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सेठ मोहता ने अजीत सिंह को बड़े ध्यान से देख कर कहा, ‘‘ये लो, ये 20 हजार रुपए रखे हैं. लेकिन एक शर्त है, वो यह कि तुम यह वचन दो कि जब तक तुम मेरे रुपए वापस न लौटा दोगे, तब तक अपनी पत्नी से मिलन नहीं करोगे. अगर ऐसा करते हो तो यह रुपए ले लो.’’

ऐसे वचन को निभाना बड़ी कठिन बात थी. परंतु रुपए मिलने का और कोई उपाय भी तो न था. अत: वह राजी हो गया और रुपए ले कर अपनी ससुराल वैशालपुर आया.

अपने वचन के अनुसार प्रताप सिंह ने दोनों का विवाह कर दिया. यह किसी को जरा भी खबर न हुई कि रुपए कहां से आए. विवाह के बाद रीतिरिवाज के अनुसार दूल्हा दुलहन दोनों के लिए एक महल दे दिया गया. वे कई दिन तक उस में रहे, परंतु सेज पर सोते समय अजीत सिंह अपने और पत्नी के बीच नंगी तलवार रख कर सोता था.

राजबाला को उन के इस प्रकार के बर्ताव से बड़ा आश्चर्य हुआ और मन ही मन सोचने लगी, ‘सचमुच मेरे पति बड़े सुंदर हैं, चतुर और वीर हैं, पर नामालूम बीच में नंगी तलवार रख कर सोने का क्या मतलब है?’

कई दिन इसी तरह बीत गए, परंतु राजबाला को इतना साहस नहीं हुआ कि कुछ पूछती. अंत में एक दिन दोनों में बातचीत होने लगी. राजबाला ने साहस कर के पूछा, ‘‘प्राणनाथ, मैं देखती हूं कि आप प्राय: ठंडी और गहरी सांसें लेते रहते हैं. इस से पता चलता है कि आप को कोई बड़ा कष्ट हो रहा है. मैं तो आप के चरणों की दासी हूं, मुझ से छिपाना उचित नहीं है. मैं विचार करूंगी कि किस प्रकार आप की चिंता दूर हो सकती है.’’

राजबाला की बात सुन कर उस का दिल भर आया और मुंह नीचा कर के उस ने चुप्पी साध ली. राजबाला ने फिर कहा, ‘‘स्वामी, घबराने की कोई बात नहीं है. इस संसार में सभी पर विपत्ति आती है. चिंता व्यर्थ है. संसार में हर रोग की दवा है. आप चिंता न कीजिए, मुझ से कहिए. यथासंभव मैं आप की सहायता करूंगी. यदि मेरे मरने से भी आप को सुख मिलता है या आप का भला होता है तो मेरे प्राण आप की सेवा को हर समय तैयार हैं.’’

राजबाला का इतना कहना था कि अजीत सिंह ने राजबाला का हाथ पकड़ लिया और दुखभरे शब्दों में अपनी सब कथा कह सुनाई.

जब अजीत सिंह यह सब कह चुका तो राजबाला ने कहा, ‘‘स्वामी, आप ने बड़ा त्याग कर के मुझे मोल लिया है. मैं कभी आप की इस कृपा को नहीं भूल सकती. पर यह ऐसी जगह नहीं है, जहां 20 हजार रुपए मिल सकें. इसलिए इसे छोड़ना उचित है.

‘‘मैं इसी समय मरदाना वेश धारण करती हूं. मैं और आप संगसंग रहेंगे. जब कोई आप से मेरे बारे में पूछे तो आप साले बहनोई बताएं. चलिए, परदेश चल कर महाजन के 20 हजार रुपए चुकाने का उपाय करें.’’

आधी रात का समय था, जब पतिपत्नी में इस प्रकार की बातचीत हुई. सब लोग बेसुध सो रहे थे. राजबाला ने मरदाना वेश धारण किया. अजीत सिंह और राजबाला दोनों महल से बाहर आए और घोड़ों पर सवार हो कर चल दिए.

कई दिन के सफर के बाद 2 सुंदर बांके युवक घोड़ों पर सवार उदयपुर में दिखाई दिए. उस समय मेवाड़ की राजगद्दी पर महाराज जगत सिंह राज करते थे. राणा महल की छत पर बैठे नगर को देख रहे थे. नए राजपूतों को देख कर उन का हाल जानने के लिए राणा ने 2 दूतों को भेजा.

थोड़ी देर में दोनों राजपूत राणा के सामने लाए गए. जब दोनों राजपूत प्रणाम कर चुके तो महाराज ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो? कहां से आए हो? और कहां जा रहे हो?’’

