पप्पू स्मार्ट : मोची से बना खौफनाक गैंगस्टर – भाग 2

गिरोह बनाने के बाद पप्पू स्मार्ट एवं उस के भाइयों ने जाजमऊ, हरजेंद्र नगर, कानपुर देहात व अन्य क्षेत्रों में दरजनों की संख्या में अवैध संपत्तियों पर कब्जा कर बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया और अकूत संपदा अर्जित कर ली.

पप्पू स्मार्ट गिरोह के सदस्य जमीन कब्जाने के लिए पहले मानमनौती करते. न मानने पर जान से मारने की धमकी देते फिर भी न माने तो मौत के घाट उतार देते. पप्पू रंगदारी भी वसूलता था तथा धोखाधड़ी भी करता था. आपराधिक गतिविधियों से उस ने करोड़ों की संपत्ति अर्जित कर ली थी. इस तरह वह जरायम का बादशाह बन गया था.

बेच डाला राजा ययाति का किला

पप्पू स्मार्ट व उस का गिरोह आम लोगों को ही प्रताडि़त नहीं करता था, बल्कि सरकारी संपत्तियों पर भी कब्जा करता था. तमाम सरकारी संपत्तियों को उस ने धोेखाधड़ी कर बेच दिया था. इसलिए उसे भूमाफिया भी घोषित कर दिया गया था.

पप्पू स्मार्ट ने सब से बड़ा कारनामा किया राजा ययाति के किले पर कब्जा करने का. दरअसल, जाजमऊ क्षेत्र में गंगा किनारे महाभारत कालीन राजा ययाति का किला है जो खंडहर में तब्दील हो गया है.

यह किला राज्य पुरातत्त्व विभाग की संपत्ति है. इस की देखरेख कानपुर विकास प्राधिकरण करता है. लेकिन इस किले को अपना बता कर पप्पू स्मार्ट ने कब्जा कर लिया और एक बड़े भूभाग को बेच कर बस्ती बसा दी.

एडवोेकेट संदीप शुक्ला की शिकायत पर आईजी आलोक सिंह एवं तत्कालीन एसपी अनुराग आर्य ने पप्पू स्मार्ट के खिलाफ चकेरी थाने में मुकदमा दर्ज कराया और गैंगस्टर एक्ट के तहत काररवाई की तथा उस की तमाम संपत्तियों को सीज भी किया.

राजनीतिक संरक्षण भी आया काम

पप्पू स्मार्ट जानता था कि पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों पर रौब गांठना है तो राजनीतिक चोला ओढ़ना जरूरी है, अत: उस ने सोचीसमझी रणनीति के तहत समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली और पार्टी का सदस्य बन गया.

सपा के जनप्रतिनिधियों से उस ने दोस्ती कर ली और उन का खास बन गया. सपा शासन काल में उस की तूती बोलने लगी. पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों में उस ने पैठ बना ली. अपने रौब के बल पर ही पप्पू स्मार्ट ने एक डबल बैरल बंदूक व एक रिवौल्वर का लाइसेंस हासिल कर लिया.

यही नहीं, उस ने अपने भाइयों तौफीक उर्फ कक्कू व आमिर उर्फ बिच्छू को भी रिवौल्वर का लाइसेंस दिलवा दिया.

हालांकि चकेरी थाने में पुलिस ने तीनों भाइयों की हिस्ट्रीशीट खोल रखी थी. उन की हिस्ट्रीशीट में बताया गया था कि गिरोह के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, जबरन वसूली, मारपीट, जान से मारने की धमकी, जमीनों पर कब्जे, गुंडा एक्ट तथा गैंगस्टर एक्ट के मामले दर्ज है.

पप्पू स्मार्ट का घनिष्ठ संबंध कुख्यात अपराधी वसीम उर्फ बंटा से था. वह फरजी आधार कार्ड व अन्य कागजात तैयार करता था. पप्पू स्मार्ट भी उस से कागजात तैयार करवाता था. उस के फरजी कागजातों से लोग पासपोर्ट बनवा कर विदेश तक का सफर करते थे. यूपी एसटीएफ की वह रडार पर था.

काफी मशक्कत के बाद एसटीएफ कानपुर इकाई ने उसे रेलबाजार के अन्नपूर्णा गेस्टहाउस से धर दबोचा. उस के साथ उस का भाई नईम भी पकड़ा गया. उस के पास से भारी मात्रा में सामान बरामद हुआ. सऊदी अरब मुद्रा रियाल तथा 6780 रुपए बरामद हुए.

एसटीएफ ने उसे जेल भेज दिया, तब से वह जेल में है. इस मामले में पप्पू स्मार्ट का नाम भी आया था. लेकिन राजनीतिक पहुंच के चलते वह बच गया.

बसपा नेता और हिस्ट्रीशीटर पिंटू सेंगर से हुई दोस्ती

पप्पू स्मार्ट का एक जिगरी दोस्त था नरेंद्र सिंह उर्फ पिंटू सेंगर. वह मूलरूप से कानपुर देहात जनपद  के गोगूमऊ गांव का रहने वाला था. लेकिन पिंटू सेंगर अपने परिवार के साथ कानपुर के चकेरी क्षेत्र के मंगला बिहार में रहता था.

वह बसपा नेता, भूमाफिया व हिस्ट्रीशीटर था. उस के पिता सोने सिंह गोगूमऊ गांव के प्रधान थे और मां शांति देवी गजनेर की कटेठी से जिला पंचायत सदस्य थी.

पिंटू सेंगर जनता के बीच तब चर्चा में आया, जब उस ने पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा सुप्रीमो मायावती को उन के जन्मदिन पर उपहार स्वरूप चांद पर जमीन देने की पेशकश की थी.

कानपुर की छावनी सीट से उस ने बसपा के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गया था. बसपा शासन काल में उस की तूती बोलती थी. वह अपनी हैसियत विधायक से कम नहीं आंकता था.

राजनीतिक संरक्षण के चलते ही पिंटू सेंगर ने जमीन कब्जा कर करोड़ों रुपया कमाया. उस के खिलाफ चकेरी थाने में कई मुकदमे दर्ज हुए और उस का नाम भूमाफिया की सूची में भी दर्ज हुआ.

चूंकि पिंटू सेंगर व पप्पू स्मार्ट एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. दोनों ही भूमाफिया और हिस्ट्रीशीटर थे, अत: दोनों में खूब पटती थी. जमीन हथियाने में दोनों एकदूसरे का साथ देते थे. जबरन वसूली, रंगदारी में भी वे साथ रहते थे.

पप्पू स्मार्ट को सपा का संरक्षण प्राप्त था, जबकि पिंटू सेंगर को बसपा का. दोनों अपनी अपनी पार्टी के कार्यक्रमों में हिस्सा ले कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते थे.

लेकिन एक दिन यह दोस्ती जमीन के एक टुकड़े को ले कर कट्टर दुश्मनी में बदल गई. दरअसल, रूमा में नितेश कनौजिया की 5 बीघा जमीन थी. यह जमीन नितेश ने जाजमऊ के प्रौपर्टी डीलर मनोज गुप्ता को बेच दी.

इस की जानकारी पिंटू सेंगर को हुई तो उस ने नितेश को धमकाया और पुन: जमीन बेचने की बात कही. दबाव में आ कर बाद में नितेश ने वह जमीन एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति के नाम कर दी.

सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा : अंडरवर्ल्ड डौन का भी महागुरु – भाग 2

सुभाष कुछ ही महीनों में मायानगरी के बारे में समझ गया था कि अगर यहां रहना है तो दब कर नहीं, बल्कि लोगों को दबा कर रहना होगा. मुंबई में यूं तो बड़ी संख्या में पूर्वांचल के लोग रहते थे, लेकिन उन का कोई माईबाप नहीं था. पूर्वांचल के कुछ लोग दबंगई भी करते थे, लेकिन मजबूरी में उन्हें भी लोकल मराठी गुंडों के लिए ही काम करना होता था.

