Chhattisgarh News: गुरिल्ला युद्ध में माहिर, नक्सलियों का मिलिट्री ब्रेन 43 वर्षीय नक्सली माडवी हिडमा एक करोड़ रुपए का इनामी था. इस के ऊपर 300 हत्याओं और 26 बड़ी वारदातों का आरोप था. आइए, जानते हैं 3 राज्यों के बौर्डर पर, 20 सालों तक आतंक का पर्याय बना रहा नक्सली माडवी हिडमा अपनी पत्नी मदकम राजे के साथ कैसे मारा गया.

बस्तर के घनघोर और बियाबान जंगल छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित है. ये घनघोर जंगल अपनी घनी, हरियाली, समृद्ध आदिवासी संस्कृति और जैव विविधता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं. बस्तर का इतिहास काफी पुराना है. प्राचीन काल में बस्तर को दक्षिण कौशल के रूप में जाना जाता था. विश्व प्रसिद्ध यह विशेष जंगल अपनी घनी हरियाली, समृद्ध आदिवासी संस्कृति जैसे गोंड, हल्बा, मुरिया जैसी जनजातियों के कारण भी जाना जाता है. यह क्षेत्र वन्यजीव के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है, इसीलिए इसे छत्तीसगढ़ राज्य की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है.

लाल आतंक का पर्याय बन चुके दुर्दांत नक्सली कमांडर माडवी दिनांक 17 नवंबर, 2025 सोमवार के दिन आंध्र प्रदेश की एंटी नक्सल ग्रेहाउंड्स फोर्स, पैरा मिलिट्री फोर्सेज और स्थानीय पुलिस के साथ भीषण मुठभेड़ में मारा गया. यह खबर मीडिया के सामने आने के बाद जंगल में लगी आग की तरह पूरे देश में फैल गई थी. इस विशेष औपरेशन को एंटी नक्सल औपरेशन की अब तक की सब से बड़ी कामयाबी माना जा रहा है.

आंध्र प्रदेश के डीजीपी हरीश कुमार गुप्ता ने मीडिया को जानकारी देते हुए बताया कि यह मुठभेड़ 17 नवंबर, 2025 को उस वक्त हुई, जब आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा सीमा पर पुलिस को माओवादियों के एक बड़े समूह के मूवमेंट की जानकारी मिली थी. विशिष्ट खुफिया जानकारी के आधार पर सोमवार दिनांक 17 नवंबर की देर रात एंटी नक्सल ग्रेहाउंड्स, पैरा मिलिट्री फोर्स और स्थानीय पुलिस ने एक साथ मिल कर एक सघन कौंबिंग औपरेशन शुरू कर दिया. यह भीषण मुठभेड़ अल्लूरी सीताराम राजू जिले के मारेडुमिल्ली जंगल में तीनों राज्यों के बौर्डर पौइंट के करीब हुई, जहां पर सुरक्षा बलों ने दुर्दांत नक्सली कमांडर माडवी हिडमा उस की पत्नी मदकम राजे उर्फ रजक्का सहित कुल 6 दुर्दांत माओवादियों को मार गिराने में अभूतपूर्व सफलता अर्जित की.

कुख्यात नक्सली कमांडर मांडवी हिडमा न केवल बड़े औपरेशन में संलिप्त था, बल्कि वह स्थानीय युवाओं को भी नक्सलवाद में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था. एक करोड़ रुपए से भी अधिक इनामी राशि का दुर्दांत नक्सली लीडर हिडमा अपने 6 सदस्यीय दल के साथ छत्तीसगढ़ से आंध्र प्रदेश की सीमा में प्रवेश करने की कोशिश कर रहा था. खुफिया एजेंसियों द्वारा लगभग 34 घंटे तक हिडमा की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखने के बाद ग्रेहाउंड्स और अन्य केंद्रीय सुरक्षा बलों के नेतृत्व में यह औपरेशन शुरू किया गया था.

लाल आतंक हिडमा

हिडमा के साथ पुलिस व सुरक्षाबलों की मुठभेड़ 4 घंटे से अधिक समय तक चली. हिडमा नक्सली संगठन का सब से क्रूर, निर्दयी और प्रभावशाली सैन्य कमांडर था, जिस ने दशकों तक बस्तर और दंडकारण्य में कई खूनी वारदातों को अंजाम दिया था. माडवी हिडमा का मारा जाना देश में माओवादी आंदोलन के लिए अब तक का सब से बड़ा झटका माना जा रहा है. लोगों को अकसर इस बात पर हैरानी होती थी कि 1.80 करोड़ रुपए का इनामी नक्सली कमांडर माडवी हिडमा केवल अकेला ही एक साथ कई रणनीतियां कैसे बना सकता है. 130 से भी अधिक लोगों के हत्यारे माओवादी हिडमा को जानने वाले और मिलने वाले लोगों के अनुसार माडवी हिडमा बहुत ही मृदुभाषी, कम बात करने वाला और आदर के साथ बात करने वाला इंसान था.

