लेखक – रुखसाना, Stories in Hindi Love: कागज का पुर्जा मेरे हाथों में फड़फड़ा रहा था. मेरी रगों में भयानक बेचैनी दौड़ने लगी थी. दिल में दहकती हुई आग भर गई थी. बड़े घरों में बसने वाले लोग कितने बेबस और मजबूर होते हैं, यह अब मेरी समझ में अच्छी तरह आ रहा था. आ पी ने खीर की प्लेट अपनी तरफ सरका कर चोर नजरों से बारीबारी सबकी तरफ देखा. मैं अनजान बन गई, लेकिन जिम्मी भाई ने मम्मी से बात करतेकरते तेज नजरों से आपी को घूर कर तल्ख लहजे में कहा, ‘‘ज्यादा खाने ने तुम्हें तबाह कर दिया है आपी जान! पता नहीं तुम वाकई नासमझ हो या जानबूझ कर ऐसा करती हो. अगर तुम्हें अपने पर तरस नहीं आता तो कम से कम हम पर तो तरस खाओ.’’
लेकिन
‘‘तुम ने तो जहां मुआपी ने जिम्मी भाई की तरफ नजर उठा कर भी न देखा. वह उसी तरह अपने दिलबहलाव यानी खाने में यों मगन रहीं, जैसे जिम्मी भाई ने किसी और से कहा हो.
मम्मी ने उन्हें टोका, ‘‘फरजाना, यह जमशेद तुम से कुछ कह रहा है. क्या तुम उस की बात सुन नहीं रही हो?’’झे खाते देखा, टोकना शुरू कर दिया,’’ कह कर खाली प्याली मेज पर पटक कर आपी उठ खड़ी हुईं और धपधप करती खाने के कमरे से बाहर चली गईं. उन के बाहर जाते ही जिम्मी भाई अपना सिर दोनों हाथों में थाम कर बोले, ‘‘इस का क्या होगा मम्मी? मैं तो इसे समझासमझा कर हार गया हूं. अगर यह खुद अपनी जिंदगी संवारना नहीं चाहती तो हम सब क्या कर सकते हैं इस के लिए?’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो जिम्मी.’’ मम्मी ठंडी आह भर कर बोलीं, ‘‘मेरी तो समझ में नहीं आता कि इसे कैसे समझाऊं? किसी नसीहत, किसी डांट का इस पर असर ही नहीं होता. खानदान में तो कोई इस के लिए तैयार नहीं और बाहर से जो रिश्ता आता है, इस का डीलडौल देख कर भाग जाता है. ऊपर से इस की आदतें…’’
मैं बेजार हो कर मेज से उठ गई. रोज खाने पर ऐसी ही बहस छिड़ जाती. मम्मी को आपी की बहुत फिक्र थी. बात भी ठीक थी. उन की उम्र शादी की उम्र को पार कर गई थी. ऊपर से उन के बेपनाह खाने की आदत ने उन का मोटापा हद से ज्यादा बढ़ा दिया था. उन पर मानो गोश्त चढ़ता जा रहा था. थोड़ा-सा चलतीं तो उन की सांस फूलने लगती. उन्हें और किसी चीज में दिलचस्पी नहीं थी. न घर के कामकाज में, न सिलाईकढ़ाई में. वह कहीं आनाजाना भी पसंद नहीं करती थीं. सैरसपाटे का भी उन्हें कोई शौक नहीं था. बस उन के 2 ही शौक थे, खाना और सोना. जाहिर है, मोटी उन्हें होना ही था. कोई भी मेहमान हमारी हवेली में आता, कहीं से भी आता, वह जरा भी किसी को लिफ्ट न देतीं. किसी से कोई मतलब न रखतीं.
आपी का रंग साफ था. नैननक्श भी बुरे नहीं थे. मम्मी का खयाल था कि अगर उन का वजन कम हो जाए तो वह भद्दी नहीं लगेंगी और अल्लाह का कोई बंदा उस के जाल में फंस जाएगा. लेकिन मम्मी और जिम्मी भाई के लाख समझाने का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था. यों लगता था, जैसे उन्हें अपनी शादी से भी कोई दिलचस्पी नहीं थी. अगर बड़ी हवेली और कीमती दहेज की कशिश में एकाध रिश्ता आ भी जाता तो रिश्ता लाने वाले आपी को देख कर और उन से मिल कर दोबारा हवेली का रुख न करते. मम्मी को आपी की फिक्र थी, क्योंकि वह मां थीं, लेकिन जिम्मी भाई की फिक्र में उन की अपनी गरज शामिल थी. मैं यह बताना भूल गई कि हमारी हवेली खुदगर्ज लोगों का डेरा थी.
यहां हर इंसान सिर्फ अपने लिए सोचता था. जिम्मी भाई की मोहब्बत बड़े जोरदार तरीके से अपनी फुफेरी बहन नाइला से चल रही थी और वह चाहते थे कि जल्दी से जल्दी नाइला को दुलहन बना कर हवेली में ले आएं. लेकिन हमारे खानदान में रिवाज था कि छोटों की शादी उस वक्त तक नहीं हो सकती थी, जब तक कि बड़ी बहन या बड़े भाई की शादी न हो जाए. अगर ऐसा किया जाता तो खानदान वाले एक तरह से उस घराने का बायकाट कर देते थे. इसलिए उस रिवाज को तोड़ने में सब डरते थे. हमारी मम्मी गैरखानदान से थीं. मेरे वालिद इलाके के बहुत बड़े रईस थे. मम्मी से शादी उन्होंने अपनी मरजी से की थी. आपी मम्मी और डैडी की पहली औलाद थीं. दूसरे नंबर पर जमशेद भाई थे.
सब से छोटी मैं थी. मैं एक साल की थी, जब डैडी का दिल के दौरे से इंतकाल हो गया था. उन के बाद मम्मी ने इतनी बड़ी हवेली में हम तीनों बच्चों और ढेर सारे नौकरों के बीच अपना वक्त गुजारा. वह काफी पढ़ीलिखी थीं. हवेली को उन्होंने अपनी पसंद के मुताबिक ढाला था. वह पुराने रिवाज पसंद नहीं करती थीं. इसलिए आपी की शादी से मायूस हो कर उन्होंने जमशेद भाई के लिए फुफ्फू जानी से नाइला का रिश्ता मांगा. लेकिन फुफ्फू पुराने खयालात की औरत थीं. उन्होंने साफ कह दिया था कि जब तक फरजाना की डोली नहीं उठेगी, जमशेद की शादी नाइला या किसी और से नहीं हो सकती.
