लेखक – साहिरा अखलाक, Hindi Best Story: रात बीत गई है. बहुत दूर किसी मसजिद से अजान की आवाज आ रही है. मैं बैठीबैठी सोच रही हूं कि यह कुदरत ही है, जिस ने मुझे ढेर सारे सब्र की दौलत दी है. क्योंकि जिस जमीन पर मैं बैठी हूं, वह मेरे अपने कई लोगों को निगल चुकी है. बारिश अभीअभी थमी है. दरख्त हवा में लहरा कर झूम रहे हैं. मोतिए के पत्तों का रंग धुल कर और भी गहरा हो गया है. गुलाब के पौधे भी नहा कर तरोताजा हो गए हैं. हर चीज पर एक ताजगी और निखार सा आ गया है. मगर सावन की बारिश में जाने ऐसी क्या बात होती है कि यादें सिर उठाने ही लगती हैं.
बड़ेबड़े बगीचों, फुलवारियों और ऊंचेऊंचे दरख्तों वाला यह शम्स महल आज कितना सूना, उदास और अंधेरा पड़ा है. आयशा, मआज, अब्बा मियां, अम्मा बी और मेरे महबूब शौहर मसऊद…अब नहीं हैं. मसऊद, जिन के नाम पर मैं ने अपनी जिंदगी और जवानी खाक कर दी, वह किस आसमान के तारे हो गए? बारिश रुकते ही मेरी मामा मरजान ने मेरा पलंग लौन में लगा दिया है. अब तो बस यही मरजान मेरी जिंदगी और मौत की साथी है. अब्बा जान ने यह बेवा नौकरानी मुझे दहेज में दी थी. सगुन अच्छा नहीं था.
मैं सफेद बिस्तर पर लेटी हूं. चांदी के थाल सा चांद सफेदसफेद धुनकी हुई रूई के गालों जैसे बादलों से आंखमिचौली खेलता फिर रहा है. यह ठंडीठंडी चांदनी मेरी रूह में आग लगा रही है. मैं यों करवटें बदलती हूं, जैसे मेरे पहलू सुलग रहे हों. चित लेटती हूं तो चांद आंखों में उतर आता है. उस से नजरें बचाती हूं तो बादलों में मुझे अपने प्यारों की शक्लें बनतीबिगड़ती नजर आती हैं. बादल का एक सफेद टुकड़ा ऊंचा होता हुआ मआज की शक्ल बनाता हुआ मेरे ऊपर से गुजरा चला जा रहा है और यादें मेरा मन सुलगा रही हैं.
मैं दुलहन बनी हूं. सजीसजाई एक चौकी पर मुझे बिठा दिया गया है. अंदरबाहर मुबारक सलामत का शोर है. मैं हया के बोझ से झुकी जा रही हूं. दुलहन को पिलाने के लिए दूध मंगवाया गया है. मुझे दूध का पूरा गिलास पिलाया जाता है. फिर किसी बुजुर्ग के मशविरे पर किसी बच्चे को बुलाया जाता है कि ससुराल में पहलेपहल आंख खोल कर बच्चे की शक्ल देखूं.
‘‘ए कोई बच्चा इधर आए.’’ मेरी मौसेरी सास ने पुकारा.
‘‘गुलाम हाजिर है.’’ एक आवाज उभरी. वह मेरा देवर मआज था.
‘‘हां, हां मियां, तुम ही आ जाओ.’’ खाला ने कहा. उन के खयाल में तो वह बच्चा ही था. मआज मेरे रूबरू आ बैठा. मुझे उस की आवाज और बातों से पता चल रहा था कि वह कोई बच्चा नहीं है, यह सोच कर मैं शरम से और गड़ गई.
‘‘मोहतरमा भाभी साहिबा, आंखें खोलिए और मुझे गौर से देखिए. कैसा खूबसूरत जवान बच्चा है.’’
सब लोग मआज की बात पर कहकहे लगा कर हंस पड़े. मैं भी गठरी सी बन कर बैठ गई. मआज ने थोड़ी देर तो मेरे आंखें खोलने और देखने का इंतजार किया, फिर कहा, ‘‘भाभी साहिबा, लोगों ने भरभर झोलियां हमारे जलवे लूट लिए और आप हैं कि देखती ही नहीं.’’
उस ने शायद मजमा बांधे खड़ी उन लड़कियों की तरफ इशारा किया होगा, जो सचमुच मुझ से ज्यादा उसे देखने के लिए एकदूसरे को धकिया रही थीं. वह था भी वाकई बहुत खूबसूरत. मुझे उस की इस बात से बड़ा लुत्फ मिला और मैं ने पट से पूरी आंखें खोल कर उसे देखा. एक क्षण को हम दोनों की निगाहें मिलीं और वह बड़ी अदा से गुद्दी खुजाता हुआ यह कह कर चल दिया, ‘‘सागर को मेरे हाथ से लेना कि मैं चला.’’
