Bijnor News : जिस प्रेमी ने प्रेमिका के लिए प्लौट का नौमिनी बनाया, उसी ने ही ले ली प्रेमी की जान

Bijnor News : मुसकान और शारिक एकदूसरे से दिली मोहब्बत करते थे, ऐसी मोहब्बत कि शारिक ने मुसकान को अपने प्लौट का नौमिनी तक बना दिया था. एक मामले में शारिक के जेल जाने के बाद मुसकान ने उस के जिगरी दोस्त अनस से नजदीकियां बढ़ा लीं. इन दोनों की दोस्ती में फांस बनी मुसकान ने आखिर एक दिन…

दोपहर करीब एक बजे का समय था. मुसकान खाना खाने के बाद घर पर आराम कर रही थी. उस की नजर घड़ी पर गई तो बिस्तर से उठ कर फटाफट तैयार होने लगी. उस ने धानी रंग का टौप और काले रंग की स्किन टाइट जींस पहनी तो उस का खूबसूरत बदन और भी खूबसूरत लगने लगा. कपड़े पहनने के बाद जब उस ने आइने में अपने आप को निहारा तो खुशी से फूली नहीं समाई. यह उस की आदत में भी शुमार था कि रोज आइने के सामने अपने संगमरमरी बदन को देख कर एक बार दिल से मुसकराती थी. वह तैयार हो कर घर से उस स्थान की तरफ निकल गई, जहां वह रोज अपने प्रेमी शारिक उर्फ शेट्टी से मिलती थी. जब वह उस स्थान पर पहुंची तो शारिक वहां पहले से बैठा था. वह बेसब्री से उसी का इंतजार कर रहा था.

मुसकान चुपचाप शारिक के पीछे पहुंची और उस की आंखों को अपने हाथों से बंद कर लिया. यह देख कर पहले तो शारिक हड़बड़ाया लेकिन मुसकान के हाथों को छू कर वह जान गया कि वह कोई और नहीं बल्कि उस की मुसकान है. उस ने मुसकान के हाथों को अपनी आंखों से हटाया तो वह उस के सामने आ कर खड़ी हो गई. उस की खूबसूरती देख शारिक की आंखों में अलग तरह की चमक आ गई.

‘‘क्या बात है मुसकान, आज तो तुम बिजली गिरा रही हो.’’

‘‘धत्त! लगता है, आज तुम ने मुझे बेवकूफ बनाने का इरादा कर रखा है.’’

‘‘नहीं मुसकान, मैं तुम्हें बेवकूफ नहीं बना रहा. तुम तो हीरा हो और हीरे की चमक को सिर्फ जौहरी ही जान सकता है.’’

‘‘अच्छा जौहरी साहब, आप ने इस हीरे की पहचान कर ली हो तो अब जरा यह भी बता दीजिए कि यह हीरे की चमक है या कुछ और…’’ मुसकान उस से नजरें मिलाते हुए बोली.

‘‘यह खूबसूरती और चमक खालिस हीरे की ही हो सकती है. लेकिन इस जौहरी ने अगर अपना जौहर हीरे पर दिखा दिया तो इस हीरे की खूबसूरती और चमक दोगुनी हो जाएगी.’’ शारिक ने मुसकान की आंखों में आंखें डाल कर प्यार से कहा तो मुसकान को भी उस की बात की गहराई समझते देर नहीं लगी. मुसकान अपनी पलकें झुकाते हुए बोली, ‘‘इस हीरे की चाहत सिर्फ तुम हो.’’ इतना कह कर उस ने आस भरी नजरों से शारिक की तरफ देखा तो वह मुसकरा रहा था. शारिक ने मुसकान का हाथ अपने हाथों में लिया और बड़े विश्वास के साथ बोला, ‘‘मुसकान, हम दोनों की चाहत जरूर पूरी होगी.’’