हिडमा से मिल चुके व्यक्तियों को इस बात पर बड़ी हैरानी होती है कि हिडमा जैसा व्यक्ति इतनी बड़ी तबाही भी मचा सकता है. हिडमा का जन्म छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी सुकमा के पुखती में सन 1981 में हुआ था. माओवादी पार्टी में माडवी हिडमा का आगे बढ़ते रहना बड़ा हैरतअंगेज रहा था. वह 1996-1997 में माओवादी संगठन से जुड़ा था, तब उस की उम्र महज 17 साल थी. माडवी हिडमा को हिदमाल्लु और संतोष नाम से भी जाना जाता था. जिस इलाके से ताल्लुक रखता था, वह पुखती गांव शुरू से ही माओवादी विचारधारा का रहा है. इस पुखती गांव से अब तक 50 से अधिक माओवादी निकल चुके हैं. नक्सलियों से जुडऩे से पहले हिडमा खेती किया करता था.

हिडमा किसी से भी ज्यादा बात नहीं किया करता था. उसे हमेशा नई चीजों को सीखने में दिलचस्पी रहती थी. माडवी हिडमा ने केवल सातवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की थी. दक्षिण बस्तर क्षेत्र का होने के कारण हिडमा को हिंदी नहीं आती थी, क्योंकि इस इलाके के लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं है. हिडमा ने माओवादी संगठन के लिए काम करने वाले एक लेक्चरर से बड़े उत्साह से हिंदी भी सीख ली थी.

हिडमा को वर्ष 2000 के आसपास माओवादी संगठन की उस शाखा में भेजा गया, जो माओवादियों के लिए हथियार बनाती थी. हिडमा ने वहां पर हथियार बनाने के लिए नईनई तकनीकें विकसित कर के वहां पर भी अपनी कुशल प्रतिभा का परिचय दिया था. वह उस शाखा पर हथियार तैयार करते थे, हथियारों की मरम्मत करते थे और स्थानीय स्तर पर ही ग्रिनेड व लांचर्स का इंतजाम भी करते थे. माओवादी गतिविधियों का अध्ययन करने वाले लोग बताते हैं कि 2001 और 2007 के मध्य माडवी हिडमा एक सामान्य सदस्य की तरह ही था. लेकिन बस्तर इलाके में चले सलवा जुडूम ने उसे सक्रिय करने में अपनी प्रमुख भूमिका निभाई.

एक पूर्व माओवादी का कहना है कि माडवी हिडमा के हृदय में नफरत की चिंगारी तब पनपने लगी थी, जब माओवादी लोगों के खिलाफ अत्याचार शुरू हुए थे.

सलवा जुडूम: आत्मरक्षा

असल में सलवा जुडूम (गोंडी में शांति यात्रा) एक आत्मरक्षा आंदोलन था, जो छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद से लडऩे के लिए वर्ष 2005 में शुरू किया गया था. इस के अंतर्गत स्थानीय आदिवासियों को विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के रूप में भरती कर नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, लेकिन बाद में मानवाधिकारों के उल्लंघन और जबरन विस्थापन के आरोपों के कारण सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था.

इस सलवा जुडूम में 18 वर्ष से अधिक उम्र के आदिवासी युवा शामिल थे, जिन्हें कोया कमांडो भी कहा जाता था और इन्हें इन की आत्मरक्षा के लिए सरकार द्वारा हथियार भी दिए गए थे. सुप्रीम कोर्ट 2011 में इसे असंवैधानिक करार देते हुए भंग करने का आदेश दिया था, क्योंकि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा था. हिडमा को निर्दयी, खूंखार और दुर्दांत नक्सलियों ने ही बनाया था. हिडमा उन के साइकोलौजिकल वार का एक बहुत बड़ा हिस्सा था.

हर बड़े हमले का नेतृत्व उसे ही सौंपा जाता था. हमलों में वह खुद फील्ड में रह कर अपनी बटालियन को लीड करता था. साल 2010 के बाद अधिकतर हमलों में वह सीधे शामिल रहा. जंगल के भीतर बड़ेबड़े लीडर रणनीति बनाते और बाहर फील्ड में हिडमा उन वारदातों को बखूबी अंजाम देने का काम करता था. हिडमा दंडकारण्य स्पैशल जोनल कमेटी के सेकेट्री रहे रमन्ना को अपना गुरु मानता था. असल में रमन्ना ही हिडमा को संगठन में ले कर आया था.

हाथ नहीं लगा गुरु रमन्ना

मीडिया रिपोट्र्स के अनुसार रमन्ना ही माडवी हिडमा को संगठन में ले कर आया था और उस का ब्रेनवाश कर और उसे कठोर ट्रेनिंग दे कर निर्दयी नक्सली बना दिया था. आज से करीब 2 दशक पहले रमन्ना दशहत का दूसरा नाम था, जिस का कई राज्यों में खौफ था. तेलंगाना के वारंगल का रहने वाला खूंखार नक्सली रमन्ना नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी का सचिव था. रमन्ना के ऊपर तेलंगाना, ओडिशा और छत्तीसगढ़ राज्यों की सरकारों ने लगभग 2.40 करोड़ रुपए का इनाम घोषित कर रखा था.

1990 के दशक में जब बस्तर इलाके के पुखती में जब डीकेएसजेडसी सेकेट्री के रूप में रमन्ना सक्रिय था, तब उस ने ही हिडमा को 14 साल की उम्र में बाल सदस्य के रूप मै तैयार किया था. माडवी हिडमा खुद हार्डकोर नक्सल क्षेत्र में पैदा हुआ था. उस के लिए बम बंदूक और हिंसा कोई नई बात नहीं थी, इसलिए वह जल्द ही रमन्ना का चहेता शिष्य बन गया था.