सुभाष के पास ताकत भी थी और हिम्मत भी और साथ में लीडरशिप वाले गुण भी थे. इसलिए उस ने आए दिन होने वाले पुलिस के उत्पीड़न से बचने के लिए पूर्वांचल के ऐसे नौजवान लड़कों का गुट बनाना शुरू कर दिया, जो दिलेर थे और उन के सपने बडे़ थे.

सुभाष की मेहनत रंग लाई. उस ने 20-25 ऐसे नौजवानों का गुट बना लिया जो उस के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थे. इस के बाद सुभाष ने पहले वसई और विरार इलाके में सक्रिय मराठी गुंडों के खिलाफ लड़ना शुरू किया, जो लोकल मार्केट में उगाही करते थे. सुभाष ठाकुर ने उन दुकानदारों से पहले हफ्ता वसूली शुरू की, जिन से पहले मराठी गुंडे वसूली करते थे.

मुंबई उन दिनों तेजी से आबाद हो रही थी. बड़ीबड़ी इमारतें बन रही थीं. बिल्डिंग बनाने और प्रौपर्टी के धंधे में बड़ा मुनाफा था. लेकिन जमीन से जुड़े विवाद के कारण बिल्डरों को सब से ज्यादा नेता, पुलिस और गुंडों की मदद लेनी पड़ती थी.

सुभाष ठाकुर ने वसूली की रकम से होने वाली कमाई से कुछ हथियार खरीद कर अपने लड़कों को दिए, जिस के बूते वे बिल्डरों के पास जा कर प्रोटेक्शन मनी की मांग करने लगे. एकडेढ़ साल के बाद ही पूरे वसई और विरार में सुभाष ठाकुर को ठाकुरजी के नाम से पुकारा जाने लगा. वह महंगी गाडि़यों में घूमने लगा. और कई दरजन पूर्वांचल के नौजवान उस के गिरोह में शामिल हो गए.

सुभाष ठाकुर बिल्डरों से सहीसलामत बिना रुकावट काम करने के बदले मोटी रकम वसूल करने लगा. दूसरा गुट कोई परेशानी पैदा न करे, इस की वो गारंटी देता था. जमीन से जुड़ा कोई भी लफड़ा हो, ठाकुर गिरोह बिल्डरों की तमाम परेशानियां दूर करने लगा.

देखते ही देखते अस्सी का दशक पूरा होतेहोते सुभाष ठाकुर पूरे मुंबई शहर का एक ऐसा नाम बन गया, जिस के कारनामों से उन दिनों के मुंबई के डौन हाजी मस्तान, वरदाराज और करीम लाला भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

ये वो दौर था, जब मुंबई में 2 नाम अपराध की दुनिया में तेजी के साथ उभर रहे थे और वे दोनों बड़ा गैंगस्टर बनने के लिए अपने हाथपांव मार रहे थे. इन में एक था मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच के एक कांस्टेबल का बेटा दाऊद इब्राहिम कासकर और दूसरा था सदाशिव निखलजे यानी छोटा राजन.

ये दोनों ही इलाकाई मराठी दंबगों के लिए छोटेमोटे अपराध करते थे. लेकिन उन्हें लगा कि बड़ा काम करना है और संगठित तरीके से अपराध करना है तो सुभाष ठाकुर का साथ मिलना जरूरी है. लिहाजा उन दोनों ने ही सुभाष ठाकुर का दामन थाम लिया.

सुभाष ठाकुर को भी भरोसे के कुछ ऐसे लोगों की जरूरत थी, जो लोकल मराठी हों. लिहाजा सुभाष ने दोनों को अपने गैंग में जगह दे दी. तीनों के अपनेअपने काम थे. कोई किसी के काम में हस्तक्षेप नहीं करता था. जरूरत होती तो तीनों एक साथ हो जाते. इसी तालमेल के कारण जल्द ही तीनों के संबध गहरे हो गए.

दाऊद ने बनाया सुभाष ठाकुर को गुरु

जुर्म की काली दुनिया में सुभाष ठाकुर का नाम तेजी से मशहूर हो रहा था. उस के नाम की दहशत भी मुंबई में नजर आने लगी थी. बाबा का नाम मुंबई अंडरवर्ल्ड में छाने लगा था. वह वहां के बिल्डरों और बड़े कारोबारियों पर शिकंजा कसता जा रहा था. एक वक्त था जब उस का कारोबार यूपी से ले कर मुंबई तक फैला हुआ था.

वैसे तो दाऊद का असल काम सोने और विदेशों से आने वाले दूसरे सामानों की स्मगलिंग का था. लेकिन हत्या, अपहरण व बिल्डरों, फाइनैंसरों से वसूली करने के गुर उस ने सुभाष ठाकुर के गैंग में शामिल होने के बाद सीखे थे. इस के बाद ही वह मुंबई का डौन बना था.

नब्बे का दशक आतेआते सुभाष ठाकुर से मिली ताकत के बल पर दाऊद इब्राहिम इतना ताकतवर हो गया और उस के खाते में इतने बड़ेबड़े गुनाह दर्ज हो गए कि पुलिस एनकाउंटर के डर से उसे मुंबई छोड़ कर दुबई में शरण लेनी पड़ी.

लेकिन तब तक मुंबई में उस ने अपराध का साम्राज्य इतना विकसित कर लिया था कि यहां का धंधा देखने के लिए उस ने छोटा राजन को कमान सौंप दी. छोटा राजन और दाऊद भले ही बड़े डौन बन चुके थे, लेकिन सुभाष ठाकुर उन के लिए तब भी बड़े भाई जैसा ही था.

उन दिनों मुंबई में एक दूसरा डौन भी तेजी से उभर रहा था. दगड़ी चाल में रहने वाला अरुण गवली उन दिनों लोकल मराठी गुंडों का तेजी से उभरता हुआ बौस था.

यूं तो मुंबई अपराध जगत में उन दिनों कई गैंगस्टर सक्रिय थे, लेकिन गवली और दाऊद का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि गवली जहां लोकल मराठी लोगों का गैंग चलाने वाले हिंदू डौन था तो दाऊद के गैंग में उन दिनों ज्यादातर मुसलिम और पठान जाति के गुंडों की भरमार थी. इसीलिए दाऊद के गिरोह से अकसर गवली गिरोह की टकराहट होती रहती थी.

लेकिन बाद के दिनों में जब दाऊद दुबई चला गया तो ये टकराहट दुश्मनी में बदल गई. इस दुश्मनी के बीच अरुण गवली के भाई पापा गवली की उस के दुश्मन ने हत्या कर दी.

आरोप लगा कि गवली के भाई को दाऊद ने मरवाया है. बस फिर क्या था, अरुण गवली ने अपने भाई पापा गवली की हत्या का बदला लेने के लिए दाऊद की कमर तोड़ने की कसम खा ली. उस ने अपने 4 शूटरों को इस काम पर लगा दिया. जिन्हें टारगेट दिया गया था दाऊद के बहनोई इब्राहिम पारकर को खत्म करने का.

मौके का इंतजार किया जाने लगा. आखिरकार 20 साल पहले 26 जुलाई, 1992 को नागपाड़ा में गैंगस्टर अरुण गवली के 4 शूटरों ने दाऊद इब्राहिम के बहनोई इब्राहिम पारकर की हत्या कर दी थी. इस हत्याकांड ने दाऊद को झकझोर कर रख दिया था क्योंकि दाऊद की बहन हसीना उस की सब से करीबी मानी जाती थी.

