इंसाफ की राह : किस की थी वो दुआ? – भाग 6

अली भाई की भी हालत खराब थी. वे अली भाई को ले कर अंदर पहुंचे तो जज अपनी सीट पर बैठे थे. उन्होंने इफ्तिखार अहमद की ओर देख कर पूछा, ‘‘आप की बच्ची घर पहुंच गई?’’

‘‘जी सर, लेकिन अगवा हुई बच्ची मेरी नहीं थी. सिर्फ उस का नाम दुआ था.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.

‘‘लेकिन आप ने तो कहा था कि वह बच्ची आप की थी?’’ जज ने हैरानी से कहा.

‘‘जी सर, जब मुझे पता चला कि मेरी बेटी दुआ का अपहरण कर लिया गया है और वह बेरहम अपराधियों के हाथों में है तो मैं परेशान हो उठा. उसे सकुशल छोड़ने के लिए मुझ से कहा गया कि मैं अली भाई की जमानत में रुकावट न डालूं. आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि उस समय मेरी क्या हालत हुई होगी. लेकिन जब उन लोगों ने दुआ से मेरी बात कराई तो मुझे पता चल गया कि वह मेरी बेटी दुआ नहीं है .

‘‘क्योंकि मेरी दुआ हकलाती है. वह साफ नहीं बोल पाती, जिस का इलाज चल रहा है. जबकि उस बच्ची ने मुझ से साफ लहजे में बात की थी. उसी से मैं समझ गया था कि अपहर्ताओं ने गलत बच्ची को उठा लिया है.

सच्चाई जान कर भी मेरे जमीर ने ये गंवारा नहीं किया कि मैं अपनी कामयाबी के लिए एक मासूम को बलि चढ़ा दूं. दूसरी ओर मैं यह भी नहीं चाहता था कि अहम मुकदमे का जालिम गुनहगार छूट जाए.’’ इफ्तिखार अहमद ने पूरी बात एक ही सांस में कह दी.

‘‘बच्ची का अपहरण किन लोगों ने किया था?’’ जज ने पूछा.

‘‘अपहरण करने वाले अली भाई के आदमी थे.’’

‘‘आप ने उन्हें देखा था?’’

‘‘नहीं सर, आते समय कोर्ट के बाहर वाली लालबत्ती पर एक भिखमंगे ने मुझे एक मोबाइल फोन दिया था. उसी से अपहर्त्ताओं ने मुझे अपहरण की जानकारी दी थी.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.

‘‘ऐसे में आप कैसे कह सकते हैं कि वे अली भाई के आदमी थे?’’ जज ने पूछा.

‘‘क्योंकि उन्होंने मुझे अली भाई की जमानत में रुकावट न डालने के लिए कहा था. उन की बात न मानने पर उन्होंने बच्ची को मार देने की धमकी दी थी.’’

‘‘यह सरासर झूठ है, एक तरह से अली भाई के खिलाफ साजिश है.’’ अली भाई का वकील चीखा.

जज ने उसे घूरते हुए गुस्से से कहा, ‘‘अभी आप खामोश रहें, आप से भी पूछा जाएगा.’’

‘‘यह सच है सर, इस का सुबूत यह है कि जिस बच्ची का अपहरण हुआ था, वह मेरे घर में मौजूद है, क्योंकि अली भाई की जमानत मंजूर होने के बाद अपहर्त्ता उसे मेरे घर के सामने छोड़ गए थे.’’ इफ्तिखार अहमद ने खुलासा किया.

‘‘सर, यह मेरे मुवक्किल के खिलाफ साजिश रची गई है.’’ अली भाई के वकील ने एक बार फिर जोर लगाया.

‘‘जी सर, इस मामले में मुलजिम की जमानत का कोई चांस नहीं था, क्योंकि वह दर्जनों बेगुनाह लोगों का कातिल है. इसलिए इन के साथियों ने मेरी बेटी ‘दुआ’ के अपहरण की साजिश रची. मगर अपहर्त्ताओं ने गलती से मेरी बेटी ‘दुआ’ की जगह दूसरी बच्ची का अपहरण कर लिया. ऐसा शायद नाम की वजह से हुआ, क्योंकि उस का भी नाम दुआ था.’’

‘‘जब वह आप की बेटी नहीं थी तो आप ने अपहर्त्ताओं की बात क्यों मानी?’’ जज ने पूछा.

‘‘सर, वह भले मेरी दुआ नहीं थी, लेकिन किसी न किसी की तो दुआ थी. वह भी उस से उतना ही प्यार करता होगा, जितना मैं अपनी दुआ से करता हूं. मैं ने आप से मदद भी बहुत हिम्मत कर के मांगी थी. अगर उस बच्ची को कुछ हो जाता तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाता. मुझ पर आप का एहसान है, जिस की वजह से बच्ची मेरे घर में महफूज है.’’

अब तक अली भाई के वकील ने खुद को काफी हद तक संभाल लिया था. उस ने कहा, ‘‘सर, इस बात का क्या सुबूत है कि यह काम अली भाई ने करवाया था?’’

‘‘सुबूत है सर, अली भाई की जेब में वह मोबाइल फोन मौजूद है, जिस पर अपहर्त्ताओं ने मुझ से बात की थी. मुझे वह नंबर भी याद है, जिस नंबर से उन्होंने फोन किया था. उस नंबर को मोबाइल में देखा जा सकता है. यही नहीं, जब फोन करने वाला पकड़ा जाएगा तो खुद ही सारी कहानी सुना देगा.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.

इफ्तिखार अहमद की दलीलें सुन कर अली भाई का चेहरा उतर गया. उन का हाथ जेब तक जाता, उस से पहले ही एक पुलिस वाले ने उन की जेब से वह मोबाइल फोन निकाल कर जज के सामने रख दिया. जज ने मोबाइल फोन का काल लौग चैक किया तो इफ्तिखार अहमद द्वार बताए फोन नंबर से उस पर फोन आए थे.

इस के बाद सारा मामला खुल गया. जज ने नाराज होते हुए कहा, ‘‘अली भाई, तुम शरीफ आदमी के रूप में शातिर अपराधी हो. तुम्हें सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए. मैं देखता हूं, तुम कैसे बचते हो?’’

हुआ यह था कि इफ्तिखार अहमद ने मुकदमे की फाइल में संक्षेप में सारी स्थिति लिख कर जज के सामने पेश कर दी थी. जज ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए फौरन ऐक्शन लिया और अली भाई की जमानत मंजूर कर ली. लेकिन जमानत की रकम इतनी ज्यादा रख दी कि उस की व्यवस्था करने में समय लगे.

इस के बाद इफ्तिखार अहमद की कोशिश पर अली भाई ने अपने आदमियों से बच्ची को उस के घर पहुंचाने के लिए कह दिया. उन के वकील ने ऐतराज किया, लेकिन अली भाई को यकीन हो गया था कि अब उस की जमानत हो चुकी है, इसलिए कोई कुछ नहीं कर सकता. यही सोच कर उस ने अपना फैसला नहीं बदला.

बच्ची के रिहा होते ही जज की ओर से बुलाए गए सीआईडी वालों ने मामला संभाल लिया.

एक टीम इफ्तिखार अहमद के घर पहुंच गई. मदीहा ने पति से पूछ कर बच्ची को उन के हवाले कर दिया. उसी बीच स्कूल की प्रिंसिपल और बच्ची के मांबाप भी वहां पहुंच गए तो बच्ची उन्हें सौंप दी गई.

एकएक खबर जज तक पहुंच रही थी. इस के बाद जज के आदेश पर इलाके के थाने में इस अपहरण की भी अली भाई और उस के साथियों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट दर्ज की गई. इस तरह अली भाई के खिलाफ एक और मामला दर्ज हो गया. अदालत से उसे सीधे जेल भेज दिया गया.

अली भाई के आदमी खूंखार नजरों से इफ्तिखार अहमद को घूर रहे थे. उन्होंने जज से कहा, ‘‘सर, मैं ने तो अपना फर्ज पूरा किया, लेकिन मुझे अली भाई के आदमियों से खतरा महसूस हो रहा है, अगर मुझे या मेरे परिवार के किसी सदस्य को कुछ हुआ तो इस का जिम्मेदार अली भाई होगा.’’

जज ने इफ्तिखार अहमद को तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल चिंता न करें. आप की पूरी हिफाजत की जाएगी.’’

पूरी तरह आश्वस्त और खुश हो कर इफ्तिखार अहमद बाहर आए तो मीडिया वालों ने उन्हें घेर लिया.

जब सभी चैनलों पर यह दिखाया जा रहा था कि एडवोकेट इफ्तिखार के साथ क्या हुआ और उन्होंने इस मुश्किल का कैसे मुकाबला किया तो लाखों लोगों के साथ नन्ही दुआ भी अपने पापा को टीवी स्क्रीन पर देख कर खुश हो रही थी.

इंसाफ की राह : किस की थी वो दुआ? – भाग 5

जज के इस फैसले से परेशान अली भाई ने अपने वकील को बुला कर कुछ कहा तो वह फोन करने लगा. मीडिया वाले इस ब्रेकिंग न्यूज को अपने चैनलों तक पहुंचाने के लिए भागे. पीडि़त इफ्तिखार अहमद को बुराभला कह रहे थे, ‘‘आप ने हमारा बेड़ा गर्क कर दिया. हमें कतई यकीन नहीं था कि आप ऐसा करेंगे. मरने वालों की जो इंसाफ की गुहार ले कर हम आप के पास आए थे, वह बेकार चली गई.’’

