खुल गया महंत की हत्या का राज

20 जून, 2014 को सुबह से ही भीषण गरमी थी. सुबह के 11 बजे के आसपास उत्तराखंड के जिला हरिद्वार के कुंभ मेला  नियंत्रण कक्ष के बाहर काफी भीड़ जमा थी. क्योंकि थोड़ी देर बाद वहां हरिद्वार के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डा. सदानंद दाते 2 साल पहले महानिर्वाणी अखाड़े के श्रीमहंत सुधीर गिरि हत्याकांड का खुलासा करने वाले थे. इसलिए वहां के साधुसंत, राजनेता, पत्रकार और अन्य लोग तरहतरह की चर्चाएं कर रहे थे.

श्रीमहंत की हत्या 14 अप्रैल, 2012 की रात को उस समय हुई थी, जब वह कार से हरिद्वार से गांव बेलड़ा स्थित अपने महानिर्वाणी अखाड़े जा रहे थे.  38 वर्षीय युवा श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या हुए 2 साल से भी ज्यादा का समय बीत चुका था, मगर उन के हत्यारों का पुलिस को पता नहीं चल सका था. इसलिए संत समाज में पुलिस के प्रति काफी रोष था.

हत्या के वक्त रुड़की के थानाप्रभारी कुलदीप सिंह असवाल थे, जो काफी तेजतर्रार थे. उन्होंने भी इस मामले में दरजनों संदिग्धों से पूछताछ की थी. सर्विलांस के माध्यम से भी उन्होंने हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने की कोशिश की थी, मगर उन्हें सफलता नहीं मिली थी.

इस के बाद इस केस को सुलझाने के लिए थाना ज्वालापुर, पथरी, कनखल के थानाप्रभारियों और देहरादून की एसटीएफ टीम को लगाया गया था, लेकिन वे भी पता नहीं लगा सके थे कि श्रीमहंत का हत्यारा कौन है. मीडिया ने भी इस मामले को काफी उछाला था, फिर भी यह केस नहीं खुल सका था. इस मामले के खुलने की किसी को कोई उम्मीद भी नहीं थी.

अब 2 साल बाद जैसे ही लोगों को श्रीमहंत सुधीर गिरि के हत्यारों के गिरफ्तार होने की जानकारी मिली साधुसंतों, पत्रकारों के अलावा आम लोग भी कुंभ मेला नियंत्रण कक्ष के बाहर जमा हो गए थे. सभी के मन में हत्यारों के बारे में जानने की उत्सुकता थी.

एसएसपी ने जब मौजूद लोगों के सामने महंत के हत्यारे की घोषणा की तो सभी दंग रह गए. क्योंकि पुलिस ने जिस आदमी का नाम बताया था, वह एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का मालिक था और वह श्रीमहंत सुधीर गिरि के अखाड़े में मुंशी भी रह चुका था. उस का नाम था आशीष शर्मा.

आशीष शर्मा ने श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या जो कहानी पुलिस को बताई थी, वह इस प्रकार थी.

सुधीर गिरि का जन्म पुरानी रुड़की रोड स्थित दौलतपुर गांव के रहने वाले दर्शन गिरि के यहां हुआ था. दर्शन गिरि गांव में खेतीबाड़ी करते थे. उन के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. बच्चों को उस ने खेतीकिसानी से दूर रख कर उन्हें उच्च शिक्षा हासिल कराई.

पढ़लिख कर बड़े बेटे प्रदीप की रेल कोच फैक्ट्री कपूरथला (पंजाब) में नौकरी लग गई. दोनों बेटियों की वह शादी कर चुके थे. कहते हैं कि पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं. सुधीर गिरि का साधुसंतों के प्रति लगाव बचपन से ही था. वर्ष 1981 में इन के पिता दर्शन गिरि ने उन्हें पढ़ने के लिए कनखल, हरिद्वार के एक स्कूल में भेजा तो सुधीर स्कूल से लौटने के बाद शाम को महानिर्वाणी अखाड़े के मंदिर में जरूर जाते थे.

उस समय वह बाबा हनुमान के सान्निध्य में रह कर मंदिर की देखरेख करते थे. हनुमान बाबा के सान्निध्य में रहने की वजह से सुधीर गिरि पर धीरेधीरे संन्यास का रंग चढ़ने लगा. उन का संसार, समाज और रिश्तेनाते से मोह भंग होने लगा.

सुधीर गिरि ने एक दिन अपने पिता से स्पष्ट कह भी दिया कि वह जल्द ही संन्यास ले लेंगे. यह सुन कर पिता हैरान रह गए. उन्होंने बेटे को समझाया. बाद में मां भी बेटे के सामने गिड़गिड़ाई, लेकिन सुधीर गिरि ने जिद नहीं छोड़ी. सुधीर गिरि के इस फैसले से घर में कोहराम मच गया. भाईबहनों और रिश्तेदारों ने भी सुधीर गिरि को समझाया और संन्यास न लेने की सलाह दी.

सुधीर गिरि ने सब की बात अनसुनी कर दी. बात सितंबर, 1988 की है. उस समय सुधीर गिरि की उम्र मात्र 13 साल थी और वह उस समय कक्षा 8 में पढ़ रहे थे. उसी दौरान वह अचानक घर से गायब हो गए.

