बात दुष्कर्म की न हो कर कैब और कैब टैक्सियों की होने लगी कि रेडियो कैब शहर आधारित टैक्सी सेवा है, इस का खास नंबर होता है. निगरानी के लिए सारी कैब जीपीएस सिस्टम से जुड़ी रहती हैं और सवारी भुगतान ड्राइवर को करती है. वेब आधारित कंपनी स्मार्ट फोन के जरिए ग्राहक को सेवाएं देती है जिस का भुगतान डैबिट या क्रैडिट कार्ड के जरिए किया जाता है जो सीधे कंपनी के खाते में पहुंचता है, वगैरह.
उपेक्षा और प्रताड़ना
गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कुछ कहा, जिस का सार यह था कि सभी कैब टैक्सियों पर रोक लगेगी और इस के लिए राज्यों को निर्देश जारी कर दिए गए हैं. पुलिस ने शिवकुमार यादव के साथसाथ उबेर टैक्सी सर्विस के खिलाफ भी धोखाधड़ी का मामला दर्ज कर लिया. आरोप यह लगाया कि यह कंपनी सुरक्षित सफर और वैरिफाइड 77ड्राइवर्स का दावा मात्र करती है, जबकि ऐसा नहीं है.
कंपनी के जीएम राजन भाटिया को दिल्ली महिला आयोग ने तलब किया तो उन की गिरफ्तारी की सुगबुगाहट भी शुरू हो गई. चर्चा संसद में भी हुई पर पीडि़ताओं, महिला सुरक्षा पर नहीं बल्कि इस बात पर कि सभी राज्य वैब टैक्सियों पर रोक लगाएं, रजिस्ट्रेशन के बाद यह पाबंदी हटा ली जाएगी. गृहमंत्री के इस बयान के उलट नितिन गडकरी का कहना यह था कि पाबंदी लगाने से लोगों को परेशानी होगी.
खामी लाइसैंस सिस्टम में है. 30 फीसदी लाइसैंस फर्जी हैं, उसे सुधारने की जरूरत है. रति और रीतिका जैसी पीडि़ताएं इस बौद्धिक, प्रशासनिक और संसदीय बहस में कहीं नहीं थीं गोया कि लाइसैंसधारी ड्राइवर बलात्कार करें, तभी इस बारे में सरकार सोचेगी.
सोचने की बातें ये हैं कि पीडि़ताओं को क्यों गैरजरूरी लंबी पुलिस और अदालती कार्यवाही से हो कर गुजरना पड़े जबकि उन की कोई गलती ही नहीं, सिवा इस के कि वे औरत हैं. पुलिस थानों में यह नहीं देखा जाता कि पीडि़ता पर क्या गुजरी है, बलात्कार, हिंसक लूट और छेड़खानी में ज्यादा फर्क नहीं है.
इन सभी की शिकार महिलाओं को रिपोर्ट लिखाने के लिए घंटों बैठना पड़ता है जो उन की मानसिक यंत्रणा को बढ़ाने वाली बात है. मैडिकल जांच की एक गैरजरूरी बात है. इस का कानूनी महत्त्व बताना या गिनाना कानूनी तकनीक नहीं, बल्कि कानूनी तकलीफ की बात है, जिस का फायदा अकसर आरोपी को ही मिलता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती.
सामाजिक उपेक्षा और प्रताड़ना झेल रही पीडि़ता को कई बार आपबीती, कहानी की शक्ल में दोहराना पड़ती है. बलात्कार पीडि़ता की तो मानो शामत आ जाती है. अपराधी का खौफ तो उस के सिर मंडराता ही रहता है पर वकीलों की बहस उसे सोचने को मजबूर करती है कि अगर यही इंसाफ का तरीका है तो बलात्कार के बाद खामोशी से घर आ कर सो जाना बेहतर था.
मर्द बदलें अपनी सोच
बी आर चोपड़ा की फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ में इस तकलीफ को बेहद बारीकी से दिखाया गया था. माहौल आज भी वही है. वकील बना कोई श्रीराम लागू जो सवाल पूछता है, उन पर कानूनी रोक आज भी नहीं है. सरकारें हल्ला खूब मचाती रही हैं कि ऐसा नहीं है और है तो खत्म किया जाएगा. शिवकुमार का वकील रीतिका से पूछेगा कि इतनी छोटी जगह में बलात्कार कैसे किया गया था.
