने मुझे अपना कार्ड देते हुए कभी आने को कहा. मैं ने अंगे्रजों के बारे में सुना था कि वे बड़े नकचढ़े होते हैं. लेकिन वह महिला मुझे हैरान करती हुई बिलकुल विपरीत लगी. मैं ने कार्ड में उस का नाम डोरोथी पढ़ा और जेब में रख लिया. डोरोथी से कभी मिलने जाने के बारे में मैं असमंजस में रहा, कोई निश्चय नहीं कर सका.

संयोग से एक दिन सोशल प्लानिंग के प्रोफेसर मिजली व्यावहारिक पढ़ाई के लिए हमें डेस्टिच्यूट चिल्ड्रेन होम दिखाने के बाद जब हमें ओल्ड एज होम ले गए तो डोरोथी दरवाजे पर खड़ी मिल गई. मुझे देखते ही आगे बढ़ कर उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया. इस के बाद ओल्ड एज होम के लिए तय 2 घंटे के समय में मेरा ज्यादा समय डोरोथी ने ही ले लिया. पुन: आने का पक्का वादा करने के बाद ही उन्होंने मुझे जाने दिया था.

लंदन के उस ओल्ड एज होम में बूढों के रहने के कमरे साफसुथरे एवं आरामदायक थे. उन के खानेपीने, दवादारू, पढ़ने लिखने एवं व्यायाम और मनोरंजन की पूरी व्यवस्था थी. इस तरह के रहनसहन एवं देखभाल के लिए तो हमारे देश में बड़ेबड़े लोग तरसते होंगे. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि डोरोथी मुझ जैसे अनजाने हिंदुस्तानी से संपर्क बढ़ाने के लिए आतुर क्यों थीं.

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डोरोथी की बातचीत और अपनेपन से मैं जितना चकित था, उस से कहीं ज्यादा हैरान था. इस उत्सुकता को शांत करने के लिए मैं कभी कभी उन के पास जाने लगा. वह बड़ी बेचैनी से मेरा इंतजार करती थीं. पहुंचने पर मुझे बड़े प्रेम से गले लगातीं और मेरे बिना पूछे ही ओल्ड एज होम की, अपनी एवं बेटेबहू और पोते की ढेर सारी बातें बतातीं.

अपनी बात कह कर मेरे, मेरे परिवार एवं दुनियाजहान की बातें करतीं. उस दौरान अन्य बूढ़े हमें हैरानी एवं हसरत से देखते रहते. डोरोथी से बातें कर के मुझे उस अंगे्रज वृद्धा का दुख, पीड़ाएं, अभिलाषाएं एवं अहं के बारे में इतनी जानकारी हो गई कि मैं ने सोशल प्लानिंग में एमएससी के लिए अनिवार्य लंबा लेख डोरोथी पर आधारित ही लिखा, जिसे सब से अच्छा माना गया. उस का सारांश कुछ इस तरह था.

डोरोथी ने जौन से प्रेमविवाह किया था. जौन की औक्सफोर्ड स्ट्रीट पर किताबों की दुकान थी, जिस से ठीकठाक आमदनी होती थी. स्वभाव एवं जीवनदर्शन में डोरोथी और जौन दोनों ही ‘मेड फौर ईच अदर’ थे. वर्तमान में जीने वाले ‘हैपी-गो-लकी’ प्रकृति के जीव. बेटे बौब के जन्म के बाद दोनों का जीवन सफल हो गया था. बौब बड़ा ही प्यारा बच्चा था. सुंदर चेहरा, सरल स्वभाव एवं तेज बुद्धि. जौन और डोरोथी दोनों ही बौब पर प्राण न्यौछावर करते थे. बौब भी मांबाप से उतना ही प्रेम करता था.

बौब ने विशेष योग्यता से परीक्षाएं पास की थीं. इस से उसे लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स में दाखिला मिल गया था. कालेज घर से दूर नहीं था. कालेज में पढ़ने वाले अन्य लड़के लड़कियों के ‘ममाज ब्वाय’ जैसे कटाक्ष सुनने के बावजूद बौब कहीं बाहर न रह कर मातापिता के साथ ही रह कर पढ़ाई करता रहा. उस का लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स में दूसरा वर्ष शुरू हुआ तो डोरोथी को लगा कि बौब का मन घर में कुछ उचटा उचटा सा रहता है.

फिर एक रविवार को वह जेन को ले कर घर आया और अपनी गर्लफ्रेंड के रूप में उस का परिचय कराया तो डोरोथी और जौन ने खुले दिल से मुसकरा कर जेन का स्वागत किया. लेकिन उन्हें लगा कि जेन परिवार में घुलमिल नहीं पा रही है. इसे उन्होंने जेन की हिचकिचाहट समझा.

उन की इस आशा को पहला झटका तब लगा, जब एक माह बाद ही बौब ने डोरोथी से कहा, ‘‘मौम, अब मैं और जेन अलग अपार्टमेंट में रहेंगे. जेन को एक डिपार्टमेंटल स्टोर में जौब मिल गई है और मुझे आगे की पढ़ाई के लिए फेलोशिप.’’

डोरोथी अवाक थी, क्योंकि उसे बौब से गहरा लगाव था और आशा थी कि बड़ा मकान होने के कारण कम से कम विवाह होने तक बौब उन के साथ रहेगा. बौब के स्वर में इतनी दृढ़ता थी कि डोरोथी अथवा जौन उसे समझाने बुझाने का साहस नहीं कर सके. अगले सप्ताह ही बौब अपना सामान ले कर अलग रहने चला गया. धीरेधीरे उस का घर आना कम होता गया. वह जब भी आता, अकसर अकेला ही आता. अगर कभी जेन साथ आती तो मेहमान की तरह ‘हायहैलो’ कर के चली जाती.

