Hindi Stories: गांव में भेड़बकरियां चराने वाली अनपढ़ वारिस के अब्बू ने 13 साल की उम्र में उस का निकाह करना चाहा तो वह घर छोड़ कर भाग गई. इस के बाद उस की जिंदगी में कैसे बदलाव आया कि आज वह रेगिस्तान का फूल बन गई है. मेरा पूरा नाम है वारिस डिरी. मेरा जन्म सन 1965 में सोमालिया के बौर्डर पर स्थित रेगिस्तानी क्षेत्र के गालकायो कस्बे के निकट एक गांव में हुआ था.
वहां बस तपती रेत के टीले थे. कोसों दूर तक पानी जैसी किसी चीज का नामोनिशान नहीं था. महीनों तक वर्षा का इंतजार करना पड़ता. लंबे इंतजार के बाद जब वर्षा होती तो बंजर रेत में संतरीपीले रंग के फूल खिलते, जिन्हें वारिस कहते हैं. इन्हीं फूलों के नाम पर मेरा नाम वारिस रखा गया था. मैं थी भी फूल सी, पर नसीब शायद कांटों भरा था. मेरा परिवार सोमालिया के ग्वालों से था. बचपन से ही मेरी परवरिश स्वतंत्र माहौल में हुई. मैं पलपल कुदरत के करीब थी. मेरी धड़कन, आवाज, अंदाज और सांसों में प्रकृति के नजारे बसे थे. हम भाईबहनों की टोली हिरन, लोमड़ी, खरगोश, जिराफ, जेबरा आदि जानवरों के साथ सुबह से ही जंगल में भागती फिरती.
जैसेजैसे उम्र बढ़ी, मैं खुशियों से महरूम होती गई. 5 वर्ष की उम्र में मुझे जिंदगी से डर लगने लगा. वैसे भी अफ्रीकी महिलाओं के लिए हर कदम पर कठिनाइयां होती हैं. महिलाएं अफ्रीकी समाज का आधार हैं. घर चलाने का बोझ उन्हीं पर होता है, पर घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय वे नहीं ले सकतीं. परिवार का ही नहीं, वे अपनी जिंदगी का भी निर्णय नहीं ले सकतीं. एक तरह से वे पुरुष समाज के हाथों की कठपुतली हैं यानी औरत की हर इच्छा, हर खुशी पर पुरुष का अधिकार है. यातनाएं, पीड़ा जैसे औरत की जिंदगी का एक हिस्सा हैं.
हमारा घर गोलाकार टेंट से ढंका हुआ था. घर के भीतर हम केवल दूध के बरतन रखते थे. घर के बाहर खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर हम सभी भाईबहन सोते थे. अब्बा हम सभी की चौकीदारी करते हुए चारपाई पर रात भर बैठे रहते थे. अब्बा 6 फुट लंबे, हट्टेकट्टे और अम्मी से भी गोरे थे. अम्मी का चेहरा एकदम रानी जैसा था. शायद इसीलिए अब्बू अम्मी पर फिदा थे. दोनों ने प्रेम विवाह किया था. अब्बू अम्मी से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. अम्मी पहले मुझे प्यार से अवडोहोल कह कर पुकारती थीं. बाद में उन्होंने मेरा नाम वारिस रखा. सच तो यह है कि अफ्रीकी महिलाओं की जिंदगी उन की टांगों के नीचे से शुरू होती है और वहीं से खत्म हो जाती है.
अफ्रीका में फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन यानी स्त्रियों की खतना करना एक ऐसी कू्रर परंपरा है, जिस का धर्म के नाम पर तमाम विकासशील देशों में भी पालन किया जा रहा है. इस कू्रर और पाशविक परंपरा का एकमात्र उद्देश्य है, स्त्री की यौन इच्छाओं को खत्म कर देना. इस परंपरा से भला मैं अछूती कैसे रह सकती थी. उस समय मैं 5 साल की थी, एक दिन मैं अपनी बड़ी बहन के साथ खेल रही थी, तभी अम्मी ने कहा, ‘‘तुम्हारे अब्बा एक आंटी को लेने गए हैं. वह आंटी हमारे घर कभी भी आ सकती हैं. तुम यहीं रहना, कहीं बाहर खेलने मत जाना.’’
अब्बा के आने से पहले अम्मी ने मेरी और बहन की खातिरदारी शुरू कर दी. अम्मी ने मुझे पहले से अधिक खाना अपने हाथों से खिलाया. हर घंटे हम दोनों को दूध पीने के लिए कहा गया. अम्मी रात भर हमें जगाजगा कर दूध पिलाती रहीं. सुबह जल्दी सब से बड़ी बहन अमन और अम्मी हम दोनों बहनों को जंगल के बीचोबीच ले गईं. 5-10 मिनट के बाद एक महिला हमारे सामने आई. उस का भयानक चेहरा देख कर मुझे डर सा लग रहा था, पर अम्मी हमारे साथ थीं, जिस से हिम्मत आ गई थी. वह हम से बोली, ‘‘यहां आ कर लेट जाओ.’’
