औनलाइन चलता सेक्स रैकेट

22 जनवरी, 2021 की बात है. 12 साल की मानसी पास की दुकान से चिप्स लेने गई थी. जब वह काफी देर बाद भी घर नहीं लौटी तो घर वालों को उस की चिंता हुई. घर वाले उस दुकानदार के पास पहुंचे, जिस के पास वह अकसर खानेपीने का सामान लाती थी. उन्होंने उस दुकानदार से मानसी के बारे में पूछा तो दुकानदार ने  बताया कि मानसी तो काफी देर  पहले ही चिप्स का पैकेट ले कर जा चुकी है.

जब वह चिप्स ले कर जा चुकी है तो घर क्यों नहीं पहुंची, यह बात घर वालों की समझ में नहीं आ रही थी. उन्होंने आसपास के बच्चों से उस के बारे में पूछा, लेकिन उन से भी मानसी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली.

घर वालों की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मानसी गई तो गई कहां. उन्होंने उसे इधरउधर तमाम संभावित जगहों पर ढूंढा लेकिन उस का कहीं पता नहीं चला. तब उन्होंने इस की सूचना पश्चिमी दिल्ली के थाना राजौरी गार्डन में दे दी. चूंकि मामला एक नाबालिग लड़की के लापता होने का था, इसलिए पुलिस ने इस मामले को गंभीरता से लिया. पुलिस ने मानसी के पिता की तरफ से गुमशुदगी की सूचना दर्ज कर ली.

डीसीपी (पश्चिमी दिल्ली) उर्विजा गोयल को जब 12 वर्षीय मानसी के गायब होने की जानकारी मिली तब उन्होंने थाना पुलिस को इस मामले में तीव्र काररवाई करने के आदेश दिए. डीसीपी का आदेश पाते ही थानाप्रभारी ने इस मामले की जांच के लिए एएसआई विनती प्रसाद के नेतृत्व में एक पुलिस टीम गठित कर दी.

एएसआई विनती प्रसाद ने सब से पहले लापता बच्ची के घर वालों से उस के बारे में विस्तार से जानकारी ली. इतना ही नहीं, उन्होंने घर वालों से यह भी जानना चाहा कि उन की किसी से कोई रंजिश तो नहीं है. घर वालों ने उन से साफ कह दिया कि उन की किसी से कोई दुश्मनी नहीं है. इस के बाद पुलिस अपने स्तर से मानसी को तलाशने लगी.

जिस जगह से मानसी गायब हुई थी, पुलिस ने उस क्षेत्र के सीसीटीवी कैमरों की फुटेज देखी. इस के अलावा स्थानीय लोगों से भी बच्ची के बारे में जानकारी हासिल की. पुलिस ने सोशल मीडिया पर भी निगरानी कर दी, लेकिन कहीं से भी मानसी के बारे में कोई सुराग नहीं मिला.

पुलिस टीम को जांच करतेकरते करीब 2 महीने बीत चुके थे. जब बच्ची कहीं नहीं मिली तो पुलिस ने ह्यूमन ट्रैफिकिंग के एंगल को ध्यान में रखते हुए केस की जांच शुरू कर दी. यानी पुलिस को यह शक होने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बच्ची जिस्मफरोशी गैंग के चंगुल में फंस गई हो.

इस बिंदु पर जांच करते करते पुलिस टीम ने कई जगहों पर दबिशें दीं, लेकिन लापता बच्ची का सुराग नहीं मिला.

करीब 2 महीने बाद पुलिस को सूचना मिली कि मानसी का अपहरण करने के बाद उसे दिल्ली के मजनूं का टीला इलाके में रखा गया है और वहीं पर उस से जिस्मफरोशी का धंधा कराया जा रहा है. यह सूचना रोंगटे खड़े कर देने वाली थी. क्योंकि मानसी की उम्र केवल 12 साल थी और इस उम्र में उस बच्ची के साथ जिस तरह का कार्य कराने की जानकारी मिली, वह मानवता को शर्मसार करने वाली ही थी.

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जांच अधिकारी विनती प्रसाद ने यह खबर अपने उच्चाधिकारियों को दी फिर उन्हीं के दिशानिर्देश पर पुलिस टीम ने 17 मार्च, 2021 को मजनूं का टीला इलाके में एक घर पर दबिश दी. मुखबिर की सूचना सही निकली. मानसी वहीं पर मिल गई.

पुलिस ने मानसी को सब से पहले अपने कब्जे में लिया. इस के बाद पुलिस ने वहां 2 महिलाओं सहित 4 लोगों को गिरफ्तार किया.

पुलिस ने उन सभी से पूछताछ की तो उन्होंने स्वीकार किया कि वे बड़े स्तर पर एस्कौर्ट सर्विस मुहैया कराते थे और उन का धंधा ज्यादातर वाट्सऐप ग्रुप और इंटरनेट के माध्यम से चलता है. उन के पास से पुलिस ने 5 मोबाइल फोन बरामद किए. फोनों की जांच की गई तो तमाम वाट्सऐप ग्रुप में ऐसी लड़कियों के अनेक फोटो मिले, जिन से वे जिस्मफरोशी कराते थे.

पुलिस ने गिरफ्तार किए हुए उन चारों लोगों से पूछताछ की तो पता चला कि उन में से संजय राजपूत और कनिका राय मजनूं का टीला के रहने वाले थे जबकि अंशु शर्मा  मुरादाबाद का और सपना गोयल मुजफ्फरनगर की.

ये सभी औनलाइन सैक्स रैकेट चलाते थे. जांच में पता चला कि इन लोगों के काम करने का तरीका एकदम अलग था. यह गिरोह सोशल साइट पर ज्यादा सक्रिय था. गैंग के लोग 150 से ज्यादा वाट्सऐप ग्रुप में सक्रिय थे. एस्कौर्ट सर्विस मुहैया कराने वाली लड़की के फोटो ये वाट्सऐप ग्रुप में शेयर करते थे. इस के बाद ग्रुप से जो कस्टमर इन के संपर्क में आता था, उस से यह पर्सनल चैटिंग करने के बाद पैसों की डील फाइनल करते थे. फिर औनलाइन ही पेमेंट अपने खाते में ट्रांसफर कराने के बाद कस्टमर के बताए गए स्थान पर ये लड़की को सप्लाई करते थे.

इस तरह यह गैंग देश के अलगअलग बड़े शहरों में लड़कियों की सप्लाई करते था. इतना ही नहीं, फाइव स्टार होटलों में भी इन के पास से लड़कियां सप्लाई की जाती थीं.

आरोपियों ने बताया कि उन के गैंग के सदस्य अलगअलग जगहों से लड़कियां उन के पास लाते थे. मानसी का भी गैंग के 2 लोगों ने अपहरण उस समय किया था, जब वह दुकान पर गई थी. उस का अपहरण करने के बाद वह उसे अपने घर पर ले गए थे.

उन्होंने मानसी से कहा था कि आज उन के यहां पर जन्मदिन है इसलिए वह बच्चों को इकट्ठा कर के केक काटेंगे. उन्होंने मानसी को केक खाने को दिया. केक खाते ही मानसी को नशा हो गया. इस के बाद दोनों मानसी को मजनूं का टीला ले गए, वहां पर संजय राजपूत, अंशु शर्मा, सपना गोयल और कनिका राय मिली. 12 साल की बच्ची को देख कर ये चारों खुश हो गए कि अब इस से मोटी कमाई की जा सकती है. क्योंकि वह तो उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझ रहे थे.

जब मानसी पर हल्का नशा सवार था, तभी उस के साथ रेप किया गया. होश आने पर मानसी दर्द से कराहती रही. इस के बाद भी इन लोगों को उस पर दया नहीं आई. उन्होंने उसी रात उसे किसी दूसरे ग्राहक के सामने पेश किया.

इस तरह वह मानसी का शारीरिक शोषण करते रहे. जब वह विरोध करती तो ये लोग उसे प्रताडि़त करते थे. इस तरह मानसी इन लोगों के चंगुल में बुरी तरह फंस चुकी थी. वहां से निकलने का उस के पास कोई उपाय नहीं था.

आरोपियों के 2 अन्य साथी फरार हो चुके थे. पुलिस ने उन की तलाश में अनेक स्थानों पर दबिश दी, लेकिन उन का पता नहीं चला. आरोपी 35 वर्षीय संजय राजपूत, 21 वर्षीय अंशु शर्मा, 24 साल की सपना गोयल और 28 साल की कनिका राय से विस्तार से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

अभियुक्तों के पास से बरामद की गई 12 वर्षीय मानसी को पुलिस ने उपचार के लिए अस्पताल में भरती करा दिया. मानसी ने अपने साथ घटी सारी घटना पुलिस को बता दी.

आरोपियों को जेल भेजने के बाद पुलिस गंभीरता से इस बात की जांच करने में जुट गई. इस गैंग के तार देश में किनकिन लोगों से जुड़े थे और इन्होंने अब तक कितनी लड़कियों का अपहरण किया था.

(कथा में मानसी परिवर्तित नाम है)

राइस पुलर के नाम पर करोड़ों की ठगी

जैसे जैसे तकनीकी का विकास होता जा रहा है, लोग भी जागरूक होते जा रहे हैं. अब ठगों ने भी आधुनिक तकनीकी का लाभ उठाते हुए पढे लिखे लोगों को एक नए तरीके से ठगना शुरू कर दिया है. अब कुछ ठगों ने लोगों को रेडियो धर्मी नामक दुर्लभ धातु ‘राइस पुलर’ के नाम पर लाखोंकरोड़ों रुपए की ठगी करनी शुरू कर दी है.

ऐसा ही एक मामला दिल्ली पुलिस ने व्यापारी संजय गुप्ता की शिकायत पर उजागर किया है. पुलिस ने जिन ठगों को गिरफ्तार किया है, उन्होंने  स्वीकार किया है कि वह लगभग 100 लोगों से 10 करोड़ रुपए की ठगी कर चुके हैं.

उत्तर पश्चिमी दिल्ली के आदर्श नगर के रहने वाले व्यापारी संजय गुप्ता की एक दिन मुन्नालाल नाम के व्यक्ति से मुलाकात हुई. बाद में उन दोनों के संबंध बहुत गहरे हो गए. तो मुन्नालाल ने संजय गुप्ता को राइस पुलर के बारे में बताया.

व्यापारी संजय गुप्ता राइस पुलर के बारे में कुछ नहीं जानते थे. मुन्नालाल ने बताया है कि राइस पुलर एक बेशकीमती धातु होती है. जिस का प्रयोग नासा, डीआरडीओ, इसरो स्पेस में भेजे जाने वाले अपने उपग्रह में करते हैं.

उस की बात सुनकर संजय गुप्ता के मन में भी एक जिज्ञासा पैदा हुई. उन्होंने उसी समय अपने मोबाइल फोन में गूगल पर राइस पुलर के बारे में सर्च करना शुरू कर दिया. कुछ ही देर में राइस पुलर के बारे में तमाम जानकारी उन के सामने आ गई.

गूगल पर राइस पुलर के बारे में ढेर सारी जानकारी मिलते ही संजय गुप्ता समझ गए कि राइस पुलर वास्तव में एक महंगी धातु है. वहां से उन्हें यह भी पता चल गया कि असली राइस पुलर की पहचान क्या होती है.

इस के बाद मुन्नालाल ने उन से कहा कि मेरे पास एक ऐसी पार्टी है, जो राइस पुलर की तांबे की प्लेट को बांग्लादेश से स्मगलिंग कर के लाई है. आप चाहें तो खुद उस प्लेट को देख लें. लेकिन यह बात तय है कि जितने पैसे में आप उसे खरीदेंगे, उस से कई गुना दामों में नासा वाले उसे खरीद लेंगे.

संजय गुप्ता व्यापारी थे, उन्हें इस धंधे में फायदा होता दिखा तो उन की दिलचस्पी भी बढ़ गई. उन्होंने उस से पूछा कि यह कितने पैसों में मिल सकती है.

‘सर, सौदे की बात तो बाद में हो जाएगी. सब से पहले आप यह देख लें कि हम जिस चीज का सौदा करने वाले हैं, वह असली भी है या नहीं. वैसे मेरे पास उस की एक वीडियो है. आप पहले इस वीडियो को देख लीजिए.’ मुन्नालाल ने कहा.

