युवाओं के सपने चूर करती अमेरिकी वीजा नीति

अमेरिका की प्रस्तावित नई वीजा नीति से दुनियाभर में खलबली मची हुई है. इस से अमेरिका में रह रहे एच1बी वीजा धारकों की नौकरी पर संकट तो है ही, वहां जाने का सपना देखने वाले युवा और उन के मांबाप भी खासे निराश हैं. एच1बी नीति का विश्वभर में विरोध हो रहा है. अमेरिकी कंपनियां और उन के प्रमुख, जो ज्यादातर गैरअमेरिकी हैं, विरोध कर रहे हैं. खासतौर से सिलीकौन वैली में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं. सिलीकौन वैली की 130 कंपनियां ट्रंप के फैसले का खुल कर विरोध कर रही हैं. ये कंपनियां दुनियाभर से जुड़ी हुई हैं. वहां काम करने वाले लाखों लोग अलगअलग देशों के नागरिक हैं. उन में खुद के भविष्य को ले कर कई तरह की शंकाएं हैं. हालांकि यह साफ है कि अगर सभी आप्रवासियों पर सख्ती की जाती है तो सिलीकौन वैली ही नहीं, पूरे अमेरिका का कारोबारी संतुलन बिगड़ जाएगा.

इस से उन कंपनियों में दिक्कत होगी जो भारतीय आईटी पेशेवरों को आउटसोर्सिंग करती हैं. कई विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों से अपने यहां काम का अनुबंध करती हैं. इस के तहत कई भारतीय कंपनियां हर साल हजारों लोगों को अमेरिका में काम करने के लिए भेजती हैं.

आप्रवासन नीति पर विवाद के बीच अमेरिका की 97 कंपनियों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ मुकदमा ठोक दिया है. इन में एपल, गूगल, माइक्रोसौफ्ट भी शामिल हैं. इन में से अधिकतर कंपनियां आप्रवासियों ने खड़ी की हैं. उन्होंने अदालत में दावा किया कि राष्ट्रपति का आदेश संविधान के खिलाफ है. आंकड़ों का हवाला दे कर कहा गया है कि अगर इन कंपनियों को मुश्किल होती है तो अमेरिकी इकौनोमी को 23 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है.

कई देश ट्रंप प्रशासन के आगे वीजा नीति न बदलने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं. भारत भी अमेरिका में रह रहे अपने व्यापारियों के माध्यम से दबाव बना रहा है कि जैसेतैसे मामला वापस ले लिया जाए या उदारता बरती जाए. भारत के पक्ष में लौबिंग करने वाले एक समूह नैसकौम के नेतृत्व में भारतीय कंपनियों के बड़े अधिकारी इस मसले को ट्रंप प्रशासन के सामने उठाना चाह रहे हैं.

नई वीजा नीति से भारत सब से अधिक चिंतित है. 150 अरब डौलर का घरेलू आईटी उद्योग संकटों से घिर रहा है. भारत के लाखों लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं. तय है वहां काम  कर रहे भारतीय पेशेवरों पर खासा प्रभाव पड़ेगा. इस से टाटा कंसल्टैंसी लिमिटेड यानी टीसीएल, विप्रो, इन्फोसिस जैसी भारतीय आईटी कंपनियां भी प्रभावित होंगी. आईटी विशेषज्ञ यह मान कर चल रहे हैं कि यह नीति अमल में आती है तो यह बड़ी मुसीबत के समान होगी. अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका दुनिया को श्रेष्ठ आविष्कारक देने वाला देश नहीं रह जाएगा.

यह सच है कि दुनियाभर की प्रतिभाएं अमेरिका जाना चाहती हैं. वर्ष 2011 में आप्रवासन सुधार समूह ‘पार्टनरशिप फौर अ न्यू अमेरिकन इकोनौमी’ ने पाया कि फौर्च्यून 500 की सूची में शामिल कंपनियों में 40 प्रतिशत की स्थापना आप्रवासियों ने की. अमेरिका में 87 निजी अमेरिकन स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की कीमत 68 अरब डौलर या इस से अधिक है. कहा जाता है कि यहां आधे से अधिक स्टार्टअप ऐसे हैं जिन की स्थापना करने वाले एक या उस से अधिक लोग प्रवासी थे, उन के 71 प्रतिशत एक्जीक्यूटिव पद पर नियुक्त थे.

गूगल, माइक्रोसोफ्ट जैसी कंपनियों के प्रमुख भारतीय हैं जो अपनी योग्यता व कुशलता से न सिर्फ इन कंपनियों को चला रहे हैं, इन के जरिए तकनीक की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत भी कर चुके हैं. इन कंपनियों ने हजारों जौब उत्पन्न किए हैं और पिछले दशक में इन्होंने न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी से निकाला बल्कि अरबों डौलर कमाई कर के उसे मजबूत भी बनाया. ये वही कंपनियां हैं जिन के संस्थापक दुनिया के अलगअलग देशों के नागरिक हैं.

1. क्या है एच1बी वीजा

एच1बी वीजा अमेरिकी कंपनियों को अपने यहां विदेशी कुशल और योग्य पेशेवरों को नियुक्त करने की इजाजत देता है. अगर वहां समुचित जौब हो और स्थानीय प्रतिभाएं पर्याप्त न हों तो नियोक्ता विदेशी कामगारों को नियुक्ति दे सकते हैं.

1990 में तत्कालीन राष्ट्रपति जौर्ज डब्लू बुश ने विदेशी पेशेवरों के लिए इस विशेष वीजा की व्यवस्था की थी. आमतौर पर किसी खास कार्य में कुशल लोगों के लिए यह 3 साल के लिए दिया जाता है. एच1बी वीजा केवल आईटी, तकनीकी पेशेवरों के लिए नहीं है, बल्कि किसी भी तरह के कुशल पेशेवर के लिए होता है. 2015 में एच1बी वीजा सोशल साइंस, आर्ट्स, कानून, चिकित्सा समेत 18 पेशों के लिए दिया गया. अमेरिकी सरकार हर साल इस के तहत 85 हजार वीजा जारी करती आई है. कहा जा रहा है कि फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप भी अमेरिका में मौडल के रूप में स्लोवेनिया से एच1बी वीजा के तहत आई थीं.

2. प्रस्तावित आव्रजन नीति

ज्यादा से ज्यादा अमेरिकी युवाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश जारी किया और सिलीकौन वैली के डैमोके्रट जोए लोफग्रेन द्वारा संसद में हाई स्किल्ड इंटिग्रिटी ऐंड फेरयनैस ऐक्ट-2017 पेश किया गया. इस के तहत इन वीजाधारकों का वेतन लगभग दोगुना करने का प्रस्ताव है. अभी एच1बी वीजा पर बुलाए जाने वाले कर्मचारियों को कंपनियां कम से कम 60 हजार डौलर का भुगतान करती हैं. विधेयक के ज्यों का त्यों पारित होने के बाद यह वेतन बढ़ कर 1 लाख 30 हजार डौलर हो जाएगा. विधेयक में कहा गया है, ‘‘अब समय आ गया है कि हमारी आव्रजन प्रणाली अमेरिकी कर्मचारियों के हित में काम करना शुरू कर दे.’’

दरअसल, अब अमेरिका में यह भावना फैलने लगी थी कि विदेशी छात्र स्थानीय आबादी का रोजगार खा रहे हैं. ट्रंप इसी सोच का फायदा उठा कर सत्ता में पहुंच गए. उन्होंने चुनावी सभाओं में अमेरिकी युवाओं से विदेशियों की जगह उन के रोजगार को प्राथमिकता देने का वादा किया था.

वास्तव में भारतीय आईटी कंपनियां अमेरिका में जौब भी दे रही हैं और वहां की अर्थव्यवस्था में योगदान भी कर रही हैं. भारतीय आईटी कंपनियों से अमेरिका में 4 लाख डायरैक्ट तथा इनडायरैक्ट जौब मिल रहे हैं. वहीं, अमेरिकी इकोनौमी में 5 बिलियन डौलर बतौर टैक्स चुकाया जा रहा है. भारत से हर साल एच1बी वीजा तथा एल-1 वीजा फीस के रूप में अमेरिका को 1 बिलियन डौलर की आमदनी हो रही है.

अमेरिका पिछले साल जनवरी 2016 में एच1बी और एल-1 वीजा फीस बढ़ा चुका है. एच1बी वीजा की फीस 2 हजार डौलर से 6 हजार डौलर और एल-1 वीजा की फीस 4,500 डौलर कर दी गई थी. हाल के वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने यह नियम बना लिया कि विदेशों से प्रतिवर्ष केवल एक लाख छात्र ही ब्रिटेन आ सकते हैं. उस ने वीजा की शर्तें बहुत कठोर कर दीं. लगभग इसी समय अमेरिका ने उदारवादी शर्तों पर स्कौलरशिप दे कर भारतीय छात्रों को आकर्षित किया. वहां पार्टटाइम काम कर के शिक्षा का खर्च जुटाना भी आसान था. अनेक भारतीय छात्र,  जिन्होंने अमेरिका में शिक्षा प्राप्त की थी, वहीं बस गए. अमेरिकी संपन्न जनता को भी सस्ती दरों पर प्रशिक्षित भारतीय छात्र मिल जाते थे जो अच्छी अंगरेजी बोल लेते थे और कठिन परिश्रम से नहीं चूकते थे.

एच1बी वीजा नीति को ले कर भारतीय आईटी कंपनियों में नाराजगी है. उन का तर्क है कि आउटसोर्सिंग सिर्फ उन के या भारत के लिए फायदेमंद नहीं है बल्कि यह उन कंपनियों व देशों के लिए भी लाभदायक है जो आउटसोर्सिंग कर रहे हैं.

नए कानून से भारतीय युवा उम्मीदों को गहरा आघात लगेगा. सालों से जो भारतीय मांबाप अपने बच्चों को अमेरिका भेजने का सपना देख रहे हैं, उन पर तुषारापात हो गया है. इस का असर दिखने भी लगा है. आईटी कंपनियां कैंपस में नौकरियां देने नहीं जा रही हैं. भारत के प्रमुख इंजीनियरिंग और बिजनैस स्कूलों के कैंपस प्लेसमैंट पर अमेरिका के कड़े वीजा नियमों का असर देखा जा रहा है. जनवरी से देश के प्रमुख आईआईएम और आईआईटी शिक्षण संस्थानों समेत प्रमुख कालेजों में प्लेसमैंट प्रक्रिया शुरू हुई पर उस में वीजा नीति का असर देखा जा रहा है.

3. प्रतिभा पलायन क्यों?

सवाल यह है कि भारतीय विदेश में नौकरी करने को अधिक लालायित क्यों है? असल में इस के पीछे सामाजिक और राजनीतिक कारण प्रमुख हैं. लाखों युवा और उन के मांबाप अमेरिका में जौब का सपना देखते हैं. बच्चा 8वीं क्लास में होता है तभी से वह और उस के परिवार वाले तैयारी में जुट जाते हैं.

इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट व अन्य डिगरियों पर लाखों रुपए खर्र्च कर मांबाप बच्चों के बेहतर भविष्य का तानाबाना बुनने में कसर नहीं छोड़ते. आईआईटी, मैनेजमैंट में पढ़ाने वाले शिक्षक भी बच्चों के दिमाग में विदेश का ख्वाब जगाते रहते हैं. इन विषयों का सिलेबस ही विदेशी नौकरी के लायक होता है.

वहीं, मांबाप के लिए विदेश में रह कर नौकरी करने का एक अलग ही स्टेटस है. इस से परिवार की सामाजिक हैसियत ऊंची मानी जाती है. विदेश में नौकरी कर रहे युवक के विवाह के लिए ऊंची बोली लगती है. परिवार, नातेरिश्तेदारी में गर्व के साथ कहा जाता है कि हमारे बेटेभतीजे विदेश में रहते हैं. इस से सामान्य परिवार से हट कर एक खास रुतबा कायम हो जाता है.

60 के दशक में पहले अमीर परिवारों के भारतीय छात्र अधिकतर ब्रिटेन जाते थे. वहां के विश्वविद्यालय बहुत प्रतिष्ठित थे. कुछ विश्वविद्यालयों में यह प्रावधान था कि छात्र कैंपस से बाहर जा कर पार्टटाइम नौकरी कर सकते थे जिस से पढ़ाई का खर्च निकल सके पर धीरेधीरे ब्रिटिश सरकार ने पार्टटाइम काम कर के पढ़ाई की इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना शुरू कर दिया. फिर ब्रिटेन में यह धारणा बनने लगी कि ये लोग स्थानीय लोगों का रोजगार छीन रहे हैं. लेकिन भारतीय आईटी इंडस्ट्री का मानना है कि अमेरिका में आईटी टैलेंट की बेहद कमी है. भारतीयों को इस का खूब फायदा मिला.

4. बदहाल सरकारी नीतियां

विदेशों में पलायन की एक प्रमुख वजह भारत की सरकारी नीतियां हैं. भारतीय प्रतिभाओं का  पलायन सरकारी निकम्मेपन, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार की वजह से हुआ. सरकार उन्हें पर्याप्त साधनसुविधाएं, वेतन नहीं दे सकी. सरकार ब्रेनड्रेन रोकना ही नहीं चाहती. इस के लिए कानून बनाया जा सकता है पर हमारे नेताओं को डर है कि इस से जो रिश्वत मिलती है वह बंद हो जाएगी.

अमेरिका जैसे देश में युवाओं को अच्छा वेतन, सुविधाएं मिल रही हैं. वे वापस लौटना नहीं चाहते. कई युवा तो परिवार के साथ वहीं रह रहे हैं और ग्रीनकार्ड के लिए प्रयासरत हैं. कई स्थायी तौर पर बस चुके हैं. सब से बड़ी बात है वहां धार्मिक बंदिशें नहीं हैं. भारतीय दकियानूसी सोच के चंगुल से दूर वहां खुलापन, उदारता और स्वतंत्रता का वातावरण है.

दरअसल, किसी भी देश के नागरिक को दुनिया में कहीं भी पढ़नेलिखने, रोजगार पाने का हक होना चाहिए. प्रकृति ने इस के लिए कहीं, कोई बाड़ नहीं खड़ी की. आनेजाने के नियमकायदे तो देशों ने बनाए हैं पर यह हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है. बंदिशें लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ हैं. इस से अमेरिका ही नहीं, दूसरे देशों की आर्थिक दशा पर भी असर पड़ेगा. तकनीक, तरक्की अवरुद्ध होगी.

इस तरह की रोकटोक से कोई नया आविष्कार न होने पाएगा. दुनिया अपने में सिकुड़ जाएगी. कोलंबस, वास्कोडिगामा अगर सीमाएं लांघ कर बाहर न निकलते तो क्या दुनिया एकदूसरे से जुड़ पाती. शिक्षा, ज्ञान, तकनीक, जानकारी, नए अनुसंधान फैलाने से ही मानव का विकास होगा, नहीं तो दुनिया कुएं का मेढक बन कर रह जाएगी. विकास से वंचित करना विश्व के साथ क्या अन्याय नहीं होगा.

अलग धार्मिक पहचान के मारे आप्रवासी

अमेरिका के कैंसास शहर में 22 फरवरी को 2 भारतीय इंजीनियरों को गोली मार दी गई. इस में हैदराबाद के श्रीनिवास कुचीवोतला की मौत हो गई और वारंगल के आलोक मदसाणी घायल हैं. गोली एक पूर्व अमेरिकी नौसैनिक ने मारी और वह गोलियां चलाते हुए कह रहा था कि आतंकियो, मेरे देश से निकल जाओ. इसे नस्ली हमला माना जा रहा है. नशे में धुत हमलावर एडम पुरिंटन की दोनों भारतीय इंजीनियरों से नस्लीय मुद्दे पर बहस हुई थी.

इसी बीच, 27 फरवरी को खबर आई कि व्हाइट हाउस में हिजाब पहन कर नौकरी करने वाली रूमाना अहमद ने नौकरी छोड़ दी. 2011 से व्हाइट हाउस में काम करने वाली रूमाना राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की सदस्य थीं. वैस्ट विंग में हिजाब पहनने वाली वे एकमात्र महिला थीं.

खबर में यह तो साफ नहीं है कि रूमाना अहमद ने नौकरी क्यों छोड़ी लेकिन उन की बातों से स्पष्ट है कि अलग धार्मिक पहचान की वजह से उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ा. वे बुर्का पहनना नहीं छोड़ना चाहती थीं. तभी उन्होंने कहा कि बराक ओबामा के समय में उन्हें कोई परेशानी नहीं थी.

भारतीय संगठन ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों के लिए जो एडवाइजरी जारी की है उस में अपनी स्थानीय भाषा न बोलने की सलाह तो दी गई है पर यह नहीं कहा गया कि वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ कर ‘जैसा देश, वैसा भेष’ के हिसाब से रहें.

आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्लीय हिंसा 115 प्रतिशत बढ़ी है. ट्रंप की जीत के 10 दिनों के भीतर ही हेट क्राइम के 867 मामले दर्ज हो चुके थे. वहां आएदिन मुसलमानों, अश्वेतों, भारतीय हिंदुओं व सिखों के साथ धार्मिक, नस्लीय भेदभाव व हिंसा होनी तो आम बात है लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद नस्ली घटनाओं में तेजी आई है. 11 फरवरी को सौफ्टवेयर इंजीनियर वम्शी रेड्डी की कैलिफोर्निया में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. जनवरी में गुजरात के हर्षद पटेल की वर्जीनिया में गोली मार कर जान ले ली गई थी.

सब से ज्यादा हमले मुसलमानों पर हो रहे हैं. काउंसिल औफ अमेरिकन इसलामिक रिलेशंस के अनुसार, पिछले साल करीब 400 हेट क्राइम दर्ज हुए थे जबकि ट्रंप के सत्ता में आने के बाद 2 महीने में ही 175 मामले सामने आ चुके हैं.

ये घटनाएं तो हाल की हैं. असल में अमेरिका की बुनियाद ही धर्म आधारित है. ब्रिटिश उपनिवेश में रहते हुए वहां ब्रिटेन ने क्रिश्चियनिटी को प्रश्रय दिया पर ईसाइयों में यहां शुरू से ही प्रोटेस्टेंटों और कैथोलिकों के बीच भेदभाव, हिंसा चली. धार्मिक आधार पर कालोनियां बनीं. बाद में हिटलर के यूरोप से यहूदी शरणार्थियों के साथ भेदभाव चला.

1918 में यहूदी विरोधी भावना का ज्वार उमड़ा और फैडरल सरकार ने यूरोप से माइग्रेंट्स पर अंकुश लगाना शुरू किया. अमेरिका में उपनिवेश काल से ही यहूदियों के साथ भेदभाव बढ़ता गया. 1950 तक यहूदियों को कंट्री क्लबों, कालेजों, डाक्टरी पेशे पर प्रतिबंध और कई राज्यों में तो राजनीतिक दलों के दफ्तरों में प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई थी. 1920 में इमिग्रेशन कोटे तय होने लगे. अमेरिका में यहूदी हेट क्राइम में दूसरे स्थान पर होते थे. अब हालात बदल रहे हैं. माइग्रेंट धर्मों की तादाद दिनोंदिन बढ़ रही थी.

अमेरिका में 1600 से अधिक हेट क्राइम ग्रुप हैं. सब से बड़ा गु्रप राजधानी वाशिंगटन में है जिस का नाम फैडरेशन औफ अमेरिकन इमिग्रेशन रिफौर्म है. यह संगठन आप्रवासियों के खिलाफ अभियान चलाता है. इस की गतिविधियां बेहद खतरनाक बताई जाती हैं. सोशल मीडिया पर भी इस का हेट अभियान जारी रहता है. यह मुसलमानों, हिंदू, सिख अल्पसंख्यक आप्रवासियों और समलैंगिकों के खिलाफ भड़काऊ सामग्री डालता रहता है.

आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका 15,000 से अधिक धर्मों की धर्मशाला है और करीब 36,000 धार्मिक केंद्रों का डेरा है. अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 के बाद मुसलमानों के प्रति 1,600 प्रतिशत हेट क्राइम बढ़ गया. नई मसजिदों के खिलाफ आंदोलन के बावजूद 2000 में यहां 1,209 मसजिदें थीं जो 2010 में बढ़ कर 2,106 हो गईं. इन मसजिदों में ईद व अन्य मौकों पर करीब 20 लाख, 60 हजार मुसलमान नियमित तौर पर जाते हैं. अमेरिका में 70 लाख से अधिक मुसलिम हैं.

अमेरिकी चरित्र के बारे में 2 बातें प्रसिद्ध हैं. एक, वह ‘कंट्री औफ माइग्रैंट्स’ और दूसरा, ‘कंट्री औफ अनमैच्ड रिलीजियंस डायवर्सिटी’ कहलाता है. इन दोनों विशेषताओं के कारण वहां एक धार्मिक युद्ध जारी रहता है. इस के बीच कुछ बुद्धिजीवी हैं जो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को प्रश्रय देने की मुहिम छेड़े रहते हैं.

पिछले 3-4 दशकों में भारत से अमेरिका में हिंदू, सिख और मुसलिम लोगों की बढ़ोतरी हुई. अन्य देशों से भी मुसलमान अधिक गए. ये लोग अपनेअपने धर्म की पोटली साथ ले गए. वहां मंदिर, गुरुद्वारे, मसजिदें, चर्च बना लिए. वहां रह रहे करीब 5 लाख सिखों के यहां बड़े शहरों में कईकई गुरुद्वारे हैं. ये गुरुद्वारे भी ऊंचीनीची जाति में बंटे हुए हैं उसी तरह जिस तरह वहां ईसाइयों में गोरेकाले, प्रोटेस्टेंटकैथोलिकों के अलगअलग चर्च बने हुए हैं.