पूरब की तरफ से एक सुरमई बादल चांद पर छा जाने की कोशिश में बढ़ता चला आ रहा है. अब चांद छिप गया है और किसी आंचल, किसी सायबान की तरह छाए उस बादल में से मसऊद का चेहरा झांक रहा है. मसऊद…वह छतनार दरख्त, जिस की छांव में मैं ने जिंदगी की बड़ी हसीन और प्यारी घडि़यां बिताई थीं. अब उन्हीं की याद मेरी जिंदगी है, वरना तो कड़ी धूप है, रेगिस्तान है और तपिश है.
दोनों भाइयों के मिजाज में कितना फर्क था. मसऊद ठंडे और मीठे पानी के चश्मे जैसे. गुस्सा तो कभी उन्हें आता ही नहीं था. नरम दिल और मोहब्बत भरे इंसान थे. जबकि मआज बेहद चंचल, शरारती, मुंहफट और गुस्सावर, ऐसा जैसे आग से बना हो. बेहद जिद्दी भी. अब्बा मियां मआज को बहुत चाहते थे. वह मसऊद के लिए कहा करते थे, ‘‘यह तो बिलकुल ननिहाल पर गया है. मोम का बना हुआ इंसान है.’’ और मआज को सीने से लगा कर उस की पीठ थपकते हुए कहते, ‘‘यह है हमारा असली बेटा. यह हम पर पड़ा है.’’ यह सच भी था. मसऊद ने मुझे पहली मुलाकात में ही मआज के बारे में बता दिया था. वह उन का बहुत प्यारा और लाडला भाई था. सब से बड़े मसऊद थे. उन से 4 साल छोटे मआज और मआज से 3 बरस छोटी आयशा थी, जिसे प्यार से सब आशी कहते थे.
शादी की दूसरी सुबह हंगामों में कुछ कमी आ गई. बहुत से मेहमान विदा हो गए. चंद बहुत करीबी रिश्तेदार, जो दूर से आए थे, अभी मौजूद थे. कैमरा कंधे से लटकाए मआज मेरे कमरे में आया. आशी पहले से मौजूद थी. मसऊद अभी तक गुसलखाने में थे. मआज को देख कर मैं ने जल्दी से सिर झुका लिया. वह सलाम कर के पलंग के करीब आ कर रुक गया.
आशी ने कहा, ‘‘खैरियत भैया! सबेरेसबेरे यह शान किस सिलसिले में?’’
वह कैमरा मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘दुलहन देखने आया हूं.’’ उस ने ऐसे कहा जैसे वह कोई गैर हो और मैं सिर्फ दुलहन, जैसे रिश्ता कोई न हो.
‘‘खालीखूली दुलहन कोई नहीं देखता जी.’’ आशी ने हाथ नचा कर कहा, ‘‘पल्ले में कुछ है भी?’’
‘‘क्या मतलब?’’ वह कमर पर हाथ रख कर सीधा खड़ा हो गया.
‘‘किबला, दुलहन देखेंगे तो मुंहदिखाई देनी होगी यानी कुछ नकदी, अंगूठी या कोई और चीज.’’ आशी के अंदाजेबयां पर मुझे बहुत हंसी आई.
‘‘वाह! हमें किस ने दी है, जो हम देंगे?’’ मआज ने ऐतराज किया.
‘‘आप दूल्हा कब बने थे?’’ आशी ने मसखरेपन से पूछा.
‘‘वाह! दुनिया जानती है. कल हमारी मुंहदिखाई हुई है. पूछ लो भाभी से. हमें क्या दिया था?’’ मआज ने पतलून की जेबों में हाथ डालते हुए कहा.
इतने में अम्मां बी भी आ गईं और आते ही मआज से मुखातिब हुईं, ‘‘लड़के, तुम्हें कितना समझाया कि भाभीजान कहना, सिर्फ भाभी अच्छा नहीं लगता.’’
‘‘जान होंगी भैया की, हमारी तो भाभी हैं.’’ मआज ने शरारत से कहा.
मुझे और आशी को हंसी आ गई. अम्मां बी ने उस की पीठ पर एक थप्पड़ मारा, जिस में फूल जैसी कोमलता थी और मुसकराती हुई चली गईं. एक के बाद एक यादों के सारे झरोखे खुलते चले जा रहे हैं. मेरे ससुर का बहुत बड़ा कारोबार था. उन के मीलों में फैले अपने खेत और बाग भी थे. मसऊद ने एमकौम कर के कारोबार संभाल लिया था. शम्स महल शहर के पास, दरिया के किनारे एक खूबसूरत बंगला है. यही शम्स महल, जिस में आज मैं एक बेकरार रूह की तरह वक्त बिता रही हूं. यह मेरी कब्र बन गया है और मैं इस में जिंदा दफन हूं.
