Short Stories : जैसलमेर रियासत के मंत्री महबूब खान की बेटी रेशमा ठाकुर विजय सिंह से इतनी प्रभावित हुई कि उस ने उन से शादी करने का फैसला कर लिया. लेकिन महबूब खान ने रेशमा से शादी के लिए सैनिक पठान खान और ठाकुर विजय सिंह के बीच युद्ध कराने की ऐसी शर्त रखी कि…

उन दिनों रेगिस्तान में पानी कुंओं से निकाल कर पीया जाता था. उसी पानी से पशुधन के साथ गांव, कस्बों एवं नगरों के लोगों की भी प्यास बुझती थी. युवतियां एवं बहुएं कुएं से पानी भर कर घर ले जाती थीं. दिनरात लोग पानी के जुगाड़ में रहते थे. शाहगढ़ के कुंए के पनघट पर बारात रुकी थी. बारात दीनगढ़ के जागीरदार ठाकुर मोहन सिंह की थी. मोहन सिंह 500 बारातियों के साथ शाहगढ़ के ठाकुर खेतसिंह की बेटी दरियाकंवर से ब्याह रचाने आए थे. जानी डेरा (बारात के रुकने का स्थान) कुंए के पनघट के पास था. पनघट पर गांव की महिलाएं सिर पर मटके रख कर पानी ले जा रही थीं.

बारात में तमाम गांवों के ठाकुर, जागीरदार आए हुए थे. इस बारात में जैसलमेर रियासत के तमाम गांवों के ठाकुर शामिल हुए थे. ठाकुर मोहन सिंह ने अपनी शादी में तिजौरियों के मुंह खोल दिए थे. दीनगढ़ में 7 दिन तक लगातार खुला रसोड़ा चला. गलीगली में खातिरदारी हुई. सारा दीनगढ़ नाचगाना, रागरंग में डूब गया था. प्रभावशाली और अत्यधिक धनी व्यक्ति ऐसे अवसर पर धन बहाने में अपनी शानोशौकत समझता है. मोहनसिंह ने भी यही किया था. दीनगढ़ दुर्ग से बारात शाहगढ़ के लिए रवाना हुई. सोने की मोहरे उछाली गईं. मार्ग के दोनों ओर भीड उमड़ पड़ी. सब से आगे रियासत के नामीगिरामी मांग ठाहार शहनाई नौबत बाजे बजाते निकले. फिर मंगल कलश ले कर बालिकाएं.

पीछे मंगल गीत गाती महिलाएं. उन के बाद सजेधजे घोड़ों पर राज्य के हाकिम, ठाकुर, अमीर उमराव चल रहे थे. उन के पीछे तमाम बाराती ऊंटों पर सवार थे. बारात के पड़ावों की जगह पहले से तय थीं. वहीं खानेपीने और रागरंग का पूरा इंतजाम था. सारे रास्ते बाराती हो या कोई और सब के लिए रसोड़ा खुला था. रास्ते के गांवों में जबरदस्त हलचल थी. दूरदूर से लोग बारात देखने आ रहे थे. दोपहर बाद बारात शाहगढ़ पहुंची तो उस का भव्य स्वागत हुआ. बारातियों, घोड़ों और ऊंटों को पानी की परेशानी न हो इसलिए उसे पनघट के पास ठहराया गया. खानेपीने की अच्छी व्यवस्था थी. ऊंटघोड़ों के लिए कोठाखेली भर दी गई थीं. जितना पानी कम पड़ता उतना ही कुएं से खींच कर भर दिया जाता था.

दिन अस्त होने को था. बारात में हमीरगढ़ के ठाकुर विजय सिंह भी पधारे थे. विजय सिंह की उम्र यही कोई 22-23 बरस थी. विजय सिंह के पिता सुल्तान सिंह का थोड़े समय पूर्व निधन हो चुका था. पिता के निधन के बाद विजय सिंह को हमीरगढ़ का ठाकुर घोषित किया गया था. गौर वर्ण विजय सिंह का बलिष्ठ सुंदर साहसी युवक था. वह अस्त्रशस्त्र चलाने के साथ मल्लयुद्ध में भी निपुण था. हमीरगढ़ के आसपास बीस कोस में विजय सिंह जैसा कोई योद्धा नहीं था. ऐसा योद्धा बारात में हो और उस की चर्चा न हो यह संभव नहीं था. विजय सिंह की वीरता और ताकत की जो बातें शाहगढ़ के जानी डेरे में हो रही थीं. वह शाहगढ़ के लोगों ने भी सुनी.

