लेखक – एडवोकेट बलदेव राय, Crime Story in Hindi: चश्मदीद गवाह तो था ही, पुलिस ने हत्या में प्रयुक्त हथियार भी बरामद कर लिया था. हत्यारे ने भी अपराध स्वीकार कर लिया था. तब वकील ने ऐसी कौन सी चाल चली कि सब कुछ झूठा हो गया और एक निर्दोष सजा पाने से बच गया. शा म 4 बजे के आसपास मैं सारी फाइलें समेट कर घर जाने की तैयारी कर रहा था कि मेरे परम मित्र वकील विनोद जिंदल ने मेरा रास्ता रोक लिया. मैं कुछ पूछता, उस के पहले ही उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें पता है या नहीं, सुनील सक्सेना का कत्ल हो गया है?’’

विनोद की यह बात सुन कर मैं अवाक रह गया, ‘‘कब और कैसे, उन्हें किस ने मार दिया?’’
विनोद और मैं सालों से दोस्त थे. एक ही जगह वकालत करते थे, इसलिए एक ही केबिन में बैठते थे. लगभग हर मुकदमे पर खुल कर बहस भी करते थे. यही वजह थी कि सक्सेना के कत्ल की सूचना मिलते ही विनोद जिंदल मुझे बताने चले आए थे. सुनील सक्सेना की मौत हमारे लिए गहरा आघात थी. हम दोनों उन्हें वर्षों से जानते थे. बेहद सीधेसादे सक्सेना साहब वर्षों पहले अकेले पड़ गए थे. एकलौता बेटा अमेरिका चला गया था तो पत्नी की मौत हो चुकी थी. सक्सेना साहब करोड़ों की संपत्ति के मालिक थे. यहां उन का उत्तराधिकारी कोई नहीं था. चूंकि मैं उन का पड़ोसी था, इसलिए उन की मौत ने मुझे हिला कर रख दिया था.
विनोद जिंदल और मैं ने पुलिस स्टेशन से संपर्क किया तो पता चला कि हत्यारा मौकाएवारदात पर ही पकड़ लिया गया था. यह जान कर हमें थोड़ी राहत महसूस हुई कि चलो हत्यारा पकड़ा गया है. मगर अगले ही पल हमारी खुशी हैरानी में बदल गई, क्योंकि सुनील सक्सेना की हत्या के आरोप में जिस मदन भाटिया को गिरफ्तार किया गया था, वह गूंगाबहरा था. वह भी हमारे मोहल्ले में ही रहता था. मोहल्ले का होने की वजह से हम मदन भाटिया को भी जानते थे. वह जन्मजात गूंगाबहरा नहीं था. एक हादसे में उस के बोलने और सुनने की शक्ति चली गई थी. उस के पिता की अनाज मंडी में काफी बड़ी आढ़त थी. पैसे वाले लोग थे. मोहल्ले में उन की गिनती इज्जतदार लोगों में होती थी. मदन गूंगा और बहरा था. इसलिए हत्या की वजह समझ में नहीं आ रही थी.
बहरहाल, इस हतयाकांड में अहम बात यह थी कि मौकाएवारदात का चश्मदीद गवाह मृतक सुनील सक्सेना का किराएदार नीरज अरोड़ा था. पुलिस ने हत्यारे मदन भाटिया को घटनास्थल से पिस्तौल सहित गिरफ्तार किया था. अगले दिन सभी अखबारों ने इस हत्याकांड को प्रमुखता से छापा था. पुलिस ने हत्या का मुकदमा दर्ज कर के हत्यारे मदन भाटिया को अदालत में पेश कर के पूछताछ के लिए एक दिन के पुलिस रिमांड पर लिया था. चूंकि हत्या में प्रयुक्त पिस्तौल पहले ही बरामद हो चुका था, इसलिए पूछताछ पूरी कर के पुलिस ने उसे पुन: अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.
