Hindi Kahani: गरीबों, अपाहिजों और मजलूमों की कहानियां लिखने वाले सुधांशु को अचानक ऐसा क्या हो गया कि उस की कहानियों से दर्द और हमदर्दी खत्म हो गई.सुधांशु एक ऊंचे दर्जे का लेखक था. वह ज्यादातर अपाहिज, मजलूम और गरीबों की कहानियां लिखता था. अपनी कहानियों में वह उन के दुखदर्द, परेशानियों को इस तरह बयान करता था कि जैसे वे दुखदर्द और परेशानियां उस की व्यक्तिगत हों. वह खुद भी कहा करता था कि अगर वह लेखक न होता तो शायद कुछ भी न होता. ये कहानियां उस की आत्मा से निकली वे आवाजें होती थीं, जिन्हें वह दुनिया को अपनी कलम की मदद से अवगत कराता था.
दुनिया के सारे सुख उस के पास थे. सुंदर सा घर, मातापिता, प्रेम करने वाली बहन और जान छिड़कने वाली मंगेतर, जो उसे भी बहुत प्रिय थी. सुधांशु की मंगेतर सुधा का कहना था कि सुधांशु ने उस से मंगनी तो यों ही कर ली थी, सच्चा प्रेम तो उसे अपनी कहानियों से था, जिन में वह सदैव खोया रहता है. सुधा को वह दिन अच्छी तरह याद था, जब वह सुधांशु और उस की बहन के साथ उस के एक दोस्त मिस्टर राठौर के यहां पार्टी में गई थी. उस पार्टी में बड़ेबड़े लोग आए थे. सभी हंसीमजाक कर रहे थे. सुधांशु बहुत प्रसन्न था और शराफत से सुधा को चाहतभरी नजरों से घूर रहा था. सुधा उसे बहुत प्यारी लग रही थी, जबकि वह बेचारी तमाम लोगों के बीच उस की उन नजरों से परेशान हो रही थी. दीदी भी उस की इस शरारत पर धीरेधीरे मुसकरा रही थीं.
एकाएक बगल से किसी बच्चे के रोने की आवाज आई. सुधांशु ने उधर देखा. वह लगभग ढाई साल का प्यारा सा बच्चा था. मोटेमोटे आंसू उस के गालों पर बह रहे थे. मिसेज राठौर उस के पास खड़ी नफरत से घूरते हुए बच्चे को डांटने के साथ उस की आया को भी डांट रही थीं, ‘‘किस ने कहा था तुम्हें इसे बाहर लाने को. मैं ने तुम से कहा भी था कि जब तक पार्टी खत्म न हो जाए, इसे बाहर मत लाना. एक तो यह ऐसे ही मुसीबत है, दूसरे इसे बाहर ला कर एक और मुसीबत खड़ी कर दी.’’
‘‘क्या हुआ मिसेज राठौर?’’ सुधांशु ने उन के निकट जा कर पूछा, ‘‘यह बच्चा रो क्यों रहा है?’’
‘‘यह बच्चा नहीं, मुसीबत है मिस्टर सुधांशु. यह राठौर साहब की पहली पत्नी का बच्चा है. खुद तो मर गई, हमारे लिए यह मुसीबत छोड़ गई.’’ यह कहते हुए मिसेज राठौर के चेहरे पर ममता नहीं, घृणा थी.
सुधांशु को उन की ये बातें अच्छी नहीं लगीं. उस ने अपना सवाल दोहराया, ‘‘पर यह रो क्यों रहा है?’’