उन्होंने यह बातें अपने घर जा कर भी सुनाई. तब बलिष्ठ ठाकुर विजय सिंह की शाहगढ़ में भी चर्चा होने लगी. यह चर्चा रेशमा ने भी सुनी. रेशमा शाहगढ़ के ठाकुर खेतसिंह की पुत्री दरियाकंवर की सहेली थी. रेशमा के पिता महबूब खान जैसलमेर रियासत में मंत्री थे. महबूब खान भी दिलेर व ताकतवर व्यक्ति थे. वह शाहगढ़ के रहने वाले थे और रियासत के उन गिनेचुने व्यक्तियों में थे, जो राजा के करीबी थे. रेशमा और दरियाकंवर हमउम्र थीं, साथ ही खास सहेलियां भी. दोनों अलगअलग जातिधर्म की जरूर थीं मगर दोनों धर्म से ऊपर इंसान को महत्त्व देती थीं. रेशमा मानती थी कि जब जीव जन्म लेता है, उस समय वह किसी धर्म का नहीं होता.

जीव का जन्म जिस घर में होता है उसे उसी धर्म से जोड़ दिया जाता है. राजपूत के घर पैदा हुआ तो राजपूत कहलाता है, मुसलमान के घर पैदा हुआ तो मुसलिम कहलाएगा. रेशमा ने ठाकुर विजय सिंह की बहादुरी के चर्चे सुने तो उस का मन उन्हें देखने को व्याकुल हो उठा. रेशमा का घर ‘जानी डेरे’ के पास ही था. उस के दिलोदिमाग पर विजय सिंह से मिलने का भूत सवार हो गया. वह अपनी 2-3 सहेलियों के साथ दरियाकंवर के घर से अपने घर आ गई. वहां रेशमा और उस की सखियों के अलावा कोई नहीं था. रेशमा ने अपने छोटे भाई के हाथ एक पत्र विजय सिंह के पास भेजा. विजय सिंह ने पत्र पढ़ा और जानी डेरे से बाहर आ कर पास वाले घर की ओर देखा, तो उन्हें झरोखे में एक खूबसूरत नवयौवना बैठी दिखाई दी.

वह बला की खूबसूरत थी. गोरी अप्सरा सी सुंदरी, पीली चुनर ओढे़ केशर की बेटी जैसी. अस्त होते सूरज की किरणों ने उस पर अपनी आभा बिखेर कर पीला रंग चढ़ा दिया था. ठाकुरसा ने आंखें मलीं. फिर देखा. सच! एकदम सच! ठाकुर विजय सिंह की आंखों से रेशमा की आंखें चार हुईं, तो दोनों का निगाहें हटाने का मन नहीं हो रहा था. विजय सिंह के रूपयौवन एवं बलिष्ठ शरीर पर रेशमा पहली नजर में ही मर मिटी. रेशमा ने मन ही मन तय कर लिया कि यही उस के सपनों का राजकुमार है. शादी करूंगी तो इसी से वरना ताउम्र कुंवारी रह लूंगी. किसी और से ब्याह नहीं करूंगी.

रेशमा ने हाथ से इशारा किया तो ठाकुरसा उस के आकर्षण में बंधे उस के पास चले आए. रेशमा की सखियां दूसरे कक्ष में छिप गई थीं. रेशमा ने विजय सिंह को बिठाया. दोनों आमनेसामने बैठे थे. मगर बोल किसी के मुंह से फूट नहीं रहे थे. काफी देर तक दोनों अपलक एकदूसरे को निहारते रहे. फिर हिम्मत कर के रेशमा के मुंह से कोयल सी मीठी वाणी निकली, ‘‘आप का स्वागत है, हुकुम.’’

‘‘जी, धन्यवाद.’’ विजय सिंह ने कहा.

