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महल छोड़ कर चाल में क्यों रहने लगी मुमताज

मुमताज (कमला) अपनी जिद पर अड़ी थी तो सुलेमान अपनी जिद पर. शोर सुन कर रेलवे पुलिस आ गई. आखिर पुलिस ने दोनों को समझाबुझा कर शांत किया. लेकिन मुमताज मंसूरी नहीं गई तो नहीं गई. मंसूरी जाने के बजाय वह अमृतसर चली गई. महारानी की जिद के आगे आखिर सुलेमान को झुकना पड़ा. आखिर था तो वह नौकर ही, भले ही राजा का कितना भी खास रहा हो.

मुमताज (कमला) अमृतसर गई तो इंदौर लौटने का नाम ही नहीं ले रही थी. जबकि महाराजा तुकोजीराव होल्कर का कमला के बिना मन नहीं लग रहा था. उन्होंने कमला को आने के लिए कई संदेश भेजे, पर कमला नहीं आई. कमला के इस व्यवहार से इंदौर के महाराजा को गुस्सा आ गया.

इंदौर राजघराने के बड़ेबुजुर्ग कमला को मनाने अमृतसर गए. उन में एक जिकाउल्लाह भी थे. कमला ने जब इंदौर आने से साफ मना कर दिया तो उन्होंने उसे धमकाते हुए कहा, ”देखो कमला, महाराज का आदेश है, इसलिए तुम्हें हमारे साथ इंदौर चलना ही होगा. अगर तुम सीधी तरह इंदौर नहीं चलती हो तो हमारे पास दूसरे भी अनेक रास्ते हैं.’’

लेकिन कमला टस से मस नहीं हुई. उस ने किसी की कोई बात नहीं मानी. तब जो लोग कमला को मनाने अमृतसर गए थे, सभी खाली हाथ लौट आए.

दूसरी ओर कमला जानती थी कि अब वह अमृतसर में शांति से नहीं रह पाएगी, इसलिए वह अमृतसर से अपने एक रिश्तेदार के यहां नागपुर चली गई. जब महाराजा तुकोजीराव को पता चला कि कमला नागपुर पहुंच गई है तो उन्होंने कमला को लाने के लिए नागपुर भी अपने आदमी भेजे पर कमला नहीं आई.

लेकिन महाराजा से बचना भी आसान नहीं था. अब उसे केवल अंगरेजी शासन का कोई बड़ा अधिकारी ही बचा सकता था. इस के लिए वह मुंबई चली गई, जहां पुलिस कमिश्नर भी बैठता था.

पुलिस कमिश्नर से सुरक्षा पाने के लिए कमला मुंबई पहुंच गई थी. क्योंकि कमला को पता था कि उसे पाने के लिए महाराजा कुछ भी कर सकते हैं, कोई भी रास्ता अपना सकते हैं.

कमला मुंबई अकेली नहीं आई थी. उस के साथ उस की मां और दादी भी थीं. कमला यानी मुमताज के मामा अल्लाबख्श भी मुंबई में रहते थे. पहले कमला ने अंधेरी में अपना ठिकाना बनाया. पर उन लोगों को यहां कुछ खतरा महसूस हुआ तो कमला अपनी मां और दादी के साथ मदनपुरा रहने आ गई. मदनपुरा की रंगारी चाल में एक मकान किराए पर ले कर कमला अपने परिवार वालों के साथ मामा अल्लाबख्श की देखरेख में रहने लगी.

लेकिन महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. उन्होंने उस के पीछे अपने आदमी लगा रखे थे, जो लगातार उस की तलाश में लगे थे.

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यहीं कमला की मुलाकात उस के मामा अल्लाबख्श ने मुंबई के एक बहुत बड़े बिजनैसमैन अब्दुल कादिर बावला से कराई. अब्दुल कादिर बावला की गिनती मुंबई के बड़े व्यापारियों में होती थी. बावला मुंबई का अतिधनाढ्य व्यापारी होने के साथसाथ नगरसेवक भी था. बावला की संपन्नता का इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज से सौ साल पहले उस के पास 40 लाख की संपत्ति थी.