मसऊद का दफ्तर शहर में था. वापसी में अकसर उन्हें देर हो जाती थी. मैं ने कभी देर से आने की शिकायत नहीं की थी. इतना चाहने वाले शौहर से मुझे कभी कोई शिकायत नहीं हुई थी. एक दिन मआज मसऊद से देर से घर आने पर उलझ पड़ा.
उस दिन मेरी तबीयत खराब थी. मआज बहुत परेशान रहा. उस का सारा दिन डाक्टर और दवा के चक्कर में दौड़तेदौड़ते बीता. मसऊद ने सिर्फ 2 बार दफ्तर से फोन कर के मेरी तबीयत का हाल पूछा, खुद आए नहीं. संयोग की बात, उस दिन वह लौटे भी तो बहुत देर में. उन के आते ही मआज ने कहा, ‘‘भैया, आप को मालूम था कि भाभी की तबीयत ठीक नहीं, फिर भी आप इतनी देर से आए?’’ मआज के लहजे में नाराजगी थी.
‘‘मियां, तुम जो मौजूद थे.’’ मसऊद ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.
‘‘भैया, आप की मौजूदगी से भाभी को जो राहत मिल सकती है, क्या वह हम पहुंचा सकते हैं?’’ यह कह कर वह नाराज सा कमरे से निकल कर चला गया. मैं ने सोचा, मआज मेरी दिन भर की देखभाल और भागदौड़ से थक गया होगा. इसीलिए चिड़चिड़ा रहा था. मैं मन ही मन बहुत शर्मिंदा थी, मगर जल्दी ही आशी की जबानी मालूम हो गया कि मेरी बीमारी के सिलसिले में मसऊद की बेफिक्री उसे बुरी लगी थी. मियांबीवी दुखसुख के साथी होते हैं. ऐसी छोटीछोटी बेपरवाहियां दिलों में फर्क पैदा कर देती हैं. यह बात उस ने अम्मां बी से कही थी.
शम्स महल के पिछवाड़े दरिया बहता है और यहीं उस के किनारे एक बहुत बड़ा लौन है. उस में झूले भी पड़े हुए हैं. संगमरमर की बेंच बनी हुई है, जिन के आगे संगमरमर ही की मेजें लगी हुई हैं. एक बहुत बड़े हौज में रंगबिरंगी मछलियां इस तरह गोते लगाती फिरती हैं, जैसे आंखमिचौली खेल रही हों. हम लोग घंटों बैठ कर पानी में मचलती चंचल मछलियों का नजारा देखा करते थे. आशी और मआज उन पर छोटीछोटी कंकडि़यां फेंका करते थे. लौन के चारों कोनों पर और बीच में भी बिजली के खूबसूरत शेड वाले छोटेछोटे खंबे लगे हुए थे. रात को बिजली की रोशनी में दरिया का पानी शीशे की चादर जैसा लगता था. अम्मां बी को मोतिया के फूल बहुत पसंद थे. वह उन के जेवर बना कर पहनती थीं. अब्बा मियां ने जगहजगह मोतिए के पौधे लगवाए थे. उस तरफ लौन में दरख्त भी काफी थे.
हम सब इन्हीं महकीमहकी फिजाओं में गरमियों की शामें बिताया करते थे. ठंडी बेंच पर बैठ कर आम खाते, झूला झूलते और कैरम खेलते. दरिया के किनारेकिनारे चहलकदमी करते. कभीकभी पानी में भी उतर जाते और एकदूसरे के पीछे भागते हुए गहरे पानी तक पहुंच जाते. खूब छींटे उड़ाते. एकदूसरे को भिगो देते और दूर से अम्मां बी की डांटने की आवाजें आती रहतीं. एक ऐसी ही शाम थी. हम कैरम खेल रहे थे. वह मसऊद की छुट्टी का दिन था. घास में मच्छर बहुत थे. एक मच्छर या न जाने किस कीड़े ने मेरे निचले होंठ पर काट लिया और वह खासा सूज गया. मैं ने परेशान हो कर मसऊद से कहा, ‘‘देखिए, यह मच्छर ने काटा है शायद?’’
‘‘वल्लाह, बड़ी हिम्मत का मालिक था वह मच्छर भी.’’ मआज ने बेसाख्ता कहा तो मसऊद ने कहकहा लगाया.
