बहुत हुआ अब और नहीं

जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं.

‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.

एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’

अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं. अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.

अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.

अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदर बाहर होते रहते थे.

रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया. आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.

अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.

बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.

मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.

मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.

‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.

‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.

‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’

चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.

‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’

अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझेआज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.

‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थेऔर गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.

‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’

अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.

‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.

इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.

अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं. कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.

कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.

उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.

लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकनें लगा.

पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’

सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.

‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.

‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.

‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’

सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.

कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’

‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती  रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’

अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’

मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.

‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.

‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.

‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ा थोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.

‘‘बहुत कुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’

‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.

‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’

कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.

नफरत की गोली – भाग 3

एक तरफ मिथिलेश के सामने दो वक्त की रोटी के लिए दूसरों पर आश्रित होने वाली स्थिति थी तो वहीं दूसरी ओर जेठानी लाखों रुपयों का मकान, गहने आदि खरीदने में लगी हुई थी. मिथिलेश को इस बात की कोई शिकायत नहीं थी. लेकिन उसे दुख इस बात का था कि जेठानी उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करती रहती थी.

देवरानी जेठानी के बीच चल रही रार पर न तो जोदसिंह ही ध्यान देता था और न ही उस के पिता. इस से मिथिलेश कुंठित हो गई थी.वह अभी तक पति की रहस्यमय हत्या को भूल नहीं पाई थी, उस का मन जेठानी को सबक सिखाने का करता था. लेकिन वह बच्चों के भविष्य को देखते हुए चुप हो जाती. मगर उस के सीने में एक आग सुलग रही थी. यह आग कब विकराल रूप धारण कर लेगी, ये कोई नहीं जानता था.

जोदसिंह के बच्चों की शीतकालीन छुट्टियां हो गईं तो उस ने परिवार सहित अपने गांव जाने का कार्यक्रम बना लिया. वह पिछले कई महीनों से अपने घर वालों से नहीं मिला था. छोटे भाई टिंकू के लिए भी कोई रिश्ता पक्का करना था.

टिंकू नेवी में नौकरी करता था. फिलहाल उस की पोस्टिंग सऊदी अरब में थी. इस के अलावा उसे अपने लिए आगरा में फ्लैट भी खरीदना था और दिवंगत भाई बंटू की पहली बरसी पर होने वाले शांति पाठ में शरीक होना था. ये सब काम निपटाने के लिए जोदसिंह पत्नी और बच्चों को ले कर 18 जनवरी की शाम को आगरा से निकल पड़ा.

पत्नी की जिद के कारण उसे पहले अपनी ससुराल जाना पड़ा. अगली सुबह करीब 11 बजे तीनों बच्चों को उन के नानानानी के पास छोड़ कर जोदसिंह ने सब से पहले अपने लिए फ्लैट तलाशने का मन बनाया. ससुराल से बाइक ले कर वह हेमलता के साथ देवरी रोड पर बनी कालोनी में गया. वहां उन्हें एक फ्लैट पसंद आ गया तो जोदसिंह ने बयाना भी दे दिया.

फ्लैट का सौदा पक्का होने की खुशी में उन्होंने बाजार से मिठाई खरीदी और फिर निकल पड़े मलपुरा की ओर. हेमलता ने अपने मायके वालों का मुंह मीठा कराया और फिर करीब आधा घंटे बाद दोनों शंकरपुर के लिए रवाना हो गए. करीब 6 बजे दोनों शंकरपुर पहुंच गए.

घर पर जोदसिंह के 2 मामा भी आए हुए थे. एक अपनी बेटी के लिए रिश्ता देखने आए थे. जबकि दूसरे अपनी दवाई लेने के लिए. चूंकि 2 दिन बाद ही उन के दिवंगत भांजे बंटू की बरसी थी तब तक के लिए दोनों ही वहां रुक गए.

घर पहुंच कर हेमलता और जोदसिंह ने घर पर मौजूद सभी का अभिवादन किया हलकीफुलकी बात की. फिर हेमलता सास व देवरों से बातचीत करने में मशगूल हो गई तो वहीं जोदसिंह पड़ोस के बीमार बुजुर्ग  के पास जा कर अलाव पर हाथ सेंकने लगा.

बातचीत के बीच हेमलता ने बाइक की डिक्की में रखा लड्डुओं का डिब्बा मंगवा लिया और फ्लैट खरीदने की बात कह कर इतराती हुई सब का मुंह मीठा कराने लगी. इस बीच जब मिथिलेश का छोटा बेटा अंकित लड्डू लेने ताई हेमलता के पास पहुंचा तो हेमलता ने उसे दुत्कार दिया.

ये बात अंकित ने अपनी मां को बताई. मिथिलेश के मन में हेमलता को ले कर जो नफरत सुलग रही थी वह आज ज्वालामुखी में बदलने लगी. उस ने अंकित को कहा कि वह कमरे में जाए और टीवी देख ले. अंकित कमरे में चला गया.

उधर मिथिलेश अपने कमरे में गई और संदूक में रखा तमंचा निकाल लाई. वह तमंचा उस के पति का था. पति ने जीवित रहते हुए मिथिलेश को तमंचा चलाना सिखा दिया था. उस तमंचे को छिपा कर वह छत पर ले गई और वहीं रख आई. इस के अलावा योजना के अनुसार उस ने हथौड़ा भी छत पर ले जा कर रख दिया था. अब उसे केवल सही समय का इंतजार था.

करीब पौने 8 बजे हेमलता जब सास और देवरों के बीच से उठ कर लघुशंका के लिए सीढि़यों के नीचे बने बाथरूम में जा रही थी तो वहीं पर मिथिलेश ने उस के पैर पकड़ कर उस से एकांत में बात करने का 10 मिनट का समय मांगा. उस ने कहा कि वह दोनों के बीच चल रहे मनमुटाव को दूर करना चाहती है.

देवरानी जब पैरों में पड़ गई तो हेमलता को भला 10 मिनट देने में क्या एतराज था. देवरानी के अनुरोध पर एकांत में बातचीत करने के लिए वह उस के साथ छत पर चली गई. छत पर अंधेरा था. हेमलता के कहने पर मिथिलेश ने छत पर लगा बल्ब जला दिया. मिथिलेश ने बैठने के लिए वही जगह चुनी जहां पर उस ने हथौड़ा और तमंचा छिपा कर रखा था. जेठानी को बैठने के लिए उस ने पटरा उसी स्थान पर लगाया जिस से उसे बार करने में आसानी हो.

करीब 2-3 मिनट तक दोनों इधरउधर की बातें करते रहीं जब हेमलता को लगा कि मिथिलेश के पास बातचीत करने का कोई ठोस मुद्दा नहीं है, तो वह वहां नीचे आने को जैसे ही उठी, मिथिलेश ने फुरती से हथौड़ा निकाल कर उस से भरपूर वार उस के सिर पर किया. हेमलता के मुंह से आवाज भी न निकल पाई. उस के सिर से खून बहने लगा और वह बेहोश हो गई.

तभी उस ने तुरंत तमंचा निकाला और जेठानी को हिकारत भरी नजरों से देखा. फिर उस ने उस के सिर पर तमंचा सटा कर ट्रिगर दबा दिया. एक आवाज हुई और हेमलता का खेल खत्म हो गया. जेठानी को मारने के बाद वह छत की दीवार पर पीठ टिका कर इस तरह बैठ गई जैसे कि ये काम कर के उसे बहुत बड़ा सुकून मिला हो.

कुछ देर बाद हेमलता का पति जोदसिंह उसे ढूंढता हुआ जब छत पर पहुंचा तब उसे पता चला कि उस ने जो गोली की आवाज सुनी थी वह उस की पत्नी को ही मारी गई थी.

थानाप्रभारी ने जब मिथिलेश से पूछा कि क्या उसे अपनी जेठानी की हत्या करने का कोई पछतावा है तो उस ने तपाक से कहा, ‘‘कैसा पछतावा, मुझे कोई पछतावा नहीं है. जेठानी ने सारे परिवार के साथ मिल कर मेरे पति को मारा था, मैं ने उसे मार कर अपने पति की मौत का बदला ले लिया.’’

पूछताछ के बाद मिथिलेश को न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया. जबकि उस के चारों बच्चों की देखभाल उन के दादादादी कर रहे हैं.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

मौत के मुंह से वापसी – भाग 1

खाड़ी देशों से कमाई कर के आने वाले लोगों के चमक दमक वाले कपड़े, आटोमैटिक घडि़यां, तरहतरह  के खूब अच्छे लगने वाले टेपरिकौर्डर, छोटेछोटे रेडियो तथा बटन दबाने से खुलने वाले छाते देख कर बचपन में मैं भी सपने देखने लगा था कि बड़ा हो कर जब मैं कमाने लायक होऊंगा तो  इन्हीं लोगों की तरह खाड़ी देशों में नौकरी करने जाऊंगा. लेकिन जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया,  मेरी आंखों से वह सपना ओझल होता गया.