कुछ दिनों बाद पुलिस ने मामले की चार्जशीट अदालत में दाखिल कर दी. 3 महीने की लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद किसी तरह मदन भाटिया की जमानत हो सकी. इसी बीच केस की सुनवाई भी शुरू हो गई. मदन भाटिया के पिता श्याम भाटिया से मेरी कई मुलाकातें हुईं. उन्होंने केस लड़ने के लिए अपना वकील कर लिया था, मगर वह मेरे संपर्क में भी बने रहे और केस के हर पहलू पर मुझ से विचारविमर्श भी करते रहे. सच्चाई यह थी कि उन्हें अपने वकील की योग्यता पर कम, मुझ पर अधिक भरोसा था. हमारा मिलनेमिलाने का क्रम चलता रहा. सुनील सक्सेना का बेटा विकास सक्सेना भी पिता की मौत की जानकारी पा कर अमेरिका से भारत आ गया था. आते ही उस ने पिता के हत्यारे को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए वकीलों की फौज खड़ी कर दी थी.
वह हर हाल में मदन को सजा दिलवाना चाहता था. हालात बहुत तेजी से बदल रहे थे. विकास की काररवाई को देखते हुए मदन के पिता श्याम भाटिया बेहद घबरा गए थे. उन्हें लगने लगा था कि मदन को सजा से बचाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. लगभग 6 महीने बाद श्याम भाटिया ने मदन के मुकदमे की पैरवी के लिए मुझ से कहा तो मैं अजीब धर्मसंकट में फंस गया. क्योंकि उन से पहले विकास सक्सेना ने मुझे अपने पिता मृतक सुनील सक्सेना की ओर से मुकदमा लड़ने के लिए कहा था. तब मैं ने समयाभाव की बात कह कर मुकदमे की पैरवी के लिए मना कर दिया था.
ऐसे में अगर मुझे उस मुकदमे में कोई भूमिका निभानी चाहिए थी तो इंसानियत के नाते विकास सक्सेना की ओर से निभानी चाहिए थी. क्योंकि श्याम भाटिया से पहले उस ने मुझ से मुकदमा लड़ने को कहा था. इस के अलावा मृतक सुनील सक्सेना मेरे ज्यादा नजदीकी थे. मेरी उलझन अपनी जगह जायज थी. लेकिन मेरे सहयोगी वकीलों ने जल्दी ही मुझे इस उलझन से मुक्त करा दिया. अगली पेशी पर मैं ने मदन भाटिया की ओर से जवाबी दावा पेश कर दिया. मैं ने इस केस की सारी नकलें निकलवा कर उन का बारीकी से अध्ययन किया. फाइल के अध्ययन के दौरान मैं ने कई महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर जब गौर किया तो मुझे मदन को बचाने के कुछ बिंदु मिल गए.
वैसे तो इस केस में बहस के लिए कई ऐसे सवाल थे, जो इस केस का रुख पलट सकते थे. जैसे कि मदन ने सुनील सक्सेना की हत्या क्यों की, हत्या का उस का उद्देश्य क्या था? किसी भी मामले में सजा के लिए हत्या का कारण और उद्देश्य स्पष्ट करना जरूरी होता है. क्योंकि बिना किसी वजह के कोई किसी की हत्या जैसा अपराध क्यों करेगा? पुलिस ने चार्जशीट में हत्या की कोई वजह नहीं दर्शाई थी. मदन गूंगाबहरा था. उस की इसी कमी का फायदा उठा कर गोली कोई दूसरा भी चला सकता था. पुलिस ने इस बात का भी जिक्र नहीं किया था कि हत्या में प्रयुक्त पिस्तौल मदन ने कहां से खरीदी थी या उसे कहां से मिली थी? रिमांड के दौरान पुलिस ने उस से कोई बरामदगी भी नहीं दिखाई थी. पिस्तौल मौकाएवारदात से ही बरामद कर लिया गया था. इस के अलावा भी तमाम सवाल थे, जिस पर बहस की जा सकती थी.
मुकदमे की फाइल का अध्ययन करने के बाद मैं ने श्याम भाटिया से कुछ निजी जानकारियां हासिल कीं तो पता चला कि भाटिया परिवार का सुनील सक्सेना (मृतक) से किसी तरह का कोई संबंध नहीं था. घटना के समय मदन के हाथ से जो पिस्तौल मिली थी, उस के बारे में भी भाटिया परिवार कुछ नहीं बता सका का. एक बात का जिक्र करना मैं भूल गया कि मदन गूंगाबहरा जरूर था, मगर मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ था और बीए तक पढ़ा था. बीए में उस ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था. इस के बाद ही उस का एक्सीडेंट हुआ था, जिस में वह अपनी बोलनेसुनने की शक्ति गंवा बैठा था.