फुफ्फू जानी का हमारे यहां बहुत दखल था. वह डैडी की एकलौती बहन थीं और हर काम, हर बात में उन से सलाह ली जाती थी. फिर भी आखिरी कोशिश के तौर पर मम्मी ने उन से कहा कि अगर सारी उम्र फरजाना बिनब्याही बैठी रही तो क्या होगा? इस के जवाब में फुफ्फू ने कहा था, ‘‘अव्वल तो ऐसा होगा नहीं. और अगर ऐसा हुआ भी तो जमशेद और नाइला को भी सारी उम्र क्वांरे रहना होगा.’’
हर तरह से हार कर मम्मी ने आपी की शादी के लिए अपनी कोशिशें फिर से तेज कर दीं. इस से पहले जिम्मी भाई को आपी से कोई सरोकार नहीं था. शायद वह समझते थे कि मम्मी इस मसले को संभाल लेंगी और फूफ्फू को राजी कर लेंगी. लेकिन अब तो आपी के लिए दूल्हा तलाश करना उन का ‘मिशन’ बन गया था. मैं ने एमए पास कर लिया था और हौस्टल छोड़ कर हवेली में आ गई थी. लेकिन हवेली आ कर मैं सख्त बोर हो रही थी. सारासारा दिन किसी बदरूह की तरह सारी हवेली में घूमती रहती या किताबें पढ़पढ़ कर अपना वक्त बिताया करती. आपी और मेरे बीच उम्र का फर्क था. बहनों वाली बेतकल्लुफी भी नहीं थी, हमारी आदतों और खयालों में भी कोई तालमेल नहीं था.
आपी को हर वक्त खाते रहने का शौक था, जबकि मैं दोपहर को फलों का लंच करती और अकसर रात का खाना गोल कर जाती. इसलिए मेरा बदन स्मार्ट था. नैननक्श तीखे थे. बाल लंबे और घने थे. यूनिवर्सिटी में तालीम हासिल कर के मैं खासी सोशल हो गई थी. हर मामले में अच्छा बोल लेती थी और सुनने वाला मेरी आवाज के जादू में खो जाता था. इसलिए जब से मैं घर आई, मेरे लिए तमाम रिश्ते आ रहे थे. लेकिन मम्मी को मेरी तरफ से कोई फिक्र नहीं थी. जिम्मी भाई की जरूरत आपी की शादी से ही पूरी हो सकती थी, मेरी शादी से नहीं. इसलिए मेरे लिए आया हुआ अच्छे से अच्छा रिश्ता भी बेजारी से रद्द कर दिया जाता. मुझे खुद भी अभी शादी में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए हर रिश्ते पर मेरी राय भी मम्मी या जिम्मी भाई से अलग न होती.
मैं भी चूंकि खुदगर्जी के इसी माहौल में पलीबढ़ी थी, सो मुझे न तो आपी के मोटापे से सरोकार था, न उन की शादी से. आपी की एक खामी तालीम की कमी भी थी. मम्मी के लाख चाहने के बावजूद वह मैट्रिक से आगे न पढ़ी सकी थीं. मैट्रिक भी उन्होंने 2 साल में किया था. सर्दियों के दिन थे. मौसम बहुत खुशगवार हो रहा था. शाम का समय था. मैं, मम्मी और आपी, तीनों लौन में बैठे शाम की चाय पी रहे थे. आपी गुलाबजामुनों के साथ इंसाफ कर रही थीं. मैं और मम्मी चाय की प्यालियां हाथों में थामे बातों में मशगूल थीं कि अचानक जिम्मी भाई गेट के अंदर दाखिल हुए और बड़ी खुशदिली से करीब आए. उन्हें यों खुश देख कर मम्मी बोलीं, ‘‘कहां से आ रहे हो?’’
‘‘फुफ्फू की तरफ से आ रहा हूं. नाइला ने बुलाया था.’’
हमारे खानदान में मां से ऐसी बातचीत नहीं की जाती थी, लेकिन मम्मी ने हमारी परवरिश अलग तरीके से की थी. उन्होंने हमें अपने खानदान के उसूलों, रस्मों और रिवाजों से दूर रखा था. वह औलाद और मांबाप के बीच फासलों के हक में नहीं थी. औलाद पर बंदिशें लगाना उन्हें पसंद नहीं था. इसलिए हम अपने दिल की बात मम्मी से खुल कर कह सकते थे. इस वक्त भी मम्मी को जिम्मी भाई की बात बुरी नहीं लगी. हंस कर वह बोलीं, ‘‘चलो, तुम्हारी मुलाकात तो हो गई. लेकिन मेरा खयाल है, तुम वह काम फिर भूल गए होगे?’’
‘‘कौन सा काम?’’ जिम्मी भाई मम्मी को देखने लगे. अचानक उन्हें याद आया तो वह शर्मिंदा हो गए, ‘‘ओह मम्मी, मैं तो बिलकुल ही भूल गया. वह चुड़ैल नाइला जब भी बुलाती है, मैं सब कुछ भूल जाता हूं.’’
‘‘जिम्मी डियर, एक जवान और सेहतमंद जेहन को इतना भुलक्कड़ नहीं होना चाहिए. तुम जानते हो, यह कितना अहम काम है? बहरहाल कल तुम जरूर जा कर नए असिस्टैंट कमिश्नर से मिल लो और उसे खाने की दावत दे दो.’’
‘‘कल जरूर याद रखूंगा मम्मी.’’ फिर उन्होंने मुझ से कहा, ‘‘रुखसाना, एक कप चाय बना दो मेरे लिए और खाने को भी कुछ दो. मैं ने अभी तक लंच नहीं किया.’’
मैं ने मेज पर गुलाबजामुनों की तलाश में नजरें दौड़ाईं, लेकिन आपी जिम्मी के टोकने के डर से गुलाबजामुनों समेत नौ दो ग्यारह हो गई थीं. मम्मी ने नौकर को बिस्कुट लाने के लिए कहा और मैं चाय बनाने लगी.