किन्हीं कारणों से भले ही खाड़ी देशों में नौकरी करने जाने का मेरा सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन केरल के एक गांव के मजदूर बाप की बेटी सोना ने बड़ी हो कर खाड़ी देश जाने का जो सपना बचपन में देखा था, कुछ पाईपाई जोड़ कर तो कुछ रिश्तेदारों से तो कुछ महाजन से कर्ज ले कर पूरा कर ही लिया.

सोना का बाप रातदिन मेहनत कर के उसे और उस की जुड़वां बहन वीना को पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाना चाहता था कि उस की ये बेटियां उस की तरह किसी के यहां गुलामी न करें. वह चाहता था कि बहुत ज्यादा नहीं तो उस की दोनों बेटियां इतना जरूर पढ़लिख लें कि कम से कम अपने लिए 2 जून की रोटी और कपड़े का इज्जत के साथ जुगाड़ कर सकें. अपने बच्चों को भी कायदे से पढ़ालिखा सकें.

बेटियों ने भी बाप की तरह मेहनत कर के उस के सपने को साकार करने में कोताही नहीं बरती. बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण करतीं. फिर भी 12वीं कर के उन्होंने नर्सिंग की ट्रेनिंग जरूर कर ली, जिस से इतना तो हो ही गया कि वे कहीं भी नौकरी कर के इज्जत की जिंदगी जी सकती थीं. जब दोनों बहनें नर्स की ट्रेनिंग कर रही थीं, तभी से वे सपना देखने लगी थीं कि अगर वे किसी तरह खाड़ी के किसी देश चली जाती हैं तो कुछ ही सालों में इतना कमा लाएंगी, जितना भारत में शायद पूरी जिंदगी में न कमा सकें.

ट्रेनिंग के दौरान सोना और वीना देख रही थीं कि जो नर्सें भारत में नौकरी करती हैं, वे किसी तरह गुजरबसर कर पाती हैं. जबकि जो खाड़ी देशों में चली जाती हैं, वे शान की जिंदगी जीती हैं. वैसी ही शान की जिंदगी सोना भी जीना चाहती थीं. इसी के साथ वे अपने मातापिता के लिए भी कुछ करना चाहती थीं, जिन्होंने कभी एक जून खा कर तो कभी भूखे पेट रह कर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया था कि वे किसी की मोहताज न रहें.

सोना और वीना ने खाड़ी देशों में जा कर कमाने का जो सपना देखा था, अपनी नर्स की ट्रेनिंग के बाद से उसे साकार करने की कोशिश शुरू कर दी थी. मात्र ट्रेनिंग से काम चलने वाला नहीं था. बाहर जाने के लिए अच्छेखासे अनुभव की जरूरत थी. अनुभव के लिए नौकरी की जरूरत थी. अनुभव के लिए सोना और वीना ने केरल के एक अस्पताल में नौकरी कर ली. 12 घंटे की ड्यूटी थी और वेतन था 6 हजार रुपए. ड्यूटी चाहे दिन की होती या रात की, जब तक अस्पताल में रहतीं, पलभर बैठने को न मिलता.

बाप ने नर्स की ट्रेनिंग में जो फीस भरी थी, वह कर्ज ले कर भरी थी. उस का ब्याज भी लगता था. इसलिए कर्ज अदा करने के लिए नौकरी तो करनी ही थी. वेतन भले ही कम मिले और उस वेतन में काम चाहे जितना करना पड़े. किसी तरह पूरे 4 साल नौकरी कर के सोना और वीना ने अच्छाखासा अनुभव प्राप्त कर लिया तो खाड़ी के किसी देश जाने की तैयारी शुरू कर दी.

पहले उन्होंने पासपोर्ट बनवाया और फिर ऐसी एजेंसी की तलाश में लग गईं, जो उन्हें खाड़ी के किसी देश में नौकरी दिला सके. उन की यह तलाश जल्दी ही पूरी हो गई और दिल्ली की एक एजेंसी ने डेढ़ लाख रुपए प्रति आदमी ले कर इराक में नौकरी दिलाने का वादा किया. एजेंसी के अनुसार वहां उन्हें 750 डौलर तनख्वाह मिलने वाली थी.

सोना और वीना ने एजेंसी की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया. इस की वजह यह थी कि उन की जानपहचान की कई नर्सें वहां पहले से ही नौकरी कर रही थीं. उन्होंने उन्हें बताया था कि वहां उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

सोना और वीना की ही तरह मरीना, श्रुथी, सलीजा जोसेफ और ऐंसी जोसेफ पिछले साल अगस्त में 27 अन्य नर्सों के साथ इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के गृह शहर टिकरित जा पहुंची. लेकिन वहां पहुंच कर ये नर्सें टिकरित के उस अस्पताल की इमारत तक ही सीमित रह गई थीं. इन नर्सों को अस्पताल से बाहर जाने की बिलकुल इजाजत नहीं थी.

टिकरित के उसी अस्पताल में इस साल फरवरी महीने में 13 अन्य नर्सें भारत से भेजी गईं. इस तरह वहां भारत की 46 नर्सें हो गईं. इन में 45 नर्सें केरल की थीं. बाकी एक नर्स दूसरे राज्य की थी. ये सभी नर्सें अस्पताल की दूसरी मंजिल पर बने कमरों में रहती थीं. एक कमरे में 6 नर्सों के रहने की व्यवस्था थी. बाहर की दुनिया से उन का ताल्लुक सिर्फ कमरे की खिड़की से दिखाई देने वाले आसमान से था.

इराक में यह जो नया संकट पैदा हुआ था, इस की जानकारी इन नर्सों को 12 जून को तब हुई, जब अस्पताल के आसपास बम धमाके और गोलियों के चलने की आवाजें सुनाई दीं. रात में जलती हुई इमारतें दिखाई दीं. तभी उस अस्पताल में काम करने वाली इराकी नर्सों ने इन से कहा कि वे शहर छोड़ कर भाग रही हैं.

और सचमुच वे नर्सें भाग गईं. भारतीय नर्सें कहां जातीं, उन्होंने तो कभी अस्पताल के बाहर कदम ही नहीं रखा था. उन की दुनिया तो अस्पताल और उन के उस कमरे तक सीमित थी, जिस में वे रह रही थीं. सभी भारतीय नर्सें वहां बुरी तरह से फंस चुकी थीं. लेकिन अभी उन के पास एक सहारा यह था कि उन के मोबाइल फोन चालू थे. उन के पास भारतीय दूतावास के नंबर भी थे.

13 जून को इन नर्सों ने बगदाद स्थित भारतीय दूतावास में वहां के भारतीय राजदूत अजय कुमार को फोन कर के सभी नर्सों को वहां से किसी भी तरह निकालने की गुहार लगाई. 46 नर्सों में एक को छोड़ कर बाकी 45 नर्सें केरल की थीं. उन के पास केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी का नंबर था, नर्सों ने उन्हें भी फोन किया.

मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने उन्हें धैर्य ही नहीं बंधाया, बल्कि मदद का वादा भी किया. लेकिन तब तक टिकरित की सड़के बंद हो चुकी थीं, इसलिए सड़क मार्ग से उन नर्सों को कोई मदद नहीं मिल सकती थी. ऐसे में उन्हें कहीं बाहर नहीं ले जाया जा सकता था.

4 लाख में खरीदी मौत – भाग 3

काशीपुर पहुंच कर जयप्रकाश ने बहन से पत्नी के बारे में बता कर कहा कि अब वह उस से किसी तरह पीछा छुड़ाना चाहता है. भाभी की बदचलनी की बात सुन कर केला देवी को बहुत गुस्सा आया. जयप्रकाश ने बहन से यह भी कहा था कि अगर इस काम के लिए उसे 2-4 लाख रुपए खर्च भी करने पड़े तो वह खर्च कर देगा. वह हरजीत, पत्नी सुनीता और बढ़े बेटे विशाल की हत्या कराना चाहता था.

केला देवी ने इस काम के लिए जयप्रकाश की मुलाकात अपने देवर के बेटे पंकज से करा दी. जयप्रकाश उस का मामा लगता था. पंकज अभी छोटा था. उस का बाप नन्हे कटरा मालियान में पान की दुकान चलाता था. वह भी बाप के साथ दुकान पर बैठता था.

