खिल गए खुशियों के गुलाब – भाग 3

दरखशां के दिन भी उदासी से बीत रहे थे. कभी अमीना आ जातीं तो कभी अब्बू या शाहिद जाहिद. कभी कभी वह खुद भी मायके चली जाती. 15 दिनों बाद हम्माद आया तो दरखशां पहले की ही तरह उदास थी. हम्माद ने सोचा कि क्या मेरी कमी इस ने महसूस नहीं की. मेरे आने पर न आंखों में चमक आई न चेहरे पर खुशी. हम्माद भी उदास हो गया.

आम बीवियों की तरह दरखशां खाने का इंतजाम करने लगी. हम्माद ने उस से यह भी नहीं पूछा कि वह कैसी है? न कोई जुदाई के किस्से, न तनहाई की बातें. वह सोच रही थी कि यह कितने कठोर इंसान है. इतने दिनों बाद आए हैं, फिर भी कोई बेचैनी नहीं दिखती. शायद उस के बिना खुश थे. उस ने किचन में अपनी नम आंखें पोंछी. दो दिन रह कर हम्माद चला गया.

अगले हफ्ते दरखशां की सालगिरह थी. उस की जिंदगी का सब से अहम और खूबसूरत दिन. वह परेशान थी कि अपनी सालगिरह कैसे और किस के साथ मनाए. हम्माद के आने में एक सप्ताह बाकी रहेगा. वह अकेली क्या करेगी. यह सोच कर वह रो पड़ी. पिछले साल उस की सालगिरह पर कितना अच्छा इंतजाम किया गया था. सारी सहेलियां आई थीं. घर को खूब सजाया गया था.

यही सब सोचसोच कर दरखशां का सिर दर्द करने लगा. क्या इस बार 5 अप्रैल का दिन यूं ही गुजर जाएगा. वह अपनी सालगिरह नहीं मना पाएगी. बेबसी और बेचैनी से उस का वजूद थर्रा उठा.

सालगिरह वाले दिन जब दरखशां सो कर उठी तो उस का मन काफी खिन्न था. लेकिन मौसम बड़ा खुशगवार था. उस के अब्बू और अम्मी ने उसे फोन कर के मुबारकबाद दे दी थी. दरखशां सिसक कर रह गई. दोपहर 12 बजे नसीर ने एक कुरियर पैकेट ला कर दिया, जो मारिया की ओर से गिफ्ट था. शाहिद और जाहिद ने भी कार्ड भेजे थे.

दरखशां की आंखें बेसाख्ता भर आईं. सब को यह दिन याद रहा, लेकिन हम्माद को..? हम्माद के न होने से उसे बड़ी उदासी लग रही थी. उस ने मारिया द्वारा भेजी गई खूबसूरत ज्वैलरी और परफ्यूम तथा अपने भाइयों द्वारा भेजे गए रंगबिरंगे कार्डों को ले जा कर साफिया बेगम को दिखाए. वह उसे दुआएं देती हुई बोलीं, ‘‘मुबारक हो बेटा, पहले जिक्र किया होता तो मैं भी कुछ ले आती.’’

रुलाई दबा कर दरखशां बोली, ‘‘अम्मी, मैं तो ऐसे ही…’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं. हम्माद आ जाए तो मिल कर सालगिरह मना लेंगे. खुदा तुम्हें सुखी रखे, सदा सुहागन रहो, शादो आबाद रहो.’’ अम्मी ने कहा.

दरखशां अपने कमरे में चली गई. उसे तनहाई और हम्माद की बेवफाई अंदर ही अंदर खाए जा रही थी. वह रोने ही वाली थी कि मारिया का फोन आ गया. उस ने सालगिरह की मुबारकबाद दी तो उस का दिल भर आया.

वह तड़प कर बोली, ‘‘हुंह, कैसी सालगिरह, कैसा इंतजाम. मारिया, मैं बिलकुल अकेली हूं. उन्हें तो मुझ से ज्यादा मरीजों से प्यार है.’’ इस के बाद सिसकते हुए आगे बोली, ‘‘ये डाक्टर लोग होते ही कठोर हैं. उन्हें मेरी सालगिरह कैसे याद रहेगी. यहां तो वीरानी और तनहाई है. मैं उन से यह भी नहीं कह सकती कि मैं उन के बगैर कितनी अधूरी और उदास हूं. उन से कितनी मोहब्बत करती हूं.’’

काफी देर तक दरखशां मारिया से गिलेशिकवे करती रही. दूसरी ओर से मारिया उसे तसल्ली देती रही. वह अर्थपूर्ण ढंग से हंस भी रही थी, जो दरखशां की समझ से बाहर था. आखिर उस ने ‘खुदा हाफिज’ कह कर फोन रख दिया.

दरखशां फोन मेज पर रख कर मुड़ी तो जैसे पत्थर हो गई. दरवाजे के पास हम्माद खड़ा था. उस के होठों पर बेहद शरारती मुसकराहट थी.

‘‘अ…अ…आप?’’ दरखशां उसे देख कर हैरानी से हिसाब लगाते हुए बोली, ‘‘लेकिन आप तो 6 दिन बाद आने वाले थे.’’ दरखशां के दिल में उथलपुथल मची थी. हम्माद कुछ बोले बगैर अंदर आ गया और कमरे का दरवाजा बंद कर दिया. ऐसे में दरखशां का दिल तेजी से धड़कने लगा. दरखशां के करीब आ कर अपने दोनों हाथ उस के कांपते कंधों पर रख कर हम्माद ने दबाव डाला तो वह बेड पर बैठ गई. इस के बाद उस की आंखों में आंखें डाल कर हम्माद ने कहा, ‘‘यह कठोर मुझे ही कहा जा रहा था न?’’

‘‘म…म…मैं…नहीं…वह…’’ दरखशां हकलाई.

‘‘सालगिरह मुबारक हो.’’ हम्माद दरखशां के बगल में बैठ कर अपनी बांहें उस के गले में डाल कर बोला.

हम्माद जिस तरह प्यार से दरखशां से अपनी बातें कह रहा था, वे उस पर बहारों के फूल की तरह गिर रही थीं. प्यार से भरे शब्द सारे गिलेशिकवे धो रहे थे. उदासी के गुबार मिटा रहे थे.

‘‘तुम्हारी सालगिरह भला मुझे क्यों न याद रहती,’’ दरखशां की नाजुक नाक को 2 अंगुलियों से पकड़ कर हिलाते हुए हम्माद ने कहा ‘‘जानम, जिन से मोहब्बत होती है, उन के बारे में हमेशा सजग रहना पड़ता है. तुम ने यह कैसे कह दिया कि मैं मरीजों का हूं, तुम्हारा नहीं.’’

हम्माद अपनी बात कहते हुए अंगुली से दरखशां की ठोढ़ी को उठा कर सवालिया नजरों से देखा. दरखशां ने शरम के मारे आंखें झुका ली थीं. वह उस से आंखें नहीं मिला पा रही थी. हम्माद ने आगे कहा, ‘‘तुम मेरी जान हो दरखशां. माना कि मैं इजहार में कंजूसी करता हूं. लेकिन अब तुम्हें कोई शिकवा नहीं होना चाहिए. मैं जानता हूं कि तुम कुछ नहीं कहोगी, फिर भी मेरी जुदाई में घुली जा रही हो. तुम मेरे बिना नहीं रह सकती तो मैं भी तुम्हारे बिना अधूरा हूं. अब वादा करो, तुम सारे गिलेशिकवे भुला दोगी.’’

दरखशां ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो हम्माद ने जेब से एक डिबिया निकाल कर उस में से सोने की एक चैन निकाली. उसे दरखशां के गले में डाला तो वह हैरान रह गई. वह हम्माद के सीने से लग गई तो हम्माद को लगा कि उस के दिल का सारा बोझ उतर गया है. उस ने दरखशां को बांहों में समेट कर कहा, ‘‘चलो मेरे साथ, तुमहारे लिए एक और सरप्राइज है.’’

‘‘क्या?’’ दरखशां ने पूछा.

‘‘साथ चलो तो…, कह कर हम्माद उसे लाउज में ले आया. अम्मी वहीं सोफे पर बैठी थीं. तरहतरह की खानेपीने की चीजों के साथ मेज पर केक भी रखा था. तभी दरवाजा खुला और अमीना, राशिद, जाहिद, शाहिद, मारिया और उस की अन्य सहेलियां मुसकराते हुए अंदर आ गईं.

दरखशां का दिल मारे खुशी के उछल पड़ा. उसे लगा कि खुशियों में ढेर सारे गुलाब एक साथ खिल गए हैं. सब ने उसे ‘हैप्पी बर्थ डे’ कहा. अम्मी के कहने पर वह तैयार होने के लिए अपने कमरे की ओर चल पड़ी. हम्माद ने एक आंख दबाते हुए कहा, ‘‘जल्दी आना.’’