डैडी की जिंदगी में हमारी हवेली का यह रिवाज था कि जो भी सरकारी अफसर किसी सरकारी या निजी दौरे पर इलाके में आता, हमारी हवेली में उस की दावत जरूर होती. डैडी की मौत के बाद मम्मी ने इस रिवाज को जिंदा रखा और हर बार जो भी असफर आता, हमारी हवेली का मेहमान जरूर बनता. इस बार कोई नया असिस्टैंट कमिश्नर दौरे पर आया था और रेस्ट हाउस में ठहरा था. उसे आए हुए दूसरा दिन था. मम्मी रोजाना जिम्मी भाई को याद दिलातीं कि वह उस से मिल कर खाने पर बुला लें. लेकिन जिम्मी भाई भूल जाते.
उस दिन शाम को मैं गुलाबों के कुंज में बैठी ‘रिमूवर’ से अपने नाखूनों का रंग साफ कर रही थी. मम्मी ने बालों में हेयर कलर लगा लिया था और उन्हें खुश्क करने लौन में आ कर मेरे पास बैठ गईं. आपी अपने कमरे में थीं. मैं ने देखा, जिम्मी भाई सीधा रास्ता अपनाने के बजाए मोतियों की बाड़ फलांगते हुए हमारे करीब आ गए. उन का रंग जोश से तमतमा रहा था और वह कुछ कहनेसुनने के लिए बेचैन हो रहे थे. मैं एक निगाह उन पर डाल कर फिर से अपने काम में लग गई. मम्मी ने पूछ लिया, ‘‘क्या बात है, बहुत पुरजोश नजर आ रहे हो?’’
‘‘हां मम्मी, बड़ी अजीब खबर लाया हूं. आप सुनेंगी तो सख्त हैरान होंगी.’’
‘‘अच्छा, ऐसी कौन सी खबर है, जिस ने तुम्हें इतना हैरानपरेशान कर दिया है?’’ मम्मी हंस पड़ीं. मैं ने तीखे अंदाज से जिम्मी भाई की तरफ देखा. उन की खबरें सदा ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया’ वाली कहावत साबित होती थीं, सो मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी उन की खबर सुनने में. वह मुझे नहीं, मम्मी को बता रहे थे.
‘‘आप अंदाजा भी नहीं लगा सकतीं मम्मी कि मैं किस से मिल कर आ रहा हूं.’’
‘‘तुम शायद उस नए असिस्टैंट कमिश्नर से मिलने गए थे?’’
‘‘हां, लेकिन आप को यह जान कर हैरत का शदीद धक्का लगेगा कि वह असिस्टैंट कमिश्नर कौन है?’’
‘‘क्या सनसनी फैला रहे हो जिम्मी? सीधी बात करो न, क्या वह हमारा कोई जानने वाला है?’’ मम्मी ने पूछा.
‘‘आप उसे जानने वाला नहीं कह सकती मम्मी, वह इस हवेली में पल कर बड़ा हुआ है. खैर, बड़ा तो हम नहीं कह सकते, लेकिन अपनी जिंदगी का एक हिस्सा उस ने इसी हवेली में गुजारा है.’’
मम्मी के साथसाथ मैं भी चौंक उठी. मम्मी हैरत से पूछ रही थीं, ‘‘कौन है वह? तुम बताते क्यों नहीं हो जिम्मी? पहेलियां क्यों बुझा रहे हो?’’
‘‘वह जैदा है मम्मी, हमारी आया का बेटा. अब वह जावेद खां बन गया है.’’
‘‘क्या?’’ मम्मी को सचमुच हैरत का झटका लगा. वह जिम्मी भाई को देखते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें यकीनन कोई बड़ी गलतफहमी हुई है. कहां एक बेसहारा लड़का जैदा और कहां असिस्टैंट कमिश्नर.’’
‘‘लेकिन मम्मी, उस ने मुझे खुद बताया है. जब मैं उस से मिला और मैं ने अपना परिचय दिया तो वह बेअख्तियार अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और मुझे गले लगाते हुए बोला, ‘अरे जिम्मी भाई, तुम ने मुझे पहचाना नहीं? मैं जैदा हूं तुम्हारी आया का बेटा. तुम ने यहां आने की तकलीफ क्यों की? मैं तो खुद हवेली आने वाला था.’ फिर उस ने बारीबारी सब के बारे में पूछा. अपने हालात बताते हुए उसे जरा भी शरम नहीं आ रही थी. वहां और भी लोग बैठे थे, लेकिन उन सब के सामने अपनी गरीबी की दास्तान सुना रहा था. वैसे मम्मी, मैं तो उस की हिम्मत की दाद देता हूं. यह मुकाम उस ने अपनी मेहनत, हिम्मत और कोशिश से हासिल किया है. और मम्मी, वह मरियल सा लड़का ऐसा गबरू जवान निकल आया है कि आप देखेंगी तो हैरान रह जाएंगी. अगर वह खुद न बताता तो मैं कयामत तक उसे पहचान नहीं सकता. ऊपर से अपने ओहदे का जरा भी गरूर नहीं.’’
मैं और मम्मी सकते की हालत में जिम्मी भाई की बातें सुन रही थीं. मेरे दिल में बड़े जोर की धड़कन हो रही थी. मैं मुंह फाड़े जिम्मी भाई की तरफ देखे जा रही थी. मम्मी भी सन्न थीं. फिर कुछ दबेदबे लहजे में उन्होंने जिम्मी भाई से पूछा, ‘‘तुम ने खाने की दावत दे दी उसे?’’
‘‘हां, कल रात की दावत दी है. वह तो दावत कबूल ही नहीं कर रहा था. कह रहा था कि खुद आऊंगा और सब से मिलूंगा. लेकिन मैं ने उस से मनवा कर ही छोड़ा.’’
जिम्मी भाई काफी देर तक उस की बातें करते रहे. मम्मी बारबार कह रही थीं कि उन्हें यकीन नहीं आ रहा कि जैदा इस मुकाम तक पहुंच गया है. मम्मी और जिम्मी भाई वहां से उठ गए लेकिन मैं वहीं बैठी रही. फिजा में ठंडक उतर आई थी. मैं अपने जिस्म के गिर्द चादर लपेटे लगातार उस के बारे में सोच रही थी, जिस का नाम एक अरसे के बाद सुना था. मेरे दिल में उस की यादों के साथ उदासी उतरने लगी. मैं ने कुर्सी की पुश्त के टेक लगा कर आंखें बंद कर लीं. मेरी नजरों के सामने बहुत पहले का जमाना आ गया.