सुधीर गिरि के अचानक गायब होने से घर वाले परेशान हो गए. उन्होंने आसपास के क्षेत्रों व हरिद्वार के अखाड़ों में उन की काफी तलाश की. लेकिन सुधीर गिरि का कहीं भी पता नहीं चला. पिता दर्शन गिरि ने जब हनुमान बाबा से पूछा तो उन्होंने कहा कि सुधीर गिरि ने उन से दीक्षा तो ली थी, मगर इस समय वह कहां है, उन्हें मालूम नहीं.

घर वालों के जेहन में एक सवाल यह भी उठ रहा था कि कहीं उस की किसी ने हत्या तो नहीं कर दी. बहरहाल काफी खोजबीन के बाद भी जब सुधीर गिरि का कोई सुराग नहीं मिला तो घर वाले थकहार कर बैठ गए.

10 साल बाद दर्शन गिरि को कहीं से पता चला कि सुधीर गिरि कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के एक आश्रम में है और उस ने संन्यास ले लिया है. दर्शन गिरि परिवार सहित बेटे से मिलने कुरुक्षेत्र के आश्रम पहुंचे तो पहले सुधीर गिरि ने अपने परिजनों से मिलने से ही मना कर दिया.

किसी तरह जब मां व बहनें उस से मिलीं तो उन्होंने उन से साफ कह दिया कि अब उन्होंने संन्यास ले लिया है, इसलिए उन का इस समाज व संसार से कोई नाता नहीं है. यह सुनते ही मां और बहनों की आंखों में आंसू आ गए. वह उस से वापस घर चलने के लिए गिड़गिड़ाने लगीं. लेकिन सुधीर गिरि पर उन के गिड़गिड़ाने का कोई असर नहीं पड़ा.

सुधीर गिरि ने अंत में यही कहा, ‘‘संन्यास ले कर मैं ने कुछ ऐसा नहीं किया, जिस से परिवार की प्रतिष्ठा को धब्बा लगे. इसलिए मेरी आप लोगों से विनती है कि आप अब मेरा पीछा करना और मुझे खोजना बंद कर दें.’’

इतना कह कर सुधीर गिरि आश्रम के अंदर चले गए. परिजन रोतेबिलखते घर लौट गए.

इस के बाद सुधीर गिरि लगभग 6 सालों तक कुरुक्षेत्र में रहे. फिर वह हरिद्वार स्थित अखाड़े में रहने लगे. वह महंत हो गए तो उन के नाम के साथ श्रीमहंत जुड़ गया.

श्रीमहंत सुधीर गिरि ज्यादातर अखाड़े की प्रौपर्टी की देखरेख में व्यस्त रहते थे. वह अकसर अखाड़े के संतों द्वारा जमीन बेचने का विरोध करते थे. अखाड़े में प्रौपर्टी डीलरों के आने पर उन्हें ऐतराज रहता था, इसलिए वह अपने अखाड़े में किसी प्रौपर्टी डीलर को घुसने नहीं देते थे.

इसी अखाड़े में आशीष शर्मा उर्फ टुल्ली काम करता था. वह कनखल के रहने वाले सुभाष शर्मा का बेटा था. अखाड़े की काफी जमीनजायदाद थी. आशीष का काम अखाड़े की आयव्यय का ब्यौरा रखना था. सालों पहले आशीष ने अखाड़े के संतों से कुछ जमीन सस्ते में खरीद कर महंगे दामों में बेच दी थी.

इस के बाद वह कुछ प्रौपर्टी डीलरों व बिल्डरों से भी जुड़ गया था. सन 2004 में जब श्रीमहंत सुधीर गिरि गुरु हनुमान बाबा इस अखाड़े से जुड़े तो उन्होंने अखाड़े की जमीन बेचने का विरोध किया. इसी बात को ले कर एक बार आशीष और हनुमान बाबा की बहस हुई तो आशीष को अखाड़े से निकाल दिया गया.

सन 2006 में आशीष दोबारा अखाड़े में आया, तो उसे अखाड़े का मुंशी बना दिया गया. कुछ दिनों बाद आशीष ने अखाड़े की एक प्रौपर्टी को बेचने की बात चलाई तो हनुमान बाबा ने इस का विरोध किया.

सन 2010 के कुंभ मेले के दौरान गुरु हनुमान के शिष्य श्रीमहंत सुधीर गिरि को अखाड़े का सचिव बनाया गया तो उन्होंने भी अखाड़े की जमीन बेचने का विरोध करना शुरू कर दिया. इस के एक साल बाद आशीष ने अपनी मरजी से अखाड़े की नौकरी छोड़ दी. प्रौपर्टी के धंधे में आशीष करोड़ों के वारेन्यारे कर चुका था.

आशीष पहले से ही श्रीमहंत से रंजिश रखता था, क्योंकि उन के विरोध की वजह से वह अखाड़े की जमीन नहीं बेच पाया था. इस के अलावा उसे इस बात का भी डर था कि कहीं श्रीमहंत उस के कारनामों की पुलिस प्रशासन के सामने पोलपट्टी न खोल दे, इसलिए आशीष उर्फ टुल्ली ने श्रीमहंत की हत्या कराने की ठान ली.

श्रीमहंत की हत्या करवाने के लिए आशीष ने मुजफ्फरनगर की सरकुलर रोड निवासी प्रौपर्टी डीलर हाजी नौशाद से संपर्क किया. हाजी नौशाद ने आशीष की मुलाकात इम्तियाज और महताब से कराई, जो शूटर थे. दोनों ही शूटर मुजफ्फरनगर में रहते थे. वे दोनों मुजफ्फरनगर के बदमाश थे. 9 लाख रुपए में श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या की बात तय हो गई.