हिंदुओं के 450 से अधिक बड़े मंदिर बने हुए हैं. बड़ेबड़े आश्रम और मठ भी हैं. इन में स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इंटरनैशनल सोसायटी फौर कृष्णा कांशसनैस, चिन्मय आश्रम, वेदांत सोसायटी, तीर्थपीठम, स्वामी नारायण टैंपल, नीम करोली बाबा, इस्कान, शिव मुरुगन टैंपल, जगद्गुरु कृपालु महाराज, राधामाधव धाम, पराशक्ति टैंपल, सोमेश्वर टैंपल जैसे भव्य स्थल हैं. इन मंदिरों में विष्णु, गणेश, शिव, हनुमान, देवीमां और तरहतरह के दूसरे देवीदेवताओं की दुकानें हैं. सवाल है कि आखिर किसी को धार्मिक पहचान की जरूरत क्या है? सांस्कृतिक पहचान के नाम पर धर्म की नफरत को बढ़ावा दिया जाता है.

असल में नस्ली भेदभाव, हिंसा का कारण है. विदेश में जा कर लोग अपनी अलग धार्मिक पहचान रखना चाहते हैं. पूजापाठ, पहनावा, रहनसहन धार्मिक होता है. हिंदू पंडे अगर तिलक, चोटी, धोती रखेंगे तो दूसरे धर्म वालों की हंसी के साथ नफरत का शिकार होंगे ही. सिख पगड़ी, दाढ़ी और मुसलमान टोपी, दाढ़ी रखेंगे तो टीकाटिप्पणी झेलनी पड़ेगी ही. पलट कर जवाब देंगे तो मारपीट होगी. फिर शिकायत करते हैं कि उन के साथ नस्ली भेदभाव होता है, हिंसा होती है.

इस भेदभाव की वजह अमेरिका में बड़ी तादाद में फैले हुए धर्मस्थल हैं. हजारों मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे, चर्च बने हुए हैं. भारतीय लोग वहां इन धर्मस्थलों को बनाने में तन, मन और धन से भरपूर सहयोग देते हैं. चीनियों, जापानियों, दक्षिण कोरियाई लोगों के साथ न के बराबर भेदभाव व हिंसा होती है क्योंकि वे किसी धर्म के पिछलग्गू नहीं हैं. वे विदेशों में रह कर उन्हीं लोगों के साथ हिलमिल कर मनोरंजन का आनंद लेते हैं. उन की अपनी चीनी संस्कृति भी है पर उस में धर्म नहीं है. उन की संस्कृति में मनोरंजन है जिस में दूसरे देशों के लोग भी हंसीखुशी आनंद उठाते हैं.

दो जासूस और अनोखा रहस्य – भाग 7

अजय के कातिल को ढूंढ़ते हुए उन्होंने यूसुफ से पूछताछ की तो उस ने बताया कि वह और अजयजी साथ काम करते थे औैर वह अजयजी के कातिल को ढूंढ़ने हेतु यहां पहुंचा. दरअसल, वे दोनों सीक्रेट एजेंट थे इसलिए यूसुफ ने सीजर कोड जल्दी हल कर लिया. टैनिस बौल के बारे में पूछने पर उस ने बताया कि उस में एक मैमोरीकार्ड निकला जिसे फोन में लगाने पर एक वीडियो क्लिपिंग दिखी.

उस में एक तहखाने में बंदूकों, राइफलों, बमों के ढेर दिख रहे थे. यूसुफ ने बताया कि हमारा डिपार्टमैंट इसी यूनिट की तलाश में था. शायद अजय ने इसे ढूंढ़ कर इस की रिकौर्डिंग कर ली थी. अब इंस्पैक्टर ने वीडियो को दोचार बार देख जगह की पहचान की और गुपचुप तरीके से वहां छापा मार कर सभी अपराधी पकड़ लिए. लेकिन कुछ सवाल अभी बाकी थे और असली कातिल उन से दूर था.

पुलिस वालों ने अनवर के घर के इर्दगिर्द मोरचाबंदी कर ली. शोरगुल सुन कर घर के  सब लोग उठ कर वहां आ गए और सारी बात पता चलने पर सब के मुंह खुले के खुले रह गए.

‘‘इस से यह बात तो बिलकुल साफ हो जाती है कि उन का कोई न कोई आदमी खुलेआम बाहर घूम रहा है और अब इस केस से जुड़े सभी लोगों को मार कर वह अपने साथियों का बदला लेगा. यूसुफ अंकल आज सुबह घर वापस जाने वाले थे, इसलिए पहले उन्हें निशाने पर लिया गया. अगला नंबर हमारा होगा या फिर इंस्पैक्टर अंकल का,’’ साहिल बोला.

‘‘लेकिन यूसुफ अंकल ने कहा था कि उन लोगों को कल की घटना से पहले उन के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और कल जब हम उन्हें पकड़ कर पुलिस स्टेशन लाए, तब से एक औल्टो कार हमारा पीछा कर रही थी. शाम तक वे लोग वहीं बाहर ही छिपे थे जहां से पुलिस ने उन्हें पकड़ा था यानी उन के अलावा गैंग के किसी मैंबर को यूसुफ अंकल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. इस का मतलब यह हुआ कि औल्टो वालों ने पकड़े जाने से पहले किसी को इस बारे में बताया और वह जो भी था, वह उन के अड्डे पर नहीं बल्कि कहीं और था.’’

उस की बातों को ध्यान से सुन रहा फैजल बोला, ‘‘और अगर इस तरह की सिचुएशन में कोई आदमी फोन करेगा तो जरूर गैंग के किसी महत्त्वपूर्ण आदमी को ही करेगा. जो रिकौर्डिंग हम ने देखी थी उस के हिसाब से वे कुल 17 आदमी थे. 15 वहां से अरैस्ट हुए और 2 औल्टो वाले, तो पूरे 17 तो हो गए. फिर यह 18वां आदमी कहां से पैदा हो गया?’’ फैजल का दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था, ‘‘17 आदमी वहां काम करते थे, मतलब वर्कर्स थे, तो इन वर्कर्स का कोई मालिक यानी बौस भी होना चाहिए. वही बौस जिसे उन्होंने फोन कर के खबर दी और जिस ने यूसुफ अंकल को मारा. कौन हो सकता है यह आदमी?’’

इतने में इंस्पैक्टर रमेश आ पहुंचे, उन्होंने बताया कि रामगढ़ लौंज नाम के होटल के जिस कमरे में यूसुफ ठहरा हुआ था, वहीं उस की लाश पड़ी मिली है. उस की हत्या भी गोली मार कर की गई है और अस्तबल जैसे ही बड़े जूतों के निशान वहां से भी मिले हैं यानी अजय और यूसुफ दोनों का कातिल एक ही है.

‘‘कोई और खास बात जो आप ने वहां देखी हो?’’ फैजल ने पूछा.

‘‘और तो कुछ खास नहीं, पर यूसुफ के चेहरे पर जो भाव थे, वे कुछ अजीब से थे. जैसे हैरान और कुछ समझ न पा रहा हो.’’

फैजल कुछ सोचने लगा. अचानक उस ने अपना फोन निकाला और जल्दीजल्दी दोचार बटन दबा कर स्क्रीन देखने लगा.

करीब 5 मिनट बाद उस के चेहरे के भाव एकदम बदल गए और वह ऐसे खुश नजर आने लगा, मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो. फिर वह इंस्पैक्टर रमेश के पास पहुंचा और बोला, ‘‘अंकल, आप के पास अजय के घर का नंबर है न, वहां फोन लगाइए और आंटी को कहिए कि हम अभी आधे घंटे में उन के घर आ रहे हैं. मुझे ऐसा लगता है कि अंकल की अलमारी में एक फाइल थी, जिस से हमें कोई काम की बात पता चल सकती है.’’

‘‘फैजल, इस समय कातिल बौराया हुआ घूम रहा है. तुम लोगों का बाहर जाना ठीक नहीं होगा,’’ इंस्पैक्टर ने कहा.

‘‘अरे, आप फोन लगाइए तो सही. मुझे समझ आ गया है कि कातिल कौन है और मेरे पास उसे पकड़ने का पूरा प्लान भी है.’’

इंस्पैक्टर रमेश ने फोन उठाया और अजय की पत्नी यास्मिन को वैसा ही कह दिया जैसा फैजल ने बताया था.

‘‘अब सब लोग ध्यान से मेरी बात सुनिए…’’ फैजल धीमी आवाज में उन्हें कुछ समझाने लगा.

जब वह चुप हुआ तो सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे.

इंस्पैक्टर रमेश ने जल्दीजल्दी 3-4 फोन मिलाए, कुछ हिदायतें दीं और कुछ सामान लाने का और्डर दिया. फिर बैठ कर किसी का इंतजार करने लगा. साहिल, फैजल और अनवर मामू तैयार होने चले गए. कुछ ही देर में एक सिपाही सारा सामान ले कर आ गया और सब लोग बाहर जा कर जीप में बैठ गए.

अजय के घर पहुंच कर वे चारों जब ड्राइंगरूम में पहुंचे तो यास्मिन उन का इंतजार कर रही थी.

‘‘आइएआइए, मैं ने सुना है कल गांव में बहुत सारे आतंकवादी पकड़े गए. क्या यह सच है? और उस पहेली का कोई हल सूझा तुम्हें फैजल?क्या उसी के लिए तुम्हें वह फाइल चैक करनी है? आओ, तुम खुद ही देख कर निकाल लो, जो फाइल तुम्हें चाहिए.’’

अजय के कमरे से नीले रंग की एक फाइल ले कर वे फिर से ड्राइंगरूम में आ गए.

‘‘तुम इसे चैक करो, मैं चाय ले कर आती हूं,’’ कह कर यास्मिन किचन में चली गई?

कुछ ही पल बीते थे कि अचानक पिछले दरवाजे से दबेपांव एक बड़ेबड़े जूतों वाला नकाबपोश कमरे में दाखिल हुआ. उस के दोनों हाथों में रिवाल्वर थे, जिन में साइलैंसर लगे हुए थे. फाइल पर झुके चारों लोगों ने चौंक कर उस की ओर देखा ही था कि पिट…पिट…पिट…पिट… किसी को पलक झपकाने का मौका दिए बगैर उस ने चारों के सीने में गोलियां उतार दीं. दर्द भरी चीखों के साथ वे नीचे गिर पड़े. जितनी फुरती से नकाबपोश अंदर आया था, उतनी ही फुरती के साथ बाहर की तरफ लपका, लेकिन दरवाजे तक पहुंचने से पहले ही 8-10 आदमियों ने उसे घेर कर बुरी तरह जकड़ लिया और उस से दोनों रिवाल्वर छीन लिए. इस से पहले कि वह कुछ समझ पाता, उसे रस्सियों से बांध दिया गया. तभी चारों लाशें अपनेअपने कपड़े झाड़ती हुई उठ खड़ी हुईं. उन सब के चेहरे पर शरारती मुसकराहट थी.

‘‘क्यों, कैसी रही यास्मिन आंटी?’’ साहिल ने एक आंख दबाते हुए पूछा और फैजल ने उन का नकाब खींच कर दूर फेंक दिया.

‘‘आप ने क्या समझा था कि हम सब गोलगप्पे हैं जो आप एक मिनट में गटक जाएंगी?’’ कहते हुए फैजल शर्ट का एक बटन खोल कर अंदर पहनी बुलेटप्रूफ जैकेट की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘‘हमें हजम करना इतना आसान नहीं है.’’

