पंजाब के अजनाला के गुरुद्वारा  शहीदगंज के कुएं की खुदाई में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के वक्त हेनरी कूपर द्वारा  कराए गए विद्रोही सैनिकों के कत्लेआम (Ajnala Massacre) की जो हड्डियां मिली हैं, उन्हें देख कर यही कहा जा सकता है कि अंग्रेजों में सिर्फ एक ही जनरल डायर नहीं था.

सन 1857 में पंजाब के अजनाला कस्बे में हुए कत्लेआम के बारे में जब वहां से प्रकाशित होने वाली  फुलवाड़ी पत्रिका में विस्तार से छपा तो पढ़ने वालों की आंखें नम हो गईं. क्योंकि एक अंगे्रज अफसर ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं. फुलवाड़ी उस समय की मशहूर पत्रिका थी, इसलिए उस के तमाम पाठक थे. इस के संपादक थे हीरा सिंह दर्द. उन्हें भारतीय सैनिकों के इस कत्लेआम की कहानी एक बुजुर्ग जगत सिंह ने सुनाई थी. जगत सिंह कत्लेआम की उस घटना के चश्मदीद गवाह थे. उन का जन्म 1833 में अजनाला कस्बे में हुआ था.

जगत सिंह ने यह कहानी हीरा सिंह दर्द को सुनाई तो वह इसे छापे बिना नहीं रह सके. उन्होंने इसे एक लेख के रूप में अपनी पत्रिका फुलवाड़ी में छापा तो इस के छपते ही हेनरी कूपर द्वारा  किए गए भारतीय सैनिकों के कत्लेआम की चर्चा लोगों में होने लगी थी. लेकिन यह चर्चा ज्यादा तूल नहीं पकड़ सकी, क्योंकि हेनरी कूपर द्वारा  नृशंसतापूर्वक मौत के घाट उतारे गए सभी विद्रोही सैनिक पंजाब के न हो कर बाहरी (बंगाली) थे.

इसलिए चर्चा में आने के बावजूद उन का मामला जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार की तरह गंभीरता से नहीं लिया गया. फिर भी कुछ लोग विद्रोही भारतीय सैनिकों के कत्लेआम के सुबूत सामने लाने और उन्हें शहीदों वाला दरजा दिलाने के प्रयास में लग गए थे.

कत्लेआम के बाद अमृतसर के उस समय के डिप्टी कमिश्नर हेनरी कूपर (Henry Cooper) ने जिस कुएं में विद्रोही सैनिकों की लाशों को दफनाया था, बाद में उस के ऊपर शहीदगंज नाम का भव्य गुरुद्वारा  बन गया था. इस तरह हेनरी कूपर द्वारा  मौत के घाट उतारे गए उन अभागे सैनिकों की कहानी उस शहीदगंज गुरुद्वारे के नीचे शहीद हो गई थी.

भले ही पंजाब में इस घटना को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जा रहा था, लेकिन कुछ लोग इस कोशिश में लगे थे कि हेनरी कूपर द्वारा  मौत के घाट उतारे गए विद्रोही सैनिकों की अस्थियां कुएं से निकाल उन का धार्मिक विधिविधान से अंतिम संस्कार तो किया ही जाए, उन्हें सार्वजनिक रूप से शहीद का दरजा भी दिलवाया जाए. इस के लिए अमृतसर के एक इतिहासकार सुरेंद्र कोछड़ पिछले 2 दशक से पूरी कोशिश कर रहे थे.

आखिर सुरेंद्र कोछड़ की कोशिश रंग लाई और अजनाला के कुछ प्रतिष्ठित लोगों ने गुरुद्वारा  शहीदगंज कमेटी का गठन किया. इसी कमेटी की कोशिश पर 2 मार्च, 2014 यानी घटना के पूरे 157 साल बाद गुरुद्वारा  शहीदगंज में मौजूद उस कुएं की खुदाई मंत्रों के उच्चारण और गुरुवाणी के पवित्र पाठ के साथ शुरू हुई, जिस में हेनरी कूपर ने कत्लेआम करा कर लगभग 237 विद्रोही भारतीय सैनिकों को दफना दिया था और बाद में उस के ऊपर मिट्टी डलवा दी थी. इस खुदाई के काम में पचासों की संख्या में स्त्रीपुरुषों और स्कूली बच्चों ने भाग लिया था.