शारिक के प्यार के जुनून को देख कर मुसकान खुश हो गई. मुसकान उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर के थाना नगीना देहात के गांव हरजानपुर में रहने वाले नाजिम की बेटी थी. उस के 2 भाई थे, जो दूसरे शहर में काम करते थे. मुसकान परिवार में इकलौती बेटी थी, इसी नाते उसे घर में ज्यादा लाड़प्यार मिला. इसी प्यार दुलार ने मुसकान को बेलगाम बना दिया था. घर में मिली खुली छूट से वह बेपरवाह हो गई थी. मुसकान खूबसूरत थी. इस का इल्म उसे तब होता, जब वह आइने के सामने खड़ी होती. अपने आप को आइने में देख कर वह किसी हीरोइन से कम नहीं समझती थी. शुरू में तो मुसकान का मन पढ़ाई में खूब लगा, लेकिन जैसे ही उस के बदन पर सोलहवें साल का यौवन उतरा, पढ़ाई से उस का मन उचट गया और वह सतरंगी सपनों की दुनिया में खोई रहने लगी.

मुसकान में भी दूसरी लड़कियों की तरह अच्छे रहनसहन की ललक थी. वह एक सामान्य परिवार से जरूर थी लेकिन पूरी जिंदगी सुख और खुशी से गुजारना चाहती थी. बिजनौर के मोहल्ला भाटान कुम्हारों वाली गली में शमीम रहते थे. उन के 5 बेटे और एक बेटी थी. बेटी का विवाह हो चुका था. शमीम के सभी बेटे कमाखा रहे थे सिवाय शारिक के. शारिक चौथे नंबर का बेटा था. उसे सीधे तरीके से पैसे कमाना अच्छा नहीं लगता था. उसे अपराध की दुनिया लुभाती थी, जिस में एक झटके में मालामाल हो जाने के रास्ते थे. जैसी चाहत हो, इंसान वैसी ही संगत ढूंढता है. शारिक ने भी अपराध की दुनिया में कदम रखा तो उस के दोस्त भी वैसे ही बन गए. वह आपराधिक वारदातों में शरीक हुआ तो शमीम ने शारिक से किनारा कर लिया.

शारिक ने भी घर जाना बंद कर दिया. वह यारदोस्तों के साथ रहता. जब कभी जेल जाता तो उस के यारदोस्त ही उस की जमानत करा देते. वर्तमान में शारिक पर शहर कोतवाली में ही 7 मुकदमे दर्ज थे. शारिक का हरजानपुर गांव जाना होता था, वहीं उस का एक परिचित रहता था. वहां आनेजाने के दौरान शारिक की मुलाकात मुसकान से हुई थी. इस के बाद दोनों में दोस्ती हो गई. दोनों जबतब मिलने लगे. दिन में मुसकान घर पर अकेली होती थी. इसलिए वह उस के घर पर मिलने आने लगा. इन मुलाकातों में उसे पता चल गया कि मांबाप के काम पर जाने के बाद वह घर में अकेली रहती है. यह जान कर तो उसे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई.

अब वह उसी समय उस के घर जाता, जब वह घर में अकेली होती. उस से खूब बातें करता, घुमाने ले जाता और उस की पसंद की चीजें खिलातापिलाता. जिस से मुसकान को भी उस का साथ अच्छा लगने लगा था. एक दिन शारिक जब मुसकान के घर पहुंचा तो मुसकान घर में अकेली थी. वह उसी समय नहा कर निकली थी. उस ने बदन पर सिर्फ एक हलकी मैक्सी डाल रखी थी. बाल गीले थे, इसलिए उसने अपना सिर तौलिए से ढक रखा था. उसी ने दरवाजा खोला. शारिक को उस ने अंदर आने को कहा लेकिन उस ने जैसे सुना ही नहीं, वह तो मुसकान के भीगे रूपसौंदर्य में खो सा गया था. उस का दिल कर रहा था कि वह आगे बढ़े और मुसकान को अपनी बांहों में भर ले.