दरखशां शरम और खुशी से दोहरी हो गई.

— प्रस्तुति : कलीम आनंद

खिल गए खुशियों के गुलाब – भाग 2

3 महीने गुजरते देर कहां लगती है. हम्माद और दरखशां की शादी हो गई. दरखशां रुखसत हो कर पिया के घर आ गई. हम्माद के घर पहंचने पर साफिया बेगम और शहनाज ने उस का स्वागत किया. शहनाज और अन्य औरतें उसे सजा कर सुहाग के कमरे में ले गईं. शहनाज ने उसे बैड पर बैठा दिया. इस के बाद चुहलबाजी करती हुई चली गई.

काफी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला. हम्माद अंदर आ कर उस के पास बैठ गया. दरखशां का घूंघट उलट कर बोला, ‘‘माशा अल्लाह, आंखें तो खोलिए.’’

हम्माद की इस आवाज में न बेताबी थी और न दीवानगी न जज्बों की लपक थी और न इंतजार की कशमकश. दरखशां ने पलकें उठाईं तो हम्माद का दिलकश चेहरा सामने था.

‘‘मैं खुशकिस्मत हूं कि तुम मेरी शरीके हयात बन गई हो.’’ हम्माद लापरवाही से बोला.

दरखशां के दिल में खौफ के बजाय अब एक बेनाम सी उदासी थी. वह रात हम्माद ने वादों के साथ बिताई. दरखशां अपने हुस्न के कसीदे सुनने की ख्वाहिशमंद थी, जबकि हम्माद ने संक्षिप्त सी बात कर के इस टौपिक को ही बंद कर दिया था. इस उपेक्षा से उस के दिल पर एक बोझ सा आ पड़ा, जैसे कुछ खो गया हो. एक नईनवेली दुलहन के लिए कुछ तो कहना चाहिए. वह अपना पोर पोर सजा कर इन्हीं के लिए तो आई थी. लेकिन जैसे वह जज्बों से बिलकुल खाली था.

शादी हुए काफी दिन गुजर गए. हम्माद उसे मायके भी ले जाता और घुमाने फिराने भी. होटल और रेस्त्रां में खिलातापिलाता भी, लेकिन कभी प्यार का इजहार नहीं करता था और न ही उस की खूबसूरती के कसीदे पढ़ता. वह एक प्रैक्टिकल सोच वाला इंसान था. अपने काम के प्रति बेहद ईमानदार.

हम्माद का घर बेहद खूबसूरत था. घर में एक नौकर नसीर तो था ही, साफसफाई के लिए एक नौकरानी भी रखी हुई थी. घर में कोई अधिक काम नहीं था, इसलिए दरखशां सारा दिन बौखलाई फिरती थी. जब उस का मन घबराता तो वह तेज आवाज में डैक चला कर गाने सुनती या फिर कंप्यूटर से दिल बहलाती.

हम्माद सुबह निकलता था तो रात को ही आता था. ऐसे में कभीकभी दरखशां को अपने मून और पिंकी की याद आती तो वह मारिया को फोन करती. मारिया उस की बात सुन कर बेसाख्ता हंसते हुए कहती, ‘‘अरे पगली, अब तू शादीशुदा है. मून और पिंकी की फिक्र छोड़, कल को तेरे अपने गुड्डे गुडि़यां आ जाएंगे, उन्हीं से खेलना.’’

ऊब कर दरखशां सास साफिया बेगम के पास बैठ जाती तो वह उसे किस्से कहानियां सुनातीं. वह उन की अच्छी तरह देखभाल करती थी, क्योंकि वह जोड़ों के दर्द की मरीज थीं.

हम्माद के आने का समय होता तो वह उसे जबरदस्ती तैयार होने को कहतीं. वह सोचती कि पत्थर दिल बेहिस डाक्टर साहब सारा दिन दवाइयों की गंध सूंघते रहते हैं. ऐसे में उस के सजसंवर कर रहने का उन पर क्या असर होगा. सच भी था, हम्माद को अपने पेशे से काफी लगाव था. घर आने पर वह दरखशां से भी ज्यादा बात नहीं करते थे. सिर्फ मतलब की बात करते, वरना खामोशी, किताबें या फिर कंप्यूटर.

साफिया बेगम की आवाज उस के कानों में पड़ी तो वह यादों से बाहर आ गई. वह साफिया बेगम के कमरे की ओर भागी. अब तक हम्माद सो गया था.

इसी तरह दिन बीत रहे थे. अचानक हम्माद की ड्यूटी रात में लगा दी गई थी. दरखशां ने आह सी भरी तो हम्माद ने कहा, ‘‘अरे भई, यह पेशा ही ऐसा है. कभी रात तो कभी दिन. असल काम तो मरीजों की सेवा करना है.’’

उसी बीच दरखशां मायके गई और कई दिनों बाद वापस आई. संयोग से उसी समय हम्माद भी घर आ गया. वह जूते के बंद खोलते हुए तल्खी से बोला, ‘‘तुम्हारा मन मायके में कुछ ज्यादा ही लगता है.’’

‘‘क्यों न लगे. अपने मांबाप को देखने भी नहीं जा सकती क्या?’’ दरखशां ने कहा.

हम्माद चुप रह गया. दरखशां जब भी मायके जाती, अपने मून और पिंकी को गले लगाती. अपनी अम्मी से खूब बातें करती. मायके से आने लगती तो खूब रोती. शादी हुए एक साल हो रहा था, लेकिन वह खुद को ससुराल में एडजस्ट नहीं कर पा रही थी. वह सोचती थी कि जब वह ससुराल आए तो हम्माद कहे कि तुम्हारे बगैर ये 2 दिन मैं ने कांटों पर गुजारे हैं. रात को तुम मेरे पहलू में नहीं होती तो मैं करवट बदलता रहता हूं. लेकिन उस के मुंह से कभी ऐसे वाक्य नहीं निकलते, जो दरखशां के मोहब्बत के तरसे दिल पर फव्वारा बन कर गिरते.

किचन का ज्यादातर काम दरखशां करती थी, नसीर उस के साथ लगा रहता था. साफिया उसे समझातीं, मगर वह नहीं मानती. दरखशां अब अच्छा खाना बनाने लगी थी. लेकिन हम्माद ने कभी उस के खाने की तारीफ नहीं की. ऐसे में दरखशां झुंझला जाती. साफिया उस की तारीफें करती तो दरखशां कमरे में आ कर रोती.

एक दिन दरखशां ने साफिया बेगम से हम्माद के ऐसे मिजाज के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘‘अरे बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है. जब से उस के अब्बू का इंतकाल हुआ है, तब से यह खामोश और तनहाई पसंद हो गया है. बस पढ़ाई में मगन रहा. लेकिन जब से तुम आई हो, इस में काफी बदलाव आया है.’’

कुछ दिनों बाद हम्माद को पास के एक कस्बे के अस्पताल का इंचार्ज बना कर भेज दिया गया. नया अस्पताल बना था. हम्माद को जूनियर डाक्टरों के साथ इंचार्ज बन कर जाना था.

2 दिनों बाद हम्माद वहां जाने के लिए तैयार था. जाते वक्त उस ने कहा, ‘‘मैं 15 दिनों बाद आऊंगा.’’

हम्माद के अंदाज में न तो उदासी थी और न ही कोई परेशानी. वह बाहर जाने में बड़ा संतुष्ट लग रहा था. अम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, दुलहन को भी साथ ले जाते तो अच्छा रहता.’’

‘‘नहीं अम्मी, अभी मुमकिन नहीं है. पहले जगह वगैरह देख लूं. घर तो मिल जाएगा, लेकिन कैसा माहौल है, क्या सहूलियतें हैं, यह सब देखना पड़ेगा.’’

हम्माद की बात सुन कर दरखशां तिलमिला उठी. उस की आंखों में आंसू भर आए.

नई जगह होने की वजह से हम्माद को फुरसत नहीं मिलती थी. सहूलियतें भी काफी कम थीं. मरीजों का दिनरात तांता लगा रहता था. यह पिछड़ा इलाका था. हम्माद दिनभर काम में लगा रहता. रात को कमरे में आता तो दरखशां की याद दिल से लिपट जाती. उस का मासूम, भोलाभाला चेहरा और मंदमंद मुसकराहट उसे बेचैन कर देती.

हालांकि हम्माद रात की भी ड्यूटी करता था, मगर इतने दिनों के लिए वह पहली बार दरखशां से जुदा हुआ था. दरखशां की कमी और दूरी उसे परेशान कर रही थी.