उस वक्त श्रीमहंत कभी कनखल तो कभी बेलड़ा स्थित महानिर्वाणी अखाड़े में रहते थे. दोनों शूटर कई महीने तक आशीष के साथ बतौर ड्राइवर रहे और श्रीमहंत की रेकी करते रहे.

14 अप्रैल, 2012 को रात 8 बजे श्रीमहंत सुधीर गिरि हरिद्वार से गांव बेलड़ा स्थित महानिर्वाणी अखाड़े जा रहे थे. दोनों शूटर उन का पीछा कर रहे थे. जैसे ही श्रीमहंत की कार रुड़की के निकट बेलड़ा गांव के बाहर पहुंची, दोनों शूटरों ने उन पर फायरिंग कर के उन की हत्या कर दी.

हत्या करने के बाद दोनों शूटर वापस मुजफ्फरनगर चले गए. फिर कुछ महीने बाद ये शूटर हरिद्वार आ कर आशीष के साथ प्रौपर्टी के धंधे में लग गए.

आशीष का प्रौपर्टी का धंधा अच्छा चल रहा था. उस ने एक कंस्ट्रक्शन कंपनी भी बना ली थी. इम्तियाज और महताब को आशीष 25-25 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन देता था. इन दोनों शूटरों को उस ने अपने पास इसलिए रख रखा था कि विवाद वाली प्रौपर्टी का सौदा करने में उन का उपयोग कर सके.

मामला एक महंत की हत्या का था, इसलिए पुलिस प्रशासन हरकत में आ गया. तेजतर्रार पुलिस अधिकारियों के अलावा एसटीएफ ने भी श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या के मामले को सुलझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली. जांच अधिकारियों को आशीष उर्फ टुल्ली पर शक तो हुआ था. लेकिन अपनी ऊंची पहुंच की वजह से बच गया था. पुलिस जब भी उस से सख्ती से पूछताछ करती, वह अपनी ऊंची पहुंच के बल पर विवेचना अधिकारी को ही बदलवा देता था.

श्रीमहंत की हत्या को तकरीबन 2 साल बीत चुके थे, इसलिए आशीष और दोनों शूटर निश्चिंत हो गए थे. आशीष इन शूटरों के जरिए देहरादून की एक प्रौपर्टी को हथियाने की योजना बना रहा था. श्रीमहंत की हत्या के बाद तत्कालीन क्षेत्रीय सांसद हरीश रावत अफसोस जताने कनखल स्थित महानिर्वाणी अखाड़े गए थे.

उस वक्त हरीश रावत ने इस हत्याकांड की सीबीआई जांच कराने की मांग तत्कालीन बहुगुणा सरकार से की थी. उत्तराखंड में राजनैतिक बयार बदलने पर हरीश रावत प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो संत समाज में श्रीमहंत सुधीर गिरि हत्याकांड खुलने की आस जागी.

अखिल भारतीय दशनाम गोस्वामी समाज के मीडिया प्रभारी प्रमोद गिरि ने 14 जून, 2014 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत को पत्र लिख कर श्रीमहंत की हत्या की सीबीआई जांच कराने की मांग की.

प्रमोद गिरि के इस पत्र का जादू की तरह असर हुआ. पत्र पढ़ते ही मुख्यमंत्री हरीश रावत को अपने वे शब्द याद आ गए जो उन्होंने महानिर्वाणी आश्रम में कहे थे. इसलिए उन्होंने श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या का राज खोलने के लिए प्रदेश पुलिस मुख्यालय को सख्त निर्देश दिए, साथ ही उन्होंने यह हिदायत भी दी कि इस केस की तफतीश करने वाले पुलिस अधिकारियों पर कोई दबाव न बनाया जाए.

एसएसपी डा. सदानंद दाते ने इस हत्याकांड की जांच के लिए एक पुलिस टीम बनाई, जिस में एसपी (सिटी) एस.एस. पंवार, रुड़की के थानाप्रभारी योगेंद्र चौधरी, हरिद्वार के एसओजी प्रभारी नरेंद्र बिष्ट व रुड़की के एसओजी प्रभारी मोहम्मद यासीन को शामिल किया. टीम का निर्देशन एसपी (देहात) अजय सिंह कर रहे थे. केस की फाइल का विस्तृत अध्ययन करने के बाद टीम को आशीष शर्मा उर्फ टुल्ली पर शक हुआ.

तब एसपी (सिटी) एस.एस. पंवार ने आशीष शर्मा को अपने कार्यालय में बुला कर सख्ती से पूछताछ की तो इस हत्या पर पड़ा परदा हट गया. उस ने स्वीकार कर लिया कि श्रीमहंत की हत्या उसी ने कराई थी. इस के बाद उस ने हत्या की पूरी कहानी पुलिस को बता दी. आशीष से पूछताछ के बाद पुलिस ने 20 जून, 2014 को मुजफ्फरनगर से हाजी नौशाद, इम्तियाज और मेहताब को भी गिरफ्तार कर लिया.

तीनों आरोपियों को हरिद्वार ला कर गहन पूछताछ की गई. पूछताछ में इम्तियाज और महताब ने पुलिस को बताया कि उन की मुलाकात हाजी नौशाद ने ही आशीष शर्मा से कराई थी. उसी के कहने पर उन्होंने श्रीमहंत सुधीर गिरि की हत्या की थी. थानाप्रभारी योगेंद्र चौधरी ने चारों आरोपियों के बयान दर्ज कर लिए. उन की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त पिस्टल, एक देशी तमंचा और भारी मात्रा में कारतूस भी बरामद किया गया.