रमन्ना ने हिडमा को उस के गांव पुखती से निकाल कर देश का सब से बड़ा नक्सल बनाया था. रमन्ना ने जल्द ही हिडमा को नक्सली सांचे में ढाल लिया था, फिर रमन्ना ने हिडमा को बसवा राजू से मिलवाया. उस के बाद धीरेधीरे हिडमा, रमन्ना और बसवा राजू समेत सभी बड़ेबड़े नक्सली का लीडरों का भरोसेमंद बनता चला गया. यही वजह थी कि हिडमा रमन्ना को अपना गुरु मानता था.

बसवा राजू ने 2008-09 में हिडमा को बटालियन नंबर 1 की कमान सौंपी थी. यह बटालियन नक्सलियों की सब से महत्त्वपूर्ण बटालियन के रूप में मानी जाती थी. माडवी हिडमा नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी का मेंबर बनने वाला इकलौता आदिवासी था. बस्तर से इस महत्त्वपूर्ण ओहदे पर पहुंचने वाला वह अकेला नक्सली था. सुरक्षा बलों पर हुए बड़े नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड रमन्ना ही हुआ करता था. बताया जाता है कि 2.40 करोड़ के इनामी नक्सली रमन्ना को पुलिस कभी पकड़ भी नहीं सकी थी. दिसंबर 2019 में रमन्ना की मौत हार्ट अटैक से हो गई थी.

रमन्ना का बेटा श्रीकांत उर्फ रंजीत भी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी बटालियन में काम करता था. कुछ साल पहले जब रमन्ना के बेटे श्रीकांत उर्फ रंजीत ने सरेंडर करने की कोशिश की थी तो संगठन में इस बात का काफी विरोध भी हुआ था. माडवी हिडमा शुरू से ही रमन्ना और उस के परिवार का काफी करीबी रहा था. इस के बाद जब रमन्ना की पत्नी सावित्री के सरेंडर को ले कर संगठन में पैदा हुए अवरोध को हिडमा ने ही खत्म किया था.

श्रीकांत और सावित्री दोनों अब तेलंगाना में पुनर्वास का लाभ ले रहे हैं. रमन्ना का भाई परशरामुल भी एक नक्सली था, जो 1994 में पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था. परशरामुल की पत्नी भी एक नक्सली थी और वह भी पुलिस मुठभेड़ में मारी जा चुकी है. कई भीषण हमलों के मास्टरमाइंड रहे नक्सली रमन्ना के मरने की पुष्टि दिनांक 14 दिसंबर, 2019 को नक्सलियों के केंद्रीय प्रवक्ता विकल्प द्वारा एक प्रैसनोट जारी कर की गई थी. नक्सल नेताओं ने लंबी चुप्पी के बाद उस की मौत की पुष्टि की थी.

हिडमा व मदकम का प्रेम

नक्सल संगठन के लोग ऐसे खतरनाक उग्रवादी और आतंकी होते हैं, जो माओवादी विचारधारा के उपासक होते हैं और वे सशस्त्र क्रांति के जरिए भारतीय गणराज्य की विचारधारा को उखाड़ फेंकना चाहते हैं, ताकि जमीन और संसाधनों का समान बंटवारा हो सके. नक्सल संगठन में प्रेम या प्यार शब्द अकसर दबा रहता है. विशेष आदेश, विशेष अभियान, अनुशासन, भय और बंदूक गोलियों की भाषा जहां पर हावी रहती हो, वहां पर दिल, प्रेम की धड़कनें बिल्कुल भी सुनाई नहीं देती हैं. लेकिन कभीकभी इसी अबूझ खामोशी और खूनखराबे के बीच कोई एक ऐसी नई कहानी जन्म ले लेती है, जो असंभव होते हुए भी कभीकभी सच भी हो जाती है. ऐसी ही एक अद्ïभुत प्रेम कहानी थी हिडमा और मदकम राजे की, जो अब मुठभेड़ की गोलियों के साथ हमेशाहमेशा के लिए खत्म हो चुकी है.

यह कहानी तब की है, जब वर्ष 2008-2009 के दौरान हिडमा संगठन में तेजी से तरक्की और ऊंचे पायदान पर पहुंचने वाला एक नया चेहरा था. यह चेहरा खामोश, तेज और रणनीतिक था, जिसे हर कोई पसंद कर रहा था. वहीं दूसरी तरफ मदकम राजे उर्फ रजक्का संगठन की उन गिनीचुनी महिलाओं में से एक थी, जो नक्सली संगठन में कमांडर जैसे प्रतिष्ठित रैंक तक पहुंच चुकी थी. अब उन दोनों विशिष्ट हस्तियों का सामना अकसर कभी विशेष मीटिंग, कभी मूवमेंट के दौरान, कभी किसी औपरेशन की काररवाई में होने लगा था. बियाबान जंगलों में इंसान का जीवन कुछ इस तरह का होता है, जैसे मानों हर दिन उन की जिंदगी का आखिरी दिन हो. शायद इसीलिए इस परिस्थिति में प्रेम जल्दी पनपता है और दिल की गहराइयों तक भी चला जाता है.

