संजीव जीवा : डाक्टरी सीखते सीखते बना गैंगस्टर – भाग 3

जीवा पर कृष्णानंद की हत्या वाला मुकदमा चल ही रहा था कि हरिद्वार के एक बिजनैसमैन अमित दीक्षित उर्फ गोल्डी, जो कारपेट का बिजनैस करते थे, की गोली मार कर हत्या कर दी गई. उत्तराखंड पुलिस ने एक सप्ताह के अंदर ही शूटरों को पकड़ लिया. शूटरों से पूछताछ में जीवा का नाम आया तो पुलिस ने उसे भी गिरफ्तार कर लिया. उस से भी पूछताछ की गई.

वैसे तो जीवा के खिलाफ 2 दरजन से ज्यादा मुकदमे दर्ज थे, जिन में से 17 में वह बरी भी हो गया था. पर 2 मामलों में वह घिर गया. पहला था ब्रह्मदत्त की हत्या वाला मामला और दूसरा हरिद्वार के बिजनैसमैन की हत्या वाला मामला. इन दोनों ही मामलों में संजीव जीवा को उम्रकैद की सजा हुई थी. अमित दीक्षित वाले मामले में उस के साथ 4 अन्य लोगों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

हालांकि बाद में जीवा ने कहा था कि उस के शूटरों ने गलती की थी. जो बिजनैसमैन मारा गया था, उसे नहीं मारना था. मारना तो किसी दूसरे को था, वह गलती से मारा गया.

जीवा को बुलेटप्रूफ जैकेट पहना कर लाया जाता था कोर्ट

अब तक जीवा उत्तर प्रदेश के 65 अपराध माफिया की लिस्ट में शामिल हो चुका था. उस पर कई बार गैंगस्टर ऐक्ट के तहत काररवाई हो चुकी थी. प्रशासन ने उस की कई करोड़ की प्रौपर्टी भी जब्त की थी. सजा होने के बाद जीवा जेल चला गया. बागपत जेल में जब मुन्ना बजरंगी की हत्या कर दी गई तो जीवा पहली बार डर गया कि कहीं जेल या पेशी के लिए अदालत ले जाते समय उस की भी हत्या न कर दी जाए. तब जीवा की पत्नी पायल ने पति की जान को खतरा बताते हुए कोर्ट में अरजी लगाई.

परिणामस्वरूप कोर्ट ने आदेश दिया कि उस की सुरक्षा का ध्यान रखा जाए. तब पुलिस उसे जब भी पेशी पर अदालत ले जाती, बुलेटप्रूफ जैकेट पहना कर ले जाती थी. लेकिन जीवा की पत्नी पायल का आरोप है कि इधर 2 पेशी से पुलिस उसे बिना बुलेटप्रूफ जैकेट के ही पेशी पर अदालत ला रही थी. उसी का नतीजा था कि जीवा पर जब गोलियां चलाई गईं तो उसे जो 6 गोलियां लगीं, उन में से 4 सीने में और 2 कमर में लगीं, जिस की वजह से उस की मौत हुई.

जीवा की हत्या के आरोप में जो युवक पकड़ा गया था, पूछताछ में पता चला कि उस का नाम विजय यादव है. वह उत्तर प्रदेश के ही जिला जौनपुर का रहने वाला था. वह बीकौम तक पढ़ा था. पढ़ाई करने के बाद वह मुंबई चला गया था, जहां उस ने पानी की पाइप बनाने वाली एक कंपनी में 3 सालों तक नौकरी की थी. देश में जब कोरोना महामारी फैली तो वह गांव आ गया था.

जब पुलिस ने पता लगाया कि इतने बड़े डौन को मारने वाले युवक का आपराधिक इतिहास क्या है तो पता चला कि उस के खिलाफ मात्र 2 केस दर्ज थे. पहला आजमगढ़ जिले में दर्ज था, जिस में एक नाबालिग लडक़ी को भगाने के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया था. इस मामले में वह 6 महीने जेल में भी रहा. जब लडक़ी के घर वालों ने सुलह कर ली तो वह जेल से बाहर आ गया था.

बाद में पता चला कि लडक़ी को भगाने वाला तो कोई और ही था, विजय को पुलिस ने गलती से पकड़ लिया था. दूसरा मामला कोरोना के नियमों के उल्लंघन का था, जिस का हत्या जैसे अपराधों से कोई संबंध नहीं हो सकता.

20 लाख की सुपारी दे कर कराया जीवा का मर्डर

पुलिस पूछताछ में पता चला कि एक रिश्तेदार की शादी में विजय 10 मई, 2023 को घर आया था. 11 मई को वह यह कह कर घर से निकला था कि अब वह मुंबई नहीं जाएगा, यहीं लखनऊ में ही कोई नौकरी ढूंढेगा. इस के बाद से घर वालों से उस का कोई संपर्क नहीं हुआ था.

विजय यादव ने जिस रिवौल्वर से जीवा की हत्या की थी, वह काफी महंगी थी. उस की कीमत करीब 7 लाख रुपए बताई जाती है. जबकि घर वालों ने बताया था कि विजय के पास तो कभीकभी फोन रिचार्ज कराने के लिए भी पैसे नहीं होते थे. तब पुलिस को लगा कि अतीक-अशरफ की तरह संजीव की भी हत्या कराने वाला कोई और है, जिस ने विजय को इतनी महंगी रिवौल्वर उपलब्ध कराई थी.

बता दें कि इलाहाबाद के डौन अतीक अहमद और उस के भाई अशरफ की तब 3 अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी थी, जब दोनों भाई इलाहाबाद में अस्पताल से मैडिकल करा कर बाहर निकल रहे थे. पकड़े गए हत्यारे न तो अतीक और अशरफ को जानते थे और न उन की उन से कोई दुश्मनी थी. वे पत्रकार बन कर आए थे. तीनों बेहद गरीब परिवारों से आते थे. जबकि उन के पास से जो रिवौल्वर मिले थे, वे विदेशी थे और उन की कीमत लाखों में थी, जिन्हें खरीदने की उन की हैसियत नहीं थी.

ऐसा ही संजीव जीवा की हत्या के मामले में भी था. विजय की न तो जीवा से कोई दुश्मनी थी और न वह उस से कभी मिला था. उस के पास से भी जो रिवौल्वर मिली थी, उस की हैसियत उसे खरीदने की नहीं थी. इस का साफ मतलब था कि जीवा की हत्या किसी और ने विजय को सुपारी दे कर कराई थी.

रिमांड के दौरान पूछताछ में विजय ने बताया कि संजीव जीवा की हत्या की डील उस ने नेपाल में की थी. अशरफ ने उसे जीवा की हत्या की सुपारी दी थी. अशरफ का भाई आतिफ लखनऊ जेल में बंद था. जीवा जेल में आतिफ को परेशान करता था. उस ने आतिफ की दाढ़ी तक नोच ली थी.

इसी अपमान का बदला लेने के लिए अशरफ ने संजीव जीवा की हत्या कराई है. आगे की जांच में पता चला कि विजय मई के अंत में नेपाल की राजधानी काठमांडू गया था. विजय को जीवा की हत्या की सुपारी 20 लाख रुपए में दी गई थी. उसे रिवौल्वर बहराइच में उपलब्ध कराई गई थी. फिलहाल तो विजय लखनऊ की जेल में बंद है.

संजीव जीवा : डाक्टरी सीखते सीखते बना गैंगस्टर – भाग 2

अपहरण के इस मामले में उस ने उस समय 2 करोड़ की फिरौती वसूली थी. यह 1992 की बात है. उस समय 2 करोड़ की रकम बहुत बड़ी होती थी. उस की इस वसूली पर इलाके में सनसनी फैल गई थी.

इस के बाद अपराध की दुनिया में जीवा का भी नाम हो गया. कहते हैं न कि बदनाम हुए तो क्या हुआ, नाम तो हो ही गया. ऐसा ही जीवा के साथ भी हुआ. लोग जानने लगे की इलाके में संजीव जीवा नाम का भी कोई बदमाश है, जो बड़ेबड़े लोगों का अपहरण कर के फिरौती में मोटी रकम वसूलता है.

जीवा का छुटभैया बदमाशों का गैंग था, जिन की बदौलत वह फिरौती, रंगदारी आदि वसूलता था और जमीनों पर कब्जा करता था. लेकिन कोलकाता वाले अपहरण के बाद वह मुजफ्फरनगर के गिनेचुने बदमाशों में गिने जाने वाले नाजिम गैंग में शामिल हो गया. कुछ दिन इस गैंग के साथ काम करने के बाद जीवा को रविप्रकाश नाम के गैंगस्टर ने अपनी गैंग में शामिल कर लिया.

तमाम गैंगों में होने लगी जीवा की मांग

रविप्रकाश के गैंग में शामिल होने के बाद जीवा की गिनती बड़े बदमाशों में होने लगी. अब वह रंगदारी वसूलने के साथसाथ हथियारों की हेराफेरी भी करने लगा था. क्योंकि हथियारों की सप्लाई से भी अच्छी कमाई होती थी और जीवा को पैसा कमाना था, इसलिए पैसे के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था.

गैंगस्टर रविप्रकाश के गैंग में रह कर जीवा ने कुछ बहादुरी वाले कारनामे किए तो उसी इलाके के रविप्रकाश से भी बड़े गैंगस्टर सत्येंद्र बरनाला ने संजीव जीवा को बुला कर अपने गैंग में शामिल कर लिया. जिस तरह प्राइवेट नौकरियों में जिन का नाम हो जाता है, उन्हें दूसरी कंपनियां ज्यादा पैसे का औफर दे कर अपने यहां बुला लेती हैं, वैसा ही इन गैंगस्टरों के बीच भी होता है.

सत्येंद्र बरनाला ने संजीव जीवा को ज्यादा हिस्सा और सुविधा का लालच दिया तो वह रविप्रकाश का गैंग छोड़ कर सत्येंद्र बरनाला के यहां चला गया. कुछ दिन सत्येंद्र के साथ काम करने के बाद जीवा को लगने लगा कि वह दूसरों के लिए काम करने के बजाय अपना काम क्यों न करे. फिर उस ने कुछ बदमाशों को इकट्ठा कर के अपना गैंग बना लिया. क्योंकि अब तक वह इतना सक्षम हो चुका था कि अपना स्वतंत्र गैंग चला सकता था.

90 के दशक में जब जीवा उभर रहा था, उस समय उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ेबड़े डौन जैसे मुख्तार अंसारी, बृजेश सिंह, मुन्ना बजरंगी, भोला जाट, बदन सिंह बद्दो आदि जुर्म की दुनिया के बादशाह थे. जीवा मुजफ्फरनगर का रहने वाला था, साथ में उत्तराखंड था. ये सभी डौन जुर्म की दुनिया में नाम कमा रहे थे, भले ही गलत तरीके से नाम कमा रहे थे. लेकिन प्रदेश का हर कोई इन के नाम से परिचित था. हर कोई इन के नाम से खौफ खाता था.

भाजपा नेता की हत्या में आया जीवा का नाम

उसी बीच 10 फरवरी, 1997 को बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या हो गई. ब्रह्मदत्त द्विवेदी भाजपा के राज्य के एक कद्दावर नेता थे. उन के कद का इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन के अंतिम संस्कार में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता आए थे. ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या का आरोप मुख्तार अंसारी के साथ संजीव जीवा पर भी लगा था.