खिल गए खुशियों के गुलाब – भाग 1

डैक पर बजने वाला गाना भले ही बैडरूम में बज रहा था, लेकिन वह इतनी जोर से बज रहा था कि उस की लपेट में पूरा घर आ रहा था. घर में प्रवेश करते ही हम्माद ने देखा, लाउंज में खड़ा नौकर नसीर भी उस गाने का मजा ले रहा था. उसे देखते ही झट से सलाम कर के वह किचन की ओर बढ़ गया. हम्माद की अम्मी के कमरे का दरवाजा बंद था. सुबह से ही उन की तबीयत खराब थी. वह दवा खा कर लेटी थीं, मगर इस हंगामे में भला आराम कहां से मिलता.

काम की थकान की वजह से हम्माद का दिमाग पहले से ही खराब था, इस शोरगुल ने उसे और खराब कर दिया था. बैडरूम का दरवाजा खुला था. उस की बीवी दरखशां बैड पर औंधी लेटी गाने का मजा लेती हुई पैर हिला रही थी. हम्माद सिर दर्द की वजह से जल्दी घर आ गया था. इस हंगामे से उस की कनपटियां चटखने लगीं. दरखशां के करीब जा कर उस ने तेज आवाज में कहा, ‘‘मैडम…’’

दरखशां इस तरह चौंकी, जैसे किसी सुहाने ख्वाब में खोई रही है. वह एकदम से उठ बैठी. हम्माद ने डेक औफ किया और उसे घूरते हुए बोला, ‘‘यह घर है दरखशां. फिर अम्मी की तबीयत भी खराब है, इस के बावजूद तुम ने फुल वाल्यूम में डेक चला रखा है.’’

‘‘वो मैं… सौरी.’’ दरखशां घबराहट में बोली. उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था.

यह वक्त हम्माद के आने का नहीं था, इसलिए वह अपनी मनमर्जी कर रही थी. उस समय उस के दिमाग से यह बात निकल गई थी कि सास की तबीयत खराब है. उसे शर्मिंदगी महसूस हुई. वह इस तरह उठ कर खड़ी हुई, जैसे उस की टांगों में जान न हो.

‘‘एक कप चाय.’’ हम्माद की आवाज में गुस्सा साफ झलक रहा था. कह कर वह वौशरूम में घुस गया. दरखशां की आंखें भर आईं. क्योंकि वह ऐसे लहजे की आदी नहीं थी. आंसू पीते हुए उस ने नसीर से चाय बनाने को कहा और खुद लाउंज में जा कर खड़ी हो गई.

चाय ले कर दरखशां कमरे में आई तो हम्माद कपड़े बदल कर बिस्तर पर लेट चुका था. चाय के साथ 2 गोलियां निगल कर उस ने कप तिपाई पर रख दिया और खुद कंबल ओढ़ कर लेट गया. दरखशां यह भी नहीं कह सकी कि सिर दबा दे. कंबल के साथ हम्माद ने खामोशी भी ओढ़ ली थी. वह लाइट औफ कर के सोफे पर बैठ गई. उस का मन रोने को हो रहा था. हम्माद का यह रवैया उसे पसंद नहीं आया था. उस ने आंखें मूंद लीं. तभी उस के जेहन में गुजरे दिनों की फिल्म चलने लगी.

इंटर पास कर के दरखशां ने कालेज में दाखिला ले लिया था, इस के बावजूद गुड्डे गुडियों से खेलने का शौक उस का गया नहीं था. उस ने गुड्डे का नाम मून रखा था तो गुडि़या का पिंकी. उस के इस खेल में उस की सहेली मारिया के अलावा आसपड़ोस की कुछ अन्य लड़कियां भी शामिल होती थीं. मारिया का घर पड़ोस में ही था. इसलिए वह अकसर दरखशां के साथ ही रहती थी.

दरखशां को गुड्डेगुडि़या के साथ खेलते देख उस की अम्मी अमीना अकसर नाराज हो कर कहतीं, ‘‘इतनी बड़ी हो गई है, फिर भी गुड्डेगुडि़यों के साथ खेलती रहती है.’’

तब दरखशां के वालिद राशिद कहते, ‘‘खेलती है तो खेलने दो, हमारी एक ही तो बेटी है. कम से कम सहेलियों के साथ घर में खेलती है, बेटों की तरह बाहर तो नहीं जाती.’’

दरखशां थी ही इतनी प्यारी, मासूम सूरत, सुर्खी लिए सफेद रंगत, बड़ीबड़ी नशीली आंखें, दरमियाना कद, उस पर सितम ढाती भोलीभाली सूरत.

दरखशां के वालिद एक विदेशी कंपनी में अच्छी पोस्ट पर नौकरी करते थे. दरखशां से 3 साल छोटे 2 जुड़वां भाई थे – शाहिद और जाहिद. भाईबहन आपस में दोस्ताना रवैया रखते थे, मगर दोनों भाई दरखशां को परेशान करने से बाज नहीं आते थे. वे शरारती भी बहुत थे. अक्सर वे दरखशां के गुड्डेगुडि़यों को छिपा देते. दरखशां अम्मी से शिकायत करती तो वे मून और पिंकी को उस के हाथ में थाम कर कहते, ‘‘अम्मी लगता है, आपी इन्हें अपने साथ ससुराल भी ले जाएंगी.’’

ससुराल के नाम पर घबरा कर दरखशां अम्मी के सीने से चिपक जाती. ससुराल जाने के खयाल से ही वह घबरा जाती थी. अभी वह 17 साल की ही तो थी. अगले महीने 5 अप्रैल को उस की सालगिरह थी, जिस की तैयारी अभी से शुरू हो गई थी. दरखशां की सालगिरह हमेशा बड़े धूमधाम से मनाई जाती थी.

कालेज की पढ़ाई के दौरान दरखशां को गुड्डेगुडि़यों से खेलने का मौका कम ही मिलता था. लेकिन दिन में एक बार उन्हें अच्छी तरह देख कर वह तसल्ली जरूर कर लेती थी.

एक दिन वह कुछ पढ़ रही थी, तभी उस के वालिद ने उस की अम्मी से कहा, ‘‘अमीना, अब हमें दरखशां की शादी कर देनी चाहिए. रिश्ता अच्छा है, मना नहीं किया जा सकता. हम्माद मेरे दोस्त का बेटा है, डाक्टर है. देखाभला और जानासुना है. अब दोस्त नहीं रहा तो मना करना ठीक नहीं है. रजा ने इस रिश्ते के लिए मुझ से बहुत पहले ही वादा करा लिया था. उन की बेगम ने पैगाम भिजवाया है. कल वह आ रही हैं. सारी तैयारी कर लो. दरखशां को भी समझा देना. आज के जमाने में इस तरह का रिश्ता जल्दी कहां मिलता है.’’

अगले दिन हम्माद अपनी अम्मी साफिया बेगम और बहन शहनाज के साथ दरखशां को देखने आया. शहनाज की शादी हो चुकी थी. मारिया ने दिल खोल कर हम्माद की तारीफें कीं. साफिया बेगम ने दरखशां को अपने पास बिठाया और उस की नाजुक अंगुली में अंगूठी पहना कर रिश्ते के लिए हामी भर दी.

राशिद के सिर का बोझ उतर गया. दरखशां ने सरसरी तौर पर हम्माद को देखा. रौबदार संजीदा चेहरा, गंभीर आवाज. दरखशां का नन्हा सा दिल कांप उठा. उसे वह काफी गुस्से वाला लगा.

खाना वगैरह खा कर सभी चले गए. उन के जाते ही शाहिद और जाहिद ने दरखशां से छेड़छाड़ शुरू कर दी. उस की नाक में दम कर दिया. बेटी को परेशान होते देख अमीना नम आवाज में बोली, ‘‘मेरी बेटी को परेशान मत करो. अब सिर्फ 3 महीने की ही तो मेहमान है.’’

दर्द का एक ही रंग : कौन सा दर्द छिपा था उन आंखों में?

जब तक बीजी और बाबूजी जिंदा थे और सुमन की शादी नहीं हुई थी, तब तक सुरेश और वंदना को बेऔलाद होने की उदासी का अहसास इतना गहरा नहीं था. घर की रौनक उदासी के अहसास को काफी हद तक हलका किए रहती थी. लेकिन सुमन की शादी के बाद पहले बाबूजी, फिर जल्दी ही बीजी की मौत के बाद हालात एकदम से बदल गए. घर में ऐसा सूनापन आया कि सुरेश और वंदना को बेऔलाद होने का अहसास कटार की तरह चुभने लगा. उन्हें लगता था कि ठीक समय पर कोई बच्चा गोद न ले कर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की.

लेकिन इसे गलती भी नहीं कहा जा सकता था. अपनी औलाद अपनी ही होती है, इस सोच के साथ वंदना और सुरेश आखिर तक उम्मीद का दामन थामे रहे. लेकिन उन की उम्मीद पूरी नहीं हुई. कई रिश्तेदार अपना बच्चा गोद देने को तैयार भी थे, लेकिन उन्होंने ही मना कर दिया था. उम्मीद के सहारे एकएक कर के 22 साल बीत गए.