इंसपेक्टर योगेंद्र सिंह चौधरी ने बताया कि इस प्रकरण में आशीष से जुड़े कुछ नेताओं, पत्रकारों  और पुलिस वालों के नाम भी सामने आ रहे हैं. केस में अगर उन की संलिप्तता पाई जाती है तो सुबूत जुटा कर उन के खिलाफ भी काररवाई की जाएगी. पूछताछ और सुबूत जुटा कर सभी अभियुक्तों को कोर्ट में पेश किया गया, जहां से उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

असली पुलिस पर भारी नकली पुलिस

15 शादियां करने वाला लुटेरा दूल्हा

पति पत्नी और वो – भाग 1

‘‘मम्मी, मैं जानता हूं कि आप को मेरी एक बात बुरी लग सकती है. वो यह कि सुमन आंटी जो आप की सहेली  हैं, उन का यहां आना मुझे अच्छा नहीं लगता.  और तो और मेरे दोस्त तक कहते हैं कि वह पूरी तरह से गुंडी लगती हैं.’’ बेटे यशराज की यह बात सुन कर मां दीपा उसे देखती ही रह गई.

दीपा बेटे को समझाते हुए बोली, ‘‘बेटा, सुमन आंटी अपने गांव की प्रधान है. वह ठेकेदारी भी करती है. वह आदमियों की तरह कपड़े पहनती है, उन की तरह से काम करती है इसलिए वह ऐसी दिखती है. वैसे एक बात बताऊं कि वह स्वभाव से अच्छी है.’’

मां और बेटे के बीच जब यह बहस हो रही थी तो वहीं कमरे में दीपा का पति बबलू भी बैठा था. उस से जब चुप नहीं रहा गया तो वह बीच में बोल उठा,‘‘दीपा, यश को जो लगा, उस ने कह दिया. उस की बात अपनी जगह सही है. मैं भी तुम्हें यही समझाने की कोशिश करता रहता हूं लेकिन तुम मेरी बात मानने को ही तैयार नहीं होती हो.’’

‘‘यश बच्चा है. उसे हमारे कामधंधे आदि की समझ नहीं है. पर आप समझदार हैं. आप को यह तो पता ही है कि सुमन ने हमारे एनजीओ में कितनी मदद की है.’’ दीपा ने पति को समझाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘मदद की है तो क्या हुआ? क्या वह अपना हिस्सा नहीं लेती है? और 8 महीने पहले उस ने हम से जो साढ़े 3 लाख रुपए लिए थे. अभी तक नहीं लौटाए.’’ पति बोला.

मां और बेटे के बीच छिड़ी बहस में अब पति पूरी तरह शामिल हो गया था.

‘‘बच्चों के सामने ऐसी बातें करना जरूरी है क्या?’’ दीपा गुस्से में बोली.

‘‘यह बात तुम क्यों नहीं समझती. मैं कब से तुम्हें समझाता आ रहा हूं कि सुमन से दूरी बना लो.’’ बबलू सिंह ने कहा तो दीपा गुस्से में मुंह बना कर दूसरे कमरे में चली गई. बबलू ने भी दीपा को उस समय मनाने की कोशिश नहीं की. क्योंकि वह जानता था कि 2-4 घंटे में वह नार्मल हो जाएगी.

बबलू सिंह उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर के इस्माइलगंज में रहता था. कुछ समय पहले तक इस्माइलगंज एक गांव का हिस्सा होता था. लेकिन शहर का विकास होने के बाद अब वह भी शहर का हिस्सा हो गया है. बबलू सिंह ठेकेदारी का काम करता था. इस से उसे अच्छी आमदनी हो जाती थी इसलिए वह आर्थिकरूप से मजबूत था.

उस की शादी निर्मला नामक एक महिला से हो चुकी थी. शादी के 15 साल बाद भी निर्मला मां नहीं बन सकी थी. इस वजह से वह अकसर तनाव में रहती थी. बबलू सिंह को बैडमिंटन खेलने का शौक था. उसी दौरान उस की मुलाकात लखनऊ के ही खजुहा रकाबगंज मोहल्ले में रहने वाली दीपा से हुई थी. वह भी बैडमिंटन खेलती थी. दीपा बहुत सुंदर थी. जब वह बनठन कर निकलती थी तो किसी हीरोइन से कम नहीं लगती थी.

बैडमिंटन खेलतेखेलते दोनों अच्छे दोस्त बन गए. 40 साल का बबलू उस के आकर्षण में ऐसा बंधा कि शादीशुदा होने के बावजूद खुद को संभाल न सका. दीपा उस समय 20 साल की थी. बबलू की बातों और हावभाव से वह भी प्रभावित हो गई. लिहाजा दोनों के बीच प्रेमसंबंध हो गए. उन के बीच प्यार इतना बढ़ गया कि उन्होंने शादी करने का फैसला कर लिया.