मुंबई की स्थानीय राजनीति में भी उस का अच्छा खासा दखल था. मालाबार हिल इलाके के वह कारपोरेटर भी था. उस ने ही मुंबई के उपनगर परेल में साबू सिद्दीकी मसजिद का निर्माण कराया था, जिसे आज भी बावला मसजिद के नाम से जाना जाता है.  आज भी वह मुंबई की सब से बड़ी मसजिद है.

कमला यानी मुमताज की सुंदरता देख कर अब्दुल कादिर होश खो बैठा था. मुमताज को भी एक ऐसे मजबूत सहारे की जरूरत थी, जो उसे महाराजा से बचा सके. देखने में हैंडसम अब्दुल कादिर बावला भी पहली नजर में मुमताज को भा गया था. इसलिए मुमताज ने अब्दुल कादिर के घर शरण ली.

जान से ज्यादा चाहने लगा कादिर बावला

मुमताज पूरी तरह बावला के प्रति समर्पित हो गई थी. अमृतसर, अजमेर, दिल्ली और शिमला की पहाडिय़ों में दोनों का प्यार खिलने लगा था. बावला का साथ पा कर मुमताज परछाईं की तरह पीछा कर रहे अपने अतीत को भूलने का प्रयास करने लगी थी. पर एक अपराधबोध उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था, क्योंकि वह महाराजा तुकोजीराव होल्कर की पत्नी रह चुकी थी.

यात्रा से लौट कर मुमताज चौपाटी स्थित अब्दुल कादिर बावला के साथ उस के बंगले में रहने लगी थी. बावला अच्छी तरह जानता था कि इंदौर राजघराने की नजर मुमताज पर है. इसलिए उस ने मुमताज से साफ कह दिया था कि उस की गैरमौजूदगी में वह घर के बाहर हरगिज न जाए.

लेकिन वही हुआ, जिस की आशंका मुमताज को दिनरात खाए जा रही थी. अकसर बावला मुमताज को ले कर लांग ड्राइव पर निकल जाता था. उसे साथ ले कर देर रात तक मुंबई की सड़कों पर घूमता. 12 जनवरी, 1925 की शाम को मुमताज और अब्दुल कादिर बावला अपने ड्राइवर के साथ घूमने निकले थे. उन के साथ उन का मैनेजर मैथ्यू भी था. मुंबई शहर को सलाम करता समुद्र की क्षितिज में सूरज अलविदा कह रहा था.

समुद्री खारी हवा से भीगी डूबती सांझ का सौंदर्य मुंबई वालों को आनंद की अनुभूति का अहसास करा रही थी. किसी नववधू जैसी सुंदर शाम का नजारा देखने के लिए बावला अपनी प्रेमिका मुमताज के साथ चौपाटी की ओर जा रहे थे.

समुद्र के किनारे एक ओर कार रोकवा कर दोनों डूबते सूरज की लालिमा को निहार रहे थे. सांझ की खूबसूरती को दोनों आंखों से पी रहे थे. उसी समय अचानक माहौल में भंग पड़ गया.

एक आदमी मुमताज के पास आ कर दबी आवाज में बोला, ”आप के प्रेमी बावला की हत्या करने के लिए कुछ लोग इंदौर से आए हैं.’’

यह सुन कर मुमताज घबरा गई. उस के गोरे सुंदर चेहरे पर खारे पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं.

उस ने लपक कर बावला का हाथ पकड़ा और कार में बैठाते हुए ड्राइवर से कहा, ”जितनी जल्दी हो सके, तुम हमें घर पहुंचाओ.’’

हक्काबक्का अब्दुल कादिर बावला ने मुमताज से पूछा, ”क्या बात है, तुम इतना परेशान क्यों हो?’’

मुमताज ने पूरी बात बावला को बताई तो वह भी घबरा गया. उस ने भी ड्राइवर से गाड़ी तेज चलाने को कहा. ड्राइवर ने कार की गति और बढ़ा दी. कार तेजी से मुंबई की सड़क पर भाग रही थी.

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