मआज अब्बा मियां की तरह गरजदार आवाज में मच्छर को डांटने लगा, ‘‘कमबख्त, बेअदब. गुस्ताख कहीं का. हाथ आ जाए तो मसल डालें हम.’’ फिर गोट इधरउधर करते हुए मेरी तरफ देख कर बोला, ‘‘वैसे वह अमृत पी कर बचा थोड़े ही होगा, मर गया होगा.’’
मैं उस की बेबाक बातों पर शरमा कर हंस दिया करती थी. न कभी मुझ से कोई जवाब बन पड़ा, न बुरा माना क्योंकि देवरभाभी का रिश्ता ही ऐसे मजाक का होता है. जिंदगी में हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं. रंग ही रंग थे. आशी और मआज के लिए मैं हर मर्ज की दवा थी. वे अपनी शरारतों, तकलीफों, पसंदनापसंद, कपड़ों के रंग, हर चीज, हर मशविरे में मुझे शामिल करते थे. मसऊद तो सुबह के गए शाम को वापस आते, मगर मआज और आशी का ज्यादातर वक्त मेरे साथ गुजरता. मेरे भी तो एक साथ उन से कई रिश्ते थे, मां का, भाभी का, दोस्त का.
वक्त उड़ा चला जा रहा था, चुपचाप, बेआवाज कदमों से. फिर यों हुआ कि मआज मुझे बहुत दिन तक नजर नहीं आया. आशी कालेज से लौटती तो सीधे मेरे कमरे में आ जाती. अम्मां बी के पास मिलने वालियों का तांता लगा रहता. वह उन के मसले भी हल करतीं, दुखड़े भी सुनतीं और उन से तरहतरह के काम भी लेतीं. मसलन, मिर्चें कुटवातींपिसवातीं, पुराने लिहाफ उधेड़वातीं, चादरें धुलवातीं, लोटे और बाल्टियां मंजवातीं, कालीन और दरियां झटकवातीं, जाले उतरवातीं. इस तरह अम्मां बी के गिर्द अपनेपराए, हर किस्म के लोग जमा रहते. उन की अपनी एक अलग दुनिया थी. इतना सब शोरशराबा होने के बावजूद मुझे घर सूना लगने लगा. ऐसा मालूम होता, जैसे कुछ खो गया हो. एक अजीब सी बेचैनी का अहसास होता और यह बेचैनी इस खयाल से कोफ्त बढ़ा देती कि मआज कहीं मुझ से नाराज तो नहीं? क्या किया है मैं ने?
कई बार मन किया कि उस के कमरे में जाऊं, मगर मैं कभी उस के कमरे में नहीं गई थी, क्योंकि उस ने कभी इस का मौका ही नहीं दिया. वह तो हर वक्त मेरी निगाहों के सामने रहता था और यों भी उस का कमरा अब्बा मियां के पड़ोस में था. मैं ने अकसर बहुत रात गए तक उस के कमरे की बत्ती जलती देखी थी. मैं सोचती रहती कि इस वक्त वह क्या कर रहा होगा. आखिर एक दिन पता चल ही गया. उस का बीए का इम्तहान होने वाला था और सारे साल मौज मारने वाला मआज अब किताबों पर औंधा पड़ा था. कुछ अब्बा मियां की डांट का भी असर था. वैसे वह हमेशा यही करता था. वह इम्तहान के करीबी दिनों में ही पढ़ता, बला का जहीन था वह. मआज का इम्तहान खत्म हुआ तो घर की रौनक वापस आ गई और दरोदीवार फिर हंसने लगे.
यादों की डोर से बंधी मैं कहां से कहां जा पहुंची. मुझे पता भी नहीं चला और सारे आसमान ने बादलों की स्याह चादर ओढ़ ली. न चांद है न सितारे. सारी कुदरत पर मेरे मुकद्दर का रंग छा गया है. अब फिर बूंदें पड़नी शुरू हुई होंगी तो मरजान मेरा बिस्तर समेट कर दालान में ले जाएगी और उस दालान में मुझे वहशत होती है. यहीं पर मेरे प्यारे शौहर की लाश रखी थी और मैं ढाई बरस की दुलहन बेवा हो कर कुदरत की इस फितरत पर रोती रह गई थी.
मसऊद के साथ ही दुनिया की सारी दिलकशी खत्म हो गई. शम्स महल के बाशिंदे कुदरत के इस वार पर हैरानपरेशान थे. मआज ने चुप्पी साध ली. उस की शोखी और शरारतों की भी मौत हो गई. हर आदमी अपने तौर पर दुख बरदाश्त करने की कोशिश कर रहा था. उन सभी को मसऊद की मौत के साथसाथ भरी जवानी में मेरा सुहाग उजड़ने का एक अलग सदमा था. चहकती मैना सी आशी भाई के दुख में सूख कर कांटा हो गई. अब्बा मियां जब्त और सब्र की तसवीर तो बने हुए थे, मगर अंदर से खोखले हो रहे थे. अम्मां बी की चीखपुकार से दिल उधड़ने लगता और खुद मेरी निगाहों में दुनिया अंधेरी हो गई थी.