यास्मिन गुस्से से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘‘मैं तुम्हें छोडं़ूगी नहीं. तुम ने मेरी बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया. मैं ने ये सब करने में अपनी सारी जिंदगी गुजार दी और तुम लोगों की वजह से एक पल में सब तहसनहस हो गया,’’ और फूटफूट कर रोने लगी.

‘‘मतलब आप बहुत छोटी उम्र से ही इन सब कामों में लगी हुई थीं?’’ इंस्पैक्टर रमेश हैरानी से बोले.

‘‘हां, अनाथाश्रम में रहते हुए मेरी पहचान इन लोगों से हुई थी और तभी से मैं इन के साथ काम कर रही हूं.’’

‘‘क्या आप को पता था कि अजय सीक्रेट एजेंट हैं?’’

‘‘अगर पता होता तो क्या मैं उन से शादी करती? यहां रामगढ़ में आ कर बसने की जिद भी मैं ने ही उन से की थी ताकि मुझे अपना काम करने में आसानी रहे. अगर मुझे जरा भी भनक होती तो मैं कभी यहां नहीं आती.’’

‘‘अजय के लापता होने में भी आप का हाथ था?’’

‘‘बिलकुल नहीं, मैं और मेरे आदमी तो खुद उन्हें ढूंढ़ रहे थे. उन्हें न जाने कब यहां चल रही गतिविधियों पर शक हो गया और एक दिन मेरे आदमी का पीछा करतेकरते वे मेरे अड्डे तक पहुंच गए. जब वे वहां से वापस भाग रहे थे, तो मेरे एक आदमी ने उन्हें देख लिया और मुझे खबर दी. उसे यह नहीं पता था कि अजय ने वहां कुछ रिकौर्ड भी किया है.

‘‘मैं ने तभी फैसला कर लिया कि उन के घर आते ही मैं उन्हें खत्म कर दूंगी, लेकिन वे घर आए ही नहीं. उन्हें रास्ते में ही पता चल गया कि कुछ आदमी उन का पीछा कर रहे हैं. उन्होंने एक पब्लिक बूथ में घुस कर किसी को फोन किया, लेकिन जिस से वे बात करना चाहते थे वह आदमी कुछ दिन के लिए बाहर गया हुआ था. बूथ के बाहर खड़ा मेरा आदमी सारी बातें सुन रहा था. फोन पर बात करने के बाद वे कुछ निराश हो गए और वहां से निकलने के कुछ ही देर बाद उन आदमियों को चकमा दे कर भागने में सफल हो गए.’’

‘‘ओह, अब समझा,’’ बीच में ही फैजल बोला, ‘‘जरूर अजय ने अपने पुराने चीफ को फोन किया होगा और जब वे नहीं मिले तो उन्होंने 15-20 दिन तक मैमोरीकार्ड को इन लोगों से बचाने के लिए अलगअलग भेष बदल कर यह सारा सैटअप किया.’’

‘‘तभी तो हम उन्हें पकड़ नहीं पाए. उसी दिन मैं ने उन के लापता होने की रिपोर्ट लिखवाई. अब मेरे आदमियों के साथसाथ पुलिस भी उन के पीछे थी. 8वें दिन मुझे उन के अस्तबल में होने की खबर मिली और मैं वहां पहुंच गई. मैं ने जानबूझ कर बड़े साइज के मर्दाना जूते पहने थे ताकि मुझ पर किसी को शक न हो.

‘‘मुझे इस रूप में देख कर पहले तो वे दुखी और हैरान हुए लेकिन जल्दी ही संभल गए. जिस तरह से उन्होंने मुझ से मुकाबला किया, उसे देख कर मैं हैरान थी. बड़ा संघर्ष करना पड़ा मुझे उन्हें मारने में. गिरतेगिरते जब उन्होंने मूंछें और भवें उतार कर फेंकीं, तब मैं उन की यह चाल समझ नहीं पाई. वह तो बाद में पता चला कि उन्होंने जानबूझ कर ऐसा किया ताकि उन के पहले के जानने वाले लोग उन्हें आसानी से पहचान सकें.

‘‘मरतेमरते उन्होंने मुझे एक और धोखा दिया. दूसरी गोली लगने के बाद उन्होंने सांस रोक कर ऐसा नाटक किया जैसे मर गए हों. अच्छी तरह चैक करने के बाद मैं वहां से निकल गई और उस के  बाद उन्होंने वह संदेश लिख दिया. सुबह जब मैं रोतीपीटती वहां पहुंची तो उन्हें देख कर चौंकी. लेकिन समझ कुछ नहीं आया. इसीलिए मैं ने तुम लोगों के पीछे 24 घंटे आदमी लगा दिए ताकि तुम्हारी सारी रिपोर्ट मुझ तक पहुंचती रहे, लेकिन एक बात समझ नहीं आई. तुम्हें मेरे बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘फैजल मुसकराया, मुझे जब से यह पता चला कि अजय सीक्रेट एजेंट थे, तब से मुझे एक बात बारबार खटक रही थी कि अजय इतना बड़ा राज इस तरीके से बता कर गए, पर अपने खूनी का नाम क्यों नहीं बता गए? मुझे लग रहा था कि वह नाम हमारे बिलकुल सामने ही कहीं है, बस नजर नहीं आ रहा है. मैं इसी दुविधा में था जब इंस्पैक्टर रमेश ने बताया कि मरते वक्त यूसुफ के चेहरे पर हैरानी और कन्फ्यूजन के भाव थे. इस का मतलब है कि वे कातिल को पहचाते थे.

‘‘इस गांव में वे किसी और को तो जानते नहीं थे. इसलिए मेरा शक सीधा अजय की पत्नी यास्मिन यानी आप पर ही गया. उसी समय मेरे दिमाग में एक और बात आई. अगर अजय ने कहीं कातिल के बारे में कोई हिंट छोड़ा होगा तो वह सिर्फ उन के आखिरी मैसेज में ही हो सकता है. इसलिए मैं ने उसे निकाल कर दोबारा चैक किया और मेरी आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं. उन्होंने बिलकुल साफसाफ कातिल का नाम लिख रखा था,’’ कहते हुए फैजल ने कागज की एक स्लिप निकाल कर यास्मिन के आगे रख दी, जिस पर लिखा था,

‘‘जब पूरा मैसेज स्माल लैटर्स में लिखा है तो बीच में ये कैपिटल लैटर्स क्यों? रूहृढ्ढङ्घस््न. इन्हें आगेपीछे कर के देखा जाए तो बनता है यास्मिन (ङ्घ्नस्रूढ्ढहृ) अगर यह बात पहले ही मुझे सूझ गई होती तो बेचारे यूसुफ अंकल को जान से हाथ न धोना पड़ता. खैर, जो हुआ सो हुआ. ले चलो इन्हें,’’ फैजल फिर बोला.

इंस्पैक्टर रमेश ने फैजल और साहिल की पीठ थपथपाई और यास्मिन को गिरफ्तार कर लिया.

अंधविश्वास की राजनीति आखिर कबतक

देसी चुनावों में जीत पा जाना कोई कमाल की बात नहीं है खासतौर पर जब यह पैसा देने को भी तैयार हो और भक्तों का चलाया जा रहा मीडिया लोगों को पाखंडी और अंधविश्वासी के साथ राज्य की भक्ति भी सिखा रहा. नेता की ताकत तो तब दिखती है जब दूसरे देश उस की सुनते हों, उसे नाराज करने की हिम्मत न करते हों.

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होने की वजह से बारीबारी से मिलने वाली जी-20, बड़े 20 देशों की संस्था के अध्यक्ष बने हैं पर उन के अध्यक्ष की कुर्सी लेने के कुछ दिन बाद ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ शुरू कर दी यही नहीं, मुसलिम देशों के संगठन औगैंनाइजेशन औफ इस्लामिक कंट्रीज के महासचिव ने भारत के कश्मीर के उस हिस्से का दौरा कर लिया जो पाकिस्तान ने 1947 से जबरन दबोच रखा है.

अच्छा नेता वह होता है जिस का खौफ न हो तो कम से कम इज्जत हो कि उसे अपने देश में नीचा देखने की जरूरत न पड़े. पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर घूमने जाने से या अरुणाचल प्रदेश में घुस जाने से भारत टूटने नहीं वाला, न उसे…..है पर यह सवाल जरूर कर सकता है कि जब केंद्र में दिल्ली में बैठी सरकार इतनी मजबूत है तो ऐसा हो ही क्यों रहा है.

अपने देश में अपने बलबूते पर चुनाव जीतना किसी देश के नेता के लिए काफी नहीं है. हर देश का नेता चुनाव जीत कर या लड़ कर जीत कर ही नेता बनता है. बड़ा नेता वह होता है जिस की सब की इज्जत करें. जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में धोखा खाया था. उन्हें लगा कि महात्मा गांधी के शिष्य होने की वजह से उन्हें दुनिया भर में इज्जत मिलेगी और चाहे चुनाव उन्होंने जीते हो, बेहद लोकप्रिय रहे हो. कानून मानने वाले रहे हों, माओ त्से तुंग के चीन ने. 1862 में हमला कर के मोहभंग कर दिया.

आज भारत ऐसे मोड़ पर बैठा है जहां अपनी गिनती की वजह से, सस्ती मजदूरी की वजह से, बड़ा देश होने की वजह से, सडक़ों, हवाई अड्डों, रेलों के जाल की वजह से वह दुनिया के किसी भी देश से बढ़ कर बन सकता है. पर हो क्या हो रहा है. एक चीन और इस्लामिक देश अपने तेवर दिखा रहे है और दूसरी तरफ भारतीय मजदूर कोठियों में नौकरियां करने के लिए खुद को गुलाम बना कर दुनिया भर में घटिया काम करने के लिए जा रहे हैं.

हमारा हाल तो यह है कि हमारे पढ़ेलिखे ही पढऩे के लिए बाहर जा रहे हैं. देश में अमनचैन की बात की जाती है पर हर साल 2 लाख ङ्क्षहदुस्तानी अपनी नागरिकता छोड़ कर दूसरे देश की नागरिकता अपना लेते हैं.

देश को चलाने के बैलेट या बुलेट की नहीं, सही बैल्ट वाली नीतियों की जरूरत है जो हमारी खिसकती फटी पैंट को रोक सके. देश बाहरी खतरों से ज्यादा तो अदरुनी खतरों से परेशान है और इसीलिए बाहर वाले शेर हो रहे हैं.

एसिड अटैक रोकने में कानून नाकाम

एसिड अटैक रोकने  में कानून नाकाम   देश की राजधानी दिल्ली में अपनी छोटी बहन के साथ जा रही एक लड़की पर द्वारका मोड़ के पास एक लड़के ने एसिड अटैक कर दिया. लड़की ने इस मामले में 2-3 लोगों पर शक जाहिर किया. पुलिस ने सभी 3 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.

लड़की के पिता ने बताया, ‘‘मेरी दोनों बेटियां सुबह स्कूल के लिए निकली थीं. कुछ देर बाद मेरी छोटी बेटी भागती हुई आई और उस ने बताया कि 2 लड़के आए और दीदी पर एसिड फेंक कर चले गए.  हर साल देश में एसिड अटैक के 1,000 से ज्यादा मामले सामने आते हैं. आरोपी पकड़े जाते हैं. पुलिस अपना काम करती है. इस के बावजूद लड़की की जिंदगी खराब हो जाती है. एसिड अटैक को ले कर साल 2013 में कानून बना था.

