मैं चीज बड़ी हूं मस्त मस्त – भाग 2

पुलिस मान कर चल रही थी कि यदि वह दिल्ली आ रहा होगा तो या तो बस से आएगा या फिर ट्रेन से. छत्तीसगढ़ से आने वाली बसें सराय कालेखां अंतरराज्यीय बस टर्मिनल पर आती हैं और ट्रेनें हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन. इसलिए 9 मई, 2014 को 2 पुलिस टीमें हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन और सराय कालेखां बस टर्मिनल पर लगा दीं.

चूंकि सुखराम पार्क में रहने वाले अशोक कुमार सेठ और उन का बेटा अंकुश रफीक और गुलफाम को जानते थे इसलिए उन दोनों को भी पुलिस ने अपने साथ ले लिया था.

एक पुलिस टीम सर्विलांस के जरिए उस फोन नंबर पर नजर रखे हुई थी. सर्विलांस टीम को जो नई जानकारी मिल रही थी, टीम उस जानकारी को दोनों पुलिस टीमों को शेयर करा रही थी. इसी आधार पर पुलिस ने रफीक और गुलफाम को हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से हिरासत में ले लिया.

थाने ला कर उन दोनों से किआरा पारकर की हत्या की बाबत पूछताछ की तो उन्होंने बड़ी आसानी से किआरा की हत्या करने की बात स्वीकार कर ली. उस की हत्या की उन्होंने जो कहानी बताई, वह इस प्रकार निकली.

किआरा दिल्ली के रहने वाले विनोद कुमार की बेटी थी. विनोद कुमार एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. उस के 2 बेटियां और एक बेटा था. किआरा दूसरे नंबर की थी. किआरा की मां रेखा को कैंसर था. विनोद ने पत्नी का काफी इलाज कराया लेकिन वह ठीक नहीं हो सकी.

एक दिन डाक्टरों ने विनोद को बता दिया कि रेखा का कैंसर ठीक होने वाला नहीं है, यह अब आखिरी स्टेज पर हैं. डाक्टरों से यह जानकारी मिलने के बाद विनोद ने पत्नी की तीमारदारी करनी बंद कर दी.

बताया जाता है कि विनोद का उस समय किसी महिला के साथ चक्कर चल रहा था. उसे यह तो पता चल ही गया था कि उस की पत्नी अब ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहेगी इसलिए उस ने पत्नी के जीतेजी उस महिला से शादी कर ली जिस के साथ उस का चक्कर चल रहा था.

रेखा को पति द्वारा दूसरी शादी करने का ज्यादा दुख नहीं हुआ, बल्कि पति की आदतों को देखते हुए उसे इस बात की आशंका थी कि उस के मरने के बाद उस के तीनों बच्चों की दुर्दशा होगी. क्योंकि सौतन उस के बच्चों को तवज्जो नहीं देगी और उस के नातेरिश्तेदार भी ऐसे नहीं हैं जो बच्चों को पालपोस सकें.

बच्चों के भविष्य के बारे में उस ने अपने मिलने वालों से सलाह ली तो उन्होंने बच्चों को किसी अनाथालय में भरती करने की बात कही. इस बीच विनोद रेखा और बच्चों को दिल्ली में छोड़ कर अपनी दूसरी बीवी को ले कर मुंबई चला गया, जो आज तक नहीं लौटा.

पति द्वारा बच्चों को बेसहारा छोड़ जाने पर रेखा को बड़ा दुख हुआ. तब रेखा दक्षिणी दिल्ली के घिटोरनी गांव में रहने वाली अपनी मां के पास चली गई. रेखा नहीं चाहती थी कि उस के मरने के बाद बच्चे दरदर की ठोकरें खाएं इसलिए वह तीनों बच्चों को गुड़गांव के सेक्टर-10 स्थित शांति भवन ट्रस्ट औफ इंडिया नाम के अनाथालय में भरती करा आई.

बताया जाता है कि किआरा का घर का नाम कल्पना था. अनाथालय में उस का नाम किआरा पारकर रखा गया. बच्चों को अनाथालय में भरती कराने के कुछ दिनों बाद रेखा की मौत हो गई. यह करीब 8 साल पहले की बात है. उस समय किआरा करीब 10 साल की थी. अनाथालय में ही तीनों बच्चों की परवरिश होती रही. वहीं पर उन की पढ़ाई चलती रही. किआरा थोड़ी चंचल स्वभाव की थी. जब वह जवान हुई तो अनाथालय में ही रहने वाले कई लड़कों से उस की दोस्ती हो गई.

अधिकांशत: देखा गया है कि ऐसे जवान लड़के और लड़कियां जो आपस में सगेसंबंधी न हों उन की दोस्ती लंबे समय तक पाकसाफ नहीं रह पाती. एकांत में मिलने का मौका पाते ही वह खुद पर संयम नहीं रख पाते और उन के बीच जिस्मानी ताल्लुकात कायम हो जाते हैं. यही किआरा के साथ भी हुआ.

अनाथालय में ही रहने वाले एक नजदीकी दोस्त के साथ किआरा के अवैध संबंध कायम हो गए. काफी दिनों तक वह मौजमस्ती करती रही. इसी दौरान उस ने अपने और भी कई दोस्तों से नाजायज ताल्लुकात बना लिए. इस के बाद तो अनाथालय के तमाम लड़के किआरा के नजदीक आने की कोशिश करने लगे.

अवैध संबंधों को छिपाने के लिए कोई चाहे कितनी भी सावधानी क्यों न बरते, एक न एक दिन उन की पोल खुल ही जाती है. यानी किआरा के संबंधों की जानकारी भी अनाथालय के संचालकों तक पहुंच गई.

संचालकों ने किआरा को बहुत समझाया लेकिन उस ने अपनी आदत नहीं बदली तो उन के लिए यह बड़ी ही चिंता की बात हो गई. खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है. उस की देखादेखी अनाथालय के अन्य बच्चे न बिगड़ जाएं, संचालकों को इस बात की आशंका थी.

काफी सोचनेसमझने के बाद संचालकों ने किआरा को उस अनाथालय से किसी दूसरी जगह भेजने का फैसला ले लिया. करीब 1 साल पहले अनाथालय की तरफ से किआरा को पढ़ाई के लिए आगरा भेज दिया गया. वहां के एक हौस्टल में रह कर वह पढ़ने लगी.

चूंकि किआरा के कदम पहले ही बहक चुके थे इसलिए आगरा में उस के रोहित नाम के लड़के से अवैध संबंध हो गए. रोहित का एक दोस्त था विवेक चौहान जो दिल्ली में रहता था. वह भी आगरा आताजाता रहता था. किआरा ने उसे भी अपने जाल में फांस लिया. इसी दौरान किआरा गर्भवती हो गई. यह बात उस ने जब रोहित को बताई तो उस के हाथपैर फूल गए.

किआरा ने जब रोहित से शादी करने को कहा तो वह उस से कन्नी काटने लगा. उस समय किआरा के पेट में 2 माह का गर्भ था. जब किआरा को लगा कि उस का साथ देने वाला कोई नहीं है तो उस ने दवा खा कर गर्भ गिरा दिया.

किआरा का एक दोस्त था रफीक, जो गुड़गांव के अनाथालय में उस के साथ ही था. उस की उम्र जब 18 साल हो गई तो वह अनाथालय से बाहर आ गया. अनाथालय से निकलने के बाद रफीक ने गुड़गांव स्थित साउथ इंडियन होटल में नौकरी कर ली और में कादीपुर गांव में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगा.

किआरा को किसी तरह रफीक के बारे में जानकारी मिली. तब वह इस साल होली से पहले आगरा से भाग कर गुड़गांव चली आई. वह उस होटल पर पहुंच गई जहां रफीक नौकरी कर रहा था. किआरा को देख कर रफीक खुश हुआ. फिर किआरा ने रफीक को अपना गर्भ गिराने तक की पूरी कहानी बता दी.

उस ने आराम करने के लिए कुछ दिनों उस के यहां रुकने की इजाजत मांगी. रफीक उसे मुंहबोली बहन मानता था इसलिए उस ने उसे हर तरह का सहयोग करने का भरोसा दिया. वह उसे अपने कमरे पर ले गया. फिर वह वहीं रहने लगी. रफीक अपने काम पर निकल जाता तो किआरा घर पर ही रहती थी.

क्यों मजबूर हो गए थे वो दोनों किआरा की हत्या करने पर? जानेंगें कहानी के अंतिम भाग में.

मौत के मुंह से वापसी – भाग 2

इराक में जो हिंसा फैली थी, उस से टिकरित के उस विशाल अस्पताल के मरीज अस्पताल छोड़ कर जाने लगे थे. सोना, वीना और उस की अन्य साथी नर्सें टेलीविजन और मोबाइल फोन पर इंटरनेट के माध्यम से समाचार देख कर जानकारी प्राप्त करने के साथ समय काट रही थीं.