‘‘अरे भई,’’ मिसेज राठौर उकताए हुए लहजे में बोलीं, ‘‘देख नहीं रहे हैं, यह अपाहिज है. इसीलिए मैं इसे घर में ही रखती हूं. आप तो जानते ही हैं, हम सोशल लोग हैं, दिन में न जाने कितनी पार्टियां अटैंड करनी पड़ती हैं. इस अपाहिज को हम कहांकहां लिए फिरते रहें. मैं ने इस के कमरे में इस की जरूरत की सभी चीजें रखवा दी हैं, इस के बावजूद यह बाहर आने की जिद करता रहता है. आज मैं कितना समझा कर आई थी कि कमरे से बाहर आने की जिद मत करना, लेकिन यह माना ही नहीं.’’
इस के बाद वह सुधांशु की ओर मुड़ कर प्यार से बोलीं, ‘‘अरे, आप यहां क्यों खड़े हैं? चलिए उधर, आराम से बैठिए और पार्टी का आनंद लीजिए.’’
‘‘आप चलें, मैं आता हूं.’’ सुधांशु ने कहा.
‘‘ठीक है,’’ उन्होंने कहा. उस के बाद आया से बोलीं, ‘‘इसे अंदर ले जाओ, खबरदार जो अब बाहर लाई.’’
तभी उन्हें कोई परिचित नजर आया तो वह उधर चली गईं. सुधांशु बच्चे की ओर मुड़ कर बोला, ‘‘बेटा, तुम रो क्यों रहे हो? चुप हो जाओ, शाबाश…’’
बच्चे के चेहरे पर डांट का भय अभी तक छाया था. सुधांशु ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘आया, इसे अंदर ले जाओ. और हां, इस के साथ खूब खेलना.’’
सुधांशु का प्यार पा कर बच्चा मुसकराने लगा. उस ने कहा, ‘‘चलो बेटा, अब रोना मत.’’
‘‘अंकल, मैं चल नहीं सकता.’’ बच्चे ने कहा.
‘‘ओह!’’ सुधांशु ने बच्चे को गोद में उठाते हुए दुखी हो कर कहा, ‘‘कोई बात नहीं बेटा. चलो, हम तुम्हें छोड़ देते हैं.’’
सुधा और दीदी की समझ में नहीं आ रहा था कि सुधांशु इतनी देर से वहां क्या कर रहा है. लेकिन जब लौट कर उस ने उन्हें बच्चे के बारे में बताया तो सभी को बहुत दुख हुआ. नरम दिल वाली सुधा की तो आंखें भर आईं.
सुधा के कंधे पर हाथ रख कर सुधांशु ने कहा, ‘‘एक ही बच्चे के बारे में सुन कर तुम्हारी आंखें भर आईं. अभी तो तुम्हें मेरे साथ एक जगह और चलना है. वहां पता नहीं तुम्हारा क्या हाल होगा?’’
‘‘कहां?’’ सुधा ने रूमाल से आंखें पोंछते हुए भर्राई आवाज में पूछा.
‘‘विकलांग बच्चों के स्कूल में एक फंक्शन है, उस में हमें भी बुलाया गया है. मैं चाहता हूं, तुम भी मेरे साथ वहां चलो. कहानियां तो मेरी खूब पढ़ी हैं, आज भाषण भी सुन लो.’’
‘‘ठीक है, मैं तो वैसे भी तुम्हारे साथ चलने को तैयार रहती हूं.’’ सुधा ने उस की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराते हुए कहा.
कुछ ही देर बाद सुधा सुधांशु के साथ स्कूल के मैदान में बने मंडप में सब से आगे बैठी थी. यह विकलांग बच्चों का स्कूल था, जिस में उन्हें पढ़ाने के साथसाथ तरहतरह के हुनर और घरेलू दस्तकारी भी सिखाई जाती थी. स्कूल ठीकठाक था, लेकिन धन की कमी की वजह से उसे चलाने में परेशानी हो रही थी. सरकार से भी इस संस्था को कोई मदद नहीं मिलती थी. आज का यह फंक्शन इसीलिए आयोजित किया गया था कि लोग मदद करें. कुछ लोगों के भाषण देने के बाद सुधांशु का नंबर आया तो उसे सुनने के लिए सुधा संभल कर बैठ गई.
