Hindi Story : वीरता बड़ों की बपौती नहीं होती. जिन बच्चों को अपनी गलती के लिए घर वालों से अकसर डांट खानी पड़ती है, कभीकभी वही नटखट अपनी सूझबूझ और अदम्य साहस से ऐसा कारनामा कर जाते हैं कि बड़े भी दांतों तले अंगुली दबाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. इन 24 बालवीरों ने भी कुछ ऐसे ही कारनामे किए हैं. दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद देश भर में आंदोलन हुए. आंदोलनकारियों की एक ही मांग थी कि सरकार बलात्कारियों के खिलाफ ऐसे सख्त कानून बनाए जिस से उन के मन में खौफ पैदा हो. उस समय आंदोलनों की आबोहवा को देखते हुए सरकार को भी महिलाओं की सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा.
कानून तो सख्त बन गए लेकिन इस के बावजूद महिलाओं पर होने वाले अपराधों में कमी नहीं आई. लड़कियों और महिलाओं के प्रति गलत सोच रखने वालों ने सख्त कानून से भी कोई खौफ नहीं खाया. अगर लोगों के मन में खौफ होता तो लखनऊ निवासी रियाज अहमद की अपनी भांजी रेशम फातमा की तरफ गलत निगाह उठाने की जुर्रत नहीं होती. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की कानपुर रोड स्थित सत्यलोक कालोनी में रहने वाले शमशुल हसन की 3 बेटियां और एक बेटा है. पेशे से बिजनैसमैन शमशुल हसन अपने चारों बच्चों को शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे थे. बिजनैस की वजह से वह सुबह ही अपने घर से निकल जाते थे. उन की पत्नी कौसर जहां ही बच्चों की पढ़ाईलिखाई आदि का ध्यान रखती थीं.
कौसर जहां का एक चचेरा भाई रियाज अहमद था, जो महाराजगंज में रहता था. उस का कौसर जहां के यहां आनाजाना था. वह उन के बच्चों को भी बहुत प्यार करता था. उन की बड़ी बेटी रेशम फातमा को तो वह कुछ ज्यादा ही लाडप्यार करता था. रियाज रेशम से 22 साल बड़ा था, इसलिए कौसर और उन के पति शमशुल हसन ने कभी ऐसावैसा नहीं सोचा. वे यही समझते थे कि मामा होने के नाते यह स्वाभाविक ही है. लेकिन रियाज के दिल में कुछ और ही था. रेशम फातमा जब 10-12 साल की हुई तो उस के शरीर का विकास भी दिखाई देने लगा. साथ ही वह समझदार भी होने लगी थी. कुछ दिनों से रियाज उस के साथ अशोभनीय बातें करने लगा था.
रिश्ते का लिहाज करते हुए रेशम फातमा मामा की हरकतों का विरोध नहीं कर पाती थी. इस का नतीजा यह हुआ कि रियाज की हरकतें बढ़ती गईं. रियाज को इस बात की कोई शरम नहीं थी कि जिस भांजी को वह गलत निगाहों से देखता है, वह उस से 22 साल छोटी है. फातमा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. इत्तफाक से इसी दौरान रियाज काम के सिलसिले में दुबई चला गया तो फातमा ने राहत की सांस ली. वह पढ़ाई में तेज थी. उस ने हाईस्कूल में 90 प्रतिशत अंक हासिल किए थे. उधर 3-4 साल दुबई में रहने के बाद रियाज फिर घर लौट आया. इतने दिन दूर रह कर भी वह बिलकुल नहीं बदला था. इसलिए वह फिर से कौसर जहां के घर आनेजाने लगा. अब तक वह 16 साल की हो चुकी थी.
फातमा को अपने चंगुल में फांसने के लिए रियाज उस के साथ ऊलजुलूल हरकतें करने लगा. फातमा उस की मंशा समझ चुकी थी. उस ने मन ही मन तय कर लिया था कि वह चुप न रह कर कलियुगी मामा की हरकतों का विरोध करेगी. उस ने ऐसा किया भी. उस ने रियाज को चेतावनी दे दी कि अगर उस ने अपनी हरकतें बंद नहीं कीं तो वह अपने मम्मीपापा से उस की शिकायत कर देगी. इस से रियाज सहम तो गया लेकिन एक दिन मौका देख कर उस ने बेशरमी से अपने मन की बात फातमा से बताते हुए कहा कि वह उस से शादी करना चाहता है. उस ने फातमा को यह भी धमकी दी कि यदि उस ने हामी नहीं भरी तो वह कोई आपत्तिजनक फोटो उस के चेहरे के साथ चिपका कर इंटरनेट पर डाल देगा.