तब हम बहुत छोटे थे. हमारी आया बहुत बूढ़ी हो गई थी. इसलिए आए दिन बीमार रहती थी. जब वह काम के काबिल नहीं रही तो उस ने अपनी बेवा बेटी को बुलवा लिया, जिस के साथ एक बेटा भी था. वह अपने जेठ के साथ रहती थी और जेठानी के जुल्मों से तंग आ गई थी. मम्मी को उस के बेटे पर खासा ऐतराज था. लेकिन आया बहुत मेहनती और ईमानदार औरत थी, इसलिए मम्मी को चुप रहना पड़ा. जैदा का असली नाम जावेद था. आया कभीकभी दुलार से उसे जावेद खां कह कर बुलाती थी. जैदा मेरा हमउम्र था. हम दोनों जब भी एक साथ खेलते, मम्मी को गुस्सा आ जाता. वह डांट कर उसे भगा देतीं और मुझे अपने कमरे में ले आतीं. जैदे को पढ़ाई का बहुत शौक था.
जब मैं पढ़ती तो न जाने कहां से वह निकल आता और हसरतभरी नजरों से मुझे देखता रहता. अक्सर जब मेरी कोर्स की किताबें फट जातीं तो मैं मम्मी से छिपा कर उसे दे देती. वह बहुत खुश होता. फटे हुए पेजों को गोंद से चिपका देता और अकसर मेरे पास बैठ कर उन किताबों को पढ़ने की कोशिश करता रहता. हवेली में मेरे साथ खेलने वाला कोई नहीं था. बच्चों को आम तौर पर अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का शौक होता है. आपी और जिम्मी भाई, दोनों मुझ से बड़े थे. मैं जब कीमती खिलौनों से खेलखेल कर उकता जाती तो मम्मी से छिप कर जैदे की तरफ चली जाती और जब तक मम्मी अनजान रहतीं, हम दोनों खेलते रहते.
मम्मी ने सब नौकरों को ताकीद की थी कि मुझे जैदे के साथ न खेलने दिया जाए, सो हर तरफ से मेरी निगरानी की जाती थी, यहां तक कि जैदे की मां और नानी भी मेरी मिन्नत करतीं कि मैं जैदे के साथ न खेलूं. वह कहतीं, ‘‘छोटी बीबी, हवेली में चली जाएं. बेगम साहिबा आप को इधर देखेंगी तो नाराज होंगी. उन का सारा गुस्सा हम पर उतरेगा.’’
लेकिन मुझे मम्मी की परवाह न होती. वक्ती तौर पर उन की डांट से मैं सहम जाती, मगर बाद में हम दोनों सब कुछ भुला कर दोबारा खेलने में लग जाते. मम्मी ने कई बार जैदे के गाल पर थप्पड़ मारे थे. उसे बुराभला कहा था और हवेली में तो उस का घुसना ही मना कर दिया गया था. नौकरों को सख्ती से ताकीद थी कि जैदे को हवेली में आने न दिया जाए. लेकिन इन सारी पाबंदियों ने हमारे इकट्ठे खेलने के शौक को और ज्यादा भड़का दिया था. वह हवेली न आता तो मैं उस के कमरे में चली जाती. मम्मी अक्सर मुझे समझातीं, ‘‘रुखसाना बेटी, छोटे लोगों को ज्यादा मुंह नहीं लगाते. इस तरह तुम्हारी आदतें बिगड़ जाएंगी. तुम जैदे के साथ मत खेला करो. वह छोटा है. हमारा उन का कोई जोड़ नहीं.’’
मम्मी न जाने क्याक्या कहती रहतीं, लेकिन उस छोटी सी उम्र में मम्मी की ‘बड़ीबड़ी’ बातें मेरी समझ में न आतीं और मैं उकता कर वहां से उठ जाती. पढ़ाई के जैदे के बेपनाह शौक को देख कर उस की मां ने उसे प्राइमरी स्कूल में दाखिल करवा दिया था. हम रोजाना अपनी जीप में शहर जाया करती थीं, जहां चोटी के एक स्कूल में हम पढ़ती थीं. जैदे के स्कूल में अंग्रेजी नहीं पढ़ाई जाती थी, लेकिन उसे अंग्रेजी पढ़ने और सीखने का शौक था. इसलिए अपने स्कूल की छुट्टी के बाद वह मेरी पुरानी किताबें पढ़ा करता था. जो उस की समझ में न आता, वह मुझ से पूछ लिया करता. बचपन में टीचर बनने में बहुत मजा आता था. इसी तरह साथसाथ खेलते और पढ़ते हुए हम छठी जमात तक आ गए थे.
उन्हीं दिनों जैदे पर 2 इतने बड़े दुख आ पड़े कि उस का नन्हा वजूद उन दुखों तले दब कर रह गया. हमारे इलाके में हैजे की जबरदस्त बीमारी फैली थी. तब इलाज की सहूलियतें न के बराबर थीं. लोग मर रहे थे. जैदे की मां और नानी भी उस की लपेट में आ गईं. जैदे की नानी बेचारी तो पहले ही झटके में मर गईं. जैदे की मां अलबत्ता कुछ दिन जिंदा रही. मम्मी ने उस की दवादारू का इंतजाम भी किया. लेकिन उस का वक्त पूरा हो चुका था. इसलिए वह जैदे को रोताबिखलता छोड़ कर चल बसी. जैदा बिलकुल अकेला और बेसहारा रह गया. वह सारासारा दिन रोता रहता. मेरे सिवा हवेली में उस का कोई हमदर्द नहीं था. मैं खुद भी नासमझ थी. लेकिन हर मुमकिन तरीके से उस का दुख बांटा करती.