दीपा के घर वालों ने उसे बबलू से विवाह करने की इजाजत नहीं दी. इस की एक वजह यह थी कि एक तो बबलू दूसरी बिरादरी का था और दूसरे बबलू पहले से शादीशुदा था. लेकिन दीपा उस की दूसरी पत्नी बनने को तैयार थी. पति द्वारा दूसरी शादी करने की बात सुन कर निर्मला नाराज हुई लेकिन बबलू ने उसे यह कह कर राजी कर लिया कि तुम्हारे मां न बनने की वजह से दूसरी शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. पति की दलीलों के आगे निर्मला को चुप होना पड़ा क्योंकि शादी के 15 साल बाद भी उस की कोख नहीं भरी थी. लिहाजा न चाहते हुए भी उस ने पति को सौतन लाने की सहमति दे दी.

घरवालों के विरोध को नजरअंदाज करते हुए दीपा ने अपनी उम्र से दोगुने बबलू से शादी कर ली और वह उस की पहली पत्नी निर्मला के साथ ही रहने लगी. करीब एक साल बाद दीपा ने एक बेटे को जन्म दिया जिस का नाम यशराज रखा गया. बेटा पैदा होने के बाद घर के सभी लोग बहुत खुश हुए. अगले साल दीपा एक और बेटे की मां बनी. उस का नाम युवराज रखा. इस के बाद तो बबलू दीपा का खास ध्यान रखने लगा. बहरहाल दीपा बबलू के साथ बहुत खुश थी.

दोनों बच्चे बड़े हुए तो स्कूल में उन का दाखिला करा दिया. अब यशराज जार्ज इंटर कालेज में कक्षा 9 में पढ़ रहा था और युवराज सेंट्रल एकेडमी में कक्षा 7 में. दीपा भी 35 साल की हो चुकी थी और बबलू 55 का. उम्र बढ़ने की वजह से वह दीपा का उतना ध्यान नहीं रख पाता था. ऊपर से वह शराब भी पीने लगा. इन्हीं सब बातों को देखने के बाद दीपा को महसूस होने लगा था कि बबलू से शादी कर के उस ने बड़ी गलती की थी. लेकिन अब पछताने से क्या फायदा. जो होना था हो चुका.

बबलू का 2 मंजिला मकान था. पहली मंजिल पर बबलू की पहली पत्नी निर्मला अपने देवरदेवरानी और ससुर के साथ रहती थी. नीचे के कमरों में दीपा अपने बच्चों के साथ रहती थी. उन के घर से बाहर निकलने के भी 2 रास्ते थे. दीपा का बबलू के परिवार के बाकी लोगों से कम ही मिलनाजुलना  होता था. वह उन से बातचीत भी कम करती थी.

बबलू को शराब की लत हो जाने की वजह से उस की ठेकेदारी का काम भी लगभग बंद सा हो गया था. तब उस ने कुछ टैंपो खरीद कर किराए पर चलवाने शुरू कर दिए थे. उन से होने वाली कमाई से घर का खर्च चल रहा था.

शुरू से ही ऊंचे खयालों और सपनों में जीने वाली दीपा को अब अपनी जिंदगी बोरियत भरी लगने लगी थी. खुद को व्यस्त रखने के लिए दीपा ने सन 2006 में ओम जागृति सेवा संस्थान के नाम से एक एनजीओ बना लिया. उधर बबलू का जुड़ाव भी समाजवादी पार्टी से हो गया. अपने संपर्कों की बदौलत उस ने एनजीओ को कई प्रोजेक्ट दिलवाए.

इसी बीच सन 2008 में दीपा की मुलाकात सुमन सिंह नामक महिला से हुई. सुमन सिंह गोंडा करनैलगंज के कटरा शाहबाजपुर गांव की रहने वाली थी. वह थी तो महिला लेकिन उस की सारी हरकतें पुरुषों वाली थीं. पैंटशर्ट पहनती और बायकट बाल रखती थी. सुमन निर्माणकार्य की ठेकेदारी का काम करती थी. उस ने दीपा के एनजीओ में काम करने की इच्छा जताई. दीपा को इस पर कोई एतराज न था. लिहाजा वह एनजीओ में काम करने लगी.

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लूट फार एडवेंचर – भाग 5

तीनों कमा चुके थे 50-50 करोड़

“मेरे हिस्से लगभग 22 लाख रुपए आए थे. मैं उन पैसों को ले कर महानगर में आ गया. यहां आ कर यहां के एक पिछड़े इलाके में एक जिम खोल लिया. यह इस पिछड़े इलाके का एकमात्र जिम था, अत: जल्दी ही प्रसिद्ध हो गया और काफी चलने लगा. धीरेधीरे मैं ने शहर के और इलाकों में भी अपने जिम की ब्रांचेें खोल दीं. प्रसिद्धि के साथसाथ बिजनैस भी अच्छा बढ़ गया. आज लगभग हर बड़े शहर में हमारे जिम की ब्रांच है.

“आज 7 सालों के बाद मेरी चलअचल संपत्ति की कीमत 50 करोड़ से अधिक है. मैं ने अपने सभी वेंचर्स का नाम गेलार्ड रखा है. आज तुम जहां बैठे हो, उस का मालिक भी मैं ही हूं.” जगन ने बताया.

“मैं उस घटना के बाद एक इंडस्ट्रियल एरिया में चला गया. जहां मैं ने देखा कि ज्यादातर इंडस्ट्री में खेती के बाद निकले हुए हस्क यानी भूसे को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते है. लेकिन किसानों को पेमेंट 15-20 दिन बाद ही मिल पाता था. इस से उन्हें बड़ी परेशानी होती थी. मैं ने किसानों से सस्ता भूसा तत्काल पेमेंट का खरीदा. फिर उसे इंडस्ट्री में सप्लाई करना शुरू कर दिया. इस में निश्चित प्रौफिट तो था ही, साथ ही पैसा भी सुरक्षित रिसाइकल हो रहा था. आज मैं उस इलाके में भूसा किंग के नाम से जाना जाता हूं.