इफ्तिखार अहमद ने एक सर्द आह भरी. मुकदमा करने वाले गुस्से से बड़बड़ाते चले गए. इस के बाद इफ्तिखार अहमद ने अली भाई के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘अली भाई, आप का काम हो गया, अब आप मेरी बच्ची को छोड़ दें.’’

अली भाई ने हैरानी से अपने वकील की ओर देखते हुए कहा, ‘‘वकील साहब, यह किस बच्ची की बात कर रहे हैं?’’

‘‘पता नहीं सर, शायद आज इन की तबीयत ठीक नहीं है.’’ अली भाई के वकील ने इफ्तिखार अहमद का मजाक उड़ाते हुए कहा.

‘‘अली भाई, आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैं किस बच्ची की बात कर रहा हूं. आप की जमानत हो गई है. अब आप अपने आदमियों से कहें कि मेरी बच्ची को छोड़ दें, अन्यथा मैं इस मामले को कहीं और ले कर जाऊंगा. इफ्तिखार अहमद ने गुस्से से कहा.’’

‘‘आराम से वकील साहब. इतनी जल्दी क्या है? जमानत तो हो जाने दीजिए.’’ अली भाई ने कहा.

‘‘मैं अब पलभर सब्र नहीं कर सकता. वैसे भी छुट्टी होने का समय हो गया है. अगर बच्ची समय पर घर नहीं पहुंची तो मेरी बीवी फौरन स्कूल फोन करेगी. वहां से पता चलेगा कि बच्ची स्कूल पहुंची ही नहीं तो वह मुझे फोन करेगी. मेरा मोबाइल फोन गाड़ी में पड़ा है. मुझ से बात नहीं होगी तो वह पुलिस को फोन करेगी. मेरी बात समझ में आ रही है न?’’ इफ्तिखार ने इतनी सारी बात एक सांस में कह डाली.

अली भाई सोच में पड़ गया. शातिर आदमी था, इसलिए समझ गया कि अगर मामला खुल गया तो जमानत रद्द हो जाएगी. उस पर एक मामला और बन जाएगा. पौने 12 बज रहे थे. 1 बजे छुट्टी होती थी. सवा बजे बच्ची को घर पहुंच जाना चाहिए.

अली भाई ने धीरे से कहा, ‘‘तुम अपनी बीवी को फोन करो कि वह सब्र करे, बच्ची घर पहुंच जाएगी.’’

‘‘वह पल भर भी सब्र नहीं कर सकती. वह तुरंत अपने भाई डीएसपी सफदर खान को फोन करेगी. वह एंटी टेररिस्ट स्क्वायड में हैं, आप ने उन का नाम सुना ही होगा? मुझ पर एकएक पल भारी पड़ रहा है. अगर मैं ने सब्र खो दिया तो आप की जमानत पर होने वाली रिहाई रद्द हो जाएगी.’’

इफ्तिखार अहमद का इतना कहना था कि अली भाई और उन का वकील परेशान हो गया. आपस में थोड़ी खुसरफुसुर कर के अली भाई ने कहा, ‘‘ठीक है, 1 बजे बच्ची को घर के दरवाजे पर छोड़ दिया जाएगा.’’

उन के वकील ने कहा, ‘‘सर, अभी जमानत की रकम आने में एक घंटा है.’’

अली भाई ने कहा, ‘‘अब कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

इफ्तिखार अहमद ने भिखमंगे द्वारा दिया गया मोबाइल फोन निकाल कर अली भाई को देते हुए कहा, ‘‘आप की अमानत है. मैं ने अपना काम कर दिया. अब मुझे इजाजत दें.’’

अली भाई ने कहा, ‘‘ठीक है, आप जा सकते हैं, लेकिन एक बजे से पहले नहीं.’’

मीडिया की दखलंदाजी रोकने के लिए अदालत में ज्यादा लोग अली भाई के ही होते थे. एक बजते ही इफ्तिखार अहमद अपनी कार की ओर भागे. कार में बैठ कर तुरंत मदीहा को फोन किया. लेकिन दूसरी ओर से फोन नहीं उठा.

तभी किसी ने उन की कार का शीशा ठकठकाया. उन्होंने उस की ओर देखा तो उस ने शीशा खोलने का इशारा किया. उन्होंने कार का शीशा नीचे किया तो उस ने पूछा, ‘‘आप की बच्ची घर पहुंच गई?’’

‘‘यही पता करने के लिए तो घर फोन कर रहा हूं, लेकिन फोन ही नहीं उठ रहा.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.

‘‘जैसे ही बच्ची के घर पहुंचने की जानकारी आप को हो, आप कार से बाहर आ कर इस की छत पर 2 बार हाथ पटक दीजिएगा.’’ इतना कह कर वह आदमी तेजी से चला गया.

इफ्तिखार अहमद ने घर फोन किया तो इस बार मदीहा ने फोन रिसीव कर लिया. उन के ‘हैलो’ करते ही इफ्तिखार अहमद  ने गुस्से से पूछा, ‘‘इतनी देर तक कहां थी? दुआ घर आ गई?’’

‘‘हां, दुआ तो घर आ गई है, लेकिन एक अजीब बात है.’’

‘‘दूसरी बच्ची कहां है?’’ इफ्तिखार अहमद ने जल्दी से पूछा.

‘‘इस का मतलब आप जानते हैं?’’ मदीहा ने हैरानी से पूछा.

‘‘तुम उस बच्ची को भी अंदर कर के दरवाजा ठीक से बंद कर लो. जब तक मैं न आऊं, दरवाजा बिलकुल मत खोलना. स्कूल फोन कर के उस बच्ची के बारे में बता दो, लेकिन बच्ची को किसी को देना मत.’’ जल्दी जल्दी इफ्तिखार अहमद ने पूरी बात समझा दी.

‘‘क्या बात है, कोई खतरा है क्या?’’ मदीहा ने पूछा.

‘‘मैं घर आ कर सब बताता हूं, अभी जितना कहा है, बस उतना करो.’’

कह कर इफ्तिखार अहमद सुकून से बाहर निकले और कार की छत पर 2 बार हाथ मार कर अदालत की ओर रवाना हो गए. रजिस्ट्रार के कमरे में जमानत की काररवाही चल रही थी. अली भाई बरामदे में खड़े थे, तभी कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया.

वे किसी तरह की वर्दी में नहीं थे, इसलिए उन के वकील ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो? अली भाई की जमानत हो चुकी है?’’

‘‘जमानत तो हो चुकी थी, लेकिन जमानत देने वाले जज ने उसे रद्द कर के मुलजिम को अदालत में ले आने के लिए कहा है.’’ उन में से एक आदमी ने कहा.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’ वकील ने ऐतराज जताया.

वे लोग पुलिस की मदद से अली भाई को ले कर अदालत की ओर बढ़े तो उन का वकील पीछेपीछे लपका. वह उन लोगों को समझाने लगा, लेकिन उन लोगों ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया.

इंसाफ की राह : किस की थी वो दुआ? – भाग 4

इफ्तिखार अहमद का खून खौल रहा था. लेकिन उस समय वह पूरी तरह से मजबूर थे. अपनी जगह पर बैठ कर वह मुकदमे की फाइल देखने लगे. ठीक 11 बजे जज ने सीट संभाली. अली भाई के वकील ने खड़े हो कर कहा, ‘‘सर, मैं अलीभाई की जमानत की अर्जी देना चाहता हूं.’’

जज ने एकदम से कहा, ‘‘अभी तो जुर्म पर बहस होनी है. उस के बाद ही जमानत की अर्जी दी जा सकती है.’’

वकील जल्दी से बोला, ‘‘सर, बहस होती रहेगी, आप अर्जी तो ले लीजिए. मेरा मुवक्किल 70 साल का बूढ़ा और बीमार आदमी है. वह समाज का एक सम्मानित आदमी है. ऐसे आदमी को जमानत मिल जानी चाहिए. जनाब वकील इस्तगासा को भी इस जमानत पर कोई ऐतराज नहीं है.’’

बचाव पक्ष के वकील की इस बात पर वहां मौजूद लोग हैरान रह गए. जज को भी हैरानी हुई. उन्होंने इफ्तिखार अहमद की ओर देख कर कहा, ‘‘मि. इफ्तिखार अहमद, सचमुच आप को इस अर्जी पर कोई ऐतराज नहीं है?’’

सकुचाते हुए इफ्तिखार अहमद खड़े हुए, ‘‘जी नहीं सर, मानवीय आधार पर मुझे कोई ऐतराज नहीं है.’’

जज हैरानी से इफ्तिखार अहमद को देखते रह गए. इस के बाद उन्होंने अली भाई के वकील से कहा, ‘‘ठीक है, आप जमानत की अरजी दे दीजिए.’’

इस के बाद मुकदमा करने वालों में से एक आदमी ने इफ्तिखार अहमद के पास आ कर कहा, ‘‘वकील साहब, आप यह क्या कर रहे हैं? जमानत पर छूटते ही यह आदमी गायब हो जाएगा, आप ऐतराज करें.’’