‘‘आज शाहगढ़ में तो आप के ही चर्चे हैं. दोपहर में जब से बारात आई है, तब से सब के मुंह पर आप की वीरता के ही किस्से हैं. ऐसे में मैं भी आप से मिलने को व्याकुल हो गई. तभी छोटे भाई के साथ संदेश भिजवाया था मिलने को?’’ रेशमा बोली.

‘‘आप ने बुलाया और हम चले आए. अब बताएं क्या कुछ कहना है?’’ ठाकुर सा ने कहा.

‘‘मेरी बचपन से एक ही तमन्ना है कि मैं अपना जीवनसाथी स्वयं चुनूं. मैं आप से ब्याह करना चाहती हूं…’’ एक ही सांस में कह गई रेशमा. विजय सिंह उसे देखते रह गए. उन से कुछ कहते नहीं बन रहा था. तभी रेशमा बोली, ‘‘आप राजपूत हैं और मैं मुसलमान. मगर प्यार करने वाले जातिधर्म नहीं देखते. मैं ने मन से आप को पति मान लिया है. अब आप को जो फैसला लेना हो लीजिए. मगर इतना जरूर ध्यान रखना कि मैं शादी करूंगी तो सिर्फ आप से. वरना जीवनभर कुंवारी रहना पसंद करूंगी. दुनिया के बाकी सब मर्द आज से मेरे भाई बंधु?’’ रेशमा ने लरजते होठों से कहा.

रेशमा की बात सुन कर विजय सिंह अजमंजस में पड़ गए. वह तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या जवाब दें रेशमा को. वह तो मन से उन्हें पति मान चुकी है. मृगनयनी रेशमा की सुंदरता पर वह भी मर मिटे थे. ऐसी सुंदरी उन्होंने अब तक नहीं देखी थी. ठाकुर सा चकित थे, इस छोटे से गांव शाहगढ़ में इतनी सुंदर लड़की. वह भी सब से अलग. इस में कुछ तो है. यह मुसलमान और मैं राजपूत ठाकुर. धर्म की दीवार आड़े आ रही थी. इस कारण ठाकुर सा ने अगली सुबह तक जवाब देने को कहा और विदा ले कर जानी डेरे पर आ गए. विजय सिंह के जानी डेरे लौटते ही रेशमा की सहेलियां रेशमा के पास आ गईं. वह उदास सी थी. सोच रही थी कि अगर विजय सिंह ने उस का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो वह कैसे जिएगी उन के बिना.

रेशमा की यह हालत उस की सहेलियों ने देखी तो धापू बोली, ‘‘रेशमा तुम्हारा हंसता चेहरा ही अच्छा लगता है. तुम्हारे चेहरे पर यह उदासी अच्छी नहीं लगती. भरोसा रखो. सब ठीक ही होगा.’’

‘‘धापू, तुम्हें बता नहीं सकती दिल खोल कर कि मैं आज एक पहर में ही कैसे ठाकुरसा के प्यार में पगला गई. अगर ठाकुर सा ने प्यार स्वीकार न किया तो कल इस समय तक मैं शायद जिंदा नहीं रहूंगी. मैं उन से इतनी मोहब्बत करने लगी हूं कि शायद किसी ने कभी किसी से नहीं की होगी?’’

रेशमा ने दिल की बात कही. तब धापू और अगर सहेलियों ने रेशमा को दिलासा दी कि सब ठीक होगा. उसे उस का सच्चा प्यार जरूर मिलेगा. इस के बाद सहेलियां रेशमा को दिलासा देती हुई शादी वाले घर ले गईं. दूल्हे मोहनसिंह की शादी दरियाकंवर से हो गई. चंवरी में खूब चांदी के सिक्के और सोने की मोहरें उछाली गईं. शादी धूमधाम से संपन्न हो गई. दरियाकंवर को प्रियतम के रूप में मोहन मिल गया. वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी. वहीं रेशमा बीतती हर घड़ी के साथ उदास होती जा रही थी. उसे यह सवाल परेशान कर रहा था कि ठाकुर सा विजय सिंह उसे क्या जवाब देंगे. अगर ठाकुर सा ने उस का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो… रेशमा सारी रात इसी उधेड़बुन में रही.