ग्रेजुएशन के बाद बौब और जेन ने विवाह कर लिया, जिस में डोरोथी और जौन को भी बुलाया गया था. लेकिन वे मेहमान की तरह ही शामिल हुए थे. विवाह के बाद बौब का मांबाप के पास आनाजाना ईस्टर क्रिसमस जैसे त्यौहारों तक ही सीमित हो गया था. इस से डोरोथी और जौन को बड़ा धक्का लगा और उन के जीवन में एक खालीपन आता गया.

धीरेधीरे डोरोथी ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया, लेकिन जौन मन ही मन दुखी रहने लगा. एक अवसाद सा भर गया. उसी अवस्था में कार चलाते हुए एक दिन उन की कार आगे जाने वाली बस से टकरा गई तो वह डोरोथी को अकेली छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए. मरने का समाचार पा कर बौब और जेन भी आए. बौब काले कपड़ों में अपने पिता की अंतिम यात्रा में भी शामिल हुआ.

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डोरोथी के अकेलेपन के साथ बेबसी भी जुड़ गई थी. बेबसी की स्थिति में मनुष्य तिनके में भी सहारा ढूंढने लगता है. डोरोथी को लगने लगा था कि संभवत: अब बौब और जेन उस की अधिक परवाह करेंगे. ऐसे में ही डोरोथी ने एक दिन बौब के आने पर शिकायती लहजे में कहा, ‘‘इतने दिनों बाद मां की याद आई?’’

बौब ने तो बस इतना ही कहा, ‘‘मां आप भी?’’

लेकिन पीछे से आती जेन रूखे स्वर में बोली, ‘‘मौम, आप को समझना चाहिए कि हम लोग कितने व्यस्त रहते हैं.’’

डोरोथी चुप रह गई थी. उस की यह चुप्पी हमेशा के लिए हो गई थी. तनाव ने उस के मन में भी घर कर लिया. वह सच्चाई के बजाय यादों में खोई रहने लगी. उसे नन्हा बौब और उस का शरारतीपन इतना घेरे रहता कि घर संभालना असंभव हो गया, इसलिए घर बेच कर उस ने सारा पैसा उस ‘चैरिटेबल ट्रस्ट’ को दान कर दिया, जो यह ओल्ड एज होम चलाता था.

इसी के साथ वहां आ कर जीवन के बाकी दिन काटने लगी. यहां सभी सुविधाएं और अन्य हमउम्र लोगों की संगत उपलब्ध थी, परंतु उन की बातों में मन में बसी अपनों से वियोग की टीस और हंसी में खालीपन साफ झलकता था, जो डोरोथी के तनाव के हवनकुंड में घी का काम करता था.

एक दिन ट्यूटोरियल क्लास में मैं ने प्रोफेसर मिजली को डोरोथी के प्रकरण के संबंध में बताया तो उन्होंने इसे एक ‘केस स्टडी’ के रूप में तैयार कर के कक्षा में प्रस्तुत करने को कहा. मेरे द्वारा ‘केस स्टडी’ की प्रस्तुति के बाद उन्होंने बताया कि डोरोथी का यह केस अनोखा नहीं है. पश्चिमी देशों में बूढ़ों की समस्याएं मुख्यत: परिवार से अलगाव, अकेलेपन एवं वर्तमान के बजाय भूत की यादों में जीने की विवशता है.

यहां बौब का अपने मातापिता से अलग हो जाना आम बात है. ग्रेजुएशन करने वाला शायद ही कोई लड़का या लड़की मातापिता के साथ रहता हो. अलग होने के बाद बेटे मेहमान की भांति समय ले कर ही मांबाप से मिलने आते हैं और मातापिता भी समय ले कर ही बेटे के यहां जाते हैं. बुढ़ापा बढ़ने पर अथवा मां या बाप के अकेले रह जाने पर बच्चों से यह दूरी बेचैनी बन कर मन में समा जाती है. ऐसे बूढ़ों में किसी की सहानुभूति मिल जाने पर उस से लगातार बातें करते रहने की अदम्य इच्छा जाग उठती है.

डोरोथी से पहली मुलाकात में जब मैं ने रास्ता पूछा था तो उस के मन में समाज के लिए अभी भी अपने उपयोगी होने का आभास जाग उठा था. फिर मेरे लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स में दाखिल होने की बात जान कर उन के मन में बौब के प्रति बसा प्रेम उमड़ पड़ा होगा. उन के स्नेह के बदले मैं ने स्नेह दिया तो वह स्नेहधारा नदी की बहने लगी होगी.

कुछ रुक कर प्रोफेसर मिजली ने कहा, ‘‘डोरोथी से किसी दिन पूछना कि अगर बौब और जेन उन्हें अपने साथ रहने के लिए ले जाने को आएं तो वह जाएंगी या नहीं?’’

अगली बार जब मैं ने डोरोथी से यह सवाल किया तो उस स्वाभिमानी औरत ने कहा, ‘‘कदापि नहीं, एक दिन के लिए भी नहीं. कैदी को कैदियों के बीच रहना उतना कठिन नहीं होता है, जितना आजाद घूमने वालों के बीच रहना.’’

थोड़ी देर रुक कर एक आह सी भर कर उन्होंने कहा, ‘‘अगर मेरी बेटी होती तो उस के यहां कभीकभी जाने की बात जरूर सोच सकती थी.’’

मैं डोरोथी के स्वर एवं शब्दों में निहित निश्चय से उस की जिंदादिली का कायल हो गया था और मांबाप के लिए बेटे की तुलना में बेटी के प्यार का भी.

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