सुधांशु ने अपने भाषण में कहा था कि, ‘यह फंक्शन केवल इसलिए नहीं आयोजित किया गया कि हम स्टेज पर आ कर भाषण दे कर चले जाएं. यह फंक्शन हमें चेताने के लिए आयोजित किया गया है कि हम इन अपंग, अपाहिज बच्चों, नौजवानों और बूढ़ों के लिए क्या कर सकते हैं? केवल यही न कि उन्हें चंद खिलौने और जरूरत की चीजें दे कर कमरे में बंद कर देते हैं. इन में तमाम तो ऐसे हैं, जिन्हें एक जून की रोटी भी नहीं मिल पाती, भीख मांगते हैं.
‘हम यह सब सरकार पर ही क्यों छोड़ देते हैं कि जो करे, सरकार करे? क्या हम सब इन के लिए कुछ नहीं कर सकते? ऐसे तमाम लोग हैं, जिन की तिजोरियां नोटों से अटी पड़ी हैं. अगर वे उस में से इन बच्चों के लिए कुछ दे दें तो शायद इन्हें भी हंसीखुशी से जीने का हक मिल जाए.
‘मैं यहां उपस्थित सभी लोगों से यही प्रार्थना करूंगा कि जो लोग सरकार की मदद करते हैं, वे इन की भी कुछ मदद करें.’
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सुधांशु उतर कर नीचे आया. सुधा ने खड़ी हो कर उस का स्वागत किया. लोगों से मिलतेजुलते दोनों बाहर आए. सुधा और सुधांशु एकदूसरे का हाथ थामे अपनी गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे. सुधा सुधांशु की तारीफ पर तारीफ किए जा रही थी. दोनों एकदूसरे में इस तरह खोए थे कि बगल से आ रही कार को नहीं देख सके और टकरा गए. सुधांशु को होश आया तो वह अस्पताल में था. उस हालत में भी सब से पहले उसे सुधा का खयाल आया. उस ने स्वयं को ऊपर से नीचे तक देखा तो उस के बाएं हाथ पर पट्टी बंधी थी. सिर से भी टीसें उठ रही थीं. उस ने दाहिने हाथ से सिर को टटोला तो वहां भी पट्टियां बंधी थीं. वह बैड से उठने लगा तो कमरे में मौजूद नर्स ने कहा, ‘‘आप उठिए मत, प्लीज लेटे रहिए.’’
‘‘सिस्टर, मेरे साथ एक लड़की भी थी?’’ सुधांशु ने पूछा.
‘‘आप लेटे रहिए, आप की हालत ठीक नहीं है.’’
‘‘नहीं सिस्टर, मैं ठीक हूं, मुझे मामूली चोटें आई हैं. प्लीज मुझे उस के पास ले चलें.’’
‘‘भई, आप तो बहुत जिद्दी हैं. ठीक है, मैं आप को उस के कमरे तक ले चलती हूं. लेकिन आप बाहर ही से देख लीजिएगा. अंदर जाने की इजाजत नहीं है.’’
‘‘ठीक है सिस्टर.’’
‘‘आप के मोबाइल से आप के घर वालों को फोन कर दिया गया है, वे आते ही होंगे.’’ नर्स ने कहा.
सुधा के कमरे में किसी को जाने की इजाजत नहीं थी. उसे औक्सीजन दी जा रही थी. उस के सिर में काफी चोटें आई थीं. थोड़ी ही देर में सुधा और सुधांशु के घर वाले भी आ गए. दीदी तो उसे गले लगा कर रो पड़ीं. सुधा की मम्मी की भी हालत खराब थी. सुधा को स्वस्थ होने में लगभग एक महीना लग गया. उस के सिर और आंखों के कई औपरेशन हुए. उस दिन उस की आंखों की पट्टी खुलनी थी. सब के दिल धड़क रहे थे. सभी उस कोमल और स्नेहमयी मन वाली लड़की के लिए प्रार्थना कर रहे थे. सुधांशु सब से ज्यादा बेचैन था. डाक्टर ने पट्टी खोली तो सुधा की चीखें सुन कर सब व्याकुल हो उठे. वे समझ गए कि अब वह कभी नहीं देख सकेगी.