सुबह का सूरज निकला. रेशमा नहाधो कर तैयार हुई. नहाने के बाद रेशमा का रूप सौंदर्य निखर उठा. वह ताजे गुलाब सा खिल रही थी. सब लोग बारात की विदाई में जुट गए. उधर विजय सिंह ने अपने कुछ खास ठाकुरों से रेशमा के प्रेम प्रस्ताव के बारे में बात की. विजय सिंह ने उन्हें बताया कि वह बहुत सुंदर हैं. उस की सुंदरता पर मैं भी मर मिटा हूं. मगर दोनों के मिलन में बांधा है दोनों का धर्म. वह मुसलिम है. विजय सिंह को ठाकुरों ने कहा कि प्यार करने वाले जातिधर्म की दीवार तोड़ देते हैं. इतिहास गवाह है कि कई राजामहाराजाओं और ठाकुरों ने ऐसे विवाह किए हैं. अगर वह भी रेशमा से प्यार करने लगे हैं तो उस से बेझिझक ब्याह कर सकते हैं. रेशमा शादी के बाद ठकुरानी सा बन जाएगी.

इस के बाद विजय सिंह ने प्रण कर लिया कि वह शादी करेंगे तो सिर्फ रेशमा से वरना किसी से नहीं. बारात के लिए नाश्ता लाया गया. मगर विजय सिंह ने नाश्ता नहीं किया. उन की भूखप्यास मिट गई थी. वह जानी डेरे से निकल कर उसी झरोखे की तरफ देखने लगे. जिस झरोखे से कल उन्हें रेशमा का दीदार हुआ था और फिर उस के इशारे पर उसे मिलने गए थे. विजय सिंह उसी झरोखे की तरफ अपलक देख रहे थे कि झरोखे में रेशमा प्रकट हुई. वह अपने प्रियतम की ‘हां’ या ‘न’ का इंतजार कर रही थी. विजय सिंह को देखते ही रेशमा के दिल को सुकून सा मिला. उस ने इशारा किया कि चले आओ. विजय सिंह मस्तानी चाल से चल कर रेशमा से जा मिले.

दोनों आमनेसामने बैठ गए. रेशमा के सब्र का बांध टूट रहा था. वह बोली, ‘‘क्या सोचा हुकुम?’’

ठाकुरसा रेशमा के चेहरे को पढ़ कर बोले, ‘‘आप जैसी सुंदरी को अपना जीवनसाथी कौन अभागा नहीं बनाएगा. मैं ने बहुत सोचा और अपने समाज के लोगों से रायमशविरा भी किया. अंतिम निर्णय यह है कि मैं तुम्हारा प्रेम निमंत्रण स्वीकार करता हूं.’’

सुन कर रेशमा का दिल बागबाग हो गया. वह अपनी जगह से लगभग उछलते हुए विजय सिंह के सीने से जा लगी. विजय सिंह ने उसे अपने बाहुपाश में जकड़ लिया. काफी देर तक दो दिल एकदूजे से मिल कर धड़कते रहे. ठाकुर सा ने रेशमा का माथा चूम लिया. दोनों बहुत खुश थे. जब दोनों अलग हुए तो विजय सिंह बोले, ‘‘रेशमा तुम्हारे घर वाले यह रिश्ता मंजूर कर तो लेंगे न?’’

‘‘मैं जो करूंगी वही होगा, मेरे अब्बा और अम्मी मेरी खुशी में ही खुश रहने वाले हैं. आज तक मैं ने उन से जो मांगा वह दिया है. वे मेरी पंसद पर नाज करेंगे और खुशीखुशी आप के साथ ब्याह कर विदा कर देंगे.’’ वह बोली.

‘‘तो ठीक है. हम आप से विवाह जरूर करेंगे. हमें चाहे अपने समाज के लोगों का समर्थन मिले न मिले. इस की कीमत हमें भले ही अपनी जान दे कर चुकानी पड़े.’’ विजय सिंह ने कहा.

‘‘ऐसा न कहिए, हुकुम.’’ रेशमा ने अपना कोमल हाथ विजय सिंह के होंठों पर रख दिया. विजय सिंह और रेशमा ने काफी समय साथ गुजारा और फिर अगली बार मिलने के वादे के साथ जुदा हो गए. बारात वापस चली गई. विजय सिंह भी बारात के साथ रवाना हो गए, मगर वह अपना दिल रेशमा के पास छोड़ गए थे.