अब तक वे दोनों एक ही बटालियन के अटूट हिस्से बन चुके थे. एक तरफ माडवी हिडमा था, जिसे हथियार बनाने, हथियारों को संग्रहित करने और विशेष औपरेशन करने की कमान सौंपी जाती थी. वहीं दूसरी ओर मदकम राजे उर्फ रजक्का इस नक्सली संगठन के अंदर मां की तरह हर सदस्य की देखभाल करती थी. घायल साथियों की सेवा करना, खाने की व्यवस्था करना, खाना बनाना और रणनीतियों की बारीकियों को समझ कर उसे अमल में लाने की जिम्मेदार राजे की ही थी.

जैसेजैसे समय गुजरता गया, वैसेवैसे वे दोनों अब एकदूसरे की उपस्थिति का इंतजार बेसब्री से करने लगे थे. गांवों में होने वाली मीटिंग, रात की गश्त, पदयात्रा और कैंप के भीतर होने वाली हर हलचल में अब हर जगह 2 जोड़ी आंखें एकदूसरे को प्यासी नजरों से ढूंढती रहती थी. माओवादी संगठन में किसी भी तरह के रिश्ते की अनुमति नहीं होती. यह वाक्य माओवाद का एक कठोर और अनुशासित नियम भी था, पर यह बात भी सच है कि इस तरह की घोर विषमताओं के बीच भी दिल अकसर इस नियम को दरकिनार कर देता है. समय गुजरता रहा और अब दोनों की एक साथ कई बड़ीबड़ी वारदातों की जिम्मेदारियां मिलने लगीं.

इन में बीजापुर, जगदलपुर, सुकमा के जंगलों में जितनी भी हाईप्रोफाइल काररवाई और वारदातों को अंजाम दिया गया. उन सभी में मदकम राजे हमेशा माडवी हिडमा के साथ उस की ढाल बन कर रही. दोनों विषम से विषम परिस्थितियों में एकदूसरे के गहरे मित्र, साथी, ढाल और विश्वस्त सहारा बनते चले गए. संगठन के अन्य कई साथियों ने उन दोनों के बीच के रिश्ते को महसूस भी किया, लेकिन किसी ने कुछ विरोध या अपवाद नहीं किया, क्योंकि दोनों के बीच का यह रिश्ता जिम्मेदारियों के बीच भी बेहद अनुशासित था.

उस के बाद फिर एक रात दोनों ने मिल कर एक फैसला करने का मन बना लिया. लंबी मसल पट्टी और एक खूनी अभियान को अंजाम देने के बाद, जंगल के बीच दोनों ने चुपचाप एकदूसरे का हाथ थाम कर, ईश्वर को साक्षी मान कर विवाह कर लिया. इस विवाह में न कोई गवाह थे, न गीत गाए गए और न ही संगीत बजा था. इस विवाह में केवल एक सन्नाटा था. आग की लौ और 2 दिलों के एकदूसरे को दिए गए वचन भर ही थे. उस वक्त माडवी हिडमा ने अपने साथियों से कहा था कि राजे अब संगठन में ही मेरी साथी नहीं है, बल्कि मेरे जीवन में भी हमेशा के लिए साथी बन चुकी है. जंगल के बीच हुआ यह विवाह संगठन की किताबों में कहीं पर भी दर्ज नहीं था. लेकिन संगठन के साथियों के दिलों में यह अनमोल जोड़ी जंगल के दूल्हा दुलहन के नाम से काफी मशहूर हो गई थी.

नक्सली संगठन के नियमों के अनुसार इन दोनों ने इस विवाह से पहले नसबंदी भी कराई थी. ऐसा कहा जाता है कि जो प्रेम जंगल में जन्म ले, वह जंगल ही अंजाम तक भी ले जाता है. माडवी हिडमा और मदकम राजे का प्रेम विवाह भी कुछ इस तरह से ही रहा. 17 नवंबर, 2025 को सुरक्षा बलों के ‘औपरेशन संभव’ ने जब मुठभेड़ की आग को घेरा तो वह इन दोनों की वह आखिरी लड़ाई और मुठभेड़ थी, जिस में दोनों एक साथ थे और फिर एक ही साथ मौत के मुंह में भी समा गए. जिस हाथ को उन्होंने घनघोर जंगल में विवाह की रात को थामा था, वह हाथ मौत के वक्त तक नहीं छोड़ा. नक्सलवाद की दुनिया में प्रेम अकसर दम तोड़ देता है. लेकिन हिडमा और राजे की प्रेम कथा कुछ ऐसी रही, जो बंदूक खून, नियम और आयामों, प्रतिबंधों से काफी ऊपर उठ गई.

जंगल की पगडंडियों पर शुरू हुई यह अनूठी पे्रम कहानी उसी जंगल की मिट्टी में एक साथ दफन भी हो गई. हिडमा की पत्नी राजे 1995 में बाल संगठन की सदस्य बनी थी. 2002-03 में उसे एसीएम किस्टाराम की जिम्मेदारी मिली. 2008 में राजे को पलाचलमा का एलओसी कमांडर बनाया गया. वर्ष 2009 में राजे बटालियन मोबाइल पौलिटिकल स्कूल की शिक्षिका बनी और बाद में वह एमओपीओएस और बीएनपीसी पार्टी कमेटी सदस्य बनी थी. हिडमा की पत्नी राजे अपने पति को लगातार आत्मसमर्पण करने के लिए कहती रही, ताकि वे दोनों अपना वैवाहिक जीवन व्यतीत कर सकें, लेकिन हिडमा हर बार इस प्रपोजल को नकारता रहा और अंतत: 18 नवंबर, 2025 को दोनों पुलिस मुठभेड़ में मारे गए.