इब्राहिम पारकर की हत्या को गवली के 5 शूटरों शैलेश हलदनकर, बिपिन शेरे, राजू बटाटा, संतोष पाटील और दयानंद पुजारी ने अंजाम दिया था. जो वारदात के बाद मौके से फरार हो गए थे.

दाऊद अपने बहनोई के कत्ल को भूला नहीं और उस ने इब्राहिम की हत्या में शामिल शूटरों को सबक सिखाने का फैसला किया. पुलिस तब तक एक हत्यारे दयानंद पुजारी को गिरफ्तार कर जेल भेज चुकी थी.

छोटा राजन ने संभाला दाऊद का कारोबार

करीब एक महीने बाद इन में से 2, शैलेश हलदनकर और विपिन शेरे किसी विवाद में पब्लिक के हाथ लग गए. लोगों ने इन्हें मारा. जिस से वे घायल हो गए. पुलिस ने उन्हें इलाज के लिए जेजे अस्पताल में भरती करा दिया था.

दाऊद के दुबई में शिफ्ट होने के बाद छोटा राजन के साथ उस का बहनोई इब्राहिम पारकर मुंबई में दाऊद का कारोबार देखता था. बहनोई की मौत धंधे के साथ पारिवारिक रूप से भी दाऊद के लिए बड़ा झटका थी.

पति की मौत के बाद हसीना पारकर ने मुंबई में उस का कारोबार संभाल लिया. जल्द ही मुंबई के अपराध जगत में उस के नाम का भी सिक्का चलने लगा.

जैसे ही दाऊद को इब्राहिम के कातिलों के जेजे अस्पताल में भरती होने की सूचना मिली, उस ने उसी वक्त दोनों कातिलों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया. क्योंकि दाऊद को पता था कि अगर उस ने कातिलों पर वार नहीं किया तो मुंबई में उस के अपराध का साम्राज्य छिन्नभिन्न हो जाएगा.

लिहाजा दाऊद ने मुंबई में अपने सेनापति छोटा राजन से कहा कि गवली के दोनों शूटरों को पुलिस कस्टडी में ही अस्पताल में खत्म करना है.

काम थोड़ा मुश्किल जरूर था लेकिन नामुमकिन नहीं. क्योंकि राजन जानता था जब तक भाई सुभाष ठाकुर का साथ उस के साथ है, तब तक कोई काम नामुमकिन नहीं. लिहाजा उस ने सुभाष ठाकुर से दाऊद के बहनोई की हत्या का बदला लेने के लिए बात की और अपना साथ देने के लिए तैयार भी कर लिया.

संयोग से अरुण गवली से सुभाष ठाकुर के संबंध भी ठीक नहीं थे, लिहाजा ठाकुर ने राजन को साथ देने का वायदा कर दिया. ये उन दिनों की बात है जब यूपी का रहने वाला बृजेश सिंह हत्या की कुछ वारदातों को अंजाम देने के बाद पुलिस के डर से मुंबई भाग गया था और सुभाष ठाकुर की शरण में रह कर छोटेमोटे अपराध कर रहा था.

छोटा राजन ने मांगा सुभाष ठाकुर से सहयोग

छोटा राजन के अनुरोध पर सुभाष ठाकुर ने गवली के दोनों शूटरों को अस्पताल में खत्म करने की जो प्लानिंग तैयार की, वो एकदम फिल्मी पटकथा जैसी थी.

अगर यह कहें तो गलत न होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड में दाऊद के इशारे पर गवली गिरोह के शूटरों की पुलिस हिरासत में की गई हत्या अंडरवर्ल्ड में पहली गैंगवार थी, जिस के बाद मुंबई की सड़कों पर गिरोहबाजी का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ था, जिस के दौरान मुंबई की सड़कें खून से लाल हो गई थीं.

बदन सिंह बद्दो : हौलीवुड एक्टर जैसे कुख्यात गैंगस्टर – भाग 1

बदन सिंह बद्दो मूलरूप से पंजाब का रहने वाला है. उस के पिता चरण सिंह पंजाब के जालंधर से 1970 में मेरठ आए और यहां के एक मोहल्ला पंजाबीपुरा में बस गए. चरण सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे. ट्रक चला कर उस आमदनी से किसी तरह अपने 7 बेटेबेटियों के बड़े परिवार को पाल रहे थे.

बदन सिंह बद्दो सभी भाईबहनों में सब से छोटा था. 8वीं के बाद उस ने स्कूल जाना बंद कर दिया. कुछ बड़ा हुआ तो बाप के साथ ट्रक चलाने लगा. एक शहर से दूसरे शहर माल ढुलाई के दौरान उस का वास्ता पहले कुछ छोटेमोटे अपराधियों से और फिर शराब माफियाओं से पड़ा. उस ने कई बार पैसे ले कर शराब की खेप एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाई.

धीरेधीरे पश्चिमी यूपी के बौर्डर के इलाकों में उस ने बड़े पैमाने पर शराब की तस्करी शुरू कर दी. फिर स्मगलिंग के बड़े धंधेबाजों से उस की दोस्ती हो गई.

वह स्मगलिंग का सामान बौर्डर के आरपार करने लगा. हरियाणा और दिल्ली बौर्डर पर तस्करी से उस ने खूब पैसा कमाया. इस के बाद तो वह पूरी तरह अपराध के कारोबार में उतर गया और उस की दिन की कमाई लाखों में होने लगी. दिखने के लिए बद्दो खुद को ट्रांसपोर्ट के बिजनैस से जुड़ा दिखाता रहा, मगर उस का धंधा काला था.

अपराध की राह पर बड़ी तेजी से आगे बढ़ते बद्दो की मुलाकात जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 2 बड़े बदमाश सुशील मूंछ और भूपेंद्र बाफर से हुई तो इन दोनों के साथ उस का मन लग गया. इन के साथ ने बद्दो को निडर बनाया.

बद्दो ने कई गुर्गे पाल लिए जो उस के इशारे पर सुपारी ले कर हत्या और अपहरण का धंधा चलाने लगे. सुशील मूंछ और बद्दो के गठजोड़ ने जमीनों पर अवैध कब्जे का धंधा भी शुरू कर दिया. सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे कर वहां दुकानें बना कर करोड़ों में खरीदनेबेचने के इस धंधे में सरकारी सिस्टम में बैठी काली भेड़ें भी शामिल थीं, जो अपना हिस्सा ले कर किसी भी फाइल को आगे बढ़ा देती थीं.

बदन सिंह बद्दो और सुशील मूंछ की दोस्ती जब बहुत गहरी हुई तो भूपेंद्र बाफर और सुशील मूंछ में दूरियां बढ़ गईं और एक समय वह आया जब बाफर सुशील मूंछ का दुश्मन हो गया. तब मूंछ और बद्दो एकदूसरे का सहारा बन गए.

सुशील मूंछ का बड़ा गैंग था. विदेश तक उस के कारनामों की गूंज थी. जरायम की दुनिया के इन 2 बड़े कुख्यातों का याराना पुलिस फाइल और अपराध की काली दुनिया में बड़ी चर्चा में रहता था. दोस्ती भी अजीबोगरीब थी.

हैरतअंगेज था कि जब एक किसी अपराध में गिरफ्तार हो कर जेल जाता तो दूसरा बाहर रहता था और धंधा संभालता था. 3 दशकों तक ये दोनों पुलिस से आंखमिचौली खेलते रहे. मूंछ जब 3 साल जेल में बंद रहा तो उस दौरान बद्दो जेल से बाहर था. मूंछ का सारा काम बद्दो संभालता था.

वहीं 2017 में जब बद्दो को उम्रकैद की सजा हुई तो मूंछ बाहर था और बद्दो की पूरी मदद कर रहा था. 2019 में जब बद्दो पुलिस को चकमा दे कर कस्टडी से फरार हुआ तो दूसरे ही दिन सुशील मूंछ ने सरेंडर कर दिया और जेल चला गया. पुलिस कभी भी इन दोनों की साजिश को समझ नहीं पाई.