आप ने बचाव के लिए हाथपैर चलाए होते तो टैक्सी के कांच टूटने चाहिए थे. वह अपने मुवक्किल के इस कथन को सच साबित करने की कोशिश करेगा कि यह संबंध सहमति से बना था. रीतिका के हक में इकलौती बात यही है कि अगर बलात्कार नहीं हुआ था तो उस ने रिपोर्ट क्यों लिखाई. दो कौड़ी के टैक्सी ड्राइवर से उस के क्या स्वार्थ हो सकते थे जिस की महीनेभर की पगार उस की एक दिन की तनख्वाह के बराबर होती है. यह या कोई टैक्सी ड्राइवर इतना प्रतिष्ठित भी नहीं होता कि उसे धूमिल किया जा सके.
दिनभर थाने और अदालत में पीडि़ता को बैठाना उसे दिमागी तौर पर तोड़ने वाली बात ही है. आधा तो अपराधी उन्हें पहले ही तोड़ चुका होता है. रीतिका कांड पर बयानबाजी भी खूब हुई. ‘बलात्कारी को फांसी हो’ की मांग फिर दोहराई गई पर यह मांग करने वाले नहीं जानते कि बलात्कार बंद कैसे होंगे.
फिल्मकारों का फोकस
इस कांड पर जो सलीके वाली बातें कही गईं उन में एक अभिनेत्री सोनम कपूर ने कही कि भारत में मूलतया मर्दों की परवरिश ही गलत ढंग से होती है. दिल्ली कैब रेप कांड को सोनम ने पुरुषों की कुत्सित मानसिकता को गलत दोषी नहीं ठहराया. बकौल सोनम, आज भी लड़कों को बड़े लाड़प्यार से पाला जाता है लेकिन उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि औरतों की इज्जत कैसे करनी चाहिए.
लड़का कुछ भी गलत हरकत करे तो मांबाप उस का बचाव करते यही कहते हैं कि हमारा लाड़ला तो ऐसा कर ही नहीं सकता. सोनम की नजर में लड़कियों पर कई पाबंदियां लगाई जाती हैं. मसलन, देर रात तक घर के बाहर मत रहो, पार्टियों में मत जाओ, जींस मत पहनो वगैरह. ये पाबंदियां समस्याओं का हल नहीं हैं.
बलात्कार के लिए औरत को नसीहत न देने की वकालत करने वाली सोनम मर्दों की सोच बदलने पर जोर देती हैं. दूसरी उल्लेखनीय बात अभिनेता अक्षय कुमार ने अपना खुद का उदाहरण देते कही कि ऐसे हादसों से मुझे डर लगता है. मैं अपनी बेटी को ले कर प्रोटैक्टिव हूं लेकिन उस की सुरक्षा और खुशियों को ले कर हमेशा डर बना रहता है. एक पिता होने के नाते उस की हिफाजत मेरी जिम्मेदारी है लेकिन मैं चाहता हूं कि सरकार भी उस की रक्षा करे, सड़कों को सुरक्षित बनाना उस का काम है.
अक्षय के मुताबिक, हम टैक्स इसलिए भरते हैं कि बिना किसी डर के घर के बाहर निकल सकें. बलात्कार करने वालों को तत्कालीन सजा के तौर पर उन्हें नपुंसक बना देना चाहिए क्योंकि बलात्कारी बारबार अपराध करते हैं और मुझे नहीं लगता कि जेल में ज्यादा से ज्यादा सजा भी उन्हें इस तरह के जुर्म करने से रोक सकती है.
इन दोनों फिल्मकारों की बातों का फोकस समाज, बच्चों की परवरिश के तौरतरीकों और कानून के इर्दगिर्द है लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि पुरुष प्रधान समाज अभी भी औरत को पांव की जूती समझता है. वह असंगठित होते हुए भी महिला अत्याचारों के मामले में संगठित है.
बीते 2 दशकों में तेजी से लड़कियां नौकरियों में आई हैं, उन की आर्थिक निर्भरता पुरुषों पर कम हो चली है लेकिन सामाजिक निर्भरता बनी रहे इसलिए उन के प्रति छेड़छाड़, हिंसा और बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं. यह पुरुष का सामाजिक अहं है जो अपराधों के जरिए व्यक्त होता है. चौंका देने वाली बात यह है कि अधिकांश पुरुष अपराधी एक अलग वर्ग के हैं.
जैसे भी हो औरत को दबाए रखो, यह सोच मूलतया धर्म से समाज और परिवारों में आई है. औरत अभी भी ताड़न की अधिकारी है. यह ताड़नाप्रताड़ना अब चोला बदल रही है. कसबों से ले कर महानगरों तक में युवतियां काम करते हुए अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को कायम रख रही हैं. यह बात पुरुषों को रास नहीं आ रही है इसलिए औरतों की हिफाजत के सवाल पर हर बार बवाल मचने पर उन्हें ही दोष देने के अलावा बात कैब, वैब और लाइसैंस में उलझ जाती है. सामाजिक माहौल, पुलिस और कानून प्रक्रिया में सुधार की बात करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता.