Hindi Story : शब्बो अपनी मरजी से तवायफ नहीं बनी थी. उसे इस की ट्रेनिंग उस के अपने घर वालों ने ही दी थी. 16 साल की उम्र में उस के मामूजान ने उसे एक मर्द के साथ कमरे में धकेला था. इस के बाद तो उस के पास मुल्लामौलवी, साधुपुजारी, नेता, माफिया, अधिकारी आदि आते रहे. इस के बाद उसे समाज से ही नफरत सी हो गई. फिर एक दिन एक प्रोफेसर साहब ने उस की ऐसी जिंदगी बदली कि…

मैं एक तवायफ हूं. तवायफ होना बुरी बात है या अच्छी बात, यह तो मैं नहीं जानती. मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं अपनी मरजी से तवायफ नहीं बनी थी, बल्कि मेरी खाला ने मुझे मेरी अम्मी की ढलती उम्र, बीमारी और घर की माली हालत को ध्यान में रखते हुए मुझे तवायफ बना कर बाजार में खड़ा कर दिया था बिकने के लिए. मगर मैं कभी बिकी नहीं, केवल यह लोचदार गोरी देह बिकती रही, जो घुंघरुओं के साथ जब सज कर खड़ी होती थी तो मेरी दादी के जेवर उस पर खूब फबते थे.

मीना बाजार की तीसरी गली के आखिरी छोर के कोने वाला मकान दुमंजिला तो था ही, उस के दाएं हाथ मंदिर और बाएं हाथ मसजिद थी. जैसे वह 2 संस्कृतियों के संगम पर स्थित पावन धाम हो, जहां गरीबअमीर, पढ़ेलिखे, अनपढ़ और ग्रामीणशहरी सभी स्नेहिल स्नान कर स्वयं को कृतार्थ करते थे.

सीढिय़ां चढऩेउतरने वालों में विवाहितों की संख्या ज्यादा और कुंवारों की कम होती थी. वह जैसा भी था, अच्छा था. इस लिहाज से कि यह मकान दादी के जमाने से किराएदारी में था. इस के नीचे की मंजिल की फर्श लोना लगने और सीलन की वजह से टूटने लगी थी, मगर ऊपर के फर्श में अम्मीजान के जमाने में पत्थर लगाया गया था और इस इमारत की दूसरी मंजिल सजधज कर पूरे साजशृंगार के साथ सुगंधपूरित किसी दुलहन से कम न थी. दरवाजों और खिड़कियों के परदे नए थे, मगर रसोई से बेहतर उस के बाथरूम थे.

आज ईद का दिन था. दिन में किसी से मिलनाजुलना सख्त मना था, मगर शाम बड़े ओहदेदार लोगों की होनी थी. कुछ अफसर, कुछ राजघराने और कुछ माफियाओं से भरी पूरी महफिल हो, इस के लिए दलालों को विशेष लालच दिया गया था. नृत्यशाला का मुख्यद्वार खुला था, जिस की सीढिय़ों के दोनों ओर महाबली चाचा लोग बैठाए गए थे.

भीतर की ओर परदे के बगल में खूब लालीसुरमा लगा कर पान खा कर बैठी थीं खाला और दूसरी ओर पीछे के दरवाजे पर सज कर बैठी थीं अम्मीजान, जहां से एक रास्ता आंगन को जाता था और दूसरा 2 कमरों की ओर. जहां पलंग पर सजावट के साथ गुलाब की पंखुडिय़ां बिछाई गई थीं. पलंग के दोनों ओर सुंदर सिरहानों की तरफ 2 मालाएं टंगी थीं और पास की मेज पर इत्रदान, ब्रांडी, 2 गिलास और पान के बीड़े रखे गए थे.

कमरों से लगे बाथरूम थे, जहां साबुन और तौलिए हर समय टंगे रहते थे. बाथरूम के बाहर की ओर एक बड़ा शृंगारदान था, जिस में लंबा शीशा और बेहतरीन शृंगार सामान उपलब्ध था. यह मेरी बाजारू जिंदगी की पहली रात जो सुहागरात थी, जहां किसी मर्द से एक औरत को प्यार करने पर बख्शीश मिलनी थी. मैं सुबह से ही घबराई सी इधरउधर दुबक जाती थी, मगर मेरी खाला मुझे बारबार थपकियां देते हुए अपनी पहली रात की आपबीती सुनाती थीं और कभी अम्मीजान. मुझे यह लगता था कि जैसे मैं किसी कसाई के खूंटे में बंधी एक गाय थी, जिसे पूज कर, फूलपत्र भेंट कर और खिलापिला कर बलि के लिए तैयार किया जा रहा था.

कोई कहे कि मेरी आंखें खंजर की तरह कंटीली हैं तो कोई कहे मेरे होंठ बिंबाफल और मेरे दांत अनार के दाने जैसे लगते हैं. मेरे कपोल सेब की तरह गोल सुर्ख थे, जिस के बीच में काला तिल बड़ेबड़े झुमके से छू जाता था. मेरे केश थे कि देखने वालों की आंखें बांध कर महफिल को जिंदादिली देते थे. माथे की बिंदी और हाथों के कंगन जैसे किसी जवानी का स्पर्श पाने के लिए बेताब रहा करते थे. चांदी का कामदार घाघरा अंगुलियों से फिसलफिसल जाता था.

फिर मेरी उम्र ही क्या थी, मात्र 16 के पायदान पर खड़ी थी. मगर अम्मीजान के साथ नाचतेगाते मेरी शौक के पंख उग आए थे. मैं लोगों को आतेजाते, अम्मीजान से हंसतेबोलते देखती थी और कमरे में बंद चुपचाप उन हिलती परछाइयों की ताकाझांकी कर चुकी थी. तब मेरा मन मेरे तन से पहले जवान हो उठा था. यूं तो आंखमिचौनी खेलने की आदत तो मुझे 14 की उम्र से ही बन चुकी थी. कभीकभी ख्वाबों में कोई मनचाही सूरत मुझे उठा लेती थी. कभी जब सपनों में जाती तो कोई मेरी जवान देह को मरोड़ कर इस तरह कस लेता था कि मैं बेदम हो कर सुबह बिस्तर से उठती थी. तब मैं बिलकुल नासमझ थी और मुझे कोई अनुभव न था.

हालांकि एक दिन मेरे मामू मुझे किसी मर्द के साथ अंधेरे बंद कमरे में मिलने की ट्रेनिंग दे चुके थे. वह बेशर्म रात मेरे माथे पर पसीना छोड़ चुकी थी. वस्त्र पहनने और वस्त्रहीन होने के लिए मेरी अम्मीजान ने मुझे सब हुनर सिखा दिए थे. फिर भला मामू के सामने किस की बोलने की हिम्मत थी. उसी दिन मैं ने जान लिया था कि किसी तवायफ से जिंदगी में कहनेसुनने के रिश्ते होते हैं, मगर दैहिक रूप उस के किसी से भी मर्द और औरत के ही रिश्ते दिए थे.

बाजार के पहले दिन की शाम गहरा गई थी. मेरी यह कोमल गोरी देह बिक चुकी थी. मंदिर के पुजारी को मेरे गुलाब की 2 पंखुड़ी से खिले होंठ और कजराई आंखें भा गई थीं. नाचतेनाचते आज मैं बहुत थक गई थी. चारों ओर से महफिल में मुझ पर रुपए लुटाए जा चुके थे. ढेर सारे रुपयों से मामू की थैलियां भर गई थीं और उधर मेरी खाला ने मंदिर के पुजारी को इशारा कर दिया था.

आज की रात मुझे पुजारी के साथ बितानी थी. आईने के सामने मेकअप पूरा हो चुका था. केश में फूलों के गुच्छे मोतियों की लडिय़ों के साथ गूंथे गए थे. होंठों पर लालिमा थी. कानों में कर्णफूल झूल रहे थे. माथे पर तिलक खिल रहा था. गेंद जैसे कपोलों पर सुर्खी छाई हुई थी. आंखों से चांदनी फूट रही थी. स्वर्णमालाएं थीं, जो वक्ष पर झूल रही थीं, सफेद झीने गाउन पर लाल चूनर और हाथों के कंगन मिल जा रहे थे. यूं समझो कि अम्मीजान ने उस रात मुझे इंद्र की अप्सरा बना कर कक्ष में धीरेधीरे प्रवेश करने की इजाजत देते हुए बाहर से दरवाजे बंद कर लिए थे.

कमरे में पूरा उजाला था. मैं धीरेधीरे शृंगारदान के सामने आ कर चुपचाप खड़ी हो गई थी, क्योंकि मेरी नाक की नथ मेरे चेहरे पर पड़ी चूनर से अटक गई थी. अकस्मात मुझे ऐसा लगा कि मैं डरी बकरी सी भेडि़ए की मांद में खड़ी हूं. पुजारी पलंग पर गिर्दे के सहारे बैठा मुझे घूरता रहा और मैं शराब की बोतल खोल कर उड़ेल चुकी थी. गिलास दोनों भरे थे. मैं ने जिस हाथ से गिलास बढ़ाया था, वही पकड़ा गया था. हम दोनों ने एकदूसरे को बारबार शराब पिलाई. नशा इतना चढ़ चुका था कि हम दोनों होश में न थे.

जब बाहर से दरवाजा खुला और मैं होश में आई तो सुबह के सूरज की किरणें रोशनदान से भीतर झांकने लगी थीं और मैं अर्धनग्न बिस्तर पर उल्टी पड़ी थी. मेरे हाथ खून से सने थे और एक खून से सना चाकू पलंग के नीचे पड़ा था. यह देख कर मैं चौंक पड़ी और घबरा गई. मैं ने अपने बगल पड़े पुजारी को देखा तो उस के पेट के घावों से खून बह कर बिस्तर पर फैल गया था. फिर तो मैं थरथरा गई थी और जोरों से चिल्ला उठी.

मेरे मामू भागते हुए मेरे कमरे में आए और मेरा मुंह अपने हाथों से दबा कर मुझे दूसरे कमरे में ले गए, जहां मेरी खाला अम्मीजान के साथ मशविरा कर रही थीं. जैसे इन लोगों को इस घटना की जानकारी मुझ से पहले थी. मुझे पहले डांटा गया, फिर पुलिस के सामने चुपचाप उन के बताए अनुसार बयान देने की तमीज सिखाई गई.

औरत अपनी जिंदगी में क्या कुछ नहीं देखती, मगर मैं ने इतनी छोटी उम्र में जो कुछ देखा था, वह किसीकिसी को ही देखने को मिलता होगा. उस दिन मुझे लगा था कि जिंदगी तमाम घटनाओं का योग है जो आम आदमी की जिंदगी में नदी की धार की तरह हिलकोरें मारती और कगारों को तोड़ती हुई पत्थर को भी रेत बना देती है. जहां आदमी के आदमी होने का मकसद अधूरा रहा जाता है, जहां हाशिए का आदमी उछाल मार कर मुखपृष्ठ पर आ जाता है और फिर मुखपृष्ठ अपनी जगह से गायब हो जाता है.

कई बरस बीत गए. घटना की पुलिसिया जांचपड़ताल होती रही. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में नशे की हालत में आत्महत्या कर लेने की बात जगजाहिर हो चुकी थी और रोजरोज अखबार के पन्नों पर अक्षरों की स्याही चढ़ती रही. मगर कुछ नहीं हुआ. पुलिस के कुत्ते मेरे जिस्म से खिलवाड़ करते रहे, पूरीपूरी रात अंधेरे कमरों में ले जा कर मुझे भोगते रहे और मेरे मामू मोहल्ले के माफियाओं तथा नेताओं की शागिर्दी करते रहे.

बाद में एक रात मसजिद के मौलवी मामू से मिलने आए थे. रुपयों की गड्डियां पकड़ाते हुए बोले, ”रहमान भाई, मुकदमे की परवाह न करना. खुदा चाहेगा तो सब ठीक हो जाएगा मगर हम मसजिद के बगल के मंदिर में कोई पुजारी नहीं देखना चाहते.’’

मामू बोले, ”खुदा की कसम, सच कहता हूं मौलवी साहब, अगर आप का हाथ मेरे सिर पर है तो कोई पुजारी मेरी खूबसूरत शब्बो को छू भी नहीं सकता.’’

मौलवी ने कहा, ”ये साला पुजारी, जब नमाज पढऩे का वक्त होता, तभी अपने घंटेघडिय़ाल, शंख बजाने लगता था और यह सुन कर मेरी आंखों में खून उतर जाता था.’’

मामू हंस कर बोले, ”चलो, अब तो चेहरे पर मुसकान लाओ, मैं ने तो अब आप के पांव का कांटा निकाल कर फेंक दिया.’’

मौलवी उठ कर चलने को हुए ही थे कि अम्मीजान ने उन के गले में अपनी बाहें डालते हुए अंगड़ाई ले कर कहा, ”तो मेरी ओर न देखो, मगर शब्बो को तो चूमते जाओ.’’

यह सुन कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे. मैं सोचने लगी, ‘ये मसजिद के नमाजी लोग भी इन कोठों पर कैसे सीढिय़ां चढ़ कर अपनी हवस मिटाने आते हैं? इन्हें खुदा से भी डर नहीं लगता.’

मैं बड़बड़ा ही रही थी, तभी पीछे से किन्हीं 2 हाथों ने मेरी दोनों आंखें बंद कर मुझे घसीट लिया था और मैं बिस्तर पर पांव मलतेमलते शिथिल हो गई थी. पूरी रात वो मुझे भोगता रहा. उस दिन से मुझे नेता, माफिया और अधिकारियों की तरह मुल्लाओं, मौलवियों, साधुओंपुजारियों से नफरत हो गई थी. नफरत क्यों न हो जाती? इन्हीं लोगों ने तो हम लोगों को तवायफ होने के लिए मजबूर किया था. एक औरत को बाजार में बिकने की इजाजत दी थी. फिर तवायफ न होती तो क्या होती?

पेट की भूख मिटाने के लिए हम ने इंसानी भेडिय़ों को अपना मांस नोचने का आमंत्रण दे डाला था. इसीलिए मुझे किसी एक व्यक्ति से शिकायत नहीं, बल्कि उस व्यवस्था से थी, जो तरहतरह के मुखौटे लगा कर मेरे तलवे चाटने आती थी. कहीं ऊंट की चोरी निहुरेनिहुरे करने वाले सच्चाई से मुकाबला करने का साहस जुटा सके हैं?

सच कहती हूं मैं. मेरा जिस्म भले ही मैला हो गया था या बेजान हो कर पाप में पथरा गया था, मगर मेरे भीतर की चेतना सच का सामना करने से कभी कतराई नहीं थी. वह तो आईने की तरह पाकसाफ थी, क्योंकि मैं ने कभी किसी को छला नहीं था, किसी से कुछ मांगा नहीं था और किसी की परछाई से अपना रिश्ता जोड़ा नहीं था. इसलिए कि मेरे लिए प्रेम का कोई नया अर्थ होता था, जहां देह से देह का मिलन होता है, आत्मा से आत्मा का नहीं. जहां नदी की गहराई और सागर की संवेदना से कभी दूरदूर का ताल्लुक नहीं होता बल्कि तट की सीढिय़ों को कुचल कर आगे बढऩे वाले हमें घूम कर भी नहीं देखते.

शायद उन के लिए औरत एक वस्तु होती है, जो जरूरत पूरी होने पर फेंक दी जाती है. जिसे इस दुनिया के लोग मौका पा कर अपनाते तो हैं, चोरी से ही सही, मगर वे ही समाज के धरातल पर उस के घृणा और छुआछूत का ढोंग रचाते हैं और वह है कि सब कुछ जान कर अपनी आंखों पर चश्मा चढ़ाए हुए कुछकुछ अनदेखा कर जाती है. उन मर्यादा पुरुषोत्तम की आंखों से अपनी आंखें मिलाती भी नहीं. वह दिन मेरी जिंदगी में एक भूकंप ले कर आया था, जिस दिन प्रो. लक्ष्मण मेरे कोठे पर नशे की हालत में चढ़ आए थे. उन का शहर में बड़ा नाम था. उन्होंने कई उपन्यास और नाटक लिखे थे और शहर में जब कोई उत्सव होता था तो वे उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हुआ करते थे.

उन का न तो कभी किसी तवायफ से ताल्लुक था और न इन संकरी गलियों से, लेकिन न जाने कैसे उन के डगमगाते पांव कोठे की सीढिय़ां चढ़ कर मुजरा सुनने आ गए थे. उन्होंने आते ही खाला और अम्मीजान से मुजरा सुनाने की अपनी इच्छा जाहिर की. अधेड़ उम्र, सांवला चेहरा, सुंदर बनावट, घुंघराले बाल. सब कुछ कुरतापैजामे में एक शरीफ आदमी के भटक कर किसी तवायफ के जाल में फंस जाने की पहचान दे रहे थे. कभी वह हम सब को देख कर हंसते तो कभी अपनी शायरी सुनाते हुए पैनी आंखों से घूरघूर कर संदेह की नजर से देखते थे.

उस दिन मैं ने अपना मनचाहा ग्राहक समझ कर उन्हें कई गजलें सुनाई थीं. मैं उन के पास ही बैठी थी और वह मुझे बख्शीश देते जा रहे थे. हर गजल उन के लिए लाखों की लग रही थी. पहली बार मैं ने किसी गजल के उस्ताद को देखा था, जो हर गजल को सुन कर अपनी राय देता था और उस के बदले में बख्शीश भी.

कुछ देर बाद वह बोले, ”आप का नाम क्या है?’’

मैं ने धीरे से उत्तर दिया, ”शब्बो!’’

उन्होंने मुझे पास बुला कर मेरी पीठ थपथपाई और कहा, ”क्या किसी मंच पर पहुंच कर गजलें पेश कर सकती हो?’’

न जाने क्यों यह सुनते ही मैं रोमांचित हो उठी थी और उस समय वह मुझे एक पैगंबर लगे थे. मेरी आंखों के आंसू उन के रुमाल पर गिर गए थे और मैं खालाजान के डर के मारे वहां से उठ कर भीतर भाग गई थी. इस रहस्य को उन्होंने नजदीक से समझ लिया था. इसीलिए उन्होंने मेरी अम्मीजान से रात कोठे पर ही बिताने की इच्छा जाहिर की थी. जब मैं सजधज कर उन के कमरे में गई तो वे नशे में चूर थे. शीशे के सामने पहुंचते ही मुझे पुजारी की याद आई. मेरी आंखों के आगे प्रो. लक्ष्मण की जगह पर उस की लाश पड़ी दिखाई देने लगी थी क्योंकि वह नशे में धुत पड़े थे. मैं दोबारा वह घटना घटित होने नहीं देना चाहती थी. इसलिए मैं ने भीतर से भी दरवाजा बंद कर लिया था.

हालांकि इस बात के लिए मैं कई बार डांट खा चुकी थी. खाला ने मुझे डांट कर कहा था, ”तू दरवाजा भीतर से मत बंद किया कर, कभी तवायफ का कसाइयों से पाला पड़ जाता है, तब तुझे कौन बचाएगा?’’

यह सुन कर मैं सहम जाती थी. मैं ने कई बार लक्ष्मणजी को जगाने और उठाने की कोशिश की, मगर वे आंखें नहीं खोल सके. मैं ने उन की दशा देख कर यह समझ लिया था कि न तो वे कभी शराब पिए थे और न ही किसी तवायफ के कोठे पर चढ़े थे. बालकों की तरह निश्ंिचत हो कर वह चुपचाप पड़े रहे और मैं बिस्तर पर बैठी उन के हाथपैर सीधे करती रही. उन की जेब के ढेर सारे रुपए बिखर कर बिस्तर पर पंखुडिय़ों के साथ मिल गए थे. मैं उन के घुंघराले बालों से खेलती हुई कब सो गई, मुझे भी पता नहीं था.

रात गहरी थी और मैं एक बार जाग कर फिर लेट गई थी. कुछ देर में उन्हें उठता देख कर मैं ने अपनी आंखें मूंद लीं. उन्होंने मुझे अपनी गोद में ले लिया और धीरेधीरे मेरे चेहरे पर बिखरे हुए बाल संवारने लगे थे. मुझे उन की यह आत्मीयता और किसी से नहीं मिल पाई थी. मुझे लगा कि मैं किसी शरीफ की गोद में लावारिस सी विश्राम कर रही हूं. मुझे जिस के सहारे की जरूरत थी, वह मिल गया था. उन्होंने मुझे जगाते हुए कहा, ”शब्बो! हमारे देश में औरत एक ढोल की तरह है. आदमी उसे जिस तरह चाहता है, उस तरह बजाता है. औरत को आदमी की इच्छानुसार बजना भी पड़ता है, मगर ढोल भीतर से खाली होती है तभी बजता है.’’