तब मुन्नालाल ने अपने फोन में एक वीडियो संजय गुप्ता को दिखाई. संजय गुप्ता उस वीडियो को बड़ी गौर से

देखने लगे.

इस वीडियो में एक तांबे की प्लेट रखी हुई थी उस प्लेट से कुछ दूर पर कुछ चावल बिखरे हुए थे. उन्होंने देखा कि धीरेधीरे वह चावल उस तांबे की प्लेट की तरफ खिंचे आ रहे थे. ठीक उसी तरह जैसे कोई चुंबक लोहे को अपनी ओर खींचता है.

मुन्नालाल से उन्होंने उस प्लेट की कीमत मालूम की. उस ने बताया है कि वैसे तो इस प्लेट की कीमत एक करोड़ रुपए से ज्यादा है, लेकिन वह उन्हें

80 लाख रुपए में इस का सौदा करा सकता है.

‘‘इस बात की क्या गारंटी है कि यदि मैं आप लोगों से इस प्लेट को खरीद लूं तो नासा या इसरो वाले उस से इस प्लेट को खरीद ही लेंगे.’’ संजय गुप्ता ने अपना शक जाहिर करते हुए कहा.

‘‘आप ने बिलकुल सही सवाल पूछा है. किसी के भी मन में ऐसा सवाल उठना स्वाभाविक बात है. इस के बारे में मैं बताना चाहता हूं कि हम जिस प्लेट का सौदा आप से करेंगे उस प्लेट को नासा और डीआरडीओ वाले खुद जांच करेंगे कि यह प्लेट असली भी है या नहीं. जब वह संतुष्ट हो जाएंगे. तब वह उसी समय एक जांच सर्टिफिकेट देंगे. उस सर्टिफिकेट में लिखा हुआ होगा कि यह प्लेट वास्तव में रेडियोधर्मी पदार्थ यानी राइस पुलर है.

‘‘यह बात आप भी जानते हैं कि नासा, डीआरडीओ या इसरो कोई छोटीमोटी एजेंसी तो हैं नहीं. यह देश की जानीमानी संस्थाएं हैं. उसी सर्टिफिकेट के आधार पर आप यह प्लेट नासा को अपनी मुंह मांगी कीमत पर बेच सकते हैं.’’ मुन्नालाल ने कहा.

मुन्नालाल से 4-5 बार हुई मीटिंग के आधार पर संजय गुप्ता को विश्वास हो गया कि वह जो सौदा करने जा रहा है वह घाटे का नहीं है. इस दौरान मुन्नालाल ने हरेंद्र कुमार और ठाकुरदास मंडल नाम के 2 व्यक्तियों से उन की फोन पर कई बार बात कराई.

इन दोनों ने खुद को नासा का वैज्ञानिक बताया था. इतना ही नहीं इन दोनों ने यह भी कहा कि वास्तव में जब वह कोई उपग्रह अंतरिक्ष में भेजते हैं तो उस में राइस पुलर पदार्थ का उपयोग किया जाता है. जरूरत के उस समय वह पदार्थ उन्हें मोटे दामों पर खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

तब उन दोनों वैज्ञानिकों ने संजय गुप्ता को आरबीआई द्वारा जारी किया गया एक सर्टिफिकेट, यूनाइटेड नेशन एंटी टेररिस्ट विभाग की ओर से जारी किया गया सर्टिफिकेट और नासा का एक सर्टिफिकेट दिखाया.

 

दोनों वैज्ञानिकों से मिल कर संजय गुप्ता पूरी तरह संतुष्ट हो गए. तब मुन्नालाल ने उन से  कहा कि ये दोनों वैज्ञानिक ही प्लेट की जांच करने के बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगे. लेकिन उस परीक्षण में कुछ खर्चा होगा जो आप को ही वहन करना पड़ेगा.

‘‘किस तरह का और कितना खर्चा होगा आप मुझे बताइए मैं देखता हूं.’’ संजय गुप्ता ने कहा.

तब हरेंद्र कुमार ने संजय गुप्ता को समझाया, ‘‘देखिए यह राइस पुलर उच्च रेडियोधर्मी पदार्थ होते हैं. इन के परीक्षण  के समय विशेष सावधानी बरतने की जरूरत होती है. इन की रेडियोधर्मी किरणों से बचने के लिए हमें वही जैकेट आदि पहननी होती है, जो मंगलयान पर जाते समय पहनी जाती है. और  इस के अलावा कुछ केमिकल भी लाने होते हैं. इन सब में करीब 15 लाख खर्च होंगे.’’ संजय गुप्ता ने उन्हें 11 लाख रुपए दे दिए.

पैसे लेने के बाद इन लोगों ने कहा कि वह इस की टेस्टिंग घनी आबादी से दूर करेंगे. इस के लिए मुन्नालाल ने संजय गुप्ता से कोई सुनसान जगह तलाशने को कहा. कारोबारी संजय गुप्ता ने कह दिया कि दिल्ली से बाहर एक गांव में उन के एक दोस्त का खेत में एक मकान बना हुआ है, वहीं पर इस की टेस्टिंग हो जाएगी. इस पर वह लोग तैयार हो गए और उन्होंने टेस्टिंग का दिन निर्धारित कर दिया.

लेकिन निर्धारित तिथि पर उन तीनों में से कोई भी उस प्लेट को ले कर टेस्टिंग के लिए नहीं पहुंचा. काफी देर इंतजार करने के बाद संजय गुप्ता ने मुन्नालाल को फोन लगाया लेकिन उस का फोन उस समय स्विच्ड औफ आ रहा था.

कुछ देर बाद फिर से मुन्नालाल का फोन लगाया. इस बार भी मुन्नालाल का फोन बंद मिला. जब कई बार ऐसा हुआ तो संजय परेशान हो गए. कई घंटे इंतजार करने के बाद वह अपने घर दिल्ली लौट आए.

घर आने के बाद भी वह लगातार मुन्नालाल को फोन लगाने का प्रयास करते रहे लेकिन हर बार उस का फोन स्विच्ड औफ ही आ रहा था. अब संजय गुप्ता के मन में कई आशंकाओं ने जन्म ले लिया है. सोचने लगे कहीं ऐसा तो नहीं उन लोगों ने उन से 11 लाख रुपए ठग लिए हों.

कई दिन बाद भी जब मुन्नालाल का फोन नहीं मिला तो संजय गुप्ता अपने दोस्त के साथ दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच के डीसीपी भीष्म सिंह से मिले. उन्होंने डीसीपी साहब को अपने साथ  की गई ठगी की सारी बात बता दी. तब डीसीपी भीष्म सिंह ने एडिशनल डीसीपी शिवेश सिंह के नेतृत्व में एक टीम बनाई जिस में  साइबर सेल के एसीपी अरविंद कुमार और राजीव कुमार को शामिल किया गया. पुलिस टीम ने अपने स्तर से उन लोगों को खोजना शुरू कर दिया और कुछ ही दिन में पुलिस को सफलता हासिल हो गई.

पुलिस ने कोलकाता से 36 वर्षीय हरेंद्र कुमार और 53 वर्षीय ठाकुरदास मंडल को गिरफ्तार कर लिया. मुन्नालाल भी पुलिस के हत्थे चढ़ गया.

तीनों आरोपियों की निशानदेही पर पुलिस ने 2 लैपटौप, 5 मोबाइल फोन, 6 सिम कार्ड, 14 डेबिट कार्ड, एक पेन ड्राइव, 22 हजार करोड़ जमा करने का आरबीआई द्वारा जारी किया गया फरजी सर्टिफिकेट, यूनाइटेड नेशन एंटी टेररिस्ट विभाग की ओर से जारी किया गया फरजी सर्टिफिकेट, नासा का एक फरजी सर्टिफिकेट बरामद हुआ. पुलिस ने उन का बैंक खाता भी सीज करा दिया जिस में 6 लाख से ज्यादा रुपए जमा थे.

जांच में पता चला है कि यह करीब 100 लोगों से करोड़ों रुपए की ठगी कर चुके हैं. इन सभी आरोपियों से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने इन्हें न्यायालय में पेश करने के बाद जेल भेज दिया.

परमबीर सिंह : ऐसे बने महाराष्ट्र के सुपरकौप

परमबीर सिंह का जन्म 20 जून, 1962 को हरियाणा के फरीदाबाद स्थित पाओता मोहम्मदाबाद गांव के एक पंजाबी परिवार में हुआ था. उन के पिता होशियार सिंह जाति से गुर्जर हैं तथा हिमाचल प्रदेश में एक तहसीलदार थे और मां एक गृहिणी हैं. परमबीर सिंह के 2 भाईबहन भी हैं.

जन्म के कुछ समय बाद ही मां बच्चों को ले कर चंडीगढ़ आ गईं, क्योंकि हिमाचल में नौकरी कर रहे पिता को चंडीगढ़ आ कर परिवार से मिलने में सुविधा होती थी. इसीलिए परमबीर जन्म के बाद किशोरवय उम्र तक चंडीगढ़ में ही पलेबढ़े और वहीं पर उन की शुरुआती पढ़ाई हुई.

उन्होंने अपनी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा डीएवी इंटरनैशनल स्कूल, अमृतसर, पंजाब से पूरी की. उस के बाद उन्होंने चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, पंजाब में दाखिला लिया, जहां से उन्होंने समाजशास्त्र से एमए किया.

बचपन से ही उन का झुकाव सिविल सेवा की ओर था. 1988 में उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा पास की और एक आईपीएस अधिकारी के रूप में महाराष्ट्र कैडर से पुलिस में शामिल हो गए. अपनी 32 साल की सेवा में उन्होंने महाराष्ट्र में अपराध को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

परमबीर सिंह की सविता सिंह एक वकील हैं, जो एलआईसी हाउसिंग फाइनैंस लिमिटेड नामक एक निजी कंपनी की निदेशक हैं. सविता सिंह 5 कंपनियों में डायरेक्टर हैं. हालांकि एलआईसी हाउसिंग ने पिछले साल जब टीआरपी मामले में परमबीर सिंह सुर्खियों में आए तो जबरदस्ती उन से बोर्ड से इस्तीफा दिलवा दिया था.

सविता सिंह एक बड़ी कारपोरेट प्लेयर हैं. सविता इंडिया बुल्स ग्रुप की 2 कंपनियों में भी डायरेक्टर हैं. वह एडवोकेट फर्म खेतान एंड कंपनी में पार्टनर हैं. सविता कौंप्लैक्स रियल एस्टेट ट्रांजैक्शन और विवादों के लिए अपने ग्राहकों को सलाह देती हैं.

वह ट्रस्ट डीड, रिलीज डीड और गिफ्ट डीड पर भी सलाह देती हैं. उन के ग्राहकों में ओनर, खरीदार, डेवलपर्स, कारपोरेट हाउसेज, घरेलू निवेशक और विदेशी निवेशक शामिल हैं.

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सविता सिंह ने हरियाणा की कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रैजुएट की डिग्री हासिल की है. इस के बाद उन्होंने मुंबई से ला में ग्रैजुएशन किया. वह 28 मार्च, 2018 को इंडिया बुल्स प्रौपर्टी की डायरेक्टर बनी थीं. यस ट्रस्टी में भी 17 अक्तूबर, 2017 को डायरेक्टर बनीं. वह इंडिया बुल्स असेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी में भी डायरेक्टर हैं. सोरिल इंफ्रा में भी डायरेक्टर थीं.

सोरिल इंडिया बुल्स की ही कंपनी है. कहा जाता है कि वह खेतान से सालाना 2 करोड़ रुपए से ज्यादा कमाती हैं.

परमबीर के इकलौते बेटे रोहन सिंह की शादी राधिका मेघे से हुई थी, जो नागपुर के एक बहुत बड़े बिजनैसमैन सागर मेघे की बेटी हैं. परमबीर सिंह के बेटे रोहन की शादी बेंगलुरु में बहुत ही धूमधाम से हुई थी. रोहन की पत्नी राधिका बीजेपी के कद्दावर नेता दत्ता मेघे की पोती हैं. दत्ता मेघे विदर्भ के अलगाव आंदोलन के सब से बड़ा चेहरा थे.

राधिका के पिता सागर मेघे नागपुर में बिजनैसमैन हैं. वह लोकसभा चुनाव भी लड़े थे, पर हार गए. उन के चाचा समीर मेघे विधायक हैं. कहा जाता है कि शादी का पूरा खर्च मेघे परिवार ने उठाया था. बाद में रोहन के परिवार ने मुंबई में रिसैप्शन दिया था.

