सुभाष कुछ ही महीनों में मायानगरी के बारे में समझ गया था कि अगर यहां रहना है तो दब कर नहीं, बल्कि लोगों को दबा कर रहना होगा. मुंबई में यूं तो बड़ी संख्या में पूर्वांचल के लोग रहते थे, लेकिन उन का कोई माईबाप नहीं था. पूर्वांचल के कुछ लोग दबंगई भी करते थे, लेकिन मजबूरी में उन्हें भी लोकल मराठी गुंडों के लिए ही काम करना होता था.
सुभाष के पास ताकत भी थी और हिम्मत भी और साथ में लीडरशिप वाले गुण भी थे. इसलिए उस ने आए दिन होने वाले पुलिस के उत्पीड़न से बचने के लिए पूर्वांचल के ऐसे नौजवान लड़कों का गुट बनाना शुरू कर दिया, जो दिलेर थे और उन के सपने बडे़ थे.
सुभाष की मेहनत रंग लाई. उस ने 20-25 ऐसे नौजवानों का गुट बना लिया जो उस के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थे. इस के बाद सुभाष ने पहले वसई और विरार इलाके में सक्रिय मराठी गुंडों के खिलाफ लड़ना शुरू किया, जो लोकल मार्केट में उगाही करते थे. सुभाष ठाकुर ने उन दुकानदारों से पहले हफ्ता वसूली शुरू की, जिन से पहले मराठी गुंडे वसूली करते थे.
मुंबई उन दिनों तेजी से आबाद हो रही थी. बड़ीबड़ी इमारतें बन रही थीं. बिल्डिंग बनाने और प्रौपर्टी के धंधे में बड़ा मुनाफा था. लेकिन जमीन से जुड़े विवाद के कारण बिल्डरों को सब से ज्यादा नेता, पुलिस और गुंडों की मदद लेनी पड़ती थी.
सुभाष ठाकुर ने वसूली की रकम से होने वाली कमाई से कुछ हथियार खरीद कर अपने लड़कों को दिए, जिस के बूते वे बिल्डरों के पास जा कर प्रोटेक्शन मनी की मांग करने लगे. एकडेढ़ साल के बाद ही पूरे वसई और विरार में सुभाष ठाकुर को ठाकुरजी के नाम से पुकारा जाने लगा. वह महंगी गाडि़यों में घूमने लगा. और कई दरजन पूर्वांचल के नौजवान उस के गिरोह में शामिल हो गए.
सुभाष ठाकुर बिल्डरों से सहीसलामत बिना रुकावट काम करने के बदले मोटी रकम वसूल करने लगा. दूसरा गुट कोई परेशानी पैदा न करे, इस की वो गारंटी देता था. जमीन से जुड़ा कोई भी लफड़ा हो, ठाकुर गिरोह बिल्डरों की तमाम परेशानियां दूर करने लगा.
देखते ही देखते अस्सी का दशक पूरा होतेहोते सुभाष ठाकुर पूरे मुंबई शहर का एक ऐसा नाम बन गया, जिस के कारनामों से उन दिनों के मुंबई के डौन हाजी मस्तान, वरदाराज और करीम लाला भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.
ये वो दौर था, जब मुंबई में 2 नाम अपराध की दुनिया में तेजी के साथ उभर रहे थे और वे दोनों बड़ा गैंगस्टर बनने के लिए अपने हाथपांव मार रहे थे. इन में एक था मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच के एक कांस्टेबल का बेटा दाऊद इब्राहिम कासकर और दूसरा था सदाशिव निखलजे यानी छोटा राजन.
ये दोनों ही इलाकाई मराठी दंबगों के लिए छोटेमोटे अपराध करते थे. लेकिन उन्हें लगा कि बड़ा काम करना है और संगठित तरीके से अपराध करना है तो सुभाष ठाकुर का साथ मिलना जरूरी है. लिहाजा उन दोनों ने ही सुभाष ठाकुर का दामन थाम लिया.