पंकज ने कभी हत्या जैसे काम के बारे में सोचा भी नहीं था. लेकिन जब जयप्रकाश ने 4 लाख रुपए देने की बात कही तो वह लालच में पड़ गया और हामी भर दी. इस के बाद उस ने अपने दोस्तों शिवअवतार पुत्र सोमपाल निवासी बरखेड़ा, कपिल पुत्र बाबूराम निवासी कटरामालियान, दीपक पुत्र गोपाल यादव निवासी काशीपुर को 2 लाख रुपए देने की बात कह कर 3 हत्याएं करने के लिए राजी कर लिया.

कपिल एक अस्पताल में एक्सरे टेक्नीशियन था तो शिवअवतार उर्फ बबलू एक पैथालौजी लैब में लैब टेक्नीशियन था. दीपक यादव एक मेडिकल स्टोर पर काम करता था.  इस तरह जयप्रकाश ने 4 लाख रुपए में 3 हत्याओं का सौदा कर डाला. इस के बाद उस ने 3 लाख 60 हजार रुपए दे भी दिए. बाकी रकम काम हो जाने के बाद देने को कहा.

पंकज और उस के दोस्तों ने 3-3 हत्याओं की सुपारी ले तो ली, लेकिन चारों ही इस काम के लिए एकदम नए थे. इंसान की कौन कहे, इन में से किसी ने कभी चूहा तक नहीं मारा था. जिस ने कभी चूहा तक न मारा हो, वह आदमी कैसे मार सकता था.

बहरहाल, पंकज ने अपने दोस्तों को 2 लाख रुपए दे कर इस झंझट से खुद को अलग कर लिया. लेकिन हत्या करवाने की जिम्मेदारी उसी की थी, इसलिए हत्याएं कैसे की जाएं, योजना बनवाने में वह भी साथ रहता था.

चारों हर रोज बैठ कर इस काम के लिए नईनई योजनाएं बनाते, लेकिन अंजाम न दे पाते. धीरेधीरे एक सप्ताह गुजर गया, उन की योजना सफल न हो पाई. अब तक मिली रकम से उन्होंने काफी पैसे खर्च कर डाले थे.  हत्याएं करवाने की वजह से जयप्रकाश अपना घर छोड़ कर काशीपुर में पड़ा हुआ था. उस का सोचना था कि उस के काशीपुर रहते हत्याएं होंगी तो पुलिस उस पर शक नहीं करेगी.

जब सप्ताह भर से ज्यादा का समय गुजर गया और पंकज कुछ नहीं कर पाया तो जयप्रकाश को लगा कि यह काम उस के वश का नहीं है. उस ने पंकज से अपने रुपए वापस मांगे. लेकिन पंकज और उस के साथियों ने काफी रुपए खर्च कर दिए थे, इसलिए रुपए लौटाते कहां से.

जयप्रकाश ने पंकज पर रुपए लौटाने के लिए दबाव बनाया तो वह परेशान हो उठा. इस के बाद चारों ने बैठ कर एक नई योजना बना डाली. यह योजना थी जयप्रकाश की हत्या की. उन्हें पता ही था कि जयप्रकाश का उस की पत्नीबच्चों से मनमुटाव चल ही रहा है.

ऐसे में अगर जयप्रकाश की हत्या हो जाती है तो शक उस की पत्नी पर जाएगा और वे साफ बच जाएंगे. 3 लोगों की हत्या करने के बजाय एक की हत्या करना आसान भी था. उन्हें 3 की जगह एक ही हत्या करने पर सारे पैसे मिल जाएंगे.

पंकज मामा को मरवाना तो नहीं चाहता था, लेकिन मामा से सुपारी ले कर वह बुरी तरह से फंस चुका था, क्योंकि मामा से ली गई रकम से काफी रुपए खर्च हो चुके थे. इसीलिए दोस्तों के कहने पर मजबूरन उसे मामा की हत्या के लिए हामी भरनी पड़ी.

इस के बाद जयप्रकाश की हत्या की योजना बन गई. पंकज और उस के दोस्तों को पता था कि करवा चौथ के त्यौहार पर जयप्रकाश जसपुर जाने के लिए राजी हो जाएगा. दरअसल वे जयप्रकाश को जसपुर ले जा कर मारना चाहते थे. क्योंकि वहां मारे जाने पर उस की हत्या की शंका पत्नीबच्चों और प्रेमी पर होती. वे पुलिस की गिरफ्त से दूर रहते.

योजना बनाने के बाद पंकज और उस के साथियों ने जयप्रकाश को विश्वास में ले कर जसपुर चलने के लिए राजी कर लिया. बहाना था, उस के द्वारा कही गई 3 हत्याओं को अंजाम देने का. जयप्रकाश किसी भी तरह पत्नी नामक झंझट से मुक्ति चाहता था, इसलिए वह उन के साथ जाने को राजी हो गया. चारों ने जो योजना बनाई थी, उस के अनुसार जयप्रकाश को जसपुर ले जा कर खत्म कर देना था.

12 अक्तूबर की रात शिवअवतार और कपिल ने जयप्रकाश को साथ ले जा कर काशीपुर के एक होटल में शराब पिलाई और खाना खिलाया. पत्नी की करतूतों से दुखी जयप्रकाश बातबात में ज्यादा शराब पी गया. शिवअवतार और कपिल चाहते भी यही थे, इसलिए वे उसे ज्यादा से ज्यादा शराब पीने के लिए उकसाते रहे.

जयप्रकाश नशे में होश खो बैठा तो शिवअवतार और कपिल उसे मोटरसाइकिल पर बीच में बैठा कर जसपुर की ओर चल पड़े. संन्यासियों वाला रोड पर पहुंच कर वे ऐसी जगह की तलाश करने लगे, जहां वे उसे मार सकें. कुछ दूर चलने पर अहमदनगर गांव के पास जब उन्हें सुनसान मिला तो उन्होंने उसे मोटरसाइकिल से उतार कर गोली मार दी.

इस के बाद जयप्रकाश की लाश को वहीं छोड़ कर शिवअवतार और कपिल लौट पड़े. रास्ते से ही शिवअवतार ने पंकज को फोन कर दिया कि बाकी 40 हजार रुपए वह दीपक को दे दे. जयप्रकाश ने सुपारी तो दी थी पत्नी, बेटे और पत्नी के प्रेमी हरजीत को मारने की, लेकिन मारा गया खुद.

पंकज के बयान के आधार पर पुलिस ने शिवअवतार उर्फ बबलू, कपिल, दीपक यादव को भी गिरफ्तार कर लिया. इन में शिवअवतार और कपिल पर तो हत्या का आरोप है, जबकि पंकज पर षडयंत्र रचने का तथा दीपक यादव पर साक्ष्य छिपाने का.

पुलिस ने हत्यारों की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त 315 बोर का तमंचा, 2 जीवित कारतूस तथा 1 लाख 60 हजार रुपए नकद बरामद कर लिए हैं. सारे साक्ष्य जुटा कर पुलिस ने चारों अभियुक्तों को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

पहले से हिरासत में लिए गए मास्टर हरजीत और मृतक जयप्रकाश की पत्नी सुनीता को पुलिस ने पंकज के अपराध स्वीकार करते ही रिहा कर दिया. सुनीता ने भले ही पति को नहीं मरवाया था, लेकिन अगर वह गलत न होती तो आज यह नौबत न आती. उसी की वजह से आज उस के 4 बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है.

एहसान के बदले मिली मौत – भाग 3

डर के मारे वह ऊपर की ओर भागे. कमरे में रखी बड़ी सी कुरसी पर 5-6 कंबल ओढ़ कर छिप गए. कदमों की आहट उन्हें साफ सुनाई दे रही थी, जो उन्हीं की ओर बढ़ रहे थे.

सन्नाटे को चीरती हुई एक मर्दाना आवाज गूंजी, ‘‘डा. फेंज गनीमत इसी में है कि तुम जहां भी छिपे हो निकल आओ वरना हम तो तुम्हें ढूंढ ही लेंगे.’’

यह आवाज थमी नहीं कि दूसरी आवाज उभरी, ‘‘आज बच नहीं पाओगे डा. फेंज.’’

खौफ से डा. फेंज की नसों का खून जम सा गया. वह सांस खींचे दुबके रहे. तभी पहले वाली आवाज फिर गूंजी, ‘‘डा. फेंज, हमें बता दो कि तुम ने नकद राशि कहां छिपा रखी है? हम तुम्हारी जान बख्श देंगे.’’