पिछले दिनों मैं ने भूसे को कंप्रेस्ड कर कोयले जैसा ईंधन बनाने की फैक्ट्री भी डाल ली है, जिस से काफी मटेरियल एक्सपोर्ट भी होता है. मुझे बैंक में की गई एडवेंचर से लगभग 22 लाख रुपए मिले थे. आज मैं भी लगभग 50 करोड़ की संपत्ति का मालिक हूं.” छगन ने अपने बारे में बताया.

“मैं भी बचने के लिए एक छोटे से गांव में आ गया. वहां पर सब्जियों की पैदावार भरपूर होती थी, लेकिन सडक़ से काफी अंदर होने के कारण सब्जियों की ढुलाई का साधन पर्याप्त समय पर न मिल पाने के कारण काफी सब्जियां नष्ट करनी पड़ती थी. जिस से उन्हें काफी नुकसान होता था. मैं ने अपने पैसों से एक सेकेंडहैंड ट्रक खरीद कर सब्जियों की शहरों में ढुलाई शुरू कर दी.

आज मैं आसपास के लगभग 20 गांवों से फल व सब्जियां अलगअलग माल्स, स्टार रेटेड होटल्स और मार्किट में सप्लाई करता हूं. मेरे पास आज लगभग 40 बड़े लोडिंग व्हीकल्स हैं और अब मैं अर्थ मूविंग मतलब खुदाई की बड़ी मशीनें भी खरीद कर बड़ेबड़े कौन्ट्रैक्ट लेता हूं. मैं भी कुल जमा 50 करोड़ की हैसियत रखता हूं.” मगन ने बताया.

“मतलब हम अपने इस मिशन में पूरी तरह से कामयाब रहे?” जगन ने सब के बीच प्रश्न रखा.

“हां ऐसा कह सकते हैं. हालांकि हम ने यह काम सिर्फ एडवेंचर के लिए किया था, मगर इस ने हमारी जिंदगी ही बदल दी.” छगन बोला.

“बिलकुल ठीक. लोग आज भी उन एडवेंचरस लूट को याद करते हैं. क्या जोश था यार.” मगन भी सहमत होते हुए बोला,

“आज यकीन नहीं होता अपने आप पर.”

उन के एडवेंर की मीडिया में हुई खूब प्रशंसा

“हम ने जो एडवेंचर किया था, वह अधूरा था. उस समय कुछ मजबूरियां थीं इस कारण उसे पूरा नहीं कर सकते थे. मगर अब कर सकते हैं.” जगन चाय की चुस्कियों के साथ बोला.

“मतलब एक और अडवेंचरस लूट? नहीं भाई, अब मुझ से नहीं होगा. अब उतनी तेजी और चुस्तीफुरती नहीं रही.” मगन बोला.

“मुझे तो वैसे ही शुगर की प्राब्लम हो गई है. सांसें तो जल्दी ही उखड़ जाती हैं आजकल.” छगन भी मगन से सहमत होते हुए बोला

“नहींनहीं, तुम लोग गलत समझ रहे हो. इस बार लूटना नहीं है. लूट का पैसा वापस बैंकों को लौटाना है. मैं इस बोझ के साथ मरना नहीं चाहता कि हम ने अपने स्वार्थ के लिए जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों को लूटा. आज हम तीनों स्थापित हैं और इस कंडीशन में हैं कि उन पैसों को बिना किसी आपत्ति के वापस लौटा सकते हैं.” जगन बोला.

“सच कहते हो जगन. कभीकभी जब मैं यह सब सोचता हूं तो लगता है हम ने गलत ही किया. और यह ख्याल मुझे अंदर तक कचोटता है.” मगन बोला.

“मगर दोस्तो, यह सब इतना आसान भी नहीं है. लूटते समय जितना साहस दिखाया थी, उस से ज्यादा दिलेरी की जरूरत अभी पड़ेगी. दूसरा लोगों को हमारा नाम भी पता चल जाएगा. उस समय लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी, यह भी सोचना आवश्यक है. इस का असर हमारे जमे जमाए बिजनैस पर भी पड़ सकता है.” छगन ने अपने विचार रखें.

“मैं ने यह सब सोच रखा है दोस्तों. जिस तरह हम ने लूट के समय अपना चेहरा ढंका था, उसी तरह पैसे लौटाते समय हम अपना नाम व पहचान गुप्त ही रखेंगे. सब से बड़ी बात पैसा लौटाने की सूचना अकेले बैंक मैनेजर्स को न दे कर पुलिस, कलेक्टर और यथासंभव न्यूजपेपर्स व चैनल्स वालों को भी देंगे.” जगन बोला .

“अच्छा विचार है. अगर हमारी पहचान गुप्त रहती है तो हम यह एडवेंचर भी करना चाहेंगे.” मगन बोला.

“बिलकुल,” छगन भी सहमति दिखाते हुए बोला.

“योजना यह है कि हम ने बैंकों से लूट का जितना पैसा अपने पास रखा है, उतना ही पैसा हम अलगअलग लौक किए हुए सूटकेस में रख कर रेलवे के क्लौकरूम में रख देंगे.