हिडमा ने कीं 76 हत्याएं

6 अप्रैल, 2010 का दिन भारतीय इतिहास में सब से काला दिन माना जाता है. उस दिन छत्तीसगढ़ के जिला दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवान नक्सलियों की मौजूदगी की खबर सुन कर सर्चिंग औपरेशन के लिए अपने हथियारों के साथ निकल पड़े थे. सीआरपीएफ के कुल 150 जवान अपनी टुकड़ी के साथ घनघोर जंगल की ओर बढ़ रहे थे, मगर दूसरी तरफ नक्सलियों ने पहले से ही जवानों को चारों तरफ से घेरने की प्लानिंग बना रखी थी. एक तरफ जवान आगे बढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ आतंकी नक्सली सब से बड़े हमले को अंजाम देने के लिए घात लगाए बैठे थे.

सीआरपीएफ के जवान जैसे ही ताड़मेटला की तरफ पहुंचे तो उधर अपनी प्लानिंग के मुताबिक जंगल के भीषण रास्तों, ऊंची घुमावधार झाडिय़ां और गहरी घुमावदार पगडंडियों का फायदा उठाते हुए करीब 1000 दुर्दांत नक्सलियों ने सीआरपीएफ की उस पूरी टुकड़ी को चारों तरफ से घेर लिया. इसी दौरान नक्सलियों ने जंगल के बीच एक जोरदार धमाका किया, जिस के कारण पूरा जंगल ही दहल उठा था. सीआरपीएफ के जवान इस धमाके को समझ कर पोजीशन ले पाते, तभी उन की तरफ चारों ओर से अंधाधुंध फायरिंग शुरू हो गई. पहले से ही प्लानिंग बना कर नक्सली पेड़ों के पीछे, पहाडिय़ों के ऊपर और घनी झाडिय़ों के बीच अपनी पोजीशन बना कर बैठे थे, जिन्होंने सीआरपीएफ के जवानों पर चारों तरफ से ताबड़तोड़ हमला कर दिया. इस हमले में सीआरपीएफ के कुल 76 जवान बलिदान हुए, जबकि 8 नक्सली मारे गए थे.

इस भीषण हमले को अंजाम देने के बाद नक्सली मौके से सीआरपीएफ जवानों के हथियार, गोलाबारूद और यहां तक कि उन के मिलिट्री शूज भी लूट कर ले गए थे. यह भारत की सुरक्षा एजेसियों पर हुआ अब तक का सब से बड़ा हमला माना जाता है. माडवी हिडमा पिछले 2 दशक में हुए 26 से ज्यादा बड़े नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड रहा है. 2013 में झीरम घाटी हमले, 2021 में सुकमा-बीजापुर हमले में भी हिडमा की मुख्य भूमिका रही थी. इस के अलावा 2017 के बुरकापाल हमले में भी हिडमा का हाथ रहा था, जिस में सीआरपीएफ के 24 जवान शहीद हुए थे. 2013 में झीरम घाटी में हुए नक्सली हमले में हिडमा शामिल था, जिस में कुल 33 लोग मारे गए थे. इस मेें छत्तीसगढ़ के शीर्ष कांग्रेसी नेता भी शामिल थे.

बुरकापाल हमले का मास्टरमाइंड भी हिडमा ही था, जिस में 22 जवान बलिदान हुए थे. माडवी हिडमा की बर्बरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सलवा जुडूम के दौर में उस ने साल 2006 में एर्राबोर में 31 निर्दोष ग्रामीणों को राहत शिविर में जिंदा जला डाला था. उस के इसी दुर्दांत स्वरूप देख कर संगठन ने उसे 2008 से 2009 के बीच सीधे ही बटालियन का कमांडर बना दिया था. सलवा जुडूम के दौर में उस ने तबाही का मंजर मचा कर चारों ओर खून ही खून बहा डाला था. उस के बाद बटालियन की कमान मिलते ही उस ने पुलिस और सुरक्षाबलों के जवानों को टारगेट करना शुरू कर दिया और अब तक लगभग 300 से अधिक जवानों की नृशंस हत्या का मास्टरमाइंड माडवी हिडमा ही था.

नक्सलवाद की शुरुआत

नक्सलवाद शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रसिद्ध नेता चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने वर्ष 1967 में सत्ता के विरुद्ध एक सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था. चारू मजूमदार शुरू से ही चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े अनुयायी और प्रशंसक रहे थे. इसी कारण नक्सलवाद को ‘माओवाद’ के नाम से भी जाना जाता रहा है. 1968 में कम्युनिस्ट पार्टी औफ माक्र्ससिज्म ऐंड लेनिनिज्म (सीपीएमएल) का गठन किया गया, जिस के मुखिया प्रसिद्ध कम्युनिस्ट दीपेंद्र भट्टाचार्य थे. ये लोग माक्र्स और लेनिन के सिद्धांतों पर काम करने

लगे, क्योंकि ये सभी इन दोनों से ही काफी प्रभावित थे. वर्ष 1969 में पहली बार चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने जंगल संथाल के साथ भूमि अधिग्रहण को ले कर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक देशव्यापी आंदोलन और लड़ाई शुरू कर दी. भूमि अधिग्रहण को ले कर देश में पहली आवाज की चिंगारी नक्सलबाड़ी से ही प्रज्जवलित हुई थी. इस विद्रोह के बाद यह आंदोलन पूरे पश्चिम बंगाल से होता हुआ भारत के अन्य राज्यों में भी फैल गया था. आंदोलनकारी नेताओं का यह मानना था कि जमीन उसी की हो, जो उस पर खेती करें.