इफ्तिखार अहमद ने झुंझला कर कहा, ‘‘आप लोग परेशान मत हों, ऐसा कुछ नहीं होगा. मुझे मेरा काम करने दें.’’

अरजी लगते ही बचाव पक्ष के वकील में जोश सा आ गया. अब वह अली भाई की जमानत के लिए तरह तरह की दलीलें देने लगा. परेशान हो कर जज ने कहा, ‘‘पहले जुर्म तय हो जाने दो, उस के बाद जमानत पर विचार किया जाएगा.’’

इस पर वकील ने ढिठाई से कहा, ‘‘जनाब, दोनों मामले साथसाथ भी तो चल सकते हैं.’’

जज ने इफ्तिखार अहमद से पूछा, ‘‘इस बारे में आप का क्या विचार है वकील साहब?’’

इफ्तिखार अहमद ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘मेरे खयाल से वकील साहब ठीक ही कह रहे हैं.’’

जज ने खीझ कर कहा, ‘‘दोनों मामले साथसाथ कैसे चल सकते हैं? पहले छोटे मोटे कर्मचारियों पर आरोप लगा. दोबारा मामले की जांच कराई गई तो अली भाई और उन के साथी इस मामले में फंस गए. जब तक अपराध तय नहीं हो जाता, जमानत पर बात कैसे हो सकती है?’’

अली भाई के वकील ने बीमारी, उम्र, हैसियत, पिछला रिकौर्ड, सामाजिक कार्यों के उदाहरण दे कर उस ने जमानत की अरजी एक बार फिर जज के सामने पेश की तो जज ने इफ्तिखार अहमद से पूछा, ‘‘आप इस जमानत के लिए राजी हैं?’’

‘‘जी सर, मुलजिम की उम्र, बीमारी और हैसियत को देखते हुए मुझे इन की जमानत होने में कोई ऐतराज नहीं है, बल्कि समर्थन में मैं ने कुछ पौइंट्स लिख रखे हैं, जिन्हें मैं आप की खिदमत में पेश करना चाहता हूं.’’ इफ्तिखार अहमद ने सुकून से कहा.

‘‘इजाजत है, आप पेश कर सकते हैं.’’ जज ने कहा. इफ्तिखार अहमद ने मुकदमे की फाइल खोल कर जज के सामने रखते हुए कहा, ‘‘सर, ये कुछ पौइंट्स हैं, इन्हें देख कर यकीनन आप मेरी बात से सहमत हो जाएंगे कि मुलजिम की जमानत से मुकदमे पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’’

एक नजर इफ्तिखार अहमद पर डाल कर जज फाइल पढ़ने लगे. फाइल पढ़ते हुए उन का चेहरा भावशून्य रहा. इफ्तिखार अहमद, अली भाई का वकील और मुकदमा करने वालों की नजरें जज पर टिकी थीं कि वह क्या कहने वाले हैं.

फाइल पढ़ने के बाद जज ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘इफ्तिखार अहमद, आप के पौइंट्स काबिलेगौर हैं. अदालत इन्हीं पौइंट्स को ध्यान में रख कर जमानत की अरजी पर विचार करेगी.’’

इफ्तिखार अहमद के साथ बचाव पक्ष के वकील ने भी सुकून की सांस ली. सिर्फ मुकदमा करने वाले परेशान थे. अली भाई मुसकरा रहा था. उन का वकील जमानत के लिए दलीलें दे रहा था. इफ्तिखार अहमद ने एक बार भी ऐतराज नहीं किया.

करीब 12 बजे थोड़ी देर के लिए अदालत को स्थगित कर के जज अपने चैंबर में चले गए. मुकदमा पूरी तरह अली भाई के पक्ष में हो गया था. जज के आते ही मुकदमा करने वाले लोग इफ्तिखार अहमद के पास आ कर कहने लगे, ‘‘वकील साहब, आप यह क्या कर रहे हैं? लगता है, आप अली भाई से मिल गए है?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप लोग बिलकुल चिंता न करें. अगर उसे जमानत मिल भी गई तो वह सजा से नहीं बच पाएगा.’’

जब वे लोग बहस करने लगे तो तबीयत खराब होने का बहाना कर के इफ्तिखार अहमद आगे बढ़ गए. वह उन्हें कैसे समझाते कि एक बच्ची की जिंदगी का सवाल है.

10 मिनट बाद ही जज आ कर अपनी सीट पर बैठ गए. आगे की काररवाही शुरू हुई. वकील सफाई ने जमानत की बात की तो जज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘इस्तगासा वकील की ओर से ऐतराज न होने की वजह से अदालत अली भाई की जमानत की अरजी 50 करोड़ रुपए की निजी जमानत पर मंजूर करती है.’’

जमानत की बात सुन कर अली भाई और उन के वकील के चेहरे पर जो खुशी उभरी थी, 50 करोड़ रुपए की बात सुन कर लुप्त हो गई. वकील ने झट कहा, ‘‘सर, जमानत की रकम बहुत ज्यादा है.’’

‘‘कोई ज्यादा नहीं है. अली भाई की प्रौपर्टी, कंपनियां, शेयर्स वगैरह मिला कर 10 अरब से ज्यादा की संपत्ति है. उस पर 50 करोड़ रुपए की जमानत कोई ज्यादा नहीं है.’’ जज ने सोच समझ कर जवाब दिया.

‘‘सर, जमानत की रकम बहुत ज्यादा है. इस में कुछ समय लगेगा.’’ अली भाई के वकील ने बेबसी से कहा.

जज ने तुरंत कहा, ‘‘इस हालत में जमानत पर रिहाई अगली पेशी तक के लिए मुल्तवी की जा सकती है.’’

‘‘नहीं… नहीं सर, जमानत की रकम का बंदोबस्त जल्दी ही हो जाएगा.’’ वकील ने कहा.

‘‘जब तक जमानत की रकम जमा नहीं की जाती, मुलजिम अली भाई पुलिस की निगरानी में रहेगा. जमानत की रकम जमा होने के बाद ही उसे रिहा किया जाएगा.’’ कह जज साहब उठे और अपने चैंबर में चले गए.

इंसाफ की राह : किस की थी वो दुआ? – भाग 3

इफ्तिखार अहमद को लगा कि यह आदमी अदालत की काररवाही से अच्छी तरह वाकिफ है. इसे पता है कि अदालत में जज अच्छे वकीलों की बात का जल्दी विरोध नहीं करते. अगर दलीलें न दी जाएं तो केस कमजोर हो जाता है.

मगर इफ्तिखार अहमद वकील थे, उन्होंने तर्क जारी रखे, ‘‘इस तरह नहीं होता. अगर मैं दलीलें नहीं दूंगा तो खुद शक के घेरे में आ जाऊंगा. अगर मैं ने अली भाई के विरोध में दलीलें नहीं दीं तो जज समझ जाएगा कि मुझ पर दबाव डाला गया है. इस के बाद तो जमानत की उम्मीद और कम हो जाएगी. मेरी जरा भी लापरवाही पर जज को संदेह हो सकता है.’’

इफ्तिखार अहमद के इन तर्कों पर वह आदमी सोच में पड़ गया. इस के बाद उस ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम से थोड़ी देर बाद बात करता हूं. और हां, एक बात याद रखना, तुम्हारे ऊपर हमारी नजर रहेगी, किसी से बात करने की कोशिश मत करना.’’

‘‘ठीक है जी, मैं किसी से कोई बात नहीं करूंगा, क्योंकि मुझे अपनी बेटी दुनिया में सब से प्यारी है.’’

और फोन कट गया.

इफ्तिखार अहमद ऐसी जगह खड़े थे, जहां आसानी से उन पर नजर रखी जा सकती थी. पार्किंग में गाडि़यां आजा रही थीं, लोग भी आजा रहे थे. उन्होंने घड़ी देखी, साढ़े 9 बज रहे थे. उसी समय उन का अपना फोन बजा. उन्हें एक मुकदमा और देखना था, उसी मुवक्किल का था. लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. वह उस के आदेश की अवहेलना भला कैसे कर सकते थे, बेटी की जिंदगी का सवाल था.

थोड़ी देर बाद भिखमंगे वाला फोन बजा. उन्होंने फोन रिसीव कर के कान से लगाया तो दूसरी ओर से कहा गया, ‘‘तुम्हें जो कहा गया है, तुम वही करना.’’

‘‘तुम ने जो कहा है, मैं वही करूंगा. अगर इस के बाद भी अली भाई की जमानत नहीं हुई तो…’’

‘‘किसी भी हालत में अली भाई की जमानत होनी चाहिए. उस के बाद ही तुम्हारी दुआ की जान बच सकती है. इस के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ उस ने सख्त लहजे में कहा, ‘‘और हां, किसी से फोन पर भी बात मत करना, वरना सजा तुम्हारी बेटी को मिलेगी.’’

इफ्तिखार अहमद ने झुंझला कर मोबाइल फोन बगल वाली सीट पर पटक दिया. उस आदमी की बातचीत का अंदाज बता रहा था कि वह पेशेवर मुजरिम है. वह काफी चालाक लग रहा था.

