
पुलिस ने मुन्ना को दिल दहला देने वाली यातनाएं दे कर जुर्म कबूल करवा लिया कि उस के सोनू व उस की 10 वर्षीय बेटी दिव्या से नाजायज संबंध थे. दिव्या के रेप व मर्डर की बात कबूल करा कर उसे कानपुर कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया गया. लेकिन पुलिस की इस कहानी को सोनू भदौरिया ने सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि मुन्ना बेगुनाह है. पुलिस ने उसे झूठा फंसाया है. मीडिया वालों ने मुन्ना लोध की गिरफ्तारी पर संदेह जता कर छापा तो पुलिस तिलमिला उठी.
सोनू भदौरिया व उस की बेटी दिव्या के चारित्रिक हनन तथा मुन्ना लोध को झूठा फंसाने को ले कर शहर की जनता में फिर से गुस्सा फूट पड़ा. उन्होंने पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
महिला मंच की नीलम चतुर्वेदी, अनीता दुआ, पार्षद आरती दीक्षित, गीता निषाद, श्रम संगठन के ज्ञानेश मिश्रा तथा स्कूली बच्चों ने जगहजगह धरनाप्रदर्शन शुरू कर दिए. बड़े प्रदर्शन से पुलिस बौखला गई और उस ने प्रदर्शन कर रही महिलाओं पर लाठियां बरसानी शुरू कर दीं. पुलिस ने उन पर शांति भंग करने का मुकदमा भी दर्ज कर दिया.
एसपी (ग्रामीण) लालबहादुर व सीओ लक्ष्मीनारायण की शासन में पकड़ मजबूत थी. इसी का लाभ उठा कर उन्होंने पुलिस बर्बरता कायम रखी. सोनू भदौरिया की मदद को जो भी आगे आया, पुलिस अफसरों ने उसे प्रताडि़त किया और झूठे मुकदमे में फंसा दिया. पुलिस रात में दरवाजा खटखटा कर लोगों को डराने लगी.
महिला दरोगा शालिनी सहाय सोनू भदौरिया को धमकाती कि वह केस वापस ले ले. साथ ही सोनू को शहर छोड़ कर गांव चली जाने का भी दबाव बनाया गया. वह उस की बेटी दीक्षा से कहती थी कि वह मां से कहे कि उसे शहर में नहीं गांव में जा कर रहना है.
सोनू के मकान मालिक राजन शुक्ला को भी पुलिस ने धमकाया कि वह सोनू को मकान से निकाल दे. पुलिस ने राजन शुक्ला, उन के भतीजे तथा अन्य किराएदारों को भी पूछताछ के नाम पर प्रताडि़त किया.
समाचार पत्रों ने भी निभाई भूमिका
स्थानीय समाचार पत्रों ने पुलिस की इस दमन नीति को सुर्खियों में छापना शुरू किया तो पुलिस अफसरों की भृकुटि तन गईं. उन्होंने अखबारनवीसों को चेताया कि पुलिस की छवि खराब न करें अन्यथा परिणाम अच्छा नहीं होगा.
लेकिन पुलिस की धमकी से अखबारनवीस डरे नहीं, बल्कि उन्होंने दिव्या कांड व पुलिस की दमन नीति को ले कर कानपुर शहर व प्रदेश की कानूनव्यवस्था बिगड़ने के खतरे का समाचार प्रकाशित किया.
इस के बाद यह मामला सड़क से संसद तथा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तक गूंजा. सांसद राजाराम पाल ने दिव्या कांड का मामला संसद में उठाया तो कानपुर शहर के विधायकों ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को इस मामले से अवगत कराया.
राज्यपाल ने प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को चिट्ठी लिखी. इस के बाद जब यह मामला मायावती के संज्ञान में आया तो उन्होंने त्वरित काररवाई करते हुए 23 अक्तूबर, 2010 को यह मामला लखनऊ सीबीसीआईडी को सौंप दिया. यही नहीं मायावती ने दिव्या कांड को उलझाने वाले तथा आरोपियों की मदद करने वाले पुलिस अफसरों पर भी बड़ी काररवाई की.
डीआईजी प्रेम प्रकाश का शासन ने स्थानांतरण कर दिया और उन के खिलाफ जांच बैठा दी गई. एसपी (ग्रामीण) लाल बहादुर, सीओ लक्ष्मीनारायण मिश्र तथा इंसपेक्टर अनिल कुमार को तत्काल निलंबित कर उन के खिलाफ साक्ष्य छिपाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी गई.
आखिर ऊंट आया पहाड़ के नीचे
मामला सीबीसीआईडी के हाथ में आया तो इंसपेक्टर ए.के. सिंह ने अपनी टीम के साथ बारीकी से जांच शुरू की. उन्होंने स्कूल जा कर छानबीन की और खून आदि के नमूने एकत्र किए. इस के बाद मृतका दिव्या के आंतरिक वस्त्र और स्कर्ट में मिले स्पर्म का नमूना लिया. स्पर्म ब्लड के मिलान के लिए जांच अधिकारी ए.के. सिंह ने सीएमएम कोर्ट में 13 लोगों का नमूना लेने की अरजी डाली.
अरजी मंजूर होने पर 9 नवंबर, 2010 को सीबीसीआईडी ने अदालत के आदेश पर चंद्रपाल वर्मा, मुकेश वर्मा, पीयूष वर्मा, संतोष व मुन्ना सहित 13 संदिग्धों के रक्त के नमूने सीएमएम अदालत में लिए. पीयूष, मुकेश, संतोष व चंद्रपाल का स्पर्म नमूना ले कर लखनऊ स्थित एफएसएल लैब भेजा गया. जांच में पीयूष वर्मा के स्पर्म का नमूना दिव्या के स्कर्ट से मिले स्पर्म से मेल हो गया.
सीबीसीआईडी ने अपनी जांच में पीयूष वर्मा, मुकेश वर्मा, चंद्रपाल वर्मा तथा संतोष वर्मा को मामले में दोषी ठहराया, जिस में पीयूष वर्मा को मुख्य आरोपी तथा 3 अन्य को साक्ष्य छिपाने तथा गैरइरादतन हत्या का ठहराया, जबकि मुन्ना लोध को निर्दोष बताया गया. विवेचना के दौरान सीबीसीआईडी को मुन्ना के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला.
सीबीसीआईडी ने धारा 196 (अपराध का होना न पाया जाना) के तहत कोर्ट में अरजी दी. जिस के आधार पर मुन्ना के वकील शिवाकांत दीक्षित ने कोर्ट में बहस की. अदालत ने उसे दोषमुक्त करार दे कर जेल से छोड़ने का आदेश दिया.
11 जनवरी, 2011 को सीबीसीआईडी ने डीएनए टेस्ट रिपोर्ट के आधार पर पीयूष वर्मा के खिलाफ भादंवि की धारा 377, 302, 201, 109, 376(2)(एफ), 202, 511 के तहत कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की. वहीं चंद्रपाल वर्मा, मुकेश वर्मा और संतोष के विरुद्ध भादंवि की धारा 304ए, 201 के तहत कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई.
आरोपियों ने अपने बचाव व जमानत के लिए कानपुर कोर्ट के चर्चित अधिवक्ता गुलाम रब्बानी को नियुक्त किया, जबकि सोनू भदौरिया ने केस को मजबूती से लड़ने के लिए अधिवक्ता अजय सिंह भदौरिया व संजीव सिंह सोलंकी को नियुक्त किया.
अजय सिंह ने आर्थिक रूप से कमजोर सोनू का केस नि:शुल्क लड़ा. गुलाम रब्बानी ने आरोपियों की जमानत हेतु कोर्ट में जम कर बहस की. दूसरी ओर अभियोजन पक्ष के वकील अजय सिंह ने उन के तर्कों का विरोध किया. दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कोर्ट ने आरोपियों को जमानत देने से इनकार कर दिया.
इस के बाद चंद्रपाल वर्मा, मुकेश वर्मा, पीयूष व संतोष ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
हाईकोर्ट ने अंतत: 2 साल जेल में रहने के बाद 19 अप्रैल, 2012 को चंद्रपाल वर्मा, मुकेश व संतोष को जमानत दे दी. लेकिन पीयूष को जमानत नहीं मिली.
इस के बाद इस मामले की कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई. सीबीसीआईडी के अधिवक्ता नागेश कुमार दीक्षित ने कोर्ट के सामने मामले को रेयरेस्ट औफ रेयर बताया और आरोपियों के लिए फांसी की सजा की मांग की.
अदालत ने खूब निभाई अपनी भूमिका
अभियोजन पक्ष ने इस मामले में 39 गवाह पेश किए. बचावपक्ष की ओर से पैरवी कर रहे अधिवक्ता गुलाम रब्बानी ने कोर्ट में 39 गवाहों से 115 पेज की लिखित बहस पेश की. वहीं जवाब में पीडि़त पक्ष (अभियोजन) की ओर से सीबीसीआईडी के वरिष्ठ अभियोजन अधिकारी नागेश कुमार दीक्षित व पीडि़ता के अधिवक्ता अजय सिंह भदौरिया व संजीव सिंह सोलंकी ने मात्र 12 पेज की संक्षिप्त बहस में सभी तर्कों को खारिज कर दिया.
एडीजे द्वितीय ज्योति कुमार त्रिपाठी ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कहा, ‘‘बचाव पक्ष के सभी तर्क निराधार हैं. यह एक गंभीर अपराध है. ऐसे अपराध रेयरेस्ट औफ रेयर की ही श्रेणी में आते हैं. ऐसे अपराध और कुकृत्य से समाज में दहशत फैलती है, इसलिए इस अपराध के अभियुक्तों को किसी भी सूरत में राहत नहीं दी जा सकती.’’
इसी के साथ ही उन्होंने दुष्कर्म और हत्या के आरोपी पीयूष वर्मा को आजीवन कारावास की सजा तथा 75 हजार रुपए का जुरमाना भरने की सजा सुनाई.