कंबलों में हलचल सी हुई. डा. फेंज में जाने कहां से हिम्मत आ गई कि वह झटके से बाहर आ गए. 2 लोग उन्हें खोज रहे थे. उन्होंने फुर्ती से एक युवक का सिर पकड़ कर खिड़की की चौखट से दे मारा. चीख के साथ उस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा. दूसरा उन की ओर लपका. उस ने डा. फेंज की कलाई पकड़ कर फर्श पर गिरा दिया.

इस के बाद घसीटता हुआ दीवार तक ले गया और उन का सिर पकड़ कर जोर से दीवार से मारा. इसी के साथ उस के घायल साथी ने डा. फेंज पर कुल्हाड़ी से जोरदार वार सिर पर किया. बस, एक ही वार में हलकी सी चीख के साथ वह बेहोश हो गए. इस के बाद भी दोनों युवकों ने ताबड़तोड़ कई वार उन के सिर और सीने पर किए. उन्हें लगा कि डा. फेंज खत्म हो गए हैं, लेकिन यह उन का भ्रम था.

डा. फेंज की सांसें चल रही थीं. दोनों का अगला निशाना वहां रखी अलमारी थी. अलमारी के दरवाजे को कुल्हाड़ी से तोड़ कर उसे खंगाला तो उस में 5 हजार यूरो मिले, जिन्हें ले कर दोनों भाग खड़े हुए. उन के जाने के बाद घिसटघिसट कर डा. फेंज उस टेबल तक आए, जहां फोन रखा था. किसी तरह नंबर मिला कर उन्होंने पुलिस को कराहती आवाज में घटना की सूचना दी.

10 मिनट में टौप एक्शन पुलिस फोर्स वहां पहुंच गई. गंभीर रूप से घायल डा. फेंज को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. 11 सप्ताह तक जिंदगी और मौत से जूझते हुए डा. फेंज ने आखिर 26 मार्च, 2008 को दम तोड़ दिया.

पुलिस जांच में मिले सुबूत डा. फेंज की पत्नी ततजाना के दोषी होने का इशारा कर रहे थे. ततजाना को हिरासत में ले कर पूछताछ की गई. वह खुद को बेकुसूर बताती रही. उस का तर्क था कि एक साल से डा. फेंज से उस का कोई संबंध नहीं था. वह अपने प्रेमी हीलमुट बेकर के साथ रह रही थी. मगर उस की कोई भी दलील काम नहीं आई. मई, 2008 में अदालत के आदेश पर उसे डा. फेंज की हत्या और चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया.

16 महीने बर्लिन कोर्ट में यह मुकदमा चला. लेकिन सुबूतों और गवाहों के अभाव में अक्तूबर, 2009 को कोर्ट ने ततजाना को बेगुनाह करार देते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया.

कहा जाता है कि ततजाना को अपनी बदसूरती के चलते पहले जीवन से खास लगाव नहीं रहा था. लेकिन जब डा. फेंज ने 20 औपरेशन कर के उसे खूबसूरती का तोहफा दिया तो उस के अंदर की दम तोड़ चुकी महत्त्वाकांक्षाएं और हसरतें फिर से उमंगे भरने लगी थीं. इसी के चलते उस ने अपने से 44 साल बड़े डा. फेंज के प्यार को स्वीकार कर के शादी कर ली थी, क्योंकि डा. फेंज के पास अरबों डौलर की दौलत थी.

पुलिस के अनुसार शादी के बाद 9 सालों तक ततजाना ने ऐश की जिंदगी बसर करते हुए अपने सभी अरमान पूरे कर लिए. इस के बाद उस का मन डा. फेंज से भर गया तो वह कार व्यापारी हीलमुट बेकर के पहलू में जा गिरी. वह उस के साथ एक साल रही, लेकिन डा. फेंज को उस ने तलाक नहीं दिया. शायद उस की निगाह डा. फेंज की बेशुमार दौलत पर थी. उस पर उस का कब्जा डा. फेंज की मौत के बाद ही हो सकता था. इसी वजह से उस ने डा. फेंज की हत्या पेशेवर हत्यारों से करवा दी थी. लेकिन सुबूतों के अभाव में वह निर्दोष मानी गई.

खैर, सच्चाई चाहे जो भी रही हो, जेल से रिहा होने के बाद ततजाना डा. फेंज की बेवा होने के नाते उस की 11 मिलियन यू.एस. डौलर की एकलौती वारिस हो गई. उस की जिंदगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी. पार्टीक्लबों में रात रंगीन करना, पुरुष मित्रों की बांहों में बांहें डाल कर डांस करना, महंगी कारों में घूमना और भोग विलास भरा जीवन उस की दिनचर्या में शुमार हो गया.

एक हाईफाई पार्टी में ही ततजाना की मुलाकात नवंबर, 2011 में जर्मनी के सेक्सोनिया राज्य के आखिरी राजा 68 वर्षीय प्रिंस वौन हौमजोर्लन से हुई तो वह उस से दिल लगा बैठी. प्रिंस वौन भी उस की खूबसूरती और जवानी के ऐसे दीवाने हुए कि बस उसी के हो कर रह गए. दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन प्रिंस वौन की पत्नी और बच्चों के रहते यह संभव नहीं था.

एक जवान औरत की नौटंकी

नासमझी का घातक परिणाम – भाग 2

16 जनवरी, 2014 को जौनथन प्रसाद अपने रिश्तेदारों के साथ मुलुंड और कांजुर मार्ग ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे के किनारे से गुजर रहे थे तो उन्हें किसी शव के सड़ने की दुर्गंध महसूस हुई. इस गंध ने उन्हें बेचैन कर दिया. मन अशांत हो उठा. न चाहते हुए भी उन्होंने उन दोनों सिपाहियों को फोन कर के वहां बुला लिया. सिपाहियों के आने पर वह उस ओर बड़े, जिधर से दुर्गंध आ रही थी.

जौनथन प्रसाद सिपाहियों के साथ सर्विस रोड से 10 फुट अंदर समुद्र के किनारे की झाडि़यों में घुसे तो वहां एक खाई में क्षतविक्षत अवस्था में एक शव पड़ा दिखाई दिया. दूर से उसे पहचाना नहीं जा सकता था, क्योंकि उसे बेरहमी से जलाने की कोशिश की गई थी. लेकिन यह साफ दिख रहा था कि वह शव महिला का था.

जौनथन प्रसाद की बेटी गायब थी. लाश महिला की थी. कहीं यह लाश ईस्टर की तो नहीं, यह सोच कर वह खाई में उतर गए. करीब से देखने पर पता चला कि वह लाश उन की बेटी ईस्टर अनुह्या की ही थी. बेटी की हालत देख कर वह रो पड़े.

लाश जहां पड़ी थी, वह स्थान थाना कांजुर मार्ग के अंतर्गत आता था. इसलिए लाश पड़ी होने की सूचना थाना कांजुर मार्ग पुलिस को दी गई. थाना पुलिस ने घटनास्थल पर पहुंच कर खाई से शव निकलवाया. घटनास्थल के निरीक्षण और काररवाई के बाद शव को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए जे.जे. अस्पताल भिजवा दिया.

अगले दिन ईस्टर अनुह्या की हत्या का समाचार दैनिक अखबारों में छपा तो मामले ने तूल पकड़ लिया. मामला हाईप्रोफाइल परिवार का था, इसलिए मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने इसे गंभीरता से लिया. उनहोंने तत्काल इस मामले की जांच की जिम्मेदारी क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर हिमांशु राय को सौंप दी.

एक ओर जहां जीआरपी थाना कुर्ला पुलिस और थाना कांजुर मार्ग पुलिस इस मामले की जांच कर रही थी, वहीं दूसरी ओर अपर पुलिस कमिश्नर निकेत कौशिक, अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर अंबादास पोटे, सहायक पुलिस कमिश्नर प्रफुल्ल भोसले के निर्देशन में क्राइम ब्रांच की 5 यूनिटें इस मामले की जांच में लगी थीं.

पुलिस अधिकारियों ने जांच की दिशा तय करने के लिए जौनथन प्रसाद को क्राइम ब्रांच के औफिस में बुला कर विस्तार से बातचीत कर के ढेर सारी जानकारी इकट्ठा की.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ऐसा कोई क्लू नहीं मिला था कि जांच आगे बढ़ पाती. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उस के साथ दुष्कर्म नहीं हुआ था. इस से अंदाजा लगाया गया कि या तो दुष्कर्मी ने असफल होने पर हत्या की थी या फिर उस की हत्या लूटपाट के लिए की गई थी.