यह भी एसिड की शिकार लड़कियों की पूरी मदद नहीं कर पा रहा है. कानून के तहत एसिड हमलों को अपराध की श्रेणी में ला कर भारतीय दंड संहिता की धारा 326ए और धारा 326बी जोड़ी गई. इन धाराओं के तहत कुसूरवार पाए जाने पर कम से कम  10 साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया है. कुछ मामलों में उम्रकैद का भी प्रावधान रखा गया है.  सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक पीडि़ता की अर्जी पर सुनवाई के दौरान कहा था, ‘एसिड हमला हत्या से भी बुरा है.

इस से पीडि़त की जिंदगी पूरी तरह बरबाद हो जाती है.’ इस के बाद एसिड अटैक के पीडि़तों के इलाज और सुविधाओं के लिए भी नई गाइडलाइंस जारी की गई थीं. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को एसिड हमले के शिकार को तुरंत कम से कम 3 लाख रुपए की मदद देने का प्रावधान है. पीडि़ता का मुफ्त इलाज भी सरकार की जिम्मेदारी है.  देखने में यह बेहतर लगता है, पर हकीकत में इस को संभालना बहुत मुश्किल होता है. एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगी, इस के बाद भी एसिड मिल रहा है.

साल 2018 से साल 2020 के बीच देश में महिलाओं पर एसिड हमलों के 386 मामले दर्ज किए गए थे. इन में से केवल 62 मामलों के आरोपियों को कुसूरवार पाया गया था. एसिड अटैक की शिकार अपना मुकदमा सही से नहीं लड़ पाती हैं. उन के पास अच्छा वकील करने के लिए पैसे नहीं होते हैं.

एसिड अटैक की शिकार अंशु बताती हैं, ‘‘एसिड अटैक के बाद जिंदगी बेहद मुश्किल हो जाती है. इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं. सरकार से मिलने वाली मदद लेना बेहद मुश्किल होता है. वह मदद इतनी नहीं होती कि सही तरह से इलाज हो सके.  ‘‘इस के बाद जिंदगी में किसी का साथ नहीं मिलता. एसिड अटैक की शिकार लड़कियों के लिए सरकार को पुख्ता कदम उठाने चाहिए.’’

आरक्षण का हल है दूसरी जाति में शादी

पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में यह साफ किया था कि अगर कोई आरक्षित कोटे यानी दलित या आदिवासी मांबाप किसी सामान्य जाति के बच्चे को गोद लेते हैं, तो उस बच्चे से आरक्षण प्रमाणपत्र का फायदा छीना नहीं जा सकता.

हाईकोर्ट की जज जयश्री ठाकुर ने साफ किया कि इस बात का कोई सुबूत नहीं है कि फरियादी ने अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र गलत तरीके से हासिल किया था. दरअसल, एक मामले में फरियादी रतेज भारती ने अदालत को बताया था कि उस का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में साल 1967 में हुआ था. उस के पैदा होने के तुरंत बाद उस की मां की मौत हो गई थी. रतेज भारती जब 10 साल का था, तब उसे रामदासिया जाति के पतिपत्नी ने गोद ले लिया था. इस बाबत बाकायदा कानूनी गोदनामा तैयार कराया गया था.

साल 1992 में आरक्षित समुदाय के मांबाप की औलाद होने की बिना पर रतेज भारती ने आरक्षण का प्रमाणपत्र बनवाया था. 2 साल बाद ही उस ने इस प्रमाणपत्र की बिना पर सरकारी नौकरी भी हासिल कर ली थी.

लेकिन जनवरी, 2014 में सरकार ने यह कहते हुए रतेज भारती को नौकरी से निकाल दिया था कि चूंकि उस का गोद लिया जाना जायज नहीं है, इसलिए वह आरक्षित जाति के प्रमाणपत्र पर नौकरी करने का हकदार नहीं है.

रतेज भारती ने हिम्मत नहीं हारी और अदालत का दरवाजा खटखटाया. 2 दफा उस के जाति प्रमाणपत्र की जांच हुई और दोनों ही बार वह सही पाया गया. लिहाजा, हाईकोर्ट ने उस की नौकरी बहाली का हुक्म जारी कर दिया.

1. कोई गड़बड़झाला नहीं

 इस फैसले से एकसाथ कई अहम बातें उजागर हुईं कि आरक्षण गोद लिए गए बच्चे का हक है यानी दलित समुदाय के मांबाप ऊंची जाति वाले बच्चे को गोद लें, तो बच्चा ठीक वैसे ही आरक्षण का हकदार होता है, जैसे गोद लेने वाले मांबाप की जायदाद में वह हकदार हो जाता है और उसे दूसरे कई हक व जिम्मेदारियां भी मिल जाती हैं.

यह तो रतेज भारती के दलित मांबाप की दरियादिली थी कि जब उस अनाथ को कोई सहारा नहीं दे रहा था, तब उन्होंने उसे गोद ले कर उस की परवरिश की और पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारी उठाई यानी गोद लेते ही रतेज भारती ब्राह्मण से दलित हो गया.

संविधान बनाने वालों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आारक्षण से ताल्लुक रखते ऐसे मामले भी सामने आएंगे, इसलिए उन का ध्यान इस तरफ नहीं गया कि गोद लिए बच्चे की हालत पर भी गौर किया जाए, चाहे फिर वह सवर्ण मांबाप द्वारा गोद लिया गया दलित बच्चा हो या फिर दलित मांबाप द्वारा गोद लिया गया सवर्ण बच्चा.

इसी तरह संविधान में यह भी साफसाफ नहीं लिखा है कि अगर एक दलित नौजवान सवर्ण लड़की से शादी करता है, तो उन की औलाद को आरक्षण का फायदा मिलेगा या नहीं. इसी तरह कोई सवर्ण नौजवान दलित लड़की से शादी करता है, तो उस की औलाद को आरक्षण का फायदा मिलेगा या नहीं.

इस तरह के सैकड़ों मुकदमे देशभर की अदालतों में चल चुके हैं, जिन में से ज्यादातर में फैसला यह आया है कि अगर दलित और सवर्ण लड़का या लड़की शादी करते हैं, तो उन की औलाद को आरक्षण का फायदा मिलेगा. ऐसे मामलों में हालांकि अदालतों को भी फैसला लेना आसान काम नहीं होता, खासतौर से उस हालत में जब पिता सवर्ण और मां दलित हो. चूंकि बच्चे का नाम और जाति पिता से चलते हैं, इसलिए कुछ मामलों में अदालतों ने सवर्ण पिता की दलित पत्नी से हुई औलाद को आरक्षण देने में हिचकिचाहट भी दिखाई है.

यह तय है कि कानून मानता है कि बच्चे की परवरिश किस माहौल में हुई है. यह बात ज्यादा अहम है, बजाय इस के कि वह किस जाति में पैदा हुआ है.

अगर कोई ब्राह्मण या दूसरे सवर्ण मांबाप दलित बच्चे को गोद लेते हैं, तो उन की परवरिश का माहौल बदल जाता है और उसे जातिगत जोरजुल्म व उन परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता, जिन से दलित बच्चे रूबरू होते हैं.

ऐसे मामले बहुत कम तादाद में अदालतों में जाते हैं, इसलिए थोड़ाबहुत बवाल उन पर सुनवाई और फैसले के वक्त मचता है, फिर सब भूल जाते हैं कि खामी क्या है और इस का हल क्या है.

2. शादी है जरूरी

दलितों और सवर्णों के बीच आरक्षण को ले कर हमेशा से ही बैर रहा है, पर बीते 4 सालों में यह उम्मीद से ज्यादा बढ़ा है, तो इस की एक वजह सियासी भी है, जिस के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अकसर आरक्षण पर दोबारा सोचविचार की बात कहता रहता है. इस से दलितों व आदिवासियों को लगता है कि ऊंची जाति वालों की पार्टी भारतीय जनता पार्टी की सरकार उन से आरक्षण छीनना चाहती है.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दलितों ने भाजपा को भी वोट दिए, तो ऐसा लगा कि बारबार की घुड़की के चलते दलित तबका डर गया है और भाजपा को चुनने की उस की एक वजह यह भी है कि वह उन के वोट ले ले, पर आरक्षण न छीने.

कांग्रेस भी यही बात कहती रही थी कि आरक्षण व्यवस्था को बनाए रखना है, तो उसे वोट दो. हालांकि इस बाबत उस का तरीका दूसरा था.

इन सियासी दांवपेंचों से परे एक अहम सामाजिक सच यह भी है कि अगर ऊंची और नीची जाति वाले आपस में शादी करने लगें, तो क्या हर्ज है. इस से या तो आरक्षण खत्म हो जाएगा या फिर हमेशा के लिए बना रहेगा, जिस का फायदा दोनों तबकों की नई नस्ल को मिलेगा. बजाय फिर से कोई आयोग बनाने के लिए सरकार यह फैसला ले ले कि ऊंची और नीची जाति वाले अगर आपस में शादी करें, तो उन की औलाद का आरक्षण सलामत रहेगा, तो देश की तसवीर बदल भी सकती है.

दूसरा फायदा इस से जातिवाद को खत्म करने का मिलेगा. जिस सामाजिक समरसता की बात भाजपा और संघ कर रहे हैं, वह असल में दलितों के साथ नहाने या उन के साथ बैठ कर खाना खाने से पूरी नहीं हो जाती. दूसरी जाति में बड़े पैमाने पर शादियां आपसी बैर खत्म कर सकती हैं यानी रोटी के साथसाथ बेटी के संबंध भी इन दोनों तबकों के बीच बनने चाहिए.

रोजमर्रा की जिंदगी के अलावा सोशल मीडिया पर ऊंची और नीची जाति वाले आरक्षण को ले कर एकदूसरे पर इलजाम लगाते रहते हैं और आरक्षण की समस्या के तरहतरह के हल भी सुझाते रहते हैं.

ऊंची जाति वालों का हमेशा से कहना रहा है कि नाकाबिल लोग सरकारी नौकरियों में घुस कर उन का हक मार रहे हैं, जबकि दलित समुदाय के लोग कहते हैं कि सदियों से उन पर जाति की बिना पर जुल्म ढाए जाते रहे हैं, क्योंकि वे धार्मिक और सामाजिक लिहाज से दलित और निचले हैं. अब अगर उन की तरक्की हो रही है, वे भी पढ़लिख कर सरकारी नौकरियों में आ कर अपनी दशा सुधार रहे हैं, तो हल्ला क्यों? यह तो उन का संवैधानिक हक है.

रतेज भारती दलित मांबाप के साथ खुश हैं. जातपांत का बंधन एक गोदनामे से टूटा, तो शादियों के जरीए वह बड़े पैमाने पर भी टूट सकता है. इस बाबत सोशल मीडिया पर बड़े दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण ढंग से ऐसे सुझाव दिए जा रहे हैं:

* अगर आरक्षण खत्म करना है या फिर उसे आर्थिक आधार पर लागू करना है, तो यह बहुत मामूली काम है.