नक्सलबाड़ी से शुरू हुए इस आंदोलन का प्रभाव पहली बार तब देखा गया, जब पश्चिम बंगाल से कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था. इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि सन 1977 में पहली बार पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के रूप में सामने आई और ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने. सामाजिक जागृति के लिए शुरू हुए इस आंदोलन पर कुछ वर्षों के ही बाद राजनीति का वर्चस्व बढऩे लगा और यह आंदोलन शीघ्र ही अपने मुद्ïदों और मार्गां से भटक गया. जब तक यह आंदोलन फैलता हुआ बिहार तक पहुंचा, तब यह अपने वास्तविक मुद्ïदों से पूरी तरह भटक चुका था. इसीलिए अब यह लड़ाई भूमि की लड़ाई न रह कर जातीय वर्ग की लड़ाई बन चुकी थी.

यहां से फिर शुरू हुआ उच्च वर्ग और मध्यम निम्न वर्ग के बीच का उम्र संघर्ष जिस ने नक्सल आंदोलन के रूप में देश में अपना एक नया रूप धारण किया. श्रीराम सेना जो माओवादियों की सब से बड़ी सेना थी, उस ने उच्चवर्ग के विरुद्ध सब से पहले हिंसक प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. इस से पूर्व 1972 में आंदोलन के अत्यधिक हिंसक होने के कारण कम्युनिस्ट नेता चारू मजूमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन के कारावास के समय ही उन की कारागृह में मृत्यु हो गई. नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार हो जाने और अपने मुख्य मुद्ïदों से भटकने के कारण तंग आ कर 23 मार्च, 2010 का आत्महत्या कर ली थी.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 400 किलोमीटर दूर सुकमा है और सुकमा से 50 किलोमीटर की दूरी पर एबीबोर. यहां पर नक्सलियों के खिलाफ एक तेजतर्रार लड़ाकों की अलग कंपनियों का गठन किया गया, जिन में अधिकतर कोया जाति के थे. इसलिए इस ब्रिगेड को ‘कोया कमांडो’ नाम दिया गया था. कोया कमांडो में ऐसे युवा भी शामिल किए गए हैं, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए, जिन के परिवारों ने नक्सलियों का क्रूर दमन झेला. इस के अतिरिक्त इस अंतिम निर्णायक युद्ध में विभिन्न राज्यों के विशेषज्ञ कमांडो भी शामिल किए गए हैं, जिन में महाराष्ट्र के सी-60, तेलंगाना के ग्रेहाउंड्स और छत्तीसगढ़ के डीआरजी (डिस्ट्रिक रिजर्व गार्ड) शामिल है, जो नक्सली युद्ध में माहिर माने जाते हैं.

नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने के लिए सुरक्षा बल अब दोतरफा रणनीति अपना रहे हैं. एक तरफ करीब 10 हजार से अधिक नक्सलियों पर चारों तरफ से घेराबंदी की जा रही है तो दूसरी तरफ सुरक्षा बलों ने नक्सलियों की रसद सप्लाई (लौजिस्टिक्स) को पूरी तरह से काट दिया है, जिस के कारण नक्सली बियाबान जंगलों में कमजोर पड़ते जा रहे हैं. सुरक्षा बल अब नक्सलियों की हर गतिविधि पर नजर रखने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल कर रही हैं. इस के साथसाथ मीडियम मशीन गनों से लैस लड़ाकू हैलीकौप्टर भी नक्सली इलाके में नियमित गश्त कर रहे हैं.

नक्सलियों के लिए लाडला नक्सल योजना

वैसे ‘लाडला नक्सल आत्मसमर्पण योजना’ जैसा कोई आधिकारिक नाम नहीं है, यह नक्सल विरोधी अभियानों के तहत आत्मसमर्पण और पुनर्वास की सरकारी योजनाओं का एक अनौपचारिक नाम है. इन योजनाओं का मुख्य उद्ïदेश्य भटके हुए नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा में वापस लाना है और इस के लिए समयसमय पर सरकार द्वारा नक्सलियों को कई तरह के प्रलोभन और प्रोत्साहन दिए जाते, ताकि वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो कर अपना जीवन सुखमय व्यतीत कर सकें.

मध्य प्रदेश सरकार ने ‘मध्य प्रदेश नक्सली आत्मसमर्पण सह राहत नीति-2023’ के आदेश जारी किए हैं. नवीन नीति का मुख्य उद्ïदेश्य उन वामपंथी उग्रवादियों को मुख्यधारा में शामिल करना है, जो हिंसा का रास्ता त्याग कर स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करना चाहते हैं. इस के तहत नक्सल विरोधी अभियान में विशेष सहयोग देने वाले व्यक्ति के प्राणों की सुरक्षा को खतरा होने पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अनुमोदन से जिला पुलिस बल में आरक्षक के पद पर नियुक्त करने का प्रावधान भी किया गया है.