सुधांशु को गहरा आघात लगा. वह सिर थाम कर बैंच पर बैठ गया. इतनी प्यारी, सुंदर आंखों वाली सुधा अब कभी नहीं देख सकेगी. सुधांशु घंटों सुधा के पास बैठा रहता. कभी पत्रिका पढ़ कर सुनाता तो कभी अखबार. अपने बारे में बताता कि उस ने क्या लिखा, क्या किया. इसी तरह दिन बीत रहे थे. लेकिन धीरेधीरे वह इस बोझिल माहौल से उकताने लगा. परिणामस्वरूप सुधा से दूर होने लगा. अब वह विवशता में ही उस के पास उठताबैठता था. वह सोचता, किसी अंधे के साथ बैठ कर बातें करना भी कोई जिंदगी है. उसे तो उस की बोरियत का अहसास ही नहीं होता. आखिर वह भी तो इंसान है. उस के पास बैठेबैठे उस का दम घुटने लगता है.
ठीक है, उसे सुधा से प्रेम था, वह उस की मंगेतर थी, इस का मतलब यह तो नहीं कि वह पूरा दिन उस के पास बैठा रहे. सुधा भी कितनी निष्ठुर है कि कभी भूल से भी नहीं कहती कि उस के पास बैठ कर वह उकता रहा होगा. बस अपनी ही बातें करती रहती है. धीरेधीरे सुधा के प्रति उस के मन में कड़वाहट भरती गई, जबकि सुधा सोचती थी कि सुधांशु कितना महान है. उस के दिल में अभी भी उस के लिए प्रेम है, तभी तो अपने काम छोड़ कर वह उस से मिलने आता है. उस दिन दीदी बहुत जोर दे कर सुधा को अपने घर ले गई थीं. वह कमरे में बैठी उन से बातें कर रही थी, तभी सुधांशु की गाड़ी का हौर्न सुनाई दिया. दीदी ने कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं अभी आई.’’
कुछ देर के बाद सुधांशु की तेज और उकताई आवाज सुधा को सुनाई दी, ‘‘इस में मैं क्या कर सकता हूं दीदी?’’
‘‘क्यों, तुम उस के मंगेतर हो, तुम नहीं करोगे तो और कौन करेगा?’’ दीदी गुस्से में बोलीं.
‘‘दीदी, हूं नहीं, था.’’ सुधांशु ने कहा.
‘‘क्या?’’ दीदी ने हैरानी से कहा.
‘‘हां दीदी, आप खुद ही सोचें, मैं एक अंधी लड़की से कैसे शादी कर सकता हूं. किसी के दुख में हमदर्दी जताने का मतलब यह नहीं है कि मैं उसे गले से बांध लूंगा. किसी अंधी लड़की को मैं अपना जीवनसाथी कैसे बना सकता हूं.’’ सुधांशु ने खीझ कर कहा.
‘‘यह तुम क्या कह रहे हो सुधांशु?’’ दीदी का दुख और बढ़ गया.
‘‘ठीक ही कह रहा हूं दीदी,’’ सुधांशु ने स्पष्ट कहा, ‘‘ठीक है, मैं उस से विवाह करना चाहता था, वह मुझे पसंद भी बहुत थी. लेकिन अब मैं उस से विवाह नहीं कर सकता. मुझे उस से हमदर्दी है. मैं सदैव उस का ध्यान रखूंगा, उस की मदद करूंगा, लेकिन विवाह मैं किसी ऐसी लड़की से करूंगा, जो मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल सके. केवल प्रेम के सहारे जिंदगी नहीं गुजारी जा सकती.’’