* आरक्षण का फायदा ले कर जितने दलित बेहतर सामाजिक हालात में आ चुके हैं, उन का यज्ञोपवीत यानी जनेऊ संस्कार करा कर उन्हें ब्राह्मण जाति में शामिल कर लिया जाए. इस से वे आरक्षण के दायरे से बाहर हो जाएंगे.

* फिर उतनी ही तादाद में गरीब ब्राह्मणबनिए, जो आरक्षण का फायदा लेना चाहते हैं, दलितों में अपने बेटेबेटियों की शादी करें, उन के साथ खाना खाएं, उन के साथ रोटीबेटी का रिश्ता बना कर दलित हो जाएं और आरक्षण का फायदा लें. ऐसा लगातार हर साल होते रहना चाहिए.

* हर कोई आरक्षण चाहता है, तो आजादी के इतने सालों बाद भी चल रही जाति प्रथा का जहर भी तो ले.

* जिस माली आधार पर आरक्षण छीने जाने की वकालत हो रही है, उसे सामान्य जाति का ब्राह्मणबनिया होने का हक भी तो दीजिए, क्योंकि आरक्षण से बाहर होने के बाद तो वे सामान्य जाति में होने का हक तो रखते हैं.

* गरीब ब्राह्मण आरक्षण तो ले, पर जैसा कि धार्मिक किताबों में कहा गया है कि ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुए थे, तो इंसाफ नहीं हुआ. दलित कलक्टर और आरक्षण छोड़ देने के बाद भी दलित हो, यह कौन सा इंसाफ हुआ?

* हर दलित ब्राह्मण हो कर आरक्षण के दायरे से बाहर आना चाहेगा. यह बात और है कि कोई भी सवर्ण जाति वाला नीची जाति वालों में महज आरक्षण के लिए बेटी की शादी नहीं करने वाला.

इन बातों पर गौर किया जाना चाहिए, जो देश और समाज से जातिवाद को खत्म करने में कारगर हो सकती हैं. ये सुझाव एक चुनौती भी हैं कि क्या ऊंची जाति वाले वाकई ऐसा चाहते हैं या आरक्षण खत्म कर फिर से नीची जाति वालों को दबाए रखने के लिए उन पर पहले की तरह जुल्म ढाते रहेंगे?

नक्सली ने खोली नक्सलवाद की पोलपट्टी

झारखंड के हार्डकोर नक्सली कुंदन पाहन ने आत्मसमर्पण करने के बाद माओवादियों और नक्सलियों की पोलपट्टी खोल कर रख दी है. कुंदन पाहन ने पुलिस को बताया कि माओवादी संगठन के ज्यादातर नक्सली नेता खुद ही नए जमींदार बन बैठे हैं. वे सूद पर पैसा लगाने से ले कर ठेकेदारी का काम करने लगे हैं.

करोड़पति नक्सली कुंदन पर 128 मामले दर्ज हैं. उस के सिर पर 15 लाख रुपए का इनाम था. गौरतलब है कि कुछ समय पहले खुफिया विभाग ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी कि सरकारी योजनाओं में कई नक्सली पेटी कौंट्रैक्टर के तौर पर काम कर रहे हैं. वे सरकारी योजनाओं के ठेके हासिल करने वाली बड़ीबड़ी कंपनियों को धमका कर छोटेछोटे कामों के ठेके अपने हाथ में ले लेते हैं. बड़ी कंपनियां इस डर से नक्सलियों को ठेके दे देती हैं कि काम आसानी से हो सकेगा और दूसरे अपराधियों की ओर से कोई परेशानी खड़ी नहीं की जाएगी.

खुफिया विभाग ने कुछ साल पहले ही राज्य सरकार को बताया था कि पेटी कौंट्रैक्टर के काम में लग कर कई नक्सली करोड़पति बन बैठे हैं. पुलिस महकमे से मिली जानकारी के मुताबिक, कुछ समय पहले पटना, बिहार में पकड़े गए नक्सलियों के पास से 68 लाख रुपए बरामद हुए थे. जहानाबाद में गिरफ्तार नक्सलियों के पास से 27 लाख, 50 हजार रुपए और 5 मोबाइल फोन जब्त किए गए थे.

औरंगाबाद में नक्सलियों के पास से 3 लाख, 34 हजार रुपए और एक बोलैरो गाड़ी, गया में 15 लाख रुपए, मुंगेर में एक कार, 50 हजार रुपए, पिस्तौल वगैरह सामान बरामद किए गए थे.

कुंदन पाहन ने बताया कि माओवादी संगठन के ऊंचे पदों पर बैठे नक्सलियों के बच्चे बड़ेबड़े अंगरेजी स्कूलों में पढ़ते हैं और छोटे नक्सलियों से गांवों के स्कूलों को बम से उड़ाने को कहा जाता है. जहां एक ओर बड़े नक्सली शानोशौकत की जिंदगी गुजारते हैं, वहीं दूसरी ओर जंगल में दिनरात बंदूक ढोने वाले नक्सलियों के परिवार दानेदाने को मुहताज रहते हैं.

पुलिस हैडर्क्वाटर के सूत्रों पर भरोसा करें, तो बिहार के कई नक्सलियों की करोड़ों की दौलत पता लगाने का काम शुरू किया गया है. उस के बाद उन की गैरकानूनी तरीके से बनाई गई जायदाद को जब्त करने का काम शुरू किया जा सकता है.

हार्डकोर नक्सली कुंदन पाहन का पुलिस ने 14 मई को आत्मसमर्पण कराया था. 77 हत्याएं करने की बात कबूलने वाले कुंदन ने पुलिस को कोई हथियार नहीं सौंपा था.

कुंदन करोड़पति है और उस ने झारखंड के बुंडू, तमाड़, अड़की, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम जिलों के कारोबारियों समेत ओडिशा के दर्जनों कारोबारियों को सूद पर रकम दे रखी है.

कुंदन किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने का मन बना रहा है. वह इस की पूरी तैयारी भी कर चुका है. उस ने साफतौर पर कहा है कि वह जेल से ही चुनाव लड़ेगा और चुनाव जीतने के बाद अपने इलाके की तरक्की करेगा.

भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी), झारखंड की क्षेत्रीय समिति के सचिव कुंदन ने साल 2008 में स्पैशल ब्रांच के इंस्पैक्टर फ्रांसिस इंडवर की हत्या की थी. उसी साल सरांडा के जंगल में डीएसपी प्रमोद कुमार की हत्या की थी. आईसीआईसीआई बैंक के 5 करोड़ रुपए और सवा किलो सोना लूटने के बाद संगठन में उस की तूती बोलने लगी थी. उस के बाद उस ने सांसद सुनील महतो और विधायक रमेश मुंडा को मार डाला था.

कुंदन के खिलाफ रांची में 42, खूंटी में 50, चाईबासा में 27, सरायकेला में 7 और गुमला जिले में एक मामला अलगअलग थानों में दर्ज है. उस से पूछताछ के बाद मिली जानकारी के बाद झारखंड पुलिस रांची, खूंटी, लोहरदगा, गुमला, सरांडा, पूर्वी सिंहभूम और पश्चिम बंगाल से सटे इलाकों में जम कर छापामारी कर रही है.

बैंक से करोड़ों की लूट के बाद रुपए के बंटवारे को ले कर कुंदन और उस के करीबी दोस्त राजेश टोप्पो के बीच तीखी झड़प हो गई थी. कुंदन लूट की रकम में ज्यादा हिस्सा लेना चाहता था और राजेश बराबरबराबर बांटने की जिद पर अड़ा हुआ था. दोनों के बीच का झगड़ा इतना बढ़ा कि उन्होंने अपने रास्ते अलगअलग कर लिए.

राजेश ने अपना अलग दस्ता बना लिया. उस के बाद वह संगठन में कुंदन को नीचा दिखाने की ताक में रहने लगा. कुछ दिनों के बाद ही उसे बड़ा मौका मिल भी गया. राहे इलाके में राजेश की अगुआई वाले दस्ते ने 5 पुलिस वालों की हत्या कर दी और उन से हथियारों को लूट लिया.

इस के बाद संगठन में राजेश की हैसियत रातोंरात काफी बढ़ गई. उसे संगठन में काफी तवज्जुह मिलने लगी. संगठन के बड़े नक्सली नेताओं द्वारा राजेश को ज्यादा तरजीह देने से कुंदन नाराज रहने लगा. उस ने राजेश को अपने रास्ते से हटाने की साजिश रचनी शुरू कर दी. उस ने झांसा दे कर राजेश को अड़की के जंगल में बुलवाया और वहीं उस की हत्या कर दी.

पहले तो नक्सली नेता यह समझ बैठे कि पुलिस की मुठभेड़ में राजेश की जान गई है, पर बाद में उन्हें पता चला कि कुंदन ने उसे धोखे से मार डाला है, तो संगठन के सभी नक्सली नेता उस से नाराज हो गए. संगठन ने कुंदन के पर कतर डाले और उसे अलगथलग कर दिया. इस के बाद से ही उस ने आत्मसमर्पण करने की प्लानिंग शुरू कर दी थी.

रांचीटाटा हाईवे पर कुंदन की दहशत पिछले कई सालों से कायम थी. शाम ढलते ही हाईवे पर सन्नाटा पसरने लगता था. बुंडू और तमाड़ इलाकों के बाजार शाम होते ही बंद हो जाते थे. नेताओं और सरकारी अफसरों के बीच उस का खौफ इतना ज्यादा था कि अगर उन्हें शाम के बाद हाईवे से गुजरना होता था, तो पूरे रास्ते पर सीआरपीएफ के जवानों की तैनाती कर दी जाती थी.

खूंटी जिले का रहने वाला कुंदन साल 1998-99 में अपने 2 बड़े भाइयों डिंबा पाहन और श्याम पाहन के साथ नक्सली दस्ते में शामिल हुआ था. उस समय कुंदन की उम्र महज 17 साल थी. कुंदन और उस के परिवार वालों के पास अड़की ब्लौक के बाड़गाड़ा गांव में 27 सौ एकड़ जमीन है. उस में से तकरीबन 1350 एकड़ जमीन पर उस के एक चाचा ने कब्जा जमा रखा है.

तमाड़ में आल झारखंड स्टूडैंट यूनियन के विधायक विकास मुंडा कुंदन के आत्मसमर्पण करने के तरीके को गलत बताते हुए सरकार से नाराज हैं. कुंदन ने ही लैंडमाइंस ब्लास्ट कर के उन के पिता रमेश मुंडा की हत्या कर दी थी.

गणेश की शातिर सोच ने उसे बनाया अपराधी

उत्तर प्रदेश के जिला वाराणसी के थाना भेलूपुर में प्रमोद कुमार पत्नी और 3 बच्चों के साथ हंसीखुशी से रहता था. शुभम उस का सब से छोटा बेटा था, जो सभी का लाडला था. गुरुवार 27 अक्तूबर, 2016 को अचानक वह गायब हो गया तो पूरा परिवार परेशान हो उठा.13 महीने का शुभम जब कहीं दिखाई नहीं दिया तो उस की तलाश शुरू हुई. उस के बारे में आसपास के घरों में पूछा गया तो जल्दी ही उस के गायब होने की खबर पूरे मोहल्ले में फैल गई. इस के बाद मोहल्ले के भी कुछ लोग मदद के लिए आ गए. जब शुभम का कहीं कुछ पता नहीं चला तो बिना देर किए सलाह कर के सब उस के गुम होने की सूचना थाना भेलूपुर पुलिस को देने पहुंच गए.