लेकिन जल्दी ही टेलीविजन भी बंद हो गया और इंटरनेट भी. अब वे बाहर की दुनिया से पूरी तरह कट गईं. उन्हें बिलकुल भी पता नहीं चलता था कि बाहर क्या हो रहा है. वे बस उतना ही जानती थीं, जो उन की खिड़कियों से दिखाई देता था.

सोना और उस की साथी नर्सें बाहर की दुनिया से पूरी तरह कटी थीं, इसलिए उन्हें असलियत का पता नहीं था. वे सिर्फ यही जानती थीं कि केवल टिकरित में ही स्थानीय 2 गुटों के बीच लड़ाई चल रही है. लेकिन जब बारबार तेज धमाकों से अस्पताल की बिल्डिंग थर्राने लगी तो उन्हें लगा कि यहां तो युद्ध हो रहा है. यह संदेह होते ही सभी नर्सें कांप उठीं. उन्हें सामने मौत नाचती नजर आने लगी. अपने बचाव का उन के पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए वे एकदूसरे के गले लग कर रोने लगीं. कोई आश्वासन देने वाला नहीं था, इसलिए खुद ही चुप भी हो गईं.

धमाके लगातार हो रहे थे. डरीसहमी नर्सें किसी तरह एकएक पल काट रही थीं. उन के पास खानेपीने का सामान भी कुछ ही दिनों का बचा था. तभी स्वास्थ्य विभाग के एक रहमदिल अधिकारी मदद के लिए आ गए. अगर उन्होंने साहस न दिखाया होता तो इन नर्सों को भूखी रहना पड़ता. उस अधिकारी ने अपनी ओर से सभी नर्सों के लिए अगले 2 सप्ताह के भोजन की व्यवस्था कर दी थी.

वह अधिकारी अस्पताल के नजदीक ही रहते थे. इसलिए नर्सें उन के मोबाइल पर जैसे ही मिस काल करतीं, वह तुरंत उन की मदद के लिए आ जाते थे. लेकिन जून के अंत में उन्होंने कहा कि अब वह उन की मदद नहीं कर पाएंगे. क्योंकि आईएसआईएस लड़ाके आगे बढ़ते आ रहे हैं, जो जल्दी ही इस अस्पताल पर भी कब्जा कर लेंगे. इसलिए वह यहां से जा रहे हैं. उस समय तक अस्पताल की सुरक्षा के लिए 2 फौजी तैनात थे. लेकिन उस अधिकारी के जाते ही, वे भी गायब हो गए थे.

सचमुच अगले दिन लड़ाके अस्पताल पहुंच गए. वे काले कपड़े पहने हुए थे. आंखों पर काला चश्मा लगाए वे अपने चेहरे को काले दुपट्टे से ढांपे हुए थे. उन्हें देख कर नर्सें बुरी तरह से डर गईं. वे लड़ाके बुरी तरह से जख्मी अपने साथियों को ले कर आए थे. लड़ाकों ने नर्सों से उन की मरहमपट्टी कराने के बाद अगले दिन यानी 30 जून की शाम तक अस्पताल को खाली करने के लिए कहा.

लड़ाकों के जाने के बाद नर्सों ने एक बार फिर राजदूत अजय कुमार और केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी को फोन किया. दोनों ने ही नर्सों को सलाह दी कि लड़ाके जैसा कहते हैं, वे वैसा ही करें. क्योंकि उन की बात न मानना उन के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकता है. संयोग से उस शाम लड़ाके नहीं आए. इसीलिए उस दिन संकट टल गया.

इस के अगले दिन केरल सरकार के आप्रवासी केरलवासी मामलों के विभाग से नर्सों को फोन कर के उन्हें वहां से निकालने के लिए उन के पासपोर्ट के नंबर तथा अन्य जानकारी ली गई.

2 जुलाई को अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में ऐसा धमाका हुआ कि ब्लड बैंक सहित वह पूरा हिस्सा ढह गया. इसी के साथ पूरा अस्पताल हिल उठा. इस धमाके से नर्सें थरथर कांपने लगीं. चारों ओर उसी तरह के धमाके हो रहे थे. अस्पताल के पास ही कई इमारतें जल रही थीं. चारों ओर आग की लपटें, जली कारें और ट्रक दिखाई दे रहे थे.

उस दिन भी कुछ लड़ाके आए और सभी नर्सों से कहा कि वे अपना सामान बांध कर तैयार हो जाएं, शाम को उन्हें उन के साथ चलना है. इतना कह कर लड़ाके चले गए. उन के जाते ही नर्सों ने एक बार फिर राजदूत अजय कुमार और मुख्यमंत्री ओमन चांडी को फोन किया. दोनों ने सभी नर्सों को आश्वासन देने के साथ शांति से रहने को कहा और बताया कि भारत सरकार उन्हें हरसंभव वहां से किसी भी तरह निकालने की कोशिश में लगी है. मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने उन से यह भी कहा कि वह लगातार भारत सरकार की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के संपर्क में हैं.

संयोग से उस शाम भी लड़ाके नहीं आए, जिस से नर्सों ने थोड़ी राहत महसूस की. लेकिन अगले ही दिन वे दोपहर के आसपास फिर आ धमके. उन्होंने सभी नर्सों को 15 मिनट में अस्पताल से बाहर आने को कहा. उन का कहना था कि वे इस अस्पताल को अभी बम से उड़ाएंगे और उन्हें अपने साथ मोसुल ले जाएंगे.

नर्सों ने तुरंत भारतीय दूतावास को फोन किया. दूतावास के अधिकारी ने उन से कहा कि वे लड़ाकों से छोड़ देने की विनती करें. अगर वे मान जाते हैं तो कोई बात नहीं. अगर नहीं मानते हैं तो वे जैसा कहते हैं, सभी लोग वैसा ही करो. इसी के साथ उस अधिकारी ने यह भी कहा कि अगर स्थिति ज्यादा बिगड़ती है तो सरकार उन्हें बचाने के लिए कमांडो का उपयोग भी कर सकती हैं.

उन नर्सों को ले जाने के लिए इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) के 4 लड़ाके आए थे. वे काले कपड़े पहने थे और चेहरे पर काला दुपट्टा बांधे थे. आंखों पर काला चश्मा भी लगाए थे. सभी के कंधों पर एसाल्ट राइफलें लटक रही थीं. उन के आदेश का पालन करते हुए नर्सें अपना सामान समेट रही थीं कि तभी उन लड़ाकों में से एक ने मुड़ कर अपनी एसाल्ट राइफल की नाल अस्पताल की ऊपरी मंजिल की ओर कर के तड़ातड़ गोलियां चला दीं.

उसी मंजिल पर बने कमरों में सोना, वीना और उस की साथी नर्सें रहती थीं. जब से बम धमाके हो रहे थे और गोलियां चल रही थीं, ये नर्सें यहीं पर शरण लिए हुए थीं. लेकिन उस युवा लड़ाके ने जो गोलियां चलाई थीं. उस से उस मंजिल पर लगे शीशे टूटने लगे. उन शीशों के टुकड़े कुछ नर्सों के ऊपर गिरे, जिस से वे बुरी तरह से जख्मी हो कर खून से लथपथ हो गईं. बाकी नर्सें चीखतीचिल्लाती उन घायल नर्सों की ओर दौड़ीं.

लड़ाकों ने सभी नर्सों को बाहर खड़ी बस में चढ़ने को कहा. नर्सें जल्दीजल्दी बस में सवार होने लगीं. नर्सें बस में सवार हो रही थीं, तभी उस विशाल अस्पताल में एक जोरदार धमाका हुआ. उस से उठा काला धुआं चारों ओर फैलने लगा. धुएं के बाद ऊंचीऊंची उठती आग की लपटें दिखाई दीं. अस्पताल से बाहर निकलते समय नर्सों ने देखा कि पिछले दिन हुए धमाके से गिरी दीवारों पर खून लगा था. चारों ओर मांस के लोथडे़ बिखरे थे.

मैं चीज बड़ी हूं मस्त मस्त – भाग 1

2 मई, 2014 को दोपहर 11 बजे दक्षिण पश्चिमी दिल्ली के थाना बिंदापुर के ड्यूटी औफिसर को पुलिस कंट्रोलरूम द्वारा वायरलैस से एक  मैसेज मिला. मैसेज यह था कि मटियाला इलाके के सुखराम पार्क स्थित मकान नंबर आरजेड-54, 55 के बंद कमरे से बदबू आ रही है. ड्यूटी औफिसर ने यह सूचना थानाप्रभारी किशोर कुमार को बताई तो वह समझ गए कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है.