परमबीर के एक भाई मनबीर सिंह भड़ाना हरियाणा के जानेमाने वकील तथा दूसरे हरियाणा प्रादेशिक सर्विस कमीशन के सब से युवा और सबसे लंबे अरसे तक सेवा करने वाले चेयरमैन रहे हैं. परमबीर सिंह की बेटी रैना विवाहित है और लंदन में एक कारपोरेट हाउस में नौकरी करती है.

1988 में अपने करियर की शुरुआत करने वाले परमबीर सिंह पुलिस सेवा की शुरुआत में जिला चंद्रपुर और जिला भंडारा के एसपी रह चुके हैं. वह मुंबई के कई जिलों में डीसीपी रह चुके हैं और हर तरह के अपराध पर उन की पैनी पकड़ रही है.

वह एटीएस में डीआईजी के पद का कार्यभार भी संभाल चुके हैं. महाराष्ट्र के ला ऐंड और्डर के एडिशनल डीजीपी का पद भी संभाल चुके हैं. उन्हें 90 के दशक में स्पैशल औपरेशन स्क्वायड यानी एसओएस का गठन करने के लिए भी जाना जाता है.

इस फोर्स ने अंडरवर्ल्ड और अपराधियों का जितना एनकाउंटर किया है, वह एक रिकौर्ड है. अंडरवर्ल्ड डौन के विरुद्ध एसओजी ने कई बड़े और सटीक औपरेशन किए. परमबीर सिंह को सख्त और तेजतर्रार औफिसर माना जाता है, जो किसी भी परिस्थिति को बखूबी हैंडल करना जानते हैं.

सितंबर 2017 में दाऊद इब्राहिम के भाई इकबाल कासकर की गिरफ्तारी के वक्त वह ठाणे के पुलिस कमिश्नर थे. इकबाल को बिल्डर से उगाही की धमकी के आरोप में ठाणे क्राइम ब्रांच ने गिरफ्तार किया था.

90 के दशक में मुंबई पुलिस ने जौइंट सीपी अरविंद इनामदार के निर्देशन में स्पैशल औपरेशन स्क्वायड बनाया था. परमबीर सिंह इस स्क्वायड के पहले डीसीपी थे. ठाणे के पुलिस कमिश्नर रहते हुए उन्होंने अपने कार्यकाल में एक हाईप्रोफाइल फरजी काल सेंटर रैकेट का परदाफाश भी किया था.

यह रैकेट अमेरिकी नागरिकों को अपने जाल में फंसाता था, जिस की वजह से एफबीआई की नजरों में था.

काल रैकेट आरोपी सागर का खुलासा भी परमबीर सिंह ने ही किया था. नवी मुंबई में हुए दंगों के दौरान वह खुद दंगाग्रस्त इलाकों में गए और सभी संप्रदाय के लोगों को समझाबुझा कर हिंसा को काबू में किया था.

अपने करियर में कई उपलब्धियां हासिल करने वाले परमबीर सिंह ने पुणे में अर्बन नक्सल नेटवर्क का भी खुलासा किया था.

परमबीर सिंह मुंबई के कई जोन्स के डीसीपी का पदभार संभाल चुके हैं. साथ ही मुंबई के वेस्टर्न रीजन जैसे हाईप्रोफाइल इलाके में उन्होंने एडिशनल कमिश्नर का पदभार भी संभाला.

वह महाराष्ट्र और मुंबई को क्राइम फ्री बनाने की दिशा में हमेशा सक्रिय रहे हैं. परमबीर सिंह कई पुरस्कार व पदकों से सम्मानित हो चुके हैं, जिन में मेधावी सेवा व विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति पदक शामिल हैं.

सुपरकॉप स्पेशल : जांबाज आशुतोष पांडेय

आशुतोष पांडेय साल 2012 में जब लखनऊ के डीआईजी, एसएसपी बने थे तब उन्होंने पुलिसकर्मियों को मुखबिर तंत्र इस्तेमाल करने का सब से अच्छा तरीका सिखाया था. मोबाइल नंबर पर शिकायत दर्ज कराने का हाइटेक सिस्टम भी उन्होंने ही लौंच किया था.

आशुतोष सादी वर्दी में घूमते थे और शहर में खोखा लगा कर पानबीड़ी बेचने वाले पनवाड़ी से ले कर रेहड़ी पटरी लगाने वालों, फल व चाय वालों से मिल कर इस निर्देश के साथ उन्हें अपना मोबाइल नंबर लिखा विजिटिंग कार्ड थमा देते थे कि कहीं कोई गड़बड़ दिखे तो उन्हें सीधे फोन करें.

बस कुछ ही दिनों में आशुतोष पांडेय के ऐसे हजारों मुखबिरों का नेटवर्क तैयार हो गया. परिणाम यह हुआ कि थानेदार की लोकेशन पता करने के लिए वह संबंधित थाना क्षेत्र के किसी भी पानवाले को फोन कर लेते थे. इस से कई सचझूठ सामने आ जाते थे.

2016 में जब आशुतोष पांडेय कानपुर जोन के आईजी थे तो उन्होंने कानपुर पुलिस की छवि सुधारने के लिए भी सोशल मीडिया को माध्यम बना कर जनता के लिए एक फोन नंबर जारी किया, जिसे एक नंबर भरोसे का नाम दिया गया. यह नंबर खूब चर्चित हुआ और लोग आईजी आशुतोष पांडेय से सीधे जुड़ने लगे.

कानपुर आईजी के पद पर रहते हुए पांडेय ने हर वारदात को हर पहलू से समझने के लिए कानपुर के एक थाने में तैनात एसओ सहित वहां के सभी दरोगाओं की कार्यशैली देखने के लिए उन की बैठक ली. वहां पीडि़तों को भी बुलाया गया था. थानेदारों और पीडि़तों से आमनेसामने बात की गई तो पता चला कई थानेदारों ने जांच के नाम पर लीपापोती की थी. कई ने तो पीडि़तों को भटकाने की कोशिश की थी. कई ऐसे भी थे जिन की जांच सही दिशा में जा रही थी.

यह सब देख कर उन्होंने एफआईआर दर्ज करने से ले कर विवेचना तक में दरोगा और थानेदारों के खेल पर शिकंजा कसने के आदेश दिए. दरअसल पुलिस विभाग में किसी अधिकारी की संवेदनशीलता उस की कार्यशैली को दर्शाती है. फिलहाल आशुतोष पांडेय उत्तर प्रदेश पुलिस के अपर महानिदेशक अभियोजन महानिदेशालय हैं.

हर कार्य दिवस की सुबह ठीक 10 बजे से अपने कक्ष में लगे कंप्यूटर के एक खास आइसीजेएस पोर्टल पर विभाग के प्रौसीक्यूटर्स की निगरानी में जुट जाते हैं. इस से गुमनामी में रहने वाला यूपी पुलिस का अभियोजन विभाग यूपी को देश में ई प्रौसीक्यूशन पोर्टल का उपयोग करने के लिए पहले नंबर पर आ खड़ा हुआ है.

बिहार के भोजपुर जिले में आरा के रहने वाले शिवानंद पांडेय के बड़े बेटे आशुतोष को बतौर सुपर कौप के रूप में पहचान दिलाई मुजफ्फरनगर जिले ने, जहां वे ढाई साल तक एसएसपी के पद पर तैनात रहे.

1998 में आशुतोष पांडेय की मुजफ्फरनगर जिले में एसएसपी के रूप में पहली नियुक्ति हुई. इस से पहले यहां केवल एसपी का पद था. दरअसल, प्रदेश सरकार ने आशुतोष पांडेय की मेहनत, लगन, ईमानदारी और कुछ नया करने की ललक को देखते हुए उन्हें एक खास मकसद से मुजफ्फरनगर में एसएसपी का पद सृजित कर भेजा था. साथ ही अपराधग्रस्त मुजफ्फरनगर से अपराध खत्म करने के लिए कुछ विशेष अधिकार भी दिए थे.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जिला मुजफ्फरनगर किसान बहुल और जाट बहुल है. यहां की शहरी और ग्रामीण जितनी आबादी जाटों की है, कमोबेश उतनी ही आबादी मुसलिमों की भी है.

1990 से 2000 के दशक की बात करें तो मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में अपराध में अव्वल था. अपहरण, फिरौती और हत्याओं में सब से आगे. ज्यादातर पुलिस वाले बड़े अपराधियों और रसूखदार लोगों की जीहुजूरी करते थे. कोई भी पुलिस कप्तान जिले में 6 महीने से ज्यादा नहीं टिक पाता था.

12 दिसंबर, 1998 को जब आशुतोष ने बतौर एसएसपी मुजफ्फरनगर में जौइंन किया उसी दिन बदमाशों ने पैट्रोल पंप की एक बड़ी लूट, एक राहजनी और एक व्यक्ति का अपहरण किया.

अभी 2-3 दिन ही बीते थे कि मुजफ्फरनगर के थाना गंगोह के रहने वाले कुख्यात बदमाश बलकार सिंह ने सहारनपुर के एक बड़े उद्योगपति के 8 वर्षीय बेटे का अपहरण कर लिया और उस की धरपकड़ और बच्चे की बरामदगी की जिम्मेदारी आशुतोष पांडेय पर आई.

आशुतोष खुद अपराधी बलकार सिंह के गांव पहुंचे. उन्होंने उस के करीबी लोगों को पकड़ कर पूछताछ की, लेकिन किसी ने मुंह नहीं खोला.

इसी दौरान अपहृत बच्चे के परिजनों ने बिचौलियों के माध्यम से अपहर्त्ताओं से बातचीत की और फिरौती की रकम ले कर एक व्यक्ति को बच्चे को छुड़ाने के लिए बलकार गिरोह के पास भेज दिया.

बलकार गिरोह ने फिरौती की रकम भी ले ली और बच्चे को भी नहीं छोड़ा. साथ ही फिरौती ले कर गए बच्चे के रिश्तेदार को भी बंधक बना लिया. अब उन्होंने बच्चे के साथ रिश्तेदार को छोड़ने के लिए भी फिरौती की रकम मांगनी शुरू कर दी.

इस वारदात के बाद मुजफ्फरनगर और सहारनपुर की पुलिस ने गन्ने के खेतों, जंगलों, गांवों की खूब कौंबिंग की, लेकिन सब बेनतीजा. अपहृत के परिजनों ने इस बार ठोस माध्यम तलाश कर बच्चे और अपने रिश्तेदार को फिरौती की रकम दे कर छुड़ा लिया. इस से पूरे प्रदेश में दोनों जिलों की पुलिस की बहुत किरकिरी हुई.

काफी माथापच्ची के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में आया कि गन्ना इस इलाके में सिर्फ किसानों की ही नहीं, अपराध और अपराधियों के लिए भी रीढ़ का काम करता है.

मुजफ्फरनगर में 90 फीसदी से ज्यादा जमीन पर गन्ने की खेती होती है. इसी खेती से यहां का किसान, आढ़ती और व्यापारी सब समृद्ध हैं. हर गांव में 100-50 ट्रैक्टर और ट्यूबवैल हैं.

समृद्धि हमेशा अपराध को जन्म देती है. मुजफ्फरनगर इलाके में अपराधी पैदा होते हैं मूछों की लड़ाई और इलाके में अपनी हनक पैदा करने के कारण. लेकिन बाद में अपराध के जरिए पैसा कमा कर खुद को जिंदा रखना उन की मजबूरी बन जाता है.

इसी के चलते मुजफ्फरनगर में हर अपराधी और उस के गैंग ने बड़े किसानों, आढ़तियों और उद्योगपतियों को निशाना बना कर उन का अपहरण करने और बदले में फिरौती वसूलने का धंधा शुरू किया.

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अपहर्त्ता कईकई दिन तक अपने शिकार को गन्ने के खेतों में छिपा कर रखते और इन खेतों व ट्यूबवैलों के मालिक किसान परिवार उन्हें खाने से ले कर दूसरी तरह का प्रश्रय देते.

उन दिनों मोबाइल फोन न के बराबर प्रचलन में थे. दूसरे इलेक्ट्रौनिक माध्यम भी नहीं थे, जिन के जरिए अपराधी अपहृत के परिजनों से संपर्क करते.