मैंने कहा, ”जी, हुजूर! औरत तो ‘यूज ऐंड थ्रो’ के लिए होती है आजकल. फिर तवायफ को इस समाज की वह वस्तु समझ लीजिए जो अंधेरे में चूमी जाती है और उजाला होते ही फेंक दी जाती है.’’

वह बोले, ” शब्बो, इस का मुझे अफसोस है. मैं तो अपने घर की दीवार लांघ कर कहीं नहीं गया मगर आज..!’’

मैं ने तुरंत पूछा, ”मगर आज क्या?’’

वह गंभीर हो कर बोले, ”आज तुम मेरी बाहों में हो. मैं स्वयं यहां अपने को पा कर आश्चर्य में हूं. शराब के नशे में मेरे पांव इधर आ गए… और यह शराब जो तुम्हारी तरह पहली बार मेरे सिर पर सवार हो गई है.’’

मैं तुरंत उन की ओर देख कर उठ बैठी और बोली, ”नहीं, हुजूर! मैं तो आप के पैरों की जूती हूं, मैं आप के सिर चढऩे का हक कहां रखती हूं.’’

यह सुनते ही उन्होंने मुझे कई बार अपने हृदय से लगाया और कई बार चूमा. थोड़ी देर खामोश रह कर फिर बोले, ”शब्बो, क्या तुम इस नर्क से बाहर निकलना पसंद करोगी?’’

यह सुन कर मैं चौंक पड़ी, जैसे कोई मेरे मुंह की बात छीन ले गया हो. मैं ने उन के होंठ पर अंगुली रखते हुए कहा, ”हुजूर, आप मेरा इम्तिहान न लें, बल्कि यह वादा करें कि आप इस कोठे पर मेरे लिए आते रहेंगे.’’

प्रो. लक्ष्मण ने कहा, ”यह मेरे प्रश्न का उत्तर तो नहीं है. हो सके तो तुम्हें पिंजरे से बाहर अपने मन को खोल कर खुले आकाश में खुली सांस लेनी चाहिए.’’

”कौन पिंजरे का पक्षी है, जो उस आकाश को छूना नहीं चाहता. मगर उस के पर खुलें तब न..!’’

”बस, बहुत हो गया शब्बो! अब तुम बाहर चलने के लिए तैयार हो जाओ.’’ वे बोले.

मैं ने कहा, ”क्या बात करते हैं आप. अब अंधेरा और गहराने लगा है.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि अभी तक हमारे पीछे दुनिया थी तो मैं भाग रही थी और जब दुनिया के पीछे मैं हो गई हूं तो वह भाग रही है. यह समाज की कैसी विडंबना है. प्रो. लक्ष्मण किसी तरह भी कोठे पर बारबार आने के लिए राजी न थे और न ही मुझे इस पेशे में बंधे रहना ही देख सकते थे.

उन्होंने नारी निकेतन में पहुंच कर मुझे सुरक्षित रहने के लिए प्रेरित किया था. वह चाहते थे कि मैं इस माहौल से बाहर निकल कर नारी के वजूद के लिए संघर्ष करने की हिम्मत जुटाऊं. प्रोफेसर सारी रात नारी विमर्श करते रहे और यह भूल गए कि वह इस कोठे पर क्यों चढ़े थे? उन की अंदरूनी सच्चाई उन की आंखों से झांकने लगी थी और वे मुझे इस जमाने के बहादुर योद्धा की तरह दिखाई देने लगे थे. कुछ शरीफ लोग मुझे झूठे आश्वासन दे कर मेरे भोलेपन का फायदा उठा रहे थे. मगर प्रोफेसर मुझे भोले लग रहे थे और मैं उन के भोलेपन का फायदा उठाने की कोशिश करने लगी थी.

आज मैं कोठे से उतर चुकी थी और पुलिस की मदद से नारी निकेतन के उस सहायता केंद्र में पहुंच चुकी थी, जहां प्रो. लक्ष्मण मेरा इंतजार कर रहे थे. मेरे पहुंचने से पहले मेरे मामू अम्मीजान के साथ वहां मौजूद थे. यह देख कर मैं संकुचित हो गई थी, एक भय जो मामू की पिछली मार का मेरे मन में भरा था, उभर आया था, लेकिन प्रोफेसर को देखते ही मैं फिर से सचेत हो गई थी. उन्होंने मुझे अपने पास बुला कर बैठा लिया था. मेरे भीतर की पीड़ा अब आग बन कर धधक उठी थी.