सामान के नाम पर ईस्टर के पास मोबाइल फोन, लैपटौप और कुछ कपड़े थे. ज्यादा पैसे भी नहीं थे. पुलिस ने जब इस मामले पर गहराई से विचार किया तो लगा कि इस मामले में किसी ऐसे लुटेरे का हाथ हो सकता है, जो बैग, मोबाइल और लैपटौप चोरी करता था.

ईस्टर लोकमान्य तिलक टर्मिनस पर उतरी थी. उस की लाश कांजुर मार्ग ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर मिली थी, इसलिए पुलिस ने अपने जांच का दायरा स्टेशन से लाश मिलने के स्थान तक बनाया. टर्मिनस से ले कर कांजुर मार्ग तक टैक्सी ड्राइवर, औटोरिक्शा ड्राइवर, टर्मिनस के कुली, सफाई कर्मचारी, चरसी आदि से पूछताछ करने के साथसाथ यह पता लगाने की कोशिश की गई कि यहां इस तरह की चोरी करने वाले कौनकौन हैं.

यूनिट-1 के सीनियर इंसपेक्टर नंद कुमार गोपाल, यूनिट 25 के सीनियर इंसपेक्टर अविनाश सावंत, यूनिट 6 के सीनियर इंसपेक्टर श्रीपाद काले, यूनिट 7 के सीनियर इंसपेक्टर व्यंकट पाटिल, इंसपेक्टर संजय सुर्वे, इंसपेक्टर अशोक खोत, इंसपेक्टर अनिल ढोले की संयुक्त टीम स्टेशन पर काम करने वाले ही नहीं, वहां गलत काम करने वालों पर खुद तो नजर रख ही रही थी, मुखबिरों को भी लगा दिया गया था.

स्टेशन पर लगे सीसीटीवी कैमरे ही नहीं, हाईवे पर लगे सीसीटीवी कैमरों की भी फुटेज देखी गई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. मामले में प्रगति न होते देख जौनथन प्रसाद का धैर्य जवाब देने लगा. इंसाफ पाने के लिए वह दिल्ली गए और गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, सीपीएम की नेता वृंदा करात, आम आदमी पार्टी के नेता योगेंद्र यादव से मिल कर ईस्टर के हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए गुहार लगाई.

लेकिन उन की इस दौड़भाग का कोई लाभ नहीं हुआ. तमाम कोशिशों के बाद भी पुलिस ईस्टर के हत्यारों तक नहीं पहुंच पाई. धीरेधीरे 2 महीने का समय बीत गया. इस से यही लग रहा था कि ईस्टर की हत्या जिस ने भी की थी, वह काफी होशियार और शातिर था. उस ने कोई भी ऐसा सुबूत नहीं छोड़ा था कि पुलिस उस तक पहुंच पाती. पुलिस जांच का कोई दूसरा रास्ता निकालती, पुलिस के कई बड़े अधिकारियों का तबादला हो गया.

मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. उस के बाद राकेश मारिया मुंबई के नए पुलिस कमिश्नर बने. इस के साथ क्राइम ब्रांच में भी काफी उलटपुलट हुआ. ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर हिमांशु राय और अपर पुलिस कमिश्नर निकेत कौशिक की जगह पर नए जौइंट पुलिस कमिश्नर सदानंद दाते और अपर पुलिस कमिश्नर राजवर्धन को लाया गया.

नए पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया इस के पहले क्राइम ब्रांच के चीफ थे, इसलिए उन्हें जटिल से जटिल मामलों को सुलझाना अच्छी तरह आता था. कार्यभार संभालते ही उन्होंने चर्चा में रहे ईस्टर हत्याकांड को सुलझाने के लिए सहायकों के साथ जांच की रूपरेखा तैयार की. इस के बाद उसी रूपरेखा पर जांच की जिम्मेदारी नए क्राइम ब्रांच के जौइंट कमिश्नर सदानंद दाते, अपर पुलिस कमिश्नर राजवर्धन, सत्यनारायण चौधरी, एडिशनल कमिश्नर अंबादास पोटे और असिस्टैंट कमिश्नर प्रफुल्ल भोंसले को सौंप दी गई.

इन नए अधिकारियों के निर्देशन में एक बार फिर क्राइम ब्रांच के अधिकारियों ने सरगर्मी से मामले की जांच शुरू की. इस बार उन्होंने 2 हजार लोगों से पूछताछ की. मुखबिर भी जीजान से लगे थे. इसी के साथ सीसीटीवी के कैमरों की फुटेज एक बार फिर देखी गई. इस बार फुटेज देखते समय जौनाथन प्रसाद को भी साथ बैठाया गया था. इस बार की मेहनत रंग लाई और फुटेज में ईस्टर के साथ एक ऐसा आदमी दिखाई दिया, जो स्टेशन से बैग, मोबाइल और लैपटौप की चोरी करता था.

इसी के बाद 2 मार्च, 2014 को यूनिट-6 के सीनियर इंस्पेक्टर व्यंकट पाटिल ने अपने सहायक इंस्पेक्टर संजय सुर्वे, अशोक खोत और अनिल ढोले के साथ भांडूप के एक घर से उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया गया था. उस का नाम था चंद्रभाव उर्फ चौक्या सुदाम सापन.

मिली जानकारी के अनुसार यही चंद्रभाव उर्फ चौक्या सुदाम सापन सीसीटीवी कैमरे की फुटेज में ईस्टर के साथ जाता दिखाई दिया था. पूछताछ में पता चला कि वही ईस्टर का हत्यारा था. उसे क्राइम ब्रांच के औफिस ला कर पूछताछ की गई तो उस ने ईस्टर अनुह्या की हत्या का अपना अपराध स्वीकार कर लिया था.

चंद्रभाव उर्फ चौक्या ने क्राइम ब्रांच अधिकारियों को ईस्टर की हत्या की जो कहानी सुनाई, वह कुछ इस प्रकार थी.

28 वर्षीया चंद्रभाव उर्फ चौक्या मूलरूप से नासिक जनपद के गांव मधमलाबाद का रहने वाला था. संतानों में बड़ा होने की वजह से मांबाप का कुछ ज्यादा ही लाडला था, जिस की वजह से वह आवारा हो गया था. पढ़ाई छोड़ कर वह दोस्तों के साथ मटरगश्ती किया करता था. पिता सुदाम सापन सीएसटी टर्मिनस पर कुली का काम करते थे. मुंबई में वह उपनगर कांजुर मार्ग स्थित कर्वेनगर साईंकृपा सोसायटी की इमारत नंबर वी-2 के रूम नंबर 208 में परिवार के साथ रहते थे.

चंद्रभाव चौक्या की शादी मांबाप ने यह सोच कर कर दी थी कि जिम्मेदारी पड़ने पर शायद वह सुधर जाएगा. वह एक बेटी का बाप भी बन गया, लेकिन वह जस का तस ही रहा.

2005 में सुदाम सापन गंभीर रूप से बीमार हुए तो रेलवे के अधिकारियों से पैरवी कर के अपना कुली वाला बैज चंद्रभाव उर्फ चौक्या के नाम करा दिया था. इस के बाद चंद्रभाव सीएसटी रेलवे टर्मिनस पर बाप की जगह कुली का काम करने लगा था.

जब थोड़ाबहुत पैसा आने लगा तो चंद्रभाव के शौक बढ़ने लगे. घर में खूबसूरत पत्नी के होते हुए भी वह अपनी कमाई का ज्यादा हिस्सा खानेपीने और पराई औरतों पर उड़ाने लगा. अपने यही शौक पूरे करने के लिए कभीकभी वह यात्रियों के सामान उड़ाने लगा. 2 सालों तक सीएसटी रेलवे टर्मिनस पर कुलीगीरी करने के बाद उस ने यह काम छोड़ दिया.

2007 में वह कुर्ला लोकमान्य तिलक रेलवे टर्मिनस पर आ गया, जहां उस की दोस्ती नंदकुमार साहू से हुईं. नंदकुमार साहू भी कुली था और उस में भी वे सभी बुरी आदतें थीं, जो चंद्रभाव में थी. वह भी मौजमस्ती के लिए यात्रियों के सामानों की चोरी करता था.

क्यों की चन्द्रभाव ने ईस्टर की हत्या? जानने के लिए पढ़िए इस Social Crime Story का अगला भाग.

नफरत की गोली – भाग 2

दरअसल, बंटू कोई कामधंधा नहीं करता था. वह हमेशा अपने पिता और बड़े भाइयों पर बोझ ही बना रहा. जुआ, सट्टा खेलना और अकसर गांव के लोगों के साथ झगड़ना उस की दिनचर्या में शुमार था. इन मामलों में उसे कई बार हवालात में भी बंद होना पड़ा था.