‘‘लेकिन सुधांशु…’’ दीदी ने कुछ कहना चाहा.
‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं दीदी, आप खुद ही सोचिए. मैं कितने बड़ेबड़े फंक्शनों में जाता हूं, क्या मैं वहां सुधा को ले कर जा सकता हूं?’’
‘‘मैं कुछ नहीं जानती,’’ दीदी गुस्से में बोलीं, ‘‘अगर ऐसा ही था तो तुम ने उस से सगाई क्यों की थी? पहले ही सगाई तोड़ दी होती.’’
‘‘मुझे क्या पता था कि ऐसा हो जाएगा.’’
‘‘अगर यही कुछ तुम्हारे साथ हुआ होता तो..?’
‘‘यकीनन मैं सुधा के रास्ते से हट जाता. मैं इतना मतलबी नहीं हूं.’’
‘‘बस सुधांशु, बहुत कह लिया तुम ने, अब बस करो.’’ सुधा से जब सहन नहीं हुआ तो वह बोल पड़ी.
सुधा कब आ कर वहां खड़ी हो गई थी, किसी को पता ही नहीं चला था. उस की आवाज सुन कर सुधांशु शर्मिंदा हो गया था. अपनी शर्मिंदगी को छिपाने के लिए उस ने कहा, ‘‘अरे सुधा, तुम? तुम कब आईं?’’
‘‘सुबह आई थी.’’ खुद को संभाल कर सुधा बोली, ‘‘दीदी, आप कहां हैं?’’
‘‘मैं यहां हूं सुधा. कहो, क्या बात है?’’ यह कहते हुए दीदी की आवाज रुंध गई.
‘‘दीदी, मैं घर जाना चाहती हूं. आप मुझे मेरे घर पहुंचा दीजिए.’’ सुधा ने यह बात इस तरह कही, जैसे उस ने कुछ सुना ही नहीं.
‘‘इतनी जल्दी क्यों जा रही हो सुधा?’’ सुधांशु ने झेंप मिटाने के लिए कहा.
‘‘बस सुधांशु, मेरा मन घर जाने को हो रहा है. चलिए दीदी.’’ एकदम नौर्मल हो कर सुधा ने कहा.
इस लड़की को और न जाने कितने दुख झेलने होंगे? सोच कर दीदी का मन दुखी हो गया. उन्होंने कहा, ‘‘चलो सुधा, मैं तुम्हें पहुंचा देती हूं. अब तुम्हारा यहां रहना बेकार है, क्योंकि तुम ने सब सुन लिया है.’’
सुधा के जाने के बाद थोड़ी देर सुधांशु दुखी रहा, लेकिन उस के बाद उसे लगा, जैसे वह काफी हलका हो गया है. सुधा को ले कर उस के दिमाग पर जो बोझ था, वह उतर गया था, उसे लगा, उस ने जो किया है, ठीक किया है. सुधा ने हालात से समझौता कर लिया था. उस के दिल में क्या था, यह तो किसी को मालूम नहीं था. लेकिन ऊपर से वह बिलकुल नौर्मल लगती थी. वह ब्रेल सीख रही थी, ताकि बोरियत दूर करने के लिए किताबें पढ़ सके. जल्दी ही वह दृष्टिहीनों की किताबें पढ़ने लगी. अब उस का अधिकतर समय पढ़ने में बीतने लगा.