मैं 48 घंटे बेहोश रह कर फिर उन उजाड़ वीरानों की तरफ लौट आई. घर में सब लोग मेरा बहुत ज्यादा खयाल रखते. मआज इस कदर मोहब्बत और दिलजोई करने लगा कि मुझे उस पर तरस आता. अपना दुख छिपा कर वह मेरी खातिर मुसकराता. मसऊद की मौत को 8 महीने बीत गए. मुझे ऐसा महसूस होने लगा जैसे घर में एक मनमुटाव की फिजा फैली हुई हो. न जाने यह शक मुझे किस बात पर हुआ, मगर मेरे दिल ने जरूर इसे महसूस किया था. जल्दी ही यह शक हकीकत बन गया. मआज मुझ से खिंचाखिंचा रहने लगा. फिर कईकई हफ्ते तक उस की शक्ल दिखाई न देती. मेरा दिल पहले ही दुखी था. यह अंदाज मुझे और जख्मी कर गया.
कभीकभी अब्बा मियां की बहुत जोर से बोलने की आवाज आती जैसे वह बहुत गुस्से में हों. मैं दिल थाम लेती कि इलाही खैर करे. मैं ने कभी अब्बा मियां को गुस्सा करते न देखा था. वह तो कभी जोर से बोलते तक नहीं थे. उन की यह बदमिजाजी मुझे कंपा देती. उन दिनों मेरी हालत ऐसी थी, जैसे कत्ल के मुजरिम को सजा सुनाई जाने वाली हो. मेरे दिल को पक्का यकीन था कि माहौल की तल्खी की वजह मैं ही हूं. अब्बा मियां ऐसे दबंग आदमी थे कि जो बात एक बार कह देते और जो फैसला कर लेते, कभी वापस न लेते. अपनी बात मनवा कर ही छोड़ते. कोई एहसास, कोई जज्बा, कोई मोहब्बत उन के फरमान पर, उन के फैसले पर असर नहीं डाल सकती थी.
आशी ने मुझे बताया कि मआज कंपटीशन के इम्तहान की तैयारी में जुटा हुआ था. इस से मेरे दिमाग पर जो गुबार था, वह छंट गया. मैं हर वक्त उस की कामयाबी की दुआएं मांगती. फिर भी मैं ने महसूस किया कि जब कभी मआज से अचानक सामना होता, वह घबरा कर ठिठक जाता. शरमा कर सिर झुका कर चल पड़ता, जैसे वह कोई परदानशीन हो और मेरा उस से सामना हो गया हो. उस का नजरें चुराना, ठिठकना, घबराना, खामोश रहना, कतरा कर निकल जाना, एक बेगानगी का एहसास और अजीब सा असर पैदा करता, जो मैं समझ न पाती और उलझती चली जाती.
इस फिजा में मेरा दम घुटने लगा. मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि अगर यही हालत कुछ दिन और रहे तो मैं पागल हो जाऊंगी. मैं ने सोचा, अम्मां बी से इजाजत ले कर कुछ दिनों के लिए मायके चली जाऊं. यह सोच कर मैं अम्मां बी के कमरे की ओर चली. अंदर से अम्मां बी और मआज के बोलने की आवाजें आ रही थीं. मैं इसी दुविधा में रुक कर खड़ी हो गई कि मआज की मौजूदगी में अम्मां बी से बात करूं या नहीं. अम्मां बी की आवाज मेरे कानों में टकराई, ‘‘देख बेटे, मान ले. वह ठीक ही तो कहते हैं. क्यों सताता है अपने बाप को?’’
मैं खूब गौर से सुनने लगी. अम्मां बी कह रही थीं, ‘‘तु समझता क्यों नहीं? जवान लड़की सारी उम्र यूं ही बैठी रही तो यह गुनाह भी है और जुल्म भी. बेटियां सब ब्याहते हैं, बहुएं कोई नहीं ब्याहता. हम कैसे गवारा करेंगे कि हमारी बहू को कोई दूसरा ब्याह कर ले जाए? यह तो घर की इज्जत होती है. तुम क्यों भूल गए हो कि यह मसऊद की अमानत और निशानी है.’’ अम्मां बी यह कहतेकहते रो पड़ीं.
‘‘मुझ से यह नहीं हो सकेगा अम्मां जानी.’’ मआज की आवाज में बड़ी बेचारगी थी. अम्मां की तकरीर का उस ने यही जवाब दिया.