आत्मसमर्पणकर्ता द्वारा एलएमजी, जीपीएमजी, आरपीजी, स्नाइपर राइफल, इन के सामान और अन्य हथियार जमा कराने पर प्रति हथियार 4.5 लाख की अनुग्रह राशि प्रदान की जाएगी. एके-47/56/74 रायफल, एसएलआर, कार्बाइन, .303 रायफल जमा कराने पर प्रति हथियार 3.5 लाख रुपए की अनुग्रह राशि मिलेगी. राकेट, ग्रेनेड, हैंड ग्रेनेड, स्टिक ग्रेनेड, आईईडी, इलेक्ट्रौनिक डेटोनेटर और अन्य डेटोनेटर के जमा कराने पर प्रति नग 2 हजार रुपए की अनुग्रह राशि दी जाएगी. रिमोट कंट्रोल डिवाइस, वायरलैस सेट, सेटेलाइट फोन, वीएचएफ और एसएफ सेट जमा कराने पर प्रति डिवाइस 3 हजार रुपए की अनुग्रह राशि दी जाएगी. पिस्टल अथवा रिवौल्वर जमा कराने पर प्रति हथियार 20 हजार रुपए की अनुग्रह राशि दी जाएगी.

सभी प्रकार के विस्फोटक पदार्थों के जमा कराने पर एकमुश्त 10 हजार रुपए और सभी प्रकार के माइंस जमा कराने पर एकमुश्त 20 हजार रुपए की अनुग्रह राशि दी जाएगी. इस के अतिरिक्त आत्मसमर्पणकर्ता को घर बनाने के लिए 1.5 लाख रुपए की सहायता दी जाएगी. जीवित पति अथवा पत्नी न होने की स्थिति में आत्मसमर्पणकर्ता यदि विवाह करने का इच्छुक है तो उसे 50 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में दिए जाएंगे. संतोषजनक आचरण होने पर पुलिस अधीक्षक द्वारा प्रतिवर्ष एक लाख रुपए की राशि भी आत्मसमर्पणकर्ता को प्रदान की जाएगी. आत्मसमर्पणकर्ता को अचल संपत्ति, जमीन इत्यादि क्रय करने के लिए 20 लाख रुपए का अनुदान दिया जाएगा.

आत्मसमर्पणकर्ता की रुचि के अनुसार उसे व्यवसायिक प्रशिक्षण के लिए 1.5 लाख रुपए का भुगतान भी किया जाएगा. इस के अतिरिक्त आत्मसमर्पणकर्ता को राज्य में प्रचलित खाद्यान्न सहायता, योजना में न्यूनतम दर पर निर्धारित खाद्यान्न प्राप्त करने की पात्रता रहेगी और साथ ही आयुष्मान योजना का लाभ भी मिलेगा. आत्मसमर्पणकर्ता द्वारा किए गए जघन्य अपराधों की सुनवाई अदालत में जारी रहेगी. आत्मसमर्पणकर्ता के पूर्ववत और गुणदोष के आलोक में लोकहित में मामलादरमामला आधार पर अभियोजन वापस लेने के संबंध में राज्य शासन द्वारा अंतिम निर्णय लिया जाएगा.

महिला नक्सली सुनीता ने किया आत्मसमर्पण

मध्य प्रदेश के बालाघाट में 33 वर्ष बाद पहली बार किसी महिला नक्सली ने आत्मसमर्पण किया है. महज 22 साल की मासूम सी दिखने वाली सुनीता ओयम 3 राज्यों की मोस्टवांटेड होने के साथसाथ 14 लाख रुपए की हार्डकोर महिला नक्सली थी. जब वह मध्य प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने पहुंची तो काफी डरी और सहमी हुई थी. प्रैस कौन्फ्रैंस में बालाघाट पुलिस के एसपी आदित्य मिश्रा जब उस से सवालजवाब कर रहे थे तो वह आतंक व भय के कारण ठीक से जवाब भी नहीं दे पा रही थी. इस मासूम युवती का ब्रेनवाश करने वालों ने उसे एक दुर्दांत नक्सली बना दिया था.

मूलरूप से गांव विरमन जिला बीजापुर की रहने वाली सुनीता ओयम के पिता बिसरू ओयम भी नक्सली रहे थे. सुनीता को 2022 में दलम संगठन में भरती किया गया था. इस संगठन में कुल 20 लोग थे. बीजापुर की रहने वाली सुनीता ने केवल 6 महीने में ही अत्याधुनिक हथियारों को चलाना कुशलता से सीख लिया था. इतनी कम उम्र में इतनी सारी काबिलियत को देख कर सुनीता को जल्दी ही मलाजखंड- दर्रेकसा नक्सली संगठन का एरिया कमेटी मेंबर (एसीएस) बना दिया गया. इस के साथसाथ सुनीता को एमएमसी जोन प्रभारी रामादेर का पर्सनल सुरक्षा गार्ड की जिम्मेदारी भी दे दी गई. रामादेर के सुनीता के साथसाथ सागर नाम का एक युवक भी पर्सनल सुरक्षा गार्ड था. 3 साल के भीतर ही सुनीता ने हार्डकोर नक्सली के रूप में अपनी एक अलग पहचान बना ली थी.