इस के बाद तो उत्तर प्रदेश का लगभग हर डौन यही चाहने लगा कि शार्पशूटर संजीव जीवा उस के साथ आ जाए. क्योंकि उन सब का यही सोचना था कि जो आदमी इतने बड़े नेता की हत्या कर सकता है, उस से कोई भी काम कराया जा सकता है. सभी ने जीवा को अपनेअपने गैंग में शामिल होने का न्यौता दिया. जबकि जीवा को सब से ज्यादा कोई पसंद था तो वह था मुन्ना बजरंगी. जीवा मुन्ना बजरंगी का फैन था और मुन्ना बजरंगी मुख्तार अंसारी का आदमी था.

जीवा को जब लोगों के औफर मिले तो उस ने मुन्ना बजरंगी को चुना. क्योंकि मुन्ना बजरंगी का काम करने का तरीका उसे बहुत पसंद था. उस समय मुन्ना बजरंगी जेल में था. वह मुन्ना बजरंगी से मिलने जेल गया और उस से अपनी मंशा बताई तो जीवा जैसा हिम्मत वाला साथी पा कर मुन्ना बजरंगी को खुशी ही हुई.

मुन्ना बजरंगी भले जेल में था, लेकिन उस के जुर्म का कारोबार तो चल रहा ही रहा था. अब उस का जुर्म का कारोबार जीवा भी देखने लगा. चूंकि मुन्ना बजरंगी मुख्तार का आदमी था, इसलिए जीवा मुन्ना की बदौलत मुख्तार तक पहुंच गया और अब वह मुख्तार अंसारी के लिए काम करने लगा.

इसी बीच भाजपा के एक और नेता कृष्णानंद राय की गोली मार कर हत्या कर दी गई. कहते हैं उन्हें 4 सौ गोलियां मारी गई थीं. कृष्णानंद राय की हत्या में मुख्तार अंसारी के साथ संजीव जीवा का भी नाम आया था. इस तरह ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या के बाद संजीव जीवा का एक और नेता की हत्या में नाम आया.

गिरफ्तारी भी हुई और मुकदमा भी चला. ब्रह्मदत्त की हत्या वाले मामले में मुख्तार को तो सजा हो गई, पर संजीव जीवा बरी हो गया. जबकि पुलिस सूत्रों की मानें तो कृष्णानंद राय की हत्या में जिन हथियारों का उपयोग किया गया था, वह संजीव जीवा ने ही उपलब्ध कराए थे.

यूपी और उत्तराखंड में बढ़ गया जीवा का रुतबा

अब तक संजीव जीवा का नाम प्रदेश के गिनेचुने बदमाशों में होने लगा था. 2-2 हत्याओं में उस का नाम आ चुका था. उसे उम्रकैद की सजा भी हो चुकी थी. लेकिन मुख्तार का करीबी होने के कारण वह अकसर जमानत पर या पैरोल पर बाहर आ जाता था. अब तक जीवा का अपराध का कारोबार मुजफ्फरनगर के अलावा गाजियाबाद, दिल्ली और मेरठ तक फैल गया था. बड़ेबड़े लोग इलाके में अपना रुतबा बनाने के लिए उसे अपने यहां बुलाने लगे थे.

ऐसे में वह गाजियाबाद में किसी शादी में गया था तो वहां उस की नजर पायल शर्मा नाम की एक लडक़ी पर पड़ी तो उस से उसे प्यार हो गया. बाद में पायल से शादी कर ली.

संजीव जीवा : डाक्टरी सीखते सीखते बना गैंगस्टर – भाग 1

7 जून, 2023 की शाम 4 बजे उत्तर प्रदेश के टौपमोस्ट अपराधियों में 13वें नंबर के अपराधी संजीव माहेश्वरी उर्फ संजीव जीवा की लखनऊ के वजीरगंज स्थित इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में विशेष न्यायाधीश नरेंद्र कुमार तृतीय एससी/एसटी ऐक्ट कोर्ट में हत्या के एक मामले की पेशी थी.

वैसे उसे हत्या के 2 मामलों में उम्रकैद की सजा मिल चुकी थी. पर हमारे यहां का कानून कहता है कि जितने भी मुकदमे चल रहे हैं, उन का निपटारा तो होना ही चाहिए. इसलिए संजीव जीवा को लखनऊ की अदालत में चल रहे मुकदमे की पेशी के लिए भारी पुलिस सुरक्षा में लाया गया था.

पुकार होने पर शाम के 4 बजे जैसे ही जीवा कोर्टरूम में दाखिल होने के लिए दरवाजे के पास पहुंचा, तभी काला कोट पहने एक आदमी उस के पीछे से आया और कोट के अंदर से रिवौल्वर निकाल कर संजीव पर पीछे से गोली चला दी. उस ने वकीलों और पुलिस वालों के सामने ही अपने रिवौल्वर की सारी गोलियां संजीव के शरीर में उतार दीं. संयोग से उस समय जज साहब कोर्ट में नहीं थे.

गोली चलते ही कोर्टरूम के अंदर और बाहर अफरातफरी मच गई. संजीव के साथ आए पुलिस वालों में कुछ तो स्तब्ध खड़े रह गए तो कुछ जान पर खतरा देख कर बाहर की ओर भागे. गोली लगते ही संजीव लडख़ड़ा कर दरवाजे के पास ही जमीन पर गिर गया. बाद में पता चला कि उस की मौत हो चुकी है, क्योंकि उसे अस्पताल ले जाने की कोशिश नहीं की गई.

वकीलों का तो यह भी कहना है कि पुलिस उस के मरने का इंतजार करती रही, इसलिए एंबुलेंस तक नहीं बुलाई गई. इस हमले में एक महिला, कुछ अन्य लोग और एक बच्ची भी घायल हो गई थी. उस की हत्या करने वाला युवक अपना काम कर के भागना चाहता था. पर वह भाग पाता, उस के पहले ही कोर्टरूम में मौजूद वकीलों ने उसे दबोच लिया और लातघूंसों से उस की पिटाई शुरू कर दी. बाद में पुलिस ने किसी तरह हत्यारे को मार रहे लोगों के चंगुल से छुड़ाया और हिरासत में ले लिया. इस तरह संजीव जीवा का हत्यारा पकड़ा गया.

कोर्टरूम में घुस कर हत्या करने वाले हत्यारे के बारे में जानने से पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि कोर्टरूम में जिस की हत्या की गई, वह संजीव माहेश्वरी उर्फ संजीव जीवा कौन था? उस ने ऐसा क्या किया था कि उसे 2 बार उम्रकैद की सजा हुई थी? लखनऊ में उसे किस मामले मे एमपी-एमएलए अदालत लाया गया था और कोर्टरूम में उस की हत्या क्यों की गई?

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, अब शामली के थाना बाबरी के गांव आदमपुर में संजीव जीवा का जन्म हुआ था. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए वह पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम नौकरी भी करता था. जीवा पढ़लिख डाक्टर बनना चाहता था. पर परिवार की हालत ठीक न होने के कारण उस का यह सपना पूरा होना मुश्किल लग रहा था.

डाक्टरी सीखतेसीखते बना बदमाश

संजीव जीवा मुजफ्फरनगर में जहां पार्टटाइम नौकरी करता था, वहीं पड़ोस में एक डा. राधेश्याम का शंकर दवाखाना था. जीवा को लगा कि वह पढ़लिख कर डाक्टर तो बन नहीं सकता, क्यों न डाक्टर के यहां नौकरी कर के ही झोलाछाप डाक्टर बन जाए. डाक्टर के यहां थोड़ीबहुत डाक्टरी सीख कर बाद में ग्रामीण इलाके में जा कर वह अपनी क्लीनिक खोल लेगा, जिस से वह ठीकठाक कमाई कर सकेगा.

जीवा गरीब घर का लडक़ा था. इसलिए उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की चाहत थी. क्योंकि उस ने देखा था कि इस समाज में इज्जत उसी की है, जिस के पास पैसा है. अब तक जीवा की समझ में आ गया था कि वह पैसे की वजह से पढ़ाई नहीं कर सका था. उस ने पढ़ाई छोड़ दी और डाक्टर राधेश्याम के यहां कंपाउंडर की नौकरी कर ली.

डाक्टर के यहां काम करते हुए धीरेधीरे वह दवाएं देना भी सीख ही गया और इंजेक्शन लगाना भी. धीरेधीरे वह डाक्टर के लिए उपयोगी आदमी बन गया था. डाक्टर क्लीनिक चलाने के साथसाथ लोगों को ब्याज पर पैसे भी उधार देता था. पैसे उधार लेने वालों में कुछ तो समय से पैसे वापस कर देते थे तो कुछ लोग ऐसे भी थे, जो लेटलपेट लौटाते थे. कुछ लोग ऐसे भी थे, जो पैसा लौटाने के लिए बहाने पर बहाने बनाते रहते थे.

एक दिन डाक्टर ने ऐसे ही एक आदमी के यहां पैसे लेने के लिए जीवा को भेजते हुए कहा, ‘‘अगर तुम उस से पैसे ले आए तो मैं तुम्हारा वेतन तो बढ़ा ही दूंगा और उचित ईनाम भी दूंगा.’’

संजीव जीवा गया और थोड़ी ही देर में पैसे ला कर डाक्टर की मेज पर रख दिए. डाक्टर ने संजीव जीवा का वेतन तो नहीं बढ़ाया, पर ईनाम के रूप में कुछ रुपए जरूर उसे थमा दिए. डाक्टर खुश हुआ कि उस के फंसे पैसे निकल आए और जीवा भी खुश हुआ कि उसे वेतन के अलावा भी कुछ पैसे मिल गए. इस के बाद तो जहांजहां डाक्टर के पैसे फंसे थे, डाक्टर वसूली के लिए जीवा को भेजने लगा. जीवा जाता और डाक्टर के पैसे ला कर उस की मेज पर रख देता. इस तरह जीवा की कुछ अतिरिक्त कमाई होने लगी.

अब आप सब यही सोच रहे होंगे कि जो पैसा देने वाला डाक्टर नहीं वसूल पा रहा था, जीवा एक ही बार में कैसे वसूल लाता था. यह तो आप सब को भी पता है कि सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता. तो जीवा भी सीधी अंगुली से घी नहीं निकालता था. वह हडक़ा कर, धौंस दे कर डाक्टर के पैसे वसूल लाता था.

संजीव जीवा को पैसे कमाना था. लोगों को डराधमका कर डाक्टर के पैसे वसूलतेवसूलते जीवा की समझ में यह आ गया कि अगर आदमी के पास हिम्मत है तो वह जितना चाहे, उतना पैसा कमा सकता है. लोग बहुत डरपोक हैं, इसलिए किसी को भी डराधमका कर पैसा वसूला जा सकता है.

डाक्टर का ही कर लिया अपहरण

जीवा ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना चाहता था. इसलिए अब वह छोटेमोटे लोगों को डराधमका कर पैसे वसूलने लगा. एक तरह से वह छोटीमोटी रंगदारी वसूलने लगा था. अब उस का काम डाक्टर से मिलने वाली ईनाम की रकम, छोटीमोटी रंगदारी से नहीं चल रहा था. इसलिए उस ने कुछ अलग करने के बारे में सोचा, जिस में ज्यादा से ज्यादा पैसे मिल सकें.

पैसे के लिए ही उस ने अपराध की दुनिया में कदम रखा, क्योंकि उस ने देख लिया था कि गरीब कुछ नहीं कर पाता, यहां तक कि अपने बच्चों को पढ़ा भी नहीं सकता. उसी बीच संजीव जीवा की डाक्टर से पैसे को ले कर कुछ अनबन हो गई तो पैसे के ही लिए संजीव जीवा ने उसी डाक्टर का अपहरण कर लिया, जिस के यहां नौकरी करता था.