सुधांशु ने पत्रिका खोली, इस अंक में उस की कहानी नहीं छपी थी. वह खीझा, ‘4 महीने पहले कहानी भेजी थी, छापने के बजाय वापस भेज दी.’ ऐसा पहली बार हुआ था, जब उस की कहानी वापस आई थी. उस की कहानियां तो हाथोंहाथ ली जाती थीं. इसीलिए जब उस की कहानी वापस आई तो उसे बहुत विचित्र लगा. लेकिन इस बात को भुला कर उस ने दूसरी कहानी लिखनी शुरू कर दी. पत्रिका के आने वाले अंक में वह अपनी इस कहानी को अवश्य देखना चाहता था. दूसरी ओर सुधा अपने टीचर की सलाह पर दृष्टिहीनों के लिए ब्रेल में एक किताब लिखने लगी. उस के टीचर का मानना था कि उस के अंदर हालात से मुकाबला करने का साहस है. वह अपने हर मसले को आसानी से हल करने का हौसला रखती है.
सुधा की किताब का विषय था, ‘दृष्टिहीनों की समस्याएं और उन का हल’. उस ने अपनी किताब में बताया था कि अंधे और अपंग लोग भी स्वस्थ लोगों जैसी जिंदगी जी सकते हैं. अगर वे साहस से काम लें तो जिंदगी को विवशता न मान कर इनाम समझ कर गुजारें. सुधा ने वह किताब अपने टीचर को पढ़ने के लिए दी तो उन्होंने एक ही बैठक में पूरी किताब पढ़ डाली. उस की इस किताब में दृष्टिहीनों के चलनेफिरने, खानेपीने, उठनेबैठने, बोलनेचालने के बारे में ही नहीं, उन की हर समस्या का हल गहरे अध्ययन और सोच के आधार पर लिखा गया था.
‘‘वाह सुधा, तुम ने तो बहुत अच्छी किताब लिखी है. अब तुम इस किताब को छपवा डालो. तुम्हारी यह किताब देश की हर ब्रेल लाइब्रेरी में रखी जाएगी. हर दृष्टिहीन तुम्हारी इस किताब को इज्जत से देखेगा.’’ टीचर ने कहा.
‘‘थैंक्स सर, मैं…’’ सुधा के बाकी शब्द आंसुओं में भीग गए.
सुधा की यह किताब हाथोंहाथ ली गई. जल्दी ही सारी कौपियां बिक गईं. दोबारा कुछ कौपियां छपवाई गईं. किताब आने के बाद सुधा बहुत खुश थी. मगर दिल रो रहा था. वह सोच रही थी कि अगर वह आंखों से अंधी न होती तो क्या इतनी अच्छी किताब लिख सकती थी? वाकई इंसान जब दिल पर कुछ महसूस करता है, तभी वह रचनाकार बन पाता है. सुधांशु ने जल्दी से पत्रिका का नया अंक खोला. इस अंक में भी उस की कहानी नहीं थी. वह बौखला उठा. उस ने तुरंत संपादक के नाम एक पत्र लिख डाला. अब उसे अपने पत्र के जवाब का इंतजार था. पत्र का जवाब जल्दी ही आ गया. उस में लिखा था—
‘सुधांशु जी,
नमस्कार. हमें बहुत दुख और शर्मिंदगी के साथ कहना पड़ रहा है कि हम आप की कहानियां अपनी पत्रिका में प्रकाशित नहीं कर सके. आप तो हमारी विवशता जानते ही हैं. हम केवल स्तरीय, साफसुथरी और विशिष्ट कहानियां ही प्रकाशित करते हैं, जिन में जिंदगी और प्रवाह होता है, जिन में कोई अधूरापन या बनावट न हो. हम जानते हैं कि आप एक अच्छे लेखक हैं. आप ने बहुत जल्दी अपनी लेखनी का लोहा मनवाया है. हम केवल लेखक के नाम पर कहानी प्रकाशित नहीं करते, कहानी में विषयवस्तु होना चाहिए. विश्वास करें, अगर एक प्रसिद्ध साहित्यकार किसी कारण से स्तर की कहानी नहीं भेज सकता तो हम उसे उस के नाम के आधार पर हरगिज प्रकाशित नहीं करेंगे.