उस अजनबी महिला की बात सुन कर कभी मैं अम्मी को देखती तो कभी उसे. हमें कतई पता नहीं था कि आगे क्या होने वाला है. उसी बीच अम्मी ने हमारे कपड़े उतार कर कहा, ‘‘अपने दोनों पैर फैला लो.’’ हम दोनों बहनों ने वैसा ही किया. अब मेरी टांगों के बीचोबीच उस महिला का चेहरा था. उस ने अपने हाथ में पकड़े रेजर में ब्लेड लगाया और अम्मी को कुछ इशारा किया. उस का इशारा समझ कर अम्मी ने अपना हाथ मेरी आंखों पर रख दिया, ताकि मैं कुछ देख न सकूं.
मैं कुछ सोचसमझ पाती, उस से पहले उस ने अपनी अंगुली में पकड़े रेजर को मेरी जांघ के नीचे ले जा कर चला दिया. मैं दर्द के मारे चीख पड़ी और फिर चीखती ही रही, लेकिन मेरी चीख सुनने वाला वहां कोई नहीं था. अम्मी को भी मुझ पर रहम नहीं आया. मेरे शरीर से मांस का टुकड़ा काट कर उस ने वहीं फेंक दिया और उस पर थूकने लगी. इस के बाद उस ने आक्यि पेड़ से लंबा सा कांटा तोड़ा और उसी कांटे के साथ सफेद धागा ले कर मेरी जांघों के बीच कटे घाव को सिलने लगी.
मेरी टांगें दर्द से सुन्न हो गई थीं. शरीर कांप रहा था. दर्द इतना भयंकर था कि मुझे जीवित रहना असंभव लग रहा था. लग रहा था कि बस अब… और अब दम निकला. घाव सिलने के बाद उस ने मेरी टांगों के बीच के हिस्से पर पट्टियां बांध दीं. सिर्फ हल्की सी जगह छोड़ दी, लघुशंका आदि के लिए. जब मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो जमीन खून से सनी हुई थी, वहीं मेरे जिस्म से कटा टुकड़ा पड़ा था.
दर्द के साथसाथ मुझे गुस्सा भी आ रहा था. मैं अम्मी के हाथों छले जाने से खफा थी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मेरी सगी मां इस दर्जे तक कैसे कू्रर हो सकती है. इस नारकीय अनुभव के बाद मुझे पता चला कि हमारे समुदाय की प्रत्येक लड़की को इस दर्दनाक और अमानवीय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, साथ ही यह भी पता चला कि यह लड़कियों के लिए अच्छा माना जाता है. तब मेरी समझ में आया कि सामाजिक रीतिरिवाजों में बंधे होने की वजह से मां भी इस परंपरा से हमें नहीं बचा सकती थीं. यह ऐसी परंपरा थी, जो हमारे समुदाय में सदियों से चली आ रही थी. एक ऐसी परंपरा, जो लड़की की प्रतिष्ठा, अच्छे चालचलन और शादी के लिए जरूरी मानी जाती थी. तभी अम्मी ने सहमी आवाज में बताया था कि इसे नारी खतना कहते हैं.
हालांकि मुझे उस वक्त तनिक भी गुमान नहीं था कि इस का मेरे यौन जीवन पर इस कदर व्यापक प्रभाव पड़ेगा कि यौन संतुष्टि मेरे लिए असाध्य हो जाएगी. यह बात तो मुझे बरसों बाद पता चली. खैर, मेरे बाद मेरी बहन के साथ भी ऐसा ही किया गया. उस का भी नारी खतना किया गया. अब मैं और मेरी बहन यह दर्द कई दिनों तक सहती रहीं, पर पीड़ा कम नहीं हुई. उस समय डाक्टरों द्वारा इलाज संभव नहीं था. हम दोनों बहनें आपस में ही दुख बांट लेती थीं, लेकिन बहन के घाव का इन्फेक्शन फैलता गया और 2 हफ्तों में उस की मौत हो गई. बहन की मौत पर मैं रो भी नहीं सकी. मैं तो सहमी हुई थी कि कहीं बहन की तरह मैं भी…
बहन को भूलना असंभव था, पर जैसेजैसे समय गुजरा, मेरे जख्म भरने लगे. मैं 13 वर्ष की हो गई. एक शाम अब्बा ने पुकारा, ‘‘बेटा, इधर तो आना.’’