शारिक की निगाहों का निशाना समझ कर मुसकान मुसकरा कर रह गई. फिर वह उसे झिंझोड़ते हुए बोली, ‘‘क्या बात है, कहां खो गए? अंदर भी आओगे या बाहर से ही लौटना है?’’

शारिक हड़बड़ाया, उस की तंद्रा भंग हुई तो एहसास हुआ कि वह अभी बाहर ही खड़ा हुआ है. वह बोला, ‘‘सौरी, क्या करूं, तुम इस समय कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रही हो, इसलिए तुम्हारे बदन से नजरें हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं.’’

‘‘मजाक मत करो, मैं जानती हूं कि मैं इतनी खूबसूरत नहीं लग रही.’’ मुसकान शारिक के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर झेंप सी गई.

‘‘मैं सच कह रहा हूं मुसकान, तुम खूबसूरत तो हो ही, आज तो कयामत ढा रही हो.’’

घर के अंदर ले गई मुसकान मुसकान उसे ले कर घर के अंदर आ गई. शारिक उस से बोला, ‘‘देखो मुसकान, मेरी बात तुम्हें कुछ अजीब लग सकती है. मगर यह सच है कि पिछले काफी समय से तुम्हारे प्रति मेरी चाहत बढ़ती जा रही है. मुझे तुम से प्यार हो गया है. बताओ क्या तुम्हें मेरा प्यार स्वीकार है?’’

मुसकान ने मुसकराते हुए शारिक के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘‘हां शारिक, मुझे भी तुम से प्यार है. मुझे भी तुम बहुत अच्छे लगते हो.’’ कह कर मुसकान ने नजरें झुका लीं. मगर उस के शब्दों ने शारिक पर जादू सा असर दिखाया था. शारिक ने आगे बढ़ कर मुसकान को अपनी बांहों में भर लिया और दोनों मस्ती में एकदूसरे को बेतहाशा चूमने लगे. जब शारिक हद से आगे बढ़ने लगा तो मुसकान ने अपने तन को बेकाबू होने से रोका, साथ ही शारिक को भी हटा कर अलग कर दिया. वह अपनी धड़कनों और सांसों पर काबू करने का प्रयास करने लगी.

शारिक को यह अच्छा नहीं लगा, लेकिन उस ने बुरा नहीं माना. उस ने सोचा जब आज इतनी हद पार हो गई है तो किसी और दिन बाकी भी हो जाएगा. दूसरी तरफ मुसकान की धड़कनें और सांसें सामान्य स्थिति में आईं तो वह बोली, ‘‘प्लीज शारिक, इतना तक तो ठीक है लेकिन इस के आगे बढ़ने की कभी उम्मीद न करना और न ही कोशिश करना.’’

‘‘ठीक है, लेकिन जब हम प्यार करते हैं, हमारे दिल मिल चुके हैं तो शारीरिक मिलन में क्या दिक्कत है?’’

‘‘नहीं, जब तक मैं इस के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होऊंगी, तब तक ऐसावैसा कुछ नहीं करूंगी.’’

मुसकान ने शारिक को कुछ इस तरह समझाया कि वह बुरा भी न माने और वह उसे अपनी जरूरतों को पूरा करने का जरिया बनाए रखे. शारिक मुसकान की जरूरतों का पूरापूरा खयाल रखने लगा. मुसकान ने जब पूरी तरह से शारिक को अपने ऊपर मेहरबान देखा तो एक दिन उस की चाहत को भी पूरा कर दिया. इस के बाद तो वह उस का पूरी तरह से दीवाना हो गया. मुसकान को बनाया नौमिनी शारिक ने शहर में एक प्लौट खरीद रखा था, दीवानगी में उस ने मुसकान को प्लौट का नौमिनी बना दिया. उस ने नोटरी से प्रमाणित एक शपथपत्र में मुसकान को लिख कर दे दिया कि अगर उसे कुछ हो जाता है तो उस प्लौट की मालकिन मुसकान होगी, वह उसे बेच भी सकती है.