अपराधियों का एकमात्र माध्यम या तो लैंडलाइन फोन थे या फिर हाथ से लिखे पत्र, जिन्हें अपने शिकार के परिजनों तक पहुंचा कर वह फिरौती की मांग करते थे.

मुजफ्फरनगर के सामाजिक तानेबाने का अध्ययन करने के बाद आशुतोष पांडेय की समझ में यह बात भी आ गई कि इस इलाके में पंचायत व्यवस्था काफी मजबूत है. पंचायतों का असर इतना गहरा है कि जो मामले अदालतों तक जाने चाहिए, उन्हें पंचायत की मोहर लगा कर सुलझा दिया जाता था.

आशुतोष पांडेय ने ठान लिया कि वे मुजफ्फरनगर से असफल कप्तान का ठप्पा लगवा कर नहीं जाएंगे, बल्कि पंचायत और प्रभावशाली लोगों में पैठ बना कर बैठे अपराधियों का नेटवर्क तोड़ कर जाएंगे.

अपराध और अपराधियों की मनोवृत्ति तथा सामाजिक तानेबाने का विश्लेषण कर के आशुतोष पांडेय ने नए सिरे से जिला पुलिस के पुनर्गठन की शुरुआत की.

उन्होंने ऐसे पुलिसकर्मियों का पता लगाया, जिन का आचरण संदिग्ध था, मूलरूप से इसी इलाके के रहने वाले थे और जिन की अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से घनिष्ठता थी. जो गोपनीय सूचनाओं को लीक करते थे.

उन्होंने सब से पहले सिपाही से ले कर दरोगा स्तर के ऐसे ही पुलिस वालों की सूची तैयार की. इस के बाद उन्होंने ऐसे पुलिस वालों को या तो जिले से बाहर ट्रांसफर कर दिया या फिर उन की नियुक्ति गैरजरूरी पदों पर कर दी.

फिर आशुतोष पांडेय ने ऐसे पुलिसकर्मियों को चिह्नित करना शुरू किया जो न सिर्फ ड्यूटी के प्रति समर्पित थे बल्कि उन में बहादुरी का जज्बा और कुछ कर गुजरने की ललक थी.

सभी थाना स्तरों पर ऐसे पुलिसकर्मियों का एक स्पैशल स्क्वायड तैयार कराया. सभी थाना प्रभारियों से कहा गया कि वे इस स्क्वायड के पुलिसकर्मियों से नियमित काम न करवा कर उन्हें अपराधियों की सुरागरसी और स्पैशल टास्क पर लगाएं.  आशुतोष पांडेय ने राज्य सरकार से संपर्क कर उन्हें जिला पुलिस की जरूरतों से अवगत कराया.

राज्य सरकार ने जिला पुलिस को 26 मोटरसाइकिल, मोटोरोला के शक्तिशाली वायरलैस सैट और कुछ मोबाइल फोन उपलब्ध करा दिए. संसाधन मिलने के बाद आशुतोष ने अलगअलग कई और दस्तों का गठन किया. इन दस्तों को लेपर्ड दस्तों का नाम दिया गया.

अपराध के खिलाफ अपनी व्यूह रचना को अंजाम देने से पहले आशुतोष पांडेय मुजफ्फरनगर की जनता, कारोबारियों और उस तबके को विश्वास में लेना चाहते थे, जिन का मकसद शहर में अमनचैन कायम रखना था. उन्होंने समाज के इन सभी तबकों के जिम्मेदार लोगों से मिलनाजुलना शुरू किया.

उन्होंने इन सब लोगों को भरोसा दिलाया कि वह मुजफ्फरनगर में कानूनव्यवस्था कायम करने आए हैं. लेकिन यह काम उन के सहयोग के बिना नहीं हो सकता. उन्होंने तमाम लोगों को अपना मोबाइल फोन नंबर दे कर कहा कि कोई आपराधिक सूचना हो या कोई भी निजी परेशानी हो तो वे 24 घंटे में कभी भी निस्संकोच उन्हें फोन कर सकते हैं. वह सूचना मिलते ही काररवाई करेंगे.

अचानक पुलिस कप्तान के इस वादे पर भरोसा करना लोगों के लिए मुश्किल तो था. लेकिन आशुतोष पांडेय ने हार नहीं मानी, वह लगातार प्रयास करते रहे. आखिरकार उन के प्रयास रंग लाने लगे.

समाज और कानून व्यवस्था से सरोकार रखने वाले लोग आशुतोष पांडेय को फोन करने लगे. अपराधियों के बारे में सूचना देने लगे. यह जो नया सूचना तंत्र विकसित हो रहा था, उस में शहर के अमन पसंद लोग जिम्मेदारी उठा रहे थे.

आशुतोष पांडेय ने अपने सिटिजन सूचना तंत्र से मिली जानकारी लेपर्ड दस्तों को दे कर उन्हें दौड़ानाभगाना शुरू किया तो जल्द ही नतीजे भी सामने आने लगे. रंगदारी, अपहरण, लूट और डकैती करने वाले गिरोह पुलिस के चंगुल में फंसने शुरू हो गए.

मुजफ्फरनगर में जनवरी, 1999 से शुरू हुए पुलिस के औपरेशन क्लीन की सब से बड़ी खूबी यह थी कि आशुतोष पांडेय के हर मिशन की व्यूह रचना भी उन्हीं की होती थी और संचार तंत्र भी उन्हीं का होता था. पांडेय ने जो लेपर्ड दस्ते तैयार किए थे, बस उस सूचना के आधार पर उन का काम अपराधियों को दबोचने भर का होता था.

शक्तिशाली वायरलैस सैट और मोबाइल फोन से लैस 26 मोटरसाइकिलों पर सवार इन हथियारबंद लेपर्ड दस्तों ने मुजफ्फरनगर के चप्पेचप्पे तक अपनी पहुंच बना ली थी.

इन दस्तों में ज्यादातर लोग सादी वर्दी में होते थे, जो खामोशी के साथ किसी नुक्कड़ पर व्यस्त बाजार में, बस अड्डे पर, स्टेशन पर या चाय पान की दुकान पर साधारण वेशभूषा में आम आदमी की तरह मौजूद रहते थे.

साल 1999 की शुरुआत होतेहोते आशुतोष पांडेय का सूचना तंत्र इतना विकसित हो गया कि अचानक कोई वारदात होती, तत्काल उस की सूचना कप्तान आशुतोष के पास आ जाती. वह इलाके के लेपर्ड दस्ते और स्थानीय पुलिस को सूचना दे कर औपरेशन क्लीन के लिए भेजते. इस के बाद या तो मुठभेड़ होती, जिस में बदमाश मारे जाते या फिर बदमाश पुलिस की गिरफ्त में आ जाते.

पांडेय ने जिस मिशन की शुरुआत की थी, उस की सफलताओं का आगाज हो चुका था. एक के बाद एक गैंगस्टर और गैंग पकड़े जाने लगे. लगातार मुठभेड़ होने लगीं, जिन में कुख्यात अपराधी मारे जाने लगे.

अपराध और अपराधियों से त्रस्त आ चुकी मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा कायम होने लगा सूचना का जो तंत्र विकसित हुआ था, वह और तेजी से काम करने लगा.नतीजा यह निकला कि 16 फरवरी, 1999 को जब आशुतोष पांडेय का मुजफ्फरनगर प्रभार संभाले हुए 66वां दिन था तो अचानक उन्हें भौंरा कला के एक किसान ने फोन पर सूचना दी कि कुख्यात अंतरराजीय अपराधी रविंदर उर्फ चीता भौंरा कलां में अमरपाल किसान के ट्यूबवैल में छिपा है.

आशुतोष पांडेय ने पीएसी और स्थानीय पुलिस के साथ मिल कर खुद उस इलाके की घेराबंदी की. दोनों तरफ से मुठभेड़ शुरू हो गई. मुठभेड़ करीब 5 घंटे तक चली. आसपास के हजारों लोगों ने दिनदहाड़े हुई वह मुठभेड़ देखी और आखिरकार जिले का टौप 10 बदमाश रविंदर मारा गया.

बैंक डकैती से ले कर अपहरण की वारदातों में वांछित इस बदमाश के मारे जाते ही इलाके में आशुतोष पांडेय जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे.

आशुतोष पांडेय ऐसे नहीं थे, जिन पर अपनी जयकार का नशा चढ़ता. मुजफ्फरनगर जिले को अपराधमुक्त करना चाहते थे. रविंदर उर्फ चीता को ठिकाने लगाते ही वह इलाके से निकल लिए, क्योंकि एक और खबर उन का इंतजार कर रही थी.

पांडेय को उन के सिटिजन सूचना तंत्र से जानकारी मिली थी कि बाबू नाम का एक बदमाश जिस पर करीब 1 लाख  का ईनाम है, सिविल लाइन में किसी व्यापारी से रंगदारी वसूलने के लिए आने वाला है.

आशुतोष पांडेय सीधे सिविल लाइन पहुंचे, यहां नई टीम को बुलाया गया. फिर पुलिस टीम को एकत्र कर के बताया कि सूचना क्या है और उस पर क्या ऐक्शन लेना है.

सूचना सही थी. बताए गए समय और जगह पर कुख्यात अपराधी बाबू पहुंचा. पुलिस ने उसे चारों तरफ से घेर लिया और आत्मसमर्पण की चेतावनी दी. लिहाजा क्रौस फायरिंग शुरू हो गई. करीब 1 घंटे तक गोलीबारी हुई. घेरा तोड़ कर भागे बाबू को भी आखिरकार पुलिस ने धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर के इतिहास में शायद यह पहला दिन था जब एक ही दिन में पुलिस ने एक साथ 2 बड़े अपराधियों का एनकाउंटर कर उन्हें धराशाई कर दिया था.

इस एनकाउंटर के बाद मुजफ्फरनगर की जनता का पुलिस पर भरोसा वापस लौट आया. लोगों को लगने लगा कि आशुतोष पांडेय के रहते या तो बदमाश दिखाई नहीं देंगे. अगर दिखे तो उन के सिर्फ दो अंजाम होंगे या तो वे श्मशान में होंगे या सलाखों के पीछे.

आशुतोष पांडेय पर जिम्मेदारियां बहुत बड़ी थीं. क्योंकि यह सिर्फ शुरुआत थी इसे अंजाम तक पहुंचाना बेहद मुश्किल काम था. पांडेय सुबह 10 बजे तक अपने दफ्तर पहुंच जाते थे, जहां जनता से मुलाकात करते, शिकायतें सुनते.

उस के बाद कोई सूचना मिलने पर उन का काफिला अनजान मंजिल की तरफ निकल पड़ता. वे किसी गांव में किसानों के बीच बैठक लगाते या व्यापारियों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए बैठक करते.

आशुतोष पांडेय कईकई दिन तक अपनी पत्नी और दोनों बच्चों से नहीं मिल पाते थे. घर जाने की फुरसत नहीं होती थी इसलिए गाड़ी में ही हर वक्त 1-2 जोड़ी कपड़े रखते थे.

गाड़ी में हमेशा पानी की बोतलें, भुने हुए चने और गुड़ मौजूद रहता था. जरूरत पड़ने पर गुड़ और चने खा कर ऊपर से पानी पी लेते थे. थकान हो जाती थी तो गाड़ी में बैठ कर ही कुछ देर झपकी मार लेते थे.

आशुतोष पांडेय अकेले ऐसा नहीं करते थे. जिले के हर पुलिस कर्मचारी के लिए उन्होंने शहर के अपराधमुक्त होने तक ऐसी ही दिनचर्या अपनाने का वादा ले रखा था.

रविंदर उर्फ चीता और बाबू के एनकाउंटर के बाद आशुतोष पांडेय ही नहीं, पूरे जिले की पुलिस के हौसले बुलंदी पर थे. आईजी जोन से ले कर लखनऊ में उच्चस्तरीय अधिकारियों में भी आशुतोष पांडेय के काम की सराहना हो रही थी.

लेकिन आशुतोष इतने भर से संतुष्ट नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अगस्त, 1999 में मंसूरपुर इलाके में ईनामी बदमाश नरेंद्र औफ गंजा को मुठभेड़ में मार गिराया. चंद रोज बाद ही बड़ी रकम के इनामी बदमाश इतवारी को सिविल लाइन इलाके में ढेर कर दिया गया. 8 नवंबर, 1999 को उन्होंने खतौली के कुख्यात अपराधी सुरेंद्र को मुठभेड़ में धराशाई कर दिया.