अब्बा की प्यार भरी आवाज सुन कर मैं हैरान थी, क्योंकि ज्यादातर उन का स्वभाव मेरे प्रति गंभीर ही रहता था. मुझे अपनी गोद में बैठा कर वह बोले, ‘‘तुम्हें मालूम है कि तुम मेरे लिए क्या हो?’’
मैं हैरान थी.
‘‘तू मेरी बेटी नहीं, बेटा है.’’ अब्बा ने कहा.
‘‘आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’ मैं ने किसी तरह कहा.
‘‘तुम्हें भी तो अपने घर जाना है.’’ उन्होंने कहा.
‘‘नहीं अब्बा, मैं निकाह नहीं करूंगी.’’ मैं ने सहम कर कहा.
‘‘लड़कियों का अपना घर तो उन की ससुराल ही होता है. तुम्हारा निकाह कराना है, इसलिए तैयार रहना. मैं ने तुम्हारे लिए लड़का देख लिया है.’’ इस बार उन के स्वर में प्यार की जगह सख्त आदेश था.
‘‘नहींनहीं अब्बा, अभी तो मैं बहुत छोटी हूं.’’ कह कर मैं बाहर चली गई.
अगले दिन जब मैं अपने कामकाज में व्यस्त थी, तभी अब्बा ने मुझे बुला कर कहा, ‘‘देखो, कौन आया है वारिस.’’
मैं ने अब्बा के पास बैठे आदमी को देखा. मेरी तरफ उस की पीठ थी. मुझे तो सिर्फ उस के हाथ में लाठी नजर आई. करीब जाने पर उस के चेहरे की झुर्रियां मुझे दिखाई दीं. उस की उम्र 60 के आसपास थी. अपनी सफेद लंबी दाढ़ी हिलाते हुए वह बोला, ‘‘क्या हाल है तुम्हारा.’’
मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. तब अब्बा ने कहा, ‘‘वारिस, मिस्टर गालूल तुम से मिलने आए हैं.’’
मैं उस उम्रदराज गालूल को देख कर डर गई. तभी अब्बा बोले, ‘‘जाओ बेटे, चाय ले आओ.’’
मैं चाय लाने के बजाए बकरियों के साथ खेलने लगी. अगली सुबह अब्बा ने मुझे बुला कर कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारा निकाह गालूल से होने जा रहा है.’’
उन की बात सुन कर मैं ने हैरानी से कहा, ‘‘पर अब्बा… वह तो बूढ़े हैं.’’
‘‘तो क्या हुआ, उन के पास काफी जमीनजायदाद तो है. उन के मरने के बाद सब तुम्हारा ही होगा. तुम्हें सोनेचांदी में तौल देगा.’’ अब्बा ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम्हें पता है, वह हमें निकाह में 5 ऊंट देगा.’’
मैं क्या कहती. सोचने लगी कि महज 5 ऊंटों के लालच में अब्बा अपने जिगर के टुकड़े की जिंदगी नरक बनाने पर तुले हैं. दिन भर मैं अब्बा की बातों पर गौर करती रही. गालूल से निकाह के बाद मेरी जिंदगी तबाह होने वाली थी. निकाह के 10-15 सालों बाद गालूल की मौत हो जाएगी तो मैं जवानी में ही विधवा हो जाऊंगी. यही खयाल बारबार मेरे मन में आ रहा था, जिस से मेरी रातों की नींद उड़ गई. मैं उस बूढ़े से निकाह के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. मैं ने अम्मी से साफ कह दिया कि अगर मेरी शादी जबरदस्ती की गई तो मैं घर छोड़ दूंगी.
‘‘यहां से तू जाएगी कहां?’’ अम्मी ने कहा.
‘‘मोगाडिशु, अमन के पास.’’ वह मेरी बड़ी बहन थी.
‘‘चुपचाप, सो जा. तेरे अब्बा उठ गए तो गजब हो जाएगा.’’ अम्मी मेरी बात से हिल गईं. उन की बात से मैं भी सहम कर लेट गई.
बाद में शायद अम्मी को भी मुझ पर तरस आ गया. एक रात उन्होंने मुझे उठाया और गले लगा कर कहा, ‘‘बेटी, अमन के पास भाग सकती है तो भाग जा.’’
मेरे चेहरे को हाथों में भर कर अम्मी ने चूमा. पहले उन की आंखों से कुछ आंसू गिरे, फिर खुल कर रोने लगीं. बस यही लम्हा था, जब मैं ने अम्मी की तसवीर आंखों में भर कर कैद कर ली थी. मैं ने उन्हें सदा के लिए अलविदा कह दिया. मैं एक झटके से उठ कर खड़ी हो गई. मैं ने इधरउधर देखा, रसोई में न तो पानी था, न ही दूध और न ही मुट्ठी भर अनाज, जिसे मैं साथ ले जाती. मैं हड़बड़ी में नंगे पैर ही घर से निकल भागी. सिर पर भी सिर्फ स्कार्फ था. काले आसमान तले उजाले की तलाश में भागती जा रही थी. कई घंटे भागने के बाद जब सूर्य की पहली किरण नजर आई तो एक चट्टान के सहारे टेक लगा कर बैठ गई. मेरी सांसें भी मेरे पैरों की तरह थक चुकी थीं.