विजय सिंह आधे रास्ते से ही अपने घर हमीरगढ़ लौट गए. मगर उन का मन हमीरगढ़ में नहीं लग रहा था. उन के मन में तो सिर्फ रेशमा बसी थी. उधर रेशमा का भी कुछ ऐसा ही हाल था. उस की सहेलियां उसे दिलासा देती थीं कि राजपूत वचन के पक्के होते हैं. ठाकुरसा उसे ब्याहने जरूर आएंगे. ऐसे ही समय का पहिया घूमने लगा. रेशमा से बिछुड़े विजय को एक पखवाड़े से ज्यादा हो चुका था. दोनों एकदूसरे को दिन में हजारों बार याद करते थे. मगर कर नहीं सकते थे. एक रोज रेशमा गुमसुम सी बैठी थी कि उस की अम्मी ने उसे पुकारा.

‘‘रेशमा ओ रेशमा…’’ मगर रेशमा को तो जैसे होश ही नहीं था. वह विजय सिंह के खयालों में इस कदर खोई हुई थी कि उसे अम्मी की आवाज सुनाई नहीं पड़ी. अम्मी ने रेशमा को लगभग झिंझोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं आवाज पर आवाज दे रही हूं. मगर तुम्हें सुनाई नहीं दे रहा. किस खयाल में खोई हुई हो. बता तो सही बेटी?’’

रेशमा जैसे नींद से जागी. ‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही अम्मी जान किसी की याद में खोई थी.’’ रेशमा ने कहा. उस की अम्मी ने पूछा, ‘‘किस की याद में इतना खोई थी कि मां की आवाज तक सुनाई नहीं दी. कुछ दिनों से देख रही हूं कि तुम गुमशुम सी हो. क्या बात है बेटी बताओ तो सही.’’

तब रेशमा ने अपनी मां को सारी बात बता कर कहा, ‘‘मैं विजय सिंह को मन से अपना पति मान चुकी हूं. इस जन्म में तो वो ही मेरे सब कुछ हैं. अम्मी, मेरा प्यार सच्चा है. तुम मुझ से प्यार करती हो तो मेरा ब्याह विजय सिंह से करा दो. इस के बाद मैं तुम से कभी कुछ नहीं मांगूगी?’’ रेशमा ने रोते हुए कहा. मां ने बेटी से यह सब सुना तो वह स्तब्ध रह गईं. बेटी को पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, यह क्या कह रह हो तुम. जो संभव नहीं, वह कैसे मिलेगा. मैं नहीं जानती. मगर सोचने का वक्त दो. देखती हूं, क्या कुछ हो सकता है.’’

इस के बाद रेशमा की मां ने जैसलमेर से शाहगढ़ लौटे अपने पति महबूब खान से एकांत में इस विषय पर चर्चा की. महबूब बहुत खान समझदार थे. वह जैसलमेर रियासत में मंत्री थे. उन्होंने दुनिया देखी थी. वे जानते थे कि प्यार करने वाले जान तक कुरबान कर सकते हैं. ऐसे में उन्होंने ठंडे दिमाग से काम लेते हुए अपनी बेगम से कहा. ‘‘सुबह इस बारे में हम रेशमा से बात करेंगे.’’

रात भर महबूब खान सोचते रहे. क्योंकि महबूब खान ने पठान को वचन दिया था कि वे अपनी बेटी रेशमा से उस का विवाह करेंगे. पठान ने कई बार अपनी जान पर खेल कर मंत्री महबूब खान की जान बचाई थी. पठान सैनिक था. उस ने महबूब खान की सुरक्षा में कभी कोरकसर नहीं रखी थी. पठान सुंदर बांका जवान था. वह अस्त्रशस्त्र चलाने में माहिर था. साथ ही मल्लयुद्ध में भी निपुण था. महबूब खान करें तो क्या करें वाली पशोपेश में फंसे थे. एक तरफ बेटी का प्यार. वहीं दूसरी तरफ उन का स्वयं का दिया पठान को वचन. वह रात भर सोच कर भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके.