मुजफ्फरनगर में जिस तरह से एक के बाद एक ताबड़तोड़ एनकाउंटर हो रहे थे, सक्रिय अपराधियों को सलाखों के पीछे भेजा जा रहा था. उस ने अपराधियों के बीच आशुतोष पांडेय के नाम का खौफ भर दिया था. उन्हें बड़ी कामयाबी तब मिली जब 27 अगस्त, 2000 को एक सूचना के आधार पर उन्होंने शामली के जंगलों में खड़े एक ट्रक को अपने कब्जे में लिया.

इस ट्रक में सवार 2 लोगों ने पुलिस पर फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस की तरफ से भी फायरिंग शुरू हो गई. फलस्वरूप दोनों बदमाश मारे गए. बाद में जिन की पहचान पंजाब के सुखबीर शेरी ओर दिल्ली के नरेंद्र नांगल के रूप में हुई.

पता चला कि ये दोनों आतंकवादी थे और दिल्ली में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान विस्फोट करना चाहते थे. ये दोनों 5 लोगों की हत्या में वांछित थे. जिस ट्रक में दोनों बैठे थे उसे उन्होंने सहारनपुर से लूटा था और ट्रक में 50 लाख  रुपए की सिगरेट भरी थी. पुलिस को उन के कब्जे से हथियार व गोलाबारूद भी मिला.

आशुतोष पांडेय द्वारा छेड़े गए मिशन के तहत बदमाश पकड़े भी जा रहे थे और मारे भी जा रहे थे. लेकिन पांडेय जानते थे कि मुजफ्फरनगर इलाके में अपराध की मूल जड़ गन्ना है. क्योंकि गन्ना बढ़ने के साथ उस की बिक्री से किसानों व क्रेशर मालिकों के पास पैसा आने लगता है.

बदमाश उसी पैसे को लूटने या फिरौती में लेने के लिए अपहरण की वारदातों को अंजाम देते हैं. कुल मिला कर इलाके के अपराधियों के लिए गन्ने की फसल मुनाफे का धंधा बन गई थी. आशुतोष पांडेय चाहते थे कि किसी भी तरह मुनाफे के इस धंधे को घाटे में बदल दिया जाए.

आशुतोष ने अब अपना सारा ध्यान अपहरण करने वाले गिरोह और बदमाशों पर केंद्रित कर दिया. उन्होंने पिछले 2-3 सालों में हुए अपहरणों की पुरानी वारदातों की 1-1 पुरानी फाइल को देखना शुरू किया.

अपहरण के इन मामलों में जो भी लोग संदिग्ध थे, जिन लोगों ने अपहर्त्ताओं को पनाह दी थी अथवा बिचौलिए का काम किया था, उन्होंने ऐसे तमाम लोगों की धरपकड़ शुरू करवा दी. रोज ऐसे 30-40 लोग पकड़े जाने लगे.

इस से अपराधियों के शरणदाता अचानक बदमाशों से कन्नी काटने लगे. जिस का नतीजा यह निकला कि मुजफ्फरनगर में अचानक साल 2000 में फिरौती के लिए अपहरण की वारदातों में भारी कमी आ गई.

लेकिन इस के बावजूद कुछ मुसलिम गैंग अभी तक अपहरण की वारदात छोड़ने को तैयार नहीं थे.

दिसंबर 2000 में चरथावल कस्बे के दुधाली गांव में बदमाशों ने भट्ठा मालिक जितेंद्र सिंह का अपहरण कर लिया और परिवार से मोटी फिरौती मांगी. शिकायत कप्तान आशुतोष पांडेय तक पहुंची तो उन्होंने तुरंत मुखबिरों के नेटवर्क को सक्रिय किया. पता चला कि जितेंद्र सिंह का अपहरण शकील, अकरम और दिलशाद नाम के अपराधियों ने किया है. यह भी पता चल गया कि बदमाशों ने जितेंद्र सिंह को दुधाहेड़ी के जंगलों में रखा हुआ है.

उन्होंने खुद इस मामले की कमान संभाली और पूरे जंगल की घेराबंदी कर दी. दिनभर पुलिस और बदमाशों की मुठभेड़ चलती रही, जिस के फलस्वरूप शाम होतेहोते तीनों बदमाश मुठभेड़ में धराशाई हो गए और जितेंद्र सिंह को सकुशल मुक्त करा लिया गया.

1999 से ले कर साल 2000 तक मुजफ्फरनगर जिले में कई ऐसे अपहरण हुए, जिस में आशुतोष पांडेय की अगुवाई में पुलिस ने न सिर्फ अपहृत व्यक्ति को सकुशल मुक्त कराया. बल्कि अपहर्त्ताओं को या तो गिरफ्तार किया या फिर मुठभेड़ में धराशाई कर दिया. पांडेय ने ऐसे सभी मामलों में अपहर्त्ताओं को अपने खेतों, ट्यूबवैल और घरों में शरण देने वाले किसानों और उन के परिवार की महिलाओं तक को आरोपी बना कर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया.

परिणाम यह निकला कि लोग अपराधियों को शरण देने से बचने लगे. कल तक अपहरण को मुनाफे का धंधा मानने वाले अपराधियों को अब वही धंधा घाटे का लगने लगा. यही वजह रही कि साल 2001 में मुजफ्फरनगर जिले में फिरौती के लिए अपहरण की एक भी वारदात नहीं हुई.

इस बीच जिले के सभी 28 थानों पर पांडेय की इतनी मजबूत पकड़ कायम हो चुकी थी कि अगर वहां कोई मामूली सी भी गड़बड़ या घटना होती तो इस की सूचना उन तक पहुंच जाती थी.

लोगों से मिली सूचनाओं के बूते पर उन्होंने जिले के करीब 525 ऐसे लोगों की सूची बनाई थी, जो या तो सफेदपोश थे या फिर किसी पंचायत अथवा राजनीतिक दल से जुड़े थे. इन सभी लोगों पर आशुतोष पांडेय ने अपनी टीम के लोगों को नजर रखने के लिए छोड़ा हुआ था.

ऐसे लोगों की अपराध में जरा सी भी भूमिका सामने आने पर आशुतोष पांडेय मीडिया के माध्यम से जनता के बीच उन के चरित्र का खुलासा करके उन्हें जेल भेजते थे. इसलिए तमाम सफेदपोश लोग भी आशुतोष पांडेय के खौफ से डरने लगे थे.

सफेदपोश अपराधियों के खिलाफ की गई काररवाई में सब से चर्चित और उल्लेखनीय मामला समाजवादी पार्टी से विधान परिषद सदस्य कादिर राणा के भतीजे शाहनवाज राणा की गिरफ्तारी का था.

शाहनवाज राणा की शहर में तूती बोलती थी. किसी के साथ भी मारपीट कर देना किसी की गाड़ी को अपनी गाड़ी से टक्कर मार देना शाहनवाज राणा का शगल था. पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर प्रभाव रखने और धमक दिखाने के लिए शाहनवाज राणा ने एक अखबार भी निकाल रखा था. शाहनवाज राणा पर कोई हाथ नहीं डाल पाता था. शाहनवाज राणा पहले हत्या के एक मामले में गिरफ्तार हो चुका था लेकिन सबूत न होने की वजह से बाद में अदालत से रिहा हो गया था. इस से मुजफ्फरनगर में शाहनवाज की गुंडागर्दी और भी बढ़ गई थी. लेकिन आशुतोष पांडेय ने शाहनवाज को भी नहीं छोड़ा.

दरअसल, मुजफ्फरनगर के रमन स्टील के मालिक रमन कुमार ने आशुतोष पांडेय को फोन कर के बताया कि शाहनवाज राणा और उस के साथी उस की फैक्ट्री से लोहे के कबाड़ का ट्रक लूट रहे हैं.

सूचना मिलते ही आशुतोष पांडेय अपने स्पैशल दस्ते के साथ मौके पर पहुंचे और शाहनवाज राणा व उस के साथियों को पकड़ कर थाने ले आए.

शाहनवाज राजनीतिक पकड़ वाला व्यक्ति था. चाचा कादिर राणा प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का एमएलसी था. थाने पर एक खास समुदाय के समर्थकों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई.

आशुतोष पांडेय पर शाहनवाज को छोड़ने के लिए उच्चाधिकारियों से ले कर विपक्षी पार्टी के नेताओं का दबाव बढ़ने लगा.

लेकिन आशुतोष पांडेय उसूलों के पक्के थे. उन्होंने शाहनवाज को खुद मौके पर जा कर पकड़ा था. लिहाजा छोड़ने का सवाल ही नहीं था.

अगर दबाव में आ कर वह शाहनवाज को छोड़ देते तो न सिर्फ ढाई साल में की गई उन की मेहनत पर पानी फिर जाता बल्कि शाहनवाज राणा के हौसले और ज्यादा बुलंद हो जाते.

आशुतोष पांडेय ने तबादले और दंड की परवाह किए बिना शाहनवाज राणा के खिलाफ मामला दर्ज करवाया और उसे साथियों के साथ जेल भिजवा दिया.

मुजफ्फरनगर जिले में यह मामला एक आईपीएस अफसर के ईमानदार फैसले की नजीर बन गया और लोगों ने आशुतोष पांडेय की हिम्मत का लोहा मान लिया.

यही कारण रहा कि मुजफ्फरनगर में अपनी तैनाती के दौरान इकहरे शरीर के मालिक आशुतोष पांडेय हमेशा लौह पुलिस अफसर बन कर खड़े रहे.

मुजफ्फरनगर में ढाई साल के लंबे कार्यकाल के बाद आशुतोष पांडेय की नियुक्ति अलगअलग जगहों पर रही. हर जगह उन्होंने जो काम किए, वह सब से हट कर थे. पांडेय 2005 में वाराणसी और साल 2012 में लखनऊ के एसएसपी डीआईजी रहे.

सभी जगह आशुतोष पांडेय का नाम सुनते ही गैरकानूनी काम करने वाले लोग डरते थे. 2008 में आशुतोष पांडेय को प्रोन्नत कर उन्हें डीआईजी का पद सौंपा गया. इस के बाद उन्हें 18 मई, 2012 में प्रमोशन देते हुए आईजी बना दिया गया.

कानुपर के अलावा उन की नियुक्ति आगरा जोन में भी रही और 1 जनवरी, 2017 को वह यूपी के एडीजी बना दिए गए. अपहरण मामलों को सुलझाने के विशेषज्ञ, मुजफ्फरनगर में 100 से ज्यादा अपराधियों के एनकाउंटर में 30 एनकांउटर में खुद मोर्चा संभालने और कानपुर में बहुचर्चित ज्योति हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने में अहम रोल निभाने वाले आशुतोष पांडेय को राष्ट्रपति मैडल मिल चुका है.

IPS नवनीत सिकेरा : जानें ‘भौकाल’ वेब सीरीज के असली हीरो के बारे में

इन दिनों ओटीटी प्लेटफार्म पर वेब सीरीज ‘भौकाल’ के दूसरे भाग की काफी चर्चा है. उस में यूपी के एक जांबाज आईपीएस को शातिर ईनामी अपराधियों से सामना करते दिखाया गया है. बात सितंबर 2003 की है, तब पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता बढ़ते अपराधों को ले कर बेहद परेशान थी. मुजफ्फरनगर के माथे पर तो क्राइम के कलंक का जैसे धब्बा लग चुका था. आए दिन अपहरण, हत्या, बलात्कार, लूट और डकैती की होने वाली ताबड़तोड़ वारदातों से समाजवादी पार्टी की मुलायम की सरकार पर लगातार आरोपों की बौछार हो रही थी.

मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को विधानसभा में विपक्षी राजनीतिक दलों के सवालों के जवाब देते नहीं बन पा रहा था. कारण था शातिरों के सक्रिय कई गैंग और उन की बेखौफ आपराधिक घटनाएं. वे अपराध को अंजाम देने से जरा भी नहीं हिचकते थे.

मुख्यमंत्री ने पुलिस विभाग के आला अफसरों की गोपनीय बैठक बुलाई थी. उन के बीच फन उठाए अपराधों को ले कर गहन चर्चा हुई. बेकाबू अपराधों पर अंकुश लगाने के वास्ते कुछ नीतियां बनीं और कुछ जांबाज पुलिसकर्मियों की लिस्ट बनाई गई. उन्हीं में एक आईपीएस अधिकारी नवनीत सिकेरा का नाम भी शामिल था.