सहअभियुक्त मुकेश वर्मा व संतोष कुमार उर्फ मिश्राजी को गैर इरादतन हत्या व अपराध की सूचना न देने का दोषी मानते हुए एक साल 3 महीने की सजा तथा 21 हजार रुपए के जुरमाने की सजा दी गई. साक्ष्य के अभाव में अदालत ने चंद्रपाल वर्मा को बरी कर दिया गया. माननीय जज ने जुरमाने की आधी रकम पीडि़त पक्ष को देने का आदेश दिया.
दिव्या रेप मर्डर में फैसला आने में 8 साल का समय लगा. इस का कारण गवाहों का अधिक होना था. कभी गवाह के न आने तो कभी आने पर भी गवाही न होने के कारण तारीख पर तारीख लगती रही. यह मुकदमा 4 कोर्टों में ट्रांसफर हुआ. सुनवाई के दौरान 7 जज बदले.
अंत में 5वीं कोर्ट के एडीजे द्वितीय ज्योति कुमार त्रिपाठी ने अंतिम बहस पूरी की और फैसला सुनाया. फैसले के बाद पीयूष वर्मा को जेल भेज दिया गया.
कोर्ट के फैसले से दिव्या की मां सोनू भदौरिया खुश नहीं है. उस का कहना है कि पीयूष वर्मा को फांसी की सजा मिलनी चाहिए थी. अन्य आरोपियों को भी कम सजा मिली है. वह कोर्ट के फैसले के खिलाफ आरोपियों को अधिक सजा दिलाने के लिए हाईकोर्ट की शरण लेगी और अपने अधिवक्ता अजय सिंह भदौरिया के मार्फत अपील करेगी.
—कथा कोर्ट के फैसले तथा लेखक द्वारा एकत्र की गई जानकारी पर आधारित
रिपोर्ट दर्ज कर के भी मनमानी करती रही पुलिस
भारतीय ज्ञान स्थली स्कूल में मासूम छात्रा दिव्या से कुकर्म व हत्या की सूचना पा कर कल्याणपुर थानाप्रभारी अनिल कुमार सिंह, रावतपुर चौकी इंचार्ज शालिनी सहाय, सीओ लक्ष्मीनारायण मिश्रा, एसपी (ग्रामीण) लाल बहादुर श्रीवास्तव तथा डीआईजी प्रेमप्रकाश भी हैलट अस्पताल पहुंच गए.
उन्होंने हंगामा कर रहे लोगों को किसी तरह शांत कराया और कहा कि घटना की जांच होगी. दोषियों को किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाएगा. शाम 6 बजे सोनू भदौरिया की तहरीर पर भारतीय ज्ञान स्थली स्कूल के प्रबंधक चंद्रपाल वर्मा तथा उन के दोनों बेटों पीयूष वर्मा व मुकेश वर्मा के खिलाफ कुकर्म व हत्या की रिपोर्ट दर्ज कर ली गई.
रिपोर्ट दर्ज होते ही पुलिस अधिकारियों ने स्कूल में छापा मारा तो वहां ताला बंद मिला. पुलिस स्कूल के पास ही रह रहे स्कूल के प्रबंधक के घर पहुंची तो प्रबंधक चंद्रपाल वर्मा तथा उस के दोनों बेटे पीयूष वर्मा व मुकेश वर्मा फरार थे. घर में मौजूद महिलाओं को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. उन से स्कूल की चाबी ले कर स्कूल खोला गया. पुलिस ने जब स्कूल की जांच की तो वहां पर दिव्या के साथ हुई हैवानियत के सबूत मिलने शुरू हो गए.
पुलिस को स्कूल की सीढि़यों पर खून के धब्बे मिले. सीढि़यों से ऊपर बने लैब में भी खून के धब्बे थे, जिन्हें पोंछने तथा साफ करने का प्रयास किया गया था. एक कुरसी पर भी खून लगा था. इस के अलावा बाथरूम में भी खून फैला था अैर वाशबेसिन टूटा था.
स्कूल में लगे सीसीटीवी कैमरों से छेड़छाड़ की गई थी, वे सब बंद थे. एसपी (ग्रामीण) के आदेश पर खून के धब्बों का खून बतौर सैंपल एकत्र कर लिया गया. इस के साथ ही दिव्या के शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया.
भारतीय ज्ञान स्थली स्कूल का प्रबंधक चंद्रपाल वर्मा शातिर दिमाग व्यक्ति था. उस की शासन प्रशासन में अच्छी पकड़ थी. उस ने जब खुद को और बेटों को फंसते देखा तो पहले ही दिन से बेटों व स्वयं को बचाने के लिए हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए. उस ने हर उस अधिकारी को प्रभाव में लेने का प्रयास किया, जो मामले की जांच कर रहा था.
हर वह सबूत मिटाने का प्रयास किया, जो उन लोगों को फंसा सकता था. वह हर उस नेता को खरीदने का प्रयास करने लगा, जो सोनू भदौरिया का साथ दे रहा था. उस ने कई ऐसे गुर्गों को भी अपने पक्ष में कर लिया था, जो सोनू भदौरिया को केस वापस लेने को धमका सकें.
दौलत के प्रभाव में लपेटा कई को
चंद्रपाल वर्मा के प्रभाव का असर यह हुआ कि घटना की शाम तक सोनू के पक्ष में खड़ी पुलिस अचानक बदल गई. पुलिस अधिकारी कहने लगे कि यह मामला दुष्कर्म का नहीं है. दिव्या की मौत बीमारी से हुई है. इस के लिए सीओ (कल्याणपुर) लक्ष्मी नारायण मिश्रा ने प्राइवेट डा. आभा मिश्रा को स्कूल में जांच के लिए बुलाया. आभा मिश्रा उन की रिश्तेदार थी.
आभा मिश्रा ने जांच में सारा मामला ही पलट दिया. डा. आभा मिश्रा ने कहा कि दिव्या गर्भवती थी. उस ने गर्भ गिराने के लिए गोलियां खाईं, जिस से ब्लीडिंग शुरू हुई. अधिक रक्तस्राव से उस की मौत हो गई. डा. आभा मिश्रा की यह बात आम लोगों के गले नहीं उतरी. इस से लोग आक्रोशित हो उठे.
लोगों के आक्रोश को देखते हुए 28 सितंबर, 2010 को 3 डाक्टरों के पैनल ने दिव्या के शव का पोस्टमार्टम किया. दिव्या की पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिल दहला देने वाली थी.
पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार दिव्या के साथ कुकर्म किया गया था और उस के नाजुक अंग को नाखून से नोचा गया था. डाक्टरों ने बताया कि कोई मानसिक विक्षिप्त आदमी ही ऐसी हैवानियत कर सकता है. उस का गुदाद्वार पूरी तरह से फट गया था और अत्यधिक खून बहने से उस की मौत हो गई थी.
पोस्टमार्टम हाउस में चर्चित महिला नेता पार्षद आरती दीक्षित व पार्षद गीता निषाद भी मौजूद थीं. इन महिला नेताओं ने दिव्या का शव मिलने के बाद पोस्टमार्टम हाउस के बाहर सड़क जाम कर दी और आरोपियों की गिरफ्तारी की मांग कर रही थीं.
जाम की सूचना पा कर सीओ लक्ष्मीनारायण मिश्रा, इंसपेक्टर अनिल कुमार सिंह तथा एसपी (ग्रामीण) लालबहादुर आ गए. आते ही पुलिस ने जाम खुलवाने के लिए लाठी चार्ज कर दिया. इस लाठी चार्ज में पार्षद आरती दीक्षित, गीता निषाद तथा सोनू भदौरिया घायल हो गईं. इस के बावजूद पुलिस ने पार्षद आरती दीक्षित व गीता निषाद के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया.
दिव्या उर्फ दिव्या की हत्या से पहले कुकर्म करने की खबर जब कानपुर के प्रमुख समाचारपत्रों में छपी तो लोगों में क्रोध की आग भड़क उठी. लोगों का गुस्सा पुलिसिया काररवाई पर था, जो आरोपियों को बचाने में जुटी थी. देखते ही देखते पूरा शहर मासूम को न्याय दिलाने के लिए उमड़ पड़ा.
पुलिस की कार्यशैली से नाराज लोगों ने आरोपियों को गिरफ्तार करने के लिए कैंडिल मार्च, जुलूस और प्रदर्शन का सहारा लिया. बच्चे हों या बड़े, महिलाएं हों या बुजुर्ग हर कोई हाथों में कैंडिल और बैनर ले कर दिव्या को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उतर आया.
लोगों ने लाठियां खाईं पर दिव्या को न्याय दिलाने की मुहिम कमजोर नहीं पड़ने दी. नानाराव पार्क से जुलूस निकाला गया तो माल रोड की दोनों तरफ की सड़कें लोगों की भीड़ से पट गईं.
लोग उतर आए सड़कों पर
भारी भीड़ के आगे पुलिस को सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने पड़े. राजनीतिक दल, स्कूली बच्चे, सामाजिक संगठन, व्यापारी, डाक्टर, शिक्षक, कर्मचारी संगठन, श्रम संगठन और महिला संगठन दिव्या को न्याय दिलाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे. हर घर से मासूम को न्याय दिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी.
मोतीझील में निकाले गए कैंडिल मार्च की अगुवाई करने के लिए मुंबई से फिल्म निर्माता निर्देशक महेश भट्ट भी आए थे. इस के बाद तो पूरा शहर उमड़ पड़ा. यह कैंडिल मार्च ऐसा था, जिस में पूरे शहर को आंदोलन की चपेट में ले लिया था. सोनू भदौरिया की आर्थिक मदद हेतु भी लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे थे. हर रोज उस के खाते में हजारों रुपए आने लगे थे.
आखिर उमड़े जनसैलाब के आगे पुलिस को झुकना पड़ा और उस ने स्कूल के प्रबंधक चंद्रपाल वर्मा तथा उस के दोनों बेटों पीयूष व मुकेश को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. लेकिन पुलिस ने अपना खेल अभी भी बंद नहीं किया. इंसपेक्टर अनिल कुमार सिंह ने सोनू भदौरिया के घर के पास किराए पर रहने वाले किन्नर काजल पर जुर्म कबूल करने का दबाव डाला. उसे यातनाएं दीं. लेकिन जब बात नहीं बनी तो उसे छोड़ दिया गया.