डाक्टर को छोडऩे के एवज में उस ने जो रकम मांगी, वह उसे आराम से मिल भी गई. इस तरह उसे पैसे कमाने का एक और जरिया मिल गया. उस ने 2-4 छोटेमोटे बदमाशों का अपना एक गैंग बना लिया और छोटेमोटे लोगों का अपहरण कर फिरौती वसूलना, रंगदारी वसूलने और जमीनों पर कब्जा करने का धंधा शुरू कर दिया. वह कुख्यात बदमाश बन गया.

इस तरह उस के पास कुछ पैसा आया तो उस ने हथियारों की व्यवस्था की और अपनी गैंग की मदद से कोलकाता के एक बड़े बिजनैसमैन के बेटे का अपहरण कर लिया.

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर – भाग 5

दिल्ली सीपी शूटआउट 10 पुलिस वाले दोषी

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के बहुचर्चित कनाट प्लेस (सीपी) शूटआउट मामले में तत्कालीन एसीपी के एस.एस. राठी समेत 10 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया. घटना 31 मार्च, 1997 की है. सीपी में 2 बिजनेसमैन को यूपी का गैंगस्टर यासीन समझ लिया गया था. जिस पर उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. उस का एनकाउंटर कर दिया गया था. जांच होने पर पुलिस ने कहा था कि पहचान में गलती हो गई थी. बिजनेसमैन को उन्होंने जानबूझ कर नहीं मारा, बल्कि यासीन का पीछा करते हुए गलती से वारदात हुई. निचली अदालत ने सभी को बरी कर दिया था, लेकिन हाई कोर्ट ने 2009 में सभी दोषियों की उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा था.

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लाखन भैया एनकाउंटर, 13 पुलिसकर्मी दोषी

मुंबई के लाखन भैया फेक एनकाउंटर मामले में सेशन कोर्ट ने 13 पुलिसकर्मियों समेत 21 लोगों को दोषी करार दिया था और उम्रकैद की सजा सुनाई थी. पुलिस ने दावा किया था कि 11 सितंबर, 2006 को उन्होंने अंधेरी इलाके में उस के द्वारा लाखन भैया (बदमाश) को मार गिराया था.

लाखन के भाई ने दावा किया था कि उसे अगवा कर फरजी एनकाउंटर की कहानी पुलिस ने गढ़ी और पुलिस कमिश्नर को भेजे गए फैक्स और टेलीग्राम सबूत के तौर पर पेश कर दिए. सेशन कोर्ट ने मामले में 21 लोगों को दोषी करार दिया और 13 पुलिसकर्मी समेत अन्य को उम्रकैद की सजा सुना दी थी.

पीलीभीत एनकाउंटर, सिख युवकों की हत्या पर सवाल

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी के पीलीभीत में 11 सिख युवकों को फरजी एनकाउंटर में मारने के आरोपी पुलिसकर्मियों को गैरइरादतन हत्या के मामले में दोषी ठहराया. इस में कुल 43 पुलिसकर्मियों को कोर्ट ने 7-7 साल कैद की सजा सुनाई थी. घटना 12 जुलाई, 1991 की है. पुलिस का कहना था कि लडक़े आतंकी थे, लेकिन मामले की छानबीन सीबीआई ने की और एनकाउंटर को फरजी ठहराया.

एनकाउंटर के दिशानिर्देश

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एनकाउंटर के संबंध में 2014 में एक दिशानिर्देश जारी किया जारी किया गया. उस के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं-

  1. यदि जांच में यह पता चलता है कि किसी पुलिस अफसर के खिलाफ भादंवि के तहत मामला बनता है तो उसे तुरंत सस्पेंड कर अनुशासनात्मक काररवाई शुरू की जानी चाहिए.
  2. जब भी पुलिस को आपराधिक गतिविधि के बारे में गुप्त जानकारी मिले तो वह सब से पहले डायरी में उस की एंट्री करे. अगर मुठभेड़ में पुलिस की ओर से फायर आर्म का इस्तेमाल किया गया हो और किसी की मौत हो गई हो तो सब से पहले एफआईआर दर्ज किया जाना जरूरी है.
  3. एनकाउंटर की स्वतंत्र जांच कराई जानी चाहिए. सीबीआई या दूसरे थाने की पुलिस द्वारा जांच किया जाए और जांच वरिष्ठ अधिकारी की देखरेख में हो.
  4. पीडि़त के कलर फोटोग्राफ खींचे जाएं. साथ ही मौके से खून, बाल और अन्य चीजों का सैंपल बना कर उसे सुरक्षित किया जाए. गवाह के बयान के साथ ही उस का पूरा पता और टेलीफोन नंबर लिया जाए.
  5. जिला अस्पताल के 2 डाक्टरों से मृतक का पोस्टमार्टम कराया जाए, विडियो रेकौर्डिंग की जाए. घटना में इस्तेमाल हथियार, बुलेट सुरक्षित रखे जाएं. एफआईआर की कौपी तुरंत कोर्ट भेजी जाए.

सरकारी टेंडरों ने बनाए कई गैंगस्टर्स

देश की राजनीतिक दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर और गैंगवार की कहानी जितनी पुरानी है, उतनी ही उस से सामाजिक, राजनीतिक दशा को प्रभावित करने वाली भी रही है. इस का मुख्य कारण प्रदेश में 4 लाख करोड़ के सरकारी ठेके से होने वाली बड़ी कमाई है. उन पर गैंगस्टर कब्जा करने के चक्कर में आपस में भिड़ जाते हैं तो कभी वे पुलिस एनकाउंटर के शिकार हो जाते हैं.

बाहुबली, दबंग, दबंगई और रंगदारी. माफिया, डौन, शूटर आदि नामों से कुख्यात गैंगस्टर की शब्दावलियां 70 के दशक से चर्चा में आने लगी थीं. वे सरकारी महकमे को अपनी दबंगई से कुचलने के अलावा राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करते हैं और सामाजिक रुतबा हासिल कर जनता के दिलोदिमाग पर भी राज करने लगते हैं.

शहर की सडक़ों पर दिनदहाड़े गुंडागर्दी से ले कर मर्डर तक की घटनाएं गैंगस्टर के बीच उत्तराधिकार हासिल करने के लिए होती हैं, जो उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में काफी देखने को मिलती हैं. गलीमोहल्ले, खेतखलिहान से ले कर कोर्टकचहरी और भरी जनसभा आदि तक में गैंगस्टर, शूटर की हजारों वारदातें पुलिस फाइलों में दर्ज हैं. इन में ज्यादातर पैसा कमाने, पद पाने, रौबरुतबा कायम रखने और बदला लेने से संबंधित होते हैं. उन में कहीं गरीबी की कहानियां शामिल होती हैं तो कुछ मामलों में परिवार पर अत्याचार और अन्याय के चलते खूनखराबे की वारदातें हैं.

गैंगस्टर बनने की मुख्य वजहें प्रदेश में सरकारी ठेके और जमीनजायदाद पर कब्जा है. जमीन सेटलमेंट की जब बात आती है, तब गैंगस्टर सरकारी सिस्टम पर अपनी धाक बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करते हैं. इस बीच जो भी आड़े आता है, उसे किसी भी कीमत पर हटा देते हैं. प्रदेश में विकास के लिए सरकारी ठेके को हासिल करना उन की पहली प्राथमिकता रहती है. जिन के पास जितने ज्यादा ठेके होते हैं, वह उतना बड़ा गैंगस्टर कहलाता है.

सडक़ बनाने से ले कर बालू निकालने तक या मछली पालने से ले कर रेलवे स्क्रैप तक, हर काम के लिए सरकारी ठेका जारी होता है. वह अनुमानित तौर पर सालाना 4 लाख करोड़ के होते हैं. देश में 2020- 21 में सरकारों ने कुल 17 लाख करोड़ रुपए से अधिक के काम के लिए ई टेंडर जारी किए थे. जिन में 22 फीसदी से ज्यादा उत्तर प्रदेश में थे. यूपी के लिए 3.83 लाख करोड़ रुपए.

यही सारे ठेके बाहुबली की ताकत तय करते हैं, जो उन की मरजी से खुलते हैं. हर बाहुबली या कहें माफिया डौन चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा सरकारी ठेके उसे और उस के चहेतों को मिलें. सरकारी ठेके को हासिल करने के लिए बाहुबलियों की दावेदारी बनी रहती थी. उन के दबदबे के आगे सरकारी दफ्तर के कर्मचारी नतमस्तक हो जाते थे. कुछ भय से तो कुछ बदले में भ्रष्टाचार की रकम ले कर.

इन दिनों वही ठेके औनलाइन तो हो गए, मगर सरकारें इन को अपराधियों और गैंगस्टर्स से मुक्त नहीं कर पाईं. उल्लेखनीय है कि विकास के लिए देश में किया जाने वाला हर काम केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा निजी कंपनियों को ठेका दे कर किया जाता है. चाहे जैसा भी काम छोटा या बड़ा हो, उस के लिए उस क्षेत्र से संबंधित कंपनियों से टेंडर आमंत्रित किए जाते हैं.

कंपनियां अपने हिसाब से उस काम की लागत, पूरा करने का समय और बाकी ब्यौरा टेंडर में देती हैं. संबंधित विभाग सभी टेंडर्स की जांच करता है और तय नियमों पर जिस कंपनी का टेंडर सब से खरा उतरता है, उसे ठेका दे दिया जाता है. आजादी के पहले से सरकारी निर्माण से ले कर खनन के सारे काम ठेके पर होते आए हैं.

आज भी हर तरह की सरकारी खरीद, खनन और निर्माण ठेके पर ही होते हैं. ये ठेके किसे दिए जाएंगे और कैसे दिए जाएंगे, ये पूरी प्रक्रिया शुरू से ही भ्रष्टाचार के घेरे में रही है. कभी मंत्रियों के प्रभाव, कभी अफसरों की मिलीभगत और कभी बंदूक के जोर पर ठेकों का फैसला होता रहा है.

90 के दशक से सरकार ने ज्यादातर ठेके ई टेंडर के जरिए देने शुरू कर दिए. इस के लिए सरकार ने औनलाइन प्रोक्योरमेंट पोर्टल बनाया है. इन में ई टेंडर्स होते हैं, जिन में सब से बड़ी हिस्सेदारी उत्तर प्रदेश की रहती है. टेंडर की पूरी प्रक्रिया में अपराधियों की दखलंदाजी बनी रहती है. बाहुबलियों का मानना है कि एक बार ठेका हाथ में आने के बाद सरकारी खजाने से पैसे पर कब्जा करना आसान हो जाएगा. इस पर वे नाममात्र का खर्च करते हैं. यह कहें कि 95 प्रतिशत पैसा हड़प लेते हैं.

पहले चुनाव में बाहुबल के इस्तेमाल के बदले अपराधियों को नेता ईनाम के तौर पर सरकारी ठेके दिलवाते थे. सरकारी ठेकों से होने वाली कमाई का हिस्सा उन्हें भी मिलता था. बाद में वही बाहुबली खुद राजनेता बनने लगे. उन्होंने इसे आय का मुख्य जरिया बना लिया. उत्तर प्रदेश में एक दौर ऐसा भी आया था, जब ठेकेदार और अपराधी एकदूसरे के पर्याय बन गए. उन्होंने ठेकों के हिसाब से खुद के या अपने करीबियों के नाम पर कंपनियां बना लीं. सरकारी दफ्तरों में मिलीभगत बढ़ा ली, ताकि पहले से टेंडर के जारी होने से ले कर उस के लिए जरूरी शर्तों की जानकारी हासिल करते रहें.