मम्मी को तो शुरू से जैदा नापसंद रहा था. इसलिए उन्होंने एक नौकर को जैदे के ताया का पता करने भेजा, ताकि वह आ कर बकौल मम्मी के, इस मुसीबत से उन्हें छुटकारा दिला दे. लेकिन जैदे का ताया उसे लेने नहीं आया, बल्कि उस ने हवेली के नौकर को अपनी गरीबी की लंबीचौड़ी दास्तान सुनाई, जिस का निचोड़ यही था कि वह अपने बच्चों को ही नहीं पाल सकता तो जैदे को कहां से खिलाएगा? नौकर जब नाकाम लौटा तो मम्मी ने अपना सिर दोनों हाथों में थाम लिया कि वह जैदे का क्या करेंगी? लेकिन खुदा बड़ा कारसाज है. हमारी हवेली का चौकीदार एक बूढ़ा था. मम्मी ने उसे अलग कमरा दे रखा था. वह बिलकुल अकेला रहता था. उस ने मम्मी से कह कर अपना सामान समेटा और जैदे के पास रहने लगा. इस तरह दोनों को एकदूसरे का सहारा मिल गया.
हालांकि जैदा कमउम्र था, फिर भी बेहद सुलझा हुआ था. छोटी सी उम्र में तल्ख तजुर्बों ने उस की दिमागी उम्र बढ़ा दी थी. उस ने स्कूल जाना नहीं छोड़ा. खाली समय में वह किराने की एक दुकान पर काम करता. अपनी पढ़ाई के खर्च के लिए वह रात गए तक बैठा लिफाफे बनाता रहता. छोटी सी उम्र में वह बेहद संजीदा हो गया था. मैं उसे अब भी अपना साथी और दोस्त समझती थी. मम्मी से छिप कर मैं उस के कमरे में चली जाया करती. लेकिन अब हम खेलने से ज्यादा पढ़ा करते थे. मैं जो भी सबक स्कूल में पढ़ती, वह जैदे को जरूर पढ़ाया करती. जैदा मेरे लाख कहने पर भी हवेली में न आता, बल्कि मुझे भी अपने कमरे में आने से मना करता.
उस दिन मेरे सिर में मामूली सा दर्द था. मैं ताजा सबक जैदे को पढ़ाना चाहती थी, लेकिन कमरे में जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी. सुस्ती सी महसूस हो रही थी. मम्मी किसी जलसे में शरीक होने चली गईं तो मैं ने नौकर को भेज कर जैदे को बुलवा लिया. वह पढ़ने के शौक में आ तो गया, लेकिन बेहद सहमा हुआ था. बारबार कह रहा था, ‘‘रुखसाना, बेगम साहिबा ने देख लिया तो बहुत मारेंगी.’’
‘‘अरे कुछ नहीं होता. मम्मी तो हवेली में मौजूद ही नहीं हैं. वह किसी जलसे में हिस्सा लेने शहर गई हैं. रात गए लौटेंगी.’’
मैं और जैदा गुलाबों के कुंज में बैठ गए. मैं उसे पढ़ाने लगी. वह बहुत मन लगा कर पढ़ रहा था कि न जाने कहां से आपी आ गईं. आपी ने तेज नजरों से हमें घूरा और कुछ कहेसुने बगैर अंदर चली गईं. जैदा बेहद घबरा गया और सहमी आवाज में बोला, ‘‘अब मैं जाता हूं रुखसाना. आपी ने देख लिया है. अब वह बेगम साहिबा से शिकायत करेंगी.’’
‘‘अरे बैठो, मम्मी हवेली में मौजूद ही नहीं, तो किस से शिकायत करेंगी? तुम आराम से पढ़ो.’’
जैदा सहमा सा बैठा पढ़ता रहा. लेकिन उस का शक सही था. मम्मी शहर से आ गई थीं और आपी ने जा कर उन से हमारी शिकायत कर दी थी. कुछ देर बाद मम्मी हमारे सामने खड़ी थीं. गुस्से की शिदद्त से वह हांफ रही थीं. उन्होंने आव देखा न ताव, जैदे को पकड़ कर बेतहाशा मारने लगीं. साथसाथ वह बोल भी रही थीं, ‘‘कमबख्त, जलील, कमीने, सौ बार तुझे मना किया कि हवेली में मत आया कर, पर तू मानता ही नहीं.’’
मैं गुमसुम खड़ी उसे मार खाते देखती रही. मम्मी जब उसे मारमार कर थक गईं तो नौकर को बुला कर हुक्म दिया, ‘‘शैदे, क्वार्टर से इस का सामान निकाल कर फेंक दो. देखती हूं, अब यह यहां कैसे रहता है.’’ फिर वह जैदे से कहने लगीं, ‘‘निकल जा, अभी और इसी वक्त निकल जा. अगर आइंदा तू हवेली के आसपास भी देखा गया तो तेरी लाश किसी गंदे नाले में फेंकवा दूंगी.’’
जैदा रोता हुआ वहां से चला गया. आपी और जिम्मी भाई यह तमाशा देखदेख कर खुश हो रहे थे, जबकि मैं मम्मी का दामन पकड़े रो रही थी, ‘‘जैदे को माफ कर दो मम्मी, इसे क्वार्टर से न निकालो. मम्मी, यह कहां जाएगा? यह तो एकदम अकेला है.’’
मम्मी ने मेरे हाथ झटक कर मुझे नौकरानी के सुपुर्द कर दिया, जो मुझे मेरे कमरे में ले गई. वह जैदे से मेरी आखिरी मुलाकात थी. उस दिन के बाद उस का कोई पता न चल सका. बाद में मैं एक अरसे तक उसे याद करकर के रोती रही. मम्मी ने मुझे और जिम्मी भाई को हौस्टल में दाखिल करवा दिया, क्योंकि अब हमारी क्लासें बड़ी हो गई थीं और घर में पढ़ाई का हर्ज होता था. मैं अक्सर जैदे के बारे में सोचती रहती थी कि वह हवेली से जाने के बाद कहां गया होगा? उस का तो कोई अपना न था, किस ने उसे पनाह दी होगी?
लेकिन आज… आज एक लंबे अरसे के बाद मैं ने उस का नाम सुना भी तो किस अंदाज में? एक इज्जतदार शख्स की शक्ल में, जिस के पास एक बड़ा ओहदा था, इज्जत थी और जिसे मेरा भाई इस बड़ी और आनबान वाली हवेली के मालिक की हैसियत से दावत दे आया था. यह सब क्या था? सब हैरान थे कि यह कैसे हो गया? एक ही छलांग में जैदा जावेद खां कैसे बन गया? जमीन से आसमान तक का यह सफर कैसे तय किया उस ने? लेकिन मुझे कोई हैरानी नहीं थी. उसे तालीम हासिल करने की लगन थी. दीवानगी की हद तक पढ़ने का शौक था और जब शौक जुनून बन जाए तो राह की सारी रुकावटें दूर हो जाती हैं. इसलिए अगर वह कुछ न बनता तो मुझे हैरत होती, लेकिन अब जब वह अपनी मंजिल तक पहुंच गया था, मुझे दूसरों की तरह कोई हैरत नहीं, बल्कि एक इत्मीनान था.