‘‘लोग तो 4-4 बच्चों वाली भाभियों से निकाह कर लेते हैं.’’ अम्मां बी ने कहा.
‘‘वे उल्लू के पट्ठे होते हैं.’’ मआज ने बिगड़ कर कहा.
‘‘उल्लू के पट्ठे क्यों होते हैं? गैरतमंद होते हैं.’’ अम्मां बी बोलीं.
‘‘आप तो मां हैं अम्मां. माएं तो बिना कहे जान जाती हैं, समझ लेती हैं. आप कैसी मां हैं जो यह भी नहीं जानतीं कि आप ने या अब्बा मियां ने अगर मेरे साथ जबरदस्ती की तो भाभी आप लोगों की नजर में सुहागिन होंगी, मगर रहेंगी फिर भी बेवा.’’ मआज की आवाज में अथाह दुख भरा था. उस की आवाज कांप रही थी. वह बहुत ठहरठहर कर बोल रहा था. मालूम नहीं, उस के बाद अम्मां बी ने क्या कहा होगा, क्योंकि मुझे कुछ नहीं सुनना था. हालात का रुख मेरी समझ में आ गया था. मेरी निगाहों से परदे उठ गए थे और यह बात भी मेरी समझ में आ गई कि मआज यह समझता रहा था कि मैं इन हालात से वाकिफ हूं और शायद इस में मेरी मरजी का भी दखल है.
मैं अपने कमरे में आ कर फूटफूट कर रोई. मैं ने मआज के बारे में कभी इस अंदाज से नहीं सोचा था. मुझे तो उस से ऐसा प्यार था, जैसा बच्चों से होता है. मगर न जाने क्यों मआज के इनकार पर मेरा दिल दुख गया. मुझ से अगर पूछा जाता तो यकीनन मआज को शौहर के रूप में कभी कबूल न करती. मआज से मुझे मोहब्बत थी. मगर ऐसी, जो मां को औलाद से होती है. मगर मआज के इनकार में तो मुझ से नफरत और बेजारी थी. शायद बीवी के लिए उस के जेहन में जो तसवीर थी, मैं उस पर पूरी नहीं उतरती थी. अपनी बेकद्री पर मुझे बड़ा रोना आया. यह शिकस्त मुझ से बरदाश्त नहीं हो रही थी. एक लम्हे को मआज को नीचा दिखाने की जिद मेरे दिल में पैदा हुई. मेरा भी जी चाहा कि मआज की तरफ से हां हो और मेरी तरफ से इनकार. फिर यह वाकया मेरे दिल में फांस बन कर उतर गया.
रात काफी बीत गई थी. मरजान मुझ से जरा फासले पर पड़ी सो रही है. वह सोते में भी लोगों से लड़ती रहती है. कालेकाले बादलों में चांद तेजतेज भागता फिर रहा है. हवा बंद हो गई है. मेंढक और झींगुर फरियाद कर रहे हैं. उमस है, अंधेरा है और यादें हैं. अचानक आसमान पर एक स्याह बादल दहाड़ा, कुछ इस तरह जैसे चांद को डांट रहा हो. मुझे उस भयानक बादल में अब्बा मियां का चेहरा दिखाई दे रहा है.
‘‘नालायक है. नाफरमान है. उस से कहो कि निकल जाए मेरे घर से. मैं आइंदा उस की शक्ल भी नहीं देखना चाहता. ऐसे बेगैरतों के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं.’’
अब्बा मियां इतनी जोर से गरजे कि मैं ने अपना दिल थाम लिया. उफ खुदाया! इस घर के लिए मेरा वजूद साही का कांटा हो गया है. मेरी मनहूसियत के साए से कोई नहीं बचा. मैं उन लोगों के लिए एक मसला बन गई हूं. मेरा दिल चाहता है, मैं अब्बा मियां के कदमों से लिपट कर उन्हें उन का इरादा बदलने को कहूं, ‘‘अब्बा मियां, आप हैं किस खयाल में? किन सोचों में पड़े हैं. मुझ से भी तो पूछा होता. मेरी नजर में दुनिया का कोई मर्द मसऊद की कब्र की मिट्टी के बराबर भी नहीं.’’ मगर मैं यह सब कह नहीं सकी. फिर आशी ने मुझे रोरो कर बताया कि भैया घर छोड़ कर जा रहे हैं.