फातमा ने इस बार हिम्मत से काम लिया. उसे मामा की यह बात इतनी बुरी लगी कि उस ने उसे खरीखोटी सुना दी. इतना ही नहीं फातमा ने रियाज की इस हरकत के बारे में अपनी मम्मी को भी बता दिया. अपने भाई रियाज का असली चेहरा कौसर जहां के सामने आया तो वह गुस्से से आगबबूला हो उठीं. उन्होंने यह बात पति को बता दी. बदनामी की वजह से ज्यादा होहल्ला करने के बजाय शमशुल ने रियाज को सख्त लहजे में अपने यहां आने के लिए मना कर दिया. इस से रियाज समझ गया कि फातमा ने घर वालों को सब कुछ बता दिया है. इस के बाद उस ने बदले की भावना से फातमा को सबक सिखाने के लिए एक खौफनाक योजना तैयार कर ली.
रेशम फातमा लखनऊ के स्टेला मौरिस स्कूल में सीनियर सेकेंडरी में पढ़ रही थी. हाईस्कूल की तरह इस बार भी वह बोर्ड एग्जाम में अच्छे नंबरों से पास होने की तैयारी में जुटी हुई थी. इस के लिए शमशुल हसन ने बेटी का ट्यूशन भी लगवा दिया था. रेशम रोजाना अपने घर से करीब 3 किलोमीटर दूर ट्यूशन पढ़ने जाती थी. 1 फरवरी, 2014 को भी वह दोपहर के समय अपने घर से ट्यूशन के लिए निकली. रास्ते में उसे उस का मामा रियाज मिल गया. फातमा को अकेला देख कर रियाज ने उसे चाकू की नोक पर अपनी कार की तरफ धकेला. फातमा ने शोर मचाने की कोशिश की तो रियाज ने उसे जान से मारने की धमकी दी. उस ने एक बार फिर रेशम फातमा के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. साथ ही न मानने पर उस ने गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी भी दी.
लेकिन इन कठिन परिस्थितियों में भी फातमा ने हार नहीं मानी. वह कार में ही उस का विरोध कर के उस के चंगुल से निकलने की कोशिश करती रही. जब रियाज को लगा कि वह उस की बात नहीं मान रही है तो उस ने रेशम फातमा के बाल पकड़ कर खींचे और बोतल में रखा तेजाब उस के सिर पर डालना शुरू कर दिया. शरीर पर तेजाब गिरते ही साढ़े 16 साल की फातमा की त्वचा जलने लगी. इस के बावजूद फातमा खुद को रियाज के चंगुल से छुड़ाने के लिए करीब 15 मिनट तक जूझती रही. जब उस का यह प्रयास विफल रहा तो उस ने एक बार साहस जुटा कर रियाज को धक्का दिया और कार से कूद गई. फिर घायलावस्था में ही वह सड़क पर भागने लगी.
उधर कार से उतर कर रियाज भी उस के पीछेपीछे भागने लगा. इत्तफाक से सामने से एक आटोरिक्शा आता दिखाई दिया तो फातिमा ने उसे रुकवाया. ड्राइवर ने आटो रोक दिया और उस के कहने पर वह उसे नजदीक के थाने ले गया. वहां से उसे सरकारी अस्पताल ले जाया गया. तेजाब से फातमा के सिर की त्वचा, हाथ, चेहरा और एक पैर घायल हो गया था. सूचना मिलने पर उस के मातापिता और अन्य लोग भी अस्पताल पहुंच गए. थाना आशियाना में रियाज के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर के पुलिस उसे तलाशने लगी, लेकिन वह घर पर नहीं मिला.
फातमा के मातापिता को जब लगा कि उन की बेटी का सरकारी अस्पताल में ठीक से इलाज नहीं हो रहा है तो उन्होंने उसे एक निजी अस्पताल में भरती करा दिया. करीब डेढ़ महीने अस्पताल में भरती रहने के दौरान उस की 2 बार सर्जरी हुई, तब कहीं वह ठीक हो सकी. तेजाब के असर से उस के सिर के बाल गिर गए थे. इस घटना के बाद लखनऊ के कई सामाजिक संगठनों ने अभियुक्त की गिरफ्तारी की मांग को ले कर आंदोलन किया. रियाज की तलाश के लिए पुलिस ने रातदिन एक कर दिया. उस के विदेश भागने की संभावना को देखते हुए लुकआफ्टर नोटिस भी जारी कर दिया गया और इंटरपोल की भी मदद ली गई.