कहते हैं कि बद्दो को कस्टडी से फरार करवाने की सारी प्लानिंग सुशील मूंछ ने की. इस के लिए पुलिस और कुछ सफेदपोशों को बड़ा पैसा खिलाया गया. लेकिन बद्दो कहां है यह राज आज तक पुलिस सुशील मूंछ से नहीं उगलवा पाई. कहा जाता है कि वह दुनिया के किसी कोने में बैठ कर हथियारों का धंधा करता है.

पर्सनैलिटी में झलकता रईसी अंदाज

बदन सिंह बद्दो सिर्फ 8वीं पास था, लेकिन उस में बात करने की सलाहियत ऐसी थी कि लगता वह दर्शन शास्त्र का कोई बड़ा गहन जानकार हो. बातबात में वह शायरी और महापुरुषों के वक्तव्यों को कोट करता था.

एक पार्टी के दौरान जब एक रिपोर्टर ने उस से पूछ लिया कि जरायम की दुनिया से कैसे जुड़ गए तो विलियम शेक्सपियर को कोट करते हुए बद्दो ने कहा, ‘ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब इस मंच के कलाकार.’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का कुख्यात गैंगस्टर बदन सिंह बद्दो अब खुल कर लग्जरी लाइफ जीने लगा था. बद्दो का रहनसहन देख कर कोई भी उस के रईसी शौक का अंदाजा आसानी से लगा सकता है. लूई वीटान जैसे महंगे ब्रांड के जूते और कपड़े पहनना बदन सिंह बद्दो को अन्य अपराधियों से अलग बनाता है. वह आंखों पर लाखों रुपए मूल्य के विदेशी चश्मे लगाता है. हाथों में राडो और रोलैक्स की घडि़यां पहनता है.

बदन सिंह बद्दो महंगे विदेशी हथियार रखने का भी शौकीन है. उस के पास विदेशी नस्ल की बिल्लियां और कुत्ते थे, जिन के साथ वह अपनी फोटो फेसबुक पर भी शेयर करता था. इन तसवीरों को देख कर कोई कह नहीं सकता कि मासूम जानवरों को गोद में खिलाने वाले इस हंसमुख चेहरे के पीछे एक खूंखार गैंगस्टर छिपा हुआ है.

बुलेटप्रूफ कारों का लंबा जत्था उस के साथ चलता था. उस के महलनुमा कोठी में सीसीटीवी कैमरे समेत आधुनिक सुरक्षा तंत्र का जाल बिछा है.

ब्रांडेड कपड़े और जूते पहन कर जब वह किसी फिल्मी हस्ती की तरह विदेशी हथियारों से लैस बौडीगार्ड्स और बाउंसर्स की फौज के साथ घर से निकलता तो आसपास देखने वालों की भीड़ लग जाती थी. वह हमेशा बुलेटप्रूफ बीएमडब्ल्यू या मर्सिडीज कार से ही चलता था. उस की शानोशौकत भरी जिंदगी देख कर कोई यकीन नहीं करता था कि वह एक हार्डकोर क्रिमिनल है.

शशिकला उर्फ बेबी पाटणकर : ड्रग सामाज्य की मल्लिकाशार्ट स्टोरी – भाग 1

आज हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है. अपराध के क्षेत्र में भी महिलाएं पुरुषों से आगे निकली हैं. चंबल के बीहड़ों की कुछ हसीनाओं के खौफ के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं. ऐसी ही मुंबई की एक हसीना है शशिकला उर्फ बेबीताई पाटणकर.

बेबीताई के बारे में हम जितना जानना चाहेंगे, जितना पढ़नालिखना चाहेंगे, उतना कम ही है. क्योंकि बेबीताई कोई नन्ही सी बेबी नही हैं, बल्कि वह सफेद पाउडर की दुनिया की समृद्ध मलिका है.

सफेद पाउडर मतलब जिसे हम गर्द, ब्राऊन शुगर और कई विभिन्न नामों से जानते हैं. इसी सफेद पाउडर के धंधे की बेबीताई पाटणकर 100 करोड़ की लेडी डौन है.

शक्तिवर्द्धक दवा मेफेड्रोन (एमडी), जिसे लोकप्रिय रूप से म्याऊंम्याऊं कहा जाता है, को कथित तौर पर एक महिला द्वारा मुंबई लाया गया था, जो 1980 के दशक में शहर में दूध बेचती थी.

फिल्मों में ड्रग्स के काले कारोबार की कहानियां आप ने कई देखी होंगी. हम देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की एक ऐसी लेडी के बारे में बता रहे हैं, जो ड्रग्स के धंधे की रानी है. इस के रुतबे की कहानी जान कर दंग रह जाएंगे आप.

ड्रग्स के कारोबार की माफिया बेबीताई पाटणकर एक ऐसी ड्रग्स क्वीन है, जो साड़ी पहनती है. गले में मंगलसूत्र और माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाती है.

किसी हौलीवुड फिल्म से कम नहीं है बेबी पाटणकर की कहानी. आज से कुछ सालों पहले बेबी अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुंबई के घरों में दूध बेचा करती थी.

बताया जाता है कि उस के घर में कई सदस्य ड्रग्स के आदी थे. इसी बीच उसे ड्रग्स से होने वाली कमाई के बारे में पता लगा. फिर क्या था, उस ने हिम्मत दिखाते हुए दूध बेचने का काम छोड़ कर ड्रग्स की दुनिया में कदम रखा.

वैसे शशिकला उर्फ बेबी के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. वह धीरेधीरे ड्रग्स की दुनिया में अपनी पहचान बनाती गई. उस ने पहले ब्राउन शुगर और हशीश बेची और फिर मेफेड्रोन नाम की ड्रग्स का लेनदेन करने लगी.

जुर्म की दुनिया में अकसर लोगों के नामकरण होते हैं, वैसा ही कुछ हुआ शशिकला के साथ. लोगों ने उसे बेबी नाम से बुलाना शुरू कर दिया और इसी तरह उस का नाम बेबी पड़ा.

ड्रग्स के धंधे को बेबी अकेली ही चलाती थी. अप्रैल 2015 में मेफेड्रोन ड्रग्स मामले में पुलिस ने बेबी को महाराष्ट्र के नवी मुंबई के पनवेल से गिरफ्तार किया था, लेकिन उसे जमानत मिल गई थी.

बेबी के बारे में यह भी बताया जाता है कि ड्रग तसकरी में अपना सिक्का जमाने के बाद उस ने पुलिस के खबरी के तौर पर भी काम किया और कुछ बड़े ड्रग माफियाओं को पकड़वाने में पुलिस की मदद की.

100 करोड़ की मालकिन है बेबी

जानकारी के अनुसार, शशि के पास कई आलीशान कारें हैं और मुंबई के वर्ली में एक बंगला है, जिस की कीमत 2 करोड़ के आसपास बताई जा रही है.

पुलिस जानकारी के अनुसार, उस के कम से कम 3 बैंक अकाउंट थे, जिन में कम से कम 40-40 लाख रुपए जमा थे. कुल मिला कर बताया जाता है कि उस के पास 100 करोड़ की चलअचल संपत्ति है. पिछले साल गिरफ्तारी के बाद सत्र न्यायालय ने बेबी को 5 लाख के बेल बांड पर जमानत दे दी थी.

शशिकला पाटणकर उर्फ बेबी अपने 5 भाइयों में एकलौती थी और सब से छोटी थी.  मुंबई के वर्ली स्थित झुग्गीझोपडि़यों में रहने वाली शशिकला पाटणकर ने जब ड्रग्स बेचनी शुरू की थी, तब शुरुआत में वह आसानी से पुलिस की पकड़ में आ जाती थी, लेकिन 1980-90 के दशक में उस ने अचानक अपना कारोबार बढ़ाया.