मुकदमा काफी उलझा हुआ था, इसलिए मैं ने भाटिया परिवार से हट कर अपना ध्यान अन्य लोगों पर लगाया. एक दिन मैं औफिस में बैठा अपने सहयोगी से इसी केस पर चर्चा कर रहा था कि मेरे मुंशी ने कहा, ‘‘सर, यह चश्मदीद गवाह नीरज अरोड़ा बहुत ही शातिर दिमाग आदमी है. वह सक्सेना साहब के यहां भले ही पिछले 20 सालों से किराए पर रह रहा है, लेकिन आप को पता नहीं कि वह श्याम भाटिया का करीबी रिश्तेदार है.’’
‘‘क्या मतलब..?’’ मुंशी की बात सुन कर मैं चौंका. मेरा दिमाग चक्कर काटने लगा. मैं ने नीरज अरोड़ा और मदन भाटिया सहित मृतक सुनील सक्सेना को एक कड़ी में जोड़ कर देखा तो मुझे दाल में कुछ काला नजर आया.
मैं ने अपने शक को पुख्ता करने के लिए भाटिया परिवार से मुलाकात की तो पता चला कि मदन की सौतेली मां नीरज अरोड़ा की सगी बहन थी, लेकिन नीरज अरोड़ा का भाटिया परिवार से लगभग 32 सालों से कोई संबंध नहीं था. दरअसल नीरज की बहन ने आत्महत्या की थी. उस के बाद मदन के पिता श्याम भाटिया ने दूसरी शादी कर ली थी, जिस से मदन भाटिया सहित 3 संतानें थीं. यह एक ऐसी कड़ी थी, जो कातिल और चश्मदीद गवाह को आपस में जोड़ती थी. दरअसल, वकालत अपने आप में इस तरह की कडि़यों को जोड़ने और तानाबाना बुनने का ही नाम है, जिस तरह एक शब्द के छूट जाने से कहानी के मायने बदल जाते हैं,
उसी तरह किसी कड़ी के बिखर जाने से पूरा मामला ही पलट जाता है. अब मेरे लिए जरूरी था कि मैं मदन और सुनील कुमार को अलगअलग तरीके से नीरज अरोड़ा के साथ जोड़ कर मुकदमे को देखूं. जहां तक मदन की बात थी, मुझे पता चल गया था कि नीरज अरोड़ा अपने सौतेले भांजे को कतई पसंद नहीं करता था. रही बात सुनील सक्सेना की तो वह एक शरीफ और सीधेसादे आदमी थे. लड़ाईझगड़ा से उन का दूरदूर तक कोई नाता नहीं था. मोहल्ले के सभी लोग जानते थे. सक्सेना साहब धार्मिक कार्यों और समाजसेवा में लगे रहते थे. समझ में नहीं आ रहा था कि उन की हत्या क्यों की गई? कुल मिला कर पूरा मुकदमा उलझनों और पेचीदगियों से भरा था.
सुनील सक्सेना हत्याकांड से जुड़ा हर आदमी एक रहस्य की चादर ओढ़े था. नामजद हत्यारे मदन को ही ले लें, उस ने पुलिस के सामने स्वीकार किया था कि हत्या उसी ने की थी. वजह पूछी गई तो उस ने सिर्फ इतना ही कहा था कि सुनील ने उसे रोक कर मारपीट की तो उसे गुस्सा आ गया और उस ने उन्हें गोली मार दी. लड़ाई कहां से और कैसे शुरू हुई, इस का जिक्र मदन ने अपने बयान में नहीं किया था. धीरेधीरे डेढ़ साल गुजर गए. मुकदमे में तारीखें पड़ती रहीं. गवाहियों का समय आया तो सब से पहले मृतक सुनील सक्सेना का किराएदार और इस मुकदमे का चश्मदीद गवाह नीरज अरोड़ा अदालत में पेश हुआ. कटघरे में खड़े हो कर गीता हाथ पर रख कर सत्य बोलने की शपथ लेने के बार अदालती प्रक्रिया शुरू हुई तो न्यायाधीश महोदय ने उस से पूछा, ‘‘घटना वाले दिन तुम कहां थे और तुम ने क्या देखा? विस्तार से अदालत को बताओ?’’
