पापा की मौत के साल भर बाद मम्मी ने खुद को काफी हद तक संभाल लिया था, लेकिन शालू पिता की मौत के सदमे से नहीं उबर सकी थी. मम्मी खुद को इसलिए संभालने में सफल हो गई थीं, क्योंकि पापा की तेरहवीं की रस्म के पूरा होते ही उन्हें अपनी नौकरी पर जाना पड़ा था.

जिम्मेदारी का बोझ, काम की व्यस्तता और जिंदगी की भागदौड़ ही मम्मी को गम से उबारने में सहायक साबित हुई थी. लेकिन पिता की असमय और अचानक मौत की वजह से अंदर ही अंदर बुरी तरह टूट गई शालू के हालात अलग थे.

मम्मी के काम पर जाने के बाद घर में अकेले पड़े पड़े शालू को पापा की याद बहुत सताती थी, जिस की वजह से वह रोती रहती थी. मम्मी को मालूम था कि उस की गैरमौजूदगी में शालू रोती रहती है. उस की लाललाल आंखें देख कर मम्मी को सब पता चल जाता था.

मम्मी शालू को समझाने की कोशिश करती थीं कि रोने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. हमें सब कुछ भुला कर ही जीने की आदत डालनी होगी. सबकुछ भुलाने का बेहतर तरीका यही है कि तुम भी मेरी तरह खुद को बिजी कर लो. आगे पढ़ने का इरादा हो तो ठीक है, वरना कोई नौकरी कर लो.

मम्मी की बात शालू को ठीक लगती थी. पापा जिंदा रहते तो शालू जरूर आगे की महंगी उच्च शिक्षा के बारे में सोचती. लेकिन वह जानती थी कि मम्मी अपनी नौकरी से इतना खर्च नहीं उठा पाएंगी. वह चूंकि मम्मी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस ने नौकरी करने का फैसला कर लिया. नौकरी के लिए मन बन गया तो उस ने अखबार में नौकरी वाले कालम देखने शुरू कर दिए.

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