तुरंत उस निर्णय पर काररवाई की गई. अगले रोज ही आईपीएस नवनीत सिकेरा मुजफ्फरनगर के एसएसपी के पद पर तैनात कर दिए गए. तब डीआईजी मेरठ ने उन्हें पत्र सौंपते हुए कहा था, ‘इस देश में 2 राजधानियां हैं— एक दिल्ली जहां कानून बनाए जाते हैं, दूसरी मुजफ्फरनगर (क्राइम कैपिटल) जहां कानून तोड़े जाते हैं.’

यह कहने का सीधा और स्पष्ट निर्देश था कि कानून तोड़ने वाले को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाना चाहिए. दरअसल, 49 वर्षीय नवनीत सिकेरा उत्तर प्रदेश कैडर के 1996 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं. इन दिनों वह उत्तर प्रदेश पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक हैं. इस से पहले वह इंसपेक्टर जनरल थे.

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वैसे तो उन्होंने आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. कंप्यूटर साइंस में बीटेक और एमटेक की डिग्री हासिल करने के बावजूद वह पिता को आए दिन मिलने वाली धमकियों की वजह से आईपीएस बनने के लिए प्रेरित हुए. हालांकि उन्होंने भारत में यूपीएससी की सब से बड़ी परीक्षा अच्छे रैंक के साथ पास की थी और आईएएस के लिए चुने गए थे.

सिकेरा की सूझबूझ और जांबाजी

आईआईटी रुड़की से इंजीनियरिंग और फिर आईपीएस बने नवनीत सिकेरा ने मुजफ्फरनगर का जिम्मा संभालने के तुरंत बाद इलाके में हुई मुख्य वारदातों की सूची के साथ उन के आरोपियों की डिटेल्स मंगवाई. यह देख कर उन्हें हैरानी हुई कि अधिकतर आरोपी हजारों रुपए के ईनामी भी थे.

आरोपियों ने बाकायदा गैंग बना रखे थे. पुलिस की आंखों में धूल झोंकना उन के लिए बाएं हाथ का खेल था. यहां तक कि वे पुलिस पर भी हमला करने से नहीं चूकते थे.

उन्हीं बदमाशों में शौकीन, बिट्टू और नीटू कैल की पूरे जिले में दहशत थी. छपारा थाना क्षेत्र के गांव बरला के रहने वाले शौकीन पर 20 हजार रुपए का ईनाम घोषित था. इस के अलावा थाना भवन क्षेत्र के गांव कैल शिकारपुर निवासी बिट्टू और नीटू की आपराधिक वारदातों से भी जिले में दहशत फैली हुई थी.

शौकीन ने गांव के ही 2 लोगों की हत्या के अलावा अपहरण और हत्या की कई वारदातों को अंजाम दिया था.

सिकेरा ने कंप्यूटर साइंस की इंजीनियरिंग का इस्तेमाल शातिरों की आपराधिक गतिविधियों के साथ कनेक्ट करने में लगाया. सूझबूझ से अपनाई गई डेटा एनालिसिस की तकनीक क्राइम से निपटने में काम आई.

जल्द ही शातिरों के खिलाफ रणनीति बनाने में उन्हें पहली कामयाबी मिली और उन्होंने शौकीन को एनकाउंटर में मार गिराया. उस के बाद नीटू और बिट्टू भी मारे गए. दोनों वैसे शातिर थे, जिन पर पुलिस पर ही हमला कर कारबाइन भी लूटने के आरोप थे.

उस के बाद वह सिकेरा से ‘शिकारी’ बन गए थे. यह संबोधन थाना भवन में बिट्टू कैल का एनकाउंटर करने पर तत्कालीन डीआईजी चंद्रिका राय ने दिया था. तब उन्होंने सिकेरा के बजाए नवनीत ‘शिकारी’ कह कर संबोधित किया था.

हालांकि नवनीत सिकेरा 6 सितंबर, 2003 से ले कर पहली दिसंबर, 2004 तक मुजफ्फरनगर में एसएसपी पद पर रहे. इस दौरान उन्होंने कुल 55 शातिर और ईनामी बदमाशों को एनकाउंटर में ढेर कर दिया था.

एनकांउटर में मारे गए बदमाशों में पूर्वांचल के शातिर शैलेश पाठक, बिजनौर का छोटा नवाब, रोहताश गुर्जर, मेरठ का शातिर अंजार, पुष्पेंद्र, संदीप उर्फ नीटू कैल, नरेंद्र उर्फ बिट्टू कैल आदि शामिल थे. वैसे यूपी में उन के द्वारा कुल 60 एनकाउंटर करने का रिकौर्ड है.

सब से खतरनाक एनकाउंटर

मुजफ्फरनगर के छोटेमोटे बदमाशों के दबोचे जाने के बावजूद कई खूंखार शातिर बेखौफ छुट्टा घूम रहे थे. उन में कई जमानत पर छूटे हुए थे, तो कुछ दुबके थे.

उन्हीं में शातिर रमेश कालिया का नाम भी काफी चर्चा में था. उस ने पुलिस की नाक में दम कर रखा था. वह भी ईनामी बदमाश था और फरार चल रहा था.

रमेश कालिया लखनऊ का रहने वाला एक खतरनाक रैकेटियर था. उस का मुख्य धंधा उत्तर प्रदेश के कंस्ट्रक्टर और बिल्डरों से जबरन पैसा उगाही का था. साल 2002 में जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी. तब मुख्यमंत्री बनने पर मुलायम सिंह यादव के सामने प्रदेश की कानूनव्यवस्था को सुधारना बड़ी चुनौती थी.

सरकार के लिए कालिया नाक का सवाल बना हुआ था. उस ने पूरी राजधानी को अपने शिकंजे में ले रखा था. वह गैंगस्टर बना हुआ था. उस के माफिया राज की जबरदस्त दहशत थी.

उस के गुंडे और शूटर बदमाशों द्वारा आए दिन लूटपाट, डकैती, हत्या और फिरौती की वारदातों से सामान्य नागरिकों में काफी दहशत थी, यहां तक कि राजनीतिक दलों के नेता तक उस के नाम से खौफ खाते थे.

और तो और, सितंबर 2004 में समाजवादी पार्टी के एमएलसी अजीत सिंह की हत्या का रमेश कालिया ही आरोपी था. अजीत सिंह की हत्या उन के जन्मदिन के मौके पर ही कर दी गई थी. इस कारण राज्य की चरमराई कानूनव्यवस्था और नागरिकों की सुरक्षा पर भी सवाल खड़े हो गए थे.

तब तक नवनीत सिकेरा का नाम पुलिस महकमे में काफी लोकप्रिय हो चुका था. यह देखते हुए ही सिकेरा को उस के खात्मे की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.

कालिया 14 साल की उम्र से ही क्राइम की दुनिया में था. उस उम्र में उस ने एक व्यक्ति पर जानलेवा हमला कर दिया था, जिस कारण वह पहली बार जेल गया था. जेल से छूटने के बाद लखनऊ के कुख्यात माफिया सूरजपाल के संपर्क में आ गया था. उस के साथ काफी समय तक रहते हुए वह शातिर बदमाश बन चुका था. वह कई आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो गया था.

सूरजपाल की मौत के बाद वह उस के गिरोह का सरगना भी बन गया था. इस तरह उस पर कुल 22 केस दर्ज हो गए थे, जिन में से 12 हत्याओं के अलावा 10 मामले हत्या का प्रयास करने के थे. उस पर कांग्रेसी नेता लक्ष्मी नारायण, सपा एमएलसी अजीत सिंह और चिनहट के वकील रामसेवक गुप्ता की हत्या का आरोप था.

इस लिहाज से खूंखार कालिया को शिकंजे में लेना आसान नहीं था. उन दिनों सिकेरा की पोस्टिंग मुजफ्फरनगर के बाद मेरठ में हो चुकी थी. वहां भी लोग आपराधिक घटनाओं से त्रस्त थे.

सिकेरा ने अपराधियों पर नकेल कसनी शुरू कर दी थी. उन का नाम लोगों ने सुन रखा था और उन से उम्मीदें भी खूब थीं.

उन्हीं दिनों प्रौपर्टी डीलर इम्तियाज ने कालिया द्वारा जबरन वसूली की मोटी रकम की शिकायत दर्ज करवाई थी. उन्होंने इस बारे में सिकेरा से मिल कर पूरी जानकारी दी थी कि वह पैसे के लिए कैसे तंग करता रहता है.

प्रौपर्टी डीलर ने सिकेरा को जबरन वसूली संबंधी पूछताछ के सिलसिले में बताया था कि उन्होंने कालिया को 40 हजार रुपए दिए थे, जबकि उस की मांग 80 हजार रुपए की थी. कम रुपए देख कर वह गुस्से में आ गया था और उस पर पिस्तौल तान दी थी.

इम्तियाज की शिकायत पर सिकेरा ने वांटेड अपराधी को घेर कर दबोचने की योजना बनाई. उन्होंने पहले एक मजबूत टीम बनाई. टीम में जांबाज पुलिसकर्मियों को शामिल किया और सभी को पूरी प्लानिंग के साथ अच्छी ट्रेनिंग दी.

सिकेरा को 12 फरवरी, 2005 को रमेश कालिया के निलमथा में होने की खबर मिली. यह सूचना उन्होंने तुरंत अपनी टीम के खास साथियों को बुला कर एनकाउंटर का प्लान बनाया.

राजनेताओं के संरक्षण के चलते बेखौफ रमेश कालिया पुलिस की गतिविधियों पर नजर रखने के साथ व्यापारियों से रंगदारी वसूला करता था. उस ने एक बिल्डर से 5 लाख रुपए की मांग की थी. इस के लिए निलमथा इलाके में निर्माणाधीन मकान पर बुलाया था.

बारातियों की वेशभूषा में किया एनकाउंटर

उस ने चारों ओर अपने साथियों को मुस्तैद कर रखा था. उस के अड्डे तक पहुंचने का कोई रास्ता नजर न आने पर सिकेरा ने पुलिस की नकली बारात की रूपरेखा तैयार की थी. बैंडबाजे के साथ बारात निलमथा में रमेश कालिया के अड्डे तक जा पहुंची.

उस के बाद सिकेरा ने कालिया को दबोचने के लिए अनोखा प्लान बनाया. उन्होंने पुलिस टीम को बारातियों की वेशभूषा में निलमथा में भेज दिया. उन्हें यह भी मालूम हुआ था कि वह बारात लूटपाट की भी वारदातें कर चुका था.

नकली बारात में एक महिला सिपाही सुमन वर्मा को दुलहन बना दिया गया. उन्हें काफी जेवर पहना दिए गए थे. चिनहट के इंसपेक्टर एस.के. प्रताप सिंह दूल्हे के गेटअप में थे.

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नाचतेगाते बारातियों ने कालिया को चारों तरफ से घेर लिया. उस ने रास्ता लेने के लिए गुस्से में पिस्तौल निकाल ली. वह अभी हवाई फायर करने वाला ही था कि बाराती बने पुलिसकर्मी ऐक्शन में आ गए.

उस का भी वही हश्र हुआ, जो इस से पहले सिकेरा के हाथों अन्य बदमाशों का हुआ था. लगभग 20 मिनट तक चले इस औपरेशन में पुलिस और कालिया गिरोह के बीच 50 से अधिक गोलियां चली थीं. इस गोलीबारी में पुलिस ने रमेश कालिया को ढेर कर दिया था.

पुलिस महकमे में यह खबर आग की तरह फैल गई कि कालिया एनकाउंटर में मारा गया. यह खबर मीडिया में सुर्खियां बन गई. इसी के साथ आईपीएस सिकेरा के नाम एक और शाबाशी का तमगा जुड़ गया. तब तक वे 60 एनकाउंटर कर चुके थे.

सिकेरा की 10 महीने की कप्तानी में इतने एनकाउंटर एक रिकौर्ड है. शिकायतों पर काररवाई करा कर उन्होंने नागरिकों का ऐसा विश्वास जीता कि शहर से ले कर गांव तक उन का खुद का नेटवर्क बन गया था.

कालिया की मौत के बाद लोगों ने काफी राहत महसूस की.