उस कारोबार से बेबी पाटणकर ने एमडी बनने से पहले मुंबई में मारिजुआना और ब्राउन शुगर का कारोबार शुरू किया था. और उसी से संपत्ति और कीमती सामान अर्जित किया. फिर मध्य मुंबई, लोनावाला और पुणे के साथ मुंबई के ही वर्ली में अचल संपत्ति में निवेश किया.

धीरेधीरे दूध बेचने वाली बेबी की पहचान मुंबई के इलाकों में ड्रग्स डीलर की हो गई. जल्दी ही वह अपने पति रमेश पाटणकर से अलग हो गई और अपने बच्चों के साथ अलग घर में रहने लगी. यह वह समय था, जब बेबी पर हत्या के आरोप भी लगे थे.

साल 1993 में उस के अपने चचेरे भाइयों मनीष और विवेक ने उस के खिलाफ केस दर्ज कराया था और कहा था कि बेबी ने उन की मां को जला कर मार दिया. पर उस बारे में यह भी कहा जाता है कि मनीष और विवेक की मां भी ड्रग्स के कारोबार में आ गई थी और वह धीरेधीरे शशिकला को टक्कर दे रही थी.

बिजनैस में बढ़ती प्रतिद्वंदिता ही उस की हत्या का कारण बनी थी. इस घटना के कुछ सालों बाद शशिकला मेफेड्रोन का धंधा करने लगी. कहा जाता है कि यह एक ऐसा ड्रग होता है जो उस समय कोकिन से ज्यादा आसानी से उपलब्ध था.

शशिकला पाटणकर पर पुलिस की नजर तब टेढ़ी हुई, जब एक पुलिस कांस्टेबल धर्मराज कालोखे के ठिकाने से 114 किलोग्राम मेफेड्रोन, जिसे म्याऊंम्याऊं भी कहा जाता है, बरामद किया गया था.

इस कांस्टेबल ने उस वक्त कहा था कि इस ड्रग्स को शशिकला ने उसे दिया था. कहा जाता है कि इस के बाद शशिकला को पकड़ने के लिए 100 पुलिस वालों की एक टीम बनाई गई थी.

अब 61 साल की हो चुकी ड्रग माफिया शशिकला उर्फ बेबी पाटणकर, जिसे साल 2015 में मुंबई पुलिस ने गिरफ्तार किया था, ने पिछले 30 सालों में नशीले पदार्थों के व्यापार में शानदार वृद्धि हासिल की थी.

मसलन बेबी पाटणकर को उस के प्रेमी, पुलिस कांस्टेबल धर्मराज कालोखे को 9 मार्च को गिरफ्तार किया गया था और बाद में सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था. साथ ही आगे कालोखे और बेबी पाटणकर  के बेटे सतीश को भी मामले में गिरफ्तार कर लिया था.

बेबी पाटणकर के 22 बैंक खाते थे. उस ने एक खाते में सावधि जमा (एफडी) के लिए 1.45 करोड़ रुपए जमा किए थे.

राजू ठेहठ : अपराध की दुनिया का बादशाह – भाग 1

आनंदपाल की मौत के बाद राजू ठेहठ के गैंग की ताकत बढ़ गई है. वह जेल से ही अपने गैंग को संचालित करता है. राजू यह बात अच्छी तरह जानता है कि कोई भी गैंगस्टर स्वाभाविक मौत नहीं मरता. या तो वह पुलिस की गोली का निशाना बनता है या फिर अपने दुश्मन की गोली का. इसलिए अब वह किसी तरह राजनीति में आने की कोशिश कर रहा है.

राजस्थान के सीकर जिले के ठेहठ गांव का रहने वाला राजेंद्र उर्फ राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा में गहरी दोस्ती थी. दोनों पक्के दोस्त थे. वे साथ में शराब के ठेके लिया करते थे. दिनरात एकदूजे के साथ रहते थे. साथ में खाना तो होता ही था, दोनों एकदूसरे से कोई बात भी नहीं छिपाते थे. उन में गहरी छनती थी.

राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा शराब के ठेके ले कर अच्छा मुनाफा कमा रहे थे. कहते हैं न कि दोस्ती के बीच जब धन बेशुमार आने लगता है, तब दोस्ती में यह धन दरार पैदा करा देता है. यही बात इन दोनों में हुई. इन में मतभेद हुए तो ये शराब के ठेके अलगअलग लेने लगे.

ऐसे में दोनों के बीच होड़ लग गई कि कौन ज्यादा पैसे कमाए. वैसे तो दोनों ही व्यवहारिक थे लेकिन जब उन के पास मोटा पैसा आया तो वे अकड़ दिखाने लगे. उन के शराब ठेकों पर अकसर मारपीट होने लगी. यानी वह रौबरुतबा कायम करने लगे.

उन की दोस्ती टूटने की भी एक वजह थी. दरअसल, बलबीर बानूड़ा का रिश्ते में साला लगता था विजयपाल. विजयपाल शराब के ठेके पर सेल्समैन था. सन 2005 की बात है. विजयपाल की किसी बात को ले कर राजू ठेहठ से अनबन हो गई. राजू ठेहठ ने अपने गुर्गों के साथ विजयपाल की जबरदस्त पिटाई की, जिस से विजयपाल की मौत हो गई.

बस, उसी दिन से राजू ठेहठ और बलबीर बानूड़ा की दोस्ती टूट गई. दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए. उन्होंने अपनेअपने गैंग बना कर एकदूसरे पर हमले शुरू कर दिए.

विजयपाल की हत्या का बदला लेने के लिए बलबीर बानूड़ा उतावला हो रहा था. बलबीर बानूड़ा के गैंग से उन्हीं दिनों आनंदपाल आ जुड़ा. बस फिर क्या था. वे राजू ठेहठ का काम तमाम करने का मौका तलाशने लगे.

राजू ठेहठ गैंग और बलबीर बानूड़ा गैंग के गुंडे आपस में जबतब टकराने लगे. जिस गैंग का व्यक्ति मारा जाता, उस गैंग के लोग बदला ले लेते. इस तरह दोनों गैंग के बीच खूनी खेल शुरू हो गया था.

गैंगवार से पुलिस की नींद उड़ गई थी. पुलिस इन सभी के पीछे हाथ धो कर पड़ी थी. आनंदपाल, बलबीर बानूड़ा और राजू ठेहठ के ऊपर अलगअलग थानों में मुकदमे दर्ज होने लगे.

राजू ठेहठ पर विजयपाल की हत्या का मुकदमा चल रहा था. आनंदपाल ने अपने मित्र की मौत का बदला जीवनराम गोदारा की हत्या कर ले लिया. इस तरह कुख्यात अपराधी राजू ठेहठ और आनंदपाल की गहरी दुश्मनी हो गई. दोनों एकूसरे के खून के प्यासे बन गए थे.

सन 2012 में पुलिस ने जयपुर से बलबीर बानूड़ा को गिरफ्तार कर लिया था. इस के 8 महीने बाद ही आनंदपाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों जेल में रह कर ही अपने गैंग का संचालन कर रहे थे.

आनंदपाल और राजू ठेहठ में हो गई दुश्मनी

इस के बाद सन 2013 में राजू ठेहठ भी पकड़ा गया. जेल में रहते हुए ही आनंदपाल और बलबीर बानूड़ा ने सुभाष को राजू ठेहठ की हत्या के लिए तैयार कर दिया. मौका मिलने पर सुभाष ने सीकर जेल में ही राजू ठेहठ को गोली मारी, जो उस के जबड़े में लगी लेकिन वह बच गया.