फिर शुरू हो जाता है बाकी कंपनियों को डराधमका कर टेंडर भरने से रोकना. इस क्रम में बाहुबली टेंडर खुलने के समय दबंगई से अधिकारियों को धमका कर अपनी ही कंपनी के नाम पर टेंडर खुलवाने का दबाव बनाते हैं. माना गया था कि ई टेंडर से ठेकों पर अपराधियों का प्रभाव कम हो जाएगा और वह अच्छी तरह से व्यवस्थित हो जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ भी होता नहीं दिख रहा है.

पहले टेंडर भरने के लिए सरकारी दफ्तर में लोग जाते थे. उन्हें रोकने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे. खूनखराबा होता था. अब ऐसा नहीं होता है. वे कहीं से भी उसे औनलाइन भर लेते हैं, जिस में उन की मदद सरकारी दफ्तर वाले करते हैं. किंतु बाहुबलियों का सामना फील्ड में तब होता है, जब किसी का टेंडर पास हो जाता है.

अपराधी यहीं इंतजार करते और आने वाले कंपनियों के प्रतिनिधियों का अपहरण, मारपीट और फिरौती के तौर पर ठेके की रकम का कुछ परसेंटेज लेना शुरू कर देते हैं.

बाहुबलियों के आतंक का यह बदला हुआ रूप है. उन का आतंक अब इस बात पर निर्भर करता है कि कौन अपने इलाके में अपनी कंपनी का औनलाइन टेंडर भरवाने और हासिल करने में सफल होते हैं. या फिर टेंडर भरने वाली हर कंपनी को भी यह मालूम है कि काम मिलने की स्थिति में उन्हें बाहुबली को चुपचाप उस का परसेंटेज देना होगा.

हैरान कर देने वाली बात यह है आज यूपी में सख्त फैसला लेने वाले जिस सीएम योगी की चर्चा होती है, 1970 के दशक में उन के शहर गोरखपुर में ही ठेके को ले कर फैसले लिए जाते थे. वहीं जमीन विवाद सुलझाने से ले कर ठेके तक की चर्चा होती थी. उन्हें नेताओं का संरक्षण मिला हुआ था. जिस वजह से स्थानीय पुलिस और प्रशासन चुप रहता था. यह तब की बात है जब पूरा देश जेपी आंदोलन में युवा सक्रिय थे.

इस दौर में राजनेताओं को युवाओं की ताकत का अहसास हुआ था. विश्वविद्यालयों में राजनीति की शुरुआत हो गई थी. गोरखपुर विश्वविद्यालय की राजनीति में जाति का प्रभाव अधिक होने के कारण ब्राह्मण और ठाकुर के खेमे आमनेसामने बने रहते थे. उस दौर में ब्राह्मण खेमे के अगुआ हरिशंकर तिवारी और ठाकुर खेमे के नेता रविंद्र सिंह होते थे. उन्हें केंद्र में बैठे नेताओं की शह मिली हुई थी.

हरिशंकर तिवारी खुद को ब्राह्मणों का नेता कहते थे. जबकि रविंद्र सिंह जनता पार्टी के टिकट पर 1978 में विधायक बन गए थे. उन की कुछ ही समय बाद ही 35 वर्ष की उम्र में हत्या हो गई थी. उस दौर में केंद्र में रेल मंत्री अकसर उत्तर प्रदेश से ही होते थे. इन नेताओं ने अपने चहेते छात्रनेताओं को ईनाम के तौर पर रेलवे स्क्रैप के ठेके दिलाना शुरू कर दिया था. ये रेलवे स्क्रैप के ठेके धीरेधीरे बाहुबलियों के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गए थे.

गोरखपुर और आसपास के इलाके में 1970 से 80 के दशक में गैंगवार रोज की बात हो गई थी. रविंद्र सिंह के हत्यारों में गाजीपुर के एक तिवारी का नाम आया था. इस के बाद गोरखपुर में ब्राह्मण और ठाकुर गैंग बिलकुल आमनेसामने आ गए. ठाकुरों ने वीरेंद्र प्रताप शाही को नेता बना लिया था.

1980 के दशक की बात है, जब वीरेंद्र प्रताप शाही चुनाव प्रचार पर निकले थे. बताते हैं कि इस दौरान वह खुली जीप पर जिंदा शेर ले कर चलते थे. उन का चुनाव चिह्न भी शेर ही था. रविंद्र सिंह के खास रहे वीरेंद्र प्रताप शाही को ठाकुर खेमे ने अपना नेता मान लिया था. उन्हें ‘शेर-ए-पूर्वांचल’तक कहा जाता था. उस दौर में आए दिन सडक़ों पर गोलियां और बम चलते थे. इन गैंगवारों की वजह से ही गोरखपुर का नाम पूरी दुनिया में फैल रहा था. उस दौर में बीबीसी रेडियो पर भी गोरखपुर के इन खूनी किस्सों का प्रसारण होता था.

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर – भाग 4

अतीक और अशरफ को जबजब थाने से बाहर दबिश या मैडिकल के लिए ले जाया गया, उस की आंखों में अजीब सा खौफ नजर आता था. जबजब थाने से अस्पताल और अस्पताल से थाने लाने के दौरान दोनों भाई एकदूसरे को सहारा दे कर पुलिस वैन से बाहर निकलते थे. अकसर अतीक पुलिस वालों का कंधा पकड़ कर पुलिस वैन से उतरता था.

योगी सरकार ने अतीक अहमद और उस के रिश्तेदारों की संपत्तियों पर बुलडोजर चला कर उस की आर्थिक रीढ़ को एक तरह से तहसनहस कर दिया था. इस से कट्ïटरपंथी जरूर खुश हो रहे थे, लेकिन आम लोगों की नजरों में बदले की राजनीति ही माना जा रहा था. लोगों का कहना है कि योगी को बुलडोजर ईमानदारी से प्रदेश के उन सभी माफिया, गैंगस्टरों की उन संपत्तियों पर भी चलाया जाना चाहिए, जो उन्ळोंने गलत धंधों से अर्जित कर रखी है. चाहे वह माफिया, गैंगस्टर किसी भी धर्म, जाति या राजनीति पार्टी के हों.

अतीक अहमद की लाइव हत्या करने के बाद भले ही उस के आतंक का खात्मा हो गया हो, लेकिन क्या  एनकाउंटर करने में वाहवाही लूटने वाली यूपी पुलिस उस के हत्यारों को कठोर सजा दिलवाने की पहल करेगी?

अतीक की बीवी भी है ईनामी गैंगस्टर

शाइस्ता परवीन डौन अतीक अहमद की बीवी का आतंक भी कुछ कम नहीं रहा है, उस पर भी 50 हजार रुपए का ईनाम है. वह पुलिस को चकमा देती रही है, जबकि पूरी यूपी पुलिस और एसटीएफ लगातार उस के पीछे लगी है.

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अतीक के जेल जाने के बाद शाइस्ता परवीन अपने पति के जुर्म की दुनिया को संभालने लगी थी. जिस वजह से लोग उसे भी लेडी डौन कहने लगे. बताते हैं कि किस तरह के काम के लिए क्या फैसला लेना है, क्या कदम उठाने हैं, जैसे- रंगदारी वसूलने के मामले में क्या रकम मांगनी है? उसे कैसे धमकी देनी है? फिरौती की रकम क्या रखनी है? किस सहयोगी को कहां फिट करना है? आदि बातें शाइस्ता ही तय करती है.

शाइस्ता का अतीक के साथ अगस्त 1996 में निकाह हुआ था. उन दिनों उस के पिता यूपी पुलिस में सिपाही हुआ करते थे. शाइस्ता पुलिस को चकमा देने में माहिर बताई जाती है. उस का बचपन पुलिस थाने और चौकियों में ही बीता है. उस के पिता का नाम फारुख है. वो पुलिस विभाग में सिपाही थे. थाना परिसर में ही उस का परिवार रहता था. बचपन में ही उस ने देखा था कि कैसे पुलिस किसी का पीछा करती है. कैसे कोई पुलिस को चकमा देता है. उसे ये सब कुछ बचपन में ही देखने को मिल चुका था. और निकाह के बाद उस की जिंदगी में जुर्म की नींव रखी शौहर अतीक अहमद ने.

शाइस्ता परवीन अपने मांबाप के साथ इलाहाबाद यानी प्रयागराज के दामुपुर गांव में रहती थी. पिता के साथ कई थानों में बने सरकारी पुलिस क्वार्टर में रही थी. शाइस्ता का बचपन और उस के बाद के कई साल प्रतापगढ़ में बीता था. वह 4 बहनें और 2 भाइयों में सब से बड़ी है. 2 भाइयों में से एक मदरसे में प्रिंसिपल है. शाइस्ता की पढ़ाईलिखाई प्रयागराज में हुई है. उस ने ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई की है.

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1996 में जब अतीक अहमद का राजनीति से ले कर जुर्म की दुनिया में बड़ा नाम हो चुका था, तब उस से शाइस्ता का परिवार रिश्ता ले कर गया था. दोनों के परिवारों में पहले से जानपहचान थी. शाइस्ता बोलने में तेजतर्रार और अतीक अहमद से ज्यादा पढ़ीलिखी थी, इसलिए उस ने भी रिश्ता मंजूर कर लिया. अगस्त 1996 में दोनों की शादी हो गई थी. अतीक और शाइस्ता के कुल 5 बच्चे हैं. इन में से असद की मौत हो चुकी है. उस के बेटों के नाम अली, उमर अहमद, असद, अहजान और अबान हैं.

इसी साल जनवरी 2023 में शाइस्ता ने बसपा जौइन की थी. मीडिया रिपोर्ट में दावा है कि प्रयागराज में मेयर चुनाव के दौरान शाइस्ता को टिकट देने की बात सामने आई थी. लेकिन 24 फरवरी को उमेशपाल की हत्या में अतीक का नाम आने के बाद से मामला बिगडऩे लगा था. अब शाइस्ता खुद फरार हो गई. उस पर ईनाम घोषित हो गया. अतीक की हत्या के बाद अब बसपा ने शाइस्ता का नाम मेयर प्रत्याशी से हटा दिया.

हर एनकाउंटर पर लगते हैं आरोप

शायद ही कोई पुलिस एनकाउंटर ऐसा हो, जिस पर किसी ने अंगुली नहीं उठाई हो. कुछ एनकाउंटर तो इतने विवादित हो चुके हैं कि वह अदालत तक जा पहुंचे. एक नजर ऐसे ही विवादित और न्यायिक जांच के दायरे में आए एकाउंटर पर डालें, जिस की चर्चा भी बहस का मुद्ïदा बनती रही है. सवालों के दायरे में आए ऐसे एनकाउंटर की असलियत को समझना तब काफी मुश्किल हो जाता है, जब वह न्याय के तराजू पर गलत होते हैं, लेकिन उसे व्यापक जनसमर्थन भी मिल रहा होता है.

ऐसा ही कुछ अतीक अहमद के बेटे असद और शूटर गुलाम के एनकाउंटर को ले कर हुआ. उस के मारे जाने पर पुलिस को  सरकार की तरफ से शाबासी मिली, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस मुठभेड़ की जांच करवाने की मांग कर दी. देश में एनकाउंटर का इतिहास रहा है, जिस में कई मामलों की न्यायिक समीक्षा की गई. उस के बाद अदालती फैसले ने सब को चौंका दिया. साथ ही अदालत ने कुछ दिशानिर्देश भी बना दिए.

हैदराबाद में रेप मर्डर के आरोपी

हैदराबाद के रेप मर्डर एनकाउंटर का मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा था. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जांच कमीशन बनाए थे. रिटायर्ड जज वी. एस. सिरपुरकर की अगुवाई वाले कमीशन की रिपोर्ट में 20 मई, 2022 को राज्य पुलिस के दावे को खारिज करते हुए पुलिस की कहानी को मनगढ़ंत करार दिया था. कमीशन का कहना था कि पुलिसकर्मियों ने मिल कर आरोपियों को मारने के इरादे से फायरिंग की थी.