सिकेरा का जब वहां से ट्रांसफर किया गया, तो लोगों को काफी सदमा लगा. वे नहीं चाहते थे कि सिकेरा कहीं और जाएं. उन की लोकप्रियता का यह आलम था कि शहर में उन्हें वापस बुलाने के लिए जगहजगह पोस्टर लगा दिए.

इस सफलता के बाद आईपीएस नवनीत सिकेरा को सन 2005 में विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति का पुलिस पदक मिला था. मुजफ्फरनगर और लखनऊ के अलावा सिकेरा ने वाराणसी में भी एसएसपी के पद कार्य किया. उस के बाद सिकेरा ने जनपद मेरठ के एसएसपी के पद पर कार्यभार ग्रहण किया था.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी वह एसएसपी के पद पर तैनात रहे थे. उन की पोस्टिंग जहां भी हुई, वहां अपराधियों में खौफ बना रहा. उन का सन 2012 में डीआईजी के पद पर प्रमोशन हो गया था. उस के अगले साल 2013 में उन्हें  मेधावी सेवा हेतु राष्ट्रपति के पुलिस पदक से नवाजा गया था.

उन्होंने 2 साल तक डीआईजी रह कर कार्य किया. फिर साल 2014 में वह आईजी बना दिए गए. सन 2015 में डीजीपी द्वारा उन्हें रजत पदक दिया गया. उस के बाद 2018 में डीजीपी द्वारा ही स्वर्ण पदक से नवाजा गया.

सुपरकौप बन कर उभरे सिकेरा

‘सुपर कौप’ बन कर उभरे आईपीएस नवनीत सिकेरा के उस दौर में हुए बदमाशों के खात्मे की कहानी को वेब सीरीज ‘भौकाल’ में दिखाया जा चुका है.

इस में नवनीत सिकेरा के किरदार का नाम नवीन सिकेरा है, कुछ अन्य किरदारों के नाम भी बदल दिए गए हैं. यह सीरीज नवनीत सिकेरा के उस समय के कार्यकाल पर आधारित है, जब वह यूपी के मुजफ्फरनगर में बतौर एसएसपी तैनात हुए. उन की शादी डा. पूजा ठाकुर सिकेरा से हुई, जिन से एक बेटा दिव्यांश और एक बेटी आर्या है.

अपराधियों को नाकों चना चबाने पर मजबूर करने वाले नवनीत सिकेरा ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष कदम उठाया और वीमेन पावर हेल्पलाइन 1090 की शुरुआत की.

इसे कारगर बनाने के लिए काउंसलिंग और सोशल साइटों का भी इस्तेमाल किया. इस से लड़कियों को काफी हिम्मत मिली. जिस की कमान बतौर आईजी के पद पर रहते हुए सिकेरा ने खुद संभाल रखी थी.

वीमेन पावर लाइन-1090 शुरू होते ही पूरे प्रदेश में मशहूर हो गई. शहरों के अलावा गांव से भी महिलाओं द्वारा 1090 पर काल कर मदद मांगी जाने लगी.

प्राप्त जानकारी के अनुसार वीमन पावर लाइन में हर साल तकरीबन 2 लाख शिकायतें दर्ज होती हैं, जिस के निस्तारण के लिए एक टीम लगाई गई है. सिकेरा वीमेन पावर लाइन को अपने जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं.

सिकेरा की सफलता के पीछे लंबा संघर्ष

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से आने वाले नवनीत सिकेरा को लंबे संषर्घ का सामना करना पड़ा. पढ़ाई के दरम्यान कई बार उपेक्षा और तिरस्कार से जूझना पड़ा.

शिक्षण संस्थानों के कर्मचारियों के रूखे व्यवहार के आगे तिलमिलाए, झल्लाहट हुई, किंतु उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेहनत के बूते वह सब हासिल कर लिया, जिस की उन्होंने भी कल्पना नहीं की थी. एटा जिले में किसान मनोहर सिंह के घर जन्म लेने वाले नवनीत सिकेरा ने हाईस्कूल तक की पढ़ाई उसी जिले के एक सरकारी स्कूल से की थी. उन का घर छोटे से गांव में था. हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ने के कारण अंगरेजी भाषा पर उन की अच्छी पकड़ नहीं थी.

12वीं की पढ़ाई पूरी होने के बाद वह दिल्ली हंसराज कालेज में बी.एससी में प्रवेश के लिए गए. अंगरेजी पर अच्छी पकड़ नहीं आने के कारण कालेज के क्लर्क ने एडमिशन फार्म तक नहीं दिया. फार्म नहीं मिलने पर सिकेरा दुखी हो गए, किंतु हार नहीं मानी.

खुद से किताबें खरीद कर पढ़ाई करने लगे. पहले अंगरेजी ठीक की. बाद में इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने लगे. उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से पहली बार में आईआईटी जैसी परीक्षा पास कर ली.

उन का नामांकन आईआईटी रुड़की में हो गया. वहां से उन्होंने कंप्यूटर सांइस ऐंड इंजीनियरिंग से बीटेक की पढ़ाई पूरी की. उन्होंने अपना लक्ष्य एक अच्छा सौफ्टवेयर इंजीनियर बनने का बनाया. लगातार वह अपने लक्ष्य पर निशाना साधे रहे.

बीटेक की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली आईआईटी में एमटेक में दाखिला ले लिया. एमटेक की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने पाया कि उन के पिता मनोहर सिंह के पास कुछ धमकी भरे फोन आते थे, जिस से वह बहुत परेशान हो जाते थे. उस के बाद जो वाकया हुआ, उस ने सिकेरा की जिंदगी ही बदल कर रख दी.

अपमान ने जगा दिया जज्बा

दरअसल, गांव में उन के पिता ने अपनी जमापूंजी से कुछ जमीन खरीदी थी. जिस पर असामाजिक तत्त्वों ने कब्जा कर लिया था. इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर गांव लौटे नवनीत पिता को ले कर थाना गए थे, लेकिन वहां पुलिस अधिकारी ने उन की कोई मदद नहीं की. उल्टे उन्हें ही बुराभला सुना दिया.

जब पिता ने बेटे का परिचय एक इंजीनियर के रूप में देते हुए कहा कि उन का बेटा पढ़ालिखा है, तब पुलिस वाले ने एक और ताना मारा, ‘ऐसे इंजीनियर यूं ही बेगार फिरते हैं.’

इस घटना ने सिकेरा को अंदर से झकझोर कर रख दिया. उन्होंने एमटेक करने का विचार छोड़ दिया और देश की सब से प्रतिष्ठित सेवा यूपीएससी की तैयारी शुरू कर दी.

शानदार रैंक के साथ यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली, उन्हें आईएएस के अच्छे रैंक के साथ प्रशासनिक पदाधिकारी की पेशकश की गई. लेकिन उन्होंने सबडिवीजनल औफिसर और कलेक्टर बनने के बजाय आईपीएस बनना पसंद किया.

उन की हैदराबाद में सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में 2 साल की ट्रेनिंग हुई और वे 1996 बैच के आईपीएस अफसर बन गए.

उस के बाद उन की पहली पोस्टिंग बतौर आईपीएस अधिकारी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जनपद गोरखपुर में एएसपी के पद पर मिली.

कुछ समय में उन का तबादला मेरठ हो गया. उस के बाद वे कुछ समय तक जनपद मुरादाबाद में एसपी रेलवे के पद पर रहे. वहां उन की तैनाती टैक्निकल सर्विसेज एसपी के पद पर की गई थी.

सन 2001 में आईपीएस नवनीत सिकेरा को जीपीएस-जीआईएस आधारित आटोमैटिक वेहिकल लोकेशन सिस्टम विकसित करने के लिए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने 5 लाख के पुरस्कार से सम्मानित किया था.

नवनीत सिकेरा के फेसबुक पेज उन के कारनामों से भरे पड़े हैं. अधिकतर पोस्ट उन्होंने खुद लिखे हैं. उन्होंने अपने पोस्ट के जरिए बताया है कि कैसे यूपी में पुलिस का चेहरा बदला और क्राइम को कंट्रोल में लाने में सफलता मिली.

आईपीएस नवनीत सिकेरा की एक विशेष खूबी यह रही कि उन्होंने तकनीक को भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया. पुलिस को सर्विलांस की नई टैक्नोलौजी से परिचित करवाया.

उन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने यूपी पुलिस को एक ऐसा तकनीकी मुखबिर देने का काम किया था, जब पुलिस विभाग में कंप्यूटरीकरण का नामोनिशान नहीं था.

वह  पुलिस के लिए सर्विलांस जैसा मुखबिर ले कर आए और इस का प्रयोग करते हुए मुजफ्फरनगर में बदमाशों के खौफ के गढ़ को ढहाने का काम किया.

एनकाउंटर के दौरान उन्होंने बुलेटप्रूफ ट्रैक्टर से खूंखार बदमाशों को न केवल रौंद डाला, बल्कि छिटपुट बदमाशों को दुबकने पर मजबूर कर दिया.

ऐसा उन्होंने फौरेस्ट कांबिंग के लिए किया था. बुलेटप्रूफ ट्रैक्टर पर वह एके-47 ले कर खुद सवार होते थे और जंगलों में छिपे बदमाशों को उन के अंजाम तक पहुंचा देते थे.

मारवाड़ के लुटेरों पर पुलिस का दांव – भाग 3

टी.वी. पेरियापांडियन दीवार फांदने के बजाय जब लोहे के गेट पर चढ़ कर कूदने का प्रयास कर रहे थे, तब गेट के बाहर खड़े इंसपेक्टर मुनिशेखर अपनी पिस्टल को अनलौक कर रहे थे कि अचानक एक्सीडेंटल गोली चल गई, जो टी.वी. पेरियापांडियन को लगी. वह गेट से गिर गए और उन की मौत हो गई. इसी बीच मौका पा कर नाथूराम फरार हो गया था.

दरअसल, चेन्नै पुलिस को अनुमान नहीं था कि वहां 9-10 लोग होंगे. उस का मानना था कि नाथूराम 1-2 लोगों के साथ छिपा होगा. चेन्नै के थाना मदुरहोल थाने के इंसपेक्टर टी.वी. पेरियापांडियन दबंग और बहादुर पुलिस अफसर थे.  यह दुर्भाग्य ही था कि उन की मौत अपने ही साथी की गोली से हो गई.

पाली के एसपी दीपक भार्गव के अनुसार, चेन्नै पुलिस के इंसपेक्टर मुनिशेखर को चार्जशीट में भादंवि की धारा 304ए का आरोपी बनाया जाएगा. तथ्यात्मक जांच रिपोर्ट चेन्नै पुलिस को भेजी जाएगी. चेन्नै पुलिस इंसपेक्टर मुनिशेखर पर विभागीय काररवाई करेगी.

17 दिसंबर को पुलिस ने चेन्नै में हुई ज्वैलरी लूट की वारदात के मुख्य आरोपी नाथूराम जाट की पत्नी मंजू देवी को गिरफ्तार कर लिया था. वह जोधपुर के पीपाड़ शहर के पास मालावास गांव में अपने धर्मभाई के घर छिपी हुई थी. मंजू को चेन्नै से आई पुलिस टीम पर हमले के आरोप में पकड़ा गया था.

कथा लिखे जाने तक नाथूराम और अन्य आरोपियों को पकड़ने के लिए पुलिस लगातार छापे मार रही थी. नाथूराम के खिलाफ पाली के थाना जैतारण में मारपीट के 4 और जोधपुर के थाना बिलाड़ा में एक मुकदमा पहले से दर्ज है. वह कई सालों से अपने गांव में नहीं रहा था. वह चेन्नै बेंगलुरु आदि शहरों में रहता था.

नाथूराम और दीपाराम के पकड़े जाने के बाद चेन्नै में महालक्ष्मी ज्वैलर्स के शोरूम में हुई सवा करोड़ रुपए के गहनों की लूट का मामला भले ही सुलझ जाए, लेकिन चेन्नै पुलिस के लिए माल की बरामदगी चुनौती रहेगी. जोधपुर में गिरफ्तार चोरी के आरोपी दिनेश जाट को चेन्नै पुलिस प्रोडक्शन वारंट पर चेन्नै ले गई.

इसी तरह 29 अगस्त, 2017 को विशाखापट्टनम में एक ज्वैलर से 3 किलोग्राम सोना लूट लिया गया था. लूट की इस वारदात में ज्वैलर के पास काम करने वाला राकेश प्रजापत शामिल था.