इस खुदाई में क्या हुआ, यह जानने से पहले आइए थोड़ा उस घटना यानी हेनरी कूपर द्वारा  किए गए उस कत्लेआम के बारे में जान लें.

ब्रिटिश शासन के खिलाफ सैनिक विद्रोह की पहली चिंगारी मेरठ छावनी से उठी थी. इस चिंगारी को पैदा करने वाला कोई और नहीं, ब्रिटिश सेना का ही एक साधारण सा सिपाही मंगल पांडे था.

मेरठ छावनी से फूटी सैनिक विद्रोह की इस चिंगारी ने स्वतंत्रता संग्राम की शक्ल ले ली थी, जिसे बाद में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम कहा गया. आजादी की इस लड़ाई में अंगे्रजों से लड़ते हुए हजारों देशभक्त भारतीयों ने अपनी जानें कुर्बान कर दी थीं. फिर भी इस स्वतंत्रता संग्राम का मकसद पूरा नहीं हो सका था. फिर भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अंगे्रजी शासन की चूलें हिला दी थीं.

इस में दो राय नहीं कि अंगे्रजों ने 1857 के इस स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए बेरहमी और क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थीं. आजादी के सिपाहियों को चुनचुन कर मौत के घाट उतारा गया था.

ऐसा फिर कभी न हो, भारतीय जनता के दिलों में खौफ पैदा करने के लिए आजादी के सिपाहियों को खुलेआम सड़कों के दोनों ओर के पेड़ों पर फांसी पर लटका दिया गया था. यही नहीं, उन की लाशों को कई दिनों तक उसी तरह लटकाए रखा गया था.

बेरहम अंगे्रजों ने 1857 में कितने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को मौत के घाट उतारा, इस का हिसाब नहीं लगाया जा सकता. लेकिन यह साफ है कि उस समय जो भी हुआ था, वह बहुत ही भयानक और क्रूरतम था. तब अंगे्रजों ने कुछ ऐसे नरसंहार कराए थे, जो अमृतसर के जलियांवाला बाग से भी खौफनाक थे. भले ही उन खौफनाक नरसंहारों का कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता, मगर कभीकभी सच बयान करने के लिए इतिहास खुद ही बोल पड़ता है.

उस स्वतंत्रता संग्राम के 5 सौ सैनिकों की नृशंस हत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. उन भारतीय सैनिकों की नृशंस हत्या की कहानी के सुबूत सामने आने के बाद लोग यह कहने को मजबूर हो गए हैं कि अंगे्रजों में न जाने कितने जनरल डायर थे.

विद्रोह की शुरुआत भले ही मेरठ की सैनिक छावनी से हुई थी, मगर यह बड़ी तेजी से पूरे देश में फैल गया था. देखतेदेखते देश की लगभग सभी छावनियों के सैनिक सिर पर कफन बांध कर स्वतंत्रता संग्राम के इस यज्ञ में आहुति देने के लिए कूद पड़े थे.

लाहौर की सैनिक छावनी में भी विद्रोह की आग भड़क उठी थी. बंगाल नेटिव इंफेन्ट्री 26 रेजीमेंट के लगभग 5 सौ जवान विद्रोह कर के लाहौर की सैनिक छावनी को छोड़ कर आजादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए बुलंद जज्बे के साथ मेरठ की ओर चल पड़े थे. इन 5 सौ जवानों की विडंबना यह थी कि इन के पास लड़ने के लिए कोई हथियार नहीं थे.

उन दिनों अमृतसर में जो अंगे्रज डिप्टी कमिश्नर था, वह भारतीयों से घोर नफरत करता था. उस का नाम था हेनरी कूपर. उसे सूचना मिल चुकी थी कि लाहौर छावनी से विद्रोह कर के भागे सैनिक अमृतसर हो कर ही मेरठ जाएंगे. उस ने उन सैनिकों को रास्ते में घेरने की योजना बना डाली.