इस के बाद राजू ठेहठ ने इस का बदला लेने के लिए बीकानेर जेल में बंद आनंदपाल पर अपने आदमियों से फायरिंग करवाई, जिस में आनंदपाल तो बच गया लेकिन बलबीर बानूड़ा चपेट में आ गया और जेल में ही उस की मौत हो गई.

इस वारदात को अंजाम देने वाले राजू ठेहठ के आदमी को उसी वक्त जेल में पीटपीट कर मार दिया गया था. राजू ठेहठ का भाई ओम ठेहठ भी गैंग से जुड़ा था और वह भाई राजू के कंधे से कंधा मिला कर गैंग चलाता था. इन शातिर गैंगस्टरों के एक इशारे पर धन्नासेठ लाखों रुपए दे देते थे.

राजू ठेहठ और आनंदपाल का इतना खौफ था कि उन के आदमी फोन कर के सेठ लोगों को धमकी देते कि ‘सेठ जीना है तो 20 लाख शाम तक पहुंचा देना.’ सेठ की क्या मजाल कि वह इन्हें मना करे. मना करने वाले को ये लोग दूसरी दुनिया में भेज देते थे. इन की नागौर, सीकर, चुरू, बीकानेर, जयपुर, अजमेर आदि जिलों में तूती बोलती थी.

बाद में आनंदपाल पेशी के दौरान फरार हो गया और इस के बाद पुलिस द्वारा किए गए एक एनकाउंटर में वह मारा गया था. उस की मौत से राजू ठेहठ एकमात्र ऐसा गैंगस्टर था, जिस को सब से ज्यादा खुशी हुई. वह बलबीर बानूड़ा को पहले ही निपटा चुका था. अब पुलिस ने आनंदपाल को निपटा कर उसे दोहरी खुशी दे दी थी.

सीकर जिले के रानोली गांव के विजयपाल हत्याकांड में आरोपी गैंगस्टर राजू ठेहठ और उस के साथी मोहन माडोता को कोर्ट ने सन 2018 में उम्रकैद की सजा सुनाई. 23 जून, 2005 को ठेहठ ने विजयपाल की हत्या कर दी थी. सीकर अपर सेशन न्यायाधीश सुरेंद्र पुरोहित ने यह सजा सुनाई.

सीकर और शेखावटी में बदमाशों के बीच गैंगवार शुरू होने के बाद थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. राजू ठेहठ को उम्रकैद की सजा के बाद लगा था कि गैंग खत्म होगा, मगर ऐसा नहीं हो सका. पुलिस सूत्रों के अनुसार जेल से ही राजू और उस का भाई ओम ठेहठ गैंग को संचालित कर रहे थे.

खैर, आनंदपाल गैंग के सब से बड़े दुश्मन राजू ठेहठ की जान को खतरा था. सीकर पुलिस को आशंका थी राजू ठेहठ के दुश्मन मौका मिलते ही उसे गोलियों से छलनी कर देंगे. यही वजह थी कि सीकर पुलिस राजू ठेहठ की कोर्ट में पेशी के दौरान भारी पुलिस सुरक्षा और बुलेटप्रूफ जैकेट पहना कर ले जाती थी.

पप्पू स्मार्ट : मोची से बना खौफनाक गैंगस्टर – भाग 1

उत्तर प्रदेश का कानपुर शहर 2 मायनों में खास है. पहला उद्योग के मामले में. यहां का चमड़ा उद्योग दुनिया में मशहूर है और दूसरा जरायम के लिए. कानपुर में दरजनों गैंगस्टर हैं, जो शासनप्रशासन की नींद हराम किए रहते हैं. ये गैंगस्टर राजनीतिक छत्रछाया में फलतेफूलते हैं. हर गैंगस्टर किसी न किसी पार्टी का दामन थामे रहता है. पार्टी के दामन तले ही वह शासनप्रशासन पर दबदबा कायम रखता है.

जघन्य अपराध के चलते जब गैंगस्टर पकड़ा जाता है और जेल भेजा जाता है, तब पार्टी के जन प्रतिनिधि उसे छुड़ाने के लिए पैरवी कर पुलिस अधिकारियों पर दबाव डालते हैं. ऐसे में पुलिस की लचर कार्य प्रणाली से गैंगस्टर को जमानत मिल जाती है. जमानत मिलने के बाद वह फिर से जरायम के धंधे में लग जाता है.

कानपुर शहर का ऐसा ही एक कुख्यात गैंगस्टर है आसिम उर्फ पप्पू स्मार्ट. जुर्म की दुनिया का वह बादशाह है. उस के नाम से जनता थरथर कांपती है. पप्पू स्मार्ट थाना चकेरी का हिस्ट्रीशीटर अपराधी है.

पुलिस रिकौर्ड में पप्पू स्मार्ट का एक संगठित गिरोह है, जिस में अनेक सदस्य हैं. पुलिस अभिलेखों में यह गिरोह डी 123 के नाम से पंजीकृत है. इस के साथ ही उस का नाम चकेरी थाने की भूमाफिया सूची में भी दर्ज है.

पप्पू स्मार्ट और उस के गिरोह के खिलाफ कानपुर के अलावा प्रदेश के विभिन्न जिलों में 35 केस दर्ज हैं जिन में हत्या, हत्या का प्रयास, रंगदारी, अवैध वसूली, मारपीट, जान से मारने की धमकी, सरकारी जमीनों पर कब्जे, गुंडा एक्ट तथा गैंगस्टर एक्ट के मुकदमे हैं.

पप्पू स्मार्ट की दबंगई इतनी थी कि उस ने अपने गिरोह की मदद से जाजमऊ स्थित महाभारत कालीन ऐतिहासिक राजा ययाति का खंडहरनुमा किला कब्जा कर के बेच डाला और अवैध बस्ती बसा दी. वर्तमान समय में पप्पू स्मार्ट अपने दोस्त बसपा नेता व हिस्ट्रीशीटर नरेंद्र सिंह उर्फ पिंटू सेंगर की हत्या के जुर्म में कानपुर की जेल में बंद है.

आसिम उर्फ पप्पू स्मार्ट कौन है, उस ने जुर्म की दुनिया में कदम क्यों और कैसे रखा, फिर वह जुर्म का बादशाह कैसे बना? यह सब जानने के लिए उस के अतीत में झांकना होगा.

कानपुर महानगर के चकेरी थानांतर्गत एक मोहल्ला है हरजेंद्र नगर. इसी मोहल्ले में मोहम्मद सिद्दीकी रहता था. उस के परिवार में बेगम मेहर जहां के अलावा 4 बेटे आसिम उर्फ पप्पू, शोएब उर्फ पम्मी, तौसीफ उर्फ कक्कू तथा आमिर उर्फ बिच्छू थे.

मोहम्मद सिद्दीकी मोची का काम करता था. हरजेंद्र नगर चौराहे पर उस की दुकान थी. यहीं बैठ कर वह जूता गांठता था. चमड़े का नया जूता बना कर भी बेचता था. उस की माली हालत ठीक नहीं थी. बड़ी मुश्किल से वह परिवार को दो जून की रोटी जुटा पाता था.

आर्थिक तंगी के कारण मोहम्मद सिद्दीकी अपने बेटों को अधिक पढ़ालिखा न सका. किसी ने 5वीं दरजा पास की तो किसी ने 8वीं. कोई हाईस्कूल में फेल हुआ तो उस ने पढ़ाई बंद कर दी. पढ़ाई बंद हुई तो चारों भाई अपने अब्बूजान के काम में हाथ बंटाने लगे.