दोपहर तक मैं वीरान रेगिस्तान की लाल तपती रेत पर थी. दूरदूर तक अकेलापन छाया था. भूख, प्यास और थकावट अब बढ़ती ही जा रही थी. थकावट से मेरा सिर भी भारी था. आंखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था, तभी सन्नाटे को चीरती हुई चारों ओर से आवाज गूंज उठी, ‘वारिस… वारिस…’
यह मेरे अब्बा की आवाज थी. मैं थरथर कांप उठी. अब थकावट, भूख, प्यास से ज्यादा मुझे उन का खौफ छा गया कि मुझे पकड़ कर अगर वह वापस ले गए तो मेरा निकाह उस बुड्ढे के साथ होना निश्चित है. वह मुझ पर रहम नहीं करेंगे. मैं ने दूर से देखा, अब्बा रेत पर बने मेरे कदमों के निशान के सहारे आगे बढ़ रहे थे. मैं ने तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया. काफी दूर जा कर पीछे मुड़ कर देखा तो अब्बा एक पहाड़ी पर थे. उन्होंने मुझे देख लिया था. उन से बचने के लिए मैं और तेजी से भागने लगी. मैं एक पहाड़ पर चढ़ती, अब्बा दूसरे पहाड़ पर फिसलते हुए लहरों की तरह नीचे उतर जाते. घंटों तक यही सिलसिला चलता रहा. जब मुझे अब्बा की आवाज सुनाई देनी बंद हो गई, तब मेरे कदमों की गति धीमी पड़ी.
अचानक मुझे डर सा लगा कि अब्बा बस मेरे पीछे आ रहे हैं. तब पता नहीं थके हुए पैरों में जाने कहां से ताकत आ गई कि मैं फिर तेजतेज भागने लगी. सूरज डूबने तक मैं भागती रही. मैं भूख से तड़प रही थी और नंगे पैरों पर बने जख्मों से खून बहने लगा था. रात गहरा गई तो एक पेड़ के नीचे बैठ गई. वहां बैठने के बाद मुझे कब नींद आ गई, पता नहीं चला. जब नींद खुली तो दोपहर हो चुकी थी. तेज भूख लगी थी, लेकिन वहां आसपास कहीं पेट भरने का कोई इंतजाम नहीं था और न ही मेरे पास पैसे थे.
कई दिनों और कई रातों तक मैं बस किसी तरह कंठ गीले कर के प्यास और भूख मिटाती रही. एक रात मैं वीरान जंगल में थी. आधी रात के करीब मेरी आंखें उस समय खुलीं, जब कानों में शेर के दहाड़ने की आवाज पड़ी. सामने देखा, एक शेर मुझे घूर रहा था. उस की आंखें बिजली के छोटे बल्ब की तरह जल रही थीं. डर से मैं पसीने से तरबतर हो गई. उस शेर को भी शायद मेरी हालत देख कर तरस आ गया. वह उन्हीं पैरों से लौट गया, जिन से मुझे अपना शिकार समझ कर आया था. उस के जाने के बाद मैं ने राहत की सांस ली और सोचने लगी कि इंसान से ज्यादा उस जंगली जानवर में दया भाव है.
घर से भाग कर आए कई दिन बीत चुके थे. अब पलपल मुझे अम्मीअब्बा की याद सताने लगी थी. मैं अपने अतीत में खो गई कि अब्बू को इतनी कमउम्र में मेरी शादी की चिंता क्यों लग गई थी. गांव में सब से ज्यादा भेड़बकरियां हमारे पास थीं. ऊंटों का भी अच्छा कारोबार चल रहा था हमारा. हमें खिलानेपिलाने की चिंता तो अब्बा को थी ही नहीं. करीब 60 से 70 भेड़ व बकरियों को चराने की जिम्मेदारी मुझ पर थी. दूध बेचने का कारोबार अब्बा सालों से करते आ रहे थे. मेरा सारा दिन गातेगुनगुनाते भेड़ों के साथ गुजर जाता था. शाम ढले हम सभी भाईबहन जंगल में मस्ती करते हुए वापस लौट आते थे.