शादी के चंद रोज बाद ही मिथिलेश को जब पति की सच्चाई पता चली तो अपनी किस्मत पर आंसू बहाने के अलावा उस के सामने कोई उपाय नहीं था. हालात से समझौता करते हुए उस ने पति को काफी समझाया कि वह कोई काम करें, लेकिन उस ने पत्नी की बात को काफी गंभीरता से नहीं लिया.

इसी तरह एकएक कर पूरे 10 साल गुजर गए. बंटू भी अब तक 4 बच्चों का बाप बन चुका था लेकिन उस ने कभी पत्नी की ख्वाहिशों की तरफ ध्यान तक नहीं दिया.

इस की एक वजह यह थी कि बंटू को घर का खर्च चलाने में इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि उस के पिता और भाई जोदसिंह आर्थिक मदद कर देते थे. जोदसिंह उत्तर प्रदेश पुलिस में सिपाही (घुड़सवार) था.वैसे जोदसिंह और बंटू का विवाह एक सप्ताह आगेपीछे हुआ था. उस की पत्नी हेमलता मल्लपुरा थाने के ठीक पीछे रहने वाले जयंती प्रसाद की बेटी थी. जयंती प्रसाद भी यूपी पुलिस में सिपाही थे.

जोदसिंह 3 बच्चों का बाप बन चुका था. लेकिन वह पत्नी से चोरीछिपे बंटू की आर्थिक मदद करता रहता था. जबकि हेमलता इस का विरोध करती रहती थी.

मिथिलेश को रोटी कपड़ा तो मिल रहा था लेकिन इन के अलावा उस की और जरूरतें भी थीं. उस का मन भी करता था कि जेठानी की तरह उस के पास भी जरूरत की तमाम चीजें हों. वह भी रोजाना बढि़या से बढि़या कपड़े पहने. उस के पास भी इतने पैसे हों कि अपनी जरूरत के मुताबिक खर्च कर सके ऐसी ही तमाम महत्त्वाकांक्षाएं उस के मन में दबी पड़ी थीं.

पति की आदतों को देखते हुए उसे नहीं लग रहा था कि जिन अभावों में वह जी रही है, वह कभी पूरे भी हो सकेंगे या नहीं. उस की शादी को 11 साल बीत चुके थे. इन 11 सालों में बंटू व उस के अन्य भाइयों के रहनसहन, सामाजिक मानप्रतिष्ठा में जमीन-आसमान का अंतर आ गया था.

बुरे दौर से गुजरने के बाद भी बंटू ने अपनी गलत आदतें नहीं सुधारीं. उस का मोहल्ले के लोगों से आए दिन झगड़ा होता रहता. जिस से पुलिस उसे पकड़ कर ले जाती थी. तब जोदसिंह उसे जैसेतैसे थाने से छुड़वा देता था. अब घर वाले भी उस से परेशान रहने लगे. उन्होंने उस की आर्थिक मदद करनी बंद कर दी.

तब हेमलता ने बंटू से छुटकारा पाने का एक उपाय ढूंढ लिया. पति जोदसिंह को समझाबुझा कर उस ने एक दिन आगरा के आला पुलिस अधिकारियों को पति की तरफ से एक पत्र भिजवाया. जिस में लिखा कि बंटू जो उस का सगा भाई है, के चालचलन ठीक नहीं हैं और भविष्य में उस के द्वारा कोई आपराधिक कृत्य किया जाता है तो उस का जिम्मेदार खुद बंटू ही होगा, हमारे परिवार वाले नहीं.

जब यह पत्र एसएसपी को मिला तो उन्होंने थाना शमसाबाद पुलिस के पास आवश्यक काररवाई के लिए भेज दिया. थानाप्रभारी ने बंटू को थाने बुलाया और सीधे रास्ते चलने के लिए बुरी तरह हड़का दिया. तब उस ने वादा किया कि आइंदा वह कोई गैरकानूनी काम नहीं करेगा. इस के बाद ही पुलिस ने उसे छोड़ा.

पुलिस से जलील होने के बाद बंटू घर आ गया. बाद में उसे और मिथिलेश को यह पता लग गया कि हेमलता ने ही उस के खिलाफ पुलिस में शिकायत कराई थी. मिथिलेश के मन में जेठानी हेमलता के प्रति नफरत पनपने लगी.

वैसे तो बंटू अपने भाई जोदसिंह के रहनसहन को देख कर उस से मन ही मन नफरत करता था लेकिन अब इस के बाद उस की नफरत और बढ़ गई थी. जोदसिंह की पोस्टिंग अलीगढ़ में थी. अब तो हालात ये हो गए थे कि जब कभी जोदसिंह अलीगढ़ से अपने गांव आता तो बंटू और मिथिलेश, जोदसिंह और उस की पत्नी हेमलता से बात नहीं करते.

बंटू के घर की जरूरतें बढ़ती जा रही थीं और आमदनी शून्य थी. तो ऐसे में बंटू इधरउधर से उधार ला कर काम चलाने लगा. मगर ये भी ज्यादा दिन न चला. कुछ दिनों बाद तकादा करने वाले भी उस के यहां आने लगे. पैसे न मिलने पर वे भी उसे जलील कर के चले जाते थे.

घर में फाके पड़ने की नौबत आ गई. तब मिथिलेश का पति से रोजाना ही झगड़ा होने लगा. उन के बीच गालीगलौज, मारपीट जैसे रोज का नियम बन गया. क्लेश के साथ मिथिलेश ने पति को रास्ते पर लाने के लाख जतन कर लिए लेकिन न तो बंटू ने कोई कामधाम किया और न ही उस के व्यवहार में किसी प्रकार का कोई सुधार आया. इसी बीच एक रात बंटू की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई.

21 जनवरी, 2013 की रात की बात थी. बंटू नशा कर के आया था. पत्नी ने उसे खाना आदि खिला कर सुला दिया. वह खुद भी पास में ही मौजूद दूसरे कमरे में बच्चों के साथ सो गई. बंटू बरामदे में सो रहा था.रात के करीब एक बजे मिथिलेश जब बाथरूम जाने के लिए उठी तो बरामदे में पहुंचते ही उस की चीख निकल गई. उस का पति खून से लथपथ पड़ा था. किसी ने उस के सीने पर गोली मारी थी.

मिथिलेश के चीखने की आवाज सुन कर उस के ससुर प्रेमसिंह और देवर टीटू व टिंकू भी वहां आ गए. बंद घर में कौन उसे गोली मार गया इस बात को घर वाले समझ नहीं पाए.

बाद में मोहल्ले के लोग भी वहां पहुंच गए. दबी जुबान में कुछ कह रहे थे कि मिथिलेश ने ही नाकारा पति से छुटकारा पाने को लाइसेंसी बंदूक से मार डाला है. जबकि कई लोग जोदसिंह को कठघरे में खड़ा कर रहे थे. उन का कहना था कि जोदसिंह रात के अंधेरे में आया और साइलेंसर लगी रिवाल्वर से बंटू को भून कर रात में ही गायब हो गया.

लोगों का तो यहां तक कहना था कि जोदसिंह व मिथिलेश के बीच अवैध संबंध थे. बंटू रास्ते का रोड़ा था इसलिए उसे हटा दिया गया. बहरहाल, जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं.

घुमाफिरा कर अंगुली मिथिलेश की तरफ ही उठ रही थी. लेकिन प्रेमसिंह नहीं चाहते थे कि उन की बहू जेल जाए. इसलिए उन्होंने गांव के संभ्रांत लोगों से बात कर आननफानन में बेटे का अंतिम संस्कार कर दिया. और गांव में यह खबर फैला दी कि बंटू की मौत ज्यादा शराब पीने से हुई थी.

जबकि मिथिलेश पति की हत्या की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए जेठ जोदसिंह और ससुर प्रेमसिंह से मानमनुहार करती रही लेकिन उन लोगों ने एक न सुनी. बात पंचों के सामने गई तो उन्होंने उसे यह समझा कर खामोश कर दिया कि चूंकि उस का ही बंटू से रोजरोज झगड़ा होता था इसलिए पुलिस भी यही मानेगी कि अपने पति की हरकतों से आजिज आ कर उस ने ही उसे मौत के घाट उतारा है.

पंचों व परिजनों की बात में दम था या नहीं परंतु उस समय किसी वजह से मिथिलेश ने भी पति की हत्या पर चुप्पी साध ली. बंटू के खत्म होने से मिथिलेश के जीवन में एक अजीब सी खामोशी छा गई. उस के पास आमदनी का कोई जरिया न होने की वजह से उसे अब अपने जेठ व ससुर के ऊपर ही निर्भर रहना था. वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. इसलिए वह घर पर कपड़ों की सिलाई भी करने लगी थी लेकिन उस से घर का खर्च पूरा नहीं चल पाता था.