इस के बाद पुलिस ने दिव्या की मां सोनू भदौरिया के नजदीक में रहने वाले रिक्शा चालक मुन्ना लोध को टारगेट बनाया. 6 अक्तूबर, 2010 को उसे दिव्या रेप और मर्डर केस में गिरफ्तार कर लिया गया. मुन्ना लोध मूलरूप से उन्नाव जिले के सरावां गांव का रहने वाला था.
वह अपने रिक्शे से बच्चों को स्कूल पहुंचाता था. मुन्ना लोध सोनू भदौरिया की मदद करता था. इन्हीं मधुर संबंधों को जोड़ कर एसपी (ग्रामीण) लालबहादुर श्रीवास्तव, सीओ लक्ष्मीनारायण मिश्रा व इंसपेक्टर अनिल कुमार सिंह ने अनोखी कहानी रच दी.
नई कहानी बनाई पुलिस ने
पुलिस की कहानी के अनुसार मुन्ना लोध के सोनू भदौरिया से अवैध संबंध थे. वह उस की बेटियों दिव्या व दीक्षा की देखभाल करता था. इसी बीच उस ने दिव्या से भी अवैध संबंध बना लिए. अवैध रिश्तों के चलते दिव्या गर्भवती हो गई.
इस की जानकारी जब मुन्ना को हुई तो वह घबरा गया और मैडिकल स्टोर से गर्भ गिराने वाली गोलियां ले आया. घटना वाले दिन उस ने दिव्या को वह गोलियां खिला दीं और स्कूल छोड़ आया. गोलियां खाने से दिव्या को ब्लीडिंग शुरू हो गई. बाद में ज्यादा खून बहने से उस की मौत हो गई.
उस दिन दिसंबर 2018 की 5 तारीख थी. वैसे तो कानपुर कोर्ट में हर रोज चहलपहल रहती है, लेकिन उस दिन अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश (द्वितीय) ज्योति कुमार त्रिपाठी की अदालत में कुछ ज्यादा ही गहमागहमी थी. पूरा कक्ष लोगों से भरा था. कक्ष के बाहर भी भीड़ जुटी थी.
दरअसल उस दिन एक ऐसे मुकदमे का फैसला सुनाया जाना था, जिस ने पूरी मानवता को शर्मसार किया था. लोग तरहतरह के कयास लगा रहे थे. कोई फांसी की सजा की बात कह रहा था तो कोई आजीवन कारावास होने का अनुमान लगा रहा था.
अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ज्योति कुमार त्रिपाठी ने ठीक साढ़े 10 बजे न्यायालय कक्ष में प्रवेश किया और कुरसी पर विराजमान हो गए. मुकदमे के 4 अभियुक्त पीयूष वर्मा, मुकेश वर्मा, चंद्रपाल वर्मा तथा संतोष कुमार उर्फ मिश्राजी कठघरे में खड़े थे. उन के आसपास पुलिस का पहरा था. उन के चेहरों पर न्याय का भय साफ झलक रहा था.
माननीय न्यायाधीश ने अंतिम बार अभियोजन व बचावपक्ष के वकीलों की बहस सुनी और अभियोजन पक्ष के गवाहों की सूची पर नजर डाली, 39 गवाह थे. फैसले की यह घड़ी आने में 8 साल का समय लग गया था.
आखिर मामला क्या था, जिस के फैसले को जानने के लिए सैकड़ों लोग अदालत पहुंचे थे. इस के लिए हमें 8 साल पहले घटी उस घटना को जानना होगा, जो बेहद हृदयविदारक थी.
उत्तर प्रदेश के कानपुर महानगर के कल्याणपुर थाने के अंतर्गत एक मोहल्ला है रोशननगर. इसी मोहल्ले में राजन शुक्ला के मकान में सोनू भदौरिया नाम की महिला किराए पर रहती थी. सोनू के परिवार में पति हमीर सिंह के अलावा 2 बेटियां दिव्या (10 वर्ष) तथा दीक्षा (7 वर्ष) थीं. सोनू भदौरिया माल रोड स्थित एक मौल में काम करती थी. मौल से मिलने वाले वेतन से उस के परिवार का भरणपोषण होता था.
सोनू भदौरिया का पति हमीर सिंह मूलरूप से मध्य प्रदेश के भिंड जिले के गांव रामगढ़ का निवासी था. गांव में रह कर हमीर सिंह खेती करता था. उस की पत्नी सोनू पढ़ीलिखी महिला थी. वह अपनी बेटियों को भी पढ़ालिखा कर योग्य बनाना चाहती थी, इसलिए वह गांव छोड़ कर सन 2010 में कानपुर आ गई थी. यहां उस ने रोशन नगर निवासी राजन शुक्ला के मकान में किराए पर एक कमरा ले लिया था और बेटियों के साथ रहने लगी थी.
उस ने बेटियों के पढ़ने के लिए अच्छे स्कूल की जानकारी जुटाई तो पता चला कि गणेश नगर (रावतपुर) स्थित भारती ज्ञान स्थली स्कूल अच्छा है. उस ने इसी स्कूल में अपनी बेटियों दिव्या का दाखिला कक्षा-6 में तथा दीक्षा का कक्षा-3 में करा दिया. सोनू बच्चों को स्कूल भेज कर अपने काम पर चली जाती थी. पति से अलग रह कर भी वह बच्चों की अच्छी तरह से देखभाल कर रही थी.
मालिकों ने ही स्कूल को बनाया दुष्कर्म का अड्डा
सोनू भदौरिया मिलनसार व व्यवहार कुशल महिला थी. मकान मालिक राजन शुक्ला व मकान में रहने वाले अन्य किराएदार सोनू से सहानुभूति रखते थे. सोनू के पड़ोस में रहने वाला रिक्शाचालक मुन्ना लोध सोनू की दोनों बेटियों को स्कूल से घर लाता था. सोनू के काम से वापस आने तक वही उन की देखभाल करता था.
भारती ज्ञान स्थली स्कूल के प्रबंधक चंद्रपाल वर्मा धनाढ्य व्यक्ति थे. गणेश नगर में ही उन का आलीशान स्कूल व बंगला था. चंद्रपाल के 2 बेटे थे मुकेश व पीयूष. दोनों ही स्कूल के संचालन में उन की मदद करते थे. चंद्रपाल का छोटा बेटा पीयूष वर्मा अय्याश प्रवृत्ति का था. उस की कुदृष्टि खूबसूरत लेडी टीचरों व छात्राओं पर गड़ी रहती थी. कुछ तो उस की कुदृष्टि से बच निकलती थीं, पर कुछ मजबूर हो जाती थीं.
एक रोज पीयूष की नजर दिव्या पर पड़ी. पीयूष ने दिव्या के परिवार के बारे में जानकारी जुटाई तो पता चला कि वह सोनू भदौरिया की बेटी है जो प्राइवेट नौकरी करती है. 10 वर्षीय दिव्या को अपनी बातों में फांसने के लिए उस ने उस से बोलना बतियाना शुरू कर दिया और उस मासूम के शरीर पर नजरें गड़ाने लगा. दिव्या मासूम बच्ची थी, वह उस के कुत्सित इरादों को कैसे भांपती.
हर रोज की तरह 27 सितंबर, 2010 को सोनू भदौरिया दोनों बेटियों को स्कूल छोड़ कर अपने काम पर चली गई. मौका मिलने पर पीयूष वर्मा दिव्या को बहलाफुसला कर दूसरी मंजिल पर स्थित लैब में ले गया. लैब में पहुंचते ही उस ने दरवाजा बंद कर लिया और दिव्या के साथ अश्लील हरकतें करने लगा.
दिव्या ने विरोध किया तो उस ने उस की पिटाई कर दी. डरीसहमी दिव्या की जुबान बंद हुई तो वह उस मासूम पर बाज की तरह टूट पड़ा. उस ने मासूम बच्ची के साथ प्राकृतिक, अप्राकृतिक कुकृत्य किया.
इस दरम्यान दिव्या दर्द से चीखतीचिल्लाती रही, लेकिन उस हवस के दरिंदे को उस पर जरा भी दया नहीं आई. हवस के दौरान वह इतना वहशी हो गया कि उस ने मासूम के गुप्तांग पर चोट तो पहुंचाई ही, साथ ही दांतों से उस के चेहरे को भी जख्मी कर दिया.
कर्मचारियों को भी घसीटा जुर्म में
दरिंदा बना पीयूष वर्मा तब घबराया, जब दिव्या बेहोश हो गई और उस के गुप्तांग से ब्लीडिंग होने लगी. घबराहट में पीयूष वर्मा ने स्कूल के क्लर्क संतोष कुमार उर्फ मिश्राजी को बुलाया. संतोष ने दिव्या की हालत देखी तो वह सब समझ गया. संतोष ने तत्काल स्कूल की आया परवीन व माया को बुलाया और ब्लीडिंग बंद कराने का प्रयास कराया, लेकिन दोनों ही असफल रहीं.
खून साफ करने के लिए दिव्या को बाथरूम ले जाया गया. इस के बाद माया व परवीन ने दिव्या के कपड़े बदले. बच्चों का दाखिला होते समय ड्रैस और किताबें स्कूल प्रबंधन द्वारा बेची जाती थीं. दिव्या के कपड़े खून से सन जाने के कारण उस के खून सने कपड़े उस के बैग में रख दिए गए और नई ड्रैस उसे पहना दी गई.
इस के बाद क्लर्क संतोष कुमार, माया और परवीन दिव्या को उस के घर छोड़ कर वापस लौट गए. मकान मालिक राजन शुक्ला ने दिव्या की हालत देखी तो वह घबरा गए. उन्होंने तत्काल सोनू भदौरिया को फोन कर के दिव्या की हालत की जानकारी दे दी. बेटी के बारे में सुन कर सोनू घबरा गई. वह तुरंत औफिस से घर के लिए निकल गई. सोनू घर पहुंची तो दिव्या बेहोश पड़ी थी.