अगर कहानी हमें प्रभावित करेगी तो हम उसे अवश्य प्रकाशित करेंगे. क्षमा कीजिएगा, आप की दोनों कहानियां हमारे स्तर पर खरी नहीं उतरीं. प्लौट पर न तो आप की पकड़ है और न लेखनी में प्रवाह. आप कहतेकहते ठहर जाते हैं. आप अपनी कहानियां दोबारा पूरे ध्यान से लिखें और भेजें.
—संपादक’
सुधांशु सिर पकड़ कर बैठ गया. पीछे से दीदी ने कहा, ‘‘क्यों, क्या हुआ सुधांशु, पत्र में कुछ भयानक लिखा है क्या?’’
सुधांशु शर्मिंदगी से जमीन में गड़ गया. दीदी ने उस का उपहास उड़ाते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ सुधांशु, यह तुम्हारी कहानियों को क्या हो गया? तुम्हारी कहानियां तो हाथोंहाथ ली जाती थीं.’’
‘‘वह क्या है दीदी…’’ उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे.
‘‘वह क्या?’’ दीदी ने व्यंग्य से पूछा.
‘‘दीदी, दरअसल जब मैं ने ये दोनों कहानियां लिखी थीं, तब मैं कुछ परेशान था, इसीलिए…’’ सुधांशु ने सफाई पेश की.
‘‘अच्छा!’’ दीदी हंसते हुए बोलीं, ‘‘क्यों बिना कारण झूठ बोलते हो सुधांशु, उस समय तो तुम बहुत खुश थे, बहुत संतुष्ट थे. सुधा की समस्या भी खत्म हो चुकी थी. तुम्हारे दिमाग पर कोई बोझ नहीं था. लेकिन हां…’’
वह थोड़ा रुकीं. फिर एक गहरी सांस ले कर आगे बोलीं, ‘‘एक बात जरूर थी, जब तुम ने ये कहानियां लिखी थीं, तब तुम्हारे अंदर की इंसानियत मर चुकी थी. जाहिर है, झूठ लिखने में प्रवाह कैसे आ सकता है, जो ऊंचे दरजे की रचनाओं में होता है.’’
सुधांशु ने हैरानी से दीदी को देखा.
‘‘हां सुधांशु,’’ दीदी ने व्यंग्य से कहा, ‘‘तुम अब कभी बढि़या कहानियां नहीं लिख सकते, क्योंकि तुम्हारी इंसानियत मर चुकी है. तुम्हारा भावुक दिल, जो दूसरों के दुखों पर दुखी हो जाता था, उसे तो तुम ने सुधा की आंखों के साथ दफन कर दिया है.’’
सुधांशु सन्न मारे खड़ा था. दीदी का एकएक शब्द तीर की तरह उसे बेध रहा था.
‘‘तुम्हें क्या लगता है, लिखना आसान है. कहानी तुम अभी भी लिख सकते हो, मगर उन कहानियों का साहित्य में कोई स्थान नहीं होगा. वे कहानियां वह होंगी, जो अफीम की तरह कच्चे मस्तिष्कों को अपना आदी बना रही हैं. वह अफीम होगी रोमांस और इश्क की, अपराध और नंगेपन की. अब तुम ऐसी ही कहानियां लिख सकते हो सुधांशु. अब तुम शायद ही अपना पुराना स्तर वापस पा सको. क्योंकि तुम्हारे दिल में अब वह दर्द और हमदर्दी नहीं रही, जो पहले थी. ऐसे में तुम्हारी कलम कैसे साथ निभा सकती है. झूठा दिल कभी सच्चाई नहीं लिख सकता. तुम्हारे पास अब कुछ बाकी नहीं रहा सुधांशु, कुछ भी नहीं. तुम्हारे दिल की दर्द और हमदर्दी की जो दौलत थी, वह खत्म हो चुकी है.’’
दीदी बोल रही थीं और सुधांशु फटीफटी आंखों से उन्हें ताक रहा था. Hindi Kahani