हेनरी कूपर बेहद मक्कार और क्रूर था. उस के हृदय में जरा भी दया नहीं थी. वह भारतीयों से वैसे ही नफरत करता था, इस पर जब उन्होंने विद्रोह कर दिया तो उस की नफरत और बढ़ गई. वह चाहता तो लाहौर छावनी से भागे निहत्थे जवानों को घेर कर आसानी से गिरफ्तार कर सकता था. लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया. शायद वह उन जवानों के ही नहीं, भारत में सैनिक फिर ऐसा कर सकें, इस की सीख देने के लिए उस ने उन का बेरहमी से कत्ल करने का इरादा बना लिया था.

हेनरी कूपर ने सैकड़ों हथियारबंद सिपाहियों की मदद से लाहौर से भागे सैनिकों को अजनाला से कुछ दूरी पर पहले ही घेर लिया. उन निहत्थे सैनिकों को पता नहीं था कि हेनरी कूपर उन्हें खत्म करने के इरादे से आया है. उन का सोचना था कि वह उन्हें गिरफ्तार कर के जेल में डाल देगा. अगर उन्हें पता होता कि यह क्रूरअधिकारी उन्हें मरवा देगा तो वे इतनी आसानी से उस के हाथ न आते. सैनिक कुछ समझ पाते, उस के पहले ही हेनरी कूपर ने अपने साथ आए सिपाहियों को गोलियां चलाने का आदेश दे दिया.

आदेश मिलते ही सिपाही गोली चलाने लगे. इस गोलीबारी में लगभग सवा 2 सौ सैनिक मारे गए. बाकी बचे सिपाहियों को रस्सियों में बांध कर अजनाला लाया गया. अजनाला के थाने में इतने सैनिकों को बंद करने की जगह नहीं थी, इसलिए हेनरी कूपर ने बंदी सिपाहियों को करीब के एक बुर्ज में कैद करा दिया.

नियम और कानून के अनुसार, गिरफ्तार किए गए सभी सैनिकों को कोर्ट में पेश करना चाहिए था, जहां उन की सजा मुकर्रर की जाती. लेकिन हेनरी कूपर ने ऐसा नहीं किया. सारे कायदेकानूनों को ताक पर रख कर उस ने खुद ही गिरफ्तार किए गए सैनिकों को सजा देने का निश्चय किया. पहले उस ने सभी सैनिकों को फांसी देने का विचार किया. लेकिन उसे लगा कि इतने सैनिकों को फांसी देने में काफी समय लगेगा. उसे इस बात का भी डर सता रहा था कि पता चलने पर कहीं विद्रोही सैनिक अजनाला आ कर उन सैनिकों को छुड़ाने के लिए हमला न कर दें.

इसी डर की वजह से हेनरी कूपर ने फांसी देने के बजाय उन सैनिकों को गोली मार कर मौत के घाट उतारने का फैसला किया. उस समय अजनाला थाने के सामने एक काफी बड़ा खुला मैदान था. मैदान के किनारे एक काफी बड़ा और गहरा कुआं था. मैदान और उस कुएं को ले कर हेनरी कूपर के शैतानी दिमाग में जो योजना आई, उस के अनुसार उस ने करीब 50 फिरंगी बंदूकधारी सैनिकों को थाने के सामने के उस मैदान में तैनात कर दिया.

इस के बाद हेनरी कूपर ने 10-10 बंदी विद्रोही सैनिकों को वहां लाने का आदेश दिया. उन विद्रोही सिपाहियों को जैसे ही फिरंगी सैनिकों के सामने ला कर खड़ा किया गया, फिरंगी सैनिकों ने उन निहत्थे और भूखेप्यासे सैनिकों पर गोलियां दाग कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया.

यह खूनी सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक पकड़े गए सभी भारतीय सैनिकों को मार नहीं दिया गया. इस तरह मैदान खून से लथपथ शहीद सिपाहियों की लाशों से पट गया. वह बड़ा ही दिल दहलाने वला मंजर रहा होगा. बात आई लाशों को ठिकाने लगाने की तो राक्षस हेनरी कूपर ने उन शहीद सैनिकों की लाशों को मैदान से सटे उसी बड़े कुएं में डलवा दिया. जबकि उन में कुछ सैनिक जिंदा भी थे. हेनरी कूपर ने उन पर भी दया नहीं की. लाशों के साथ जिंदा सैनिकों को भी उस ने उसी कुएं में फेंकवा दिया था.