अगले दिन वह हमारे बीच बैठा था. यह वही हवेली थी, जिस में उस का कदम रखना मना था, जहां से उसे मारपीट कर बेइज्जत कर के निकाला गया था. लेकिन आज हालात बदल गए थे. आज मम्मी उस की आवभगत में बिछी जा रही थीं. खाने की मेज पर एकएक चीज उस के सामने रख कर आग्रह से उसे खिला रही थीं, ‘‘खाओ जावेद मियां, तुम तो बराए नाम खा रहे हो. यह शामी कबाब तो तुम ने चखे भी नहीं.’’
‘‘बस बेगम साहिबा, बहुत खा चुका हूं. अब और गुंजाइश नहीं बेगम साहिबा.’’
मैं और जिम्मी भाई बेसाख्ता हंस पड़े. मम्मी बनावटी नाराजगी से कहने लगीं, ‘‘आंटी कहो बेटा.’’
‘‘मैं अपनी औकात नहीं भूला हूं बेगम साहिबा.’’ वह संजीदगी से बोला, ‘‘मैं बहुत छोटा आदमी हूं और इस हवेली के मुझ पर बेशुमार एहसान हैं. खासतौर पर रुखसाना साहिबा का तो मैं बेहद शुक्रगुजार हूं. इन्होंने मेरे मन में पढ़ाई का शौक दोगुना कर दिया था.’’
उस ने गहरी नजरों से मेरी तरफ देखा तो मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई. मैं गड़बड़ा गई. बेअख्तियार हो कर मैं ने अपनी नजरें झुका लीं. उसे अब नजर भर कर देखना भी मुमकिन नहीं रहा था. वह बड़ा खूबसूरत जवान निकल आया था. वह बारबार मुझे मुखातिब करता और पिछली बातें याद दिलाता, लेकिन मैं जो हर बात पर जम कर बोला करती थी, बहस कर के उसे हरा दिया करती थी, अब उस के सामने बोलना भूल गई थी. अल्फाज जैसे खो गए थे मुझ से. मैं तो उस की शख्सियत के जादू में डूब कर रह गई थी. वह एक अदा से सिगरेट पी रहा था. चेहरे पर कमतरी के निशान बिलकुल नहीं थे. वह कीमती सूट पहने था. मैं गुमसुम बैठी हां में जवाब देती रही.
आपी खाने में मगन थीं. मेहमानों की मौजूदगी में उन्हें खाने पर टोका नहीं जा सकता था और वह ऐसे मौके का खूब फायदा उठाती थीं. रात गए जब वह वापस जाने लगा तो मम्मी ने बड़ी मोहब्बत से उसे आते रहने को कहा. पूरी रात मैं सो न सकी. जावेद मेरे खयालों में आता रहा. उस की रौबदार शख्सियत बारबार मेरी नजरों के सामने आ जाती. उस की धीमी मुसकराहट मेरे दिल में नई उमंग जगाने लगी. फिर सब से ज्यादा उस का बड़प्पन कि एक बार भी उस ने मम्मी को उन का वह सुलूक याद नहीं दिलाया, जो उन्होंने उस के साथ किया था. हां, अपनी जद्दोजहद और कोशिशों की कहानी उस ने जरूर सुनाई कि किस तरह वह अपनी मंजिल तक पहुंचा. लेकिन उस ने एक बार भी मम्मी से यह नहीं कहा कि मुझ यतीम और बेसहारे के सिर पर अगर आप लोग हाथ रख देते तो आप की दौलत में क्या कमी आ जाती? मम्मी शर्मिंदा सी लग रही थीं.
सुबह नाश्ते पर फिर जावेद का जिक्र छिड़ गया. मम्मी हैरानी से कह रही थीं, ‘‘मुझे कभी उस की काबिलियत का अंदाजा नहीं हो सका था. एक छोटा इंसान इतनी मेहनत भी कर सकता है, यकीन नहीं आता.’’
जिम्मी भाई टोस्ट पर जैम लगाते हुए बोले, ‘‘लेकिन आंखों देखे पर तो यकीन करना ही पड़ता है मम्मी. वैसे आप कल बारबार जावेद को हवेली आने के लिए कह रही थीं. क्या आप भूल गईं कि एक दिन वह इसी हवेली से दुत्कार कर निकाला गया था और उस का छोटामोटा सामान आप ने नौकरों के हाथों बाहर फेंकवा दिया था.’’
‘‘आप भूल गए हैं जिम्मी भाई,’’ मैं तल्खी से बोली, ‘‘जब मम्मी ने ऐसा किया था, तब जावेद ‘जैदा’ था, बिन मांबाप का गरीब बच्चा. लेकिन आज वह एक बहुत बड़े ओहदे पर लगा हुआ है, इज्जतदार बंदा है. मम्मी दरअसल जावेद की नहीं, उस के ओहदे की इज्जत कर रही हैं.’’
मम्मी ने तेज नजरों से मुझे घूरा और बोलीं, ‘‘रुखसाना, बड़ों से ऐसी बात नहीं की जाती. क्या तुम ने बाहर रह कर यही सब कुछ सीखा है? जाओ, अपने कमरे में चली जाओ.’’
मैं मुंह बना कर उठ खड़ी हुई. जिम्मी भाई भी उठने लगे तो मम्मी ने उन से कहा, ‘‘तुम बैठो जिम्मी, तुम से कुछ बात करना है मुझे.’’
मैं कमरे से निकल तो आई, लेकिन मेरे कदम रुक गए. मम्मी यकीनन जावेद के बारे में ही जिम्मी भाई से बात करना चाहती थीं. मैं सांस रोक कर दरवाजे की आड़ में खड़ी हो गई. मम्मी धीमी आवाज में जिम्मी भाई से कह रही थी, ‘‘जिम्मी, जब से मैं ने जावेद को देखा है, एक अनोखा खयाल मेरे दिमाग में आ रहा है.’’