बेटों की मेहनत रंग लाई और मोहम्मद सिद्दीकी की दुकान अच्छी चलने लगी. आमदनी बढ़ी तो घर का खर्च मजे से चलने लगा. कर्ज की अदायगी भी उस ने कर दी और सुकून की जिंदगी गुजरने लगी.

मामा से सीखा जुर्म का पाठ

चारों भाइयों में आसिम उर्फ पप्पू सब से बड़ा तथा शातिरदिमाग था. उस का मन दुकान के काम में नहीं लगता था. वह महत्त्वाकांक्षी था और ऊंचे ख्वाब देखता था. उस के ख्वाब छोटी सी दुकान से पूरे नहीं हो सकते थे. अत: उस का मन भटकने लगा था. उस ने इस विषय पर अपने भाइयों से विचारविमर्श किया तो उन्होंने भी उस के ऊंचे ख्वाबों का समर्थन किया.

लेकिन अकूत संपदा अर्जित कैसे की जाए, इस पर जब आसिम उर्फ पप्पू ने मंथन किया तो उसे अपने मामूजान की याद आई. पप्पू के मामा रियाजुद्दीन और छज्जू कबूतरी अनवरगंज के हिस्ट्रीशीटर थे और अपने जमाने में बड़े ड्रग्स तसकर थे.

आसिम उर्फ पप्पू ने अपनी समस्या मामू को बताई तो वह उस की मदद करने को तैयार हो गए. उन्होंने पप्पू से कहा कि साधारण तौरतरीके से ज्यादा दौलत नहीं कमाई जा सकती. इस के लिए तुम्हें जरायम का ककहरा सीखना होगा.

मामू की बात सुन कर आसिम उर्फ पप्पू राजी हो गया. उस के बाद छज्जू कबूतरी से ही पप्पू एवं उस के भाइयों ने अपराध का ककहरा सीखा. सब से पहले इन का शिकार हुआ हरजेंद्र नगर चौराहे पर रहने वाला एक सरदार परिवार, जिस के घर के सामने पप्पू की मोची की दुकान थी.

चारों भाइयों ने अपने मामा छज्जू कबूतरी की मदद से उस सरदार परिवार को प्रताडि़त करना शुरू किया. मजबूर हो कर सरदार परिवार घर छोड़ कर पंजाब पलायन कर गया.

इस मकान पर पप्पू और उस के भाइयों ने कब्जा कर लिया और जूते का शोरूम खोल दिया. जिस का नाम रखा गया स्मार्ट शू हाउस. दुकान की वजह से आसिम उर्फ पप्पू का नाम पप्पू स्मार्ट पड़ गया.

पप्पू स्मार्ट के खिलाफ पहला मुकदमा वर्ष 2001 में कोहना थाने में आईपीसी की धारा 336/436 के तहत दर्ज हुआ. इस में धारा 436 गंभीर है, जिस में किसी भी उपासना स्थल या घर को विस्फोट से उड़ा देना या आग से जला देने का अपराध बनता है. दोषी पाए जाने पर अपराधी को आजीवन कारावास की सजा हो सकती है.

इस मुकदमे के बाद पप्पू स्मार्ट ने मुड़ कर नहीं देखा. साल दर साल उस के जुर्म की किताब के पन्ने थानों के रोजनामचे में दर्ज होते रहे.

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पप्पू स्मार्ट ने एक संगठित गिरोह बना लिया, जिस में 2 उस के सगे भाई तौसीफ उर्फ कक्कू तथा आमिर उर्फ बिच्छू शामिल थे. इस के अलावा बबलू सुलतानपुरी, वसीम उर्फ बंटा, तनवीर बादशाह, गुलरेज, टायसन जैसे अपराधियों को अपने गिरोह में शामिल कर लिया. पूर्वांचल के माफिया सऊद अख्तर, सलमान बेग, साफेज उर्फ हैदर तथा महफूज जैसे कुख्यात अपराधियों के संपर्क में भी वह रहने लगा.

सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा : अंडरवर्ल्ड डौन का भी महागुरु – भाग 1

उत्तर प्रदेश में इसी साल विधानसभा चुनाव का मौका था. अचानक यूपी की वाराणसी जेल में बंदियों से मुलाकात और उन से मिलने वालों की आमद बढ़ गई थी. बंदियों से मुलाकात करने वाले लोग कोई साधारण इंसान नहीं थे. राजनीतिक दलों से जुड़े नेता और प्रभावशाली लोग अचानक फलों और मिठाइयों के टोकरे ले कर जिस शख्स से मिलने के लिए आ रहे थे, वह भी कोई साधारण इंसान नहीं था.

साढ़े 6 फुट से भी ज्यादा ऊंचाई और विशालकाय शरीर वाले उस अधेड़ कैदी के सिर के घने बाल पक कर पूरी तरह सफेद हो चुके थे.

चेहरे पर बढ़ी लंबी सफेद दाढ़ी और मूंछ उस के व्यक्तित्व को और भी ज्यादा संजीदा बना रही है. उस के लंबे घने बालों को संवारने के लिए बांधा गया लंबा पटकेनुमा रुमाल उसे रुआबदार बना रहा था.

झक सफेद कपड़े पहने वह रुआबदार कैदी जब हाथों की अंगुलियों में महंगी सिगरेट दबाए उस खास बड़ी सी बैरक में आता है तो वहां पहले से इंतजार में बैठे मुलाकाती और दूसरे कैदी सम्मान में खडे़ हो जाते हैं.

इन में से कुछ तो इस तरह उस के पैरों में झुक कर सजदा करते हैं, मानो उन के लिए वह भगवान हो. आरामदायक सोफेनुमा कुरसी पर बैठने के बाद वह करिश्माई शख्स सुनवाई शुरू कर देता है.

एक के बाद एक सामने बैठे लोग अपनी फरियाद सुनाते हैं. वहां कुछ ऐसे कैदी भी मौजूद होते हैं, जो देखने से ही खतरनाक किस्म के प्रभावशाली लगते हैं. लेकिन वह शख्स उन सभी को हिदायतें देता है.

एकदो घंटे तक ये दरबार चलता है. इस दौरान जेल के अधिकारी व कर्मचारी भी बीच में आते रहते हैं. आगंतुकों के आनेजाने का सिलसिला चलता रहता है. खानेपीने के लिए फल, ड्राईफ्रूट और चायकौफी आते रहते हैं. एकदो घंटे के बाद ये दरबार खत्म हो जाता है.

ऐसे दृश्य आमतौर पर हिंदी फिल्मों में देखने और सुनने को मिलते हैं. लेकिन ये किसी फिल्म का दृश्य नहीं, बल्कि यूपी के बनारस जेल की ऐसी हकीकत है जो हर रोज दिखाई देती है. हां, ये अलग बात है कि जब प्रदेश में चुनाव हुए तो जेल में लगने वाले इस दरबार की रौनक कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी.

बनारस की इस जेल में बंद जिस खास बंदी का हम जिक्र कर रहे हैं, उस शख्स का नाम है सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा उर्फ बाबा ठाकुर. ये वो शख्स है, जो कई जेलों में रहने के बाद पिछले 2 सालों से बनारस की जेल में अपनी उम्रकैद की सजा काट रहा है.

जेल में ही लगता है दरबार

वैसे तो बाबा ठाकुर इस जेल में बंदी की हैसियत से रहता है. लेकिन उस की शख्सियत  और रसूख कुछ ऐसा है कि वह इस जेल का राजा है. जिस का हर रोज दरबार लगता है.

लंबी दाढ़ी व बाल अब सुभाष सिंह ठाकुर की पहचान बन चुकी है. लोग उसे अब बाबाजी कहते हैं. जरायम की दुनिया के लोग हों या राजनीतिक जगत की हस्तियां, हर कोई बाबा ठाकुर का सम्मान करता है. जेल के अंदर और बाहर रहने वाले लोगों के लिए जेल के अंदर सुभाष ठाकुर का दरबार लगता है.