सुबह उन्होंने अपनी बेगम और बेटी रेशमा को एकांत कक्ष में बुला कर बात की. महबूब खान ने रेशमा से कहा, ‘‘बेटी, मेरे कई बार प्राण जातेजाते बचे थे. जानती हो, प्राण मेरे अंगरक्षक सैनिक पठान ने अपनी जान पर खेल कर बचाए.

‘‘मैं ने उस के इन वीरता भरे कदमों से खुश हो कर उसे वचन दिया है कि रेशमा से उस का विवाह करूंगा. अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ में है. तुम चाहो तो मेरा वचन कायम रह सकता है. अगर मैं वचन नहीं निभा सका तो मैं प्राण दे दूंगा?’’ कहतेकहते महबूब खान की आंखें भर आईं. रेशमा कहे भी तो क्या. वह तो मन से विजय सिंह को अपना सर्वस्व मान चुकी थी. ऐसे में वह अपने पिता के वचन का मान कैसे रखती. अगर पिता के वचन का मान रखती तो उस का प्यार विजय सिंह उसे धोखेबाज ही कहता. रेशमा ने विजय सिंह के सामने उन की प्रशंसा सुन कर प्रेम प्रस्ताव रखा था. उस के प्रेम प्रस्ताव को विजय सिंह ने स्वीकार भी कर लिया था और उस से शादी का वादा किया था.

अब यदि वह पिता के वचन को निभाते हुए पठान से ब्याह करती है तो विजय सिंह के दिल पर क्या गुजरेगी. वह गुमसुम बैठी सोचती रही. वह कुछ नहीं बोली. तब महबूब खान ने कहा, ‘‘कुछ तो बोल बेटी. इस धर्मसंकट से निकलना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं विजय सिंह को अपने मन से पति मान चुकी हूं. वह भी मुझ से प्रेम करते हैं और मुझ से विवाह करना चाहते हैं. विजय सिंह के अलावा इस धरती पर जितने मनुष्य हैं वह सब मेरे भाईबंधु हैं. अब आप ही फैसला करें कि बेटी की विजय से शादी करेंगे या उस का मरा मुंह देखेंगे?’’ रोते हुए रेशमा एक ही सांस में कह गई. महबूब खान अपनी पुत्री रेशमा की जिद से भलीभांति वाकिफ थे. वह समझ गए कि रेशमा ने जो मन में ठान लिया, वही करेगी. वह किसी की नहीं सुनेगी. ऐसे में महबूब खान ने बेटी से कहा, ‘‘बेटी, विजय सिंह और पठान में मल्लयुद्ध और अस्त्रशस्त्र से लड़ाई होगी. इस में जो जीतेगा उस से तुझे विवाह करना पड़ेगा.’’

‘‘अब्बू, मैं आप से कह चुकी हूं कि मैं ने अपना प्रियतम चुन लिया है. ऐसे में अब आप क्यों शर्त रख रहे हैं कि मल्लयुद्ध और तलवार से लड़ाई में जो जीतेगा उस से विवाह करना होगा. मैं मन से ठाकुर सा को पति मान चुकी हूं. इस जन्म में तो वहीं मेरे पति होंगे.’’

बेटी की बात सुन कर महबूब खान के तनबदन में आग लग गई. वह गुस्से से आंखें निकालते हुए बोले, ‘‘तेरी बकवास बहुत सुन चुका. तू जानती नहीं कि तू एक खान की बेटी है और अपने इसलाम धर्म में ही शादी कर सकती है. मेरे लाड़प्यार ने तुझे बिगाड़ दिया है. इसलिए तू एक राजपूत से शादी करने पर अड़ी है. अगर तेरा प्रियतम ठाकुर मेरे सैनिक पठान से जीतेगा तभी उस से शादी करूंगा. वरना कभी नहीं…समझी.’’

रेशमा ने अपने अब्बा का गुस्सा आज पहली बार देखा था. वह समझ गई कि अब तो अपनी सच्ची चाहत के बूते ही वह अपने प्रियतम को पा सकती है. महबूब खान ने ऊंट सवार हमीरगढ़ भेज कर ठाकुर विजय सिंह को समाचार भिजवाया कि अगर रेशमा को चाहते हो और शादी करनी है तो अस्त्रशस्त्र ले कर कजली तीज के रोज शाहगढ़ पहुंच जाना. खुले मैदान में पठान खान से मल्लयुद्ध व तलवारबाजी का युद्ध करना होगा.  इस युद्ध में अगर तुम जीते तो रेशमा तुम्हारी और अगर पठान जीता तो रेशमा उस की होगी. समय पर शाहगढ़ पहुंच जाना. अगर नहीं आए तो रेशमा का पठान से विवाह कर दिया जाएगा.