रास्ते में कभीकभी शेर हमारी बकरियों पर हमला कर देते और अपना शिकार जबड़ों में दबा कर ले जाते. कितनी अच्छी तरह हमारे दिन कट रहे थे. अब्बू उस बूढ़े के साथ मेरी शादी की बात न चलाते तो इस जंगल में मैं इस तरह न भटक रही होती. खैर, किसी तरह मैं मोगाडिशु पहुंच गई. मोगाडिशु हिंद महासागर के बंदरगाह से लगा खूबसूरत शहर है. वहां की गगनचुंबी इमारतें, हरेभरे पेड़ों से घिरी थीं. शहर में हर तरफ फूल खिले थे. मैं ने ऐसी हरियाली पहले कभी न देखी थी और न सुनी थी. आखिर मैं रेगिस्तान में पलीबढ़ी थी. कई हफ्ते भटकने के बाद बहन अमन के घर का पता मिला.
मुझ से मिल कर अमन बेहद खुश हुई. वह उस समय पेट से थी. आते ही मैं ने उस के घर का कामकाज संभाल लिया. कुछ महीने बाद अमन ने एक सुंदर सी बेटी को जन्म दिया. बेटी के जन्म के बाद मैं अपनी मौसी साहरू के पास जा कर रहने लगी. आखिर मैं कब तक मौसी पर बोझ बनी रहती. उन के घर के सामने एक इमारत बन रही थी, मैं वहां मजदूरी करने लगी. मौसी के यहां रहने पर मेरा अपना कोई खर्च तो था नहीं, इसलिए मैं ने अम्मी को भी पैसे भेजने शुरू कर दिए.
मेरी जिंदगी ने मौसी के घर पर ही करवट ली. एक दिन मौसी के यहां लंदन में नियुक्त सोमालिया के एंबेसडर मोहम्मद आए. वह मौसी से कोई मेड लंदन ले जाने के लिए कह रहे थे. तभी मौका देख कर मैं ने मौसी से कहा कि वह मुझे लंदन भेज दे. मोहम्मद अंकल ने अगले ही दिन मेरा पासपोर्ट मौसी के घर भेज दिया और मैं ने मौसी से रुखसत ले ली. लंदन मेरे लिए एकदम अनजान शहर था. एयरपोर्ट से उतरते ही स्नोफाल शुरू हो गई. ऐसा मनभावन दृश्य मैं ने पहले कभी नहीं देखा था. दिल खुश था, पर अकेलापन महसूस कर मैं घबराने लगी. मोहम्मद अंकल के घर पहुंची तो मैं दंग रह गई. उन का घर महल से कम नहीं था.
हफ्ते भर में मोहम्मद अंकल की पत्नी मरियम ने मुझे घर की देखरेख कैसे करनी है, समझा दिया. 4 साल तक मैं सुबह से ले कर शाम तक रसोई, बाथरूम, कमरे व बरामदे की साफसफाई में व्यस्त रही. लंदन आ कर मैं ने एक बात सीख ली थी कि यहां लोगों की जिंदगी घड़ी के साथ बंधी है. समय का महत्त्व मैं लंदन में ही समझ पाई. सन 1983 में मोहम्मद अंकल की बहन का देहांत हो गया तो उन की बेटी सुफी की जिम्मेदारी मोहम्मद अंकल पर आ गई. वह उन्हीं के यहां रहने लगी. उन्होंने उस का दाखिला आल सोल चर्च आफ इंग्लैंड प्राइमरी स्कूल में करा दिया. उसे सुबह छोड़ कर आना और दोपहर को लाने की जिम्मेदारी मेरी थी. इस तरह उस के आने पर मेरी जिम्मेदारी और बढ़ गई.
मैं सुफी को स्कूल छोड़ने पैदल ही जाती थी. उसी दौरान मैं ने महसूस किया कि अकसर स्कूल के गेट पर रोजाना एक गोरा सा आदमी मेरा इंतजार करता है. उस आदमी की उम्र करीब 40 साल थी. वह मुझे निहारता था और ऐसा लगता कि वह मुझ से कुछ कहना चाह रहा है. लेकिन किसी वजह से कह नहीं पा रहा है. एक दिन उस ने अपनी पैंट की जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर मुझे थमा दिया, पर समस्या यह थी कि मैं कार्ड पर लिखा नाम व पता नहीं पढ़ सकती थी, क्योंकि वह अंगरेजी में लिखा था. घर आ कर मरियम आंटी से पढ़वाया तो पता चला, वह एक जानामाना फोटोग्राफर माइक था.