जांच कमीशन की रिपोर्ट में सभी 10 पुलिसकर्मियों पर नीयत से हत्या का मुकदमा चलाने की सिफारिश की गई थी.  रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस ने मनगढ़ंत कहानी बनाई कि आरोपियों ने पुलिस की पिस्टल छीनी और फायरिंग की थी और सेल्फ डिफेंस में उन्होंने फायरिंग की.

यह मामला 2019 तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार का था. घटना हैदराबाद के शम्साबाद में 27 नवंबर 2019 को हुई थी, जिस में एक 26 वर्षीय डाक्टर के साथ बलात्कार किया गया था, जिस का आंशिक रूप से जला हुआ शव 28 नवंबर 2019 को शादनगर में चटनपल्ली पुल के नीचे पाया गया था.

विकास दुबे के एनकाउंटर में क्लीन चिट

यूपी पुलिस को विकास दुबे एनकाउंटर मामले में सुप्रीम कोर्ट की कमिटी से राहत मिल गई थी. इस की जानकारी 22 जुलाई, 2021 को यूपी के एडीजी (कानून-व्यवस्था) ने दी थी. कोर्ट ने आयोग की रिपोर्ट वेबसाइट पर अपलोड करने की अनुमति देने के साथ ही राज्य को आयोग की सिफारिश का पालन करने के निर्देश भी दिए. रिपोर्ट के अनुसार यूपी पुलिस के एनकाउंटर की ऐक्शन में कोई गड़बड़ी नहीं मिली थी. यह जांच आयोग सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस बी.एस. चौहान की अगुआई में गठित किया था. एनकाउंटर का मामला 10 जुलाई, 2020 का था. विकास दूबे यूपी पुलिस के एनकाउंटर में मारा गया था.

एमबीए स्टूडेंट का एनकाउंटर फरजी

2 जुलाई को गाजियाबाद में शालीमार गार्डन में रहने वाला रणबीर सिंह दोस्त के साथ इंटरव्यू देने देहरादून गया था. किसी बात पर पुलिसकर्मी से उस की कहासुनी हो गई और इस के बाद पास के जंगल में ले जा कर पुलिस ने एनकाउंटर में मार डाला. पुलिस ने दावा किया कि उस ने बदमाश का एनकाउंटर किया है और पिस्टल की बरामदगी दिखाई. मृतक के पिता ने सीबीआई जांच की मांग की थी.

यह मामला मामला सीबीआई के पास गया और फिर इसे उत्तराखंड से दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया. निचली अदालत ने 17 पुलिसकर्मियों को हत्या का दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी थी. फिर हाई कोर्ट से 10 को बरी कर 7 को दोषी करार दिया गया था. मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर – भाग 3

सियासत में वर्चस्व की सनक

बात 25 जनवरी, 2005 की है. इलाहाबाद शहर पश्चिमी के बसपा विधायक राजू पाल 2 गाडिय़ों क्वालिस और स्कौर्पियो के काफिले के साथ एसआरएन हौस्पिटल से वापस अपने घर नीवा लौट रहे थे. क्वालिस गाड़ी वह खुद ड्राइव कर रहे थे. रास्ते में उन के दोस्त सादिक की पत्नी रुखसाना मिली. पाल ने उन्हें अपने गाड़ी की आगे वाली सीट पर बैठा लिया. पीछे वाली सीट पर संदीप यादव और देवीलाल बैठे थे. दूसरी गाड़ी स्कौर्पियो पीछे चल रही थी. उस में 4 लोग बैठे थे.

दोनों गाडिय़ों का काफिला जैसे ही सुलेमसराय के जीटी रोड पर आया और कुछ दूर तक गया ही था कि तभी बगल से तेज रफ्तार से आई मारुति वैन पाल की गाड़ी को ओवरटेक करते हुए एकदम सामने आ कर खड़ी हो गई. अचानक हुई इस घटना से राजू पाल की गाड़ी सडक़ किनारे बांसबल्ली की दुकान से जा भिड़ी.

सामने खड़ी मारुति वैन से 5 लोग धड़ाधड़ उतरे और पाल की गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. उन में 3 ने पाल की गाड़ी को घेर कर फायरिंग शुरू कर दी, जबकि 2 काफिले की दूसरी गाड़ी पर फायरिंग करने लगे. उन्होंने किसी को भी गाड़ी से बाहर निकलने का मौका नहीं दिया.

इस ताबड़तोड़ फायरिंग में राजू पाल की मौत हो गई. राजू पाल हत्याकांड की जांच हुई, जिस में अतीक अहमद का नाम आया. वह इस मामले में मुख्य आरोपी के रूप में नामित और गिरफ्तार किया गया था, लेकिन बाद में उसे जमानत मिल गई थी. बताते हैं कि वह जेल के अंदर से भी अंडरवल्र्ड में अपनी सत्ता बनाए रखने में सक्षम था.

पाल की हत्या का आरोपी होने के बावजूद सपा में उस की अहमियत बनी रही. उसी साल 2005 में उपचुनाव हुआ, जिस में बसपा ने राजू पाल की विधवा पूजा पाल को चुनाव मैदान उतार दिया. वह 9 दिनों में ही विधवा हो गई थी. जबकि सपा की तरफ से अशरफ अहमद को दोबारा टिकट मिल गया. इस बार अशरफ चुनाव जीत गया.

साल 2005 में राजू पाल की हत्या से पहले अतीक पर साल 1989 में चांद बाबा, साल 2002 में नस्सन, साल 2004 में मुरली मनोहर जोशी के करीबी बताए जाने वाले भाजपा नेता अशरफ की हत्याओं के आरोप लग चुके थे. अतीक के बारे में यह कहा जाने लगा कि जो भी उस के खिलाफ सिर उठाने की कोशिश करता, उस की हत्या करवा दी जाती थी.

प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में मायावती के सत्ता में आने के बाद अतीक के खिलाफ कानून का दबाव बनने लगा था. उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया और 2008 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अतीक का छोटा भाई अशरफ भी लगातार उस के अपराधों में साझीदार बना रहता था. किसी भी बड़ी घटना में अतीक के साथ अशरफ का नाम जरूर जुड़ जाता था. उन के खिलाफ सुर्खियों में आया सब से बड़ा मामला राजू पाल हत्याकांड का था.

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इस हत्याकांड को अशरफ ने ही पूरी तरह से अंजाम दिया था. 14 दिसंबर, 2016 को सैम हिगिनबौटम यूनिवर्सिटी औफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलौजी एंड साइंसेज के स्टाफ पर अतीक और उन के सहयोगियों द्वारा 2 छात्रों के खिलाफ काररवाई करने के कारण हमला किया गया था. कारण वे नकल करते पकड़े जाने के बाद परीक्षा देने से प्रतिबंधित कर दिए गए थे. अतीक द्वारा संस्थान के शिक्षक और कर्मचारियों की पिटाई का वीडियो इंटरनेट पर वायरल कर दिया था.

इस के चलते अतीक अगले दिन ही गिरफ्तार कर लिया गया. इस के साथ ही 10 फरवरी, 2017 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अतीक के आपराधिक इतिहास को तलब किया और इलाहाबाद के एसपी को मामले के सभी आरोपियों को गिरफ्तार करने का निर्देश दिया. इसी निर्देश का पालन करते हुए पुलिस ने 11 फरवरी को अतीक को गिरफ्तार कर लिया. इस तरह उस के जुर्म की फेहरिस्त बढ़ती चली गई और साल 2019 आतेआते उस पर 101 मुकदमे दर्ज हो गए थे.

2019 में अतीक को उमेश पाल के अपहरण का दोषी ठहराया गया था, जिस ने राजू पाल हत्या मामले में अतीक के खिलाफ गवाही दी थी. 24 फरवरी, 2023 को उमेश पाल की फायङ्क्षरग और बम हमले के दौरान मौत हो गई थी. इस हत्याकांड में अतीक मुख्य संदिग्ध आरोपी था. अतीक के भाई अशरफ, बेटे असद और सहयोगी गुड्ïडू मुसलिम, एक बम निर्माता, जिस ने कथित तौर पर उमेश पाल पर बम फेंका था और पिछले हिंसक अपराधों में शामिल रहा है, सहआरोपी थे.

माफिया परिवार पर आई आफत

बसपा सरकार में अतीक का पूरा परिवार मुसीबत में आ गया था. परिवार का हर सदस्य किसी न किसी मामले का आरोपी बन चुका था. नतीजा यह रहा कि अतीक के 2 बेटे उमर व अली लखनऊ की जेल में थे, जबकि भाई अशरफ बरेली की जेल में बंद था. अतीक अहमद का तीसरा बेटा असद विदेश में कानून की पढ़ाई के लिए जाने वाला था. इस तरह से माफिया के परिवार में मुश्किलें तो थीं, लेकिन हालात बिगड़े नहीं थे.

माफिया परिवार के हालात तब बिगड़ गए, जब साल 2007 में बसपा की सरकार आने के साथ ही अतीक के खिलाफ काररवाई शुरू हो गई थी. 5 जुलाई, 2007 को एडवोकेट उमेश पाल ने अतीक, अशरफ समेत कुल 11 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी थी. सुनवाई के लिए वही कोर्ट में जाता था. उन के खिलाफ मामला तब और चर्चा में आ गया, जब उमेश पाल का ही अपहरण हो गया.

इसी के बाद से अतीक को साबरमती जेल से प्रयागराज लाने का सिलसिला शुरू हो गया था. जब भी अतीक पूरी सुरक्षा के साथ संगीनों के साए में जेल से निकलता था, तब वह मीडिया से बातें करते हुए बारबार यही कहता था कि उस की जान को खतरा है, वे लोग उसे मार डालेंगे. इस क्रम में अतीक को साबरमती से 2 बार बाहर निकाला गया था. तब वह बेहद थका हुआ, लाचार और डरा नजर आया था.

उमेश पाल की हत्या के मामले में एसटीएफ ने फौरी काररवाई करते हुए 3 दिन बाद ही 27 फरवरी को एक आरोपी अरबाज को एनकाउंटर में मार गिराया था. यही नहीं, इस केस में 6 मार्च को दूसरा एनकाउंटर हुआ, जिस में एक और आरोपी उस्मान मुठभेड़ में मारा गया.

उल्लेखनीय है कि उमेश पाल की हत्या के बाद से यूपी पुलिस और एटीएफ की एक दरजन टीमें उस से जुड़े हमलावरों की तलाश में देश के कई हिस्सों में छापेमारी कर रही थीं. इसी सिलसिले में 13 अप्रैल की दोपहर अतीक के बेटे असद व शूटर गुलाम की एसटीएफ से मुठभेड़ हुई और दोनों मारे गए.

यह वारदात मीडिया के लिए जितनी सनसनीखेज बन गई थी, उतनी ही अतीक और अशरफ के लिए दुखद थी. इस घटना से अतीक अंदर से और हिल गया था. जिस दिन बेटा असद मारा गया था, उसी रोज अशरफ व अतीक को पुलिस ने अदालत में पेश किया था. अदालत ने दोनों को 5 दिन की पुलिस रिमांड पर पुलिस वालों के हवाले कर दिया था.

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर – भाग 2

करीब 3-4 दशक पहले किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि सियासत और धंधे में सफलता की सीढिय़ां फांदने वाले अतीक अहमद की दबंगई का जलवा इस कदर मिनटों में मिल जाएगा. 80 के दशक से साल 2006 तक इलाहाबाद (अब प्रयागराज) ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में अतीक अहमद का जबरदस्त जलवा था. उस के काफिले में सैकड़ों कारें और हथियारबंद लोग रहते थे. उस की दबंगई से सभी कांपते थे.