इस शपथपत्र से मुसकान बहुत खुश हुई. खुशी की बात भी थी, क्योंकि वक्तबेवक्त वह प्लौट उस के बहुत काम आ सकता था’ इसी बीच शारिक लंबे समय के लिए जेल चला गया. मुसकान अकेली पड़ गई. शारिक के न होने से उस की शारीरिक और आर्थिक जरूरतें दोनों ही पूरी नहीं हो पा रही थीं. ऐसे में मुसकान की नजर इधरउधर पड़ने लगी. उसे अपनी नजर को दूर तक नहीं ले जाना पड़ा. शारिक का एक जिगरी दोस्त था अनस. अनस शहर कोतवाली के काजीपाड़ा मोहल्ले में रहता था. अनस भी आपराधिक प्रवृत्ति का था. उस पर नगीना देहात थाने में एनडीपीएस ऐक्ट और बाइक चोरी के 2 मुकदमे दर्ज थे.

दोस्ती के कारण हर गलत काम में दोनों एकदूसरे का साथ देते थे. दोनों ही नशे के भी आदी थे. अनस शारिक और मुसकान के प्रेम संबंध से पूरी तरह वाकिफ था. मुसकान भी अनस को बखूबी जानती थी. शारिक के न होने पर वह अनस की ही मदद लेने लगी. जब शारिक ने अनस को पहली बार मुसकान से मिलाया था तो अनस मुसकान को एकटक देखता रह गया था. मुसकान अनस से बड़े प्यार से पेश आने लगी. अपनी आंखों से अनस को उस की चाहत का दीदार कराने की कोशिश करने लगी. बातोंबातों और हंसीमजाक में उस के बदन से चिपकने लगी तो अनस को भी भांपते देर नहीं लगी कि मुसकान का मन बदल रहा है. जो वह चाहता था, उसे हकीकत में होता देख खुशी फूला नहीं समाया.

अब मुसकान की वजह से 2 दोस्तों की गहरी दोस्ती खतरे में आने वाली थी. वैसे भी अपराध की दुनिया में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, मतलब और समय के हिसाब से सब कुछ बदलता रहता है. अनस मुसकान को पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था. एक दिन जब मुसकान उस के कंधे पर सिर रख कर चाहत दर्शाने लगी तो अनस से रहा न गया, वह बोला, ‘‘तुम्हारा तनमन बहुत खूबसूरत है. तुम इतनी प्यारी हो कि तुम्हारी तसवीर मेरे छोटे से दिल में बस गई है. उस तसवीर को मैं हमेशा अपने दिल में बसाए रखना चाहता हूं. ऐसे में मेरा यह जानना जरूरी है कि तुम मेरे दिल और नजरों की चाहत को पूरा करने की तमन्ना रखती हो कि नहीं?’’

मुसकान अनस के खूबसूरत जज्बातों को बड़े ही प्यार से सुनसमझ रही थी. उस की बात सुन कर मुसकान बोली, ‘‘अनस, मैं भी तुम से यहीं कहना चाह रही थी लेकिन बारबार मेरे जज्बात सीने में कैद हो कर रह जाते थे. यह सोच कर कि कहीं तुम मेरे दिल की बात को न समझ पाए तो मैं अंदर से टूट जाऊंगी.

‘‘लेकिन आज तुम्हारी बातें सुन कर मेरे दिल को बहुत सुकून पहुंचा है. हम दोनों के विचार आपस में मिलते हैं, यह जान कर मुझे बेहद खुशी हुई है. मैं भी तुम्हारे साथ जिंदगी बिताने का सपना देख रही थी, जो आज सच हो गया.’’ भावविभोर हो कर मुसकान अनस के सीने से लग गई. मुसकान ने बदल दिया प्रेमी अनस ने भी उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया. इस से दोनों ने राहत की सांस ली और एकदूसरे के प्यार की गरमी को नजदीक से महसूस किया. इस के बाद दोनों के बीच एक बार जो संबंध बने, वह बेरोकटोक बनने लगे. 21 जुलाई की सुबह 6 बजे का समय था. खेतों पर काम करने वाले मजदूर काम पर जाने लगे थे. थाना कीरतपुर क्षेत्र के मोहल्ला अफगानान के पश्चिम में वासित खां के आम के बाग में मजदूरों ने एक चारपाई पर किसी अज्ञात युवक की लाश पड़ी देखी.