अली भाई के लोगों ने काफी सोचविचार कर योजना बनाई थी. अली भाई खुद सामने नहीं आया था. स्कूल से दुआ का अपहरण करने वाला भी सामने नहीं आया था. दुआ कहां और किस के पास है, उन की निगरानी कौन कर रहा है? इस का कुछ पता नहीं था. इफ्तिखार अहमद को लग रहा था कि जैसे उन के हाथपैर बांध कर उन्हें पानी में डाल दिया गया हो और उन से कहा जा रहा हो कि तैरो. वे लोग मुजरिम थे, लेकिन इस समय उन के जुर्म से ज्यादा अहम उन की मजबूरी थी.

मुकदमा बहुत महत्त्वपूर्ण था. अदालत ने मुजरिमों की सख्त निगरानी का आदेश दे रखा था. बख्तरबंद गाडि़यों में उन्हें लाया जाता था. उन्हें लाने ले जाने में पुलिस काफी सतर्क रहती थी. जब उन्होंने देखा कि अली भाई की जमानत का कोई उपाय नहीं है तो उन्होंने यह युक्ति अपनाई थी.

इफ्तिखार अहमद इस नए मसले को सुलझाने की कोई तरकीब सोच रहे थे. उन की चिंता यह थी कि दुनिया लाख गलत काम कर रही हो, लेकिन उन्हें अपनी ईमानदारी और पेशे की लाज रखनी है. आज पहली बार वह अपने उसूलों के खिलाफ कुछ करने जा रहे थे, क्योंकि वह काफी दबाव में थे.

10 बज गए थे. शीशे बंद होने की वजह से गरमी लग रही थी. वह खिड़की भी नहीं खोल सकते थे. उन्होंने इंजन स्टार्ट कर के एसी चला दिया और मुकदमे की फाइल खोल कर देखने लगे कि अली भाई का वकील जमानत के लिए क्या क्या दलीलें दे सकता है.

सब से मजबूत दलील अली भाई की हैसियत और दौलत थी. उस का कारोबार बाहर के मुल्कों तक फैला था. उस की कई कंपनियां थीं. वह करोड़ों का टैक्स अदा करता था. उस के नाम से कई अनाथाश्रम चलते थे. यह पहला मौका था, जब उस के ऊपर मुजरिम की हैसियत से मुकदमा चल रहा था. यह दलील भी दी जा सकती थी कि उस का नाम इसीएल में है, इसलिए वह देश छोड़ कर नहीं भाग सकता. इस के अलावा उसे चंदा लेने वालों की हमदर्दी भी हासिल थी.

एक बार फिर फोन बजा. इफ्तिखार अहमद ने फोन रिसीव किया तो उस आदमी ने हुक्म दिया, ‘‘अब तुम अदालत जा सकते हो. लेकिन न कहीं रुकोगे, न किसी से मिलोगे और न किसी से बात करोगे. अपने मिलने जुलने वालों से भी दूर रहोगे.’’

‘‘अगर कोई मिलने आ गया तो?’’

‘‘सिर्फ सलाम कर के व्यस्तता का बहाना बना कर आगे बढ़ जाओगे. याद रखना, हमारे आदमी तुम्हारे आसपास होंगे. कोई इशारा किया या बात की तो हमें फौरन पता चल जाएगा.’’

‘‘मैं कुछ नहीं करूंगा. अब मैं कार से बाहर निकल सकता हूं?’’

‘‘हां, अब तुम बाहर आ जाओ, लेकिन अपना मोबाइल फोन कार में ही छोड़ दो. हमारा दिया मोबाइल फोन वाइबे्रट पर लगा कर जेब में रख लो.’’

इफ्तिखार अहमद पौने 11 बजे अदालत पहुंचे. उस भीड़ में यह पता लगाना मुश्किल था कि उन पर कौन नजर रख रहा है. पुलिस अली भाई को अंदर ले आई. 70 साल की उम्र में भी वह पूरी तरह सेहतमंद थे. अपने वकील से बात करते समय उस ने इफ्तिखार अहमद की ओर देखा. उस के होठों पर तैरती हंसी और आंखों की चमक देख कर इफ्तिखार अहमद को समझते देर नहीं लगी कि यह सब कुछ उस के इशारे पर हुआ है.

साजिश का तोहफा – भाग 5

इस का मतलब साफ था कि रमेश और शशांक पहले ही उन्हें अपने हिसाब से सब कुछ बता चुके थे. ऐसे में उन से कुछ अच्छी उम्मीद नहीं की जा सकती थी. दूसरी ओर से फोन कट चुका था. नवीन ने भी मायूसी से रिसीवर रख दिया.

‘‘गवाही देने सोमनाथ सोलकर अदालत आ रहे हैं, यह मीडिया वालों के लिए बे्रकिंग न्यूज थी. वह बर्फ की तरह सफेद बालों वाले लंबे कद के प्रभावशाली व्यक्तित्त्व के थे. मनोज सोलकर भी अदालत में मौजूद था. उस ने अदालत के सामने सच्चाई रख कर मुकदमा जारी रखने की दरख्वास्त की. सोमनाथ सोलकर ने काफी दिलचस्पी से उस का बयान सुना. रमेश के वकील ने उस के बयान को मनगढ़ंत कहानी बताया.’’

नवीन ने सोमनाथ सोलकर को जिरह के लिए कटघरे में बुलाया. गीता पर हाथ रख कर शपथ लेते समय वह बड़ी नागवारी से नवीन को देख रहे थे. नवीन ने बड़े सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं ने समाचार पत्रों की सहायता से आप के बारे में कुछ जानकारियां जुटाई हैं. इस के अलावा कुछ सावित्री सोलकर ने बताया है. आप की उम्र 90 साल के करीब है.’’

‘‘मैं 90 का अंक पार कर चुका हूं,’’ सोमनाथ ने कहा, ‘‘तुम मेरी उम्र को छोड़ो और जो पूछना है, वह पूछो.’’

‘‘मैं पूछने चल रहा हूं,’’ नवीन ने संयम से कहा, ‘‘आप ने 1980 में अपनी कंपनी से रिटायरमेंट लिया और अपने नाम पर इस्टीटयूट स्थापित किया. क्या यह सही है?’’

‘‘सही है.’’ सोमनाथ ने कहा.

‘‘जहां तक आप के निजी जीवन का संबंध है, आप की पत्नी को मरे काफी अरसा गुजर चुका है और आप ने उस के बाद शादी नहीं की. आप का एकलौता बेटा अनिल 1981 में हवाई जहाज की दुर्घटना में मारा गया. उस के संबंध में सुनने में आया है कि वह जालसाज था. मैं इस तकलीफ भरे विषय पर बहस नहीं करना चाहता था. लेकिन मि. रमेश ने मुझे इस बारे में जानने के लिए विवश किया है. क्या मैं पूछ सकता हूं कि उन्होंने ऐसा क्या किया था, जिस से उन्हें जालसाज बताया जा रहा है?’’

‘‘मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता.’’ सोमनाथ ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘आप का पोता आप के लिए अजनबी है, लेकिन आप ने दुनिया देखी है. आप उस की ओर देखें, वह आप को चोर और बेइमान नजर आता है,’’ नवीन ने पैंतरा बदला, ‘‘क्या आप को लगता है, वह झूठ बोल रहा है?’’

‘‘वकील अपने मुवक्किलों को तरह तरह की कहानियां रटा देते हैं.’’ सोमनाथ ने कहा. उन की बात से यही लगा कि वह किसी भी स्थिति में नरम होने को तैयार नहीं हैं.

‘‘क्या आप को यह बात विचित्र नहीं लगती कि मि. रमेश ने आप को बगैर बताए आप के पोते को इंस्टीटयूट में नौकरी पर रख लिया था?’’

रमेश और शशांक उन्हें हर बात के लिए पहले से ही तैयार कर के लाए थे सोमनाथ ने कहा, ‘‘इस की नौबत ही नहीं आई. उस के पहले ही लड़के ने खुद को चोर साबित कर दिया. अच्छा हुआ कि रमेश ने मुझे हालात से आगाह कर दिया. अब इंस्टीटयूट में गड़बड़ी सिद्ध करने की कोशिशें की जा रही हैं, ताकि एक चालाक वकील कुछ रकम कमा सके.

‘‘मैं चाहता तो अदालत में आने से मना कर सकता था, लेकिन मैं इसलिए आया हूं कि इंस्टीटयूट के बारे में किसी तरह का स्कैंडल न खड़ा हो. इंसटीटयूट में इस तरह की व्यवस्था की गई है कि किसी भी तरह से गड़बड़ी संभव नहीं है. रमेश और शशांक मेरे पुराने, विश्वसनीय और ईमानदार साथी ही नहीं हैं, बल्कि रमेश तो हमारे दूर के रिश्तेदार भी हैं.’’

सोमनाथ सोलकर ने इंस्टीटयूट के संबंध में शुरुआती इन्वेस्टमेंट, उस के गठन और अन्य आर्थिक मामलों की जानकारी देने से मना कर दिया था. नवीन को मालूम था कि इंस्टीटयूट एक ट्रस्ट की देखरेख में काम कर रहा था. शहर में वकीलों की 4 ही ऐसी फर्में थीं, जो ट्रस्टों के गठन के लिए नियमावली आदि तैयार करती थीं. ऐसे में यह मालूम करना मुश्किल नहीं था कि किस फर्म ने इंस्टीटयूट के गठन की रूपरेखा तैयार की थी. इस के बाद उस फर्म से उस के कागजातों की कापी अदालत में पेश कराई जा सकती थी.