अब्बा मियां ने जिसे बेगैरती का ताना दिया था, वह गैरतमंद अपनी शक्ल छिपाने जा रहा है. अब्बा मियां ने जिसे नाफरमान कहा था, वह उन का हुक्म बजाने जा रहा था. मालूम नहीं, अब्बा मियां को ‘सर’ का खिताब किस सिरफिरे ने दे दिया था? वह बेटे की रूह तक में तो झांक नहीं सके कि वहां क्या उथलपुथल मची है. उन की जिद के आगे वह अधमरा हो कर रह गया था, मगर उन्हें इस का एहसास तक नहीं हुआ था. वह अक्तूबर की एक बहुत ही उदास शाम थी. मेरा दिल कब उदास नहीं होता था. मगर उस दिन मेरी रूह पर एक अजीब सी कमजोरी छाई हुई थी. दरख्तों से गिरते हुए जर्द पत्ते असलियत का इश्तहार बन रहे थे. घबरा कर मैं अपने कमरे में चली गई और औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. कुछ देर बाद दरवाजे पर हलकी सी दस्तक हुई. इस तरह दस्तक दे कर अंदर आने वाला सिवाय मआज के और कोई नहीं हो सकता था.
‘‘सुनिए,’’ मेरा दिल बड़े जोर से धड़का, यों जैसे उछल कर गले में आ रहा हो. मैं उसी तरह लेटी रही. मआज आसमानी रंग का सलवारकुरता पहने हुए था. गले में स्याह धागे से बंधी चांदी की तावीज बालों भरे सीने पर लहरा रही थी. गोरी रंगत पर जर्दी बिखरी हुई थी. बाल परेशान और आंखें सुर्ख हो रही थीं. एकदम हम दोनों की नजरें मिलीं तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उन निगाहों में बड़ी बेबसी हो. मैं ईमान की बात कहूं तो मैं ने उसे यों देखा था जैसे निगाहों में हजारों शिकवे हों. इसलिए मैं ने फौरन नजरें झुका लीं और कान के पास अपने बालों की लट को अंगुली पर लपेटतीखोलती रही. वह रुकताझिझकता संभलसंभल कर चलता, मेरे पलंग के करीब आ कर रुक गया.
‘‘सलाम अर्ज करता हूं.’’ वह शायद हाथ भी माथे तक ले गया था. मैं ने उस की तरफ देखे बगैर सलाम कहा.
वह एक लम्हा चुप रहने के बाद बोला, ‘‘आप तो मुझ से नाराज नहीं?’’
मैं ने नजरें नीची रखीं और इनकार में सिर हिला दिया.
‘‘अब्बा मुझ से नाराज हैं. अम्मां मुझ से नाराज हैं.’’ यह कहतेकहते वह मेरे करीब ही पट्टी पर बैठ गया, ‘‘और आप…’’ मालूम नहीं वह आगे क्या कहना चाहता था कि मैं ने तड़प कर सीधे उस की आंखों में देखा. मैं जुबान से जो न कह सकी, नजरों से कह दिया. वह जरा सा हकलाया और कहने लगा, ‘‘आप सोचती तो होंगी कि…’’ इस से आगे वह कुछ कह नहीं पाया. मैं अब यह झूठ काहे को बोलती कि मैं कुछ नहीं सोचती. मैं तो बहुत सोचती थी और इनकार की वजह जानना चाहती थी. वह वजह, जो अब्बा जैसे दबंग इंसान से टकरा रही थी. यह सब मैं ने दिल में सोचा.
‘‘भाभी, मैं ने बहुत कोशिश की,’’ वह रुका और एक सर्द आह खींची, ‘‘बहुत दिनों तक अपने आप से लड़ता रहा. मेरे जेहन ने आप को वह शक्ल देनी चाही जो अब्बा को पसंद थी. मगर भाभी, मैं पाकीजगी की हदें पार न कर सका. मैं पाकीजगी की उस फौलादी दीवार में ऐसा सुराख न डाल सका. मुझे ऐसी दरार नहीं मिली, जिस के सहारे आगे बढ़ता. मैं अब्बा को कैसे समझाऊं और अम्मां को कैसे बताऊं कि भाभी तो मां होती है और मां कभी बीवी नहीं बन सकती.’’ फिर उस ने मेरी गोद में अपना सिर रख दिया और बिलखबिलख कर रोने लगा.
इतने दिनों से उस के सीने में जो तूफान घुट रहा था, आज राह पा गया. वह मुझे बिलकुल एक नन्हे बच्चे की तरह मालूम हुआ. मुझे उस पर बेहद प्यार आया. मेरे दिल से सारे गिलेशिकवे दूर हो गए. मैं ने जरा सा झुक कर उस के बालों को चूम लिया और अपने दोनों हाथ उस के सिर पर फेरने लगी. मुझ से कुछ भी न कहा गया. मैं कहती भी क्या. मैं तो उसे चुप तक नहीं करा सकी. आवाज तक नहीं निकल सकी. आंसू मेरी आंखों से बह कर उस के सिर पर गिरते जा रहे थे. कुछ लम्हे वह इसी तरह सिसकता रहा. ऐसा बेबस तो मैं ने उसे कभी नहीं देखा था. फिर वह उठा और कमीज से आंसू पोंछता हुआ कमरे से निकल कर चला गया.