बाद में पुलिस ने आरोपी रियाज अहमद को मुंबई एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर लिया. रियाज से पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया. जेल में उस ने 28 दिसंबर, 2014 को आत्महत्या कर ली. रेशम फातमा ने अपने मामा के सामने हार नहीं मानी. उस ने निडर हो कर उस का सामना कर के अदम्य साहस का परिचय दिया. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उस की हिम्मत की सराहना करते हुए उसे वीरता के सर्वोपरि भरत पुरस्कार से सम्मानित किया है. रेशम फातमा भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती है.
गिनती भले ही कम हो, पर ऐसे बच्चों की समाज में कमी नहीं है जो दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा देते हैं. डिब्रूगढ़, असम की रहने वाली 13 साल की एक ऐसी ही बालिका ने अपनी जान जोखिम में डाल कर 10 बच्चों की जान बचाई. बात 4 दिसंबर 2013 की है. दोपहर के समय असम के शिवसागर जिले के सिमलुगुड़ी कस्बे के एक होटल से एक बदमाश अपने दोनों हाथों में रिवाल्वर लिए बाहर निकला. लोग उस से खौफ खाएं, इसलिए उस ने हवा में 2 गोलियां भी चलाईं. इस के बाद वह सामने खड़ी एक स्कूल वैन के पास पहुंच गया. उस वैन में उस समय घर जाने वाले 11 बच्चे बैठे थे. वह बदमाश उस स्कूल वैन में चढ़ गया.
पिस्तौल के बल पर उस ने वैन के ड्राइवर को अपने कब्जे में ले लिया. उस ने ड्राइवर से वैन को घुमवा कर उसे मथुरापुर की तरफ चलने के लिए मजबूर कर दिया. बदमाश के हाथ में हथियार देख कर सभी बच्चे घबरा कर रोने लगे. डिब्रूगढ़ की रहने वाली गुंजन शर्मा उन सब बच्चों में बड़ी थी. साढ़े 13 साल की गुंजन भी उस समय भयभीत थी. लेकिन बच्चों को रोते देख उस का दिल पसीज गया. उस ने हमलावर से कहा कि सारे बच्चों को छोड़ कर वह उसे बंधक बना ले.
इस से पहले कि हमलावर उसे कोई जवाब देता, सांतक बौर्डर के पास वैन अचानक एक गड्ढे में गिर गई. यह देख वह बदमाश ड्राइवर और अन्य बच्चों को छोड़ कर गुंजन शर्मा को ले कर जंगल के रास्ते पड़ोसी राज्य में घुस गया. उधर किसी तरह से ड्राइवर वैन से निकला और उस ने एकएक कर के बच्चों को बाहर निकालना शुरू कर दिया. कुछ देर बाद वहां पास के गांव के लोग भी जमा हो गए. यह बात पुलिस तक भी पहुंच गई. पुलिस को जब पता चला कि बदमाश साढ़े 13 साल की छात्रा गुंजन शर्मा को अपने साथ ले गया है तो उस ने जंगल में कौंबिंग शुरू कर दी. वह रात भर नहीं मिली. उस बदमाश ने गुंजन को अगले दिन भोर में 4 बजे छोड़ा.
गुंजन उस बियाबान जंगल से बाहर निकलने की कोशिश करती रही. करीब एक घंटे की मशक्कत के बाद वह जंगल में बनी एक झोपड़ी तक पहुंची. उस झोपड़ी में रहने वाले व्यक्ति को गुंजन ने आपबीती सुनाई तो उस ने पुलिस को सूचना दी. तब कहीं जा कर पुलिस उस के पास तक पहुंच सकी. गुंजन शर्मा ने वैन में मौजूद बच्चों को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी थी. ऐसा कर के उस ने अदम्य साहस और कर्त्तव्यपरायणता का परिचय दिया. उस के इस साहस को देखते हुए भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उसे वीरता के गीता चोपड़ा पुरस्कार से सम्मानित किया है.