थानाप्रभारी इंसपेक्टर राजीव कुमार सिंह को जब 13 महीने के शुभम के गायब होने की तहरीर दी गई तो उन्होंने गुमशुदगी दर्ज करा कर शुभम की फोटो ले कर प्रमोद कुमार तथा उन के साथ आए लोगों को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘आप लोग बिलकुल मत घबराइए, शुभम को कुछ नहीं होगा. हम उसे जल्द ही ढूंढ निकालेंगे.’’

इस के बाद राजीव कुमार सिंह ने आवश्यक जानकारी ले कर सभी को घर भेज दिया. एक मासूम की गुमशुदगी की बात थी, इसलिए उन्होंने इस की जानकारी अधिकारियों को दे कर थाने में मौजूद सिपाहियों को बच्चे की तलाश में लगा दिया. इस के अलावा इलाके के सभी मुखबिरों को भी सतर्क कर दिया.

प्रमोद की किसी से न कोई अदावत थी और न किसी से कोई विवाद था. ऐसे में यही लगता था कि बच्चे का फिरौती के लिए अपहरण किया गया होगा. लेकिन प्रमोद कुमार की इतनी हैसियत भी नहीं थी कि वह फिरौती के रूप में मोटी रकम दे सकता. फिर भी पुलिस फिरौती के लिए किए गए अपहरण को ही ध्यान में रख कर चल रही थी.

और हुआ भी वही. प्रमोद द्वारा थाने में तहरीर दे कर लौटने के थोड़ी देर बाद ही उसे एक पत्र मिला, जिस में शुभम के अपहरण की बात लिख कर उस की सकुशल वापसी के लिए 5 लाख रुपए की फिरौती मांगी गई थी.

अपहर्त्ता ने पत्र में लिखा था, ‘तुम्हारे जीजा ने मुझे बहुत परेशान किया है. अब तुम्हें अपना बेटा चाहिए तो 5 लाख रुपए दो, वरना बाद में चिडि़या खेत चुग जाएगी.’

ताज्जुब की बात यह थी कि पत्र भेजने वाला कोई और नहीं, प्रमोद कुमार के पड़ोस में ही रहने वाला गणेश राजभर था, जो औटो चलाता था. प्रमोद कुमार ने तुरंत इस बात की जानकारी थाना भेलूपुर पुलिस को तो दी ही, खुद भी गणेश की तलाश में लग गया. गणेश के घर में कोई नहीं था. पुलिस भी सूचना मिलते ही गणेश की तलाश में तेजी से जुट गई थी.

एसपी (सिटी) राजेश यादव ने सीओ राजेश श्रीवास्तव को निर्देश दिया कि किसी भी तरह गणेश को गिरफ्तार कर के शुभम को सकुशल बरामद किया जाए. इस के बाद थाना भेलूपुर पुलिस के अलावा क्राइम ब्रांच को भी गणेश की तलाश में लगा दिया गया.

आखिर पुलिस की मेहनत रंग लाई और अपहरण के 2 दिनों बाद यानी 29 अक्तूबर, 2016 को मुखबिर की सूचना पर गणेश को बच्चे के साथ मंडुआडीह रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया गया. गिरफ्तार करने के साथ ही उस के कब्जे से मासूम शुभम को सकुशल बरामद कर लिया गया. वह काफी डरासहमा हुआ था.

गणेश की गिरफ्तारी और मासूम शुभम की सकुशल बरामदगी के बाद एसपी (सिटी) राजेश यादव ने अपने औफिस में प्रैसवार्ता बुला कर अभियुक्त गणेश को पत्रकारों के सामने किया तो उस ने मासूम शुभम के अपहरण की जो कहानी सुनाई, वह प्रतिशोध की भावना से भरी हुई इस प्रकार थी—

वाराणसी के थाना सारनाथ के सोना तालाब का रहने वाला गणेश राजभर घर वालों से न पटने की वजह से परिवार के साथ थाना भेलूपुर के कमच्छा सट्टी स्थित अपनी ससुराल में किराए का मकान ले कर रहता था. गुजरबसर के लिए वह औटो चलाता था. उस के परिवार में पत्नी के अलावा 2 बेटे थे. किराए पर रहने की वजह से उसे आर्थिक रूप से तो परेशानी होती ही थी, साथ ही बारबार कमरा बदलने से भी उसे दिक्क्त होती थी.

यही सोच कर उस ने कुछ पैसा इकट्ठा किया और जमीन लेने की योजना बनाई, जिस से वह अपना मकान बना कर उस में आराम से रह सके. इस से उस के किराए के पैसे तो बचते ही, बारबार कमरा बदलने की जहमत से भी छुटकारा मिल जाता. इस के अलावा उस में वह थोड़ीबहुत सागसब्जी की खेती भी कर लेगा, जिस से चार पैसे भी बचते.

पैसे इकट्ठा हो गए तो गणेश जमीन की तलाश में लग गया. किसी के माध्यम से उस ने प्रकाश मास्टर से साढ़े 3 लाख रुपए में एक जमीन खरीदी. लेकिन जमीन खरीदने के बाद उसे पता चला कि वह जमीन बंजर है. यह जान कर वह परेशान हो उठा. क्योंकि वहां कुछ भी नहीं हो सकता था. प्रकाश से उस ने अपने रुपए वापस मांगे तो उस ने पैसे देने से मना कर दिया. इस के बाद दोनों में अकसर तकरार होने लगी.

गणेश को जब पता चला कि प्रकाश मास्टर उस के पड़ोस में रहने वाले प्रमोद कुमार का बहनोई है तो उस के मन में शातिर और घृणित सोच ने जन्म लेना शुरू कर दिया. वह थी प्रमोद कुमार के मासूम बेटे शुभम के अपहरण की. उसे लगता था कि साले के बेटे की चाहत में प्रकाश उस के रुपए तो लौटा ही देगा, फिरौती के रूप में भी कुछ रुपए देगा.

बस फिर क्या था, अपनी इसी सोच को अंजाम देने के लिए वह मौके की तलाश में रहने लगा. आखिर 27 अक्तूबर, 2016 को उसे मौका मिल ही गया. उस समय शुभम  घर के बाहर खेल रहा था. गणेश ने अपने 14 साल के बेटे सूरज को भेज कर औटो में घुमाने के बहाने शुभम को मंगा लिया और उसे ले कर चला गया. बाद में उस ने अपने बेटे सूरज के हाथों फिरौती के लिए प्रमोद के पास चिट्ठी भिजवा दी थी.

फिरौती की चिट्ठी मिलते ही प्रमोद के घर में कोहराम मच गया था, जबकि गणेश फिरौती के 5 लाख पाने के सपने देखने लगा था. उस के ये सपने पूरे होते, उस के पहले ही पुलिस ने उसे पकड़ लिया.

दरअसल, गणेश को इस बात की जरा भी उम्मीद नहीं थी कि लोग इतनी जल्दी पुलिस को शुभम के अपहरण की सूचना दे देंगे. गणेश द्वारा शुभम के अपहरण का अपराध स्वीकार करने के बाद थाना भेलूपुर पुलिस ने उस के खिलाफ अपहरण का मुकदमा दर्ज किया और उसे अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

सफेद कार का आतंक

12 जून, 2017 को गुमानी शंकर जिस वक्त कोटा से रवाना हुए, उस समय सुबह के 9 बजे थे. कारोबारी गुमानी शंकर को अपने परिवार के साथ एक वैवाहिक समारोह में भाग लेने श्यामनगर जाना था. गाड़ी वह खुद ड्राइव कर रहे थे. बगल वाली सीट पर उन का पोता हिमांशु बैठा था, जबकि पीछे की सीट पर उन की पत्नी लाडबाई और बहू सुनीता बैठी थी. उन्होंने हाईवे पर अनंतपुरा बाईपास से गुजर कर करीब एक किलोमीटर का फासला तय किया था कि रियरव्यू में उन्हें दाईं तरफ से सफेद रंग की एक कार तेजी से आती दिखाई दी.

गुमानी शंकर बहुत अच्छे ड्राइवर नहीं थे, इसलिए उन्होंने उस कार को साइड देने के लिए अपनी कार की रफ्तार कम कर ली. पीछे से आती कार तेजी से आगे निकल कर गुमानी शंकर की कार के आगे जाकर रुक गई. मजबूरी में गुमानी शंकर को अपनी कार रोकनी पड़ी.

इस से पहले कि गुमानी शंकर कुछ समझ पाते, मुंह पर ढांटा बांधे भारीभरकम एक आदमी ड्राइविंग सीट की ओर का गेट खोल कर फुरती से उन्हें परे धकेलते हुए अंदर आ घुसा और चाबी निकाल कर इग्नीशन औफ कर दिया. चाबी जेब में रख कर उस व्यक्ति ने गन चमकाई तो गुमानी शंकर की आंखें फटी रह गईं. उन के मुंह से बोल तक नहीं निकला. उस ने धमकाते हुए कहा, ‘‘खबरदार! कोई जरा भी आवाज नहीं निकालेगा.’’

गुमानी शंकर की अपनी जगह से हिलने तक की हिम्मत नहीं हुई. उस आदमी की बात से सभी समझ गए कि ये लुटेरे हैं. उस ने पहले डैश बोर्ड टटोला, उस के बाद उन के कपड़ों की तलाशी ली. उसे 30 हजार रुपए मिले, जिन्हें उस ने अपनी जेब में रख लिए.

गुमानी शंकर चाह कर भी कोई विरोध नहीं कर सके. उस ने महिलाओं के गले से मंगलसूत्र तोड़  लिए. गुमानी शंकर ने दिलेरी दिखाने की कोशिश में मुंह खोलना चाहा, लेकिन अपनी तरफ तनी हुई गन ने उन के कसबल ढीले कर दिए. तभी लुटेरों में से एक ने कहा, ‘‘जा रहे हैं सेठ, अफसोस है कि माल उम्मीद से बहुत कम मिला. अब यह सोच कर हलकान मत होना कि हम कौन हैं. बेहतरी इसी में है कि इस वारदात को ही भूल जाओ.’’

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इस के बाद लुटेरे फुरती से अपनी कार में सवार हुए और कार मोड़ कर अनंतपुरा की तरफ निकल गए. गुमानी शंकर ने कार से बाहर निकल कर उन्हें देखना चाहा, लेकिन तब तक वे आंखों से ओझल हो चुके थे. उन्होंने तत्काल मोबाइल निकाल कर पुलिस कंट्रोल रूम का नंबर मिलाया. लेकिन पुलिस से संपर्क नहीं हो सका. थकहार कर वह ड्राइविंग सीट पर बैठ गए.

अब तक एक बात उन के दिलोदिमाग में घर कर गई थी कि लुटेरे सफेद रंग की स्विफ्ट डिजायर कार में आए थे और उस पर नंबर प्लेट नहीं थी. उन की भाषा भरतपुरिया लहजा लिए हुए थी, इस का मतलब वे उधर के थे.