मैं ने अब्बा मियां से बात करने का इरादा कर लिया. मेरी खामोशी ने मआज की जिंदगी बरबाद कर रखी थी. मगर अफसोस कि उस की नौबत न आ सकी. दूसरी सुबह कयामत ले कर आई. अब्बा का बेगैरत बेटा दुनिया ही छोड़ गया. आखिर वह भी तो अब्बा मियां की तरह अपनी जिद का पक्का था. जिद्दी और मगरूर अब्बा की आंख से एक आंसू तक नहीं टपका. मगर निहायत खामोशी से उन के दिल पर गिरने वाले आंसू कोई न देख सका. अब्बा के दिल में जो 2-2 तीर घुसे थे, उन की चुभन वह शिद्दत से महसूस करते रहे, लेकिन मुंह से उफ न की. वह तो सिर से पांव तक आग में सुलग रहे थे. अम्मां तो मां थी, मां जो औलाद के मामले में जिद्दी नहीं होती, जो औलाद को झुकाती नहीं, खुद झुक जाती है.
आखिर एक दिन वह कच्ची मिट्टी की उस दीवार की तरह ढह गईं जो ज्यादा तेज तूफान बरदाश्त नहीं कर सकती. अम्मां बी का साथ छूटा तो अब्बा मियां को भी बिखरते देर न लगी, जो अंदर ही अंदर राख हो चुके थे. ये सारे लोग मेरे लिए खुशियां तलाश करतेकरते मुझे दुख की राहों पर छोड़ गए हैं. दुनिया कहे न कहे, मैं खुद जानती हूं कि मैं मनहूस हूं. मैं ने लाखों का घर खाक कर दिया. आशी जीते जी मर गई. उस के नन्हे से दिल में कई सुराख हो गए. वह तो भला हो खाला अम्मी का कि उन्होंने उसे घर ले जाने की जल्दी मचा दी कि बचपन ही में वह अपने मौसेरे भाई से वाबस्ता हो चुकी थी. उस का दुख भुलाने के लिए खाला अम्मी की समझ में यही नुस्खा आया कि वह आशी को ब्याह कर ले जाएं.
अब आशी को ब्याहने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी थी. अम्मां बी ने तो अभी उस के लिए कुछ बनाया ही नहीं था. कोई तैयारी नहीं की थी. हालांकि खाला अम्मी ने बहुत कहा, ‘‘दुलहन, परेशान मत हो. हम कौन से गैर हैं.’’
मगर मैं आशी को ऐसे कैसे विदा कर देती. मैं ने अपना सारा सामान, सारा दहेज और जेवर आशी को दे दिए और कहा था, ‘‘मेरा सब कुछ ले लो, पर मेरे नसीब तुम मत लेना. मेरा मुकद्दर मेरे वास्ते छोड़ देना.’’
आज आशी अपने डाक्टर मियां के साथ वतन से दूर सात समंदर पार कई बच्चों की मां बन कर हंसीखुशी की जिंदगी बिता रही है. मुझे लिखती है, ‘‘भाभी, तुम ने बहुत दुख उठाए हैं. आओ, आ कर मिल भी जाओ और मेरी खुशियों से थोड़ी खुश भी हो लो.’’
मगर मैं वहां क्या, कहीं नहीं जाऊंगी क्योंकि चार रूहें इस घर में फेरा लगाने आती हैं. अब्बा मियां यही तो चाहते थे कि मैं इस दहलीज से कभी जुदा न होऊं. वह मुझे यहां पा कर कितना खुश होते होंगे. मैं चली जाऊंगी तो मसऊद, मआज, अब्बा मियां और अम्मां बी सब कितने उदास होंगे. मेरी बात यह उन की रूह को राहत देती होगी कि मैं ने यह घरौंदा नहीं छोड़ा. मैं खुद भी तो ऐसा घरौंदा बनी बैठी हूं, जिस में कोई नहीं रहता, रह ही नहीं सकता. रात बीत गई है. चांद थक कर रूपोश हो गया है. बादल अब भी उसे ढूंढते फिर रहे हैं. बहुत दूर किसी मसजिद से अजान की आवाज आ रही है. मैं उठ कर बैठ गई हूं. दुपट्टा ओढ़ लिया है. यह कुदरत ही है, जिस ने मुझे इतने ढेर सारे सब्र की दौलत दी है कि जो जमीन कई इंसानों को निगल गई, मैं उसी पर जिंदा बैठी हूं. Hindi Best Story