अब घर काटने को दौड़ता था. भविष्य की चिंता भी सताने लगी थी. इस मामले में सुरेश अपनी पत्नी से अधिक परेशान था. आसपड़ौस के किसी भी घर से आने वाली बच्चे की किलकारी से वह बेचैन हो उठता था. बच्चे के रोने से उसे गले लगाने की ललक जाग उठती थी. सुबह सुरेश और वंदना अपनीअपनी नौकरी के लिए निकल जाते थे. दिन तो काम में बीत जाता था. लेकिन घर आते ही सूनापन घेर लेता था. सुरेश को पता था कि वंदना जितना जाहिर करती है, उस से कहीं ज्यादा महसूस करती है.

कभीकभी वंदना के दिल का दर्द उस की जुबान पर आ भी जाता. उस वक्त वह अतीत के फैसलों की गलती मानने से परहेज भी नहीं करती थी. वह कहती, ‘‘क्या तुम्हें नहीं लगता कि अतीत में किए गए हमारे कुछ फैसले सचमुच गलत थे. सभी लोग बच्चा गोद लेने को कहते थे, हम ने ऐसा उन की बात मान कर गलती नहीं की?’’

‘‘फैसले गलत नहीं थे वंदना, समय ने उन्हें गलत बना दिया.’’ कह कर सुरेश चुप हो जाता.

ऐसे में वंदना की आंखों में एक घनी उदासी उतर आती. वह कहीं दूर की सोचते हुए सुरेश के सीने पर सिर रख कर कहती, ‘‘आज तो हम दोनों साथसाथ हैं, एकदूसरे को सहारा भी दे सकते हैं और हौसला भी. मैं तो उस दिन के खयाल से डर जाती हूं, जब हम दोनों में से कोई एक नहीं होगा?’’

‘‘तब भी कुछ नहीं होगा. किसी न किसी तरह दिन बीत जाएंगे. इसलिए ज्यादा मत सोचा करो.’’ सुरेश पत्नी को समझाता, लेकिन उस की बातों में छिपी सच्चाई को जान कर खुद भी बेचैन हो उठता.

भविष्य तो फिलहाल दीवार पर लिखी इबारत की तरह एकदम साफ था. सुरेश को लगता था कि वंदना भले ही जुबान से कुछ न कहे, लेकिन वह किसी बच्चे को गोद लेना चाहती है. घर के सूनेपन और भविष्य की चिंता ने सुरेश के मन को भी भटका दिया था. उसे भी लगता था कि घर की उदासी और सूनेपन में वंदना कहीं डिप्रैशन की शिकार न हो जाए.

लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी था कि उम्र के इस पड़ाव पर किसी बच्चे को गोद लेना क्या समझदारी भरा कदम होगा? सुरेश 50 की उम्र पार कर चुका था, जबकि वंदना भी अगले साल उम्र के 50वें साल में कदम रखने जा रही थी. ऐसे में क्या वे बच्चे का पालनपोषण ठीक से कर पाएंगे?

काफी सोचविचार और जद्दोजहद के बाद सुरेश ने महसूस किया कि अब ऐसी बातें सोचने का समय नहीं, निर्णय लेने का समय है. बच्चा अब उस की और वंदना की बहुत बड़ी जरूरत है. वही उन के जीवन की नीरसता, उदासी और सूनेपन को मिटा सकता है.

सुरेश ने इस बारे में वंदना से बात की तो उस की बुझी हुई आंखों में एक चमक सी आ गई. उस ने पूछा, ‘‘क्या अब भी ऐसा हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता, हम इतने बूढ़े भी नहीं हो गए हैं कि एक बच्चे को न संभाल सकें.’’ सुरेश ने कहा.

बच्चे को गोद लेने की उम्मीद में वंदना उत्साह से भर उठी. लेकिन सवाल यह था कि बच्चा कहां से गोद लिया जाए. किसी अनाथालय से बच्चा गोद लेना असान नहीं था. क्योंकि गोद लेने की शर्तें और नियम काफी सख्त थे. रिश्तेदारों से भी अब कोई उम्मीद नहीं रह गई थी. किसी अस्पताल में नाम लिखवाने से भी महीनों या वर्षों लग सकते थे.

ऐसे में पैसा खर्च कर के ही बच्चा जल्दी मिल सकता था. मगर बच्चे की चाहत में वे कोई गलत और गैरकानूनी काम नहीं करना चाहते थे. जब से दोनों ने बच्चे को गोद लेने का मन बनाया था, तब से वंदना इस मामले में कुछ ज्यादा ही बेचैन दिख रही थी. शायद उस के नारी मन में सोई ममता शिद्दत से जाग उठी थी.

एक दिन शाम को सुरेश घर लौटा तो पत्नी को कुछ ज्यादा ही जोश और उत्साह में पाया. वह जोश और उत्साह इस बात का अहसास दिला रहा था कि बच्चा गोद लेने के मामले में कोई बात बन गई है. उस के पूछने की नौबत नहीं आई, क्योंकि वंदना ने खुद ही सबकुछ बता दिया.

वंदना के अनुसार, वह जिस स्कूल में पढ़ाती थी, उस स्कूल के एक रिक्शाचालक जगन की बीवी को 2 महीने पहले दूसरी संतान पैदा हुई थी. उस के 2 बेटे हैं. जगन अपनी इस दूसरी संतान को रखना नहीं चाहता था. वह उसे किसी को गोद देना चाहता था.

‘‘उस के ऐसा करने की वजह?’’ सुरेश ने पूछा, तो वंदना खुश हो कर बोली, ‘‘वजह आर्थिक हो सकती है. मुझे पता चला है, जगन पक्का शराबी है. जो कमाता है, उस का ज्यादातर हिस्सा पीनेपिलाने में ही उड़ा देता है. शराब की लत की वजह से उस का परिवार गरीबी झेल रहा है. मैं ने तो यह भी सुना है कि शराब की ही वजह से जगन ने ऊंचे ब्याज पर कर्ज भी ले रखा है. कर्ज न लौटा पाने की वजह से लेनदार उसे परेशान कर रहे हैं.

सुनने में आया है कि एक दिन उस का रिक्शा भी उठा ले गए थे. उन्होंने बड़ी मिन्नतों के बाद उस का रिक्शा वापस किया था. मुझे लगता है, जगन अपना यह दूसरा बच्चा किसी को गोद दे कर जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहता है. इसी बहाने वह अपने सिर पर चढ़ा कर्ज भी उतार देगा.’’

‘‘इस का मतलब वह अपनी मुसीबतों से निजात पाने के लिए अपने बच्चे का सौदा करना चाहता है?’’ सुरेश ने व्यंग्य किया.

‘‘कोई भी आदमी बिना किसी स्वार्थ या मजबूरी के अपना बच्चा किसी दूसरे को क्यों देगा?’’ वंदना ने कहा तो सुरेश ने पूछा, ‘‘जगन की बीवी भी बच्चा देने के लिए तैयार है?’’

‘‘तैयार ही होगी. बिना उस के तैयार हुए जगन यह सब कैसे कर सकता है?’’

वंदना की बातें सुन कर सुरेश सोच में डूब गया. उसे सोच में डूबा देख कर वंदना बोली, ‘‘अगर तुम्हें  ऐतराज न हो तो मैं जगन से बच्चे के लिए बात करूं?’’

‘‘बच्चा गोद लेने का फैसला हम दोनों का है. ऐसे में मुझे ऐतराज क्यों होगा?’’ सुरेश बोला.

‘‘मैं जानती हूं, फिर भी मैं ने एक बार तुम से पूछना जरूरी समझा.’’

2 दिनों बाद वंदना ने सुरेश से कहा, ‘‘मैं ने स्कूल के चपरासी माधोराम के जरिए जगन से बात कर ली है. वह हमें अपना बच्चा पूरी लिखापढ़ी के साथ देने को राजी है. लेकिन इस के बदले 15 हजार रुपए मांग रहा है. मेरे खयाल से यह रकम ज्यादा नहीं है?’’

‘‘नहीं, बच्चे न तो बिकाऊ होते हैं और न उन की कोई कीमत होती है.’’

‘‘मैं जगन से उस का पता ले लूंगी. हम दोनों कल एकसाथ चल कर बच्चा देख लेंगे. तुम कल बैंक से कुछ पैसे निकलवा लेना. मेरे खयाल से इस मौके को हमें हाथ से नहीं जाने देना चाहिए.’’ वंदना ने बेसब्री से कहा.

उस की बात पर सुरेश ने खामोशी से गर्दन हिला दी.