उस के सभी बच्चे स्कूल जाने लगे थे. यानी खर्चा भी बढ़ गया था. अब जोदसिंह खुल कर मिथिलेश व उस के बच्चों की मदद करने लगा. लेकिन हेमलता को ये सब सहन नहीं होता था. वह मिथिलेश से सीधे मुंह बात तो करती नहीं थी, मौका मिलने पर उसे उलाहना जरूर देती रहती थी.

मजबूरी में मिथिलेश को यह सब सुनना पड़ता था. मिथिलेश के बच्चे भी समझदार हो गए थे. हेमलता उन्हें भी फूटी आंख पसंद नहीं करती थी. बच्चे भी ताई के अपमान भरे व्यवहार को अच्छी तरह समझते थे. हेमलता जब भी अलीगढ़ से शंकरपुर आती तो परिवार के अन्य बच्चों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाती थी लेकिन मिथिलेश के चारों बच्चों के लिए कुछ भी नहीं.

जेठानी का यह बर्ताव देख कर मिथलेश के सीने पर सांप लोट जाता था. उस का दबंगपन दिखाने की एक वजह यह भी थी कि उस के पिता और पति दोनों ही पुलिस में थे. ऊपर से पति की कमाई का उस के पास अच्छा बैंक बैलेंस भी था. जिस से वह घमंड में रहती थी. गांव में रहने के बजाय वह आगरा की ही किसी कालोनी में फ्लैट लेने की योजना बना रही थी.

4 लाख में खरीदी मौत – भाग 2

पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, जयप्रकाश की हत्या रविवार की रात को हुई थी. उसे 315 बोर के तमंचे से गोली मारी गई थी. जब इस पूछताछ से पुलिस हत्यारों तक पहुंचने में नाकाम रही तो जांच को आगे बढ़ाने के लिए पुलिस ने मोबाइल को आधार बनाया.

पुलिस ने मृतक जयप्रकाश और नामजद अभियुक्तों के काल डिटेल्स और लोकेशन निकलवाई. इस काल डिटेल्स और लोकेशन से पता चला कि जिस रात जयप्रकाश की हत्या हुई थी, चारों अभियुक्तों की लोकेशन जसपुर थी. चारों में से किसी की मृतक से कोई बात भी नहीं हुई थी. जबकि जयप्रकाश के मोबाइल फोन की लोकेशन काशीपुर की थी. उस की काल डिटेल्स में 2 नंबर ऐसे मिले थे, जिन की लोकेशन काशीपुर की थी और उन नंबरों से जयप्रकाश की कई बार बात भी हुई थी. पुलिस ने उन नंबरों के बारे में पता किया तो दोनों नंबर काशीपुर के निकले.

पुलिस को पता ही था कि मृतक इधर कई दिनों से काशीपुर में अपनी बहन के घर रह रहा था. पुलिस केला देवी से पूछताछ कर ही चुकी थी. उस ने बताया था कि करवा चौथ की बात कह कर जयप्रकाश अपने घर चला गया था. लेकिन जब मृतक के फोन की लोकेशन काशीपुर की ही मिली तो पुलिस ने एक बार फिर उस से पूछताछ करने पहुंची. पुलिस ने उस से उन दोनों नंबरों के बारे में पूछा, जो जयप्रकाश की काल डिटेल्स में मिले थे.

केला देवी से पता चला कि उन दोनों नंबरों में से एक नंबर उस के भतीजे पंकज का है. पुलिस पंकज को हिरासत में ले कर पूछताछ के लिए कोतवाली जसपुर ले आई. उसे हिरासत में लेने की वजह यह थी कि उस रात उस के नंबर की लोकेशन जसपुर की पाई गई थी.

कोतवाली में पंकज से पूछताछ शुरू हुई तो पुलिस के सवालों के आगे वह ज्यादा देर तक टिक नहीं सका. दरअसल पंकज शरीर से भले ही जवान लगता था, लेकिन उम्र के हिसाब से अभी बच्चा था. इसीलिए पुलिस की सख्ती के आगे उस की हिम्मत जवाब दे गई और उस ने सच उगल दिया. पंकज ने पुलिस को बताया कि अपने 3 साथियों के साथ मिल कर उसी ने जयप्रकाश की हत्या की थी.

पूछताछ में पंकज ने जयप्रकाश की हत्या की जो कहानी पुलिस को सुनाई, वह हैरान करने वाली थी. इस की वजह यह थी कि उस ने पत्नी, बेटे और पत्नी के प्रेमी को मारने की सुपारी दी थी, लेकिन मारा गया खुद. यह पूरी कहानी कुछ इस तरह थी.

जसपुर के बीएसबी इंटर कालेज में एक चपरासी था गंगाराम. कई सालों पहले जानलेवा बीमारी की वजह से उस की मौत हो गई थी. मृतक जयप्रकाश गंगाराम का बड़ा बेटा था. जवान होने पर गंगाराम ने सुनीता से उस की शादी कर दी थी. उस का परिवार पहले शहर के बीचोबीच सब्जी मंडी के पास रहता था. युवा होते ही जयप्रकाश नीरा बेचने लगा था. उसी की आय से उस के परिवार का गुजरबसर हो रहा था.

जयप्रकाश के 4 बच्चे हो गए तो उस पुराने मकान में रहने में उसे परेशानी होने लगी. तब जयप्रकाश ने अपने उस पुराने मकान को बेच दिया और बीएसबी इंटर कालेज के पास गांगूवाला मोहल्ले में भाई के साथ जमीन खरीद कर नया मकान बना कर उसी में परिवार के साथ रहने लगा.

पिता के समय से ही जयप्रकाश के बीएसबी इंटर कालेज के कई टीचरों से अच्छे संबंध थे, जो गंगाराम के मरने के बाद भी उस के घर आतेजाते रहते थे. उन्हीं अध्यापकों में एक हरजीत सिंह भी था. आनेजाने में ही हरजीत की नजर जयप्रकाश की पत्नी सुनीता पर पड़ी तो उस का मन मचल उठा. इस की वजह यह थी कि वह थोड़ा मनचले किस्म का था. शायद इसीलिए शादीशुदा होने के बावजूद खूबसूरत सुनीता पर उस की नीयत खराब हो गई थी.

मन के मचलते ही हरजीत सुनीता के पीछे पड़ गया. वह कभी सुनीता की सुंदरता की तारीफ करता तो कभी उस के नाश्तेपानी की. सुनीता को उस की ये तारीफें अच्छी लगतीं. जब हरजीत तारीफें कुछ ज्यादा ही करने लगा तो सुनीता का ध्यान उस पर गया. इस के बाद उस की भी समझ में आ गया कि हरजीत चाहता क्या है.

सुनीता की घरगृहस्थी ठीकठाक चल रही थी. लेकिन हरजीत की चाहत के आगे वह झुक गई. उस ने नजरों से ही बता दिया कि वह जो चाहता है, उसे वह मंजूर है. इस के बाद सुनीता की नजदीकी पाने के लिए हरजीत ने उसे गर्ल्स इंटर कालेज में मिड डे मील बनाने का काम दिला दिया. उसी के सहारे सुनीता ने वहीं एक छोटी सी चाय की दुकान खोल ली. अब हरजीत और सुनीता पूरा दिन एकदूसरे की आंखों के सामने रहने लगे.

जयप्रकाश का मकान बस्ती से दूर ऐसी जगह था, जहां कौन आताजाता है, कोई देखने वाला नहीं था. जयप्रकाश नीरा बेचने सुबह ही निकल जाता था. बच्चे भी स्कूल चले जाते थे. उस के बाद घर में सुनीता अकेली रह जाती थी. ऐसे में हरजीत को सुनीता से मिलने में कोई परेशानी नहीं होती थी. हरजीत जब भी सुनीता के यहां आता था, खानेपीने की तरहतरह की चीजें ले आता था, इसलिए सुनीता के बच्चों को भी वह अच्छा लगने लगा था. बच्चे पिता से ज्यादा उसे प्रेम करने लगे थे.

संबंध बनने के बाद हरजीत सुनीता के घर ज्यादा ही आनेजाने लगा तो यह जयप्रकाश को खलने लगा. जयप्रकाश ने दोनों को किसी दिन अश्लील हरकतें करते देख लिया तो हरजीत के आने का विरोध करने लगा. सुनीता अब उस की बात मानने को तैयार नहीं थी. जिस की वजह से हरजीत को ले कर घर में कलह रहने लगी.