राजनीति में दखल निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर हुई थी और वह 5 बार विधायक और एक बार सांसद बना था. किंतु वक्त के बदलने और सियासत बदलने के साथसाथ अतीक का कद भी कम होता चला गया. बादशाहत की नींव हिल चुकी थी. देखते ही देखते एक समय ऐसा भी आया, जब उन के सितारे गर्दिश में आ गए.

हत्या के समय उस पर उमेश पाल हत्याकांड का मुख्य आरोप था. पुलिस रिमांड पर था. वह धूमनगंज थाने में 14 अप्रैल को अदालत में पेशी के बाद पूछताछ के लिए लाया गया था. अतीक और अशरफ की हत्या के बाद प्रयागराज पुलिस की ओर से धूमनगंज थाने में ही हेडकांस्टेबल राजेश कुमार मौर्य की ओर से एफआईआर दर्ज कराई गई. एफआईआर में उमेश पाल हत्याकांड में नामजद अभियुक्तों के जेल से लाए जाने से ले कर मौत की जानकारी का विवरण दिया गया.

साथ ही 15 अप्रैल को हुई पूरी घटना का विवरण लिखा गया, जो पुलिस के लिए अहम सबूत था. उस से कई और राज खुल सकते थे. यह भी लिखा गया कि 14 अप्रैल को सही तरह से पूछताछ नहीं होने के बाद अगले रोज 15 अप्रैल को भी दोनों अभियुक्तों से विस्तृत पूछताछ की गई. उन की निशानदेही पर 45 और 32 बोर के एकएक पिस्टल, 58 जिंदा कारतूस, विभिन्न बोर के 5 कारतूस (9 एमएम), जो पाकिस्तानी आर्डिनेंस फैक्ट्री के बने थे. दोनों ने पुलिस रिमांड में बताया था कि जेल में रहते हुए उन्होंने उमेश पाल की हत्या के लिए पूरी साजिश रची थी और हथियार दिलाए थे.

एफआईआर में बरामद किए गए हथियार को भारत में प्रतिबंधित बताया गया था. उन का उमेश पाल और सहयोगियों की हत्या के लिए प्रयोग में लाए जाने की बात दर्ज की गई. इस आधार पर 15 अप्रैल को अतीक अहमद और अशरफ के खिलाफ भादंवि की धारा 3/25/27/35 आम्र्स ऐक्ट के तहत केस दर्ज किया गया.

प्रयागराज पुलिस के अनुसार विदेशी हथियार कसारीमसारी की आर्मी कालोनी के पास एक खंडहर बन चुके मकान में छिपाने के लिए फोन पर दोनों ने जेल से ही निर्देश दिए थे. हथियारों की बरामदगी दोनों पर हमले के पहले करीब 7 से 8 बजे के बीच की गई थी. उस बारे में थाने में लिखापढ़ी रात के करीब 10 बजे तक चलती रही.

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अतीक को यूपी की जेलों में मौत का खौफ काफी पहले से सताने लगा था. उसे भय था कि उस की जेल में हत्या की जा सकती है. उत्तर प्रदेश में 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार आ जाने से वह कुछ ज्यादा ही असुरक्षित महसूस करने लगा था. इस का हवाला देते हुए उस ने साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई थी. उस में अदालत से यूपी की जेल में असुरक्षित होने और हत्या किए जाने की आशंका जताते हुए किसी दूसरी जेल में शिफ्ट करने की गुहार की थी. इस आधार पर अदालत ने अप्रैल 2019 में अतीक अहमद को गुजरात की साबरमती जेल में स्थानांतरित भी कर दिया था.

सियासत से सलाखों तक

इलाहाबाद में तांगे चलाने वाले के बेटों अतीक अहमद और अशरफ अहमद के सियासत के सरताज बनने और उन के सलाखों के पीछे पहुंचने की कहानी भी काफी रोमांच से भरी हुई है. उत्तर प्रदेश में राम मंदिर की लहर थी. बावजूद इस के अतीक 1989 में विधानसभा चुनाव में निर्दलीय जीत कर पहुंचे थे. उस चुनाव में मंदिरमसजिद मुद्दे के साथ वह भाजपा पर भारी पड़े थे. उन्होंने भाजपा उम्मीदवार रामचंद्र जायसवाल को 15 हजार से अधिक वोटों के बड़े अंतर से हरा दिया था. अगले विधानसभा चुनाव 1991 में भी वह निर्दलीय ही जीत गए थे.

उस के 2 साल बाद 1993 में हुए चुनाव में उन्होंने फिर भाजपा उम्मीदवार को हरा दिया था. तब वह 9 हजार से अधिक वोटों से जीते थे. उन की इस जीत को ले कर राजनीतिक पार्टियां उन पर चुनाव जीतने के लिए बूथ कैप्चरिंग के आरोप भी लगाती रहीं, लेकिन प्रशासन से इस की शिकायत किसी ने नहीं की. विधानसभा चुनावों में लगातार 3 बार भारी वोटों से जीतने के बाद मुलायम सिंह यादव ने उन्हें मिलने के लिए लखनऊ बुलाया. वह पूरे लावलश्कर और बड़े कफिले के साथ आए.  मुलायम सिंह ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. पहली बार उन के नाम के साथ राजनीतिक पार्टी ‘समाजवादी पार्टी’का नाम जुड़ गया.

चौथी बार उन्हें भारी 35 हजार से अधिक मतों से जीत मिली और वह इलाहाबाद शहर के पश्चिमी सीट से विधायक बन गए थे. इस के कुछ समय बाद ही सपा के साथ मतभेद हो गया और वह सोनेलाल पटेल की पार्टी ‘अपना दल’में शामिल हो गए. 2002 के विधानसभा चुनाव में वे सपा के खिलाफ अपना दल के टिकट पर चुनाव लड़े और 5वीं बार विधायक बन गए. जबकि पार्टी अध्यक्ष सोनेलाल खुद चुनाव हार गए थे. इस जीत ने एक बार फिर सपा को एहसास करवा दिया अतीक को चुनाव जीतने के लिए पार्टी मायने नहीं रखती है. यह देखते हुए मुलायम सिंह ने उसे बुला कर दोबारा पार्टी में शामिल कर लिया.

मुलायम सिंह ने अतीक अहमद पर भरोसा जताया और उसे फूलपुर लोकसभा सीट से प्रत्याशी बना दिया. उन की टक्कर बसपा की केसरी देवी पटेल से हुई. अतीक ने उन्हें हरा कर भी भारी मतों से जीत हासिल कर ली और सांसद बन गए. इस जीत से अतीक का कद और रौब काफी बढ़ गया. साथ ही इलाहाबाद के शहर की पश्चिमी विधानसभा सीट खाली हो गई. वहां 6 माह बाद उपचुनाव हुआ. उस के लिए अतीक ने अपने छोटे भाई अशरफ को सपा से टिकट दिलवा दिया.

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उसी समय कभी अतीक के साथ रहने वाला राजू पाल बसपा में शामिल हो गया था और वह मायावती द्वारा प्रत्याशी बनाया गया था. दोनों के बीच कड़ी टक्कर हुई, जिस में राजू पाल जीत गया. अशरफ 4 हजार वोटों से चुनाव हार गया. यह हार अतीक के दिल में चुभ गई. अतीक धीरेधीरे एक बड़ा नेता तो बन गया, लेकिन उस की माफिया वाली छवि बनी रही. उस की अपराधिक गतिविधियों में और तेजी आ गई. इस कारण उस के ऊपर कई मुकदमे भी दर्ज हो गए. उस की गिनती डौन और दागदार नेता के रूप में होने लगी थी.

वैसे तो अतीक अपराध की दुनिया में 80 के दशक से पहले ही आ चुका था. तब वह इलाहाबाद और उस के पास नैनी में बने बेहद बड़े रेल यार्ड में खड़ी ट्रेनों से कोयला चुरा कर बेच दिया करता था. बाद में वह रेलवे स्क्रैप का सरकारी टेंडर हासिल करने के लिए धमकी देने वाला ठेकेदार बन गया. उस पर पहला आपराधिक रिकार्ड 1979 में इलाहाबाद में दर्ज किया गया. उस पर हत्या का आरोप लगा था. उस के बाद से ही उस ने अपना क्राइम का नेटवर्क बनाने की शुरुआत कर दी थी. अपने शुरुआती दिनों में वह इलाहाबाद में माफिया के दूसरे कुख्यात सदस्यों में चांद बाबा के साथ मिल कर काम किया.

साल 1990 में अपने सब से बड़े प्रतिद्वंद्वी शौकत इलाही के एनकाउंटर के बाद अतीक और भी ताकतवर बन गया. उस के बाद पुलिस की मिलीभगत से जबरन वसूली, अपहरण, हत्या, प्रौपर्टी पर कब्जा, टैक्स चोरी, अधिकारियों पर दबाव डाल कर अपना अवैध काम करवाना आदि में लिप्त हो गया.

पुलिस की छाया में कैसे बनते हैं अतीक जैसे गैंगस्टर – भाग 1

उमेश पाल हत्याकांड में पुलिस रिमांड पर भेजे गए माफिया डौन से नेता बने अतीक अहमद और अशरफ ने 15 अप्रैल, 2023 की शाम को बताया था कि उन्हें काफी घबराहट हो रही है. उस वक्त रात के 10 बजने वाले थे. दरअसल, वे 2 दिन पहले ही अतीक के 19 वर्षीय बेटे असद अहमद की पुलिस एनकाउंटर में मौत हो गई थी, जिस से वह विचलित हो गए थे. उसी दिन अतीक की कोर्ट में पेशी हुई थी. वह बेटे की मौत से इतने आहत हो गए थे कि सिर पर पकड़ लिया था.

बेटे की मौत से बेहाल अतीक को बारबार छोटा भाई अशरफ दिलासा दे रहा था. हवालात में उसे जूट के बोरे का बिस्तर मिला था. ऊपर से भिनभिनाते काटते मच्छरों के बीच पुलिस की सख्तियां बनी हुई थीं. उन दोनों से पूछताछ भी जारी थी. थाने की हाजत में अतीक और अशरफ काफी डर गए थे. वे काफी असहज महसूस कर रहे थे.

दोनों की हालत बिगड़ती देख कर धूमनगंज थाने के इंसपेक्टर राजेश कुमार मौर्य ने उन की मैडिकल जांच के लिए तत्परता दिखाई. उन्होंने थाने के 7 एसआई विजय सिंह, सौरभ पांडे, सुभाष सिंह, विवेक कुमार सिंह, प्रदीप पांडे, विपिन यादव, शिव प्रसाद वर्मा एवं एक हैडकांस्टेबल विजय शंकर और 10 कांस्टेबल सुजीत यादव, गोविंद कुशवाहा, दिनेश कुमार, धनंजय शर्मा, राजेश कुमार, रविंद्र सिंह, संजय कुमार प्रजापति, जयमेश कुमार, हरि मोहन और मान सिंह के साथ दोनों को बोलेरो वाहन से रात करीब सवा 10 बजे मोतीलाल नेहरू मंडल चिकित्सालय अस्पताल भेज दिया गया.

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आरक्षी चालक महावीर सिंह गाड़ी चला रहा था. इस काफिले के साथ एक सरकारी जीप भी थी. दोनों को ले कर पुलिस टीम रात करीब साढ़े 10 बजे कोल्विन रोड पर मोतीलाल नेहरू मंडल चिकित्सालय पहुंची थी. अस्पताल के गेट पर गाड़ी खड़ी कर तमाम पुलिसकर्मी अतीक और अशरफ को ले कर अस्पताल की ओर बढ़े, जबकि महावीर सिंह और सतेंद्र कुमार गाडिय़ों की सुरक्षा में वहीं रुक गए.