अब मैं कोठे के पिंजरे से बाहर निकल कर हकीकत की जमीन पा चुकी थी. एक नई जिंदगी का एहसास मेरे दिलोदिमाग की खिड़की खोल चुका था. भले ही मेरे हाथों में मेहंदी और मांग में सिंदूर न लगा हो, मगर औरत को दुनिया में औरत होने की समझ मुझ में विकसित होने लगी थी. हां, एक बात और भी थी, जिंदगी कई कोणों पर चमकने लगी थी. प्रो. लक्ष्मण ने मुझे नारी निकेतन के पुस्तकालय का इंचार्ज बनवा दिया था. अब मैं पुस्तकों के बीच अपने युग के पन्नेपन्ने से परिचित होने लगी थी.

उन्होंने मुझे कूप मंडूक होने से बचा लिया था. जब भी समय मिलता तो लक्ष्मण मुझ से मिलने के लिए आ जाते थे और जब मुझे मौका लगता तो मैं उन से मिलने की इच्छा रखते हुए भी नारी निकेतन की सीमा से बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. एक तो मेरे मामू का भय जो मुझे था. दूसरे प्रो. लक्ष्मण जैसे महान लोगों की मर्यादा और प्रतिष्ठा को मेरी वजह से कोई चोट पहुंचे, यह मैं सहन भी नहीं कर सकती थी, क्योंकि वे ही मेरे संरक्षक और आराध्य थे.

मैं हिंदी उर्दू दोनों भाषाओं की अच्छी जानकारी रखती थी, जिस के कारण पुस्तकों का रखरखाव और पठनपाठन भली प्रकार कर लेती थी. इधर मैं नारी निकेतन की नारियों को पढ़ाने भी लगी थी और छोटी बच्चियों को नृत्य भी सिखाने लगी थी. पूरा निकेतन मेरा कार्यस्थल था और मैं हर दरवाजे पर दस्तक दे कर सभी की खोजखबर लेती थी. इन दिनों मेरे परिचय का दायरा भी बढऩे लगा था. कई स्कूलों में मुझे नारी विमर्श के लिए आमंत्रित भी किया जा चुका था. धीरेधीरे सभाओं और समारोहों में जाने का सिलसिला शुरू हो गया था. एक दिन मैं प्रो. लक्ष्मण के निवास पर पहुंच गई.

जाने क्यों मेरा मन अशांत था. मैं उन के निकट पहुंचना चाहती थी. प्रोफेसर बिस्तर पर जाने ही वाले थे कि मैं ने दरवाजे पर दस्तक दी. उन्होंने उस रात इस अचानक मेरे आने का कारण पूछा, ”शब्बो तुम, इतनी रात बीते यहां, कहो सब कुशल तो है?’’

मैं ने उत्तर दिया, ”जी, सब कुशल है. बस, यूं ही कमरे में जी नहीं लग रहा था तो आप की तरफ चली आई.’’

”यह तो मेरे प्रश्न का सही उत्तर नहीं.’’ उन्होंने कहा.

मैं चुपचाप खड़ी रही.

वह बोले, ”बैठ जाओ, तुम्हारे आने से मुझे कोई परेशानी नहीं, मगर यह मिलने का समय नहीं है.’’

मैं हंस कर बोली, ”तो क्या जब आप कोठे पर गए थे, तब मुजरा सुनने का वक्त था.’’

वह थोड़ी देर मौन रहे फिर बोले, ”हूं, तो तुम कहना क्या चाहती हो?’’

मैं उन से धड़ल्ले से बोली, ”मैं आप के साथ आई थी और अब आप बिना एक पल नहीं रह सकती.’’

”क्या तुम्हें नारी निकेतन में कोई परेशानी है.’’ उन्होंने मुझ से पूछा.

”नहीं, मगर नारी केवल रोटियों पर जिंदा नहीं रह सकती.’’ मैं ने अपनी बात उन के आगे रख दी.