उन का अनुभव था कि बंद कमरों से बदबू आने के ज्यादातर मामलों में कमरे से लाश ही मिलती है. इसलिए यह खबर मिलते ही वह एसआई सुरेंद्र सिंह को साथ ले कर सूचना में दिए पते पर रवाना हो गए. इस के कुछ देर बाद इंसपेक्टर सत्यवीर जनौला भी सुखराम पार्क की तरफ निकल गए.

पुलिस अधिकारी जब उपरोक्त पते पर पहुंचे तो वहां अशोक कुमार सेठ नाम का आदमी मिला. वही उस मकान का मालिक था. अशोक कुमार अपने मकान में एक जनरल स्टोर चलाता था. पुलिस को फोन उस के बेटे अंकुश ने किया था. अशोक पुलिस को अपने मकान के उस कमरे के पास ले गया, जहां से तेज बदबू आ रही थी. पुलिस ने भी कमरे के पास पहुंच कर बदबू महसूस की. उस कमरे के दरवाजे पर ताला लटका हुआ था.

थानाप्रभारी ने अशोक कुमार सेठ से पूछा, ‘‘इस कमरे में कौन रहता था?’’

‘‘सर, इस कमरे में एक लड़की और 2 लड़के रहते थे. 2 दिन से ये दिखाई नहीं दे रहे. आज हमें कमरे से बदबू आती महसूस हुई तो शक हुआ. फिर 100 नंबर पर फोन कर दिया.’’ अशोक ने बताया.

थानाप्रभारी ने ताला तोड़ने से पहले क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम को भी वहां बुला लिया. टीम और वहां मौजूद लोगों के सामने पुलिस ने उस कमरे का ताला तोड़ा तो गंध और तेज महसूस हुई. पुलिस की निगाह फर्श पर बहते काले रंग के द्रव पर गई. वह द्रव कमरे में बनी हुई अलमारी से आ रहा था.

पुलिस को लगा कि अलमारी में ही कुछ रखा है, जहां से यह द्रव रिस कर आ रहा है. अलमारी पर लकड़ी का दरवाजा लगा था और वह बाहर लगी सिटकनी से बंद था. मन में आशंका रखते हुए थानाप्रभारी ने वह अलमारी खुलवाई. अलमारी खुलते ही बदबू का भभका आया और जब सामने देखा तो सब की आंखें खुली की खुली रह गईं.

अलमारी के बीच वाले खाने में एक लड़की की लाश रखी थी. लाश देखते ही मकान मालिक अशोक कुमार बोल पड़ा, ‘‘सर, यह लाश तो उसी लड़की की है जो इस कमरे में रहती थी.’’

उन्होंने लड़की का नाम किआरा पारकर बताया.

क्राइम इनवैस्टीगेशन टीम द्वारा अपना काम निपटाने के बाद थानाप्रभारी किशोर कुमार ने अलमारी से लाश निकलवा कर उस का निरीक्षण किया. लाश सड़ी हुई अवस्था में थी. इस से लग रहा था कि उस की हत्या कई दिन पहले की गई है.

उस के शरीर पर कोई घाव का निशान भी नहीं दिखा तो अनुमान लगाया कि उस की हत्या गला दबा कर की होगी या फिर उसे कोई जहरीला पदार्थ दिया होगा. मकान मालिक से पुलिस को यह पता लग ही गया था कि लाश 18 वर्षीया किआरा पारकर की है. तब पुलिस ने लाश का पंचनामा करने के बाद उसे पोस्टमार्टम के लिए दीनदयाल उपाध्याय अस्पताल, हरिनगर भेज दिया.

यह काररवाई करने के बाद पुलिस ने अशोक कुमार से बात की तो उस ने बताया कि कमरा किराए पर लेते समय किआरा ने उसे अपने आधार कार्ड की कौपी दी थी. उस लड़की द्वारा दी गई आधार कार्ड की कौपी अपने कमरे से ला कर उस ने थानाप्रभारी को दे दी.

आधार कार्ड की उस फोटोकौपी पर उस का पता मकान नंबर 93, सेक्टर-10, बराई रोड, गुड़गांव, हरियाणा लिखा था. अशोक ने बताया कि किआरा के साथ जो 2 लड़के रहते थे, उन के नाम गुलफाम और रफीक थे. दोनों की ही उम्र 18 साल के आसपास थी.

अशोक से बात करने के बाद पुलिस ने उस कमरे की तलाशी ली. वहां से एक छोटी पौकेट डायरी मिली. उस डायरी में गुलफाम और रफीक के फोन नंबर लिखे थे. थानाप्रभारी ने उन दोनों नंबरों को उसी समय मिलाया तो वे दोनों ही बंद मिले.

घटनास्थल की काररवाई निपटाने के बाद पुलिस थाने लौट गई और अज्ञात लोगों के खिलाफ हत्या कर लाश छिपाने का मामला दर्ज कर लिया. थानाप्रभारी ने 18 वर्षीय लड़की की लाश बरामद करने की जानकारी डीसीपी को भी दे दी.

डीसीपी सुमन गोयल ने हत्या के इस मामले को सुलझाने के लिए थानाप्रभारी किशोर कुमार की देखरेख में एक पुलिस टीम बनाई. पुलिस टीम में इंसपेक्टर सत्यवीर जनौला, सबइंसपेक्टर शक्ति सिंह, सुरेंद्र सिंह, हेडकांस्टेबल भूपसिंह, नरेश, विजयपाल, कांस्टेबल अनिल कुमार, दिनेश, अरविंद आदि को शामिल किया गया.

पुलिस मरने वाली युवती की शिनाख्त कर ही चुकी थी और यह आशंका भी हो रही थी कि उस के साथ रहने वाले लड़कों ने ही उस की हत्या की होगी क्योंकि वे कमरे से फरार थे और उन के फोन भी स्विच्ड औफ आ रहे थे. पुलिस को मरने वाली युवती किआरा का पता मिल चुका था जबकि उस के साथ रहने वाले रफीक और गुलफाम के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई थी कि वे कहां के रहने वाले हैं.

एसआई शक्ति सिंह के नेतृत्व में एक टीम किआरा के पते पर सेक्टर-10, गुड़गांव भेज दी गई. इस पते पर शांति भवन ट्रस्ट औफ इंडिया नाम का एक अनाथालय चल रहा था. शक्ति सिंह ने अनाथालय के संचालकों को किआरा पारकर के आधार कार्ड की कौपी दिखाते हुए उन से उस के बारे में पूछा.

वह फोटोकौपी देखते ही संचालकों ने बताया कि किआरा पारकर इसी अनाथालय में रहती थी जो अब यहां से चली गई है. यहां उस का चालचलन अच्छा नहीं था. उसे हम ने आगरा भेजा था. वहां से वह भाग गई. उसे उस की मां ने इस अनाथालय में भरती कराया था, लेकिन अब मां भी गुजर चुकी है. इतना पता है कि दिल्ली के घिटोरनी गांव में उस की नानी रहती हैं. वही उस से कभीकभी मिलने आती थीं.

पुलिस ने संचालकों से रफीक और गुलफाम के बारे में पूछा तो बताया गया कि ये दोनों भी इसी अनाथालय में रहते थे. किआरा हत्याकांड की जो धुंधली तसवीर पुलिस के दिमाग में बनी हुई थी, अनाथालय से मिली जानकारी के बाद वह तसवीर साफ नजर आने लगी थी. यानी किआरा की उन दोनों लड़कों से जानपहचान पुरानी थी.

एसआई शक्ति सिंह को यह पता चल ही चुका था कि किआरा की नानी घिटोरनी गांव में रहती हैं. उन से बात करने के लिए वह घिटोरनी चले गए. थोड़ी मशक्कत के बाद उन्होंने किआरा की नानी का पता लगा ही लिया. उन से बातचीत करने के बाद भी उन्हें किआरा के बारे में कोई बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिल सकी.

थाने लौट कर शक्ति सिंह ने सारी जानकारी थानाप्रभारी को दे दी. उधर इंसपेक्टर सत्यवीर जनौला ने फरार युवकों रफीक और गुलफाम के फोन नंबरों को सर्विलांस पर लगा दिया था. दोनों ही फोन बंद थे. लेकिन मई के पहले हफ्ते में उन में से एक फोन औन हो गया. तभी पता चल गया कि उस की लोकेशन छत्तीसगढ़ में है. वह लोकेशन स्थिर नहीं आ रही थी. बदलती लोकेशन से ऐसा लग रहा था कि जैसे वह दिल्ली की तरफ आ रहा है.

क्या सच में किआरा की हत्या रफीक और गुलफाम ने ही की थी? जानने के लिए पढ़ें कहानी का अगला भाग.