वह राजस्थान के जिला पाली के रोहिट के पास धींगाणा का रहने वाला था. लूट के बाद वह पाली आ गया था. यहां बाड़मेर रोड पर होटल चलाने वाले हनुमान प्रजापत से उस की पुरानी जानपहचान थी. हनुमान के मार्फत राकेश ने लूट का सारा सोना श्रवण सोनी को बेच दिया.

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मामले की जांच करते हुए आंध्र प्रदेश पुलिस जोधपुर पहुंची और 3 नवंबर को झालामंड मीरानगर निवासी रामनिवास जाट को गिरफ्तार कर लिया. इस के बाद जोधपुर जिले के थाना बोरानाड़ा के गांव खारडा भांडू के रहने वाले ज्वैलर श्रवण सोनी को पकड़ा गया.

श्रवण सोनी को ले जाने पर उस के घर वालों ने थाना बोरानाड़ा में उस के अपरहण का मामला दर्ज करा दिया था. बोरानाड़ा पुलिस ने जांचपड़ताल की तो श्रवण सोनी के आंध्र प्रदेश पुलिस की कस्टडी में होने की बात पता चली.

आंध्र प्रदेश पुलिस ने रामनिवास, श्रवण सोनी, हनुमान प्रजापत और राकेश प्रजापत को हिरासत में ले कर सोना बरामद कर लिया था. लेकिन कागजों में न तो उन्हें गिरफ्तार दिखाया गया था और न ही सोने की बरामदगी दिखाई गई थी, जबकि राकेश प्रजापत को बाकायदा हथकड़ी लगा कर रखा गया था. लेकिन उसे गिरफ्तार नहीं दिखाया गया था.

आंध्र प्रदेश की पुलिस टीम द्वारा रामनिवास को लूट के मामले में आरोपी न बनाने और उस की कार जब्त न करने के लिए डेढ़ लाख रुपए मांगे गए थे, साथ ही मौजमस्ती के लिए लड़कियों का इंतजाम करने को भी कहा गया था. पुलिस टीम का कहना था कि उस ने यह कार विशाखापट्टनम से लूटे गए 3 किलोग्राम सोने को बेच कर खरीदी थी.

आंध्र प्रदेश पुलिस ने 5 नवंबर को रामनिवास और श्रवण सोनी को कुछ शर्तों पर छोड़ दिया था और श्रवण सोनी से 6 नवंबर को 2 लाख रुपए लाने को कहा था. इस से पहले आंध्र प्रदेश पुलिस ने रामनिवास के एटीएम से 20 हजार रुपए निकलवा कर रख लिए थे.

छूटते ही रामनिवास सीधे भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के कार्यालय पहुंचा और आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा रिश्वत मांगने की शिकायत कर दी. एसीबी ने 80 हजार रुपए दे कर रामनिवास को आंध्र प्रदेश पुलिस के पास भेज कर शिकायत की पुष्टि की. इस के बाद 6 नवंबर को विशाखापट्टनम, आंध्र प्रदेश से आई 4 लोगों की पुलिस टीम को 80 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथों गिरफ्तार कर लिया गया.

इन में विशाखापट्टनम जिले की क्राइम ब्रांच के सबडिवीजन नौर्थ के इसंपेक्टर आर.वी.आर.के. चौधरी, विशाखापट्टनम के थाना परवाड़ा के एसआई एस.के. शरीफ, थाना एम.आर. पेटा के एसआई गोपाल राव और थाना वनटाउन के कांस्टेबल एस. हरिप्रसाद शामिल थे. ये चारों जोधपुर में बाड़मेर रोड पर बोरानाड़ा स्थित एक होटल में रुके हुए थे.

गिरफ्तारी के अगले दिन 7 नवंबर को चारों लोगों को अदालत में पेश किया गया, जहां से अदालत के आदेश पर सभी को जेल भेज दिया गया. पूरी टीम के गिरफ्तार होने की सूचना मिलने पर 3 किलोग्राम सोने की लूट के मामले की जांच के लिए विशाखापट्टनम से दूसरी टीम भेजी गई. यह टीम 7 नवंबर को जोधपुर पहुंची. इस टीम ने सोने की लूट के सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.

अतीक अहमद : खूंखार डौन की बेबसी – भाग 3

एक विधायक की हत्या के बाद भी अतीक सत्ताधारी सपा में बने रहा. इस हत्या के बाद बसपा के समर्थकों ने इलाहाबाद शहर में जम कर हंगामा किया और खूब तोड़फोड़ की.

2005 में इलाहाबाद पश्चिमी सीट पर फिर उपचुनाव हुआ, जिस में राजू पाल की पत्नी पूजा पाल को बसपा की ओर से टिकट दिया गया. इस बार भी पूजा के सामने अतीक का भाई अशरफ ही था. उस समय तक पूजा के हाथ की मेहंदी भी नहीं उतरी थी.

कहा जाता है कि चुनाव प्रचार के दौरान पूजा मंच से अपने हाथ दिखा कर रोने लगती थी. लेकिन पूजा को जनता का समर्थन नहीं मिला और वह चुनाव हार गई.

अतीक का टूटा किला

इस बार अतीक का भाई अशरफ चुनाव जीत गया. ऐसा शायद अतीक के खौफ के कारण हुआ था. इस तरह एक बार फिर अतीक की धाक जम गई. वह खुद सांसद था ही, भाई भी विधायक हो गया था. उसी समय उस पर सब से ज्यादा आपराधिक मुकदमे दर्ज हुए.

अतीक अहमद पर 83 से अधिक आपराधिक मुकदमे दर्ज हो चुके थे. परंतु हैरानी की बात यह थी कि उत्तर प्रदेश पुलिस अतीक अहमद को गिरफ्तार करने के बारे में सोच भी नहीं रही थी.

2007 के विधानसभा के चुनाव में एक बार फिर इलाहाबाद पश्चिमी सीट पर बसपा ने राजू पाल की पत्नी पूजा पाल को चुनाव में उतारा. इस बार भी सामने अतीक का भाई अशरफ ही उम्मीदवार था. इस बार पहली दफा इलाहाबाद पश्चिमी  का अतीक अहमद का किला टूटा. पूजा पाल चुनाव जीत गई.

उत्तर प्रदेश में मायावती की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी तो मायावती ने अतीक अहमद को पहला टारगेट बनाया. मायावती के जहन में गेस्टहाउस कांड के जख्म हरे थे. इस मामले में बसपा सरकार के रहते मुलायम सिंह के इशारे पर अतीक ने गेस्टहाउस में ठहरी मायावती को बेइज्जत किया था.

एक के बाद एक कर सारे मामले खुलने लगे और मायावती सरकार ने एक ही दिन में अतीक अहमद पर सौ से अधिक मामले दर्ज करा कर औपरेशन अतीक शुरू कर दिया. अतीक भूमिगत हो गया तो उसे मोस्टवांटेड घोषित कर दिया गया और उस पर 20 हजार रुपए का इनाम भी घोषित कर दिया गया.

देश के इतिहास में एक सांसद मोस्टवांटेड घोषित हो गया हो और उस पर 20 हजार रुपए का इनाम घोषित किया गया हो, यह शायद देश का पहला मामला था. इस से पार्टी की बदनामी होने लगी तो मुलायम सिंह ने उसे पार्टी से बाहर कर दिया.

गिरफ्तारी के डर से अतीक फरार था. उस के घर, औफिस सहित 5 संपत्ति को कोर्ट के आदेश पर कुर्क कर लिया गया.

जिस इलाहाबाद में अतीक की तूती बोलती थी, पूजा पाल ने चुनाव जीतते ही बसपा सरकार में उस की नाक में ऐसा दम किया कि जिस सीट से वह 5 बार विधायक बना था, उस सीट को ही नहीं, उसे इलाहाबाद जिले को ही छोड़ कर भागना पड़ा.

अतीक अहमद समझ गया था कि उत्तर प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना खतरे से खाली नहीं होगा, इसलिए उस ने दिल्ली पुलिस के सामने योजना के तहत आत्मसमर्पण कर दिया. अतीक अहमद को उत्तर प्रदेश पुलिस दिल्ली से इलाहाबाद ले आई. अतीक के बुरे दिन शुरू हो चुके थे. पुलिस और विकास प्राधिकरण के अधिकारियों ने अतीक की ड्रीम निर्माण परियोजना अलीना सिटी को अवैध घोषित कर ध्वस्त कर दिया.

औपरेशन अतीक के ही तहत 5 जुलाई, 2007 को राजू पाल हत्याकांड के मुख्य गवाह उमेश पाल ने अतीक के खिलाफ धूमनगंज थाने में अपहरण और जबरन बयान दिलाने का मुकदमा दर्ज कराया.

इस के बाद 4 अन्य गवाहों की ओर से भी उस के खिलाफ मामले दर्ज कराए गए. 2 महीने में ही अतीक के खिलाफ इलाहाबाद, कौशांबी और चित्रकूट में कई मुकदमे दर्ज हो गए. पर सपा की सरकार बनते ही उस के दिन बहुरने लगे.

2012 का साल था. अतीक अहमद जेल में था और विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी थी. उस ने जेल में रहते हुए ही अपना दल की ओर से अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की. चुनाव का पर्चा दाखिल करने के बाद अतीक अहमद ने जमानत पर छूटने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की. उसे जमानत मिल गई और वह जेल से बाहर आ गया.

बहुजन समाज पार्टी ने एक बार फिर पूजा पाल को अतीक के सामने खड़ा किया. संयोग से इस बार भी अतीक चुनाव हार गया. वह चुनाव भले ही हार गया, पर उस का अपराध का कारखाना बंद नहीं हुआ.

मुलायम सिंह ने एक बार फिर उसे अपनी पार्टी में सहारा दिया. इस बार उसे श्रावस्ती जिले से टिकट दिया गया. इस चुनाव में भी अतीक अहमद हार गया.

2016 में फिर एक बार मुलायम सिंह ने कानपुर कैंट से उसे उम्मीदवार बनाया. इस चुनाव का फार्म भरने के लिए अतीक 5 सौ गाडि़यों का काफिला ले कर कानपुर पहुंचा. जबकि वह खुद 8 करोड़ की विदेशी कार हमर में सवार था.

पूरे कानपुर में अतीक के इस काफिले ने चक्का जाम कर दिया था. मीडिया में उस के खिलाफ खूब लिखा गया. तब तक समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव बन गए थे. उन्होंने अतीक अहमद को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया.

एक बार फिर हुआ गिरफ्तार

फरवरी, 2017 में पुलिस ने उसे इलाहाबाद कालेज में तोड़फोड़ करने के आरोप में गिरफ्तार किया. उस के बाद से वह जेल में ही है. अतीक पर अब तक लगभग 250 मुकदमे दर्ज हो चुके हैं. मायावती के शासनकाल में एक ही दिन में उस पर 100 मुकदमे दर्ज हुए थे. बाद में जिन्हें हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था. अधिकतर मामलों में सबूत के अभाव और गवाहों के मुकरने से अतीक बरी हो गया था.

अतीक भले ही आतंक का पर्याय है, वह नेकदिल भी है. उस के पास जो भी मदद के लिए जाता है, वह खाली हाथ नहीं लौटता.

उस पर 35 मुकदमे अभी भी चल रहे हैं. इन में कुछ अदालत में पैंडिंग हैं तो कुछ की अभी जांच ही पूरी नहीं हुई है. मजे की बात यह है कि अभी तक उसे किसी भी मामले में सजा नहीं हुई है. यह सब देख कर यही लगता है कि अतीक की जिंदगी कभी इस जेल में तो कभी उस जेल में कटती रहेगी. लेकिन विकास दुबे कांड के बाद योगी सरकार अतीक के आर्थिक साग्राज्य को पूरी तरह से ध्वस्त करने में लगी है.

2017 में उत्तर प्रदेश में जब से भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी है, तब से अतीक अहमद पर शिकंजा कसता गया. गैंगस्टर विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद योगी सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश के तमाम डौनों पर काररवाई करने की छूट दे देने से अब सरकार और पुलिस अतीक अहमद के गुंडों और उस की संपत्ति के पीछे पड़ गई है. रोज उस की कोई न कोई संपत्ति तोड़ी जा रही है.