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी के रहने वाले देवेश कुमार के साहस की कहानी जान कर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाएंगे. देवेश के पिता आशाराम एक सरकारी जूनियर हाईस्कूल में टीचर हैं. उन का स्कूल घर से करीब 3 किलोमीटर दूर है. साढ़े 16 साल का देवेश अपनी बाइक से पिता को स्कूल छोड़ने जाता था. 15 मई, 2014 को भी वह सुबह पौने 7 बजे पिता को स्कूल छोड़ने गया. जब वह स्कूल पहुंचा तभी सामने वाले कन्या विद्यालय की तरफ से किसी महिला के चीखने की आवाज आई. पिता के कहने पर देवेश तुरंत कन्या विद्यालय की तरफ गया तो विद्यालय की प्रधानाध्यापिका शारदा यादव ने बताया कि बाइक सवार 2 बदमाश उन के गले की सोने की चेन खींच कर ले गए.
तब तक बदमाश काफी दूर निकल चुके थे. देवेश ने उन बदमाशों के पीछे अपनी बाइक दौड़ा दी. करीब 3 किलोमीटर दूर जा कर उस ने अपनी बाइक बदमाशों की बाइक के आगे लगा दी और पीछे बैठे बदमाश के पेट पर घूंसा मारा. वह बदमाश बाइक सहित नीचे गिर गया. तभी दूसरे बदमाश ने देवेश पर तमंचे से गोली चला दी. गोली उस के पेट में लगी. गोली चला कर बदमाश फरार हो गए. देवेश ने अपने भाई अजीत को फोन कर के बुलाया. अजीत उसे कुरावली स्थित सरकारी अस्पताल ले गया. वहां से उसे मैनपुरी भेज दिया गया. हालत नाजुक होने पर उसे सैफई के अस्पताल में भेजा गया.
22 दिन अस्पताल में भरती रहने के दौरान देवेश के पेट का औपरेशन कर के उस की 3 मीटर आंत काटनी पड़ी. देवेश कुमार ने अपने साहसिक और वीरतापूर्ण कार्य से औरों के लिए एक मिसाल कायम की. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इस साहसी बालक को वीरता के संजय चोपड़ा पुरस्कार से सम्मानित किया है. अरुणाचल प्रदेश के जिला लोअर दिबंग वैली का रहने वाला 13 साल का रूमो मीतो 8 नवंबर, 2013 को अपने पिता के साथ खेतों पर गया था. उस के खेतों के पास से राजीव गांधी विद्युतीकरण योजना के तहत 33 किलोवाट की नई लाइन गुजर रही थी. जिस का तार टूटा हुआ था. उस तार से गांव का ही 32 वर्षीय मीलू मेगा चिपका पड़ा था. मीलू को बचाने के लिए रूमो उस के ऊपर कूद पड़ा ताकि उसे नंगे तारों से छुड़ा सके. परंतु झटके से वह खुद भी दूर जा गिरा.
इस के बाद भी रूमो ने हिम्मत नहीं हारी. उस ने एक बार फिर पूरी ताकत से मीलू को धक्का दिया. इस बार वह सफल हो गया. बिजली के झटके से दोनों ही दूर जा गिरे. मीलू बेहोश हो चुका था. उसे अस्पताल ले जाया गया, तब कहीं जा कर उस की जान बच सकी. अपने पराक्रम और सूझबूझ से एक बहुमूल्य जीवन को बचाने वाले रूमो मीतो को भारतीय बाल कल्याण परिषद ने वीरता के बापू गयाधानी पुरस्कार से सम्मानित किया है. वीरता की मिसाल बन चुकी मुजफ्फरनगर की रहने वाली रिया चौधरी को मरणोपरांत बापू गयाधानी पुरस्कार से नवाजा गया है. रिया चौधरी 10 मार्च, 2014 को हाईस्कूल के बोर्ड एग्जाम की तैयारी कर रही थी. उस का छोटा भाई स्कूल गया हुआ था और मातापिता अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थे.
तभी रिया को बाहर कुछ शोर सुनाई दिया. उस ने बाहर जा कर देखा तो पता चला कि उस के मातापिता और ताऊ को कुछ बदमाशों ने घेर रखा है. उन के हाथों में खतरनाक हथियार देख कर रिया घबरा गई. अचानक बदमाशों ने फायरिंग शुरू कर दी. लेकिन मांबाप को बचाने के लिए रिया दौड़ कर उन के सामने खड़ी हो गई. बदमाशों ने जो गोली उस के पिता को निशाना बना कर चलाई थी, वह रिया के सीने में लगी. गोली लगने के बाद भी रिया अपने पिता से चिपकी खड़ी रही. इसी दौरान बदमाशों ने 2 गोलियां और चलाईं जो उस की मां को लगीं. यह देख कर रिया वहीं गिर गई.