विजय सिंह समाचार मिलते ही अस्त्रशस्त्र से लैस हो कर अपने 2 राजपूत साथियों के साथ शाहगढ़ के लिए रवाना हो गए. कजली तीज में 4 दिन का समय बाकी था. ठाकुर सा घोड़े पर सवार हो कर अपने साथियों के साथ शाहगढ़ की राह चल पड़े. कजली तीज से एक रोज पहले ही वह शाहगढ़ पहुंच गए. महबूब खान ने उन्हें एक तंबू में रोका. पठान भी शाहगढ़ आ गया था. महबूब खान ने विजय सिंह और पठान को मिलाया. दोनों एकदूसरे से इक्कीस थे. रेशमा को जैसे ही पता चला कि ठाकुर सा विजय सिंह आ गए हैं, तो उस ने अम्मी से कहा कि वह एक बार ठाकुर सा से मिलना चाहती है. रेशमा को उस की अम्मी ने ठाकुरसा से एकांत में मिलवाया.

विजय सिंह को देखते ही रेशमा उन के सीने से जा लिपटी और कस कर बांहों में भर कर सुबकते हुए बोली, ‘‘अब्बा हमारे प्यार की यह कैसी परीक्षा ले रहे हैं. अब क्या होगा?’’

‘‘तुम चिंता मत करो रेशमा. अगर हमारा प्यार सच्चा है तो जीत हमारी ही होगी. प्रेमियों को हमेशा से ऐसी परीक्षा से गुजरना पड़ा है?’’ विजय सिंह ने रेशमा को दिलासा दी.

रेशमा बोली, ‘‘आप नहीं मिले तो मैं मर जाऊंगी?’’

‘‘रेशमा, ऐसा न कहो. सब ठीक होगा. मुझ पर विश्वास रखो.’’ ठाकुरसा ने कहा. इस के बाद थोड़ी देर तक दोनों प्रेमालाप करते रहे, फिर अलग हो गए.

रेशमा की आंखें आंसुओं से तर थीं. उस की हिचकियां बंधी थीं. अम्मी ने उसे संभाला और कक्ष में ले गईं. विजय सिंह को पता चल गया था कि पठान ने महबूब खान की कई बार जान बचाई थी. इस कारण उन्होंने पठान को बचन दिया था कि वे उस से अपनी बेटी रेशमा का विवाह कर के एहसानों का बदला चुकाएंगे. रात में जब रेशमा और विजय सिंह के बीच बातें हो रही थी, तब पास के तंबू में सो रहे पठान ने सारी बातें सुन ली थीं. पठान को नींद नहीं आई. खड़का होने पर पठान ने देखा कि रेशमा अपनी अम्मा के साथ विजय सिंह से मिलने आई और उन के बीच का वार्तालाप भी सुन लिया था.

पठान की सब समझ में आ गया. वह जान गया कि रेशमा उस से नहीं ठाकुर सा विजय सिंह से प्रेम करती है. बस, पठान ने मन ही मन एक निर्णय कर लिया कि उसे रेशमा का दिल जीतने के लिए क्या करना है. अगले दिन कजली तीज का त्यौहार था. गांव की सुहागिनें एवं युवतियां सोलह शृंगार कर के झूले पर जाने से पहले उस मैदान में पहुंच गईं. जहां रेशमा को पाने के लिए 2 वीरों के बीच युद्ध होना था. तय समय पर शाहगढ़ के तमाम नरनारी उस मैदान में आ जमे थे. विजय सिंह ने केसरिया वस्त्र धारण किए और कुलदेवी को प्रणाम करने के बाद युद्ध मैदान में कूद गए.