“क्लौकरूम वाले बिना रिजर्वेशन टिकट के सामान नहीं रखते हैं. अत: हमें किसी फरजी नाम से रिजर्वेशन करवाना होगा. यह रिजर्वेशन हम टिकट विंडो से ही करवाएंगे. इस से मिले पीएनआर नंबर के बेस पर हम क्लौकरूम में सामान आसानी से रख पाएंगे.

“सामान रखते समय क्लौकरूम का क्लर्क पहचान पत्र मांग सकता है. इस के लिए 3 आधार कार्ड को ग्राफ्टिंग मेथड से एक बना कर नया आधार कार्ड तैयार कर लेंगे.” जगन बता रहा था.

“मतलब नंबर किसी और का, नाम किसी और का और पता किसी तीसरे का?” मगन ने पूछा.

“बिलकुल सही. मैं जिम में एंट्री लेते समय कस्टमर का आधार कार्ड लेता हूं. मैं उन में से ही किसी पुराने ग्राहक के आधार कार्ड की फोटोकौपी निकलवा लूंगा. बाकी 2 आधार कार्ड का इंतजाम तुम्हारे डाटाबेस में से करना ताकि इन्क्वायरी के समय किसी एक प्रतिष्ठान पर शक ना जाए.

क्लौकरूम में सामान जमा करते समय हम अपने चेहरे कवर रखेंगे ताकि स्टेशन के कैमरों में हमारा चेहरा दिखाई न पड़े. सामान्यत: क्लौकरूम में कोई भी व्यक्ति 7 दिनों तक हमारे सामान को लावारिस नहीं मानता है.

क्लौकरूम में सामान जमा करने के बाद इस की सूचना स्पीड पोस्ट के माध्यम से कलेक्टर, एसपी, बैंक मैनेजर और न्यूजपेपर व चैनल्स को दे देंगे. यहां इस बात का भी ध्यान रखेंगे कि यह सूचना कंप्यूटर के प्रिंटर से न निकाल कर हाथों से लिखी होगी. ताकि कंप्यूटर प्रिंटर की आईपी के द्वारा हम लोग सुरक्षित रहें.” जगन बोला.

20 दिनों के बाद तीनों दोस्त एक बार फिर गेलार्ड कैफे में पार्टी कर रहे थे. सभी न्यूजपेपर्स और चैनल्स पर उन के एडवेंचर की कहानियां सुनाई जा रही थीं.

लूट फार एडवेंचर – भाग 4

तीनों बैंकों का कर लिया चुनाव

“चलो, अभी हमारे पास एक महीने का समय है. इस बीच हम उन बैंकों की पहचान कर लेते हैं, जो हमारी उम्मीद के मुताबिक कैश रखते हैं.” जगन बोला.

“मैं ऐसी बैंकों की पहचान कर चुका हूं जो कम से कम 20 लाख का मिनिमम बैलेंस तो मेंटेन करते ही हैं.” लगभग 15 दिनों के बाद जब तीनों मिले तो छगन बोला.

“कहां पर है ये बैंक?” जगन ने पूछा.

“एक ब्रांच कृषि उपज मंडी समिति की है. दूसरी ब्रांच इंडस्ट्रियल एरिया की है और तीसरी बैंक वह है जहां पर ज्यादातर सरकारी पैसा जमा होता है.” छगन ने बताया.

“वैरी गुड छगन, मैं भी इन तीनों बैंकों के बारे में ही सोच रहा था.” जगन भी सहमत होते हुए बोला.

“सब से बड़ी बात यह कि तीनों ही बैंकों के बंद होने के समय में आधे आधे घंटे का अंतर है. इंडस्ट्रियल एरिया वाली ब्रांच सुबह 9 बजे खुलती है और ग्राहकों के लिए 3 बजे बंद होती है. सरकारी लेनदेन वाली ब्रांच साढ़े 3 बजे और कृषि उपज मंडी समिति वाली ब्रांच 4 बजे बंद होती है,” छगन ने बताया.

“मतलब हमें अपना ऐक्शन ढाई बजे चालू करना होगा और ज्यादा से ज्यादा साढ़े 4 बजे तक खत्म करना ही होगा.” जगन बोला

“मगर रहमत तो गाड़ी खराब होने की सूचना तो तुरंत दे देगा. ऐसे में अगर समय रहते मैकेनिक आ गया तो क्या होगा? बिना गाड़ी के तो एडवेंचर पूरा नहीं होगा न.” मगन बोला.

“रहमत को गाड़ी खराबी की सूचना और बाकी की औपचारिकताएं पूरी करते करते 4-5 पांच घंटे तो लग ही जाएंगे. तब तक हम वैन को उड़ा चुके होंगे. सरकारी तंत्र में कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर निर्णय नहीं ले सकता है. हमें इसी लूप होल का फायदा उठाना है.” जगन ने समझाया.

“वाह जगन, तुम्हारी स्टडी सौलिड और स्ट्रांग है.” मगन तारीफ करते हुए बोला.

“मैं ने अपनी इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए 15 जून की तारीख सोची है.” जगन बोला.

“मगर आज तो 20 मई ही है. 15 जून की तारीख क्यों सोची? इस के पीछे कोई कारण है क्या?” मगन ने पूछा.

“हां, कई कारण हैं. एक तो हम इस बीच के समय में बैंक के स्टाफ की ऐक्टिविटीज अच्छी तरह से नोट कर सकेंगे. और जो ज्यादा ऐक्टिव दिखाई पड़ेंगे उन्हें कंट्रोल करने की तरकीबें भी निकाल सकेंगे.