अगले दिन सुरेश शाम को वापस आया तो वंदना तैयार बैठी थी. सुरेश के आते ही उस ने कहा, ‘‘मैं चाय बनाती हूं. चाय पी कर जगन के यहां चलते हैं.’’

कुछ देर में वंदना 2 प्याले चाय ला कर एक प्याला सुरेश को देते हुए बोली, ‘‘वैसे तो अभी पैसों की जरूरत नहीं लगती. फिर भी तुम ने बैंक से पैसे निकलवा लिए हैं या नहीं?’’

‘‘हां.’’ सुरेश ने चाय की चुस्की लेते हुए उत्साह में कहा.

चाय पी कर दोनों घर से निकल पड़े. आटोरिक्शा से दोनों जगन के घर जा पहुंचे. जगन का घर क्या 1 गंदी सी कोठरी थी, जो काफी गंदी बस्ती में थी. उस के घर की हालत बस्ती की हालत से भी बुरी थी. छोटे से कमरे में एक टूटीफूटी चारपाई, ईंटों के बने कच्ची फर्श पर एक स्टोव और कुछ बर्तन पड़े थे. कुल मिला कर वहां की हर चीज खामेश जुबान से गरीबी बयां कर रही थी.

जगन का 5 साल का बेटा छोटे भाई के साथ कमरे के कच्चे फर्श पर बैठा प्लास्टिक के एक खिलौने से खेल रहा था, जबकि उस की कुपोषण की शिकार पत्नी तीसरे बच्चे को छाती से चिपकाए दूध पिला रही थी. इसी तीसरे बच्चे को जगन सुरेश और वंदना को देना चाहता था. जगन ने पत्नी से बच्चा दिखाने के लिए मांगा.

पत्नी ने खामोश नजरों से पहले जगन को, उस के बाद सुरेश और वंदना को देखा, फिर कांपते हाथों से बच्चे को जगन को थमा दिया. उसी समय सुरेश के मन में शूल सा चुभा. उसे लगा, वह और वंदना बच्चे के मोह में जो करने जा रहे हैं, वह गलत और अन्याय है.

जगन ने बच्चा वंदना को दे दिया. बच्चा, जो एक लड़की थी सचमुच बड़ी प्यारी थी. नाकनक्श तीखे और खिला हुआ साफ रंग था. वंदना के चेहरे के भावों से लगता था कि बच्ची की सूरत ने उस की प्यासी ममता को छू लिया था.

बच्ची को छाती से चिपका कर वंदना ने एक बार उसे चूमा और फिर जगन को देते हुए बोली, ‘‘अब से यह बच्ची हमारी हुई जगन. लेकिन हम इसे लिखापढ़ी के बाद ही अपने घर ले जाएंगे. कल रविवार है. परसों कचहरी खुलने पर किसी वकील के जरिए सारी लिखापढ़ी कर लेंगे. एक बात और कह दूं, बच्चे के मामले में तुम्हारी बीवी की रजामंदी बेहद जरूरी है. लिखापढ़ी के कागजात पर तुम्हारे साथसाथ उस के भी दस्तखत होंगे.’’

‘‘हम सबकुछ करने को तैयार हैं.’’ जगन ने कहा.

‘‘ठीक है, हम अभी तुम्हें कुछ पैसे दे रहे हैं, बाकी के सारे पैसे तुम्हें लिखापढ़ी के बाद बच्चा लेते समय दे दूंगी.’’

जगन ने सहमति में गर्दन हिला दी. इस के बाद वंदना ने सुरेश से जगन को 3 हजार रुपए देने के लिए कहा. वंदना के कहने पर उस ने पर्स से 3 हजार रुपए निकाल कर जगन को दे दिए.

जगन को रुपए देते हुए सुरेश कनखियों से उस की पत्नी को देख रहा था. वह बच्चे को सीने से कस कर चिपकाए जगन और सुरेश को देख रही थी. सुरेश को जगन की पत्नी की आंखों में नमी और याचना दिखी, जिस से सुरेश का मन बेचैन हो उठा.

जगन के घर से आते समय सुरेश पूरे रास्ते खामोश रहा. बच्चे को सीने से चिपकाए जगन की पत्नी की आंखें सुरेश के जेहन से निकल नहीं पा रही थीं, सारी रात सुरेश ठीक से सो नहीं सका. जगन की पत्नी की आंखें उस के खयालों के इर्दगिर्द चक्कर काटती रहीं और वह उलझन में फंसा रहा.

अगले दिन रविवार था. दोनों की ही छुट्टी थी. वंदना चाहती थी कि बच्चे को गोद लेने के बारे में किसी वकील से पहले ही बात कर ली जाए. इस बारे में वह सुरेश से विस्तार से बात करना चाहती थी. लेकिन नाश्ते के समय उस ने उसे उखड़ा हुआ सा महसूस किया.

उस से रहा नहीं गया तो उस ने पूछा, ‘‘मैं देख रही हूं कि जगन के यहां से आने के बाद से ही तुम खामोश हो. तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझ से छिपा रहे हो?’’

सुरेश ने हलके से मुसकरा कर चाय के प्याले को होंठों से लगा लिया. कहा कुछ नहीं. तब वंदना ही आगे बोली. ‘‘हम एक बहुत बड़ा फैसला लेने जा रहे हैं. इस फैसले को ले कर हम दोनों में से किसी के मन में किसी भी तरह की दुविधा या बात नहीं होनी चाहिए. मैं चाहती हूं कि अगर तुम्हारे मन में कोई बात है तो मुझ से कह दो.’’

चाय का प्याला टेबल पर रख कर सुरेश ने एक बार पत्नी को गहरी नजरों से देखा. उस के बाद आहिस्ता से बोला, ‘‘जगन के यहां हम दोनों एक साथ, एक ही मकसद से गए थे वंदना. लेकिन तुम बच्चे को देख रही थी और मैं उसे जन्म देने उस की मां को. इसलिए मेरी आंखों ने जो देखा, वह तुम नहीं देख सकीं. वरना तुम भी अपने सीने में वैसा ही दर्द महसूस करती, जैसा कि मैं कर रहा हूं.’’

वंदना की आंखों में उलझन और हैरानी उभर गई. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या कहना चाहते हो, मैं समझी नहीं?’’

सुरेश के होठों पर एक फीकी मुसकराहट फैल गई. वह बोला, ‘‘जगन के यहां से आने के बाद मैं लगातार अपने आप से ही लड़ रहा हूं वंदना. बारबार मुझे लग रहा है कि जगन से उस का बच्चा ले कर हम एक बहुत बड़ा गुनाह करने जा रहे हैं. मैं ने तुम्हारी आंखों में औलाद के न होने का दर्द देखा है. मगर मुझे जगन की बीवी की आंखों में जो दर्द दिखा, वह शायद तुम्हारे इस दर्द से भी कहीं बड़ा था. इन दोनों दर्दों का एक ही रंग है, वजह भले ही अलगअलग हो.’’

बहुत दिनों से खिले हुए वंदना के चेहरे पर एकाएक निराशा की बदली छा गई. उस ने उदासी से कहा, ‘‘लगता है, तुम ने बच्चे को गोद लेने का इरादा बदल दिया है?’’

‘‘मैं ने बच्चा गोद लेने का नहीं, जगन के बच्चे को गोद लेने का इरादा बदल दिया है.’’

‘‘क्यों?’’ वंदना ने झल्ला कर पूछा.

‘‘जगन एक तरह से अपना कर्ज उतारने के लिए बच्चा बेच रहा है. वंदना यह फैसला उस का अकेले का है. इस में उस की पत्नी की रजामंदी बिलकुल नहीं है. जब वह बच्चे को अपने सीने से अलग कर के तुम्हें दे रही थी. तब मैं ने उस की उदास आंखों में जो तड़प और दर्द देखा था, वह मेरी आत्मा को आरी की तरह काट रहा है. हमें औलाद का दर्द है. अपने इस दर्द को दूर करने के लिए हमें किसी को भी दर्द देने का हक नहीं है.’’

सुरेश की इस बात पर वंदना सोचते हुए बोली, ‘‘हम बच्चा लेने से मना भी कर दें तो क्या होगा? जगन किसी दूसरे से पैसे ले कर उसे बच्चा दे देगा. हम जैसे तमाम लोग बच्चे के लिए परेशान हैं.’’

‘‘अगर हम बच्चा नहीं लेते तो किसी दूसरे को भी जगन को बच्चा नहीं देने देंगे.’’