मोहम्मद अंकल को लंदन आए 4 साल हो गए थे. उन की कार्य अवधि खत्म हो चुकी थी. अब वह परिवार सहित सोमालिया वापस जाने की तैयारी करने लगे थे. लेकिन मैं वापस सोमालिया लौटना नहीं चाहती थी. मैं लंदन में कुछ ऐसा करना चाहती थी कि शोहरत के साथसाथ पैसा भी खूब मिले. पर मोहम्मद अंकल से यह बात कैसे कहती. मोहम्मद अंकल ने सोमालिया का टिकट लाने के लिए मेरा पासपोर्ट मांगा तो मैं ने चुपके से उसे बगीचे में मिट्टी के नीचे छिपा दिया. इस वजह से केवल मेरी टिकट नहीं आई. मैं ने धोखे से सोमालिया वापस जाना टाल दिया. अंकल मेरी इस हरकत पर खफा थे, पर मैं मजबूर थी.
मोहम्मद अंकल के लौट जाने के बाद मैं ने मेक डोनाल्ड रेस्टोरेंट में साफसफाई की नौकरी शुरू कर दी. यहां मेरी कई लड़केलड़कियों से दोस्ती हो गई. मैं वहां काम कर के खुश नहीं थी. अंगरेजी न जानने की वजह से खुद को अधूरा महसूस करती थी. तब मेरी एक अजीज सहेली ने मुझे अंगरेजी सीखने में सहायता की. उसी ने मुझे उस फोटोग्राफर माइक के पास जा कर नौकरी मांगने का मशविरा दिया. मुझे उस की राय सही लगी. उस विजिटिंग कार्ड के सहारे माइक गोस स्टूडियो पहुंच गई. वह स्टूडियो माइक का ही था. मुझे इस बात का अनुमान नहीं था कि माइक मेरे चेहरे का दीवाना है. मुझे देख कर वह बेहद खुश हुआ. उस ने कहा, ‘‘मुझे इसी चेहरे की तलाश थी. तुम बेहद खूबसूरत हो. मैं तुम्हारा प्रोफाइल तैयार करना चाहता हूं. मुझे उम्मीद है कि तुम जल्द ही मौडलिंग के क्षेत्र में छा जाओगी.’’
मैं ने हां कर दी तो उस ने कहा कि प्रोफाइल तैयार करने से पहले तुम्हारे चेहरे का ट्रीटमेंट करना पड़ेगा. फिर 2 दिनों तक तीन मेकअपमैन मेरे चेहरे पर क्रीमपाउडर आदि लगा कर मालिश करते रहे. तीसरे दिन मेरा चेहरा शूटिंग के लिए तैयार था. आईने में जब मैं ने अपना चेहरा देखा तो जैसे पहचान ही नहीं सकी कि ये मैं हूं या कोई और. मैं अपने चेहरे से अनजान थी. माइक कैमरा लिए मेरा इंतजार कर रहा था. कुरसी पर बैठा कर माइक ने मेरा चेहरा घुमाया और एक के बाद एक फोटो सेशन चलते रहे.
अब मेरी जिंदगी बदल गई थी. लाइट्स, कैमरा और एक्शन के इर्दगिर्द ही मैं घूमने लगी. जब मेरा पहला पोस्टर प्रिंट हो कर आया तो मैं उसे देख कर हैरान रह गई. यानी वारिस मेड का परिवर्तन वारिस मौडल में हो गया था. माइक ने अगले कौन्ट्रैक्ट के लिए मुझे टेरींस डोनोवान नामक एक जानेमाने फोटोग्राफर के पास भेज दिया. टेरींस को पिरीलि कलैंडर के शूट के लिए अफ्रीकन लड़की की तलाश थी. टेरींस ने मुझे विस्तार से राय दी कि वह मेरे किस तरह के फोटो लेना चाहता है. उस ने अगले दिन आने को कहा. अगले दिन मैं उन के स्टूडियो गई. इस के बाद मेरे मौडलिंग कैरियर की शुरुआत हो गई.
दिन पर दिन मैं पेरिस, मिलान और न्यूयार्क के प्रोजेक्ट करने लगी. पैसे के साथसाथ मेरी जिंदगी भी तेजी से दौड़ रही थी. काफी नामी एजेंसियों ने मुझ से संपर्क बनाए. अब तो सड़क, टीवी, मालों, शौपिंग कौंपलेक्स में मेरे ही पोस्टर थे. रेवलान कंपनी ने भी मुझे अपनी कैंपेनिंग के लिए चुना. मेरी ग्लैमर तसवीर के साथ लिखा था, ‘अफ्रीका के दिल से निकली, दिल को छू जाने की महक, जो आप को दीवाना बना देगी.’
मेरी तसवीरें वोग मैग्जीन के इटैलियन, ब्रिटिश और अमेरिकन संस्करणों के अलावा ग्लैमर नाम की मैग्जीनों में छा गईं. मेरी सफलता का राज था, मेरे बचपन के जख्म. जो मुझे हर पल सताते रहते थे और मेरे चेहरे पर संजीदगी ला देते थे. एक छोटे से जख्म ने मुझे सभी से अलग कर दिया था. अब मेरे पास पैसों की कोई कम नहीं थी. ऊपरी तौर पर मैं सामान्य लड़की थी, लेकिन मुझे एक समस्या से जूझना पड़ रहा था. मुझे पेशाब की क्रिया में 10 मिनट का इंतजार करना पड़ता था, मासिक धर्म के दौरान तो हफ्तों तक मैं बिस्तर पकड़ लेती थी. यह सब खतना के जख्मों का दर्द था.