लुटेरों का अगला शिकार गोविंदनगर निवासी सुरेंद्र नायक बने. नायक अपनी पत्नी टीना के साथ बाइक पर थे. गुरुवार 15 जून की सुबह 9 बजे नायक डीडीआई अस्पताल के मुहाने पर पहुंचे थे कि ट्रैफिक नियमों को दरकिनार करते हुए सामने से तेजरफ्तार आ रही सफेद कार को देख कर वह हड़बड़ा गए.

नायक बाइक का संतुलन संभाल पाते, उस के पहले ही कार से फुरती से निकल कर 2 ढांटाधारी युवकों ने उन्हें घेर लिया. उन में से एक ने गन दिखा कर बाइक की चाबी निकाल ली. जबकि दूसरे ने यह कहते हुए झटके से नायक की पत्नी के गले से मंगलसूत्र खींच लिया कि दिनदहाड़े इतने कीमती जेवर पहन कर घर से निकलना अच्छा नहीं है. आइंदा से इस बात को याद रखना.

कोई कुछ समझ पाता, उस के पहले ही दोनों युवक कार में बैठ कर छूमंतर हो गए. लुटेरे बाइक की चाबी भी साथ ले गए थे. नतीजतन नायक के पास हाथ मलने के अलावा कोई चारा नहीं रहा. पीसीआर को सूचना दी गई तो थोड़ी देर में पुलिस की टीम वहां पहुंच गई, लेकिन तब तक उन के करने के लिए कुछ नहीं बचा था. ताज्जुब की बात यह थी कि भीड़भरी सड़क पर इतनी बड़ी वारदात हो रही थी और किसी ने उन की मदद नहीं की.

अगले 8 दिनों में कोटा महानगर के अलगअलग इलाकों में दिनदहाड़े लूट की एक दरजन वारदातों ने शहर में तहलका मचा दिया. बदमाश बेखौफ हो कर हाईवे पर दिनदहाड़े हथियारों के बल पर जिस तरह लूटपाट कर रहे थे, पुलिस के लिए खुली चुनौती थी.

हर वारदात में बिना नंबर की स्विफ्ट डिजायर कार और गन के साथ लूटपाट करने वाले दो ढांटाधारी युवकों की मौजूदगी ने यह साबित कर दिया था कि सभी वारदातें एक ही गिरोह कर रहा है. क्योंकि हर वारदात का स्टाइल एक जैसा था. ट्रैफिक नियमों को धता बताते हुए अचानक शिकार के सामने नमूदार होना और गन दिखा कर जो भी मालमत्ता मिले, लूट कर भाग जाना.

लूटी जाने वाली कार और बाइक सवार को निहत्था करने के मकसद से चाबी साथ ले जाना भी उन की वारदात में शामिल था, ताकि उन का पीछा न किया जा सके. वारदातों से सहमे लोगों में भरोसा बनाए रखने के लिए एसपी अंशुमान भोमिया ने मीडिया के जरिए लोगों को आश्वस्त किया कि लूट के मामलों की गहराई से जांच की जा रही है. उन्होंने कहा कि अपराधियों और अपराध में इस्तेमाल की जा रही कार के बारे में पता लगाया जा रहा है. अपराधी जल्दी ही पुलिस की गिरफ्त में होंगे. इस बीच पुलिस यह जान चुकी थी कि लुटेरों की कार का नंबर आरजे25 सीए 4717 है.

लुटेरे सिर्फ कोटा तक ही सीमित रहे हों, ऐसा नहीं था. जब एसपी अंशुमान भोमिया अपने मातहतों के साथ लूट की घटनाओं की समीक्षा कर रहे थे, उन्हें चौंकाने वाली सूचना मिली कि लूट की ऐसी ही वारदातें बूंदी, टोंक, बारां और उदयपुर में भी हो चुकी हैं.

लुटेरे जीआरपी थाना क्षेत्र, सवाई माधोपुर में 2 ट्रेनों में भी लूट की वारदातों को अंजाम दे चुके हैं. ट्रेनों में लूटपाट के दौरान उन्होंने सिर्फ महिलाओं को ही निशाना बनाया था. उन्होंने महिलाओं से कहा था कि किसी भी तरह की गलत हरकत से बचना चाहती हैं तो बिना देर किए जेवर उतार कर दे दें. डरीसहमी महिलाओं ने एक पल की भी देर नहीं की थी.

एक तरफ पुलिस सफेद स्विफ्ट डिजायर कार वाले लुटेरों की तलाश में भटक रही थीं तो दूसरी तरफ उन की गतिविधियां चरम पर थीं. हालात दिनोंदिन पेचीदा होते जा रहे थे. इस पर कोटा संभाग के आईजी विशाल बंसल ने एसपी अंशुमान भोमिया को सलाह दी कि लुटेरों को गिरफ्तार करने के लिए विशेष दल का गठन कर के कोटा, बूंदी और टोंक पुलिस का जौइंट औपरेशन शुरू कराएं.

एसपी अंशुमान भोमिया लुटेरों को पकड़ने के लिए एडीशनल एसपी अनंत कुमार के निर्देशन में डीएसपी शिवभगवान गोदारा, राजेश मेश्राम, सीआई अनिल जोशी, लोकेंद्र पालीवाल, धनराज मीणा, शौकत खान, रामनाथ सिंह और सर्किल इंसपेक्टर श्रीचंद को शामिल कर के विशेष टीमों का गठन कर दिया.

पहली टीम सीआई लोकेंद्र पालीवाल की अगुवाई में कोटा, बूंदी हाईवे पर नजर रख रही थी, जबकि दूसरी टीम अनिल जोशी के नेतृत्व में मुखबिर तंत्र के जरिए शहर से रिसने वाली सूचनाएं खंगाल रही थी. बूंदी और टोंक पुलिस ने भी अपने खुफिया तंत्र को हाईवे पर मुस्तैद कर दिया था.

बूंदी के एसपी राजेंद्र सिद्धू के निर्देशन में लुटेरों की तलाश में जुटी पुलिस की जांच में 2 बातें सामने आईं. पहली तो यह कि लुटेरे नाकों से गुजरने से बच रहे थे, साथ ही उन के निशाने पर वही लोग होते थे, जिन के साथ महिलाएं होती थीं. लुटेरे जरूरत से ज्यादा दुस्साहसी थे. यही वजह थी कि वे हर वारदात में एक ही स्विफ्ट डिजायर कार इस्तेमाल कर रहे थे और घूमफिर कर उन्हीं इलाकों में वारदात कर रहे थे.

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पुलिस ने लूट में इस्तेमाल की जा रही कार को टारगेट कर के पूरे कोटा शहर की कड़ी नाकेबंदी कर दी. नाकेबंदी के दौरान करीब एक हजार कारों को चैक किया गया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी.

लुटेरों की टोह में पुलिस पूरी तरह सक्रिय थी, लेकिन कामयाबी हाथ नहीं लग रही थी. कशमकश के दौरान एसपी अंशुमान भोमिया के दिमाग में एक खयाल कौंधा, हालांकि खयाल दूर की कौड़ी था, लेकिन टटोलने में कोई हर्ज नहीं था.

दूर की यह कौड़ी 31 मई की वारदात से जुड़ी थी, जिस में जीआरपी पुलिस ने जयपुर सुपरफास्ट में लूटपाट करने वाले अबरार और सोनू मीणा नाम के 2 लुटेरों को सवाई माधोपुर से पकड़ा था. पूछताछ में उन्होंने अपने 2 साथियों के नाम भी बताए थे, जो फरार हो गए थे.

जीआरपी थानाप्रभारी गंगासहाय शर्मा के मुताबिक उन के नाम वारिस उर्फ भूरिया तथा राजेश मीणा थे. अंशुमान भोमिया ने एडीशनल एसपी अनंत कुमार शर्मा को मन की बात बताई तो वह भी सहमत हो गए. उन के बारे में पुलिस को जो पुख्ता जानकारी हासिल हुई, उस के मुताबिक, दोनों ही जेल से हाल ही में छूटे थे.

21 जून बुधवार की रात जौइंट औपरेशन के तहत अनंत कुमार शर्मा अपनी गाड़ी से गश्त कर रहे थे. अचानक वायरलैस से उन्हें सूचना मिली कि लुटेरे टोंक जिले में वारदात करने के बाद उनियारा की तरफ जा रहे हैं. बूंदी के एसपी राजेंद्र सिद्धू को इस बाबत सूचना मिल चुकी थी और उन की हिदायत पर लाखेरी और इंद्रगढ़ पुलिस स्विफ्ट डिजायर कार का पीछा कर रही थी.

राजेंद्र सिद्धू ने टोंक और उनियारा पुलिस को भी सतर्क कर दिया था. सूत्रों से पता चला कि स्विफ्ट डिजायर कार में बैठे लुटेरों ने खतरा भांप कर इंद्रगढ़ लाखेरी पुलिस पर फायर भी किया था, लेकिन उन्होंने पीछा करना नहीं छोड़ा.

पुलिस के इस जौइंट औपरेशन में कोटा, बूंदी और टोंक पुलिस ने लुटेरों को चारों ओर से घेर लिया. नतीजतन टोंक जिले के थाना सोंप में पुलिस ने उन्हें कल्याणपुरा पायगा गांव के पास रोक लिया. पकड़े गए युवक वारिस उर्फ भूरिया तथा राजेश मीणा थे. अनंत कुमार शर्मा भी पुलिस टीम के साथ पहुंच गए थे. थाना सोंप में काररवाई के बाद दोनों लुटेरों और जब्त कार को लाखेरी, इंद्रगढ़ पुलिस को सौंप दिया गया.

पुलिस उन्हें ले कर बूंदी के लिए रवाना हुई. उन के पास भारी संख्या में जेवरात के अलावा 66 हजार रुपए नकद, एक देशी कट्टा और रिवौल्वर था. पूछताछ में उन्होंने बूंदी और सवाई माधोपुर में वारदातों के अलावा कोटा हाईवे पर की गई वारदातों को भी स्वीकार किया. बूंदी में 5 मामले दर्ज होने से लुटेरों को पहले बूंदी पुलिस को सौंपा गया.

अनिल कुमार शर्मा कोटा पहुंचे तो 2 अन्य लुटेरों के पकड़े जाने की सूचना मिली. इन के नाम मनोज उर्फ बंटी तथा दानिश थे. दोनों के कब्जे से 2 भरी हुई पिस्टलें बरामद हुई थीं. अंशुमान भोमिया के मुताबिक आरोपियों से शुरुआती पूछताछ में इस बात का खुलासा हुआ है कि उन्होंने कुछ समय पहले ही यह कार सवाई माधोपुर के एक व्यक्ति से डेढ़ लाख रुपए में खरीदी थी. लेकिन सौदे की रकम अभी तक नहीं चुकाई गई थी.

एसपी भोमिया ने बताया कि लुटेरों ने वारदातों में जिस कार का उपयोग किया था, उस के आगेपीछे के 4 और 7 नंबर साफ कर दिए गए थे. इस से 17 का अंक ही नजर आ रहा था. उन्होंने बताया कि नाकेबंदी के दौरान एक हजार से ज्यादा सफेद स्विफ्ट डिजायर कारों को चैक किया गया था. फिलहाल आरोपी न्यायिक अभिरक्षा में हैं.

– कथा पुलिस सूत्रों के आधार पर