नासमझी का घातक परिणाम – भाग 3

नंदकुमार साहू का साथ पा कर चंद्रभाव और भी शातिर हो गया. मगर उन दोनों का यह काम ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया. यात्रियों की शिकायत पर पुलिस सतर्क हुई तो दोनों ही चोरी करते पकड़े गए. इस के बाद दोनों के कुली के बैज छिन गए.

काम बंद हुआ तो दोनों के घरों में खाने के लाले पड़ गए. कमाई का कोई जरिया नहीं रहा तो दोनों पूरी तरह से अपराध की राह पर चल पड़े. अब वे ट्रेन से सफर करने वाले यात्रियों को किसी तरह अपने जाल में फंसाते और एकांत में ले जा कर उन्हें डराधमका कर लूट लेते. दोनों यह काम कुर्ला के लोकमान्य तिलक टर्मिनस से ले कर नासिक मनमाड़ रेलवे स्टेशन तक करते थे.

यात्रियों का ध्यान इधरउधर कर के चंद्रभाव और नंदकुमार महंगे मोबाइल, लैपटौप और बैग पर हाथ साफ कर देते. जब दोनों लगातार चोरियां करने लगे तो पकड़े भी गए. इस तरह नंदकुमार और चंद्रभाव के खिलाफ नासिक और मनमाड़ के जीआरपी थानों में कई मुकदमे दर्ज हो गए.

5 जनवरी, 2014 को विशाखापट्टनम एक्सपे्रस टे्रन से ईस्टर अनुह्या कुर्ला के लोकमान्य तिलक रेलवे टर्मिनस के प्लेटफार्म नंबर 5 और 6 पर उतरी. उस समय सुबह के साढ़े 4 बज रहे थे. बाहर अंधेरा और सुनसान होने की वजह से वह प्लेटफार्म पर ही बैठ कर उजाला होने का इंतजार करने लगी.

उसी बीच शिकार की तलाश में प्लेटफार्म पर घूम रहे चंद्रभाव और नंदकुमार की नजर उस पर पड़ गई. अकेली लड़की देख कर दोनों उस के पास पहुंचे. उस के महंगे मोबाइल और लैपटौप को देख कर उन के मुंह में पानी आ गया. वे उन्हें किसी भी तरह हासिल करने की योजना बनाने लगे.

लूट का इरादा बना कर चंद्रभाव और नंदकुमार ने कहा कि अगर वह चलना चाहे तो वे उसे अपनी टैक्सी से उस के हौस्टल तक पहुंचा सकते हैं, लेकिन ईस्टर अनुह्या प्रसाद ने मना कर दिया. जब चंद्रभाव और नंदकुमार लगातार आग्रह करने लगे तो ईस्टर अनुह्या उन के साथ जाने के लिए राजी हो गई. पैसा भी तय हो गया. दोनों ने उसे हौस्टल तक पहुंचाने के लिए 3 सौ रुपए मांगे थे.

किराया तय होने के बाद ईस्टर अनुह्या चंद्रभाव और नंदकुमार के साथ टर्मिनस से बाहर टैक्सी स्टैंड पर आई तो वहां उसे कोई टैक्सी दिखाई नहीं दी. वहां सिर्फ एक मोटरसाइकिल खड़ी थी. ईस्टर ने जब उन से टैक्सी के बारे में पूछा तो चंद्रभाव ने बड़ी ही विनम्रता से कहा, ‘‘मैडम, आप अकेली ही तो हैं. मैं आप को अपनी मोटरसाइकिल से आप के हौस्टल तक पहुंचा दूंगा.’’

ईस्टर अनुह्या ने मोटरसाइकिल से जाने से मना कर दिया तो चंद्रभाव ने कहा, ‘‘मैडम, आप को घबराने या डरने की जरा भी जरूरत नहीं है. हम शरीफ और बालबच्चे वाले आदमी हैं. इस पर भी आप को हमारे ऊपर विश्वास नहीं है तो आप हमारा मोबाइल नंबर ले कर अपने किसी परिचित या घर वाले को दे दीजिए.’’

उन की इस पेशकश पर ईस्टर को उन पर थोड़ा भरोसा हुआ. उस ने चंद्रभाव और नंदकुमार के मोबाइल नंबर ले तो लिए, लेकिन बदकिस्मती से मोबइल में बैलेंस न होने की वजह से वह उन के नंबर किसी को दे नहीं पाई. इस के बाद दोनों पर विश्वास कर के ईस्टर चंद्रभाव की मोटरसाइकिल पर बैठ गई. चंद्रभाव मोटरसाइकिल ले कर रवाना हो गया तो नंदकुमार वहां से चला गया.

चंद्रभाव ने ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पर मोटरसाइकिल डाल दी तो ईस्टर ने टोका. तब उस ने कहा, ‘‘मैडम, यह रास्ता शौर्टकट है. आप जल्दी पहुंच जाएंगी.’’

रास्ते की जानकारी न होने की वजह से ईस्टर अनुह्या चुप हो गई. चंद्रभाव मोटरसाइकिल जरूर चला रहा था, लेकिन उस का दिमाग कहीं और ही भटक रहा था. क्योंकि उसे किसी ऐसी जगह की तलाश थी, जहां वह अपना काम आसानी से कर सके.

आखिर उसे वह स्थान मुलुंड और कांजुर मार्ग ईस्टर्न एक्सपे्रस हाईवे के किनारे बने सर्विस रोड पर मिल गया. उचित स्थान देख कर उस ने बीड़ी पीने के बहाने मोटरसाइकिल रोक दी. बीड़ी पीते हुए चंद्रभाव की नजर खूबसूरत अनुह्या पर पड़ी तो उस की नीयत खराब हो गई. उस का उस पर दिल आया तो उस ने उस के साथ जबरदस्ती करने का मन बना लिया.

चोरी के इरादे से ईस्टर को लाने वाले चंद्रभाव के मन में उस के प्रति कामवासना जागी तो सुनसान देख कर चंद्रभाव उसे समुद्री झाडि़यों में खींच ले गया. झाडि़यों में उस ने उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की तो वह पूरी तरह विरोध पर उतर आई.

ईस्टर का विरोध इतना जबरदस्त था कि चंद्रभाव अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सका. इस स्थिति में अगर आदमी की इच्छा पूरी न हो तो जानवर से भी ज्यादा खूंख्वार हो जाता है. वही हाल चंद्रभाव का भी हुआ. इच्छा पूरी न होने पर चंद्रभाव भी खूंख्वार हो उठा और ईस्टर के गले में पड़ी चुन्नी को पकड़ कर पूरी ताकत से कस दिया.

नाजुक ईस्टर अनुह्या पल भर में खत्म हो गई. उस की शिनाख्त न हो सके, इस के लिए उस ने एक बड़ा सा पत्थर उठा कर उस के चेहरे को कुचल दिया. इस के बाद मोटरसाइकिल से पेट्रौल निकाल कर उसे जलाने की भी कोशिश की. शिनाख्त मिटाने के सारे उपाय करने के बाद उस ने अधजली लाश को उठा कर वहीं गहरी खाई में फेंक दिया और निश्चित हो कर अपने घर चला गया था. घर से उस ने इस घटना के बारे में नंदकुमार साहू को बताया तो वह परेशान हो उठा.

नंदकुमार साहू तुरंत चंद्रभाव के घर पहुंचा. उस से कोई गलती तो नहीं हुई, इस बात पर दोनों विचार करने लगे तो पता चला कि चंद्रभाव का मोबाइल घटनास्थल पर ही कहीं गिर गया था. दोनों मोबाइल फोन ढूंढ़ने के लिए घटनास्थल पर पहुंचे. काफी कोशिश के बाद भी उन्हें मोबाइल फोन नहीं मिला.

दोनों ने मोबाइल फोन की उम्मीद छोड़ कर ईस्टर अनुह्या का मोबाइल फोन, लैपटौप, बैग लिया और घर जाने के बजाय चंद्रभाव जहां नासिक के अपने गांव चला गया, वही नंदकुमार साहू झारखंड चला गया. नासिक पहुंच कर चंद्रभाव ने ईस्टर का कपड़ों सहित बैग एक भिखारी को दान कर दिया तो मोबाइल फोन और लैपटौप वहां की एक नदी में फेंक दिया.

जब चंद्रभाव को पता चला कि उस ने जिस लड़की की हत्या की है, उस की लाश मिल गई है और उस की हत्या की जांच चल रही है तो दाढ़ीमूंछ बढ़ा कर उस ने अपना भेष बदल लिया. वह मुंबई भी आनेजाने लगा. लेकिन उस का कोई भी नाटक पुलिस के सामने नहीं चला और पकड़ा गया. चंद्रभाव से पूछताछ के बाद उस के साथी नंदकुमार साहू को भी झारखंड के उस के गांव से गिरफ्तार कर के मुंबई लाया गया.

