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असल हीरो खो गया गुमनामी में

सन 1999 में महेश मथाई की फिल्म ‘भोपाल एक्सप्रैस’ आई थी, इस में एक अनूठा दृश्य होता है. एक बस्ती में खुले में ‘अमर अकबर एंथनी’ दिखाई जा रही है. प्रोजैक्टर की रोशनी परदे की ओर बह रही है. गीत चल रहा है, ‘शिरडी वाले साईंबाबा, आया है तेरे दर पे सवाली…’ साईंबाबा की मूर्ति में से नेत्र ज्योति निकलती है और नेत्रहीन निरूपा राय की आंखों में प्रवेश कर जाती है. उस की आंखों की रोशनी आ जाती है.

तभी इस आस्था भरने वाले प्रोजेक्टर के प्रकाश के कणों के साथ विषैली गैस का धुआं भी दर्शकों की तरफ बहता है. खौफनाक, क्रेग मेजिन (एचबीओ) की सीरीज ‘चर्नोबिल’ में भी एक ऐसा ही खौफनाक दृश्य होता है, जहां चर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट में हादसा होता है.

उस का कोर रिएक्टर फट जाता है, रेडिएशन फैल जाता है. पास में फ्लैट्स बने होते हैं. रात को लोग, युवा, बच्चे, दंपति खाना खा कर घूमने निकले हैं, वे आसमान छू चुकी इस आग और काले धुएं को मौजमस्ती से पर्यटकों की तरह निहार रहे होते हैं और हंसीमजाक कर रहे होते हैं, सत्य से बिलकुल अंजान. एक युवती देखते हुए कहती है कि यह कितना सुंदर है न.

और उसी क्षण यूरेनियम रेडिएशन के हत्यारे कण हवा से उड़ कर उन के ऊपर गिर रहे होते हैं, उन की सांसों में अंदर जा रहे होते हैं, ऐसा ही ‘द रेलवे मेन’ में भी होता है, जहां अन्य यात्रियों के साथ वे 2 अनाथ बच्चे भी भोपाल स्टेशन पर बैठे हैं, जो पूर्व में यश चोपड़ा की फिल्मों के गीत गा कर हमारा मनोरंजन कर चुके होते हैं (इक रास्ता है जिंदगी, जो थम गए तो कुछ नहीं… कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है…) और जहरीली हवा उन की जान लेने को बढ़ रही होती है.

भोपाल एक्सप्रैस के अंत में नसीर के किरदार बशीर के शव पर क्रोध में भर कर रोने वाला केके का विस्फोटक दृश्य है, जिस में विजयराज भी फूटफूट कर रोता है. विचित्र संयोग कि केके उसी कहानी, उसी रेलवे स्टेशन, उसी कब्रिस्तान में फिल्म में होता है और इन्हीं जगहों पर ‘द रेलवे मेन’ में भी वापस पहुंचता है.

इस फिल्म और ‘द रेलवे मेन’ दोनों में एक कौमन शौट भी है, जहां एक महिला विषैली गैस से मर चुकी है और उस का जीवित बच्चा स्तन से दूध पी रहा है. बौलीवुड अभिनेता दिवंगत इरफान खान के बेटे बाबिल खान के करिअर का यह पहला सच्चा काम है. ‘कला’ उस का कमजोर परफारमेंस थी, जिसे ‘इरफान बायस’ के चलते सराहा गया.

‘द रेलवे मेन’ पहला प्रोजेक्ट है, जिस में बाबिल अपने पिता इरफान खान की वजह से नहीं, अपने फैशन और फोटो आप्स के लिए नहीं, बल्कि यंग लोको पायलट ईमाद रियाज के अपने किरदार की निष्ठा की वजह से अलग पहचान बनाता है.

दिव्येंदु के करिअर को इस पहले अपराधी के किरदार से अंत में थोड़ी गुडविल से दिल जीत जाता है. ‘द रेलवे मेन’ के किरदार इस तरह लिखे गए हैं और उन मूल्यों के लिए खड़े होते हैं कि उन्हें निभाने वाले ऐक्टर्स की ऐक्टिंग को फीता ले कर मापने आप नहीं बैठ सकते. कहानी अपने ही स्तर पर आप को अपनी गिरह में ले लेती है, लेकिन फिर भी इस में डीसेंट ऐक्टिंग जरूरी है.