पुलिस पूछताछ में सुनीता ने कई रहस्य भी उजागर किए हैं. 18 सितंबर, 2025 को बाराघाट के चौरिया जंगल में देवेंद्र नाम के युवक की हत्या नक्सलियों द्वारा मुखबिरी के शक में कर दी गई थी. सुनीता ने पूछताछ में बताया कि उन के ही दल ने इस खूनी वारदात को अंजाम दिया था. इस वारदात में रामदेर, रोहित, तुलसी, विमला, चंदू दादा, प्रेम, अखीरे और सागर गए थे. हालांकि देवेंद्र की मुखबिरी की शिकायत किस के द्वारा की गई थी, इस की जानकारी सुनीता को नहीं थी. सुनीता ओयम ने पहली नवंबर 2025 को बालाघाट में आत्मसमर्पण किया था. दिनांक 4 नवंबर 2005 को बालाघाट में पुलिस ने सुनीता से उस के मातापिता की मुलाकात कराई. सुनीता के गांव के सरपंच चन्नूलाल भी उस के मातापिता के साथ बालाघाट पहुंचे.

छत्तीसगढ़ी गोंडी भाषा को अनुवाद करते हुए सरपंच चुन्नीलाल ने पुलिस और मीडिया को बताया कि सुनीता के मातापिता अपनी बेटी के सरकार के समक्ष आत्मसमर्पण से अध्यधिक खुश हैं. सरपंच ने पुलिस को बताया कि नक्सलियों ने सुनीता को मात्र 19 साल की अवस्था में जबरन उस के घर से उठा लिया था. नक्सली संगठन ने धमकी दी थी कि यदि सुनीता को वापस दलम नहीं भेजा गया तो नक्सली उन की 2 अन्य बेटियों को भी जबरदस्ती उठा कर ले जाएंगे. मंगलवार 4 नवंबर, 2025 को 3 साल के बाद जब सुनीता अपने परिवार से मिली और अपने मातापिता को जब उस ने अपने गले लगाया तो वहां पर सुनीता के साथसाथ सभी लोगों की आंखें भी नम हो गई थीं.

सरपंच चुन्नीलाल ने बताया कि उन के गांव से कुल मिला कर 4 लोग नक्सल संगठन में गए थे, जिन में से 2 लोगों ने आत्मसमर्पण कर दिया है, जबकि 2 अन्य लोग अभी भी नक्सली संगठन में ही हैं. पूछताछ में सुनीता ओयम ने बताया कि पहली नवंबर की सुबह वह दलम से नक्सली वर्दी, इंसास रायफल सहित अन्य सामग्री ले कर पैदल ही निकल गई थी. उस ने पहले अपने हथियार और वर्दी को जंगल में गड्ढा खोद कर छिपा दिया. उस के बाद वह लांजी थाना क्षेत्र के चौरिया में हाक फोर्स में पहुंची और अपना परिचय दे कर उस ने आत्मसमर्पण की इच्छा पुलिस अधिकारियों के सामने रखी.

उसे देख कर वहां पर मौजूद सभी पुलिसकर्मी भी हैरान हो कर रह गए थे. सुनीता ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया, बाद में उस की निशानदेही पर हथियार और अन्य सामग्री बरामद की गई. सुनीता ने पुलिस को यह भी बताया कि उस का बौस रामदेर उस का निरंतर शारीरिक शोषण करता था. जबरन उस के साथ अवैध संबंध बनाता था, अब वह उसे बदनाम भी करने लगा था. सुनीता ने कहा कि रामदेर अब सभी से यह कहने लगा था कि सुनीता के दूसरे बौडीगार्ड सागर के साथ अवैध संबंध हैं.

सुनीता ने बताया कि रामदेर खुद विवाहित है और उस का शारीरिक शोषण करता था. सागर के साथ सुनीता के अवैध संबंधों की बातें पूरे संगठन में फैल चुकी थी. सभी लोग उस से तरहतरह की बातें करने लगे थे और सदैव शक की निगाहों से देखने लगे थे. एकएक दिन काटना अब सुनीता के लिए दूभर होता जा रहा था. वह रोज ही घुटघुट कर जी रही थी, इसलिए उस ने दलम छोड़ कर आत्मसमर्पण करने का अंतिम निर्णय ले लिया था.

भारी संख्या में हो रहे हैं आत्मसमर्पण

नक्सलवाद केवल एक विचारधारा का प्रश्न नहीं था. वर्ष 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से निकली इस अग्नि की लपट को विस्थापन, भूमि अधिकारों के हनन और विकास योजनाओं की उपेक्षाओं के कारण हवा मिली थी. बांध, उद्योगों के विस्तार और अवैध खनन के असीमित विस्तार ने हजारों परिवारों को उन की अपनी जमीन से बेदखल कर दिया और न्याय तक पहुंच की कमी ने उन के भीतर असंतोष और गहरी पीड़ा को जन्म दिया.

आज भी हालात पूरी तरह नहीं बदले हैं, लेकिन इन सब के बावजूद सरकार ने 2026 तक देश को पूरी तरह से नक्सलमुक्त करने का लक्ष्य रखा है. हालिया आंकड़े बताते हैं कि यह लक्ष्य अब पहले की तुलना में अधिक यथार्थवादी लगने लगा है. गृह मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2014 से 2025 तक देश भर में 8,751 ने आत्मसमर्पण किया और अब तक कुल 1,801 नक्सली सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए. Chhattisgarh News

 

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