नवीन ने 2 घंटे के लिए जज से अदालती कार्यवाही स्थगित करा ली. रमेश ने बहुत शोर मचाया कि विपक्षी वकील विभिन्न बहानों से मुकदमे की कार्यवाही लंबी खींच रहा है. लेकिन जज ने मुकदमे के महत्त्व को देखते हुए नवीन की मांग मान ली थी.

दोबारा मुकदमे की कार्यवाही लंच के बाद शुरू हुई. अदालत में मौजूद लोगों के मन में एक अजीब सी बेचैनी थी कि पता नहीं क्या होने वाला है. नवीन ने ठाकुर ट्रस्ट कंपनी के अधिकारी को पेश कर के कहा, ‘‘इन्हीं की फर्म की देखरेख में इंस्टीटयूट चल रहा है. इन्हीं के पास इंस्टीटयूट में निवेश से संबंधित सारे कागजात हैं, जिन्हें अदालत में पेश करने या किसी वकील को निरीक्षण के लिए देने में मुझे कोई हर्ज नहीं लगता, क्योंकि यह कोई चोरी का काम नहीं है. ट्रस्ट एक तरह से जनता की संपत्ति होती है.’’

इस के बाद नवीन ने उस आदमी की फाइल से एक पेपर ले कर सोमनाथ सोलकर को दूर से दिखाते हुए कहा, ‘‘इस पेपर के अनुसार आप ने शुरू में निवेश के तौर पर ठाकुर ट्रस्ट कंपनी को 100 करोड़ रुपए दिए थे, ताकि इंस्टीटयूट को स्थापित किया जा सके.’’

नवीन ने देखा, वकील शशांक का चेहरा कुछ बदला बदला सा लग रहा था, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था. अब उस का प्रतिरोध भी कुछ कम हो रहा था. वह चिल्लाया, ‘‘मुझे आपत्ति है यो रऔनर, मौजूदा केस से इस ट्रस्ट का कोई संबंध नहीं है.’’

‘‘अदालत इस बारे में बहस करने का आदेश दे चुकी है.’’ जज ने कहा.

नवीन ने उस कागज को पढ़ते हुए कहा, ‘‘इस में लिखा है कि निश्चित समय पर ट्रस्ट की आमदनी की रिपोर्ट मि. सोमनाथ सोलकर को दी जाती रहेगी. इस के अलावा इस से भी महत्त्वपूर्ण यह है कि सोमनाथ सोलकर जब भी चाहेंगे, किसी भरोसेमंद व्यक्ति के माध्यम से ट्रस्ट की शर्तों, प्रबंधन या इंस्टीटयूट को चलाने के तरीके के बारे में कोई भी बदलाव कर सकेंगे.’’

इस के बाद नवीन ने सोमनाथ सोलकर की ओर देखते हुए कहा, ‘‘क्या आप के वकील मि. शशांक ने इस बारे में कभी आप को कुछ बताया था?’’

‘‘यह मेरा आपस का मामला था’’ सोमनाथ सोलकर ने सख्ती से कहा.

साजिश का तोहफा – भाग 6

अदलत में मौजूद हर आदमी उत्सुक था, जबकि नवीन को अपनी मेहनत बेकार जाती महसूस हो रही थी. उन्होंने महसूस किया कि सोमनाथ सोलकर पर उन के सवालों का कोई असर नहीं हो रहा है.

उन्होंने वह कागज हवा में लहराते हुए भावनात्मक लहजे में कहा, ‘‘मि. सोमनाथ, इंस्टीटयूट की स्थापना का निर्णय आप का एक महान कार्य था, इस के पीछे आप की नेक भावना थी. यही वजह थी, उस समय आप ने 100 करोड़ रुपए का निवेश किया. लेकिन जो लाइन मैं ने पढ़ी है, उस के शब्दों के महत्त्व का आप अंदाजा नहीं लगा सके. उस लाइन को स्वीकार कर के वास्तव में आप ने 2 साजिश करने वालों को अपनी नेक भावना से खेलने की इजाजत दे दी. आप को लगता नहीं कि आप से भी गलती हो सकती है, आप को भी तो कोई मूर्ख बना सकता है?’’

नवीन ने कागज सोमनाथ के सामने रख कर कहा, ‘‘एक बार फिर आप इसे ध्यान से पढि़ए और उस के अर्थ व उद्देश्य की तह तक पहुंचने की कोशिश कीजिए.’’

तभी शशांक ने उन के पास आ कर कहा, ‘‘विश्वास कीजिए मि. सोमनाथ, इस में चिंता की ऐसी कोई बात नहीं है, ये सभी बातें हम ने आपस में सलाह कर के तय की थीं.’’

सोमनाथ सोलकर के चेहरे के भाव बदल गया. उन्होंने अपने वकील को घूरते हुए कहा, ‘‘शायद तुम मुझे इसे पढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे हो?’’

उन्होंने बड़े ही ध्यान से उस लाइन को पढ़ा. इस के बाद नवीन की ओर देखते हुए थोड़ी नरमी से कहा, ‘‘मुझे तो बताया गया था कि ट्रस्ट को सही ढंग से चलाने के लिए यह लाइन बहुत जरूरी है. बहरहाल मैं ने कभी ऐसे किसी पेपर पर हस्ताक्षर नहीं किए, जिस से ट्रस्ट की शर्तों और नियमों या दूसरे मामलों में कोई भी परिवर्तन लाया जा सके.’’

‘‘हो सकता है, आप ने अनजाने में ऐसे किसी कागज पर हस्ताक्षर कर दिए हों.’’ नवीन ने कहा. उन का दिमाग तेजी से काम कर रहा था. उन्हें विश्वास था कि रमेश ओर शशांक के पास ऐसा कोई कागज जरूर मौजूद था, जिस का फायदा वे सोमनाथ सोलकर के जीवन में भले नहीं उठा सकते थे, लेकिन उन की मौत के बाद उन्हें फायदा हो सकता था. शायद इसीलिए वे उन की मौत का इंतजार कर रहे थे. अब वह कौन सा कागज हो सकता था.

‘‘क्या आप ने मि. शशांक से अपना कोई वसीयतनामा तैयार कराया है?’’ नवीन ने अचानक पूछा.

‘‘हां, मैं अपना मकान और कुछ रकम रमेश के नाम छोड़ना चाहता था. मेरे विचार से वह इस का अधिकारी भी है. वसीयतनामा शशांक ही तैयार कर के लाया था और वह उसी के पास रखा भी है. उस में वही कुछ लिखा है, जो मैं चाहता था.’’

‘‘आप को याद होगा कि वह वसीयत औपचारिक अंदाज में शुरू हुई होगी कि अगर कोई कर्ज हो तो उसे अदा कर दिया जाए, फलां नौकर को यह दे दिया जाए. इस तरह की छोटी छोटी और कम महत्त्व की बातें शुरू में लिखी गई होंगी?’’ नवीन ने पूछा.

‘‘हां, शायद कुछ इसी तरह लिखा था.’’ सोमनाथ सोलकर अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोले, ‘‘और मकान आदि रमेश के नाम करने का जिक्र अंत में था. लेकिन यह सब भी उसी पहले पेज पर था.’’

‘‘योर औनर, अदालत को उस वसीयत को एक नजर जरूर देखना चाहिए.’’ नवीन ने कहा, ‘‘संभव है, वसीसयतनामे का पहला पेज बदल दिया गया हो. क्योंकि वसीयत करने वाले और गवाहों के हस्ताक्षर आमतौर पर अंतिम पेज पर होते हैं.’’

‘‘मुझे आपत्ति है, योरऔनर.’’ शशांक ने बैठी बैठी सी आवाज में कहा. उस का चेहरा सफेद पड़ चुका था. वह सोमनाथ सोलकर की ओर देख कर दयनीय स्वर में बोला, ‘‘मैं आप को विश्वास दिलाता हूं मि. सोमनाथ…’’

लेकिन सोमनाथ ने उस की बात को बीच में ही काट कर कहा, ‘‘मैं वह वसीयतनामा देखना चाहता हूं.’’

नवीन ने जल्दी से कहा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि वसीयतनामा का पहला पेज बदला जा चुका है. इसीलिए रमेश और शशांक मनोज सोलकर के इंस्टीटयूट में आने जाने से डर गए थे, क्योंकि मि. सोमनाथ इंस्टीटयूट के मुआयने पर आते रहते थे.

इन दोनों महानुभावों को लगा कि अगर कहीं दादा पोते की मुलाकात हो गई और उन के संबंध सुधर गए तो मि. सोमनाथ सोलकर उसे अपनी वसीयत में शामिल करने के लिए वसीयत निकलवा सकते हैं. उस के बाद वह वसीयतनामा बेकार हो जाता और जिस जालसाजी के सहारे रमेश और शशांक जीवन गुजार रहे थे, वह किसी काम की न रहती. अब मैं मि. रमेश से कहूंगा कि वह उठ कर अदालत को असलियत बताएं.’’

रमेश अपने स्थान से उठा तो उस का चेहरा सफेद पड़ चुका था, जो बिना कहे ही सारी सच्चाई कह रहा था. वह मरियल सी आवाज में बोला, ‘‘मैं सम्मानित जज महोदय से अकेले में कुछ बात करना चाहता हूं, क्योंकि सब के सामने कहने लायक मेरे पास अब कुछ नहीं बचा है.’’