विस्तारपूर्वक पूछताछ के बाद क्राइम ब्रांच यूनिट-6 की पुलिस ने चंद्रभाव और नंदकुमार शाहू को थाना कांजुर मार्ग पुलिस के हवाले कर दिया. थाना पुलिस ने दोनों को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में आर्थर रोड जेल भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

बहुत हुआ अब और नहीं

जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं.

‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.

एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’

अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं. अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.

अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.

अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदर बाहर होते रहते थे.

रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया. आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.

अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.

बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.

मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.

मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.

‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.

‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.

‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’

चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.

‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’

अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझेआज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.

‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थेऔर गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.

‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’

अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.

‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.

इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.

अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं. कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.

कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.

उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.

लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकनें लगा.

पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’

सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.

‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.

‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.

‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’

सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.

कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’

‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती  रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’

अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’

मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.

‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.

‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.

‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ा थोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.

‘‘बहुत कुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’

‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.

‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’

कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.

मौत के मुंह से वापसी – भाग 1

खाड़ी देशों से कमाई कर के आने वाले लोगों के चमक दमक वाले कपड़े, आटोमैटिक घडि़यां, तरहतरह  के खूब अच्छे लगने वाले टेपरिकौर्डर, छोटेछोटे रेडियो तथा बटन दबाने से खुलने वाले छाते देख कर बचपन में मैं भी सपने देखने लगा था कि बड़ा हो कर जब मैं कमाने लायक होऊंगा तो  इन्हीं लोगों की तरह खाड़ी देशों में नौकरी करने जाऊंगा. लेकिन जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया,  मेरी आंखों से वह सपना ओझल होता गया.

किन्हीं कारणों से भले ही खाड़ी देशों में नौकरी करने जाने का मेरा सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन केरल के एक गांव के मजदूर बाप की बेटी सोना ने बड़ी हो कर खाड़ी देश जाने का जो सपना बचपन में देखा था, कुछ पाईपाई जोड़ कर तो कुछ रिश्तेदारों से तो कुछ महाजन से कर्ज ले कर पूरा कर ही लिया.

सोना का बाप रातदिन मेहनत कर के उसे और उस की जुड़वां बहन वीना को पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाना चाहता था कि उस की ये बेटियां उस की तरह किसी के यहां गुलामी न करें. वह चाहता था कि बहुत ज्यादा नहीं तो उस की दोनों बेटियां इतना जरूर पढ़लिख लें कि कम से कम अपने लिए 2 जून की रोटी और कपड़े का इज्जत के साथ जुगाड़ कर सकें. अपने बच्चों को भी कायदे से पढ़ालिखा सकें.

बेटियों ने भी बाप की तरह मेहनत कर के उस के सपने को साकार करने में कोताही नहीं बरती. बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण करतीं. फिर भी 12वीं कर के उन्होंने नर्सिंग की ट्रेनिंग जरूर कर ली, जिस से इतना तो हो ही गया कि वे कहीं भी नौकरी कर के इज्जत की जिंदगी जी सकती थीं. जब दोनों बहनें नर्स की ट्रेनिंग कर रही थीं, तभी से वे सपना देखने लगी थीं कि अगर वे किसी तरह खाड़ी के किसी देश चली जाती हैं तो कुछ ही सालों में इतना कमा लाएंगी, जितना भारत में शायद पूरी जिंदगी में न कमा सकें.

ट्रेनिंग के दौरान सोना और वीना देख रही थीं कि जो नर्सें भारत में नौकरी करती हैं, वे किसी तरह गुजरबसर कर पाती हैं. जबकि जो खाड़ी देशों में चली जाती हैं, वे शान की जिंदगी जीती हैं. वैसी ही शान की जिंदगी सोना भी जीना चाहती थीं. इसी के साथ वे अपने मातापिता के लिए भी कुछ करना चाहती थीं, जिन्होंने कभी एक जून खा कर तो कभी भूखे पेट रह कर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया था कि वे किसी की मोहताज न रहें.

सोना और वीना ने खाड़ी देशों में जा कर कमाने का जो सपना देखा था, अपनी नर्स की ट्रेनिंग के बाद से उसे साकार करने की कोशिश शुरू कर दी थी. मात्र ट्रेनिंग से काम चलने वाला नहीं था. बाहर जाने के लिए अच्छेखासे अनुभव की जरूरत थी. अनुभव के लिए नौकरी की जरूरत थी. अनुभव के लिए सोना और वीना ने केरल के एक अस्पताल में नौकरी कर ली. 12 घंटे की ड्यूटी थी और वेतन था 6 हजार रुपए. ड्यूटी चाहे दिन की होती या रात की, जब तक अस्पताल में रहतीं, पलभर बैठने को न मिलता.

बाप ने नर्स की ट्रेनिंग में जो फीस भरी थी, वह कर्ज ले कर भरी थी. उस का ब्याज भी लगता था. इसलिए कर्ज अदा करने के लिए नौकरी तो करनी ही थी. वेतन भले ही कम मिले और उस वेतन में काम चाहे जितना करना पड़े. किसी तरह पूरे 4 साल नौकरी कर के सोना और वीना ने अच्छाखासा अनुभव प्राप्त कर लिया तो खाड़ी के किसी देश जाने की तैयारी शुरू कर दी.

पहले उन्होंने पासपोर्ट बनवाया और फिर ऐसी एजेंसी की तलाश में लग गईं, जो उन्हें खाड़ी के किसी देश में नौकरी दिला सके. उन की यह तलाश जल्दी ही पूरी हो गई और दिल्ली की एक एजेंसी ने डेढ़ लाख रुपए प्रति आदमी ले कर इराक में नौकरी दिलाने का वादा किया. एजेंसी के अनुसार वहां उन्हें 750 डौलर तनख्वाह मिलने वाली थी.

सोना और वीना ने एजेंसी की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया. इस की वजह यह थी कि उन की जानपहचान की कई नर्सें वहां पहले से ही नौकरी कर रही थीं. उन्होंने उन्हें बताया था कि वहां उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

सोना और वीना की ही तरह मरीना, श्रुथी, सलीजा जोसेफ और ऐंसी जोसेफ पिछले साल अगस्त में 27 अन्य नर्सों के साथ इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के गृह शहर टिकरित जा पहुंची. लेकिन वहां पहुंच कर ये नर्सें टिकरित के उस अस्पताल की इमारत तक ही सीमित रह गई थीं. इन नर्सों को अस्पताल से बाहर जाने की बिलकुल इजाजत नहीं थी.

टिकरित के उसी अस्पताल में इस साल फरवरी महीने में 13 अन्य नर्सें भारत से भेजी गईं. इस तरह वहां भारत की 46 नर्सें हो गईं. इन में 45 नर्सें केरल की थीं. बाकी एक नर्स दूसरे राज्य की थी. ये सभी नर्सें अस्पताल की दूसरी मंजिल पर बने कमरों में रहती थीं. एक कमरे में 6 नर्सों के रहने की व्यवस्था थी. बाहर की दुनिया से उन का ताल्लुक सिर्फ कमरे की खिड़की से दिखाई देने वाले आसमान से था.

इराक में यह जो नया संकट पैदा हुआ था, इस की जानकारी इन नर्सों को 12 जून को तब हुई, जब अस्पताल के आसपास बम धमाके और गोलियों के चलने की आवाजें सुनाई दीं. रात में जलती हुई इमारतें दिखाई दीं. तभी उस अस्पताल में काम करने वाली इराकी नर्सों ने इन से कहा कि वे शहर छोड़ कर भाग रही हैं.

और सचमुच वे नर्सें भाग गईं. भारतीय नर्सें कहां जातीं, उन्होंने तो कभी अस्पताल के बाहर कदम ही नहीं रखा था. उन की दुनिया तो अस्पताल और उन के उस कमरे तक सीमित थी, जिस में वे रह रही थीं. सभी भारतीय नर्सें वहां बुरी तरह से फंस चुकी थीं. लेकिन अभी उन के पास एक सहारा यह था कि उन के मोबाइल फोन चालू थे. उन के पास भारतीय दूतावास के नंबर भी थे.

13 जून को इन नर्सों ने बगदाद स्थित भारतीय दूतावास में वहां के भारतीय राजदूत अजय कुमार को फोन कर के सभी नर्सों को वहां से किसी भी तरह निकालने की गुहार लगाई. 46 नर्सों में एक को छोड़ कर बाकी 45 नर्सें केरल की थीं. उन के पास केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी का नंबर था, नर्सों ने उन्हें भी फोन किया.

मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने उन्हें धैर्य ही नहीं बंधाया, बल्कि मदद का वादा भी किया. लेकिन तब तक टिकरित की सड़के बंद हो चुकी थीं, इसलिए सड़क मार्ग से उन नर्सों को कोई मदद नहीं मिल सकती थी. ऐसे में उन्हें कहीं बाहर नहीं ले जाया जा सकता था.

एहसान के बदले मिली मौत – भाग 3

डर के मारे वह ऊपर की ओर भागे. कमरे में रखी बड़ी सी कुरसी पर 5-6 कंबल ओढ़ कर छिप गए. कदमों की आहट उन्हें साफ सुनाई दे रही थी, जो उन्हीं की ओर बढ़ रहे थे.

सन्नाटे को चीरती हुई एक मर्दाना आवाज गूंजी, ‘‘डा. फेंज गनीमत इसी में है कि तुम जहां भी छिपे हो निकल आओ वरना हम तो तुम्हें ढूंढ ही लेंगे.’’

यह आवाज थमी नहीं कि दूसरी आवाज उभरी, ‘‘आज बच नहीं पाओगे डा. फेंज.’’

खौफ से डा. फेंज की नसों का खून जम सा गया. वह सांस खींचे दुबके रहे. तभी पहले वाली आवाज फिर गूंजी, ‘‘डा. फेंज, हमें बता दो कि तुम ने नकद राशि कहां छिपा रखी है? हम तुम्हारी जान बख्श देंगे.’’

कंबलों में हलचल सी हुई. डा. फेंज में जाने कहां से हिम्मत आ गई कि वह झटके से बाहर आ गए. 2 लोग उन्हें खोज रहे थे. उन्होंने फुर्ती से एक युवक का सिर पकड़ कर खिड़की की चौखट से दे मारा. चीख के साथ उस के सिर से खून का फव्वारा फूट पड़ा. दूसरा उन की ओर लपका. उस ने डा. फेंज की कलाई पकड़ कर फर्श पर गिरा दिया.

इस के बाद घसीटता हुआ दीवार तक ले गया और उन का सिर पकड़ कर जोर से दीवार से मारा. इसी के साथ उस के घायल साथी ने डा. फेंज पर कुल्हाड़ी से जोरदार वार सिर पर किया. बस, एक ही वार में हलकी सी चीख के साथ वह बेहोश हो गए. इस के बाद भी दोनों युवकों ने ताबड़तोड़ कई वार उन के सिर और सीने पर किए. उन्हें लगा कि डा. फेंज खत्म हो गए हैं, लेकिन यह उन का भ्रम था.

डा. फेंज की सांसें चल रही थीं. दोनों का अगला निशाना वहां रखी अलमारी थी. अलमारी के दरवाजे को कुल्हाड़ी से तोड़ कर उसे खंगाला तो उस में 5 हजार यूरो मिले, जिन्हें ले कर दोनों भाग खड़े हुए. उन के जाने के बाद घिसटघिसट कर डा. फेंज उस टेबल तक आए, जहां फोन रखा था. किसी तरह नंबर मिला कर उन्होंने पुलिस को कराहती आवाज में घटना की सूचना दी.

10 मिनट में टौप एक्शन पुलिस फोर्स वहां पहुंच गई. गंभीर रूप से घायल डा. फेंज को तुरंत अस्पताल ले जाया गया. 11 सप्ताह तक जिंदगी और मौत से जूझते हुए डा. फेंज ने आखिर 26 मार्च, 2008 को दम तोड़ दिया.

पुलिस जांच में मिले सुबूत डा. फेंज की पत्नी ततजाना के दोषी होने का इशारा कर रहे थे. ततजाना को हिरासत में ले कर पूछताछ की गई. वह खुद को बेकुसूर बताती रही. उस का तर्क था कि एक साल से डा. फेंज से उस का कोई संबंध नहीं था. वह अपने प्रेमी हीलमुट बेकर के साथ रह रही थी. मगर उस की कोई भी दलील काम नहीं आई. मई, 2008 में अदालत के आदेश पर उसे डा. फेंज की हत्या और चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया.

16 महीने बर्लिन कोर्ट में यह मुकदमा चला. लेकिन सुबूतों और गवाहों के अभाव में अक्तूबर, 2009 को कोर्ट ने ततजाना को बेगुनाह करार देते हुए जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया.

कहा जाता है कि ततजाना को अपनी बदसूरती के चलते पहले जीवन से खास लगाव नहीं रहा था. लेकिन जब डा. फेंज ने 20 औपरेशन कर के उसे खूबसूरती का तोहफा दिया तो उस के अंदर की दम तोड़ चुकी महत्त्वाकांक्षाएं और हसरतें फिर से उमंगे भरने लगी थीं. इसी के चलते उस ने अपने से 44 साल बड़े डा. फेंज के प्यार को स्वीकार कर के शादी कर ली थी, क्योंकि डा. फेंज के पास अरबों डौलर की दौलत थी.

पुलिस के अनुसार शादी के बाद 9 सालों तक ततजाना ने ऐश की जिंदगी बसर करते हुए अपने सभी अरमान पूरे कर लिए. इस के बाद उस का मन डा. फेंज से भर गया तो वह कार व्यापारी हीलमुट बेकर के पहलू में जा गिरी. वह उस के साथ एक साल रही, लेकिन डा. फेंज को उस ने तलाक नहीं दिया. शायद उस की निगाह डा. फेंज की बेशुमार दौलत पर थी. उस पर उस का कब्जा डा. फेंज की मौत के बाद ही हो सकता था. इसी वजह से उस ने डा. फेंज की हत्या पेशेवर हत्यारों से करवा दी थी. लेकिन सुबूतों के अभाव में वह निर्दोष मानी गई.

खैर, सच्चाई चाहे जो भी रही हो, जेल से रिहा होने के बाद ततजाना डा. फेंज की बेवा होने के नाते उस की 11 मिलियन यू.एस. डौलर की एकलौती वारिस हो गई. उस की जिंदगी फिर उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी. पार्टीक्लबों में रात रंगीन करना, पुरुष मित्रों की बांहों में बांहें डाल कर डांस करना, महंगी कारों में घूमना और भोग विलास भरा जीवन उस की दिनचर्या में शुमार हो गया.

एक हाईफाई पार्टी में ही ततजाना की मुलाकात नवंबर, 2011 में जर्मनी के सेक्सोनिया राज्य के आखिरी राजा 68 वर्षीय प्रिंस वौन हौमजोर्लन से हुई तो वह उस से दिल लगा बैठी. प्रिंस वौन भी उस की खूबसूरती और जवानी के ऐसे दीवाने हुए कि बस उसी के हो कर रह गए. दोनों शादी करना चाहते थे, लेकिन प्रिंस वौन की पत्नी और बच्चों के रहते यह संभव नहीं था.

नासमझी का घातक परिणाम – भाग 2

16 जनवरी, 2014 को जौनथन प्रसाद अपने रिश्तेदारों के साथ मुलुंड और कांजुर मार्ग ईस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे के किनारे से गुजर रहे थे तो उन्हें किसी शव के सड़ने की दुर्गंध महसूस हुई. इस गंध ने उन्हें बेचैन कर दिया. मन अशांत हो उठा. न चाहते हुए भी उन्होंने उन दोनों सिपाहियों को फोन कर के वहां बुला लिया. सिपाहियों के आने पर वह उस ओर बड़े, जिधर से दुर्गंध आ रही थी.

जौनथन प्रसाद सिपाहियों के साथ सर्विस रोड से 10 फुट अंदर समुद्र के किनारे की झाडि़यों में घुसे तो वहां एक खाई में क्षतविक्षत अवस्था में एक शव पड़ा दिखाई दिया. दूर से उसे पहचाना नहीं जा सकता था, क्योंकि उसे बेरहमी से जलाने की कोशिश की गई थी. लेकिन यह साफ दिख रहा था कि वह शव महिला का था.

जौनथन प्रसाद की बेटी गायब थी. लाश महिला की थी. कहीं यह लाश ईस्टर की तो नहीं, यह सोच कर वह खाई में उतर गए. करीब से देखने पर पता चला कि वह लाश उन की बेटी ईस्टर अनुह्या की ही थी. बेटी की हालत देख कर वह रो पड़े.

लाश जहां पड़ी थी, वह स्थान थाना कांजुर मार्ग के अंतर्गत आता था. इसलिए लाश पड़ी होने की सूचना थाना कांजुर मार्ग पुलिस को दी गई. थाना पुलिस ने घटनास्थल पर पहुंच कर खाई से शव निकलवाया. घटनास्थल के निरीक्षण और काररवाई के बाद शव को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए जे.जे. अस्पताल भिजवा दिया.