वह बोले, ”इसीलिए मैं ने तुम्हें भारतीय समाजवादी पार्टी का बैनर दिया है. जाओ, इलेक्शन की तैयारी करो और नारी के अधिकारों के लिए लड़ो. इस देश में नारी का कभी शोषण न होने पाए.’’

”मगर मुझे आप का प्यार चाहिए, संरक्षण चाहिए.’’ मैं बोल उठी.

”हांहां, ये दोनों मिलेंगे तुम्हें. पहले तुम्हें एक संपूर्ण नारी हो कर जीना सीखना होगा.’’

”क्या मैं कहीं से कमतर हूं? आप को नारी नहीं लगती?’’ मैं पुन: बोल पड़ी.

वह बोले, ”अभी तुम्हारे भीतर कहीं तवायफ जिंदा है, तुम्हें उसे भी मारना होगा.’’

मैं उन के करीब जा कर बोली, ”जरा आप मेरी आंखों में झांक कर देखिए, क्या मैं अब भी आप को तवायफ दिखाई देती हूं. क्या मेरी देह से आप को किसी तवायफ की बू आ रही है.’’

”नहीं, शब्बो नहीं, तुम एक सहज नारी हो, मगर भारतीयता का आदर्श ओढ़ कर मेरे पास आ गई हो. तुम भीतर से तवायफ और बाहर से नारी क्रांति की अपराजिता लगती हो.’’ यह कहते हुए वह मुझे अपने हाथों से थपथपाने लगे थे.

मैं सुबह होतेहोते प्रोफेसर के मकान से बाहर निकल चुकी थी. मेरा माथा घूम रहा था. मेरी देह थरथरा रही थी. मेरे होंठों से किसी के निश्छल प्यार की गंध उठ रही थी. मेरी आंखों में नींद की जगह उन के चुंबन का स्पर्श कड़ुवाने लगा था. सुबह जब मैं कमरे में बैठ कर चाय पी रही थी, तभी किसी के दस्तक की आवाज सुनाई पड़ी. मैं ने अपने को ठीक से संभाला. आज मैं बहुत खुश थी, मेरे पांव उडऩे लगे थे. मुझे लगा कि प्रोफेसर मेरे घर आ पहुंचे हैं, किंतु जब दरवाजा खोला तो अपर्णा को सामने देखा. मुझे लगा कि दुनिया के झोंके मुझे धकिया रहे हैं.

आज का दिन मेरी जिंदगी की खुशहाली का दिन था, जिस का अहसास कोई औरत अपने प्यार को प्रियतम के हाथों पा कर ही कर सकती थी. प्रोफेसर मेरी जिंदगी में बहार बन कर आए थे. मेरे घर कहीं दीवाली थी तो कहीं होली थी. मैं ने न जाने कितने रूपों, रंगों में आज अपने खिले हुए गुलाबी मन को गुब्बारे की तरह उड़ाया था. आज प्रोफेसर के आने की प्रतीक्षा हो रही थी. मैं ने गेट से ले कर पूरे नारी निकेतन के भीतरी कक्ष को फूलों से सजाया था. मुख्यद्वार से अपने कक्ष तक पंखुडिय़ों के पांवड़े बिछवाए थे. गजरों से मंच को सजाया गया था. न जाने क्यों, मेरा मन उड़उड़ जाता था.

मगर प्रतीक्षा की घड़ी धीरेधीरे समाप्त हो रही थी. एक औरत को अपनेपन का आभास तब तक होता है, जब तक उस का प्रिय उस के द्वार पर दस्तक देने आता है. मन शून्य में बिचर रहा था और आशंका भरी मेरी देह मुझे ही काटने लगी थी. आज उन का अभिनंदन समारोह मनाया जाना था. सभाकक्ष के लोग एकएक कर जाने लगे थे. मगर उन के पांव नारी निकेतन के द्वार तक न आ सके. फोन की घंटी कई बार बज चुकी थी. मैं ने बेमन उसे उठा ही लिया था. कोई कह रहा था, ”प्रो. लक्ष्मण अब इस संसार में नहीं रहे. जब वह समारोह की ओर आ रहे थे, तभी असमय उन्हें दिल का दौरा पड़ गया था.’’

इतना सुन कर मैं ने फोन जमीन पर फेंक दिया था. वह जमीन मेरे पांव के नीचे से खिसक गई थी.

 

 

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