बदमाश फायरिंग करते हुए भाग गए. लोगों ने मांबेटी को तुरंत अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल में डाक्टर मां की जान बचाने में तो सफल हो गए लेकिन 15 वर्षीया रिया चौधरी की जान नहीं बच सकी. रिया चौधरी ने अपने पिता का जीवन बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उत्तराखंड के चमोली जिले के कालेश्वर गांव के रहने वाले चंद्रमोहन की 16 वर्षीय बेटी मोनिका 15 जून, 2014 को घर का कामकाज निपटा कर आधा किलोमीटर दूर गंगा की सहायक नदी अलकनंदा के किनारे कपड़े धोने गई थी. वह राजकीय इंटर कालेज में 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी. कपड़े धोते समय उस ने किसी बच्चे के चीखने की आवाज सुनी. उस ने देखा तो नदी में उस के गांव का ही 10 वर्षीय साहिल डूब रहा था.
मोनिका थोड़ाबहुत तैरना जानती थी. उस समय नदी का बहाव तेज था, इस के बावजूद अपनी जान की परवाह किए बगैर मोनिका नदी में कूद गई और साहिल के बाल पकड़ कर उसे किनारे तक खींच लाई. तभी मोनिका का पैर फिसला और वह फिर से नदी में अंदर की तरफ चली गई. इस से वह तेज बहाव में बह गई. साहिल ने गांव पहुंच कर मोनिका के डूबने की खबर लोगों को दी. गांव वालों ने मोनिका को नदी में काफी तलाश किया लेकिन उस का कोई पता नहीं चला. सूचना मिलने पर स्थानीय पुलिस भी गोताखोरों के साथ वहां पहुंची लेकिन मोनिका की लाश बरामद नहीं हो सकी. बेटी की लाश तक न मिलने से अपंग चंद्रमोहन अभी तक गहरे सदमे में हैं.
साहस और निडरता से एक बच्चे को बचाते हुए अपने प्राणों का बलिदान देने वाली मोनिका को भारतीय बाल कल्याण परिषद ने मरणोपरांत बापू गयाधानी पुरस्कार से सम्मानित किया है. अपंग पिता दिल्ली आने में असमर्थ थे इसलिए यह पुरस्कार मोनिका के चाचा हरीश चौहान ने प्राप्त किया. अचानक आई विपत्ति के समय बच्चों द्वारा सूझबूझ से किया गया काम कइयों की जान तक बचा सकता है. वड़ोदरा, गुजरात की रहने वाली साढे़ 13 साल की बालिका जील जितेंद्र मराठे ने अपनी सूझबूझ से एक ऐसे काम को अंजाम दिया जिस की प्रशंसा खुद मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल तक ने की.
हुआ यह कि जील जितेंद्र मराठे 20 फरवरी, 2014 को अपनी कक्षा के बच्चों के साथ जिला पंचमा स्थित कारवां रिजौर्ट पर पिकनिक के लिए गई थी. शाम को पिकनिक से लौटते समय उस की बस का चालक किसी वजह से नियंत्रण खो बैठा और बस दाईं तरफ पलटते हुए करीब 100 मीटर तक चली गई. बुरी तरह डर कर बच्चे चीखने लगे. जब बस लुढ़की थी, जील ने अपना सिर दोनों पैरों के बीच कर के ऊपर से दोनों हाथ रख लिए थे, जिस से वह गेंद की तरह बस में लुढ़कती तो रही लेकिन सिर सुरक्षित रहा. जब बस का लुढ़कना बंद हुआ तो जील बस का शीशा तोड़ कर बाहर निकली और दूसरे घायल छात्रों को बाहर निकालने लगी. बच्चों के साथ बस में मौजूद टीचर भी घायल हो चुके थे. एक लड़की का तो हाथ भी कट गया था.