इस दरबार में जेल के अधिकारी से ले कर कर्मचारी तक मौजूद होते हैं. बाहर से मिलने आने वाले कारोबारी से ले कर नेता और फरियादी इस दरबार में पहुंच कर बाबा ठाकुर को अपनी फरियाद सुनाते हैं.

हर फरियादी की समस्या का समाधान होता है दरबार में

दिलचस्प बात यह है कि लोगों की फरियाद सुनी ही नहीं जाती, बल्कि उस का निदान भी किया जाता है. मामला चाहे दिल्ली, यूपी का हो या मायानगरी मुंबई का. बाबा ठाकुर के एक इशारे पर लोगों के काम हो जाते हैं. हो भी क्यों न, इस देश में आज जितने भी डौन, गैंगस्टर और माफिया हैं, बाबा ठाकुर एक तरह से उन सब का महागुरु है.

देश का सब से बड़ा माफिया डौन दाऊद इब्राहिम जो इन दिनों पाकिस्तान में है, वह भी बाबा ठाकुर का ही शागिर्द रहा है. यूपी के सब से बड़े डौन बाहुबली मुख्तार अंसारी से ले कर अतीक अहमद तक सुभाष ठाकुर से अदावत नहीं लेना चाहते.

अब राजनीति का लबादा ओढ़ चुके यूपी के बृजेश सिंह भी कभी इसी बाबा ठाकुर की शागिर्दी में काम कर के यूपी का सब से बड़ा डौन बना था.

वैसे तो यूपी के पूर्वांचल में बाहुबलियों का बोलबाला रहा है. चाहे सियासत हो या फिर ठेकेदारी, हर जगह किसी न किसी तरह से बाहुबली शामिल हैं.

पूर्वांचल में कई माफिया गैंगस्टर रहे हैं, लेकिन सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा को यूपी का सब से बड़ा और पहला माफिया डौन कहा जाता है. उम्रकैद की सजा काट रहे बाबा ठाकुर के खिलाफ 50 से ज्यादा मामले दर्ज हैं, जिन में से कई मामलों में उसे दोषी करार दिया जा चुका है.

उम्रकैद की सजा मिलने के बाद सुभाष ठाकुर ने अपनी दाढ़ीमूंछें बढ़ा लीं, जिस कारण लोग उसे बाबाजी के नाम से पुकारने लगे. जेल में लगने वाले बाबा सुभाष ठाकुर के दरबार में हर समस्या का समाधान होता है.

चाहे किसी से पुरानी रंजिश या जमीन के लेनदेन का विवाद, कारोबार, झगड़ा हो या बदमाशों से मिलने वाली धमकी, बाबा के दरबार में जिस ने भी आ कर अपनी समस्या रखी, उस का समाधान जरूर होता है.

लेकिन हर काम की फीस ली जाती है. चुनाव में तो बाबा ठाकुर का खास दखल रहता है, खासकर पूर्वांचल की बात करें तो वहां की कई सीटों पर सुभाष ठाकुर उर्फ बाबा का सीधा प्रभाव होता है. इसीलिए पूर्वांचल में हर छोटेबड़े राजनीतिक दलों के नेता बाबा सुभाष ठाकुर से जीत का आशीर्वाद लेने के लिए जेल में आते हैं.

पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव में संयुक्त प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव जब एक वैवाहिक कार्यक्रम में भाग लेने वाराणसी गए थे तो बीएचयू अस्पताल में बाबा ठाकुर से उन की मुलाकात के खूब चर्चे हुए थे.

दरअसल, बाबा सुभाष ठाकुर की ताकत का सभी को पता है, इसलिए सभी नेता उन के दरबार में आशीर्वाद लेने जाते हैं. पूर्वांचल में युवाओं का एक बड़ा वर्ग, खासतौर से ठाकुर लौबी के युवा बाबा ठाकुर को अपना हीरो मानते हैं. बाबा ठाकुर के एक इशारे पर वे कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं.

सुभाष सिंह ठाकुर कैसे बना डौन

सुभाष सिंह ठाकुर उर्फ बाबा इतना बड़ा गैंगस्टर कैसे बना, बड़ेबड़े भाई लोग उस से खौफ क्यों खाते हैं, इस की कहानी एकदम फिल्मी है.

70 से 80 के दशक के मध्य की बात है, जब वाराणसी के फूलपुर थानांतर्गत मंगारी गांव का रहने वाला 17 साल का नौजवान सुभाष ठाकुर काम की तलाश में छोटे से गांव से निकल कर सपनों की नगरी मुंबई गया था.

एक साधारण किसान परिवार का युवक सुभाष 5 बहनभाइयों में सब से बड़ा था. बहुत ज्यादा तो पढ़ नहीं सका, क्योंकि परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी. लेकिन सुभाष के सपने काफी बड़े थे. बचपन से ही वह बौलीवुड की हिंदी फिल्में देख कर उन में गुंडों के सरदारों के किरदार देख कर उन के जैसे रौबदार इंसान बनने के ख्वाब देखता था.

70 से 80 के दशक का यह वो दौर था, जब मुंबई में पूर्वांचल में रहने वाले बेरोजगार नौजवान तेजी से काम की तलाश में मुंबई जा रहे थे. इन में कोई टैक्सी चलाने लगा तो कोई ढाबों पर काम करने लगा तो कुछ ने पावभाजी बेचनी शुरू कर दी.

17 साल की उम्र में सुभाष भी ऐसे ही किसी छोटेमोटे काम को कर के बड़ा आदमी बनने के लिए मुंबई गया था.

नए काम की तलाश में जब सुभाष ठाकुर उर्फ बाबा ने पहली बार मायानगरी मुंबई में कदम रखा, तो शुरू में उसे काफी धक्के खाने पड़े. उस ने देखा कि मुंबई में लोकल मराठी गुंडे और दक्षिण भारतीय गुंडों के कुछ ऐसे छोटेछोटे गुट हैं, जो कोई काम नहीं करते. बल्कि अपनी दबंगई के बल पर दुकानदारों, छोटेमोटे कारोबारियों और टैक्सी वालों से हफ्तावसूली कर के ऐश की जिंदगी बसर करते हैं.

कुछ महीनों में जीतोड़ मेहनत के कई काम करने के बाद सुभाष को लगने लगा कि इस तरह के काम से वह अपना पेट तो भर सकता है, लेकिन कभी अपने उन सपनों को पूरा नहीं कर सकता, जिसे ले कर वह मायानगरी में आया है.

संयोग से उन दिनों एक ऐसा वाकया हो गया, जिस ने सुभाष की जिदंगी बदल दी. विरार इलाके में पावभाजी का ठेला लगाने वाले उस के एक दोस्त से हफ्तावसूली को ले कर मराठी गुंडों का झगड़ा हो गया. सुभाष कदकाठी और ताकत में ऐसा था कि किसी को भी पहली नजर में डरा देता था. सुभाष ने उस दिन पहली बार उन मराठी गुंडों की जम कर पिटाई कर दी.

अंजाम ये हुआ कि लोकल मराठी लड़कों ने पुलिस में अपनी सेटिंग के बूते सुभाष के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा दी. पुलिस ने सुभाष को उठा लिया और जम कर पिटाई कर के उसे जेल भेज दिया.

पूर्वांचल के नौजवानों का बनाया गुट

कुछ दिन बाद उस की जमानत तो हो गई, लेकिन जेल से बाहर आने के बाद भी पुलिस ने सुभाष को परेशान करना नहीं छोड़ा. लोकल मराठी लड़कों को स्थानीय नेताओं की शह थी, जिन के दबाव में पुलिस आए दिन सुभाष को झूठी शिकायत के आधार पर पकड़ लाती और परेशान करती.