‘‘कैसा खयाल मम्मी?’’ जिम्मी भाई की आवाज में हैरत थी.
‘‘सोचती हूं,’’ मम्मी जरा सा रुक कर बोलीं, ‘‘अगर फरजाना का रिश्ता जावेद से तय हो जाए तो कैसा रहेगा?’’
‘‘लेकिन…’’ जिम्मी भाई हकलाते हुए बोले, ‘‘जावेद तो उम्र में मुझ से भी छोटा है और आपी उम्र में मुझ से बड़ी हैं. यह कैसे हो सकता है?’’
‘‘होने को क्या नहीं हो सकता जिम्मी?’’ मम्मी खुदगर्जी से बोलीं, ‘‘बस जरा चालाकी की जरूरत है. वैसे भी यह तो जावेद के लिए इज्जत की बात है कि हम उसे हवेली का दामाद बना रहे हैं, वरना तालीम और ओहदे को उस की शख्सियत से अलग कर दो तो उस की क्या हैसियत रह जाती है? हवेली की एक नौकरानी का बेटा और बस.’’
‘‘अगर ऐसा हो जाए मम्मी तो हमारी बहुत बड़ी मुश्किल हल हो जाएगी और आपी की जिंदगी सही मायनों में संवर जाएगी. खानदान के जिन लड़कों ने आपी को ठुकराया है, वे मुंह देखते रह जाएंगे. उन में से कोई भी इतने बड़े ओहदे पर नहीं है.’’ जिम्मी भाई जोश से बोल रहे थे और मम्मी शेखी से कह रही थीं, ‘‘यह भी तो कहो न जिम्मी कि तुम्हारे लिए रास्ता साफ हो जाएगा और तुम नाइला को दुलहन बना कर जल्दी ला सकोगे.’’
‘‘अच्छा मम्मी,’’ वह हंस कर बोले, ‘‘आप तो मजाक कर रही हैं.’’
वे दोनों इसी मुद्दे पर बातें करते रहे. लेकिन मेरे सीने में बडे़ जोर का दर्द उठने लगा था. मेरे अंदर जोरदार धमाके होने लगे थे. हाथपांव ठंडे पड़ने लगे. मेरी आंखों में अंधेरा लहरें लेने लगा. मेरा दिल चाहा कि मैं धड़ाम से दरवाजा खोल कर अंदर घुस जाऊं और चिल्लाचिल्ला कर उन से कह दूं, ‘‘ऐ बड़ी हवेली के अंदर बसने वाले छोटे लोगों, जरा अपने गरेबान में झांक कर देखो कि तुम क्या कर रहे हो? क्या जावेद की किस्मत में कूड़ा ही लिखा है? जावेद ने जिस मेहनत और जिस लगन से अपनी जिंदगी बनाई है, तुम लोग आपी को उस की जिंदगी में दाखिल कर के उस की जिंदगी तबाह कर दोगे. यही इंसाफ है तुम्हारा?’’
लेकिन मैं कुछ भी न कर सकी, कुछ भी न कह सकी. बस बेजान कदमों से अपने कमरे में आ गई. यह बात इतनी छोटी नहीं थी कि मैं इस पर चुप रहती. मैं ने जोरशोर से इस पर ऐतराज किया और आपी के सामने कह दिया, ‘‘मम्मी, आप ज्यादती कर रही हैं. आपी और जावेद का कोई जोड़ नहीं है, किसी भी लिहाज से. उम्र में भी आपी जावेद से बहुत बड़ी हैं. खुदा के लिए यह जुल्म न कीजिए, ऐसी शादियां ज्यादा दिन पनप नहीं सकतीं. अंजाम अच्छा नहीं होता ऐसी शादियों का.’’
‘‘तुम बीच में मत बोलो.’’ मम्मी का रंग गुस्से के मारे सुर्ख हो गया.
जिम्मी भाई ने नाराजगी से मुझे घूरा, ‘‘तुम से किस ने राय मांगी है रुखसाना?’’
मैं ने आपी की तरफ देखा. शायद वही ऐतराज कर दे इस बेजोड़ रिश्ते पर, लेकिन उन्हें तो खाने के सिवा किसी बात से कोई सरोकार ही नहीं था. वे सब क्या कर रहे थे? किस के लिए कर रहे थे? उन्हें परवाह ही नहीं थी कोई. थकहार कर मैं चुप हो गई. जावेद 2-3 बार हवेली में आया. सब साथ ही बैठे रहते. वह अक्सर कहता, ‘‘तुम बहुत चुपचुप सी हो गई हो रुखसाना. बचपन में तो तुम ऐसी नहीं थीं. बहुत ही शरारती और बातूनी हुआ करती थीं. तुम्हें याद है जब तुम ने…’’ वह बचपन का कोई किस्सा सुनाने लगा. मैं खोईखोई बैठी रहती….खालीखाली नजरों से उसे देखती रहती. जिम्मी भाई और मम्मी बेमकसद हंसने लगते. मम्मी उस की खूब आवभगत करतीं. आपी को हर रोज बेहतरीन सूट पहनातीं. जावेद जब मेरे बारे में बात करता तो मम्मी घुमाफिरा कर आपी की बात शुरू कर देतीं.
वह जावेद के दौरे का आखिरी दिन था. कल उसे वापस जाना था. उस दिन वह सब से मिलने के लिए हवेली आया तो उस ने सब को दावत दी कि शहर आ कर कुछ दिन उस को मेजबानी का मौका दें. मुझ से वह बारबार कह रहा था, ‘‘रुखसाना, मैं ने अपने लौन में मोतिया के बेशुमार पौधे लगाए हैं. तुम्हें बचपन में मोतिया की खुशबू कितनी पसंद थीं, तुम मेरे घर आना. तुम्हें बेहद भला लगेगा.’’
मेरे बजाय मम्मी ने जवाब दिया, ‘‘हां…हां… जावेद मियां, जरूर आएंगे.’’