जील ने एक टीचर का मोबाइल ले कर 106 नंबर पर एंबुलेंस सर्विस को फोन किया. कुछ बच्चों की हालत चिंताजनक थी. जील ने उन बच्चों को मुंह से उन के मुंह में हवा दे कर फेफड़ों को सक्रिय किया. कुछ देर बाद एंबुलेंस वहां पहुंची और घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया. इस हादसे में 6 बच्चे और 2 टीचर गंभीर रूप से घायल हो गए थे. लेकिन समय पर अस्पताल पहुंच जाने की वजह से उन की जान बच गई. जील ने अपने साहसिक कार्य से कई जिंदगियां बचाईं. उस के इस काम की गुजरात की मुख्यमंत्री ने भी जम कर तारीफ की. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने जील को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया. जील की ही तरह कर्नाटक के रहने वाले साढ़े 13 साल के साहनेश आर. ने अपने स्कूल के बच्चों की जान बचाई.
5 जून, 2014 को साहनेश अपने स्कूल की बस से घर लौट रहा था. तभी एक बाइक सवार कार से आगे निकलने की कोशिश में बस के पहिए के पास गिर गया. उसे बचाने के चक्कर में बस चालक ने बस थोड़ा बाईं ओर लेने की कोशिश की. उस के इस प्रयास में बस सड़क किनारे खेत में गिर गई. अपनी हिम्मत का परिचय देते हुए साहनेश ने बस का शीशा तोड़ कर सभी छात्रों और चालक को बाहर निकाला. इस काम में उसे चोटें भी आईं. इस तरह साहनेश ने अपने साहस से कई लोगों की जान बचाई. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने साहनेश आर. को भी वीरता सम्मान से नवाजा है.
कल्पना कीजिए कि जंगल में आप निहत्थे हों और वहां आप का सामना शेर या तेंदुए से हो जाए तो आप की हालत क्या होगी. मगर महाराष्ट्र के अहमदनगर के गांव मेहंदुरी की रहने वाली अश्विनी बंडु उघड़े ने अपनी हिम्मत के बूते इतना बड़ा कारनामा कर दिखाया कि लोग दांतों तले अंगुलियां दबाने को मजबूर हो गए. हुआ यह कि 13 साल की अश्विनी 9 जून, 2014 को अपनी छोटी बहन रोहिणी के साथ एक बाग में आम तोड़ने गई थी. तोड़े हुए आम इकट्ठे कर के दोनों बहनें घर लौट रही थीं. दोनों के बीच करीब 2 मीटर का फासला था. तभी अचानक एक तेंदुए ने रोहिणी के ऊपर हमला कर दिया.
यह देख कर अश्विनी घबरा गई. तेंदुए ने रोहिणी के सिर को अपने मुंह में और पैर पंजों में जकड़ रखा था. बहन को बचाने के लिए अश्विनी ने अपने आमों में से एकएक आम फेंक कर तेंदुए को मारना शुरू कर दिया. अचानक हुए हमले से तेंदुआ घबरा गया और रोहिणी को छोड़ कर वहां से भाग कर गन्ने के खेत में चला गया. शोर सुन कर आसपास खेतों में काम कर रहे लोग दोनों बहनों के पास आ गए. रोहिणी को इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया. अश्विनी के असाधारण शौर्य से उस की बहन की जान बच गई. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इस बालिका की हिम्मत की दाद देते हुए उसे राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है.
बच्चे बड़े ही नटखट होते हैं. उन की यही आदत कभीकभी उन्हें परेशानी में भी डाल देती है. मणिपुर के वेस्ट इंफाल के रहने वाले किशोरजीत 20 मई, 2014 को घर से बाहर गए हुए थे. उन की पत्नी स्नानघर में थीं. उस वक्त उन का 6 साल का बेटा वायनगांबा घर के आंगन में खेल रहा था. उस ने दीवार के सहारे एक तार लटका देखा, उस तार में करंट था. छोटा सा वायनगांबा इस से अंजान था. उस ने खेलखेल में उस तार से एक छोटी सी रस्सी बांधने की कोशिश की तो वह तार से चिपक कर फर्श पर गिर गया. 10 साल के एल. ब्रेनसन सिंह ने छोटे भाई को तार के साथ फर्श पर पड़े देखा तो वह समझ गया कि वह करंट की चपेट में आ गया है.