राजन ने बताया कि स्कूल वाले दिव्या को इस हालत में यहां छोड़ कर बिना कुछ बताए चले गए. सोनू ने मकान मालिक राजन शुक्ला तथा 2 किराएदारों गोविंद व योगेंद्र को साथ लिया और दिव्या को इलाज के लिए कुलवंती अस्पताल ले गई. लेकिन दिव्या की हालत देख कर अस्पताल के डाक्टरों ने उसे अपने यहां भरती करने से मना कर दिया.
इस के बाद लगभग 3 बजे सोनू बेटी को ले कर लाला लाजपतराय अस्पताल (हैलट) पहुंची. वहां के डाक्टरों ने उसे देखते ही मृत घोषित कर दिया. बेटी की मौत से सोनू बदहवास हो गई और उस के स्कूल बैग को सीने से चिपका कर रोने लगी. इसी बीच सोनू की निगाह बैग पर लगे खून के धब्बे पर पड़ी.
उस ने बैग खोल कर देखा तो उस में बेटी के खून से सने अंडरगारमेंट देख उस का माथा ठनका. उस ने बेटी के शरीर को गौर से देखा तो उस के नीचे का हिस्सा खून से सना हुआ था और खून रोकने के लिए नाजुक अंग पर पट्टी बांधी गई थी. स्कूल में बेटी के साथ हुए कुकर्म की आशंका से सोनू ने हंगामा खड़ा कर दिया. पड़ोसी भी सोनू का साथ देने लगे.
आखिर जयदेव ततमा और अशोक को जिस बात का डर था, वही सब हुआ. विचारों के टकराव और अहं ने पति और पत्नी के बीच इतनी दूरियां बना दीं कि वे एकदूसरे की शक्ल देखने को तैयार नहीं थे. एक छत के नीचे रहते हुए वे एकदूसरे से पराए जैसा व्यवहार करने लगे. रोज ही घर में पतिपत्नी के बीच झगड़े होने लगे थे.
रोजरोज के झगड़े और कलह से घर की सुखशांति एकदम छिन गई थी. पतियों ने कलावती और मलावती को अपने जीवन से हमेशा के लिए आजाद कर दिया. बाद में दोनों का तलाक हो गया. पते की बात यह थी कि कलावती और मलावती दोनों की जिंदगी की कहानी समान घटनाओं से जुड़ी हुई थी. दुखसुख की जो भी घटनाएं घटती थीं, दोनों के जीवन में समान घटती थीं.
यह बात सच है कि दुनिया अपनों से ही हारी हुई होती है. अशोक भी बहनों की कर्मकथा से हार गया था. पर वह कर भी क्या सकता था. वह उन्हें घर से निकाल भी नहीं सकता था. सामाजिक लिहाज के मारे उस ने बहनों को अपना लिया और सिर छिपाने के लिए जगह दे दी. वे भाई के अहसानों तले दबी हुई थीं, लेकिन दोनों उस पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थीं.
ऐसा नहीं था कि वे दोनों दुखी नहीं थीं. वे बहुत दुखी थीं. अपना दुख किस के साथ बांटें, समझ नहीं पा रही थीं. वे जी तो जरूर रही थीं, लेकिन एक जिंदा लाश बन कर, जिस का कोई वजूद नहीं होता. पति के त्यागे जाने से ज्यादा दुख उन्हें पिता की मौत का था.
कलावती और मलावती ने भाई से साफतौर पर कह दिया था कि वे उस पर बोझ बन कर नहीं जिएंगी. जीने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेंगी. दोनों बहनें फिर से समाजसेवा की डगर पर चल निकलीं. अब उन पर न तो कोई अंकुश लगाने वाला था और न ही टीकाटिप्पणी करने वाला.
वे दोनों घर से सुबह निकलतीं तो देर रात ही घर वापस लौटती थीं. सोशल एक्टिविटीज में दिन भर यहांवहां भटकती फिरती थीं. अशोक बहनों के स्वभाव को जान चुका था. वह भी उन पर निगरानी नहीं रखता था. उसे अपनी बहनों और उन के चरित्र पर पूरा भरोसा था कि वे कभी कोई ऐसा काम नहीं करेंगी, जिस से समाज और बिरादरी में उसे शर्मिंदा होना पड़े.
लेकिन गांव के उस के पड़ोसियों खासकर वीरेंद्र सिंह उर्फ हट्टा, लक्ष्मीदास उर्फ रामजी, बुद्धू शर्मा और जितेंद्र शर्मा को कलावती और मलावती के चरित्र पर बिलकुल भरोसा नहीं था.
दोनों बहनों के चरित्र पर लांछन लगाते हुए वे उन्हें पूरे गांव में बदनाम करते थे. वे कहते थे कि ततमा की दोनों बेटियां पेट की आग बुझाने के लिए बाजार में जा कर धंधा करती हैं. धंधे की काली कमाई से दोनों के घरों में चूल्हे जलते हैं. धीरेधीरे यह बात पूरे गांव में फैल चुकी थी. उड़ते उड़ते कुछ दिनों बाद यह बात कलावती और मलावती तक आ पहुंची.
सुन कर दोनों बहनों के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई. सहसा उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उन्होंने जो सुना है, वह सच है. जबकि उन का चरित्र एकदम पाकसाफ था. अपने चरित्र को ले कर दोनों बहनों ने जब गांव वालों की बातें सुनीं, तो वे एकदम से परेशान हो गईं.
वैसे भी किसी चरित्रवान के दामन पर ये दाग किसी गहरे जख्म से कम नहीं थे. दोनों ने फैसला किया कि उन्हें नाहक बदनाम करने वालों को इस की सजा दिलवा कर दम लेंगी, चाहे वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो. उन्होंने पता लगा लिया कि उन्हें बदनाम करने वाले उन के पड़ोसी वीरेंद्र, लक्ष्मीदास, बुद्धू और जितेंद्र थे.
जिद की आग में पकी कलावती और मलावती ने वीरेंद्र, लक्ष्मीदास, बुद्धू और जितेंद्र शर्मा की कुंडली तैयार की. गांव के चारों बाशिंदे ग्रामप्रधान के भरोसेमंद प्यादे थे. प्रधान के रसूख की बदौलत वे कूदते थे.
चारों ही प्रधान की ताकत के बल पर असामाजिक कार्यों को अंजाम देते थे. ये बातें दोनों बहनों को पता चल गई थीं. दोनों ने आरटीआई के माध्यम से ग्राम प्रधान और उन के चारों प्यादों के खिलाफ सबूत इकट्ठा कर के वीरेंद्र सिंह और लक्ष्मीदास के खिलाफ जलालगढ़ थाने में मुकदमा दर्ज करा कर उन्हें जेल भिजवा दिया.
वीरेंद्र और लक्ष्मीदास को जेल भिजवाने के बाद दोनों बहनें शांत नहीं बैठीं. इस के बाद उन्होंने बुद्धू और जितेंद्र शर्मा को जेल भिजवा दिया. कुछ दिनों बाद वीरेंद्र और लक्ष्मीदास जमानत पर जेल से रिहा हुए तो दोनों बहनों ने फिर से उन के खिलाफ एक नया मुकदमा दर्ज करा दिया.
उन लोगों को फिर से जेल जाना पड़ा. इंतकाम की आग में जलती कलावती और मलावती ने चारों के खिलाफ ऐसी जमीन तैयार की कि उन के दिन जेल की सलाखों के पीछे बीत रहे थे.
वीरेंद्र सिंह, लक्ष्मीदास, बुद्धू और जितेंद्र शर्मा बारबार जेल जाने से परेशान थे. समझ में नहीं आ रहा था कि कलावती और मलावती नाम की दोनों बहनों से कैसे छुटकारा पाया जाए. वे लोग खतरनाक योजना बनाने लगे. दिलीप शर्मा, विनोद ततमा, प्रकाश ततमा,सोनू शर्मा, रामलाल शर्मा, विष्णुदेव शर्मा, पप्पू शर्मा, उपेन शर्मा, इंदल शर्मा, सुनील शर्मा, सतीश शर्मा और बेचन शर्मा उन का साथ देने को तैयार हो गए.
वीरेंद्र सिंह, लक्ष्मीदास और उस के सहयोगियों ने फैसला कर लिया कि जब तक दोनों बहनें जिंदा रहेंगी, तब तक उन्हें चैन की सांस नहीं लेने देंगी. उन दोनों को मौत के घाट उतारने में ही सब की भलाई थी. घटना से करीब 5 दिन पहले सब ने योजना बना ली.
वीरेंद्र सिंह और उस के साथियों ने कलावती और मलावती के खिलाफ खतरनाक षडयंत्र रच लिया था. उन्होंने उन की रेकी करनी शुरू कर दी.
रेकी करने के बाद उन लोगों ने दोनों बहनों की हत्या करने की रूपरेखा तैयार कर ली. योजना में तय हुआ कि दोनों बहनों की हत्या के बाद उन के सिर धड़ से अलग कर के अलगअलग जगहों पर फेंक दिया जाएगा ताकि पुलिस आसानी से लाशों की शिनाख्त न कर सके.
सब कुछ योजना के मुताबिक चल रहा था. बात 23 जून, 2018 के अपराह्न 2 बजे की थी. वीरेंद्र ने अपने सहयोगियों को दोनों बहनों पर नजर रखने के लिए लगा दिया था. दोपहर 2 बजे के करीब कलावती और मलावती घर से जलालगढ़ बाजार जाने के लिए निकलीं.
दोनों ने अपने भतीजे मनोज से बता दिया था कि वे जलालगढ़ बाजार जा रही हैं. वहां से कुछ देर बाद लौट आएंगी. दोनों के घर से निकलते ही इस की सूचना किसी तरह वीरेंद्र सिंह तक पहुंच गई.
वीरेंद्र सिंह ने सहयोगियों को सतर्क कर दिया कि दोनों जलालगढ़ बाजार के लिए घर से निकल चुकी हैं. चक हाट से जलालगढ़ जाने वाले रास्ते में कुछ हिस्सा सुनसान और जंगल से घिरा हुआ था. कलावती और मलावती जब सुनसान रास्ते से जलालगढ़ बाजार की ओर जा रही थीं कि बीच रास्ते में वीरेंद्र सिंह, लक्ष्मीदास, बुद्धू शर्मा, जितेंद्र शर्मा सहित 12 और सहयोगियों ने उन का रास्ता घेर लिया.