‘‘जब साहब, मैं अपने कमरे से बाहर बालकनी में धूप सेंक रहा था, क्योंकि उस दिन सर्दी कुछ अधिक थी. उसी बीच मुझे शोर सुनाई दिया तो मैं ने नीचे गली में झांका. मेरे मकान मालिक सुनील सक्सेना और मदन भाटिया के बीच हाथापाई हो रही थी. मैं उन्हें छुड़ाने के लिए नीचे भागा. नीचे आने पर मैं उन से चंद कदम दूर रह गया था कि मदन भाटिया ने सुनील सक्सेना पर पिस्तौल से गोली चला दी. गोली लगते ही सुनील सक्सेना गिर पड़े.’’
नवीन अरोड़ा धाराप्रवाह बोल रहा था, इतना कह कर वह रुका तो जज साहब ने कहा, ‘‘बताओ, इस के आगे क्या हुआ?’’
एक लंबी सांस ले कर नवीन ने कहा, ‘‘साहब, जब मैं उन के करीब पहुंचा तो सक्सेना साहब जमीन पर पड़े तड़प रहे थे और मदन हाथ में पिस्तौल लिए खड़ा था. उस समय भी पिस्तौल की नली का रुख सक्सेना साहब की ही ओर था.’’
‘‘तुम्हें ठीक से याद है ना, तुम ने ठीक से देखा था ना कि गोली मदन भाटिया ने ही चलाई थी?’’ सरकारी वकील श्री पांडेय ने पूछा.
‘‘जी बिलकुल याद है. मैं ने अपनी आंखों से देखा था, गोली मदन भाटिया ने ही चलाई थी.’’ नवीन अरोड़ा ने यह बात अपनी आंखों की ओर इशारा कर के दृढ़ता से कही थी. नवीन अरोड़ा ने जब यह बात कही थी, अपनी आखों पर चश्मा लगा रखा था. इस के बाद जज साहब ने मुझ से कहा, ‘‘अगर आप को गवाह से कुछ पूछना है तो पूछ सकते हैं.’’
यहां यह बताना जरूरी है कि पुलिस ने इस मामले में सिर्फ नीरज अरोड़ा को ही चश्मदीद गवाह बनाया था. बाकी पोस्टमार्टम करने वाला डाक्टर, घटनास्थल के फोटो खींचने वाला क्राईम फोटोग्राफर, फिंगरप्रिंट विशेषज्ञ आदि सब फारमैल्टी गवाह थे. कहने का मतलब यह कि सारा मामला नीरज अरोड़ा की गवाही पर टिका था. अगर मैं किसी तरह नीरज को झूठा साबित करने में सफल हो जाता तो यह मामला अपने आप ही खत्म हो जाता. बहरहाल, मैं ने नवीन अरोड़ा की आंखों की ओर इशारा कर के पहला सवाल किया, ‘‘हां तो अरोड़ा साहब, आप ने सचमुच इन्हीं आंखों से गोली चलते देखी थी?’’
अरोड़ा को स्वयं पर कुछ ज्यादा ही विश्वास था. शायद वह बयान को अच्छी तरह से पढ़ और समझ कर आया था. मेरे सवाल के जवाब में उस ने मेरा मजाक उड़ाने के अंदाज में बड़ी मासूमियत से कहा, ‘‘जज साहब, केवल यही एक जोड़ी आंखें मेरे पास हैं, विवशतावश इन्हीं से ही देखना पड़ा था. किसी और की आंखें तो मांग नहीं सकता था.’’
अरोड़ा ने यह बात इतनी मासूमियत से कही थी कि अदालत में ठहाके गूंज उठे. जज साहब ने सभी को चुप रहने के लिए कहा तो मैं ने पुन: अपना वही सवाल दोहराया. इस बार वह कुछ उलझन में पड़ गया. कुछ देर सोच कर बोला, ‘‘वकील साहब, मैं पहले ही आप को बता चुका हूं कि खून होते हुए मैं ने अपनी इन्हीं आंखों से देखा था.’’