अस्पताल गेट से 10-15 कदम आगे बढ़ते ही मीडियाकर्मियों का एक हुजूम सुरक्षा घेरे में चल रहे अतीक और अशरफ की बाइट और बयान लेने के लिए अपने कैमरे और माइक के साथ पहुंच गया. उन्होंने सुरक्षा घेरे को तोड़ दिया था और वे अतीक और अशरफ के काफी करीब पहुंच गए. मीडियाकर्मियों को देख कर दोनों भाई बाइट देने के लिए रुक गए, जबकि पुलिस टीम पीछे से उन्हें आगे बढऩे को कहती रही.

मीडियाकर्मियों के सवालों का सिलसिला शुरू हो चुका था. हथकड़ी पहने अतीक और अशरफ पत्रकारों के सवालों के जवाब देने लगे थे. अतीक से पूछा गया कि आप को अपने बेटे को सुपुर्द ए खाक करने के दौरान वहां नहीं ले जाया गया, क्या कहेंगे?

इस पर अतीक ने कहा, ‘‘नहीं ले गए तो हम नहीं गए.’’

यूं बरसीं दनादन गोलियां

ठीक इसी वक्त अशरफ बोल पड़े, ‘‘मेन बात ये है कि गुड्ïडू मुसलिम…’’ उन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी मीडियाकर्मियों की भीड़ में से 2 लोगों ने अपने माइक और आईडी नीचे फेंक दी. उन्होंने तुरंत हथियार निकाल कर अतीक और अशरफ को निशाना बनाया. एक ने अतीक की कनपटी पर पिस्टल सटा दी और दूसरे ने तड़ातड़ फायरिंग शुरू कर दी. वे फायरिंग अत्याधुनिक सेमी आटोमैटिक हथियार से कर रहे थे. इसी दौरान तीसरे कथित मीडियाकर्मी ने भी अतीक और अशरफ को निशाना बना कर फायर करने शुरू कर दिए थे.

जब तक कोई कुछ समझ पाता और पुलिस सचेत हो पाती, तब तक मीडियाकर्मी बन कर आए हमलावरों द्वारा अतीक और अशरफ पर दनादन कई गोलियां दागी जा चुकी थीं. हमलावरों की लगातार हुई फायरिंग से कांस्टेबल मान सिंह भी जख्मी हो गए. उन के दाहिने हाथ में गोली लगी थी. गोलीबारी के बीच आधुनिक हथियार थामे हुए पुलिस वालों ने हमलावरों पर गोली नहीं चलाई और न ही अतीक व उस के भाई को बचाने की कोशिश की. इसे लोगों ने सुनियोजित साजिश बताया.

हमलावर निर्भीकता के साथ ‘जय श्रीराम’ का जयघोष कर भागने लगे, जबकि मीडियाकर्मियों के कैमरे औन थे. वैसे पुलिस को तीनों हमलावरों को लोडेड हथियारों के साथ पकडऩे में सफलता मिल गई. वे भागने में असफल रहे. इस फायरिंग में हमलावरों का एक साथी भी अपने साथियों के साथ फायरिंग के दौरान घायल हो गया.

तब तक घटनास्थल पर अफरातफरी मच गई थी. आसपास की दुकानों के शटर फटाफट गिरने लगे थे. वहां मौजदू बाकी मीडियाकर्मी भी तितरबितर हो गए. हमलावरों की गोली से गंभीर रूप से घायल अतीक और अशरफ को तत्काल अस्पताल के इमरजेंसी में ले जाया गया. वहां डाक्टरों ने दोनों को मृत घोषित कर दिया. यानी गोली लगने से दोनों भाइयों की मौत हो चुकी थी.

पकड़े गए तीनों युवकों के हाथों से लोडेड हथियार छिटक कर गिर गए थे, वहीं हथियार मीडिया के कैमरों में आ गए थे. फायरिंग के दौरान भगदड़ में कुछ पत्रकार भी घायल हो गए. घटनास्थल को तुरंत सुरक्षित घेरे में ले कर फोरैंसिक जांच कराई गई. साथ ही कांस्टेबल मान सिंह को इलाज के लिए अस्पताल में भरती करवा दिया गया.

हमलावरों की हुई पहचान

इस वारदात से पूरे प्रदेश में सनसनी फैल गई. ऐहतियात बरतते हुए धारा 144 लगा दी गई. मौके से पकड़े गए हमलावरों की पहचान भी जल्द हो गई. एक ने अपना नाम लवलेश तिवारी बताया. वह मात्र 22 साल का था और बांदा में केवतरा क्रौसिंग, थाना कोतवाली निवासी यज्ञ कुमार तिवारी का बेटा है. दूसरा 23 साल का मोहित उर्फ सनी, पुत्र स्वर्गीय जगत सिंह हमीरपुर जिले में कुरारा का रहने वाला है. तीसरे आरोपी ने अपना नाम अरुण कुमार मौर्य, पुत्र दीपक कुमार बताया.

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वह कातरबारी, थाना सोरों, जिला कासगंज का रहने वाला मात्र 18 साल का था. अतीक और अशरफ हत्या के आरोपियों में लवलेश तिवारी, सनी सिंह और अरुण मौर्य की जानकारियों से लोगों को बेहद हैरानी हुई. हैरानी लवलेश की मां आशा देवी को अपने बेटे की करतूत पर भी है. जबकि उस के पिता यज्ञ कुमार अपने बेटे को शुरू से ही नाकारा समझते रहे हैं.

ऊलजुलूल हरकतों के चलते ही घर वालों ने उस से बातचीत बंद कर रखी थी. फिर भी हत्याकांड में उस का नाम आ जाने से जितनी हैरानी पिता को है, उतनी ही परेशान मां आशा देवी हो गई हैं. बताते हैं कि लवलेश पहले बजरंग दल से जुड़ा हुआ था. 2 साल पहले एक लडक़ी को थप्पड़ मारने के आरोप में जेल भी जा चुका है, लेकिन हाल के दिनों में उस की संगति किन के साथ थी, वह क्या करता था, घर वाले इस से अनजान थे.

दूसरा हमलावर सन्नी सिंह पर कुरारा पुलिस थाने में 15 केस दर्ज हैं. वह पुलिस की निगाह में एक छंटा हुआ बदमाश और हिस्ट्रीशीटर है. उस के मातापिता की मौत हो चुकी है और पिछले 10 सालों से अपने घर नहीं गया है. उस के बारे में तहकीकात करने पर पता चला कि वह खूंखार सुंदर भाटी गैंग से भी संबंध रखता है. लवलेश की तरह सन्नी के घर वाले भी उसे पहले से ही खुद से अलग कर रखे हैं.

 

तीसरे आरोपी अरुण कुमार मौर्य की हरकतें भी अपने दोनों साथियों जैसी ही रही हैं. उसे जानने वाले और घर वाले कालिया कह कर बुलाते थे. उस के मातापिता की भी मौत हो चुकी है और पिछले 6 सालों से अपने घर से बाहर रह रहा है. आरोप है कि कुछ समय पहले उस ने जीआरपी थाने में तैनात एक पुलिसकर्मी की जान ले ली थी. तभी से वह फरार चल रहा था.

…और वह खौफनाक मंजर

जिस ने भी अतीक और अशरफ पर हमले का खौफनाक मंजर देखा, वह सिहर गया. और तो और वह कैमरे में भी कैद हो गया. हमले में अतीक अहमद को 8 गोलियां लगीं, जबकि 5 गोलियों से अशरफ धराशाई हो गया. अतीक की मौत तड़पतड़प कर हुई.

आतंक के ग्लैमर में फंसा सैफुल्ला

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जिस तरह से मध्य प्रदेश पुलिस की सूचना पर लखनऊ में आतंकी सैफुल्ला मारा गया, उसे राजनीतिक नफानुकसान से जोड़ कर देखना ठीक नहीं है. सैफुल्ला की कहानी से पता चलता है कि हद से अधिक धार्मिक दिखने वाले लोगों के पीछे कुछ न कुछ राज अवश्य हो सकता है. धर्म के नाम पर लोग दूसरों पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं. ऐसे में धर्म की आड़ में आतंक को फैलाना आसान हो गया है. अगर बच्चा आक्रामक लड़ाईझगड़े वाले वीडियो गेम्स और फिल्मों को देखने में रुचि ले रहा है तो घर वालों को सचेत हो जाना चाहिए. यह किसी बीमार मानसिकता की वजह से हो सकता है.

मातापिता बच्चों को पढ़ालिखा कर अपने बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहते हैं. अगर बच्चे गलत राह पर चल पड़ते हैं तो यही कहा जाता है कि मातापिता ने सही शिक्षा नहीं दी. जबकि कोई मांबाप नहीं चाहता कि उस का बेटा गलत राह पर जाए. हालात और मजबूरियां सैफुल्ला जैसे युवाओं को आतंक के ग्लैमर से जोड़ देती हैं.

धर्म की शिक्षा इस में सब से बड़ा रोल अदा करती है. धर्म के नाम पर अगले जन्म, स्वर्ग और नरक का भ्रम किसी को भी गुमराह कर सकता है. सैफुल्ला आतंकवाद और धर्म के फेर में कुछ इस कदर उलझ गया था कि मौत ही उस से पीछा छुड़ा पाई. कानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार का सैफुल्ला भी अन्य युवाओं जैसा ही था.

सैफुल्ला का परिवार उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की जाजमऊ कालोनी के मनोहरनगर में रहता था. उस के पिता सरताज कानपुर की एक टेनरी (चमड़े की फैक्ट्री) में नौकरी करते थे. उन के 2 बेटे खालिद और मुजाहिद भी यही काम करते थे. उन की एक बेटी भी थी. 4 बच्चों में सैफुल्ला तीसरे नंबर पर था.

सैफुल्ला के पिता सरताज 6 भाई हैं, जिन में नूर अहमद, ममनून, सरताज और मंसूर मनोहरनगर में ही रहते थे. बाकी 2 भाई नसीम और इकबाल तिवारीपुर में रहते है. सैफुल्ला बचपन से ही पढ़ने में अच्छा था. जाजमऊ के जेपीआरएन इंटरकालेज से उस ने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की थी. इंटर में उस ने 80 प्रतिशत नंबर हासिल किए थे.

सन 2015 में उस ने मनोहरलाल डिग्री कालेज में बीकौम में दाखिला लिया. इसी बीच उस की मां सरताज बेगम का निधन हो गया तो वह पूरी तरह से आजाद हो गया. घरपरिवार के साथ उस के संबंध खत्म से हो गए. उसे एक लड़की से प्रेम हो गया, जिसे ले कर घर में लड़ाईझगड़ा होने लगा.

सैफुल्ला के पिता चाहते थे कि वह नौकरी करे, जिस से घरपरिवार को कुछ मदद मिल सके. पिता की बात का असर सैफुल्ला पर बिलकुल नहीं हो रहा था. जब तक वह पढ़ रहा था, घर वालों को कोई चिंता नहीं थी. लेकिन उस के पढ़ाई छोड़ते ही घर वाले उस से नौकरी करने के लिए कहने लगे थे. जबकि सैफुल्ला को पिता और भाइयों की तरह काम करना पसंद नहीं था.

वह कुछ अलग करना चाहता था. अब तक वह पूरी तरह से स्वच्छंद हो चुका था. सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के साथ वह आतंकवाद से जुड़ने लगा था. फेसबुक और तमाम अन्य साइटों के जरिए आतंकवाद की खबरें, उस की विचारधारा को पढ़ता था.