सुभाष ठाकुर को भी भरोसे के कुछ ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो लोकल मराठी हों. लिहाजा सुभाष ने दोनों को अपने गैंग में जगह दे दी. तीनों के अपनेअपने काम थे. कोई किसी के काम में हस्तक्षेप नहीं करता था. जरूरत होती तो तीनों एक साथ हो जाते. इसी तालमेल के कारण जल्द ही तीनों के संबध गहरे हो गए.
दाऊद ने बनाया सुभाष ठाकुर को गुरु
जुर्म की काली दुनिया में सुभाष ठाकुर का नाम तेजी से मशहूर हो रहा था. उस के नाम की दहशत भी मुंबई में नजर आने लगी थी. बाबा का नाम मुंबई अंडरवर्ल्ड में छाने लगा था. वह वहां के बिल्डरों और बड़े कारोबारियों पर शिकंजा कसता जा रहा था. एक वक्त था जब उस का कारोबार यूपी से ले कर मुंबई तक फैला हुआ था.
वैसे तो दाऊद का असल काम सोने और विदेशों से आने वाले दूसरे सामानों की स्मगलिंग का था. लेकिन हत्या, अपहरण व बिल्डरों, फाइनैंसरों से वसूली करने के गुर उस ने सुभाष ठाकुर के गैंग में शामिल होने के बाद सीखे थे. इस के बाद ही वह मुंबई का डौन बना था.
नब्बे का दशक आतेआते सुभाष ठाकुर से मिली ताकत के बल पर दाऊद इब्राहिम इतना ताकतवर हो गया और उस के खाते में इतने बड़ेबड़े गुनाह दर्ज हो गए कि पुलिस एनकाउंटर के डर से उसे मुंबई छोड़ कर दुबई में शरण लेनी पड़ी.
लेकिन तब तक मुंबई में उस ने अपराध का साम्राज्य इतना विकसित कर लिया था कि यहां का धंधा देखने के लिए उस ने छोटा राजन को कमान सौंप दी. छोटा राजन और दाऊद भले ही बड़े डौन बन चुके थे, लेकिन सुभाष ठाकुर उन के लिए तब भी बड़े भाई जैसा ही था.
उन दिनों मुंबई में एक दूसरा डौन भी तेजी से उभर रहा था. दगड़ी चाल में रहने वाला अरुण गवली उन दिनों लोकल मराठी गुंडों का तेजी से उभरता हुआ बौस था.
यूं तो मुंबई अपराध जगत में उन दिनों कई गैंगस्टर सक्रिय थे, लेकिन गवली और दाऊद का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि गवली जहां लोकल मराठी लोगों का गैंग चलाने वाले हिंदू डौन था तो दाऊद के गैंग में उन दिनों ज्यादातर मुसलिम और पठान जाति के गुंडों की भरमार थी. इसीलिए दाऊद के गिरोह से अकसर गवली गिरोह की टकराहट होती रहती थी.
लेकिन बाद के दिनों में जब दाऊद दुबई चला गया तो ये टकराहट दुश्मनी में बदल गई. इस दुश्मनी के बीच अरुण गवली के भाई पापा गवली की उस के दुश्मन ने हत्या कर दी.
आरोप लगा कि गवली के भाई को दाऊद ने मरवाया है. बस फिर क्या था, अरुण गवली ने अपने भाई पापा गवली की हत्या का बदला लेने के लिए दाऊद की कमर तोड़ने की कसम खा ली. उस ने अपने 4 शूटरों को इस काम पर लगा दिया. जिन्हें टारगेट दिया गया था दाऊद के बहनोई इब्राहिम पारकर को खत्म करने का.
मौके का इंतजार किया जाने लगा. आखिरकार 20 साल पहले 26 जुलाई, 1992 को नागपाड़ा में गैंगस्टर अरुण गवली के 4 शूटरों ने दाऊद इब्राहिम के बहनोई इब्राहिम पारकर की हत्या कर दी थी. इस हत्याकांड ने दाऊद को झकझोर कर रख दिया था क्योंकि दाऊद की बहन हसीना उस की सब से करीबी मानी जाती थी.