‘‘मुझ से कहने सुनने से कुछ नहीं होगा. तुम लोगों ने जो साजिश रची है, उस से अब तुम्हें मि. सोमनाथ और मनोज ही बचा सकते हैं. इसलिए जो कुछ कहना है, उन्हीं से कहो.’’ जज ने कहा.

‘‘काम तो इन लोगों ने जेल भिजवाने वाला किया है, लेकिन रमेश ने मेरी बहुत सेवा की है. भले ही लालच में की है, लेकिन की तो है ही, इस के अलावा वह मेरा रिश्तेदार भी है. इसलिए इस के गुनाहों की सिर्फ यही सजा है कि यह अपने पद से इस्तीफा दे कर चुपचाप इंस्टीट्यूट छोड़ दे. उसी के साथ यह ठाकरे भी अपना इस्तीफा सौंप दे.’’ सोमनाथ सोलकर ने कहा.

अब कहने सुनने को कुछ रह ही नहीं गया था, इसलिए इस के बाद अदालत उठ गई.

शाम को नवीन के घर पर एक प्रेस कांफे्रंस आयोजित की गई, जिस में सोमनाथ सोलकर बहू और पोते के साथ सोमनाथ सोलकर भी मौजूद थे. बहू और पोते के साथ वह काफी प्रसन्न नजर आ रहे थे. संवाददाताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मुझे आज पता चला है कि अपने बेटे की मौत के बाद मैं ने उस की विधवा और अपने पोते के साथ कितना अत्याचार किया है. लेकिन रमेश ने मेरी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध दी थी कि मैं असलियत देख ही नहीं पाया.

वह मेरी इलेक्ट्रिक कंपनी में कैशियर था. कुछ जाली चैक दिखा कर वह यह विश्वास दिलाने में सफल हो गया था कि वह जालसाजी अनिल द्वारा की गई थी. तब तक अनिल मर चुका था, इसलिए असलियत सामने नहीं आ सकी थी.

‘‘उस का सोचना था कि बेटे से विमुख होने के बाद मैं उसे अपना वारिस बना लूंगा. लेकिन जब उस ने देखा कि मैं ने अपनी ज्यादातर संपत्ति से इंस्टीटयूट स्थापित कर दिया है और उसे ट्रस्ट के अंतर्गत कर दिया है तो उस ने शशांक के साथ मिल कर इंस्टीटयूट को ही नहीं, मेरी मौत के बाद सारी चलअचल संपत्ति ही हड़प लेने की योजना बना डाली.

‘‘लेकिन संयोग से नवीन करमाकर, जिन्होंने अपनी इज्जत दांव पर लगा कर वीच आए तो न केवल इस साजिश का पर्दाफाश किया, बल्कि मुझे मेरी बहू और पोते से भी मिलवा दिया. अब मैं शायद उन ज्यादतियों की कुछ भरपाई कर सकूंगा, जो मैं ने इन के साथ की हैं.’’

इंसाफ की राह : किस की थी वो दुआ? – भाग 2

एडवोकेट इफ्तिखार अहमद बैड पर लेटे इंतजार कर रहे थे कि दुआ कब आ कर उन्हें उठाए. उन की सुबह दुआ के उठाने और रात बालों में अंगुलियां फेरने से होती थी. वह सोच ही रहे थे कि दुआ आ कर उन के सिरहाने बैठ गई. सोने का नाटक कर रहे इफ्तिखार अहमद ने उसे दबोच लिया.

दुआ ने हंसते हुए कहा, ‘‘नाश्ता तैयार है, आप जल्दी से फ्रैश हो कर आ जाइए.’’

इफ्तिखार अहमद नीचे आए तो बेटे उन से मिल कर स्कूल चले गए. वह दुआ के साथ बैठ कर उस से बातें करते हुए नाश्ता करने लगे. दुआ की वैन का हौर्न सुनाई दिया तो मदीहा उस का लंचबौक्स, बोतल और बैग ले कर वैन तक छोड़ने चली गई.

इफ्तिखार अहमद ने टीवी चालू किया तो अली भाई वाले मुकदमे से संबंधित खबरें आ रही थीं. मीडिया अली भाई को मानवता का दुश्मन बताते हुए समाज विरोधी घोषित कर रहा था. कहा जा रहा था कि यह लापरवाही से नहीं, बल्कि ऐसा जानबूझ कर किया गया था. इसलिए ऐसे आदमी को कतई जमानत नहीं मिलनी चाहिए. इसी के साथ इफ्तिखार अहमद की तारीफ करते हुए कहा जा रहा था कि वह किसी भी हालत में उस की जमानत नहीं होने देंगे.

इफ्तिखार अहमद ने खुदा का शुक्र अदा किया कि एक बार फिर मीडिया इस मामले में पूरी दिलचस्पी ले रहा है. दुआ को छोड़ कर आई मदीहा ने टीवी पर आ रही खबरों को देख कर मुकदमे की काररवाही के बारे में पूछा.

इफ्तिखार अहमद ने जो बताया, उसे सुन कर उस ने कहा, ‘‘अल्लाह करे, अली भाई की जमानत न हो. ऐसे लोगों को तो सरेआम फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. और हां, आप कब तक वापस आ जाएंगे. दुआ को डाक्टर के यहां ले जाना है.’’

इफ्तिखार ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘शायद मुझे कुछ देर हो जाए, इसलिए तुम अनस के साथ डाक्टर के यहां चली जाना.’’

इफ्तिखार अहमद ने अली भाई के मुकदमे की फाइल निकाल कर एक बार फिर सारे पौइंट्स ध्यान से पढ़े. उन का पूरा ध्यान इस मुकदमे पर था. 9 बजे वह घर से निकल गए. सुबह के समय सड़क पर बहुत ज्यादा भीड़ होती थी. कोर्ट से पहले वाली लालबत्ती पर उन की कार रुकी तो भिखमंगों ने उन की कार को घेर लिया.

एक भिखमंगे ने कार का शीशा ठकठकाया. इफ्तिखार ने उस की ओर देख कर इशारे से मना कर दिया. लेकिन वह लगातार शीशा ठकठकाता रहा. उन्होंने दोबारा उस की ओर देखा तो उस ने अपनी हथेली उन के सामने कर दी. उस की हथेली पर काले स्केच से ‘दुआ’ लिखा था. इस के बाद उस ने एक पुराना मोबाइल फोन दिखाया तो इफ्तिखार अहमद ने शीशा खोल दिया.

भिखमंगे ने जल्दी से मोबाइल फोन इफ्तिखार अहमद की गोद में फेंक दिया और खुद भीड़ में गायब हो गया. उन्होंने उसे आवाज भी दी, लेकिन लौटने की कौन कहे, उस ने पलट कर भी नहीं देखा. उस के जाने के बाद उन्होंने मोबाइल उठाया तो उस की स्क्रीन पर भी ‘दुआ’ लिखा था.

इफ्तिखार अहमद परेशान हो उठे, दिमाग चकराने लगा. उसी समय हरी बत्ती हो गई. उन्होंने कार आगे बढ़ा दी. चंद मिनट बाद ही वह कोर्ट की पार्किंग में पहुंच गए. लेकिन उन का दिमाग ‘दुआ’ और ‘मोबाइल’ की गुत्थी में उलझा हुआ था.

मोबाइल भले ही पुराना था, लेकिन जानी मानी कंपनी का था. वह मोबाइल देख रहे थे कि तभी उस की घंटी बजने लगी. उन्होंने धड़कते दिल से फोन रिसीव किया तो दूसरी ओर से पूछा गया, ‘‘एडवोकेट इफ्तिखार अहमद?’’

‘‘जी बोल रहा हूं, यह कैसा मजाक है, मोबाइल फोन पर मेरी बेटी का नाम क्यों लिखा है?’’

दूसरी ओर से जवाब में कहा गया, ‘‘वकील साहब, यह मजाक नहीं, हकीकत है. तुम्हारी बेटी दुआ मेरे कब्जे में है.’’

इफ्तिखार अहमद को आघात सा लगा. पल भर के लिए उन का दिमाग सुन्न सा हो गया कि यह आदमी क्या कह रहा है? वह चीखे, ‘‘तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, मेरी बेटी स्कूल गई है.’’

‘‘वह घर से स्कूल के लिए निकली जरूर थी, लेकिन पहुंची नहीं.’’

कांपती आवाज में इफ्तिखार अहमद ने कहा, ‘‘तुम झूठ बोल रहे हो.’’

‘‘तुम्हारे ऐसा कहने से हकीकत बदल नहीं जाएगी. हम ने उसे स्कूल के गेट के सामने से इतनी सफाई से उठा लिया है कि किसी को कानो कान खबर नहीं हुई.’’ फोन करने वाले ने बड़े ही रूखे लहजे में कहा.

इफ्तिखार की जान पर बन आई. उन का शरीर कांपने लगा. जल्दी ही खुद पर काबू पाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मेरे खयाल से तुम झूठ बोल रहे हो. अगर मेरी बेटी दुआ तुम्हारे पास है तो मेरी उस से बात कराओ.’’