दर्द बढ़ने पर मैं ने कई डाक्टरों से संपर्क किया, लेकिन डाक्टर मेरी भाषा नहीं समझ पाते थे, इसलिए मैं उन्हें अपना दर्द समझा नहीं पाती थी. 4-5 डाक्टर बदलने के बाद एक डाक्टर माइकल से मिली. माइकल भी मेरी भाषा नहीं समझ पा रहे थे. उन्होंने अपने ही अस्पताल में नौकरी करने वाले एक ऐसे शख्स को बुलाया, जो सोमाली भाषा जानता था. उस व्यक्ति ने दुभाषिए का काम किया. उस के द्वारा मैं ने अपने दिल का दर्द डाक्टर को बता दिया. इस के बाद डा. माइकल मेरी तकलीफ समझ गए. उन्होंने मेरी जांच की और 3 हफ्ते में उन्होंने मेरी तकलीफ दूर कर दी.
सन 1995 में बीबीसी चैनल ने मेरी जिंदगी पर एक डाक्युमेंट्री बनाने का प्रस्ताव मेरे सामने रखा. मैं ने इस के लिए हां कर दी, लेकिन मैं ने डाइरेक्टर गिरी पोमिरो को एक सुझाव दिया. मैं ने सोमालिया जाने का प्रस्ताव रखा कि अगर वह मेरी फिल्म मेरे ही देश सोमालिया में जा कर फिल्माएं तो यह और बेहतर होगा. उन्हें मेरी यह राय पसंद आ गई.
गिरी पोमिरो मेरे साथ सोमालिया पहुंच गए. वहां पहुंचते ही मेरी पुरानी यादें फिर से ताजा हो गईं. चूंकि मैं काफी सालों बाद सोमालिया लौटी थी, इसलिए सब से पहले अपनी अम्मी से मिलना चाहती थी. मुझे देख कर तमाम महिलाएं मेरी अम्मी होने का दावा करने लगीं. भला मैं अपनी अम्मी को कैसे भूल सकती थी. उन में से कोई भी मेरी अम्मी नहीं थी. गिरी भी मेरे साथ परेशान हो रहे थे. तभी गिरी ने मुझ से पूछा, ‘‘तुम्हारी मां तुम्हें किस नाम से पुकारती थीं?’’
‘‘अवडोहोल कह कर बुलाती थीं.’’ मैं बोली.
‘‘तो फिर तुम हर महिला, जो तुम्हें मां जैसी लग रही हो, उस से यही सवाल कर सकती हो.’’ वह बोले.
मैं ने ऐसा ही किया, लेकिन यह तरीका भी कामयाब नहीं रहा. अफसोस तो यह था कि मुझे अपने परिवार से मिले बिना ही वापस वियना लौटना पड़ा. अगली बार डाइरेक्टर गिरी ने पहले से ही कई व्यक्तियों को मेरी अम्मी को ढूंढने के लिए लगा दिया था. थोड़ाबहुत अंदाजा होने से मैं और डाइरेक्टर गिरी हेलीकौप्टर से गालाकायो कस्बे पहुंचे. हेलीकौप्टर की आवाज सुन कर गांव वालों की भीड़ जमा हो गई. अब मुझे मिट्टी की वही महक आने लगी. मैं सोचने लगी कि यहीं कहीं मेरी अम्मी मिल जाएं. मैं बारबार अपनी मिट्टी को हाथ में ले कर चूमने लगी. मिट्टी की सुगंध पहले जैसी ही थी. बदली थी तो बस मेरी जिंदगी.
गालाकायो कस्बे में घरघर जा कर मैं अम्मी की तलाश में भटकने लगी. तभी एक बुजुर्ग मेरे पास आ कर खडे़ हो गए. उन्होंने कहा, ‘‘क्या तुम ने मुझे पहचाना बेटी?’’
मैं ने ना में गरदन हिला दी.
‘‘चलो, कोई बात नहीं. मैं ही बताए देता हूं कि मैं इस्माइल हूं. तुम्हारे चाचा का बेटा.’’
मुझे यह सुन कर शरम सी आने लगी कि मैं अपने ही परिवार वालों को नहीं पहचान पाई.
‘‘मैं जानता हूं कि इस समय तुम्हारी अम्मी कहां रह रही हैं.’’
उस की बात सुन कर मेरी बेचैनी बढ़ गई.