वह चला गया. उस के जाने के बाद मुझे यों लगा, जैसे चिरागों में रोशनी न रही हो. मेरे अंदर अंधेरा फैलने लगा. जिम्मी भाई और मम्मी क्या बातें कर रहे थे, मुझे सुनाई नहीं दे रहा था. मैं अपने वजूद को संभालती हुई अपने कमरे में आ गई और बेदम हो कर बिस्तर पर ढह गई. यों सुबह मेरी आंखें देर से खुलीं. रात भर मैं परेशान रही थी. मुझे चाहिए था कि मैं जावेद को खबरदार कर देती कि कहीं वह मम्मी के बिछाए जाल में न फंस जाए. मैं खुद को मुजरिम समझ रही थी, लेकिन कुसूर मेरा भी नहीं था. मम्मी और जिम्मी भाई ने एक मिनट के लिए भी मुझे अकेले नहीं छोड़ा जावेद के पास. शायद वे समझ गए थे कि मैं मौका पा कर जावेद को सारी बात बता दूंगी.
मेरा दिल हौल रहा था. मैं ने जल्दीजल्दी मुंह पर पानी के छपाके मारे और ड्राइंगरूम की तरफ चल दी. लेकिन मुझे ठिठक कर रुकना पड़ गया. वहां तो नजारा ही और था. मम्मी गुस्से के मारे लालपीली हो रही थीं. हमेशा नरम आवाज में बात करने वाली मम्मी बुरी तरह चीख रही थीं, ‘‘कमीना, बदजात, गंदी नाली का कीड़ा, दो टके का आदमी, आज हमारी बराबरी करना चाहता है?’’
उधर जिम्मी भाई मुट्ठियां भींचभींच कर तैश में कह रहे थे, ‘‘मैं उस खबीस के टुकड़ेटुकडे़ कर दूंगा. उस की यह हिम्मत कैसे हुई? जलील इंसान अपनी हैसियत भूल गया. लेकिन मैं उसे अपनी हैसियत याद दिलाऊंगा. समझता क्या है खुद को?’’
‘‘क्या हुआ मम्मी?’’ मैं घबराकर बोली. आपी जो टोस्ट पर मक्खन की तह लगा रही थीं, मुझे देख कर अजीब बेढंगेपन से हंसने लगीं. मैं घबरा कर बारीबारी सब की तरफ देखने लगी, ‘‘आप सब मुझे बताते क्यों नहीं कि आखिर क्या बात हुई है?’’
अजीब ठंडे अंदाज में मम्मी ने एक मुड़ातुड़ा कागज मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लो, उस खबीस की हिम्मत खुद देख लो.’’ मम्मी कमरे से बाहर चली गईं. उन के पीछेपीछे जिम्मी भाई भी चले गए. आपी अपना नाश्ता खत्म कर चुकी थीं. सो उन के रुकने की भी कोई वजह नहीं थी. वह मुझे देखती और मुसकराती हुई कमरे से बाहर निकल गईं. अजीब बेवकूफी भरी मुसकराहट थी उन के होंठों पर. या खुदा, मैं पागल हो गई हूं या ये सब पागल हो गए हैं? मैं ने झुंझला कर वह मुड़ातुड़ा कागज खोला और मेरी नजरें तेजी से उन सतरों पर दौड़ने लगीं. वह जावेद का खत था मम्मी के नाम. लिखा था : बेगम साहिबा,
आदाब! आप का पैगाम मिला. इज्जतअफजाई का शुक्रिया. मैं यकीनन इस रुतबे और मकाम के काबिल नहीं हूं और आप का जितना भी शुक्रिया अदा करूं, कम होगा. लेकिन गुस्ताखी माफ बेगम साहिबा! आपी को मैं ने हमेशा से अपनी बड़ी बहन का दर्जा दिया है. इस नजर से मैं ने उन्हें कभी नहीं देखा. उन की शख्सियत मेरे लिए काबिलेइज्जत रही है और सारी उम्र काबिलेइज्जत रहेगी.
दरअसल, खुद मैं भी आप से हाथ जोड़ कर दरख्वास्त करना चाहता था, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ रही थी. ऐसा लगता था, जैसे छोटे मुंह बड़ी बात कह दी जाए. आप की नाराजगी और कहर का डर था. अपनी कमतरी का अहसास था. इसलिए मैं अपने दिल की सारी ख्वाहिशें दिल में ही छिपा कर यहां से विदा होना चाहता था. लेकिन आज जब आप का पैगाम मिला तो मेरे अंदर भी हिम्मत पैदा हो गई और मैं ने सोचा कि अगर आप मुझे दामाद की हैसियत देना ही चाहती हैं तो रुखसाना का हाथ मेरे हाथ में दे दीजिए. मैं सारी जिंदगी आप का एहसान नहीं भूलूंगा बेगम साहिबा! यह आज की ख्वाहिश नहीं, मुद्दतों पहले की ख्वाहिश है, तब की, जब आप की डांट और मार के बावजूद हम इकट्ठे खेलने और इकट्ठे पढ़ने से बाज नहीं आते थे. तब मैं कुछ भी नहीं था और आज जो कुछ बना हूं, इसी ख्वाहिश की बदौलत बना हूं. मैं जल्दी ही आ कर आप का जवाब लूंगा.
—खैरअंदेश जावेद खां
कागज का पुर्जा मेरे हाथों में फड़फड़ा रहा था. मेरी रगों में भयानक बेचैनी दौड़ने लगी थी. दिल में दहकती हुई आग भर गई थी. बड़े घरों में बसने वाले लोग कितने बेबस और मजबूर होते हैं, यह अब मेरी समझ में अच्छी तरह आ रहा था.
मैं भागीभागी अपने कमरे में आई. मुलायम बिस्तर जहरीले कांटों की सेज लग रहा था. रोती रही… सैलाब आ गया था मेरी आंखों में. …फिर उठी और सोचने लगी.
आखिरकार मेरे दिल ने और मेरे दिमाग ने भी वह फैसला ले लिया, जो कभी मेरे तसव्वुर में भी न आया था. एक दिन सहेली के घर जाने के बहाने निकली तो फिर हवेली लौटी ही नहीं. आज मेरी जिंदगी के गुलशन में बेहद प्यारी खुशबू वाले दो फूल खिले हैं. बताने को कहिए बता दूं कि आपी के लिए एक गरीब दूल्हा खरीद लिया गया और फिर जिम्मी भाई की भी नाइला से शादी हो गई. लेकिन इतना सब होने में इतनी आंधियां चलीं, इतना गुबार उठा कि खुदा न करे, किसी खानदान में वैसा हो. इसीलिए तो कभीकभी शिद्दत से महसूस होता है कि बहार आई भी तो …