जिंदा और मुर्दा सैनिकों को कुएं में फेंकवा कर हेनरी कूपर ने उसे मिट्टी से भरवा दिया. ऐसा कर के हेनरी कूपर ने सोचा था कि उस का यह भयानक गुनाह हमेशा हमेशा के लिए वक्त की परतों में दफन हो जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

आज से 157 साल पहले कू्रर हेनरी ने जिन सैनिकों का कत्लेआम कराया था, उस का कोई लिखित दस्तावेज न होने की वजह से यह इतिहास के पन्नों से गायब था. ज्यादातर भारतीय इस बात से बेखबर थे कि 13 अप्रैल, 1919 में बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में जनरल डायर द्वारा  सैंकड़ों निर्दोष भारतीयों का कत्लेआम कराने से पहले भी एक अन्य अंगे्रज हेनरी कूपर ने भी उसी तरह का एक कत्लेआम कराया था.

हेनरी कूपर द्वारा  कराए गए इस कत्लेआम के निश्चित ही तमाम चश्मदीद रहे होंगे, लेकिन शायद डर की वजह से उन लोगों ने तब जुबान नहीं खोली होगी. लेकिन कोई भी गुनाह छिपा नहीं रहता. उसी तरह इस गुनाह के साथ भी हुआ. जगत सिंह से इस घटना का जिक्र फुलवाड़ी पत्रिका के संपादक हीरा सिंह दर्द से किया तो उन्होंने इसे अपनी पत्रिका में छाप कर इस रहस्य को उजागर कर दिया.

जैसेजैसे खुदाई होती गई, बेरहम हेनरी कूपर द्वारा  डेढ़ सदी पहले कराए गए कत्लेआम के सुबूत के रूप में इंसानी हड्डियां, खोपडि़यां, ब्रिटिश काल के सिक्के और विक्टोरिया काल के सैनिकों के तमगे सामने आने लगे. हर चीज हेनरी कूपर की क्रूर और कत्लेआम की लोमहर्षक कहानी बयान कर रही थी. उस की दरिंदगी के आगे जनरल डायर की निर्दयता भी फीकी पड़ गई थी. खुदाई होती गई और इंसानी हड्डियां और खोपडि़यां निकलती गईं. जब खुदाई समाप्त हुई तो इंसानी हड्डियों और खोपडि़यों के ढेर को देख कर लोगों की आंखें भीग गईं.

भले ही किसी को यह पता नहीं था कि 157 साल पहले हेनरी कूपर द्वारा  मरवाए गए सैनिक कौन थे? लेकिन यह तो निश्चित था कि वे भारतीय थे. कुएं से 40 खोपडि़यां सहीसलामत निकली थीं. जबकि हड्डियों और दांतों की संख्या हजारों में थी. इन के साथ कुछ ताबीजें भी मिली थीं, जिस से अंदाजा लगाया गया कि मारे गए सैनिकों में मुसलमान भी थे.

पंजाब सरकार ने हेनरी कूपर द्वारा  मौत के घाट उतारे गए सभी सैनिकों को शहीद का दर्जा दे कर उन का स्मारक बनवाने की घोषणा की, जिस में इन सैनिकों की कुछ अस्थियां भी रखी जाएंगी. वे सभी अस्थियां पुरातत्व विभाग के हवाले की गयी. पुरातत्व विभाग ने बंगाल नेटिव इफेन्ट्री 26 से संपर्क कर के मारे गए सैनिकों के बारे में पता लगाने की कोशिश की. उस के बाद पारंपरिक रीतिरिवाज से उन का अंतिम संस्कार कर दिया गया.

इस से भी बड़ी विडंबना तो यह है कि जिस हेनरी कूपर ने 157 साल पहले इतने भारतीय सैनिकों की बेरहमी से हत्या कराई थी,  उस के नाम की कूपर रोड आज भी अमृतसर में मौजूद है और वह वहां का पौश एरिया है. अब कूपर रोड का नाम बदलने की मांग उठ रही है. देखिए यह संयोग कब आता है.

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