“दूसरा गरमी अभी ही इतनी बढ़ गई है उस समय तो अपने चरम पर होगी. इसी कारण एसी को सुचारु रूप से चलाने के लिए फ्रंट के शीशे के दरवाजे पहले से बंद होंगे. ऐसे में हमें स्टाफ और ग्राहकों को अंदर ही कंट्रोल करने में आसानी होगी. आने वाले ग्राहक भी बाहर ही रोके जा सकेंगे. तीसरा उस दिन सोमवार भी है. जैसा हम ने प्लान किया था. और चौथा, यह याद रखने के लिए सब से आसान दिन है. क्योंकि यह साल के बीचोबीच का दिन है. याद रहे 7 साल बाद हमें इसी दिन गेलार्ड कैफे में मिलना है.” जगन उत्साहित होते हुए बोला.

“15 जून साल के बीचोबीच का दिन कैसे हो सकता है?” छगन ने हैरानी से पूछा.

“साल का छठा महीना और उस के बीच का दिन. सीधा सा गणित.” जगन ने मुसकराते हुए समझाया.

“बहुत सही और आसान कैलकुलेशन.” मगन बोला, “अच्छा, अब हम 14 जून की शाम को ही मिलेंगे. अपनी चुनी हुई बैंकों के स्टाफ की ऐक्टिविटीज पर नजर रखते हैं तब तक.”

हिम्मत करने वालों की जीत होती है. अभी यही बात उन तीनों पर लागू हो रही थी. उन के सभी पांसे सही पड़ रहे थे. सभी कुछ उन की योजना के मुताबिक ही चल रहा था. 10 जून को ही रहमत कि बीवी डिलीवरी के लिए अपने सासससुर के पास चली गई.

14 जून की रात को ही जगन ने बाजार में मिलने वाली साड़ी की सस्ती फाल ले कर कैश वैन के साइलैंसर में घुसा कर उसे जाम कर दिया. इस से पहले वह अपनी डुप्लीकेट चाबी से वैन का इग्नीशियन चैक कर चुका था. मतलब साफ था चाबी अपना काम बराबर कर रही थी.

और 15 जून को वह सब हो गया, जो इन तीनों के अलावा किसी ने कल्पना में भी नहीं की होगी. हालांकि थोड़ाबहुत विरोध अवश्य हुआ, मगर इन तीनों ने अपनी तुरत बुद्धि और साहस के बल पर विपरीत परिस्थियों का सामना करते हुए उस दुष्कर कार्य को कर ही दिया.

तीनों बैंकों से कुल मिला कर लगभग 65 लाख की लूट हुई थी. किसी भी बैंक में 21 लाख से कम की रकम नहीं थी, जो इन तीनों की कल्पना के अनुरूप ही थी. तीनों लूट के बाद एकदूसरे से अनजान अलगअलग शहर में चले गए.

पहली प्लानिंग में मिले 65 लाख रुपए

दूसरे दिन देश के सभी अखबारों और न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर सिर्फ और सिर्फ इस दुस्साहसी घटनाओं का ही जिक्र था. पुलिस और प्रशासन अपनी नाकामी से हाथ मल रही थी. लंबे समय तक लोगों के होंठों पर इस घटना का बखान था. तीनों का मिशन सफल रहा. एक स्वनिर्धारित एडवेंचरस टास्क उन्होंने पूरा कर सब को चौंका दिया.

7 साल बाद. वही तारीख 15 जून समय शाम के 7 बजे. गेलार्ड कैफे के सामने एक मर्सिडीज गाड़ी आ कर खड़ी हुई. उस में से शानदार सूट और सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए छगन उतरा. कुछ ही मिनट बाद फोर्ड की एक बड़ी सी गाड़ी आई. उतरने वाला शख्स मगन था, जो अपने चिरपरिचित महंगी जींस और शर्ट पहने था. लगभग 15 मिनट इंतजार करने के बाद भी जब जगन नहीं आया तो दोनों निराश भाव से कैफे के अंदर चले गए.

“हमें टाइम मैनेजमेंट का पाठ पढ़ाने वाला जगन खुद ही लेट हो गया.” छगन बोला.

“कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस ने उसे पकड़ लिया हो. क्योंकि कैश वैन का ड्राइवर उसे ही पहचानता था. यह संभव है कि वैन की बरामदगी के बाद उस ने जगन का हुलिया पुलिस को बता दिया हो.” मगन ने शंका जाहिर की.

“यदि ऐसा है तो हमें भी तुरंत ही यहां से निकलना चाहिए. बहुत संभव है कि जगन ने पुलिस को हमारे यहां आने की सूचना भी दे दी हो.” छगन चिंतित स्वर में बोला.

7 साल बाद मिले तीनों दोस्त

अभी छगन और मगन बातें कर ही रहे थे कि वेटर ने आ कर उन दोनों को एक परची दी. परची में लिखा था, “सामने वाला केबिन हम लोगों के लिए बुक है उसी में आ जाओ.”

“अरे जगन तो हम से पहले ही यहां पहुंच चुका है. चलो, उसी केबिन में चलते हैं.” छगन खुश होते हुए बोला.

“आओ दोस्तों.” दोनों को देखते ही जगन गर्मजोशी से बोल पड़ा. तीनों एकदूसरे को देख कर बहुत खुश थे.

“सुनाओ अपने 7 साल की प्रोग्रेस.” छगन मुसकराते हुए बोला.

लक्ष्मण रेखा लांघने का परिणाम