‘‘वह कैसे?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘जगन अपना कर्ज उतारने के लिए बच्चा बेच रहा है. अगर हम उस का कर्ज उतार दें तो वह बच्चा क्यों बेचेगा? पैसे देने से पहले हम उस से लिखवा लेंगे कि वह अपना बच्चा किसी दूसरे को अब नहीं देगा. इस के बाद अगर वह शर्त तोड़ेगा तो हम पुलिस की मदद लेंगे. साथ ही हम बच्चा गोद लेने की कोशिश भी करते रहेंगे. मैं कोई ऐसा बच्चा गोद नहीं लेना चाहता, जिस के पीछे देने वाले की मजबूरी और जन्म देने वाली मां का दर्द और आंसू हो.’’

सुरेश ने जब अपनी बात खत्म की, तो वंदना उसे टुकरटुकर ताक रही थी.

‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ सुरेश ने पूछा तो वह मुसकरा कर बोली, ‘‘देख रही हूं कि तुम कितने महान हो, मुझे तुम्हारी पत्नी होने पर गर्व है.’’

सुरेश ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर हलके से दबा दिया. उसे लगा कि उस की आत्मा से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया है.

पवित्र प्रेम : गींदोली और कुंवर जगमाल की प्रेम कहानी

पवित्र प्रेम : गींदोली और कुंवर जगमाल की प्रेम कहानी – भाग 3

इधर गींदोली के मन में प्रेम का झरना फूट रहा था, उधर जगमाल उस के ख्वाबों से अनजान थे. वह तो तीजनियों को महेवा लाने की तैयारी कर रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘प्रधानजी, कहीं हाथी खान हमारे साथ धोखा न कर जाए. हम शहजादी को तभी छोड़ेंगे, जब हमारी तीजनियां महेवा की धरती पर कदम रख देंगी.’’

अपने वादे के अनुसार हाथी खान तीजनियों को ले आया तो उसी मैदान में भौपजी शहजादी को ले गए. महमूद बेग ने तीजनियों को पहले छोड़ने का हुकुम दिया. तभी शहजादी जा कर अब्बा के कलेजे से लिपट गई. भौपजी सावधान था. तीजनियों को सुरक्षित घेरे में खेड़ रवाना किया ही था कि हाथी खान जगमाल के दल पर टूट पड़ा.

उस ने जासूस से जगमाल की ताकत का पता कर लिया था. पर यह उस की भूल थी. जगमाल के 3 तालियां बजाते ही तमाम ऐसे जवान वहां आ गए, जो कदकाठी और वेशभूषा में जगमाल की तरह थे. उन के वहां आते ही हाथी खान की सेना को पहचानना मुश्किल हो गया कि उन में जगमाल कौन है.

तभी हाथी खान की सेना में यह अफवाह फैल गई कि जगमाल को भूत सिद्धी हासिल है. तभी तो वहां पर उस के तमाम हमशक्ल आ गए हैं. डर की वजह से महमूद बेग और हाथी खान वहां से भाग खड़े हुए. अफरा तफरी में शहजादी गींदोली को भी वे अपने साथ नहीं ले जा सके.

उधर तीजनियों के सकुशल घर लौटने पर महेवा के घरों में दीपक जल उठे. इस के बाद ही जगमाल ने उजले कपड़े पहने. सिर पर केसरिया कसूंबल पाग बांधी. दाढ़ी बनाने के बाद अपने सांवले मुखड़े पर नोकदार मूंछें संवारते हुए वह अपने डेरे से निकले ही थे कि दासी ने आ कर जुहार की, ‘‘खम्मा घणी हुकुम, शहजादी गींदोली तो अपने डेरे में ही बैठी हैं?’’

‘‘क्या शहजादी अपने डेरे में है, ऐसा कैसे हो सकता है?’’ जगमाल चौंके.

‘‘हुजूर, आप खुद ही चल कर देख लीजिए.’’ दासी ने कहा.

जगमाल उसी समय गींदोली के डेरे पर  पहुंचे. सामने खड़ी शहजादी गींदोली मुसकरा रही थीं. वह जगमाल को एकटक देखती रहीं. जगमाल जड़वत हो गए. उन की नजरें धरती पर गड़ी थीं, वह खुद को संभाल कर बोले, ‘‘शहजादी गींदोली आप यहां?’’

‘‘हां कुंवर सा.’’ गींदोली पहली बार जगमाल से बिना परदे के बात कर रही थी, ‘‘मुझे महेवा छोड़ना अच्छा नहीं लगा कुंवरजी.’’

‘‘पर आप यहां कहां रहेंगी, कैसे रहेंगी, आप के अब्बा हुजूर परेशान होंगे? हम आप को अहमदाबाद पहुंचाने का प्रबंध करते हैं.’’

जगमाल एक ही सांस में इतना कुछ कह गया. पर गींदोली ने अहमदाबाद जाने से इंकार कर दिया. इस के बाद उस ने अपने मन की बात जगमाल को बता कर कहा कि अब वह उन के साथ ही रहेगी.

शहजादी की बात सुन कर जगमाल हतप्रभ रह गए कि यह क्या हो गया? उस ने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था. उस के सामने एक तरह का धर्म संकट पैदा हो गया. उस ने गींदोली से अनुरोध किया, ‘‘शहजादी साहिबा, हमारी इज्जत उछाली जा रही है. आप मान जाएं और महेवा छोड़ दें.’’

मगर शहजादी अपने फैसले पर अटल थी. कुछ ही देर में पूरे महेवा में यह बात फैल गई कि शहजादी गींदोली जगमाल से प्यार करने लगी है और वह उन से शादी करना चाहती है, लेकिन कुंवर जगमाल जातिपांत के डर से उस से विवाह करने को तैयार नहीं हो रहे हैं. यह बात तीजनियों के कानों तक पहुंचीं. गींदोली ने उन की संकट के समय में देखभाल की थी, इसलिए उन्होंने गींदोली की सहायता करने का फैसला कर लिया.

उन्होंने जगमाल से अनुरोध किया कि वह शहजादी गींदोली के प्रस्ताव को स्वीकार कर लें. उन्होंने उन की भी बात नहीं मानी. तब तीजनियों ने तय कर लिया कि जब तक कुंवर गींदोली के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे, वे घरों में चूल्हे नहीं जलाएंगी.

इस तरह तीजनियों ने अन्नपानी त्याग दिया. ऐसा करते हुए 3 दिन बीत गए.

तब महेवा के तमाम लोग कुंवर जगमाल के पिता रावल मल्लीनाथ के पास गए. उन्होंने उन से कुंवर जगमाल को समझाने का अनुरोध किया. रावल मल्लीनाथ ने जगमाल को समझाया. जगमाल को अपने पिता की बात मानने के लिए मजबूर होना पड़ा. आखिरकार गींदोली के प्रेम के आगे जगमाल की जातिपांत वाली सोच पराजित हो गई.

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पिता के कहने पर जगमाल गींदोली के डेरे पर पहुंचे. उन्होंने अपने कारिंदों को आदेश दिया कि शहजादी गींदोली की सवारी महल में पहुंचाई जाए. आदेश का पालन हुआ. महल में बड़ी धूमधाम से दोनों की शादी हुई. तीजनियों ने खूब गीत गाए.

आज भी राजस्थान में जगमाल और गींदोली के गीत गाए जाते हैं. गणगौर विसर्जित करने के दिन सारा राजस्थान गींदोली को याद करता है. तीजनियां आज भी गींदोली को याद करती हैं. गींदोली और जगमाल का प्रेम आज भी पाबासर के हंस प्रेमी हृदय में तैर रहा है.

पवित्र प्रेम : गींदोली और कुंवर जगमाल की प्रेम कहानी – भाग 2

समय अपनी गति से गुजर रहा था. उधर प्रधान हुल भौपजी बहुत परेशान थे. उन्हें यह जानकारी मिल चुकी थी कि तीजनियां अब पाटण के बाग में हैं.

प्रधान हुल भौपजी अपने हुल पाटण भेज कर आगे की तैयारी में जुट गए. वह घोड़ों को पाटण के रास्तों पर दौड़ा रहे थे, ताकि उस रास्ते को घोड़े अच्छी तरह से पहचान जाएं, जिस से हमले के समय घोड़े रुके नहीं. उन जवानों का हुलिया राजकुमार जगमाल के हुलिए की तरह करा दिया गया था.

प्रधान हुल मौके की तलाश में लगे थे. आखिर उन के हाथ मौका लग ही गया. पाटण में गणगौर की सवारी बड़ी धूमधाम से निकल रही थी. हाथी खान भी खुश था. वह शहजादी को खुश करने में लगा था. शायद शहजादी रीझ कर उस से शादी कर ले. अगर ऐसा हो गया तो अहमदाबाद से पूरे गुजरात में उस का डंका बजेगा. इसी उम्मीद में वह शहजादी गींदोली की हर इच्छा पूरी कर रहा था.

तीजनियों के बगीचे की चौकसी उस ने बढ़ा दी थी, ताकि त्यौहार का फायदा उठा कर जगमाल वहां तक पहुंच न सके.