पठान खान भी मैदान में आ गए. नगाड़े पर डंका बजते ही दोनों योद्धा आपस में भिड़ गए. मल्ल युद्ध में दोनों एकदूजे को परास्त करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाने लगे. मगर ताकत में दोनों बराबर थे. तय समय तक दोनों बराबरी पर छूटे. तब महबूब खान ने कहा कि अब फैसला तलवार करेगी कि कौन रेशमा के लायक है, दोनों ने तलवारें और ढाल उठा लीं. रेशमा दिल थाम कर देख रही थी. तलवारबाजी शुरू होने से पहले दोनों वीरों ने रेशमा की तरफ देखा. रेशमा एकटक ठाकुरसा की तरफ ही देख रही थी. यह पठान से छिप न सका. तलवारबाजी शुरू हुए थोड़ा समय ही गुजरा था कि पठान पस्त होने लगा. महबूब खान की समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है. तभी ठाकुर विजय सिंह की तलवार ने पठान का सीना चीर दिया. पठान गिर पड़ा.

महबूब खान के आदेश पर युद्ध रोक दिया गया. महबूब खान भाग कर रेशमा वगैरह के साथ युद्धस्थल पर रक्त रंजित पड़े पठान खान के पास पहुंचे. पठान ने कहा कि रेशमा के लायक विजय सिंह है. महबूब खान ने पूछा, ‘‘ऐसा तुम क्यों कह रहे हो?’’

तब खून से लथपथ पड़े पठान ने कहा, ‘‘रेशमा और विजय सिंह एकदूसरे से प्रेम करते हैं. यह मैं ने कल रात में जाना. जब यह दोनों थोड़ी देर के लिए मिले. मैं ने इन की बातें सुनीं तो मुझे अहसास हुआ कि रेशमा मेरे साथ कभी खुश नहीं रह सकेगी. क्योंकि वह तो सिर्फ विजय सिंह से प्यार करती है. अगर इस युद्ध में विजय सिंह की हार होती तो रेशमा जी नहीं पाती. मैं ने कल रात इन की बातें सुनने के बाद प्रण कर लिया था कि मुझे युद्ध में क्या करना है. मल्लयुद्ध में आप ने देखा कि हम दोनों ताकत में बराबर हैं, तो तलवारबाजी में भी हम बराबर ही रहते. मगर मुझे रेशमा की खुशी के लिए ठाकुरसा से यह युद्ध हारना जरूरी लगा.

इसीलिए मैं ने ठाकुर सा पर प्राणघातक वार नहीं किया और उन्होंने मुझे कमजोर मान कर तलवार का वार सीने पर कर के मुझे घायल कर दिया. मुझे खुशी है कि ठाकुरसा को रेशमा जैसी प्यार करने वाली जीवनसाथी मिलेगी, जो मेरे नसीब में नहीं है. यदि मैं युद्ध में जीत भी जाता तो रेशमा का दिल कभी नहीं जीत पाता. इसलिए मैं युद्ध में हार गया.’’

इतना सुन कर ठाकुर विजय सिंह, रेशमा और महबूब खान व अन्य लोग एकदूसरे की तरफ देखते रह गए. महबूब खान ने वैद्य को बुला कर पठान का ईलाज करने को कहा. वैद्य ने ईलाज शुरू किया, मगर तलवार ने सीने पर गहरा जख्म किया था. पठान ने मरतेमरते रेशमा के सिर पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘तुम मेरी बहन हो. इस भाई को भी इतना प्यार करना जितना विजय सिंह से करती हो. मेरा मरना सार्थक हो जाएगा?’’

कह कर पठान ने जोर की हिचकी ली और प्राण त्याग दिए. रेशमा ही नहीं विजय सिंह और वहां मौजूद सभी लोगों की आंखें नम हो गईं. रेशमा के प्यार के लिए पठान ने कुरबानी दे कर साबित कर दिया कि वह ठाकुर सा विजय सिंह से किसी भी तरह कम नहीं थे. पठान खान को वहीं पर कब्र बना कर दफना दिया गया. बाद में दोनों पठान की कब्र पर गए और फूल चढ़ा कर नवजीवन के लिए हमीरगढ़ प्रस्थान कर गए. रेशमा जब भी शाहगढ़ आती थी, पठान की कब्र पर जरूर जाती थी. फिर एक वक्त वह भी आया जब रेशमा और ठाकुर सा भी अनंत सफर पर चले गए – Short Stories

 

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