उस के इतना कहते ही मैं ने वही सवाल दूसरे तरीके से पूछा, ‘‘इन्हीं आंखों से देखा था?’’
‘‘हां भई, कितनी बार बताऊं? आप बारबार एक ही सवाल क्यों पूछ रहे हैं.’’ नीरज बुरी तरह झुंझला गया. मेरे प्रतिद्वंद्वी वकील ने औब्जैक्शन किया, ‘‘जज साहब गवाह को गुमराह करने की कोशिश की जा रही है.’’
मैं ने बड़ी शालीनता के साथ अदालत से अनुरोध किया, ‘‘जज साहब, मुझे गवाह से कुछ अहम सवाल पूछने दिए जाएं. अगर मेरे प्रतिद्वंदी वकील बीच में रुकावट डालने की कोशिश न करें तो मैं अभी इन के इस गवाह को झूठा साबित कर दूंगा कि मदन भाटिया ने गोली चलाई ही नहीं थी, वह निर्दोष है. इस मामले में पुलिस ने भी गहराई से जांच नहीं की. जो सामने आया, उसी स्थिति में मुकदमा खड़ा कर दिया. यह मुकदमा रेत पर खड़े किए महल की तरह है.’’
जज साहब मेरी बात से पूरी तरह सहमत दिखाई दिए. उन्होंने प्रतिद्वंदी वकीलों को शांत रहने और मुझे चश्मदीद गवाह नीरज अरोड़ा से जिरह जारी रखने के लिए कहा. जज साहब से इजाजत मिलते ही मैं ने नवीन अरोड़ा के समीप जा कर उस के चेहरे पर नजरें गड़ा कर पूछा, ‘‘अरोड़ा साहब, आप का यह चश्मा कैसे टूटा?’’
मेरा यह सवाल सुनते ही उस का दाहिना हाथ चश्मे पर चला गया. चश्मे पर हाथ फेरते हुए उस ने कहा, ‘‘चश्मा तो बिलकुल ठीक है वकील साहब, यह तो कहीं नहीं टूटा.’’
मैं ने उसी अंदाज में कहा, ‘‘लाइए, मुझे दीजिए चश्मा, मैं दिखाता हूं आप का यह चश्मा कहां टूटा है.’’
नीरज अरोड़ा ने चश्मा उतार कर मेरी ओर बढ़ा दिया. मैं ने चश्मा उलटपलट कर देखा और 2 मीटर दूर जा खड़ा हुआ. इस के बाद चश्मा लहराते हुए मैं ने पूछा, ‘‘अरोड़ा साहब, क्या आप बता सकते हैं कि यह वही पिस्तौल है, जिस से मदन भाटिया ने उस दिन सुनील सक्सेना पर गोली चलाई थी?’’
नवीन अरोड़ा परेशान हो कर अपनी आंखों पर जोर डालते हुए बोला, ‘‘वकील साहब, जरा नजदीक तो आइए.’’
मैं आधा मीटर आगे जरूर बढ़ा, लेकिन चश्मा बाएं हाथ से पकड़ कर पीछे ही किए रहा यानी कि चश्मा उस की आंखों से उतनी ही दूरी पर था. कुछ क्षणों तक वह पलकें खोलता और बंद करता रहा. उस के बाद बड़ी होशियारी से बोला, ‘‘जज साहब, डेढ़ साल पुरानी बात है और फिर उस रिवाल्वर पर ऐसी कोई खास निशानी नहीं थी, जिसे मैं दिमाग में बैठा लेता. जैसी पिस्तौलें होती हैं, वैसी ही वह भी थी. शायद ऐसी ही, जैसी वकील साहब हाथ में पकड़ कर दिखा रहे हैं.’’