जयप्रकाश ने देखा कि पत्नी उस का कहना नहीं मान रही है और बच्चे भी उसी का साथ दे रहे हैं तो बीवी बच्चों से उसे नफरत हो गई. इस के बाद वह बीवी बच्चों से अलग रहने के बारे में सोचने लगा. वह अपना मकान बेच कर पत्नीबच्चों को छोड़ कर अकेला रहना चाहता था. इस के बाद छोटे भाई से सांठगांठ कर के उस ने मकान बेचने की योजना बना डाली.

दरअसल यह मकान दोनों भाई ने मिल कर बनवाया था. आखिर दोनों भाइयों ने 30 सितंबर, 2014 को सुनीता की चोरी से 17 लाख रुपए में मकान का सौदा कर डाला. इस रकम से जो 9 लाख रुपए जयप्रकाश को मिले थे, उसे ले जा कर उस ने अपनी बहन केला देवी के यहां रख दिए थे.

कौन था जयप्रकाश की हत्या के पीछे? जानने के लिए पढ़ें कहानी का अगला भाग.

एहसान के बदले मिली मौत – भाग 2

सन 1992 तक बीसों औपरेशन के बाद ततजाना का कायाकल्ल्प हो गया. इस बीच ततजाना का इलाज करते करते डा. फेंज कब उस की चाहत के मरीज बन गए, वह जान नहीं पाए. वह खुद हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया. वह हजारों युवतियों की सर्जरी कर चुके थे, लेकिन जो निखार ततजाना के शरीर में आया था, ऐसा किसी अन्य युवती के शरीर में उन्होंने अनुभव नहीं किया था.

अपनी सुंदरता देख कर ततजाना बेहद खुश थी. इस के बावजूद वह आईने का सामना करने से कतरा रही थी. इस दौरान डा. फेंज ने अनुभव किया था कि बदसूरती से उपजी हीनभावना की शिकार ततजाना आईने से न केवल डरती है, बल्कि उस से नफरत करती है. इसीलिए इलाज के बाद वह उसे आदमकद आईने के सामने ले गए थे. ततजाना चाह कर भी आईने के सामने आंख नहीं खोल पा रही थी. खोलती भी कैसे, आखिर कितनी टीस दी थी इस आईने ने.

डा. फेंज ने आगे बढ़ कर ततजाना का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘पलकें उठा कर तो देखो, आईना खुद शरमा रहा है तुम्हारी खूबसूरती को देख कर. देखो, यह कह भी रहा है, ‘मेरा जवाब तू है, तेरा जवाब कोई नहीं.’’’

डरते हुए ततजाना ने नजरें उठा कर देखा, वाकई वह हैरान रह गई थी. उस के अंधेरे अतीत की परछाई भी नहीं थी उस के चेहरे पर. उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस ने चेहरे को छू कर देखा. उस की नजरों में डा. फेंज के लिए एहसान और दिल में आदर तथा प्यार की तह सी जमी थी. वह अंजान तो नहीं थी. उसे अहसास हो गया था कि डा. फेंज के दिल में उस के लिए मोहब्बत का अंकुर फूट चुका है. लेकिन उस ने दिल की बात जुबान पर नहीं आने दी.

वह ऐसा समय था, जब डा. फेंज अपनी शादीशुदा जिंदगी के नाजुक दौर से गुजर रहे थे. आखिर वह समय आ ही गया, जब पत्नी उन्हें तलाक दे कर अपने एकलौते बच्चे को ले कर सदा के लिए उन की जिंदगी से दूर चली गई.

तनहाई के इस आलम में उन्हें ततजाना के प्यार के सहारे की जरूरत थी. लेकिन वह इजहार नहीं कर रहे थे. इसी तरह साल गुजर गया. दरअसल डा. फेंज जहां उम्र के ढलान पर थे, वहीं ततजाना यौवन की दहलीज पर कदम रख रही थी.

वह 66 साल के थे, जबकि ततजाना मात्र 23 साल की थी. लेकिन यह भी सच है कि प्यार न सीमा देखता है न मजहब और न ही उम्र. एक दिन फेंज और ततजाना साथ बैठे कौफी पी रहे थे, तभी डा. फेंज ने कहा, ‘‘ततजाना, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. तुम्हारी इस खूबसूरती ने मुझे दीवाना बना दिया है.’’

‘‘यह खूबसूरती आप की ही दी हुई तो है. एक नई जिंदगी दी है आप ने मुझे. इसलिए इस पर पहला हक आप का ही बनता है.’’ ततजाना बोली.

‘‘नहीं ततजाना, मैं हक नहीं जताना चाहता. अगर दिल से स्वीकार करोगी, तभी मुझे स्वीकार होगा. मैं एहसानों का बदला लेने वालों में से नहीं हूं.’’ डा. फेंज ने कहा.

‘‘मैं इस बात को कैसे भूल सकती हूं कि आप ने मेरी अंधेरी जिंदगी को रोशनी से सराबोर किया है. आप की तनहाई में साथ छोड़ दूं, यह कैसे हो सकता है. इस तनहाई में आप मुझे तनमन से अपने नजदीक पाएंगे. आप यह न समझें कि मैं यह बात एहसान का कर्ज अदा करने की गरज से नहीं, दिल से कह रही हूं.’’

सन 1999 में डा. फेंज से ततजाना ने विवाह कर लिया. शादी के बाद जहां डा. फेंज की तनहा जिंदगी में फिर से बहारें आ गईं, वहीं ततजाना भी एक काबिल और अरबपति पति की संगिनी बन कर खुद पर इतराने लगी.

अब सब कुछ था उस के पास. रहने को आलीशान महल, महंगी कारें, सोने हीरों के गहने और कीमती लिबास. जिंदगी के मायने ही बदल गए थे उस के. अब वह बेशुमार दौलत की मालकिन थी. हाई सोसाइटियों में उसे तवज्जो मिल रही थी, जिस की उस ने कभी कल्पना तक नहीं की थी.

ततजाना अपने जीवन की रंगीनियों में इस कद्र डूब गई कि अतीत की परछाई भी उस के पास नहीं फटक रही थी. डा. फेंज भी उस की खूबसूरती में खोए रहते थे. दोनों का 9 साल का दांपत्यजीवन कैसे गुजर गया, उन्हें पता ही नहीं चला. अचानक इस रिश्ते में तब दरार पड़ने लगी, जब ततजाना को तनहा छोड़ कर डा. फेंज अपने मरीजों में व्यस्त रहने लगे. बस यहीं से ततजाना के कदमों का रुख बदल गया.

उसी दौरान एक पार्टी में ततजाना की मुलाकात कारों के व्यापारी 60 वर्षीय हीलमुट बेकर से हुई. उस ने उस की आंखों में अपने प्रति चाहत देखी तो उस की ओर झुक गई. बेकर का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि ततजाना उस की ओर झुकती चली गई. मुलाकातों का दौर शुरू हुआ तो दोनों पर मोहब्बत का रंग चढ़ने लगा. जिस्मों के मिलन के बाद वह और निखर आया. अब ततजाना का अधिकतम समय बेकर की बांहों में गुजरने लगा. हद तो तब होने लगी, जब ततजाना डा. फेंज को अनदेखा कर के रातें भी बेकर के बिस्तर पर गुजारने लगी.

डा. फेंज सोच रहे थे कि ततजाना नादान है, राह भूल गई है. समझाने पर मान जाएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. एक रात डा. फेंज बेसब्री से ततजाना का इंतजार कर रहे थे. सारी रात बीत गई, ततजाना लौट कर नहीं आई. डा. फेंज ने कई संदेश भिजवाए लेकिन जवाब में बेरुखी ही मिली.

इसी तरह एक साल गुजर गया. डा. फेंज ने यह तनहाई कैसे काटी, इस का सुबूत था उन का बिगड़ा दिमागी संतुलन. अगर हवा से खिड़कियों के परदे भी हिलते तो उन्हें लगता कि यह ततजाना के कदमों की आहट है. वह आ गई है.

डा. फेंज 5 जनवरी, 2005 की सुबह अपनी क्लीनिक में अकेले ही खयालों में खोए बैठे थे. वह सोच रहे थे कि काश ततजाना आ जाती. अचानक खिड़की के शीशे जोर से खड़खड़ाए. शीशा टूट कर बाहर की तरफ गिर गया. घबरा कर उन्होंने उधर देखा तो 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. उन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे. डरेसहमे डा. फेंज ने ततजाना को फोन किया. घंटी बजती रही, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. तभी लगा, किसी ने खिड़की को ही उखाड़ दिया है.