गणगौर के काफिले में प्रधान हुल भौपजी के साथी मौका मिलते ही घुस गए और गींदोली को पालकी से उठा कर यह जा वह जा करते हुए निकल गए. भौपजी ने गींदोली को अपने घोड़े पर बिठा कर ललकार लगाई, ‘‘महेवा के कुंवर जगमालजी का प्रधान हुल भौपजी तुम्हारी शहजादी को दिनदहाड़े ले जा रहा है. हिम्मत हो तो पकड़ लो.’’

इस के बाद पाटण अहमदाबाद के रास्ते पर दौड़ रहे प्रधान हुल के घोड़े के पीछे हाथी खान ने अपनी सेना के घुड़सवारों को लगा दिया. उन्होंने पचास कोस तक भौपजी का पीछा किया. लेकिन वे उन्हें पकड़ नहीं सके. प्रधान हुल शहजादी गींदोली को ले कर सीधे जगमाल के सामने पहुंचे. प्रधान के साथ एक रूपसी को देख कर जगमाल ने पूछा, ‘‘भौपजी, यह रूपसी कौन है?’’

‘‘हुजूर, यह सेनापति महमूद बेग की शहजादी गींदोली है. चरणों में हाजिर है.’’

जगमाल ने शहजादी को गौर से देखा. लगा जैसे आसमान से चांद उतर आया हो. रूपसी थरथर कांप रही थी. जगमाल गुस्से में बोले, ‘‘वाह प्रधानजी, वाह! अच्छा बदला लिया है. अच्छी बहादुरी दिखाई है. मुझे अपने यहां की वही तीजनियां चाहिए, जिन्हें हाथी खान ले गया था. किसी दूसरे की बहन बेटी नहीं.’’

‘‘वह भी हो जाएगा कुंवर सा, मैं ने ऐसा पांसा फेंका है, जिस से हाथी खान अब खुद तीजनियों को ले कर हाजिर होगा.’’ प्रधान हुल ने अपना इरादा व्यक्त किया.

जगमाल कुछ नहीं बोले. भौपजी ने गींदोली का अलग डेरा लगवा दिया और उस की सुरक्षा के अच्छे बंदोबस्त करा दिए. शहजादी गींदोली जगमाल की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई थी. अब उसे तीजनियों की वे बातें याद आ रही थीं, जिस में उन्होंने जगमाल की इंसानियत और बहादुरी की तारीफ के पुल बांधे थे. शहजादी ने तीजनियों से जगमाल की जो प्रशंसा सुनी थी, वह वैसा ही निकला था.

दूसरे दिन जगमाल गींदोली के डेरे पर उस का हालचाल लेने पहुंचे. उन के साथ भौपजी भी थे. वह पर्दे की ओट से बोले, ‘‘शहजादी गींदोली, प्रधान हुलजी आप को उठा लाए, इस के लिए मैं शर्मिंदा हूं. मैं वादा करता हूं कि आप को आप के मातापिता के पास इज्जत के साथ पहुंचा दिया जाएगा. बस आप अपने पिताजी को तीजनियों को छोड़ने का पत्र लिख दीजिए.’’

गींदोली ने चुपचाप सिर हिला कर स्वीकृति दे दी और अपने अब्बू के नाम एक पत्र लिख दिया.

बेटी के पत्र के जवाब में महमूद बेग का उत्तर उतावली के साथ आया. अपनी पुत्री को देखने को वह तड़प रहा था. गींदोली उसे प्राणों से भी अधिक प्यारी थी. उसे छुड़ाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. वह हाथी खान को उस दिन के लिए कोसने लगा, जिस दिन वह तीजनियों का अपहरण कर लाया था.

न हाथी खान तीजनियों को लाता और न ही गींदोली दुश्मन के हाथों में पहुंचती. पर अब क्या हो सकता था. वह विवश बैठा हाथ मल रहा था कि जगमाल का दूत गींदोली का पत्र ले कर पहुंचा. दूत को उस ने मानसम्मान दे कर विदा किया और अपना हरकारा संदेश के साथ महेवा भेज दिया.

दूत के पहुंचने के पहले ही महमूद बेग का हरकारा खेड़ पहुंच चुका था. महमूद बेग के दूत ने कुंवर जगमाल को महमूद बेग का संदेश सुनाया, ‘‘अहमदाबाद के जांबाज सुल्तान महमूद बेग ने फरमाया है कि आप के प्रधान हुल ने बड़ा ही खराब काम किया है. इसे हम कभी भी माफ नहीं करेंगे.’’

दूत के वाक्य पूरा करने से पहले ही भौपजी की तलवार तन गई. कुंवर जगमाल ने उन्हें शांत करते हुए दूत से कहा, ‘‘अपनी बात आगे बढ़ाओ.’’

दूत बोला, ‘‘सुल्तान अपनी शहजादी के बदले में तीजनियों को छोड़ने को तैयार हैं. पर पहले शहजादी गींदोली को हमारे साथ भेजना होगा.’’

दूत को आराम करने को कह कर जगमाल ने भौपजी के साथ विचारविमर्श किया. तय हुआ कि सुल्तान तीजनियों को ले कर मालाणी की सरहद तक आएं और बदले में गींदोली को ले जाएं. दूत जवाब ले कर चला गया.

जगमाल तीजनियों को लाने के दिन की प्रतीक्षा करने लगे. गींदोली अपने डेरे में अपनी आजादी के दिन का इंतजार कर रही थी. पर उस के मन में जगमाल की तसवीर उभर रही थी. जगमाल राजपूती वीरता का उदाहरण था. गींदोली के मन में यह वीरता समा गई.

तीजनियों के साथ हुई बातचीत गींदोली के मन में उभरने लगी कि हिंदू नारी जीवन में एक ही पुरुष की कामना करती है. गींदोली परेशान हो उठी. वह अपने दिमाग में जगमाल की तसवीर बसा चुकी थी और जगमाल था कि परदा हटा कर उसे एक नजर भी नहीं देख रहा था.

नवाब के दूत का संदेश ले कर आने पर जगमाल खुद गींदोली से मिला. वह परदे की ओट से ही बोला, ‘‘शहजादी, आप के अब्बा हुजूर का संदेश आया है. अब आप शीघ्र ही आजाद हो जाएंगी. हमें इस तकलीफ में आप को रखना पड़ा, इस के लिए मैं शर्मिंदा हूं.’’

जगमाल की इंसानियत देख कर वह मन ही मन बोली, ‘‘कुंवरजी, अब मैं अहमदाबाद के महलों में नहीं जाऊंगी. आप का खेड़ का यह डेरा ही मेरा जीवन है.’’

अपनी बात को वह जुबान पर इसलिए नहीं लाई, क्योंकि वह मुसलमान थी. उसे इस बात का अंदेशा था कि जगमाल उसे स्वीकार नहीं करेंगे. बादशाह अलाउद्दीन की पुत्री और वीरम देव सोनगरा की कहानी वह सुन चुकी थी. मरने से पहले तक वीरम देव ने शादी के लिए हां नहीं की थी.

प्रेम जातिपांत नहीं देखता, इसलिए उस ने उसी समय फैसला कर लिया कि वह जगमाल से ही शादी करेगी. वह अपनी दासी से हिंदू रीतिरिवाजों के बारे में पूछने लगी. दासी हंस कर बोली, ‘‘शहजादी साहिबा, आप को क्या करना है इस सब से?’’

गींदोली ने उसे मन की बात बताई तो दासी की आंखें खुली की खुली रह गईं. दासी ने उसे अंजली और जेठवा की प्रेम कहानी सुनाई, जो गुजराती थे. प्रेम कहानी सुनने के बाद गींदोली के पोर पोर में प्यार का समावेश हो गया. वह सोचने लगी कि लोग जिस तरह प्रेम को ले कर सारस और चकवा की चर्चा करते हैं, अब उस में गींदोली और जगमाल के प्रेम की चर्चा भी शामिल हो जाएगी.

                                                                                                                                 क्रमशः

एहसान के बदले मिली मौत

पवित्र प्रेम : गींदोली और कुंवर जगमाल की प्रेम कहानी – भाग 1

सावन का महीना था. बरखा की रिमझिमरिमझिम फुहारें पड़ रही थीं. महेवा की धरती हरीभरी हो उठी थी. पेड़ों पर नएनए पत्ते उस हरियाली में एक नया उजास पैदा कर रहे थे. मंदमंद चलती पवन और आकाश में तैरती बादलों की घटाओं ने सिणली के तालाब के आसपास की सुंदरता चौगुनी कर दी थी. बादलों की गर्जना के साथ मोरों की पीऊपीऊ मन को मोह रही थी.

तालाब के किनारे के पेड़ों पर पड़े झूलों पर झूला झूलते हुए महिलाएं यानी तीजनियां समूह में सावन के गीत गा रही थीं. बीचबीच में उन की हंसी की खिलखिलाहट सिणाली के तालाब पर इत्र सी तैर रही थी. अचानक ही उन के झूले रुक गए और झूला झूल रही महिलाएं ‘बचाओ…बचाओ…’ चिल्लाने लगीं.

वातावरण में गीतों की जगह चीखपुकार गूंजने लगी. क्योंकि गीत गा रही तीजनियों को पाटण का सूबेदार  हाथी खान अपने साथ ले जा रहा था. जब तक गांव वालों को इस बात की खबर लगती, तब तक हाथी खान उन महिलाओं को ले कर जा चुका था.

गांव के लोग हाथ मलते रह गए. उस समय महेवा के राजकुमार जगमाल अपनी रियासत से बाहर गए हुए थे. उन के अलावा और किसी में इतना साहस नहीं था कि वह हाथी खान का पीछा करता. हाथी खान के इस दुस्साहस से गांव वाले बहुत नाराज थे. यह 15वीं शताब्दी की बात है.

उस समय राजकुमार जगमाल के पिता रावल माला महेवा में तप कर रहे थे. यही रावल माला अपनी भक्तिमती पत्नी रूपांदे की संगति में रावल मल्लीनाथ कहलाए थे. आज उन्हीं के नाम पर यह प्रदेश मालानी कहलाता है. वह तपस्वी और संत के अलावा बड़े ही बलशाली योद्धा भी थे.

राजकुमार जगमाल भी पिता की तरह युद्ध कला में बड़े ही निपुण और बलशाली योद्धा थे. महेवा लौटने पर जब उन्हें पता चला कि पाटण का सूबेदार हाथी खान उन के राज्य की महिलाओं का अपहरण कर ले गया है तो उन का खून खौल उठा.

उन्होंने अपने प्रधान हुल भौपजी से कहा, ‘‘ठाकुर सा, हाथी खान ने हमारे राज्य की महिलाओं का अपहरण कर के हमारी इज्जत उतार दी है. हमें उन महिलाओं को मुक्त करा कर हाथी खान को सबक सिखाना जरूरी हो गया है.’’

भौपजी नम्रता से बोले, ‘‘हम उन महिलाओं को मुक्त तो कराएंगे ही, साथ ही इस का बदला लेने के लिए हाथी खान को सबक भी सिखाएंगे. मैं वादा करता हूं कि अहमदाबाद की छाती चीर कर उन महिलाओं को महेवा ले आऊंगा. वे एक बार फिर बेखौफ हो कर सिणली तालाब की पाल पर झूले झूलती दिखेंगी.

मगर राजकुमार जगमाल को चैन कहां था. जब तक वे महिलाएं सकुशल घर नहीं आ जातीं, तब तक उन्होंने पगड़ी न बांधने, हजामत न बनाने और धुले कपड़े न पहनने की प्रतिज्ञा कर ली थी. उसी समय सिर पर काला कपड़ा बांध कर वह अहमदाबाद पर चढ़ाई करने की योजना बनाने लगे.

उधर हाथी खान ने उन महिलाओं को पाटण के किले में कैद कर दिया था. दरअसल हाथी खान सिपहसालार था, जो अहमदाबाद के अपने सुल्तान महमूद बेग को सदैव खुश रखने में लगा रहता था. अपने आका को खुश करने के लिए ही उस ने यह काम किया था. यद्यपि उस के सैनिक चाहते थे कि इन सुंदर महिलाओं का बंटवारा कर लिया जाए, पर उस ने किसी की भी नहीं सुनी. उस ने साफ साफ कह दिया था कि सुल्तान महमूद बेग जैसा कहेंगे, वैसा ही किया जाएगा.

उधर पाटण के किले में बंद महेवा की उन तीजनियों ने अन्नजल लेने से मना कर दिया था. हाथी खान ने उन्हें सुल्तान महमूद बेग को खुश करने का लालच दिया. उस ने कहा कि अगर वे ऐसा करती हैं तो पूरी जिंदगी शानोशौकत के साथ कटेगी. तीजनियों ने हाथी खान की बात नहीं मानी. उन्होंने हाथी खान से साफ कह दिया था कि वे मर जाएंगी, लेकिन परपुरुष को अपना शरीर नहीं छूने देंगी.

अहमदाबाद में सुल्तान महमूद बेग की बेटी गींदोली को जब पाटण के किले में महेवा से अपहरण कर के लाई तीजनियों को कैद में रखने की सूचना मिली तो वह अपने पिता महमूद बेग से बोली, ‘‘अब्बा हुजूर, सुना है कि आप के सिपहसालार हाथी खान ने महेवा लूटा है और लूट का बहुत सा माल ला कर पाटण के किले में रखा है?’’

‘‘तुम ने ठीक सुना है शहजादी. हाथी खान एक बहादुर सिपाही है. उस ने हमारा नाम रोशन किया है.’’

‘‘पर अब्बा हुजूर, सुना है कि लूट में वह वहां से औरतें भी लाए हैं और उन्हें आप के हरम में भेजना चाहते हैं. यह तो ठीक नहीं है अब्बा हुजूर.’’

‘‘मर्दों की बातों में दखलंदाजी नहीं किया करते शहजादी.’’ महमूद बेग ने यह बात नाराजगी से कही, पर जब उस ने बेटी की आंखों में आंसू देखे तो वह तड़प उठा. वह उसे समझाते हुए बोला, ‘‘रोओ मत, रोओ मत मेरी दुलारी. अच्छा यह बताओ कि तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘मैं उन औरतों से मिलना चाहती हूं अब्बा हुजूर. सुना है, उन्होंने अन्नजल त्याग दिया है. अगर उन्होंने खानापीना छोड़ दिया है तो वे फिर जिंदा कैसे रहेंगी अब्बा?’’ गींदोली ने भोलेपन से पूछा तो महमूद बेग ने कहा, ‘‘यही तो मुसीबत है इन हिंदू औरतों की, मरने पर तुल जाती हैं. किसी की सुनती ही नहीं हैं.’’

अब्बू के मना करने के बावजूद शहजादी गींदोली पाटण किले में कैद तीजनियों से मिलने जा पहुंची.

शहजादी सुखसुविधाओं में पलीबढ़ी थी, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती ही नहीं थी. इसलिए बंदी तीजनियों को देख कर वह सिहर उठी. उस ने एक रूपसी से कहा, ‘‘क्यों सता रही हो अपने आप को बहन. मान जाओ इन लोगों की बात. औरत को आखिर क्या चाहिए. घरबार, धनदौलत और सुखी जीवन. यहां तुम्हें यह सब कुछ मिलेगा. यहां तुम्हें महेवा से भी ज्यादा सुख मिलेगा…’’

शहजादी गींदोली अपनी बात पूरी कर पाती, उस के पहले ही रूपसी का झन्नाटेदार थप्पड़ शहजादी के गाल पर पड़ा. थप्पड़ लगते ही शहजादी का गाल लाल हो गया. उसे थप्पड़ मारने के बाद रूपसी ने थू कह कर मुंह बनाते हुए जमीन पर थूक दिया.

सैनिकों ने रूपसी की पिटाई शुरू कर दी, पर गींदोली ने उन्हें रोक दिया. शहजादी गींदोली ने समझाबुझा कर आखिरकार उन्हें खाना खाने के लिए मना ही लिया. उन्होंने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह उन्हें यहां से निकलने में मदद करेगी. अपने अब्बा से कह कर आखिरकार शहजादी ने उन्हें कैदखाने से निकलवा कर पाटण के बाग में रहने की व्यवस्था करा दी. इस के अलावा उन्हें अच्छे कपड़े भी उपलब्ध करा दिए, ताकि रूपसियों का मन बदल जाए.

सुल्तान महमूद बेग भी खुश था. हाथी खान अपनी तरक्की का इंतजार कर रहा था. उस ने पाटण के बाग की चौकसी के पुख्ता इंतजाम कर दिए थे.

                                                                                                                                     क्रमशः

बहुत हुआ अब और नहीं

जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं.

‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं.

एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’

अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं. अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे.

अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की.

अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदर बाहर होते रहते थे.

रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया. आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी.

अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी.

बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.

मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना.

मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया.

‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा.

‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया.

‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’

चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा.

‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’

अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझेआज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं.

‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थेऔर गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे.

‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’

अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं.

‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था.

इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी.

अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं. कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी.

कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं.

उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया.

लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लंच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकनें लगा.

पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’

सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई.

‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था.

‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था.

‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’

सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी.

कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’

‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती  रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’

अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’

मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई.

‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था.

‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था.

‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ा थोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का.

‘‘बहुत कुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’

‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया.

‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’

कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.