भाई को बचाने के लिए उस ने बिजली के उस तार में इतनी जोर से लात मारी कि उस के पैर में मोच आ गई और वह गिर पड़ा, जिस से उस के गालों पर भी जख्म हो गए. पर उस का प्रयास सफल रहा और उस के भाई की जान बच गई. ब्रेनसन सिंह ने निर्भीकतापूर्वक अपने भाई के प्राणों की रक्षा की. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने उस के कार्य की सराहना करते हुए उसे वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने आग की लपटों के बीच से अपने एक साल के भाई को सुरक्षित निकाल कर लाने वाली साढ़े 7 साल की रीपा दास को भी वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है. दक्षिणी त्रिपुरा जिले के नेताजी पाली गांव की रहने वाली रीपा दास के घर के सामने ही चाय की दुकान थी. 24 अप्रैल, 2014 को सुबह के समय चाय की उस दुकान में अचानक आग लग गई.
घनी आबादी होने की वजह से आग आसपास के घरों में भी फैलने लगी. उस समय रीपा दास अपने एक वर्षीय भाई ईशान के साथ एक कमरे में सोई हुई थी जबकि उस की मां और दादी बगल के कमरे में थीं. शोरगुल सुन कर जैसे ही उन की आंखें खुलीं तो उन्होंने देखा कि आग उन के घर में भी फैल गई थी. वे दोनों बच्चों को वहीं छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए बाहर निकल आईं. रीपा दास की जब आंखें खुलीं तो उस ने अपने आप को आग से घिरा पाया. नन्हीं सी बच्ची घबरा गई. उस ने अपने छोटे भाई को कपड़ों में लपेट कर कस कर पकड़ा और आग की लपटों के बीच से बाहर निकाल लाई.
आग इतनी भयानक थी कि उस की चपेट में आ कर 3 दुकानें और 2 मकानों के 7 कमरे जल कर खाक हो गए. इस तरह रीपा दास ने अपनी जान की परवाह किए बगैर निडरता से अपने भाई को बचा कर अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया. इन बहादुर बच्चों के अलावा गुजरात के हीरल जीतूभाई हलपति, विशाल बेचरभाई कटोसना, झारखंड के राजदीप दास, केरल के अंजित पी, आकिल मोहम्मद एन.के., मिधुन पी.पी., मणिपुर के जी. तूलदेव शर्मा, मेघालय के स्टीवेंसन लारिनियांग, मिजोरम के मेसक के. रेमनाललनघका, नगालैंड की मोनबेनी इजुंग, उत्तराखंड के लाभांशु और उत्तर प्रदेश के गौरव कुमार भारती ने अपनेअपने क्षेत्रों में नदी में डूबते हुए कई लोगों की जानें बचाईं.
इस कोशिश में बालवीर मेसक के. रेमनाललनघका और गौरव कुमार भारती को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा. भारतीय बाल कल्याण परिषद ने इन नन्हे जांबाजों के साहसिक कारनामों को सराहते हुए मरणोपरांत वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है. भारतीय बाल कल्याण परिषद हर साल ऐसे बच्चों को सम्मानित करती है, जो अपने धैर्य, सूझबूझ और अदम्य साहस दिखाते हुए औरों की जान बचाने के लिए आगे आए. औरों की जान बचाने की खातिर उन्होंने अपनी जान की भी परवाह नहीं की. इस साल ऐसे ही 24 बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इन में 16 लड़के और 8 लड़कियां थीं. इन बहादुर बच्चों में 4 बच्चे ऐसे भी थे, जिन्होंने दूसरों की जान बचाने में अपनी जान तक गंवा दी.
इन पुरस्कारों की शुरुआत भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की थी. हुआ यह था कि एक बार दिल्ली के रामलीला मैदान में वह एक सभा को संबोधित कर रहे थे, तभी बिजली के शार्ट सर्किट से पंडाल में आग लग गई थी. जिस से वहां भगदड़ मच गई. वहां मौजूद हरिश्चंद्र नाम के एक बच्चे ने पंडित जवाहरलाल नेहरू को बचाने में विशेष भूमिका निभाई थी. पंडित नेहरू उस बालक की बहादुरी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सन 1952 में भारतीय बाल कल्याण परिषद की स्थापना कराई और पहला राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार हरिश्चंद्र को दिया गया.