वे सभी दोनों बहनों को जबरन उठा कर बिलरिया घाट ले गए. वीरेंद्र और उस के साथियों ने मिल कर दोनों बहनों को तेज धार वाले चाकू से गला रेत कर मौत के घाट उतार दिया. इस के बाद दोनों के सिर धड़ से काट कर अलग कर दिए गए. फिर दोनों के कटे सिर घाट के किनारे जमीन खोद कर दबा दिए. उस के बाद बाकी शरीर को वहां से करीब 500 मीटर दूर ले जा कर झाडि़यों में फेंक कर अपनेअपने घरों को चले गए.
वीरेंद्र और उस के साथियों ने बड़ी चालाकी के साथ घटना को अंजाम दिया, लेकिन वे भूल गए थे कि अपराधी कितना भी चालाक क्यों न हो, कानून के लंबे हाथों से ज्यादा दिनों तक नहीं बच सकता.
एक न एक दिन कानून के लंबे हाथ अपराधी के गिरेहबान तक पहुंच ही जाता है. इसी तरह वे सब भी कानून के हत्थे चढ़ गए. 4 आरोपियों को जेल भेजने के बाद पुलिस ने फरार 12 आरोपियों को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.
कथा लिखे जाने तक गिरफ्तार 16 आरोपियों के खिलाफ पुलिस ने अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर दिया था. गिरफ्तार आरोपियों में से किसी भी आरोपी की जमानत नहीं हुई थी. वीरेंद्र और उस के साथियों ने अगर सूझबूझ के साथ काम लिया होता तो उन्हें ऐसे दिन देखने को नहीं मिलते.
—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित
काल डिटेल्स के आधार पर पुलिस ने पूछताछ के लिए वीरेंद्र सिंह और लक्ष्मीदास को उन के घरों से हिरासत में ले लिया और थाने ले आई. इसी बीच मुखबिर ने एसडीपीओ कृष्णकुमार राय को एक ऐसी चौंकाने वाली बात बताई, जिसे सुन कर उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई.
मुखबिर ने बताया कि कलावती और मलावती की हत्या गांव के ही कई लोगों ने मिल कर की थी. उन में वीरेंद्र सिंह और लक्ष्मीदास के अलावा बुद्धू शर्मा और जितेंद्र शर्मा भी शामिल थे. इस से पुलिस को पुख्ता जानकारी मिलगई कि दोहरे हत्याकांड में कई लोग शामिल थे. हिरासत में लिए गए वीरेंद्र और लक्ष्मीदास से सख्ती से पूछताछ की गई तो दोनों ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने ही दोनों बहनों को मौत के घाट उतारा था.
‘‘लेकिन क्यों? ऐसा क्या किया था दोनों बहनों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, जो इतनी बेरहमी से कत्ल कर दिया?’’ एसडीपीओ कृष्णकुमार राय ने सवाल किया.
‘‘साहब, मैं अकेला नहीं मेरे साथ लक्ष्मीदास, बुद्धू और जितेंद्र भी थे. क्या करते साहब, दोनों बहनों ने हमारा जीना मुश्किल कर दिया था.’’
इस के बाद वीरेंद्र सिंह और लक्ष्मीदास ने पूरी घटना विस्तार से बताई. दोनों की निशानदेही पर पुलिस ने गांव चक हाट से बुद्धू और जितेंद्र शर्मा को भी गिरफ्तार कर लिया. चारों आरोपियों ने अपना गुनाह कबूल कर लिया. उन की निशानदेही पर पुलिस ने श्मशान घाट के तालाब के पास से जमीन में दबाए हुए दोनों महिलाओं के सिर भी बरामद कर लिए.
उसी दिन शाम को आननफानन में पुलिस लाइन के मनोरंजन कक्ष में प्रैस कौन्फ्रैंस किया गया. 7 दिनों से रहस्य बनी सोशल एक्टिविस्ट कलावती और मलावती हत्याकांड की गुत्थी सुलझा चुकी पुलिस जोश से लबरेज थी.
प्रैस कौन्फ्रैंस में एसपी विशाल शर्मा ने बताया कि कलावती और मलावती की हत्या उसी गांव के रहने वाले वीरेंद्र सिंह, लक्ष्मी दास, बुद्धू और जितेंद्र शर्मा ने मिल कर की थी. इस मामले में गांव के 12 लोग और शामिल थे, जिन्होंने घटना को अंजाम देने में आरोपियों की मदद की थी. जिन में 4 आरोपी गिरफ्तार कर लिए गए.
इस के बाद पुलिस ने चारों आरोपियों को अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. आरोपियों के बयान के आधार पर पुलिस ने 16 लोगों वीरेंद्र सिंह उर्फ हट्टा, लक्ष्मीदास उर्फ रामजी, बुद्धू शर्मा, जितेंद्र शर्मा, दिलीप शर्मा, विनोद ततमा, प्रकाश ततमा, सोनू शर्मा, रामलाल शर्मा, विष्णुदेव शर्मा, पप्पू शर्मा, उपेन शर्मा, इंदल शर्मा, सुनील शर्मा, सतीश शर्मा और बेचन शर्मा के नाम पहली जुलाई के रोजनामचे पर दर्ज कर लिए. अभियुक्तों के बयान और पुलिस की जांच के बाद कहानी कुछ यूं सामने आई.
बिहार के पूर्णिया जिले के जलालगढ़ थानाक्षेत्र में एक गांव है— चक हाट. जयदेव ततमा इसी गांव के मूल निवासी थे. उन के 3 बच्चे थे, जिन में एक बेटे अशोक ततमा के अलावा 2 बेटियां कलावती ततमा और मलावती ततमा थीं. अशोक ततमा दोनों बेटियों से बड़ा था.
जयदेव ततमा का नाम चक हाट पंचायत में काफी मशहूर था. वह इलाके में बड़े किसान के रूप में जाने जाते थे. उन्होंने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई. उन की दिली इच्छा थी कि बच्चे पढ़लिख कर योग्य बन जाएं.
कलावती और मलावती बड़े भाई अशोक से बुद्धि और कलाकौशल में काफी तेज थीं. दोनों बहनें पढ़ाई के अलावा सामाजिक कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थीं. उन का सपना था कि बड़े हो कर समाज की सेवा करें.
पिता की मदद से कलावती और मलावती ने समाजसेवा की जमीन पर अपने पांव पसारने शुरू कर दिए. गरीबों और मजलूमों की सेवा कर के उन्हें बहुत सुकून मिलता था. बेटियों की सेवा भाव से पिता जयदेव ततमा खुश थे. धीरेधीरे वे गांव इलाके में मशहूर हो गईं.
बचपन को पीछे छोड़ कर दोनों बहनें जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थीं. पिता को बेटियों की शादी की चिंता थी. थोड़े प्रयास और भागदौड़ से जयदेव ततमा को दोनों बेटियों के लिए अच्छे वर और घर मिल गए.
समय से दोनों बेटियों के हाथ पीले कर के वे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए. इस के बाद ब्याहने के लिए एक बेटा अशोक ततमा शेष रह गया था. बाद में उन्होंने उस की भी शादी कर दी. अशोक और उस की पत्नी जयदेव की सेवा पूरी जिम्मेदारी से कर रहे थे.
जयदेव ततमा के जीवन की गाड़ी बड़े मजे से चल रही थी. न जाने उन की खुशहाल जिंदगी में किस की नजर लगी कि एक ही पल में सब कुछ मटियामेट हो गया. कलावती और मलावती के पतियों ने उन्हें हमेशा के लिए त्याग दिया. वे वापस आ कर मायके में रहने लगीं. यह बात जयदेव से सहन नहीं हुई और वे असमय काल के गाल में समा गए.
अचानक हुई पिता की मौत से घर का सारा खेल बिगड़ गया. दोनों बहनों की जिम्मेदारी भाई अशोक के कंधों पर आ गई थी. लेकिन दोनों स्वाभिमानी बहनें भाई पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. वे खुद ही कुछ कर के अपना जीवनयापन करना चाहती थीं.
एक बात सोचसोच कर अशोक काफी परेशान रहता था कि उस की बहनों ने ससुराल में आखिर ऐसा क्या किया कि उन के पतियों ने उन्हें त्याग दिया. जबकि वह बहनों के स्वभाव से भलीभांति परिचित था. फिर उन के बीच ऐसी क्या बात हुई, यही जानने के लिए अशोक ने दोनों बहनों से बात की.
बहनों ने ईमानदारी से भाई को सब कुछ सचसच बता दिया. दोनों बहनों के सोशल एक्टिविस्ट होने वाली बात भाई अशोक को पहले से पता थी. अपनीअपनी ससुराल में रहते हुए कलावती और मलावती गृहस्थी संभालने के बावजूद दिल से समाजसेवा का भाव नहीं निकाल सकी थीं.
ससुराल में कुछ दिनों तक तो दोनों बहनें घूंघट में रहीं. लेकिन जल्दी ही घूंघट के पीछे उन का दम घुटने लगा. ये बहनें स्वच्छंद और स्वतंत्र विचारों वाली, न्याय के लिए संघर्ष करने वाली जुझारू महिलाएं थीं. वे जिस पेशे से जुड़ी हुई थीं, उस के लिए उन का घर की दहलीज से बाहर निकलना बहुत जरूरी था.
जब कलावती और मलावती घर से बाहर होती थीं तो उन्हें घर वापस लौटने में काफी देर हो जाया करती थी. दोनों के पतियों को उन का देर तक घर से बाहर रहना कतई पसंद नहीं था, उन का कामकाज भी. पति उन्हें समझाते थे कि वे समाजसेवा का अपना काम छोड़ दें और घर में रह कर अपनी गृहस्थी संभालें. समाजसेवा करने के लिए दुनिया में बहुत लोग हैं.