अगले दिन ईस्टर अनुह्या की हत्या का समाचार दैनिक अखबारों में छपा तो मामले ने तूल पकड़ लिया. मामला हाईप्रोफाइल परिवार का था, इसलिए मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने इसे गंभीरता से लिया. उनहोंने तत्काल इस मामले की जांच की जिम्मेदारी क्राइम ब्रांच के ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर हिमांशु राय को सौंप दी.

एक ओर जहां जीआरपी थाना कुर्ला पुलिस और थाना कांजुर मार्ग पुलिस इस मामले की जांच कर रही थी, वहीं दूसरी ओर अपर पुलिस कमिश्नर निकेत कौशिक, अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर अंबादास पोटे, सहायक पुलिस कमिश्नर प्रफुल्ल भोसले के निर्देशन में क्राइम ब्रांच की 5 यूनिटें इस मामले की जांच में लगी थीं.

पुलिस अधिकारियों ने जांच की दिशा तय करने के लिए जौनथन प्रसाद को क्राइम ब्रांच के औफिस में बुला कर विस्तार से बातचीत कर के ढेर सारी जानकारी इकट्ठा की.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ऐसा कोई क्लू नहीं मिला था कि जांच आगे बढ़ पाती. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उस के साथ दुष्कर्म नहीं हुआ था. इस से अंदाजा लगाया गया कि या तो दुष्कर्मी ने असफल होने पर हत्या की थी या फिर उस की हत्या लूटपाट के लिए की गई थी.

सामान के नाम पर ईस्टर के पास मोबाइल फोन, लैपटौप और कुछ कपड़े थे. ज्यादा पैसे भी नहीं थे. पुलिस ने जब इस मामले पर गहराई से विचार किया तो लगा कि इस मामले में किसी ऐसे लुटेरे का हाथ हो सकता है, जो बैग, मोबाइल और लैपटौप चोरी करता था.

ईस्टर लोकमान्य तिलक टर्मिनस पर उतरी थी. उस की लाश कांजुर मार्ग ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर मिली थी, इसलिए पुलिस ने अपने जांच का दायरा स्टेशन से लाश मिलने के स्थान तक बनाया. टर्मिनस से ले कर कांजुर मार्ग तक टैक्सी ड्राइवर, औटोरिक्शा ड्राइवर, टर्मिनस के कुली, सफाई कर्मचारी, चरसी आदि से पूछताछ करने के साथसाथ यह पता लगाने की कोशिश की गई कि यहां इस तरह की चोरी करने वाले कौनकौन हैं.

यूनिट-1 के सीनियर इंसपेक्टर नंद कुमार गोपाल, यूनिट 25 के सीनियर इंसपेक्टर अविनाश सावंत, यूनिट 6 के सीनियर इंसपेक्टर श्रीपाद काले, यूनिट 7 के सीनियर इंसपेक्टर व्यंकट पाटिल, इंसपेक्टर संजय सुर्वे, इंसपेक्टर अशोक खोत, इंसपेक्टर अनिल ढोले की संयुक्त टीम स्टेशन पर काम करने वाले ही नहीं, वहां गलत काम करने वालों पर खुद तो नजर रख ही रही थी, मुखबिरों को भी लगा दिया गया था.

स्टेशन पर लगे सीसीटीवी कैमरे ही नहीं, हाईवे पर लगे सीसीटीवी कैमरों की भी फुटेज देखी गई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. मामले में प्रगति न होते देख जौनथन प्रसाद का धैर्य जवाब देने लगा. इंसाफ पाने के लिए वह दिल्ली गए और गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे, सीपीएम की नेता वृंदा करात, आम आदमी पार्टी के नेता योगेंद्र यादव से मिल कर ईस्टर के हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए गुहार लगाई.

लेकिन उन की इस दौड़भाग का कोई लाभ नहीं हुआ. तमाम कोशिशों के बाद भी पुलिस ईस्टर के हत्यारों तक नहीं पहुंच पाई. धीरेधीरे 2 महीने का समय बीत गया. इस से यही लग रहा था कि ईस्टर की हत्या जिस ने भी की थी, वह काफी होशियार और शातिर था. उस ने कोई भी ऐसा सुबूत नहीं छोड़ा था कि पुलिस उस तक पहुंच पाती. पुलिस जांच का कोई दूसरा रास्ता निकालती, पुलिस के कई बड़े अधिकारियों का तबादला हो गया.

मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. उस के बाद राकेश मारिया मुंबई के नए पुलिस कमिश्नर बने. इस के साथ क्राइम ब्रांच में भी काफी उलटपुलट हुआ. ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर हिमांशु राय और अपर पुलिस कमिश्नर निकेत कौशिक की जगह पर नए जौइंट पुलिस कमिश्नर सदानंद दाते और अपर पुलिस कमिश्नर राजवर्धन को लाया गया.

नए पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया इस के पहले क्राइम ब्रांच के चीफ थे, इसलिए उन्हें जटिल से जटिल मामलों को सुलझाना अच्छी तरह आता था. कार्यभार संभालते ही उन्होंने चर्चा में रहे ईस्टर हत्याकांड को सुलझाने के लिए सहायकों के साथ जांच की रूपरेखा तैयार की. इस के बाद उसी रूपरेखा पर जांच की जिम्मेदारी नए क्राइम ब्रांच के जौइंट कमिश्नर सदानंद दाते, अपर पुलिस कमिश्नर राजवर्धन, सत्यनारायण चौधरी, एडिशनल कमिश्नर अंबादास पोटे और असिस्टैंट कमिश्नर प्रफुल्ल भोंसले को सौंप दी गई.

इन नए अधिकारियों के निर्देशन में एक बार फिर क्राइम ब्रांच के अधिकारियों ने सरगर्मी से मामले की जांच शुरू की. इस बार उन्होंने 2 हजार लोगों से पूछताछ की. मुखबिर भी जीजान से लगे थे. इसी के साथ सीसीटीवी के कैमरों की फुटेज एक बार फिर देखी गई. इस बार फुटेज देखते समय जौनाथन प्रसाद को भी साथ बैठाया गया था. इस बार की मेहनत रंग लाई और फुटेज में ईस्टर के साथ एक ऐसा आदमी दिखाई दिया, जो स्टेशन से बैग, मोबाइल और लैपटौप की चोरी करता था.

इसी के बाद 2 मार्च, 2014 को यूनिट-6 के सीनियर इंस्पेक्टर व्यंकट पाटिल ने अपने सहायक इंस्पेक्टर संजय सुर्वे, अशोक खोत और अनिल ढोले के साथ भांडूप के एक घर से उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया गया था. उस का नाम था चंद्रभाव उर्फ चौक्या सुदाम सापन.

मिली जानकारी के अनुसार यही चंद्रभाव उर्फ चौक्या सुदाम सापन सीसीटीवी कैमरे की फुटेज में ईस्टर के साथ जाता दिखाई दिया था. पूछताछ में पता चला कि वही ईस्टर का हत्यारा था. उसे क्राइम ब्रांच के औफिस ला कर पूछताछ की गई तो उस ने ईस्टर अनुह्या की हत्या का अपना अपराध स्वीकार कर लिया था.

चंद्रभाव उर्फ चौक्या ने क्राइम ब्रांच अधिकारियों को ईस्टर की हत्या की जो कहानी सुनाई, वह कुछ इस प्रकार थी.

28 वर्षीया चंद्रभाव उर्फ चौक्या मूलरूप से नासिक जनपद के गांव मधमलाबाद का रहने वाला था. संतानों में बड़ा होने की वजह से मांबाप का कुछ ज्यादा ही लाडला था, जिस की वजह से वह आवारा हो गया था. पढ़ाई छोड़ कर वह दोस्तों के साथ मटरगश्ती किया करता था. पिता सुदाम सापन सीएसटी टर्मिनस पर कुली का काम करते थे. मुंबई में वह उपनगर कांजुर मार्ग स्थित कर्वेनगर साईंकृपा सोसायटी की इमारत नंबर वी-2 के रूम नंबर 208 में परिवार के साथ रहते थे.

चंद्रभाव चौक्या की शादी मांबाप ने यह सोच कर कर दी थी कि जिम्मेदारी पड़ने पर शायद वह सुधर जाएगा. वह एक बेटी का बाप भी बन गया, लेकिन वह जस का तस ही रहा.

2005 में सुदाम सापन गंभीर रूप से बीमार हुए तो रेलवे के अधिकारियों से पैरवी कर के अपना कुली वाला बैज चंद्रभाव उर्फ चौक्या के नाम करा दिया था. इस के बाद चंद्रभाव सीएसटी रेलवे टर्मिनस पर बाप की जगह कुली का काम करने लगा था.