मैं ने तुरंत कुछ रुपए निकाल कर उस की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘‘यह लो और जल्दी से जल्दी मुझे वहां ले चलो.’’
‘‘तुम अभी यहीं रहो. पहले मुझे तो सोचने दो कि उन का गांव कहां पड़ेगा. उधर मुझे ट्रक से जाना पड़ेगा.’’ यह कह कर इस्माइल ट्रक पर बैठ गया.
इस्माइल को गए 3 दिन गुजर गए. उस का कोई समाचार नहीं मिला. मेरे मन में यही विचार आ रहा था कि दूसरी बार भी अम्मी से मिलने का मौका मिलेगा भी या नहीं? मुझ से ज्यादा तो डाइरेक्टर गिरी मेरी अम्मी से मिलने के लिए आतुर थे, क्योंकि अम्मी के बिना उन की फिल्म अधूरी रहती.
जब इस्माइल के बारे में भी कोई खबर नहीं मिली तो गिरी ने हार मान ली.
‘‘ठीक है.’’ मैं ने भी मायूसी से कह दिया.
हम ने वापस लौटने की तैयारी कर ली. हम घर से निकलने ही वाले थे कि सुबह 6 बज कर 10 मिनट पर इस्माइल लौट आया. उसे देखर कर गिरी दौड़ेदौड़े मेरे पास आए. उन्होंने कहा, ‘‘वारिस, देखो कौन आया है?’’
मैं ने देखा, सामने मेरी जननी खड़ी थी. अम्मी पहले जैसी ही थीं. सिर पर पल्ला, गोल चेहरा, माथे पर परेशानी. उन्हें देखते ही मैं चीख पड़ी, ‘‘हां, यही हैं मेरी अम्मी.’’
मुझे देख कर अम्मी चौंक पड़ीं. मैं संपन्न दिख रही थी, इसलिए उन्होंने मुझ से एकएक बात आराम से पूछी. मसलन मैं कहां रहती हूं, क्या करती हूं, कैसे अमीर बन गई, आदि. मैं ने उन्हें सब कुछ बता दिया.
अम्मी के साथ मैं घर गई. घर पहुंच कर देखा कि अब्बा अभी भी वही काम कर रहे थे. 2 किलोमीटर दूर से पानी भर कर लाना, बकरियों को चराना, ऊंटों को घुमाना और दूध बेचना. उन की नजर कमजोर हो गई थी. मुझे भी वह बड़ी मुश्किल से पहचान पाए. मेरा भाई भी बड़ा हो चुका था. वह शादी लायक था. उन सब को देख कर मैं बड़ी खुश हुई. गालकायो कस्बे में ही हम ने रात गुजारी. पहले की तरह ही खुले आसमान के नीचे. वही खुशी, वही तसल्ली थी अम्मी की गोद में. मैं चाहती थी कि अम्मी को अपने साथ ले जाऊं, पर वह मेरे साथ चलने के लिए राजी नहीं थीं. विदाई के समय मैं अम्मी से गले लग कर खूब रोई. अब्बा को नई ऐनक भेजने का वादा कर के मैं उन्हें फिर से छोड़ कर चल दी.
वापस वियना लौट कर मेरा कैरियर बुलंदियों पर था. अम्मी ने मुझ से जल्द ही शादी करने को कहा था. मुझे उन का कहा भी मानना था, पर मैं उस मौके की तलाश में थी कि मुझे भी कोई चाहने वाला मिले. म्युजिक वीडियो बनाते समय सन 1995 में मेरी मुलाकात डाना मुराए से हुई. डाना मुराए न्यूयार्क में जाज क्लब में ड्रर्मर था. पहली ही मुलाकात में उस ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा और मैं ने भी हां कर दी. जल्दी ही हमारी शादी हो गई. 13 जून, 1997 को मैं ने एक बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम मैं ने अलीकी रखा. अलीकी के आने से मैं अपने रहेसहे गम भूल गई.
सन 1997 में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान ने मुझे स्पैशल एंबेसेडर फार एलिमिनेशन औफ फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन के लिए चुना. अब मेरे सामने अपना परिवार है, एक कैरियर है, एक मिशन है. मैं अब उस परंपरा के खिलाफ संघर्षरत हूं, जिस का दंश मैं ने झेला था. मैं नहीं चाहती कि कोई और वारिस इस धरती पर उस दर्द को झेले. मेरे जीवन पर डिजर्ट फ्लावर यानी रेगिस्तान का फूल नाम की एक फिल्म भी बनी. अगर मैं अन्य लड़कियों की तरह अपनी सीमित सोच में रहती और मुश्किलों से संघर्ष नहीं करती तो शायद इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाती, जो मुझे मिला है. Hindi Stories