मजदूरों ने यह सूचना मोहल्ले वालों को दी. मोहल्ले वालों ने जा कर देखा तो वाकई वहां किसी युवक की लाश पड़ी थी. लाश मिलने की सूचना कीरतपुर थाना पुलिस को दे दी गई. थाना इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. उन्होंने लाश का निरीक्षण किया. मृतक की उम्र करीब 27-28 साल रही होगी. उस के माथे पर 3 गहरे घाव थे, जो किसी धारदार हथियार से किए गए मालूम हो रहे थे. कपड़ों की तलाशी लेने पर मृतक की जेब से जो आधार कार्ड मिला, उस से पता चला कि वह लाश शमीम के बेटे शारिक की है. इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार ने मृतक शारिक के घरवालों को घटना की सूचना भिजवा दी. फिर जरूरी काररवाई कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए मोर्चरी भेज दिया और थाने वापस आ गए.

शारिक के पिता शमीम थाने आए तो उन की तरफ से अज्ञात के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज करा दिया. केस की जांच शुरू करते हुए इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार ने शमीम से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि डेढ़दो साल से शारिक घर नहीं आया था. वह अपने दोस्तों के साथ ही रहता था, जेल जाता था तो पता नहीं कौन लोग उस की जमानत कराते थे. इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार ने शारिक के जमानतदारों व दोस्तों का पता लगाया तो उन में से कुछ नाम शक के घेरे में आए. उन सब की डिटेल्स खंगाली गई तो उन में से अनस नाम के युवक पर उन का शक पुख्ता हो गया. अनस ही वह व्यक्ति था जो शारिक के सब से करीब था. दोनों हर काम साथ करते थे.

घटना वाले दिन की अनस के फोन की लोकेशन शारिक के साथ घटनास्थल की आ रही थी. शारिक और अनस की काल डिटेल्स में एक नंबर कौमन था, जिस पर दोनों की बातें होती थीं, उस नंबर से घटना की रात 12 बजे शारिक के नंबर पर काल भी की गई थी, शारिक ने बात भी की थी. जांच में वह नंबर मुसकान का निकला. शारिक की हत्या में दोनों का हाथ होने के पुख्ता सुबूत मिले तो इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार ने दोनों की गिरफ्तारी के प्रयास शुरू कर दिए. लेकिन दोनों ही घर से गायब थे. 25 जुलाई, 2020 की सुबह करीब सवा 5 बजे इंसपेक्टर सतेंद्र कुमार ने दोनों को मोतीचूर गेट के पास से गिरफ्तार कर लिया. थाने ला कर जब सख्ती से पूछताछ की तो दोनों ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया और हत्या की वजह भी बयां कर दी.

अनस और मुसकान के बीच के संबंध इतने मजबूत हो गए थे कि दोनों निकाह कर के एक साथ रहने की सोचने लगे थे. इन सब में सब से बड़ी अड़चन था शारिक. शारिक घटना से कुछ समय पहले ही एनडीपीएस के एक मामले में जमानत पर जेल से छूटा था. जब से वह आया था, दोनों खुल कर नहीं मिल पा रहे थे. मुसकान को आ गया लालच मुसकान अगर अनस के साथ रहती तो शारिक से मिलने वाला प्लौट उस के हाथ से चला जाता और शारिक भी उस की और अनस की जान का दुश्मन बन जाता. ऐसे में अनस के साथ मिल कर शारिक को ही अपने रास्ते से हटाने की योजना मुसकान ने बना ली.