पतियों के साथ ही सासससुर भी उन के काम से खुश नहीं थे. वे उन के काम की तारीफ करने या उन की मदद करने के बजाय उन का विरोध करते थे. धीरेधीरे ससुराल वाले उन के कार्यों का विरोध करने लगे. उन की सोच में टकराव पैदा होता गया. कलावती और मलावती समाजसेवा के काम से पीछे हटने को तैयार नहीं थीं.
पतियों ने इस बात को ले कर ससुर जयदेव ततमा और साले अशोक से भी कई बार शिकायतें कीं. इस पर अशोक और उस के पिता ने कलावती और मलावती को काफी समझाया, पर अपनी जिद के आगे दोनों बहनों ने उन की बात भी नहीं मानी.
27 जून, 2018 की उमस और गरमी भरी सुबह थी. इंसान तो इंसान, जानवरों तक की जान हलकान थी. बिहार के पूर्णिया जिले के थाना जलालगढ़ क्षेत्र के रामा और विनय नाम के दोस्तों ने तय किया कि वे बिलरिया ताल जा कर डुबकी लगाएंगे. वैसे भी वे दोनों रोजाना अपने मवेशियों को बिलरिया ताल के नजदीक चराने ले जाते थे.
रामा और विनय जलालगढ़ पंचायत के गांव चकहाट के रहने वाले थे. उन के गांव से बिलरिया ताल 2 किलोमीटर दूर था. ताल के आसपास घास का काफी बड़ा मैदान था. चरने के बाद मवेशी गरमी से राहत पाने के लिए ताल में घुस जाते थे. फिर वह 2-3 घंटे बाद ही ताल से बाहर निकलते थे. उस दिन जब उन के मवेशी ताल में घुसे तो दोनों दोस्त यह सोच कर घर की ओर लौटने लगे थे कि 2-3 घंटे बाद आ कर मवेशियों को ले जाएंगे.
रामा और विनय ताल से घर की ओर आगे बढ़े ही थे कि तभी रामा की नजर ताल के किनारे के झुरमुट की ओर चली गई. झुरमुट के पास 2 लाशें पड़ी थीं. उत्सुकतावश वे लाशों के पास पहुंचे तो दोनों के हाथपांव फूल गए. दोनों लाशों के सिर कटे हुए थे और वे लाशें महिलाओं की थीं. यह देख कर दोनों चिल्लाते हुए गांव की तरफ भागे. गांव में पहुंच कर उन्होंने लोगों को बिलरिया ताल के पास 2 लाशें पड़ी की बात बताई.
उन की बातें सुन कर गांव वाले लाशों को देखने के लिए बिलरिया ताल के पास पहुंचे. जरा सी देर में वहां गांव वालों का भारी मजमा जुट गया. यह खबर गांव के रहने वाले अशोक ततमा के बेटे मनोज कुमार ततमा को हुई तो वह भी दौड़ादौड़ा बिलरिया ताल जा पहुंचा.
दरअसल, 4 दिनों से उस की 2 सगी बुआ कलावती और मलावती रहस्यमय तरीके से गायब हो गई थीं. वे 23 जून की दोपहर में घर से जलालगढ़ बाजार जाने के लिए निकली थीं. 4 दिन बीत जाने के बाद भी वे दोनों घर नहीं लौटीं तो घर वालों को उन्हें ले कर चिंता हुई. उन का कहीं पता नहीं चला तो 24 जून को मनोज ने जलालगढ़ थाने में दोनों की गुमशुदगी की सूचना दे दी थी.
बहरहाल, यही सोच कर मनोज मौके पर जा पहुंचा. वह भीड़ को चीरता हुआ झाडि़यों के पास पहुंचा तो कपड़ों से ही पहचान गया कि वे लाशें उस की दोनों बुआ की हैं. लाशों को देख कर मनोज दहाड़ मार कर रोने लगा था.
इसी बीच गांव का चौकीदार देव ततमा भी वहां पहुंच गया था. उस ने जलालगढ़ थाने के एसओ मोहम्मद गुलाम शहबाज आलम को फोन से घटना की सूचना दे दी. सूचना मिलते ही एसओ आलम मयफोर्स आननफानन में बिलरिया ताल रवाना हो गए. एसएसआई वैद्यनाथ शर्मा, एसआई अनिल शर्मा, कांस्टेबल अवधेश यादव, अशोक कुमार मेहता, जयराम पासवान और उपेंद्र सिंह उन के साथ थे.
एसओ मोहम्मद आलम ने बारीकी से लाशों का मुआयना किया. दोनों लाशें क्षतविक्षत हालत में थीं. लग रहा था जैसे लाशों को जंगली जानवरों ने खाया हो. लाशों के आसपास किसी तरह का कोई सबूत नहीं मिला. पुलिस आसपास की झाडि़यों में लाशों के सिर तलाशने लगी. लेकिन सिर कहीं नहीं मिले.
इस का मतलब था कि हत्यारों ने दोनों की हत्या कहीं और कर के लाशें वहां छिपा दी थीं. कातिल जो भी थे, बड़े चालाक और शातिर किस्म के थे. मौके पर उन्होंने कोई सबूत नहीं छोड़ा था. पुलिस के लिए थोड़ी राहत की बात यह थी कि लाशों की शिनाख्त हो गई थी.
इस के बाद एसओ मोहम्मद आलम ने एसपी विशाल शर्मा और एसडीपीओ कृष्णकुमार राय को घटना की सूचना दे दी थी. उन्होंने घटनास्थल का मुआयना किया तो जिस स्थान से लाशें बरामद की गई थीं, वह इलाका उन के थाना क्षेत्र से बाहर का निकला. वह जगह थाना कसबा की थी. लिहाजा उन्होंने इस की सूचना कसबा थाने के एसओ अरविंद कुमार को दे दी.
एसओ कसबा अरविंद कुमार पुलिस टीम के साथ मौके पर जा पहुंचे. लेकिन उन्होंने भी उस जगह को अपना इलाका होने से साफ मना कर दिया. इलाके को ले कर दोनों थानेदारों के बीच काफी देर तक बहस होती रही.
तब तक एसपी विशाल शर्मा और एसडीपीओ कृष्णकुमार राय भी मौके पर जा पहुंचे. दोनों अधिकारियों के हस्तक्षेप और मौके पर बुलाए गए लेखपाल की पैमाइश के बाद घटनास्थल कसबा थाने का पाया गया. एसपी शर्मा के आदेश पर थानेदार अरविंद कुमार ने मौके की काररवाई निपटा कर दोनों लाशें पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भिजवा दीं.
चूंकि कलावती और मलावती की गुमशुदगी जलालगढ़ थाने में दर्ज थी, इसलिए जलालगढ़ एसओ मोहम्मद आलम ने यह मामला कसबा थाने को स्थानांतरित कर दिया. एसओ अरविंद कुमार ने अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302, 120बी के तहत मुकदमा दर्ज कर आगे की छानबीन शुरू कर दी.
चूंकि बात 2 सामाजिक कार्यकत्रियों की हत्या से जुड़ी थी, इसलिए यह मामला मीडिया में भी खूब गरमाया. पुलिस पर जनता का भारी दबाव बना हुआ था. पुलिस की काफी छीछालेदर हो रही थी. एसपी विशाल शर्मा ने एसडीपीओ कृष्ण कुमार राय के नेतृत्व में एक टीम गठित की.
इस टीम में जलालगढ़ के एसओ मोहम्मद गुलाम शहबाज आलम, थाना कसबा के थानेदार अरविंद कुमार, मुफस्सिल थाने के एसओ प्रशांत भारद्वाज, तकनीकी शाखा प्रभारी एसएसआई जलालगढ़ वैद्यनाथ शर्मा, एसआई अनिल शर्मा, कांस्टेबल अवधेश यादव, अशोक कुमार मेहता, जयराम पासवान और उपेंद्र सिंह को शामिल किया गया.
एसडीपीओ कृष्णकुमार राय ने घटना की छानबीन की शुरुआत मृतकों के घर से की. मनोज से पूछताछ पर जांच अधिकारियों को पता चला कि कलावती और मलावती दोनों पतियों द्वारा त्यागी जा चुकी थीं. पतियों से अलग हो कर दोनों मायके में ही रह रही थीं.
मायके में रह कर दोनों सोशल एक्टिविस्ट का काम कर रही थीं. कलावती और मलावती की नजरों पर गांव के कई ऐसे असामाजिक तत्व चढ़े थे, जिन के क्रियाकलाप से लोग परेशान थे. उन में 4 नाम वीरेंद्र सिंह उर्फ हट्टा, लक्ष्मीदास उर्फ रामजी, बुद्धू शर्मा और जितेंद्र शर्मा शामिल थे. दोनों बहनों ने इन चारों पर कई बार मुकदमा दर्ज करा कर उन्हें जेल भी भिजवाया था.
जांच अधिकारियों को यह समझते देर नहीं लगी कि कलावती और मलावती की हत्या के पीछे इन्हीं चारों का हाथ है. फिलहाल पुलिस के पास उन के खिलाफ कोई ऐसा ठोस सबूत नहीं था, जिसे आधार बना कर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता. उन पर नजर रखने के लिए जांच अधिकारी ने मुखबिरों को लगा दिया कि वे कहां जाते हैं, किस से मिलते हैं, क्याक्या करते हैं?
इधर एसओ कसबा अरविंद कुमार ने दोनों बहनों के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाई और केस को समझने में जुट गए थे. काल डिटेल्स में कुछ ऐसे नंबर मिले, जो संदिग्ध थे. उन नंबरों से कलावती और मलावती देवी को कई दिनों से लगातार फोन किए जा रहे थे. पुलिस ने उन संदिग्ध नंबरों की पड़ताल की तो वे नंबर मृतका के गांव चकहाट के रहने वाले वीरेंद्र सिंह उर्फ हट्टा और लक्ष्मीदास उर्फ रामजी के निकले.
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और गोंडा में तैनात 2 महिला कांस्टेबलों द्वारा लिंग परिवर्तन के लिए मुख्यालय से अनुमति मांगना विभाग में चर्चा का विषय बन चुका था. इतना ही नहीं हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाली महिला सिपाहियों ने अपने आवेदन को संवैधानिक अधिकार बताया. इस तरह की मांग करने वाली गोरखपुर और गोंडा के अलावा सीतापुर और अयोध्या की भी 2 सिपाही हैं.