अजीत सिंह ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज, हम दोनों राजपूत हैं. मेरा नाम अजीत सिंह और ये मेरे साले हैं. इन का नाम गुलाब सिंह है. नौकरी की तलाश में आप के यहां आए हैं. सौभाग्य से आप के दर्शन हो गए. अब आगे क्या होगा, नहीं मालूम.’’

राजा राजपूतों के ढंग को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और राजपूतों के नाम पर मोहित हो कर महाराज ने हंस कर उत्तर दिया, ‘‘तुम लोग मेरे यहां रहो. एक हवेली तुम्हारे रहने के लिए दी जाती है. खानपान के लिए अतिरिक्त 5 हजार रुपए और दिए जाएंगे.’’

राजबाला और अजीत सिंह दोनों अब उदयपुर में रहने लगे, परंतु 20 हजार रुपए की चिंता सदा लगी रहती थी. रुपए जुटाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. वह वर्षा ऋतु के आरंभ में यहां आए थे और वर्षा ऋतु बीत गई.

फिर दशहरे का त्यौहार आया. इस पर राजपूताना में बड़ा उत्सव मनाया जाता है. उदयपुर में पाड़े (भैंसे) का वध किया जाता है. महाराज के साथ सब सामंत, जागीरदार, सरदार घोड़ों पर सवार हुए. उन के साथ गुलाब सिंह और अजीत सिंह भी चल दिए.

इतने में ही एक गुप्तचर ने आ कर खबर दी, ‘‘महाराज की जय हो. पाड़े के स्थान पर एक सिंह की खबर है.’’

राणा ने राजपूतों से कहा, ‘‘वीरों, आज का दिन धन्य है जो सिंह आया है. ऐसा अवसर बड़ी कठिनाई से मिलता है. अब पाड़े का ध्यान छोड़ कर सिंह का शिकार करो.’’

बस, फिर क्या था. हांके वालों ने सिंह को जा कर घेर लिया और उस के निकलने के लिए केवल एक ही रास्ता रखा जिधर राजा और सरदार उस सिंह का इंतजार कर रहे थे.

महाराज हाथी पर थे. वह चाहते थे कि स्वयं सिंह का शिकार करें. इसलिए उन्होंने और सरदारों को उचितउचित स्थान पर खड़ा कर दिया. जब सिंह ने देखा कि उसे लोग घेर रहे हैं तो वह राणा की ओर बढ़ा.

उसे देख का राणा डर गए क्योंकि उन्होंने  पहले कभी इतना बड़ा सिंह नहीं देखा था. उसे मारना आसान काम नहीं था. सब सरदार लोग भी डर गए. सिंह झपट कर राणा के हाथी पर आया और उस के मस्तक से मांस का लोथड़ा नोच कर पीछे हट गया.

राणा के हाथ से भय के मारे तीरकमान भी छूट गए. सिंह फिर छलांग लगाने को ही था कि गुलाब सिंह ने दूर से देखा और अजीत सिंह से कहा, ‘‘ठाकुर साहब, महाराज की जान खतरे में है. उन्हें ऐसे कठिन समय में छोड़ना अति कायरता की बात है. मुझ से अब देखा नहीं जाता. प्रणाम, मैं जाता हूं.’’

तभी गुलाब सिंह का घोड़ा तीर की तरह सनसनाता हुआ आगे बढ़ा, हाथी अपना धैर्य छोड़ चुका था. सिंह फिर छलांग लगाने को ही था कि हवा के झोंके की तरह आ कर गुलाब सिंह ने उसे अपने भाले के निशाने पर ले लिया. भाले सहित सिंह जमीन पर गिरा.

बस, फिर क्या था, सवार ने एक ऐसा हाथ तलवार का मारा कि सिंह का सिर अलग जा गिरा. उसी समय उस के कान और पूंछ काट कर घोड़े की जीन के नीचे रख कर लोगों के बीच जा पहुंचा और बातचीत करने लगा.

परंतु उस ने इस काम को इतनी फुरती में किया कि किसी को ज्ञात भी न हुआ कि वह घुड़सवार कौन था, जिस ने सिंह को मारा. सिंह के मरने पर चारों ओर राजा की जयजयकार होने लगी. सब लोगों ने अपनीअपनी जगह से आ कर राजा को घेर लिया. सरदारों ने कहा, ‘‘ईश्वर ने आज बड़ी दया की. हम सब की जान में जान आई.’’

जब सभी बधाई दे चुके तो राजा ने कहा, ‘‘वह कौन बहादुर था, जिस ने आज मेरी प्राणों की रक्षा की. उस को मेरे सामने लाओ. मैं उसे ईनाम दूंगा.’’

परंतु मारने वाला बहुत दूर खड़ा था. वह अपने को उजागर करना भी नहीं चाहता था. राणा ने थोड़ी देर तक राह देखी. परंतु जब कोई नहीं आया तो खुशामदी दरबारी लोग अपनेअपने मित्रों के नाम बताने लगे.

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