‘‘जरूर करो,’’ उस आदमी ने कहा, ‘‘लो, अपने पापा से बात करो.’’

‘‘दुआ,’’ इफ्तेखार तड़प उठे. तभी दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘पापा, मुझे बचा लो. ये लोग मुझे पकड़ लाए हैं. पापा, मुझे आप के पास आना है.’’

बच्ची बुरी तरह से रो रही थी. इफ्तिखार अहमद की धड़कन रुक सी गई, लेकिन वह कुछ कहते, उस को पहले ही बच्ची से मोबाइल फोन ले लिया गया. इस के बाद उस आदमी ने कहा, ‘‘मेरे खयाल से अब तुम्हें तसल्ली हो गई होगी?’’

इफ्तिखार अहमद ने सूखे होठों पर जुबान फेरते हुए कहा, ‘‘तुम चाहते क्या हो?’’

उस आदमी ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब विश्वास हो गया न कि तुम्हारी बेटी दुआ हमारे पास है.’’

‘‘जी…’’

‘‘और यह भी मानते हो कि हम इस के साथ कुछ भी कर सकते हैं, इसे मार भी सकते हैं?’’ उस ने मजाक उड़ाते हुए कहा.

‘‘जी. आगे बोलो, तुम चाहते क्या हो? काम की बात करो.’’

दूसरी ओर से कहा गया, ‘‘वकील साहब, काम की बात यह है कि आप अली भाई की जमानत का कोर्ट में विरोध नहीं करेंगे.’’

इफ्तिखार अहमद चौंके, ‘‘तुम अली भाई के आदमी हो?’’

‘‘तुम चाहो तो यही समझ लो. आज हर हालत में अली भाई को जमानत पर रिहा होना चाहिए.’’ दूसरी ओर से धमकी दी गई.

‘‘अगर ऐसा नहीं हो सका तो..?’’

‘‘तो यह तुम्हारी बच्ची के हक में अच्छा नहीं होगा. उस के टुकड़े कर के तुम्हें भेज दिए जाएंगे.’’ उस ने दांत पीसते हुए कहा.

‘‘पहली बात तो मामला अदालत में है, दूसरी बात जज अली भाई के खिलाफ है. मैं कोशिश न भी करूं, तब भी जमानत होना आसान नहीं है.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.

‘‘मैं कुछ नहीं जानता. अगर आज जमानत नहीं हुई तो तुम अपनी बेटी को फिर कभी नहीं देख पाओगे.’’ उस आदमी ने चेतावनी दी.

‘‘खुदा के लिए मेरी बात सुनो, यह मेरे वश में नहीं है. अगर मैं अदालत में कोई भी दलील न दूं, तब भी मुझे नहीं लगता कि अली भाई की जमानत होगी. क्योंकि अदालत ने पहले से ही उन्हें जमानत न देने का मन बना लिया है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि अली भाई की जमानत हो सकेगी.’’ इफ्तिखार अहमद बेबसी से गिड़गिड़ाए.

‘‘तुम्हें इस की चिंता करने की जरूरत नहीं है. अली भाई का वकील अपना काम करेगा. वह अदलत को कायल कर के अली भाई की जमानत मंजूर करा लेगा. तुम्हें उन के वकील का विरोध करने के बजाय समर्थन करना है. अगर तुम ने समर्थन कर दिया तो जज राजी हो जाएगा. जज तुम्हारा विरोध नहीं करेगा.’’

साजिश का तोहफा – भाग 3

अदालत में मौजूद सभी लोगों की नजरें नवीन पर जम गईं. सभी उन्हें शक की नजरों से देख रहे थे. नवीन के लिए अब यह मामला मनोज की ही नहीं, अपनी भी इज्जत का सवाल बन गया था.

उस ने रमेश गायकवाड़ को कठघरे में बुला कर जिरह शुरू की, ‘‘क्या यह सही नहीं है कि मनोज सोलकर को इंस्टीटयूट में आते जाते देख कर आप ने खुद नौकरी के लिए औफर दिया था? क्या आप इस वास्तविकता से परिचित नहीं थे कि वह संस्था के संस्थापक सोमनाथ सोलकर का पोता है?’’

‘‘जी हां, इसीलिए तो मैं ने औफर दी थी. किसी छोटे मोटे झगड़े की वजह से दादा पोते एक दूसरे से दूर हो गए थे, इसलिए मैं ने सोचा कि यहां आने पर दोनों कभी मिल सकते हैं. लेकिन वह तो चोर निकला.’’

इस के बाद लंबी सांस ले कर उस ने घटना के बारे में बताना शुरू किया, ‘‘एक दिन मेरे पास आ कर उस ने कहा कि वह शादी कर रहा है. मैं ने उसे मुबारकबाद देने के साथ एक सप्ताह की छुट्टी दे दी. उसी बीच एक जरूरी काम से मैं औफिस से 1-2 मिनट के लिए बाहर जाना पड़ा. जरूरत के लिए कुछ रकम हमारे औफिस की तिजोरी में पड़ी रहती है. मैं वापस आया तो वह काफी घबराया हुआ लग रहा था.

उस समय मैं ने ध्यान नहीं दिया. लेकिन अगले दिन रकम गिनी तो उस में 10 हजार रुपए कम निकले. तब मेरा ध्यान मनोज पर गया. उस की घबराहट से मुझे लगा कि वह रकम उसी ने ली है, इसीलिए वह परेशान था.’’

‘‘तुम ने उसे चोरी में फंसाने के लिए तिजोरी खुली छोड़ी थी. जबकि 10 हजार रुपए तुम ने खुद उसे यह कह कर दिए थे कि संस्थान की परंपरा है कि कर्मचारी की शादी पर रुपए उपहार में देता है.’’

‘‘यह झूठ है,’’ रमेश ने थोड़ी ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मनोज हनीमून से वापस आया तो मैं ने उसे बताया कि उस की चोरी पकड़ी जा चुकी है. अपनी हरकत की वजह से वह जेल जा सकता है. लेकिन अगर वह चोरी की गई रकम वापस कर दे तो मैं उस के खिलफ कोई कारर्रवाई नहीं करूंगा. उस ने भी यही बात कह कर बरगलाने की कोशिश की थी, जो आप कह रहे हैं. फिर भी उस ने 10 हजार रुपए भिजवा दिए. अब ऐसे आदमी को कौन नौकरी पर रखेगा, मैं ने भी उसे नौकरी से निकाल दिया.’’

‘‘योर औनर, हकीकत यह थी कि इन लोगों को इस बात का डर सता रहा था कि कहीं दादा और पोते की मुलाकात हो गई और फिर उन में मेलजोल हो गया तो…?’’ नवीन ने कहा, ‘‘लेकिन इस डर का भी कोई न कोई आधार होगा? यह आदमी इंस्टीटयूट में सब से बड़े पद पर आसीन है और यह काला सफेद कुछ भी कर सकता है. मुझे लगता है कि इंस्टीटयूट में जरूर कोई गड़बड़ी हो रही है. इसलिए मैं दरख्वास्त करता हूं कि इंस्टीटयूट के आर्थिक और इंतीजामी मामलों की कायदे से जांच कराई जाए.’’

इस पर इंस्टीटयूट के कानूनी सलाहकार शशांक ठाकरे ने कहा, ‘‘माननीय अदालत को यह बताना जरूरी है कि हर साल इंस्टीटयूट का एकाउंटस सही समय पर आडिट कराया जाता है. इसी के साथ यह भी बता दूं कि पिछले कई सालों से रमेशजी इंस्टीटयूट को कायदे से चला रहे हैं. आज तक इन पर कोई दाग नहीं लगा है. इन का रहन सहन भी अपनी आमदनी के हिसाब से ही है.’’

इस जिरह से इस मुकदमे में जान तो पैदा हो गई थी, लेकिन न्यायाधीश ने यह कहते हुए इंस्टीटयूट के खातों की जांच कराने से मना कर दिया कि वह जरा से संदेह पर इंस्टीटयूट के एकाउंटस की जांच और उस के मामलों में दखल देने की इजाजत नहीं दे सकते.

बहरहाल, नवीन ने कुछ तर्क दे कर अगले दिन सुनवाई के लिए न्यायाधीश को तैयार कर लिया. उन्होंने वादा किया कि कल वह मनोज को अदालत में अवश्य पेश करेंगे. उन की पत्नी अवंतिका को पूरा विश्वास था कि मनोज लोनावाला में अपनी मां के पास गया होगा. अगर वहां नहीं हुआ तो उस की मां को जरूर मालूम होगा कि वह कहां है.

मनोज सचमुच मां के यहां ही था. नवीन और आवंतिका को वहां देख कर वह हैरान रह गया था. पहले तो उस का मन हुआ था कि वह उन से मिले ही न. लेकिन उसे लगा कि एक गलती तो उस ने पहले ही की है. अब उन से मुंह छिपा कर दोबारा गलती करना ठीक नहीं है. वह शर्मिंदा तो था ही, फिर भी मिला.

लेकिन नवीन और अवंतिका उस से जिस तरह मिले थे, उस से उस की सारी झिझक और शर्मिंदगी दूर हो गई थी. उन्हें अंदर ला कर उस ने अपनी मां का परिचय कराया. मां के बालों में भले ही सफेदी झलक रही थी, मगर वह अब भी एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. उन का नाम सावित्री सोलकर था.

स्वाति भी आ गई थी. सावित्री अभी तक मनोज के हालात से अनजान थीं. जब नवीन ने उन्हें सारी बात बताई तो लंबी सांस लेते हुए उन्होंने कहा, ‘‘इसे देख कर ही मुझे लग रहा था कि यह मुझ से कुछ छिपा रहा है.’’

इस के बाद नवीन ने मनोज की ओर देखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे चले आने के बावजूद मैं ने तुम्हारे पत्र के आधार पर अदालती काररवाई शुरू करा दी है, क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि वह पत्र तुम ने अपनी मर्जी से नहीं लिखा था.’’

फारेस्ट औफीसर का कातिल प्रेमी

साजिश का तोहफा – भाग 4

एक पल की खामोशी के बाद मनोज दबी आवाज में बोला, ‘‘कल शाम 7 बजे के आसपास रमेश ने मुझे फोन कर के कहा कि वह नहीं चाहता कि उस की वजह से उसे और उस की मां को तकलीफ पहुंचे. इस के बाद उस ने जो कुछ कहा, मैं उसी के शब्दों में आप को बता रहा हूं.

उस ने कहा था, ‘‘तुम्हारा बाप नंबर एक का बदमाश और जालसाज था. लेकिन उस की मृत्यु के बाद इस बात को दबा दिया गया था. अगर तुम चाहते हो कि यह बात अभी भी उसी तरह दबी रहे तो तुरंत किसी आदमी के हाथ अपने वकील को एक पत्र भेज कर उसे यह मुकदमा वापस लेने को कह दो और शहर छोड़ कर चले जाओ. अगर तुम ने ऐसा नहीं किया तो जहां तुम्हारी मां रहती है, उस पूरे इलाके में उन के बारे में बता कर उन्हें बदनाम कर दिया जाएगा. उस के बाद तुम्हारी मां की क्या हालत होगी, यह तुम जानते ही हो.’’

‘‘मैं ने और स्वाति ने इस बात पर गहराई से विचार किया. हम ने सोचा कि इस उम्र में मां को क्यों परेशान किया जाए. वह चैन से रह रही हैं तो उन्हें उसी तरह चैन से रहने दिया जाए. यही सोच कर हम यहां चले आए. लेकिन जब आप यह मुकदमा लड़ ही रहें हैं और मां को सच्चाई का पता चल ही गया है तो अब आप जो कहेंगे, हम वही करेंगे.’’

‘‘एक घंटे पहले रमेश का फोन यहां भी आया था. इत्तेफाक से फोन मैं ने रिसीव किया था. वह मनोज से बात करना चाहता था, स्वाति ने कहा, लेकिन मैं ने डांट कर फोन काट दिया.’’

‘‘बहुत अच्छा किया,’’ सावित्री सोलकर ने कहा, ‘‘बेटा, यह तुम्हारा फर्ज था कि मेरे बारे में सोच कर तुम ने यह मुकदमा वापस लेने का निर्णय लिया. लेकिन जो गलत है, उस से भी भागना ठीक नहीं है. मैं अभी भी अपनी समस्याओं से निपटने की क्षमता रखती हूं. मुझे इस बात का दुख है कि तुम ने रमेश की बात पर विश्वास कर लिया कि वह तुम्हारे पिता के बारे में जो कहा, वह सही है.’’

‘‘पापा की जिंदगी पर सदैव रहस्य का परदा पड़ा रहा, शायद इसीलिए ऐसा हुआ.’’ मनोज ने सिर झुका कर कहा, ‘‘बहरहाल, मैं अपनी इस गलती पर शर्मिंदा हूं.’’

‘‘क्या आप मनोज के पिता के बारे में मुझे कुछ बताएंगी?’’ नवीन ने कहा.

‘‘क्यों नहीं,’’ सावित्री ने कहा. इस के बाद वह अतीत में खो गईं. थोड़ी देर बाद वह संभल कर बोलीं, ‘‘जब अनिल से मेरी शादी हुई, वह अपने पिता की ही कंपनी में काम करते थे, जिस में उन के पिता सोमनाथ सोलकर के आविष्कार किए हुए बिजली के सामान बनते थे. मेरे ससुर का सोचना था कि मैं ने उन के बेटे को बरबाद कर दिया है. मेरी वजह से वह निकम्मा हो गया है. जबकि सच्चाई यह थी कि अनिल को घूमने फिरने और उन स्थानों के बारे में लिखने का शौक था. अपने इसी शौक की वजह से उन्होंने कंपनी छोड़ने का निर्णय लिया.

‘‘जबकि उन के इस निर्णय में मेरी कोई भूमिका नहीं थी. उन के निर्णय पर सोमनाथ सोलकर ने खूब हंगामा किया. उन का कहना था कि मेरी वजह से उन का एकलौता बेटा अपनी राह से भटक गया है. कंपनी से अलग हो कर अनिल ने एक हवाई जहाज खरीदा और इधर उधर की यात्रा करने लगे. ट्रैवल से संबंधित उन के अनेक लेख विभिन्न पत्रिकाओं में छपने लगे.

‘‘मनोज के जन्म के बाद मेरा उन के साथ जाना कम हो गया. अब वह अकसर अकेले ही जाने लगे थे. 1985 के अप्रैल में जयपुर से आगे रेगिस्तान में उड़ते समय अनिल का जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया. इस दुर्घटना में केवल जहाज का मलबा मिला था, अनिल की लाश नहीं मिली थी.’’

पल भर की चुप्पी के बाद सावित्री सोलकर ने आगे कहा, ‘‘मुझे जो याद आता है, उस के हिसाब से रमेश गायकवाड़ का मेरे ससुर सोमनाथ सोलकर से दूर का कोई संबंध है. वह उन दिनों कंपनी में ही काम करता था. अनिल की मौत के बाद वह मेरे पास आया था. उस ने मुझ से कहा था कि अनिल के बारे में कुछ ऐसी सच्चाई सामने आई है, जिस का राज बना रहना ठीक है.

‘‘उस ने मुझे कुछ पैसे देते हुए कहा कि इन्हें मेरे ससुर ने भेजे हैं और उन्होंने कहा है कि भविष्य में वह मुझ से कोई संबंध नहीं रखना चाहते. मैं ने पैसे वापस करते हुए कहा था कि मैं वे बातें जरूर जानना चाहूंगी, जिन की वजह से मेरे ससुर मुझ से संबंध खत्म करना चाहते हैं. अनिल ने ऐसा क्या किया था, जिस से उन्हें शर्मिंदगी महसूस हो रही है.

‘‘मैं ने उन से संपर्क करने की कोशिश की, उन्हें पत्र लिखे, समय मांगा, फोन पर बात करने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. मजबूर हो कर मैं शांत हो गई. अनिल की मौत के एक साल बाद मुझे पता चला कि मेरे ससुर ने कोई इंस्टीटयूट बनवाया है, जिस का डायरेक्टर रमेश गायकवाड़ को बनाया है. इस से मुझे लगा कि उस ने अनिल पर जो आरोप लगाए थे, वे किसी साजिश के तहत लगाए थे. अब मनोज को वह चोर बता रहा है तो इस के पीछे भी कोई साजिश है.’’

‘‘मुझे लगता है कि अपनी वकील शशांक ठाकरे के साथ मिल कर वह इंस्टीटयूट में कुछ गड़बड़ कर रहा है,’’ नवीन ने कहा, ‘‘लेकिन दोनों यह काम इस तरह कर रहे हैं कि पकड़ में नहीं आ रहे हैं. रमेश रहता भी बहुत साधारण तरीके से है. शायद वे गड़बड़ी इस तरह कर रहे हैं कि इस का लाभ उन्हें भविष्य में मिले. मेरी समझ में यह नहीं आता कि सोमनाथ सोलकर अपने इंस्टीटयूट को पूरी तरह कैसे भूल गए. उन्हें इंस्टीटयूट के बारे में सब से ज्यादा मालूम होगा, क्योंकि यह उन्हीं का बनवाया है. वह कभी नहीं चाहेंगे कि उन का इंस्टीटयूट बरबाद हो. अगर किसी तरह मि. सोमनाथ सोलकर से संपर्क हो जाए तो…?

‘‘अब वह काफी बूढ़े हो चुके हैं, इसलिए बहुत कम लोगों से मिलते हैं?’’ सावित्री ने कहा, ‘‘उन का फोन नंबर भी डायरेक्टरी में नहीं है. लेकिन संयोग से मेरे पास है.’’

नवीन ने वह नंबर डायल किया तो दूसरी ओर से एक कमजोर सी आवाज आई, ‘‘सोमनाथ सोलकर स्पीकिंग.’’

नवीन ने अपना नाम बताया तो उस आवाज में थोड़ी तेजी आई, ‘‘तुम यकीनन गवाह के तौर पर मुझे अदालत में बुलाना चाहते होगे?’’

‘‘जी हां,’’ नवीन ने कहा, ‘‘इस के अलावा मैं आप को इस केस के बारे में भी कुछ बताना चाहता हूं.’’

‘‘मुझे केस के बारे में सब पता है और तुम्हारे बारे में भी.’’ सोमनाथ सोलकर ने बेरुखी से कहा, ‘‘बहरहाल मैं कल सुबह अदालत पहुंच जाऊंगा.’’