चारों ने पहले डीजी औफिस में अरजी दे कर जेंडर बदलवाने के लिए अनुमति भी मांग चुकी हैं. महिलाओं की अरजी जब उच्चाधिकारियों के पास पहुंची, तब वे भी हैरान हो गए.
अयोध्या की ऐसी महिला सिपाही ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया कि उस का उत्तर प्रदेश पुलिस में साल 2019 में सेलेक्शन हुआ था. उस की पहली तैनाती गोरखपुर थी. लिंग परिवर्तन के लिए वह फरवरी से दौड़ रही है. उस ने बताया कि गोरखपुर में वह एसएसपी, एडीजी फिर डीजी मुख्यालय तक जा चुकी है. उन्हीं में एक नीलम भी है. उस ने अपने भीतर मर्दानापन के एहसास के चलते हुए कई चौंकाने वाली बातें भी बताईं.
कहानी उत्तर प्रदेश पुलिस की महिला सिपाही नीलम की है. उस की पहली तैनाती उत्तर प्रदेश के जिला गोरखपुर में हुई थी. उस ने पुलिस में भरती की सभी परीक्षाएं पास की थीं. लिखित परीक्षा से ले कर फिजिकल तक. शारीरिक जांच परीक्षा में उस ने दूसरे प्रतियोगियों की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन किया था. चाहे ग्राउंड के 4 चक्कर लगाने की परीक्षा हो या फिर लौंग जंप और हाई जंप, सभी में एक सधे हुए एथलीट की तरह उस ने फिजिकल परीक्षा लेने वाले पुलिस अधिकारी को हैरान कर दिया था.
तब उन के मुंह से अनायास निकल पड़ा था, ”वाह! तुम्हें तो ओलंपिक में जाना चाहिए था.’‘
जवाब में वह सिर्फ यही बोल पाई थी, ”छोटे गांव शहर वाले को पूछता कौन है साहबजी. सिपाही की यही नौकरी मिल जाए, बहुत है मेरे लिए.
यह 2019 बात की है. अयोध्या की रहने वाली नीलम का उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबल के पद पर सेलेक्शन हो गया था. उस की पहली तैनाती गोरखपुर में हुई थी. ड्यूटी पर नीलम के मिजाज और हावभाव दूसरी महिला सिपाहियों से कुछ अलग थे. बोलचाल, चालढाल, उठनेबैठने का स्टाइल उसे सामान्य लड़की से अलग करता था.
वह एकदम अलग दिखती थी. चाहे ड्यूटी पर पुलिस की पुरुष वाली वरदी में हो या फिर घरपरिवार में. सामान्य जीवन में उसे मर्दों वाले कपड़े ही पसंद आते थे. जींसपैंट, शर्ट टीशर्ट उस की खास पोशाक थी. मेकअप सुंदर दिखने के लिए नहीं, बल्कि चेहरे की साफसफाई के लिए करती थी.
उस की आवाज भले ही महीन हो, लेकिन बोलने का लहजा औरत की आवाज से एकदम अलग था. खास तरह की खनक. एकदम स्पष्ट और तने हुए शब्दों में सटीक बातें करने की शैली. अपने अधिकारियों को अदब के साथ सरनेम से बुलाना. पुरुष सिपाहियों और अधिकारियों को मिस्टर सिंहजी और मिस्टर पांडे साहब या मिस्टर यादवजी कहना आदि बातें उसे औरों से अलग करने के लिए काफी थीं. कानूनी धाराएं तो उस की जुबान पर रहती थीं.
बहुत जल्द ही वह अपने थाने के स्टाफ के बीच लोकप्रिय हो गई थी. साथ काम करने वाले सिपाही से ले कर अधिकारी तक उस की तारीफ करते थे और वह उन के लिए एक मिसाल थी. अधिकारियों द्वारा उस की अनुपस्थिति में गाहेबगाहे उन की खूबियों की चर्चा होती थी.
इस के बावजूद नीलम खुद को असहज महसूस करती थी. खासकर जब से उस ने पुलिस की वरदी पहनी और ड्यूटी जौइन की, तब से उस में अलग तरह के बदलाव आ गए थे. घरपरिवार और दूसरे लोग भी कहने लगे थे. खासकर उस की सहेलियां और रिश्तेदारी में लड़कियां बोलती थीं, ”तू तो बहुत बदल गई पुलिस बन कर!’‘
बुलेट पर बैठी नीलम यह सुन कर हेलमेट पहनती हुई सिर्फ मुसकरा दी थी. उन्हें एक तीखी नजर से देखती हुई, तुरंत बाइक का गियर बदल कर एक्सेलेटर घुमा दिया था. बाइक की तेजी से घुरघुराती हुई घर्रघर्र और फटफट की भारी आवाज सुन दूर खड़े लड़के भी देखने लगे थे. चंद सेकेंड बाद वे बुलट पर जाती नीलम को देख रहे थे…आहें भर रहे थे.
सैक्स चेंज कराने की जिद पर अड़ गई नीलम
साल 2023 की जनवरी का महीना था. नीलम यूपी पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक (एडीजी) रैंक के एक अधिकारी के सामने दोनों हाथ जोड़े खड़ी थी. विनम्रता के साथ बोली, ”साहबजी, मैं ने एक एप्लीकेशन दी थी, उस का क्या हुआ?’‘
”क्या नाम है तुम्हारा?’‘ अधिकारी ने फाइलें पलटते हुए पूछा.
”जी, साहबजी क…क..नीलम!’‘ अटकती हुई बोली.
”पूरा नाम बोलो, पूरा.’‘
”जी, नीलम सिंह साहबजी!’‘
”अच्छा तो तू वही लड़की है, जेंडर डिस्फोरिया वाली कांस्टेबल!’‘ पुलिस अधिकारी बोले.
”जी साहबजी, सही पहचाना आप ने. क्या हुआ मेरी एप्लीकेशन का, कोई जवाब आया क्या?’‘
”जवाब? कैसा जवाब चाहिए तुम्हें? मनमरजी है क्या? नौकरी पाओ फीमेल बन कर और जब मिल जाए तब मर्द बनने की गुहार लगाओ, फिर प्रमोशन…!’‘ पुलिस अधिकारी ने कहा.
”लेकिन साहबजी, आप मेरी समस्या को समझिए. मैं कितनी उलझन में हूं. कितनी तकलीफ में हूं इसे भी तो समझिए,’‘ नीलम बोली.
”क्या समझूं मैं? जब तुम्हें पता था कि तुम्हारे शरीर में मर्दानापन है, मेल के लक्षण हैं, तब सैक्स चेंज पहले करवा लेती. फिर नौकरी का आवेदन करती.’‘
”तब तक इतना नहीं पता था सर, नौकरी लगे 3 साल हो गए. कोरोना आ गया. 2 साल तो उसी में निकल गए. तब कहां मालूम था कि आगे चल कर जीना मुश्किल जो जाएगा.’‘
”तुम्हारा जीना मुश्किल? अरे तुम ने तो एप्लीकेशन दे कर यूपी पुलिस को मुश्किल में डाल दिया है,’‘ एडीजी बोले.
”मैं ने क्या किया है सर, हम ने तो अपनी समस्या बताई और कहा कि इस हाल में ड्यूटी निभाने में परेशानी है. अगर मेरे आपरेशन करवा देने से बात बन जाती है तो हर्ज क्या है?’‘ नीलम बोली.
तब तक एडीजी साहब अपने सामने कुछ और डाक्यूमेंट निकाल चुके थे. उन में एक तो नीलम की एप्लीकेशन थी, जिस पर विभाग के कई पुलिस अधिकारियों के दस्तखत थे. उस के साथ कुछ अनुशंसा पत्र थे. नीलम के अलावा कई और सिपाही भी थीं, जो अपना जेंडर चेंज कराना चाहती थीं.
2 पन्ने के दूसरे डाक्यूमेंट को उठा कर पढ़ने के बाद बोले, ”यह रही तुम्हारी एप्लीकेशन की काररवाई की रिपोर्ट. तुम्हारी एप्लीकेशन के आधार को किंग जार्ज मैडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ को विभाग ने लिखा था. उस का जवाब आया है.’‘
”क्या कहा है मैडिकल वालों ने? मेरी जांच के लिए कब बुलाया है?’‘ नीलम उत्सुकता से बोली.
”जांच के लिए बुलावा! सपना देख रही हो!… इस में लिखा है कि अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, चिकित्सा से पहले कानूनी राय लेनी होगी. महिलाओं और लैंगिक मुद्दे का मामला है.’‘ पुलिस अधिकारी ने कहा.
”इस का मतलब अभी कुछ नहीं हुआ है मेरी रिक्वेस्ट का?’‘ नीलम बोली.
”कैसे कुछ नहीं हुआ है? विभाग के अपने नियम हैं. अस्पताल के अपने. दोनों के बीच तालमेल बिठाने पर ही तो कुछ होगा.’‘
”वह कब तक होगा?’‘ नीलम ने उत्सुकता दिखाई.
”देखो, तुम जितना आसान समझती हो, उतना है नहीं. तुम्हारी नौकरी महिला कांस्टेबल के पद पर लग चुकी है. ऐसे में कई नियमों को लांघना पड़ेगा.’‘ एडीजी ने समझाने की कोशिश की.