नीरज अरोड़ा के इतना कहते ही अदालत में हलचल मच गई. लोग आपस में बातचीत करने लगे. मेरे प्रतिद्वंदी वकीलों की भौंहें तन गईं. जबकि मैं अपने मकसद में कामयाब हो गया था. मैं अदालत को जो बात बताना चाहता था, जज साहब उसे काफी हद तक समझ गए थे. अदालत में मौजूद अन्य लोग भी समझ गए थे कि मैं क्या साबित करना चाहता था. शोर कम हुआ तो मैं ने कहा, ‘‘जज साहब, प्रौसीक्यूशन द्वारा पेश किया गया यह गवाह तो झूठा साबित हुआ. इसी की गवाही पर इस मुकदमे की नींव टिकी थी. इस गवाह की दूर की नजर इतनी ज्यादा कमजोर है कि 2 सौ गज दूर तो क्या, 2 गज दूर से भी यह किसी को नहीं पहचान सकता. अभी अदालत ने देखा कि किस तरह यह अपने ही चश्मे को रिवाल्वर बता रहा था.’’
नवीन अरोड़ा की आंखों की जांच रिपोर्ट जो मैं ने उस के डाक्टर से प्राप्त की थी, जज साहब के सामने रखते हुए कहा, ‘‘सर, यह आदमी किसी को भी ठीक से नहीं पहचान सकता.’’
मेरे इतना कहते ही नवीन अरोड़ा चीख उठा, ‘‘चश्मा पहन कर मैं सब कुछ देखपहचान सकता हूं. वकील साहब, मेरा चश्मा दीजिए. उस के बाद देखिए. मैं कितनी दूर तक देखता हूं.’’
मैं उस के मुंह से यही कहलवाना चाहता था. इस के बाद मैं ने चश्मा नीरज अरोड़ा को लौटा दिया और पुलिस को दिए उस के बयान की प्रति अपनी फाइल से निकाल कर जज साहब के सामने रख कर कहा, ‘‘सर, अभीअभी नीरज अरोड़ा ने कहा है कि वह चश्मा पहन कर ही दूर तक देख सकता है. इस का मतलब यह हुआ कि बिना चश्मे के वह देखने में असमर्थ है. पुलिस को दिए अपने बयान में इस ने कहा था कि यह बालकनी में धूप सेंक रहा था. वहां बालकनी में एक चारपाई हमेशा पड़ी रहती थी. वह अक्सर उसी चारपाई पर धूप में सो जाया करता था. मैं ठीक कह रहा हूं ना मि. अरोड़ा?’’
‘‘जी बिलकुल ठीक है. धूप में लेटने से आलस्य आ ही जाता है और अक्सर आंख भी लग जाती है.’’ नीरज अरोड़ा ने मेरी बात का समर्थन किया.
‘‘सर, जिस समय नीचे गली में गोली चली, उस समय भी नीरज अरोड़ा चारपाई पर पड़ा सो रहा था. गोली की आवाज से ही यह जागे थे.’’ इस के बाद मैं ने अपना तर्क प्रस्तुत किया, ‘‘जज साहब, कोई भी आदमी सोते हुए चश्मा नहीं पहनता. अब इस के पीछे धारणा चश्मा टूटने की हो या और कुछ, लेकिन यह सत्य है कि सोते समय चश्मा नहीं पहना जाता.’’
जज साहब मेरी बात से सहमत थे. इस से यह साबित हो गया कि नीरज अरोड़ा ने झूठ बोल कर अदालत को बरगलाया और समय खराब किया था. लिहाजा अदालत ने उस की गवाही रद्द कर दी. पुलिस के पास मदन को कातिल ठहराने का यही एक जरिया था, जो बुरे तरीके से पिट गया था. लेकिन इस के बाद एक अहम सवाल यह बाकी था कि मदन के पास पिस्तौल कहां से आई? इस विषय पर पुलिस की छानबीन मदन भाटिया की गिरफ्तारी और उस के बयान पर आ कर खत्म हो गई थी. 2 महीने बाद की तारीख लगी. उसी दौरान एक करिश्मा हो गया. पुलिस ने लुटेरों के एक ऐसे गिरोह को डकैती डालते हुए रंगेहाथों पकड़ा, जिस के सरगना ने अनेक डकैतियों, अपहरण, हत्या और लूट की वारदातों को स्वीकार किया. उसी में सुनील सक्सेना का कत्ल भी शामिल था.
मामला शीशे की तरह साफ हो गया. पूछताछ में गिरोह के सरगना राम सिंह ने बताया था कि उस दिन शाम को वह अपने साथियों के साथ अनाज मंडी से ही सक्सेना का पीछा करते हुए उस की गली तक पहुंचा. सक्सेना के पास नोटों से भरा बैग था, जिस में लाखों की नगदी थी. जिस समय वह सक्सेना से रुपयों का थैला छीन रहा था, संयोग से उसी समय वह लड़का साइकिल चलाता हुआ वहां आ गया था. राम सिंह के साथ 2 लोग और थे. उस का एक साथी नोटों से भरा बैग छीना और भाग लिया. सक्सेना ने दौड़ कर राम सिंह को पकड़ लिया. अपने बचाव के लिए उस ने अपनी पिस्तौल से सक्सेना को गोली मार दी और पीछे मुड़ कर भागा.
तभी उस लड़के ने उस का रास्ता रोक लिया. उस ने पिस्तौल उसे थमा दी और धक्का मार कर भाग लिया. घायल होने के बावजूद भी सक्सेना उठे और उसे पकड़ने दौड़े. लेकिन वह झुक कर निकल गया. इस के बाद सक्सेना हाथ में पिस्तौल थामे उस लड़के के ऊपर गिर गया. राम सिंह ने आगे बताया था कि उसी बीच गोली चलने की आवाज सुन कर गली के दूसरी ओर हलचल मच गई थी. लेकिन वह तेजी से दूसरी ओर से भाग गया था. राम सिंह के बयान से साफ हो गया था कि गोली मदन ने नहीं चलाई थी. गोली तो उस के हाथ में पिस्तौल आने से पहले ही चल चुकी थी. पकडे़ जाने के डर से खाली पिस्तौल राम सिंह ने मदन को थमा दी थी, जबकि मदन ने समझा कि गोली उस से चली होगी, क्योंकि हाथ में पिस्तौल आते ही खून से लथपथ सक्सेना मदन के ऊपर आ गिरे थे. इस से मदन को लगा कि गोली उस से पिस्तौल से निकल कर लगी है.
मदन ने जब गली में प्रवेश किया था, तब तक राम सिंह के साथी सक्सेना को लूट कर भाग चुके थे. इसलिए मदन ने डकैती होते नहीं देखी थी. लेकिन एक बात अंत तक किसी की समझ में नहीं आई कि मदन ने सक्सेना और राम सिंह के बीच होने वाली हाथापाई का जिक्र अपने बयान में क्यों नहीं किया था. हालांकि बरी होने के बाद मदन ने मुझे बताया था कि यह सब बातें उस ने पुलिस को बताई थीं, लेकिन पुलिस वाले उसे ही अभियुक्त बना कर जांच से बचना चाहते थे. इस के अलावा उसे खुद ही लग रहा था कि गोली उसी से चली थी, इसलिए उस ने अपराध स्वीकार कर लिया था.
बहरहाल, जज साहब ने सब की दलीलें सुनीं, बयान पढ़े, सुबूत देखे और फिर फैसला सुनाया, ‘‘सुनील सक्सेना हत्याकांड में असली मुजरिम पकड़ा जा चुका था और उस ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था, इसलिए अदालत राम सिंह को दोषी करार देते हुए सुनील सक्सेना की हत्या व लूट का दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा व 20 हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाती है और मदन भाटिया को बाइज्जत बरी करती है.’’
इस तरह रहस्यरोमांच से भरपूर कत्ल का यह मामला पूरे 3 सालों तक चलने के बाद इस निर्णय पर पहुंचा. अगर कहीं नीरज अरोड़ा की गवाही सच मान ली जाती या राम सिंह न पकड़ा गया होता तो निश्चित मदन को सजा हो जाती. तब एक बेजुबान निर्दोष के साथ कितना बड़ा अन्याय होता. Crime Story in Hindi
(कथा एक सत्यघटना पर आधारित)
प्रस्तुति—हरमिं


 
 
 
            



 
                
                
                
                
                
                
                
                
               
 
                
                
                
               