जब थोड़ाबहुत पैसा आने लगा तो चंद्रभाव के शौक बढ़ने लगे. घर में खूबसूरत पत्नी के होते हुए भी वह अपनी कमाई का ज्यादा हिस्सा खानेपीने और पराई औरतों पर उड़ाने लगा. अपने यही शौक पूरे करने के लिए कभीकभी वह यात्रियों के सामान उड़ाने लगा. 2 सालों तक सीएसटी रेलवे टर्मिनस पर कुलीगीरी करने के बाद उस ने यह काम छोड़ दिया.

2007 में वह कुर्ला लोकमान्य तिलक रेलवे टर्मिनस पर आ गया, जहां उस की दोस्ती नंदकुमार साहू से हुईं. नंदकुमार साहू भी कुली था और उस में भी वे सभी बुरी आदतें थीं, जो चंद्रभाव में थी. वह भी मौजमस्ती के लिए यात्रियों के सामानों की चोरी करता था.

क्यों की चन्द्रभाव ने ईस्टर की हत्या? जानने के लिए पढ़िए इस Social Crime Story का अगला भाग.

एहसान के बदले मिली मौत – भाग 2

सन 1992 तक बीसों औपरेशन के बाद ततजाना का कायाकल्ल्प हो गया. इस बीच ततजाना का इलाज करते करते डा. फेंज कब उस की चाहत के मरीज बन गए, वह जान नहीं पाए. वह खुद हैरान थे, ऐसा कैसे हो गया. वह हजारों युवतियों की सर्जरी कर चुके थे, लेकिन जो निखार ततजाना के शरीर में आया था, ऐसा किसी अन्य युवती के शरीर में उन्होंने अनुभव नहीं किया था.

अपनी सुंदरता देख कर ततजाना बेहद खुश थी. इस के बावजूद वह आईने का सामना करने से कतरा रही थी. इस दौरान डा. फेंज ने अनुभव किया था कि बदसूरती से उपजी हीनभावना की शिकार ततजाना आईने से न केवल डरती है, बल्कि उस से नफरत करती है. इसीलिए इलाज के बाद वह उसे आदमकद आईने के सामने ले गए थे. ततजाना चाह कर भी आईने के सामने आंख नहीं खोल पा रही थी. खोलती भी कैसे, आखिर कितनी टीस दी थी इस आईने ने.

डा. फेंज ने आगे बढ़ कर ततजाना का माथा चूमते हुए कहा, ‘‘पलकें उठा कर तो देखो, आईना खुद शरमा रहा है तुम्हारी खूबसूरती को देख कर. देखो, यह कह भी रहा है, ‘मेरा जवाब तू है, तेरा जवाब कोई नहीं.’’’

डरते हुए ततजाना ने नजरें उठा कर देखा, वाकई वह हैरान रह गई थी. उस के अंधेरे अतीत की परछाई भी नहीं थी उस के चेहरे पर. उसे विश्वास नहीं हो रहा था. उस ने चेहरे को छू कर देखा. उस की नजरों में डा. फेंज के लिए एहसान और दिल में आदर तथा प्यार की तह सी जमी थी. वह अंजान तो नहीं थी. उसे अहसास हो गया था कि डा. फेंज के दिल में उस के लिए मोहब्बत का अंकुर फूट चुका है. लेकिन उस ने दिल की बात जुबान पर नहीं आने दी.

वह ऐसा समय था, जब डा. फेंज अपनी शादीशुदा जिंदगी के नाजुक दौर से गुजर रहे थे. आखिर वह समय आ ही गया, जब पत्नी उन्हें तलाक दे कर अपने एकलौते बच्चे को ले कर सदा के लिए उन की जिंदगी से दूर चली गई.

तनहाई के इस आलम में उन्हें ततजाना के प्यार के सहारे की जरूरत थी. लेकिन वह इजहार नहीं कर रहे थे. इसी तरह साल गुजर गया. दरअसल डा. फेंज जहां उम्र के ढलान पर थे, वहीं ततजाना यौवन की दहलीज पर कदम रख रही थी.

वह 66 साल के थे, जबकि ततजाना मात्र 23 साल की थी. लेकिन यह भी सच है कि प्यार न सीमा देखता है न मजहब और न ही उम्र. एक दिन फेंज और ततजाना साथ बैठे कौफी पी रहे थे, तभी डा. फेंज ने कहा, ‘‘ततजाना, मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. तुम्हारी इस खूबसूरती ने मुझे दीवाना बना दिया है.’’

‘‘यह खूबसूरती आप की ही दी हुई तो है. एक नई जिंदगी दी है आप ने मुझे. इसलिए इस पर पहला हक आप का ही बनता है.’’ ततजाना बोली.

‘‘नहीं ततजाना, मैं हक नहीं जताना चाहता. अगर दिल से स्वीकार करोगी, तभी मुझे स्वीकार होगा. मैं एहसानों का बदला लेने वालों में से नहीं हूं.’’ डा. फेंज ने कहा.

‘‘मैं इस बात को कैसे भूल सकती हूं कि आप ने मेरी अंधेरी जिंदगी को रोशनी से सराबोर किया है. आप की तनहाई में साथ छोड़ दूं, यह कैसे हो सकता है. इस तनहाई में आप मुझे तनमन से अपने नजदीक पाएंगे. आप यह न समझें कि मैं यह बात एहसान का कर्ज अदा करने की गरज से नहीं, दिल से कह रही हूं.’’

सन 1999 में डा. फेंज से ततजाना ने विवाह कर लिया. शादी के बाद जहां डा. फेंज की तनहा जिंदगी में फिर से बहारें आ गईं, वहीं ततजाना भी एक काबिल और अरबपति पति की संगिनी बन कर खुद पर इतराने लगी.

अब सब कुछ था उस के पास. रहने को आलीशान महल, महंगी कारें, सोने हीरों के गहने और कीमती लिबास. जिंदगी के मायने ही बदल गए थे उस के. अब वह बेशुमार दौलत की मालकिन थी. हाई सोसाइटियों में उसे तवज्जो मिल रही थी, जिस की उस ने कभी कल्पना तक नहीं की थी.

ततजाना अपने जीवन की रंगीनियों में इस कद्र डूब गई कि अतीत की परछाई भी उस के पास नहीं फटक रही थी. डा. फेंज भी उस की खूबसूरती में खोए रहते थे. दोनों का 9 साल का दांपत्यजीवन कैसे गुजर गया, उन्हें पता ही नहीं चला. अचानक इस रिश्ते में तब दरार पड़ने लगी, जब ततजाना को तनहा छोड़ कर डा. फेंज अपने मरीजों में व्यस्त रहने लगे. बस यहीं से ततजाना के कदमों का रुख बदल गया.

उसी दौरान एक पार्टी में ततजाना की मुलाकात कारों के व्यापारी 60 वर्षीय हीलमुट बेकर से हुई. उस ने उस की आंखों में अपने प्रति चाहत देखी तो उस की ओर झुक गई. बेकर का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि ततजाना उस की ओर झुकती चली गई. मुलाकातों का दौर शुरू हुआ तो दोनों पर मोहब्बत का रंग चढ़ने लगा. जिस्मों के मिलन के बाद वह और निखर आया. अब ततजाना का अधिकतम समय बेकर की बांहों में गुजरने लगा. हद तो तब होने लगी, जब ततजाना डा. फेंज को अनदेखा कर के रातें भी बेकर के बिस्तर पर गुजारने लगी.

डा. फेंज सोच रहे थे कि ततजाना नादान है, राह भूल गई है. समझाने पर मान जाएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. एक रात डा. फेंज बेसब्री से ततजाना का इंतजार कर रहे थे. सारी रात बीत गई, ततजाना लौट कर नहीं आई. डा. फेंज ने कई संदेश भिजवाए लेकिन जवाब में बेरुखी ही मिली.

इसी तरह एक साल गुजर गया. डा. फेंज ने यह तनहाई कैसे काटी, इस का सुबूत था उन का बिगड़ा दिमागी संतुलन. अगर हवा से खिड़कियों के परदे भी हिलते तो उन्हें लगता कि यह ततजाना के कदमों की आहट है. वह आ गई है.

डा. फेंज 5 जनवरी, 2005 की सुबह अपनी क्लीनिक में अकेले ही खयालों में खोए बैठे थे. वह सोच रहे थे कि काश ततजाना आ जाती. अचानक खिड़की के शीशे जोर से खड़खड़ाए. शीशा टूट कर बाहर की तरफ गिर गया. घबरा कर उन्होंने उधर देखा तो 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. उन्होंने अपने चेहरे ढक रखे थे. डरेसहमे डा. फेंज ने ततजाना को फोन किया. घंटी बजती रही, पर किसी ने फोन नहीं उठाया. तभी लगा, किसी ने खिड़की को ही उखाड़ दिया है.