”विभाग से कोई मदद नहीं मिलेगी?’‘
”विभाग इस में जो कर सकता है कर रहा है. पत्राचार किया जा रहा है. इस समस्या की तुम अकेली कांस्टेबल नहीं हो. एक और गोंडा थाने की कांस्टेबल का मामला भी है. तुम दोनों कांस्टेबलों ने लिंग परिवर्तन की अनुमति के लिए आवेदन किया है. तुम लोगों ने विभिन्न कारणों का उल्लेख किया है. किंतु…’‘
एडीजी के बोलने के क्रम में नीलम बीच में ही बोल पड़ी, ”किंतु परंतु क्यों करते हैं साहबजी, आप के हाथों में ही तो सब कुछ है.’‘
”पहले तुम विभागीय बात को समझने की कोशिश करो. लिंग परिवर्तन की अनुमति देने में मुख्य समस्या यह है कि यदि सर्जरी के बाद उन्हें पुरुष कांस्टेबल माना जाता है तो उस के लिए पुरुष कांस्टेबलों के लिए आवश्यक अन्य शारीरिक मानदंड कैसे मेल खाएंगे? पुरुष और महिला वर्ग के लिए ऊंचाई, दौड़ने की क्षमता और कंधे की ताकत जैसे अलगअलग शारीरिक मानदंड हैं,’‘ एडीजी बोले.
”क्या आप को नहीं मालूम कि महाराष्ट्र में एक कांस्टेबल ललिता का सैक्स चेंज ड्यूटी पर रहते हुए किया जा चुका है. तो फिर मेरा क्यों नहीं?’‘ नीलम ने उदाहरण और तर्क दिया.
”हर राज्य के कुछ अपने नियम भी होते हैं. यूपी पुलिस में पुरुषों और महिलाओं के लिए भरती मानदंडों का सख्ती से पालन किया जाता है और महिला मानदंड के तहत नौकरी पाने के बाद लिंग बदलना मानदंडों की अवहेलना होगी.’‘ एडीजी बोले.
इस पर नीलम उदास हो गई. निराश मन से वापस गोरखपुर लौट आई, किंतु शांत नहीं बैठी.
नीलम ने एक वकील से संपर्क किया और इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपनी समस्या को ले कर याचिका दायर कर दी. वकील ने याचिका में महिला सैक्स चेंज को ले कर कुछ उदाहरणों के डाक्यूमेंट भी लगा दिए. नीलम ने याचिका मे सैक्स चेंज करवाने की अनुमति मांगी.
यूपी की राज्य पुलिस के सामने इस तरह का पहला मामला आया था. सुनवाई के क्रम मे कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लेते हुए यूपी पुलिस से सवालजवाब किए. यूपी पुलिस अपना तर्क रखते हुए बोली कि महिला पुलिस के रूप में भरती होने के बाद कांस्टेबलों को अपना लिंग बदलने की अनुमति कैसे दे सकते हैं.
इस के जवाब में अदालत ने मुख्यालय से महिला कांस्टेबल के अनुरोध पर योग्यता के आधार पर पुनर्विचार करने और भविष्य में दोबारा सामने आने वाले ऐसे ही मामलों के लिए कुछ मानदंड तैयार करने को कहा.
आखिर कब पूरी होगी इन की इच्छा
इस कहानी के लिखे जाने तक उत्तर प्रदेश पुलिस के शीर्ष अधिकारी दुविधा में फंसे हुए थे. गोरखपुर और गोंडा में तैनात 2 महिला सिपाहियों द्वारा लिंग परिवर्तन के लिए मुख्यालय से अनुमति मांगना विभाग में चर्चा का विषय बन चुका था.
इतना ही नहीं हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाली महिला सिपाही ने अपने आवेदन को संवैधानिक अधिकार बताया. इस तरह की मांग करने वाली गोरखपुर और गोंडा के अलावा सीतापुर और अयोध्या की भी 2 सिपाही हैं.
चारों पहले डीजी औफिस में अरजी दे कर जेंडर बदलवाने के लिए अनुमति भी मांग चुकी हैं. महिलाओं की अरजी जब उच्चाधिकारियों के पास पहुंची, तब वे भी हैरान हो गए. महिला सिपाहियों की अरजी को देखते हुए चारों जिलों में पुलिस अधीक्षकों को डीजी औफिस की ओर से पत्र लिख कर उन की काउंसलिंग कराने के लिए कहा गया.
अयोध्या की ऐसी महिला सिपाही ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया कि उस का उत्तर प्रदेश पुलिस में साल 2019 में सेलेक्शन हुआ था. उस की पहली तैनाती गोरखपुर थी. लिंग परिवर्तन के लिए वह फरवरी से दौड़ रही हैं. उस ने बताया कि गोरखपुर में वह एसएसपी, एडीजी फिर डीजी मुख्यालय तक जा चुकी है.
उन्हीं में एक नीलम भी है. उस ने अपने भीतर मर्दानापन के एहसास के चलते हुए कई चौंकाने वाली बातें भी बताईं. पुलिस विभाग में पुरुष बनने के सवाल पर अधिकारियों को उस ने बताया कि पढ़ाई के दौरान ही उस के हारमोंस चेंज होने लगे थे. इस के बाद से ही उन का जेंडर बदलवाने की इच्छा होने लगी.
सब से पहले उस ने दिल्ली में एक बड़े डाक्टर से कई चरणों में काउंसलिंग करवाई थी. डाक्टर ने जांचपड़ताल के बाद उस का जेंडर डिस्फोरिया बताया. डाक्टर की रिपोर्ट के आधार पर ही उस ने लिंग बदलवाने की अनुमति मांगी है.
नीलम ने यह भी बताया कि उस का स्टाइल पुरुष जैसा है. वह पुरुष जैसा दिखना ही नहीं, उसी तरह की जिंदगी जीना चाहती है. फिलहाल वह बाल और पहनावे पुरुषों की तरह रखती है. बाइक से चलना पसंद है. पैंटशर्ट पहनना सहज लगता है.
उस ने बताया कि जब वह स्कूल जाती थी, तभी से उसे लड़कियों की तरह काम करना अटपटा लगता था. स्कूल में उस की चालढाल की वजह से कई लोग उसे लड़का कहते थे, जो उसे बहुत अच्छा लगता था. बहरहाल, अब देखना यह है कि इन पुलिसकर्मियों की सैक्स चेंज कराने की इच्छा कब पूरी होगी?
महिला सिपाही ललिता से बनी ललित
महाराष्ट्र पुलिस की कांस्टेबल ललिता साल्वे राज्य की पहली महिला सिपाही थी, जिसे सैक्स चेंज करवाने की लंबी कानूनी प्रक्रिया और जटिल इलाज के दौर से गुजरना पड़ा था. उस ने अपने औपरेशन के लगभग 4 साल पहले शरीर में परिवर्तन देखे थे और डाक्टरी परीक्षण कराया था.
उस के बाद बाद महाराष्ट्र पुलिस ने लिंग परिवर्तन सर्जरी की सलाह दी थी. उस का आपरेशन 2017 में किया गया था और उसी साल 25 मई को ललिता से ललित बनने का सफर खत्म हो गया था.
महाराष्ट्र पुलिस का यह अनोखा मामला 29 साल की महिला कांस्टेबल ललिता साल्वे का था. उस की 2009 में महाराष्ट्र पुलिस में नियुक्ति हुई थी. उस की पोस्टिंग बीड थाने में हुई थी. उस ने नौकरी करते कुछ समय बाद ही महसूस किया कि वह लड़के के रूप में ज्यादा बेहतर काम कर सकती है.
इस बारे में उस ने डाक्टरी जांच करवाई, तब मालूम हुआ कि जेंडर आइडेंटिटी डिसऔर्डर से प्रभावित है. उसे सही और अच्छी जिंदगी गुजारनी है तो उस के लिए सेक्स चेंज कराना अच्छा रहेगा.
इस सलाह को ललिता ने अपने घर वालों को बताया और उन से सहयोग मांगा. इस में परिवार ने पूरा सपोर्ट किया. उस के बाद ही ललिता ने अपने विभाग के अधिकारियों और डीजीपी स्टेट डेप्यूटी जनरल सतीश माथुर से सैक्स चेंज सर्जरी की अनुमति मांगी थी. साल्वे ने यह भी कहा था कि वह सर्विस में बनी रहना चाहती है.
तब अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक राजेंद्र सिंह ने कहा कि महाराष्ट्र पुलिस के इतिहास में यह अपनी तरह का पहला मामला है. फिर भी उसे अनुमति नहीं मिली थी.
इसी सिलसिले में साल्वे को ड्यूटी में शामिल होने के बाद एक पुरुष कांस्टेबल को दिए जाने वाले लाभ का भी मसला सामने आया था. साल्वे ने पहले लिंग परिवर्तन सर्जरी कराने के लिए छुट्टी देने के लिए राज्य पुलिस विभाग से संपर्क किया था.
विभाग ने मांग खारिज कर दी थी, क्योंकि पुरुष और महिला कांस्टेबलों के लिए पात्रता मानदंड अलगअलग थे, जिस में ऊंचाई और वजन की आवश्यकताएं भी शामिल थीं. विभागीय अनुमति नहीं मिलने पर ही ललिता ने नवंबर 2017 में मुंबई हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. मांग की थी कि राज्य पुलिस को उन्हें छुट्टी देने के लिए निर्देश जारी किए जाएं.
1988 में जन्मी साल्वे ने एक याचिका में बौंबे हाईकोर्ट को बताया था कि उस ने लगभग 4 साल पहले अपने शरीर में परिवर्तन देखा था और डाक्टरी जांच कराई थी, जिस में उस के शरीर में वाई क्रोमोसोम की उपस्थिति की पुष्टि हुई थी.
जहां पुरुषों में एक्स और वाई सैक्स क्रोमोसोम होते हैं, वहीं महिलाओं में 2 एक्स क्रोमोसोम होते हैं. डाक्टरों ने कहा था कि उसे लिंग डिस्फोरिया है और उसे लिंग परिवर्तन सर्जरी कराने की सलाह दी थी.
इस पर कोर्ट ने पुलिस को पत्र लिखा था. सभी कानूनी आधार को देखते हुए बीड के एसपी जी. श्रीधर ने भी इस की पुष्टि करते हुए लिखा कि उन्हें महिला कांस्टेबल की याचिका के संबंध में जवाब दिए और सैक्स चेंज की अनुमति मिली. सर्जरी के लिए अपनी चिकित्सीय फिटनेस स्थापित करने के लिए साल्वे को एक्सरे स्कैन, इलैक्ट्रोकार्डियोग्राफी (ईसीजी) जांच और रक्त परीक्षण जैसी कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा था.