इब्राहिम पारकर की हत्या को गवली के 5 शूटरों शैलेश हलदनकर, बिपिन शेरे, राजू बटाटा, संतोष पाटील और दयानंद पुजारी ने अंजाम दिया था. जो वारदात के बाद मौके से फरार हो गए थे.
दाऊद अपने बहनोई के कत्ल को भूला नहीं और उस ने इब्राहिम की हत्या में शामिल शूटरों को सबक सिखाने का फैसला किया. पुलिस तब तक एक हत्यारे दयानंद पुजारी को गिरफ्तार कर जेल भेज चुकी थी.
छोटा राजन ने संभाला दाऊद का कारोबार
करीब एक महीने बाद इन में से 2, शैलेश हलदनकर और विपिन शेरे किसी विवाद में पब्लिक के हाथ लग गए. लोगों ने इन्हें मारा. जिस से वे घायल हो गए. पुलिस ने उन्हें इलाज के लिए जेजे अस्पताल में भरती करा दिया था.
दाऊद के दुबई में शिफ्ट होने के बाद छोटा राजन के साथ उस का बहनोई इब्राहिम पारकर मुंबई में दाऊद का कारोबार देखता था. बहनोई की मौत धंधे के साथ पारिवारिक रूप से भी दाऊद के लिए बड़ा झटका थी.
पति की मौत के बाद हसीना पारकर ने मुंबई में उस का कारोबार संभाल लिया. जल्द ही मुंबई के अपराध जगत में उस के नाम का भी सिक्का चलने लगा.
जैसे ही दाऊद को इब्राहिम के कातिलों के जेजे अस्पताल में भरती होने की सूचना मिली, उस ने उसी वक्त दोनों कातिलों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया. क्योंकि दाऊद को पता था कि अगर उस ने कातिलों पर वार नहीं किया तो मुंबई में उस के अपराध का साम्राज्य छिन्नभिन्न हो जाएगा.
लिहाजा दाऊद ने मुंबई में अपने सेनापति छोटा राजन से कहा कि गवली के दोनों शूटरों को पुलिस कस्टडी में ही अस्पताल में खत्म करना है.
काम थोड़ा मुश्किल जरूर था लेकिन नामुमकिन नहीं. क्योंकि राजन जानता था जब तक भाई सुभाष ठाकुर का साथ उस के साथ है, तब तक कोई काम नामुमकिन नहीं. लिहाजा उस ने सुभाष ठाकुर से दाऊद के बहनोई की हत्या का बदला लेने के लिए बात की और अपना साथ देने के लिए तैयार भी कर लिया.
संयोग से अरुण गवली से सुभाष ठाकुर के संबंध भी ठीक नहीं थे, लिहाजा ठाकुर ने राजन को साथ देने का वायदा कर दिया. ये उन दिनों की बात है जब यूपी का रहने वाला बृजेश सिंह हत्या की कुछ वारदातों को अंजाम देने के बाद पुलिस के डर से मुंबई भाग गया था और सुभाष ठाकुर की शरण में रह कर छोटेमोटे अपराध कर रहा था.
छोटा राजन ने मांगा सुभाष ठाकुर से सहयोग
छोटा राजन के अनुरोध पर सुभाष ठाकुर ने गवली के दोनों शूटरों को अस्पताल में खत्म करने की जो प्लानिंग तैयार की, वो एकदम फिल्मी पटकथा जैसी थी.
अगर यह कहें तो गलत न होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड में दाऊद के इशारे पर गवली गिरोह के शूटरों की पुलिस हिरासत में की गई हत्या अंडरवर्ल्ड में पहली गैंगवार थी, जिस के बाद मुंबई की सड़कों पर गिरोहबाजी का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ था, जिस के दौरान मुंबई की सड़कें खून से लाल हो गई थीं.