मेरे लिए यह कोई जबरदस्त सीरीज नहीं है (जो होने की जरूरत भी नहीं है) लेकिन यह एक आलटाइम एंटरटेनिंग मिनी सीरीज है. ऐसी सीरीज जिस में कुछ सत्यता है, बाकी सब कुछ काल्पनिक सा है. हां, देखने में सीरीज जरूर ठीकठाक है. ऐसी धांसू भी नहीं कि जब दर्शक सीरीज देख कर उठेगा तो संतुष्ट महसूस करेगा.

वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ भले ही भोपाल गैस त्रासदी के गुमनाम नायकों की कहानी बताई जा रही हो, लेकिन अपनी जान पर खेल कर हजारों रेल यात्रियों की जिंदगी बचाने वाला असल हीरो तो गुमनाम ही रह गया.

1984 की त्रासदी के नायक के योगदान का दुनिया जहान ने कोई खास जिक्र नहीं किया. अब 39 साल बाद किया भी तो असली नाम देने से ही कन्नी काट ली. यह कहते कहते शादाब थम से जाते हैं. सच तो यह है कि हम न जान लेने वालों को सजा दिला पाए और न जान बचाने वालों को शाबाशी…

ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई ‘द रेलवे मेन’ के डायलौग से भोपाल के कोफेहिजा में रहने वाले शादाब दस्तगीर काफी इत्तफाक रखते हैं. लेकिन वेब सीरीज की कहानी और किरदारों को ले कर वह पूरी तरह सहमत नहीं हैं.

करीब 50 साल के शादाब दस्तगीर 1984 में भोपाल रेलवे स्टेशन के डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट रहे दिवंगत गुलाम दस्तगीर के सब से छोटे बेटे हैं. शादाब का दावा है कि ‘द रेलवे मेन: द अनटोल्ड स्टोरी औफ भोपाल 1984’ में केके मेनन का किरदार पूरी तरह उन के पिता गुलाम दस्तगीर पर ही आधारित है.

क्या थी काली रात की हकीकत

1984 की उस काली रात (2-3 दिसंबर) की दास्तां सुनाते हुए शादाब बताते हैं कि उस साल मैं करीब 14 साल का था. पुराने भोपाल के एक घर में हमारा 5 सदस्यीय परिवार रहता था. 2 दिसंबर, 1984 की रात मां के साथ हम घर में 3 भाई थे. करीब 11 बजे पिता गुलाम दस्तगीर भोपाल रेलवे स्टेशन के लिए निकल गए थे. तभी आधी रात को हमारे मोहल्ले में चीखपुकार मचने लगी.

बाहर जा कर देखा तो लोग इधरउधर भाग रहे थे और एक अजीब सी गंध नथुनों में घुसी जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने मिर्ची के गोदाम में आग लगा दी हो या फिर गोभी को बड़े पैमाने पर उबाला जा रहा हो.

गंध खतरनाक होती जा रही थी. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. किसी ने बताया कि ऊंचाई वाले स्थान पर जा कर ही जान बचाई जा सकती है. भागतेभागते हांफते मां और तीनों भाई तमाम लोगों की तरह जेल पहाड़ी पर पहुंचे, लेकिन रात भर पिता की चिंता सताती रही.

भोपाल की हवा में जहरीली गंध थमने के बाद सुबह मां के साथ हम तीनों भाई घर लौटे तो देखा कि पिता अपनी ड्यूटी से नहीं लौटे थे. अमूमन नाइट ड्यूटी खत्म करने के बाद पिता सुबह करीब साढ़े 8 बजे तक लौट आते थे. किसी अनहोनी की आशंका के चलते मैं अपने पिता को ढूंढने साइकिल से निकल पड़ा, लेकिन रास्ते का मंजर देख ठिठक गया.

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