तभी से परिषद देश भर में अदम्य साहस से दूसरों की जान बचाने वाले बच्चों को राष्ट्रीय बहादुरी पुरस्कार से सम्मानित करती आ रही है. परिषद अब तक 895 बच्चों को यह पुरस्कार दे चुकी है. इन में 634 लड़के और 261 लड़कियां शामिल रही हैं. राष्ट्रीय स्तर पर बाल शौर्यवीरों का चयन करने के लिए परिषद की तरफ से एक चयन समित बनाई जाती है. चयन समिति में विभिन्न सरकारी विभागों, मंत्रालयों और गैरसरकारी संगठनों के 28 सदस्य शामिल होते हैं. पूरे देश से समिति के पास तमाम प्रविष्टियां पहुंचती हैं. समिति के सदस्य सभी प्रविष्टियों का बारीकी से अवलोकन करते हैं. फिर आपस में विचारविमर्श करने के बाद पुरस्कार दिए जाने वाले बच्चों का चयन किया जाता है. चयन की प्रक्रिया बाल दिवस यानी 14 नवंबर को पूरी कर ली जाती है.
भारतीय बाल कल्याण परिषद द्वारा जोखिम भरा कारनामा करने वाले एक शौर्यवीर को बाल वीरता का सर्वोपरि भरत पुरस्कार दिया जाता है. यह पुरस्कार सन 1987-88 में शुरू किया गया था. तब से अब तक यह केवल 6-7 बच्चों को ही दिया गया है. इस पुरस्कार के तहत बच्चे को 50 हजार रुपए नकद, गोल्ड मेडल और प्रमाणपत्र दिया जाता है. हर साल 2 बच्चों को गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है. रंगा और बिल्ला नाम के 2 अपराधियों ने दिल्ली के बुद्धा गार्डन में गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा नाम के दोनों भाईबहनों की हत्या कर दी थी.
इस से पहले इन बच्चों ने बदमाशों का जम कर मुकाबला किया था. इन्हीं दोनों बच्चों की स्मृति में सन 1978 से एक बहादुर लड़के को संजय चोपड़ा और बहादुर लड़की को गीता चोपड़ा पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है. इस पुरस्कार के तहत प्रत्येक बच्चे को 40-40 हजार रुपए नकद, स्वर्ण पदक व वीरता प्रमाणपत्र दिया जाता है. गुजरात के बड़ौदा के रहने वाले बापू गयाधानी एक समाजसेवी थे. उन्हें बच्चों से बहुत प्यार था. उन्होंने कई बच्चों की जान भी बचाई थी. सन 1988 में उन की मौत के बाद उन के भतीजे जो लंदन में डाक्टर थे, ने भारतीय बाल कल्याण परिषद के सहयोग से बापू गयाधानी पुरस्कार शुरू कराया. बापू गयाधानी पुरस्कार के तहत हर बच्चे को 24 हजार रुपए नकद, वीरता पदक और प्रमाणपत्र दिया जाता है.
जबकि सामान्य वीरता पुरस्कार पाने वाले बच्चे को 24-24 हजार रुपए नकद, वीरता पदक और प्रमाणपत्र दिया जाता है. इस नकदी के अलावा भारतीय बाल कल्याण परिषद वीरता पुरस्कार पाने वाले बच्चों की शिक्षा का प्रबंध भी करती है. अध्ययन के समय सभी बच्चों को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्मृति में मासिक छात्रवृत्ति दी जाती है. इस के अलावा इंजीनियरिंग, पौलिटेक्निक, मैडिकल में प्रवेश के लिए भी इन्हें विशेष सुविधा दी जाती है. इन छोटे जांबाजों की हौसलाअफजाई के लिए भारतीय बाल कल्याण परिषद के अलावा दूसरी संस्थाएं भी आगे आ रही हैं.
इस बार जिन 24 बच्चों को वीरता पुरस्कार दिया गया है, इन में से 4 बच्चे ऐसे थे जिन्होंने दूसरों की जान बचाने की खातिर अपनी जान तक गंवा दी. गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब नन्हें बालवीरों को सम्मानित किया तो उन अभिभावकों की आंखों में आंसू छलक आए जिन के बच्चों को यह पुरस्कार मरणोपरांत दिया गया. इस के बाद इन बहादुर बच्चों को कई बड़े नेताओं से भी मिलवाया गया. उन्हें अनेक पर्यटक स्थलों की सैर कराई. गणतंत्र दिवस की परेड में जब इन बालवीरों को शामिल किया गया तो राष्ट्र ने इन की बहादुरी की प्रशंसा की. उस समय इन बहादुरों के परिजनों को अपने इन नटखटों पर बड़ा गर्व महसूस हो रहा था. Hindi Story