शारिक के हटने से प्लौट और अनस दोनों ही उसे मिल जाने वाले थे. अनस को भी एक तरफ मुसकान मिलती तो दूसरी तरफ मुसकान की वजह से प्लौट भी उस का हो जाता, इसलिए वह अनस की हत्या करने को तैयार हो गया. दूसरी ओर शारिक को इस बात की भनक तक नहीं थी कि उस की प्रेमिका उस से बेवफाई और दोस्त दगाबाजी करने पर उतर आए हैं. 20-21 जुलाई की रात अनस ने शारिक के साथ शराब पी. उस ने खुद तो कम पी, शारिक को अधिक पिलाई. अनस उसे बातों में लगा कर कीरतपुर के मोहल्ला अफगानान में वासित खां के आम के बाग में ले गया.

रात 12 बजे मुसकान ने फोन किया तो शारिक ने मुसकान से बात की. उस के लगभग एक घंटे बाद नशे में बेसुध हो कर शारिक वहीं पड़ी चारपाई पर लुढ़क गया. अनस ने साथ लाए सब्बल से बेसुध पड़े शारिक के माथे पर 3 प्रहार किए, जिस से उस की मौत हो गई. इस के बाद अनस ने शारिक का मोबाइल जेब से निकाल लिया. फिर सब्बल और शारिक का मोबाइल छिपा कर घर लौट गया. पकड़े जाने के डर से वह मुसकान के साथ घर से फरार हो गया.

लेकिन उन का जुर्म छिप न सका और दोनों कानून की गिरफ्त में आ गए. अनस की निशानदेही पर शारिक का मोबाइल और हत्या में इस्तेमाल सब्बल बरामद कर लिया गया. इस के अलावा पुलिस ने मुसकान और अनस का मोबाइल, मुसकान का आधार कार्ड, शारिक का आधार कार्ड और शपथपत्र की छाया प्रति भी बरामद कर ली. कागजी खानापूर्ति पूरी करने के बाद दोनों को न्यायालय में पेश करने के बाद जेल भेज दिया गया.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

Extramarital Affairs : आशिक मिजाज ससुर की कातिल बहू

Extramarital Affairs : गीता पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिला बरेली के थाना बहेड़ी के गांव फरीदपुर के रहने वाले गंगाराम की दूसरे नंबर की बेटी थी. गंगाराम की गिनती गांव के  संपन्न किसानों में होती थी. उन की 3 शादियां हुई थीं. पहली पत्नी रमा की बीमारी से मौत हो गई तो उन्होंने सुधा से शादी की. पारिवारिक कलह की वजह से उस ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली तो उन्होंने तीसरी शादी रेशमा से की.

रेशमा से ही उन्हें 4 बेटियां और 2 बेटे थे. बड़ी बेटी ललिता की उन्होंने उम्र होने पर शादी कर दी थी. उस से छोटी गीता का 8वीं पास करने के बाद पढ़ाई में मन नहीं लगा तो उस ने पढ़ाई छोड़ दी. गीता जिस उम्र में थी, अगर उस उम्र ध्यान न दिया जाए तो बच्चों को बहकते देर नहीं लगती. वे सही गलत के फर्क को समझ नहीं पाते. ऐसा ही कुछ गीता के साथ भी हुआ.

गीता गंगाराम के अन्य बच्चों से थोड़ा अलग हट कर थी. वह जिद्दी थी, इसलिए उस के मन में जो आता था, वह हर हाल में वही करती थी. उसे लड़कों की तरह रहना, उन्हीं की तरह दोस्ती करना और बिंदास घूमते हुए मस्ती करना कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता था. इसलिए वह लड़कों की तरह कपड़े तो पहनती ही थी, अपने बाल भी लड़कों की ही तरह कटवा रखे थे. वह अकसर गांव के लड़कों के साथ घूमती रहती थी. उम्र के साथ उस के बदन में ही नहीं, सुंदरता में भी निखार आ गया था.