यहीं से सैफुल्ला धर्म के कट्टरवाद से जुड़ने लगा. ऐसे में आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन के कारनामे उसे प्रेरित करने लगे. टीवी और इंटरनेट पर उसे वीडियो गेम्स खेलना पसंद था. इन में लड़ाईझगड़े और मारपीट वाले गेम्स उसे बहुत पसंद थे.शार्ट कौंबैट यानी नजदीकी लड़ाई वाले गेम्स उसे खास पसंद थे. वह यूट्यूब पर ऐसे गेम्स खूब देखता था. इस तरह की अमेरिकी फिल्में भी उसे खूब पसंद थीं. यूट्यूब के जरिए ही उस ने पिस्टल खोलना और जोड़ना सीखा.

कानपुर में रहते हुए सैफुल्ला कई लोगों से मिल चुका था, जो आतंकवाद को जेहाद और आजादी की लड़ाई से जोड़ कर देखते थे. वह आतंक फैलाने वालों की एक टीम तैयार करने के मिशन पर लग गया. फेसबुक पर तमाम तरह के पेज बना कर वह ऐसे युवाओं को खुद से जोड़ने लगा, जो आर्थिक रूप से कमजोर थे. सैफुल्ला ऐसे लोगों के मन में नफरत के भाव भी पैदा करने लगा था. उस का मकसद था युवाओं को खुद से जोड़ना और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन की राह पर चलते हुए भारत में भी उसी तरह का संगठन खड़ा करना. युवाओं को वह सुविधाजनक लग्जरी लाइफ और मोटी कमाई का झांसा दे कर खुद से जोड़ने लगा था.

कानपुर में लोग सैफुल्ला का पहचानते थे, इसलिए इस तरह के काम के लिए उस का कानपुर से बाहर जाना जरूरी था. आखिर एक दिन वह घर छोड़ कर भाग गया. घर वालों ने भी उस के बारे में पता नहीं किया. उस ने इस के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को चुना. वहां मुसलिम आबादी भी ठीकठाक है और प्रदेश तथा शहरों से सीधा जुड़ा हुआ भी है. इन सब खूबियों के कारण लखनऊ उस के निशाने पर आ गया.

नवंबर 2016 में सैफुल्ला लखनऊ के काकोरी थाने की हाजी कालोनी में बादशाह खान का मकान 3 हजार रुपए प्रति महीने के किराए पर ले लिया. यह जगह शहर के ठाकुरगंज इलाके से पूरी तरह से सटी हुई है, जिस से वह शहर और गांव दोनों के बीच रह सकता था. यहां से कहीं भी भागना आसान था.

बादशाह खान का मकान सैफुल्ला को किराए पर पड़ोस में रहने वाले कयूम ने दिलाया था. वह मदरसा चलाता था. बादशाह खान दुबई में नौकरी करता था. उस की पत्नी आयशा और परिवार मलिहाबाद में रहता था. मकान को किराए पर लेते समय उस ने खुद को खुद्दार और कौम के प्रति वफादार बताया था.

सैफुल्ला ने कहा था कि वह मेहनत से अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ अपनी कौम के बच्चों को कंप्यूटर की शिक्षा देना चाहता है. अपने खर्च के बारे में उस ने बताया था कि वह कम फीस पर बच्चों को कंप्यूटर के जरिए आत्मनिर्भर बनाने का काम करता है.इसी से सैफुल्ला ने अपना खर्च चलाने की बात कही थी.

उस की दिनचर्या ऐसी थी कि कोई भी उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. अपनी दिनचर्या का पूरा चार्ट बना कर उस ने कमरे की दीवारों पर लगा रखा था. वह सुबह 4 बजे उठ जाता था खुद को फिट रखने के लिए. वह पांचों वक्त नमाज पढ़ता था. कुरआन के अनुवाद तफ्सीर पढ़ता था. वह पूरी तरह से धर्म में रचबस गया था. हजरत मोहम्मद साहब के वचनों हदीस पर अमल करता था. अपना खाना वह खुद पकाता था. दोपहर 3 बजे उस का लंच होता था. शरीयत से जुड़ी किताबें पढ़ता था. रात 10 बजे तक सो जाता था.

रमजान के दिनों में वह पूरी तरह से उस में डूब जाता था. वह बिना देखे कुरआन की हिब्ज पढ़ता था. वह खुद को पूरी तरह से मोहम्मद साहब के वचनों पर चलने वाला मानता था. उसे करीब से देखने वाला समझता था कि इस से अच्छा लड़का कोई दुनिया में नहीं हो सकता. हाजी कालोनी के जिस मकान में सैफुल्ला रहता था, उस में कुल 4 कमरे थे. मकान के दाएं हिस्से में महबूब नामक एक और किराएदार अपने परिवार के साथ रहता था. बाईं ओर के कमरे में महबूब का एक और साथी रहता था. इस के आगे दोनों के किचन थे. दाईं ओर का कमरा खाली पड़ा था और उस के आगे भी बाथरूम और किचन बने थे.

असल में बादशाह खान ने अपने इस मकान को कुछ इस तरह से बनवाया था कि कई परिवार एक साथ किराए पर रह सकें. कोई किसी से परेशान न हो, ऐसे में सब के रास्ते, स्टोररूम और बाथरूम अलगअलग थे. मकान खुली जगह पर था, इसलिए चोरीडकैती से बचने के लिए सुरक्षा के पूरे उपाय किए गए थे. सैफुल्ला ने किराए पर लेते समय इन खूबियों को ध्यान में रखा था और उसे यह जगह भा गई थी.

सैफुल्ला को यह जगह काफी मुफीद लगी थी. जैसे यह उसी के लिए ही तैयार की गई हो. वह समय पर किराया देता था. अपने आसपास वालों से वह कम ही बातचीत करता था. ज्यादा समय वह अपने कंप्यूटर पर देता था. इस में वह सब से ज्यादा यूट्यूब देखता था, जिस में आईएसआईएस से जुड़ी जानकारियों पर ज्यादा ध्यान देता था.

7 मार्च, 2017 को भोपाल-उज्जैन पैसेंजर रेलगाड़ी में बम धमाका हुआ. वहां पुलिस को बम धमाके से जुड़े कुछ परचे मिले, जिस में लिखा था, ‘हम भारत आ चुके हैं—आईएस’. यह संदेश पढ़ने के बाद भारत की सभी सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस सक्रिय हो गई. ट्रेन में हुआ बम धमाका बहुत शक्तिशाली नहीं था, जिस से बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था.

पर यह संदेश सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की नींद उड़ाने वाला था. पुलिस जांच में पता चला कि यह काम भारत में काम करने वाले किसी खुरासान ग्रुप का है, जो सीधे तौर पर आईएस की गतिविधियों से जुड़ा हुआ नहीं है, पर उस से प्रभावित हो कर उसी तरह के काम कर रहा है. यह खुरासान ग्रुप तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का एक हिस्सा है, जो आईएस से जुड़ा है.

मध्य प्रदेश पुलिस ने जब पकड़े गए 3 आतंकवादियों से पूछताछ की तो कानपुर की केडीए कालोनी में रहने वाले दानिश अख्तर उर्फ जफर, अलीगढ़ के इंदिरानगर निवासी सैयद मीर हुसैन हमजा और कानपुर के जाजमऊ के रहने वाले आतिश ने माना कि वे 3 साल से सैफुल्ला को जानते हैं. वह उन्हें वीडियो दिखा कर कहता था, ‘एक वे हैं और एक हम. कौम के लिए हमें भी कुछ करना होगा.’

उन्होंने बताया था कि सैफुल्ला का इरादा भारत में कई जगह बम विस्फोट करने का है. इस जानकारी के बाद पुलिस को सैफुल्ला की जानकारी और लोकेशन दोनों ही मिल गई थी. इस के बाद पुलिस ने दोपहर करीब ढाई बजे सैफुल्ला के घर पर दस्तक दी. लखनऊ की पुलिस पूरी तरह से अलर्ट थी. उस के साथ एटीएस के साथ एसटीएफ भी थी.

सैकड़ों की संख्या में पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों ने घर को घेर लिया था. आसपास रहने वालों को जब पता चला कि सैफुल्ला आतंकवादी है और मध्य प्रदेश में हुए बम विस्फोट में उस का हाथ है तो सभी दंग रह गए. सुरक्षा बलों ने पूरे 10 घंटे तक घर को घेरे रखा. वे सैफुल्ला को आत्मसमर्पण के लिए कहते रहे, पर वह नहीं माना.

घर के अंदर से सैफुल्ला पुलिस पर गोलियां चलाता रहा. ऐसे में रात करीब 2 बजे पुलिस ने लोहे के गेट को फाड़ कर उस पर गोलियां चलाईं. तब जा कर वह मरा. पुलिस को उस के कमरे के पास से .32 बोर की 8 पिस्तौलें, 630 जिंदा कारतूस, 45 ग्राम सोना और 4 सिमकार्ड मिले.

इस के साथ डेढ़ लाख रुपए नकद, एटीएम कार्ड, किताबें, काला झंडा, विदेशी मुद्रा रियाल, आतिफ के नाम का पैनकार्ड और यूपी78 सीपी 9704 नंबर की डिसकवर मोटरसाइकिल मिली. इस के अलावा बम बनाने का सामान, वाकीटाकी फोन के 2 सेट और अन्य सामग्री भी मिली.

पुलिस को उस के कमरे से 3 पासपोर्ट भी मिले, जो सैफुल्ला, दानिश और आतिफ के नाम के थे. आतिफ सऊदी अरब हो आया था. बाकी दोनों ने कोई यात्रा इन पासपोर्ट से नहीं की थी. सैफुल्ला का ड्राइविंग लाइसेंस और पासपोर्ट मनोहरनगर के पते पर ही बने थे, जहां उस का परिवार रहता था.

सैफुल्ला के आतंकी होने और पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे जाने की खबर जब उस के पिता सरताज अहमद को मिली, तब वह समझ पाए कि उन का बेटा क्या कर रहा था. पुलिस ने जब उन से शव लेने और उसे दफनाने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि सैफुल्ला ने ऐसा कोई काम नहीं किया कि उस का जनाजा निकले.

वह गद्दार था. उस के शव को ले कर वह अपना ईमान खराब नहीं करेंगे.  इस के बाद पुलिस ने सैफुल्ला को लखनऊ के ही ऐशबाग कब्रगाह में दफना दिया था.

सैफुल्ला की कहानी किसी भी ऐसे युवक के लिए सीख देने वाली हो सकती है कि आतंक की पाठशाला में पढ़ाई करना किस अंजाम तक पहुंचा सकता है. ऐसे शहरी या गांव के लोगों के लिए भी सीख देने वाली हो सकती है, जिन के आसपास रहने वाला इस तरह धार्मिक प्रवृत्ति का हो.

आतंकवाद का ग्लैमर दूर से देखने में अच्छा लग सकता है, पर उस का करीबी होना बदबूदार गंदगी की तरह होता है. धर्म के नाम पर दुकान चलाने वाले लोग मासूम युवाओं को गुमराह करते हैं. सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले लोगों को प्रभावित करना आसान होता है.

ऐसे में जरूरत इस बात की है कि युवा और उन के घर वाले होशियार रहें, जिस से उन के घर में कोई सैफुल्ला न बन सके. बच्चे आतंकवादी नहीं होते, उन्हें धर्म पर काम करने वाले कट्टरपंथी लोग आतंक से जोड़ देते हैं. पैसे कमाने और बाहुबली बनने का शौक बच्चों को आतंक के राह पर ले जाता है.