गंगाराम के पास ट्रैक्टर भी था और मोटरसाइकिल भी. गीता दोनों ही चीजें चला लेती थी. इसलिए उस का जब मन होता, वह मोटरसाइकिल ले कर घूमने निकल जाती. उसे लड़कों से कोई परहेज नहीं था, इसलिए गांव के लड़के उस के आसपास मंडराते रहते थे. गीता नादान तो थी नहीं कि उन लड़कों की मंशा न समझती, इसलिए अपने बिंदासपन से वह उन्हें अंगुलियों पर नचाती रहती थी. लेकिन उन लड़कों को इस का फायदा भी मिलता था. वे लड़के गीता से जो चाहते थे, वह उन्हें मिला भी.

फिर तो गांव में गीता को ले कर तरहतरह की चर्चाएं होने लगीं. जब इस सब की जानकारी गीता के पिता गंगाराम को हुई तो उस ने गीता पर बंदिशें लगाईं. लेकिन गीता अब काबू में आने वाली कहां थी. कोई न कोई बहाना बना कर वह घर से निकल जाती. कोई ऊंचनीच न हो जाए, इस डर से गंगाराम गीता के लिए लड़के की तलाश करने लगा. जल्दी ही उस की यह तलाश खत्म हुई और उसे बरेली के ही थाना नवाबगंज के गांव लावाखेड़ा निवासी परमानंद का बेटा मनोज मिल गया.

परमानंद भी किसान थे. उस के पास भी ठीकठाक खेती थी, जिस की वजह से उस के यहां भी गांवदेहात के हिसाब से किसी चीज की कमी नहीं थी. उस के परिवार में पत्नी उर्मिला के अलावा 3 बेटियां और 2 बेटे मनोज तथा चैतन्य स्वरूप थे. बेटियों का वह विवाह कर चुका था. अब मनोज का नंबर था. यही वजह थी कि जब गंगाराम उस के यहां अपने किसी रिश्तेदार के माध्यम से रिश्ता ले कर पहुंचा तो बात बन गई. इस के बाद सारे रस्मोरिवाज पूरे कर के मनोज और गीता को शादी के गठबंधन में बांध दिया गया. यह शादी फरवरी, 2009 में हुई थी.

गीता सुंदर तो थी ही, साथ ही उस में वे सारे गुण विद्यमान थे, जो पुरुषों को दीवाना बना देते हैं. यही वजह थी कि गीता ने अपनी अदाओं से पहली ही रात में मनोज को अपना दीवाना बना दिया था. गीता पहली ही रात में समझ गई कि उसे पति उस के मनमाफिक मिला है. वह जैसा सीधासादा, अंगुलियों पर नाचने वाला पति चाहती थी, मनोज ठीक वैसा ही निकला था.

2-4 दिनों में ही मनोज गीता के हुस्न में इस कदर खो गया कि हर पल, हर जगह उसे गीता ही गीता नजर आने लगी. उस का गीता को छोड़ कर कहीं जाने का मन ही न होता. खेतों पर भी उस का मन न लगता. लेकिन जिम्मेदारी ऐसी चीज है, जो पत्नी तो क्या, मांबाप से भी दूर होने को मजबूर कर देती है. यही हाल मनोज का भी हुआ. साल भर बाद वह एक बेटे का बाप बना तो खर्च बढ़ते ही उसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास होने लगा.

इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए मनोज को कमाना धमाना जरूरी था, जिस के लिए वह ऊधमसिंहनगर चला गया. वहां उसे टाटा मैजिक के लिए पुर्जे बनाने वाली अल्ट्राटेक कंपनी में नौकरी मिल गई. रहने के लिए उस ने शांति कालोनी रोड स्थित बधईपुरा में जागरलाल के मकान में किराए पर कमरा ले लिया.

कमाईधमाई के लिए मनोज खुद तो ऊधमसिंहनगर चला गया था, लेकिन घरवालों की देखरेख के लिए गीता को गांव में ही मांबाप के पास छोड़ गया था. उस ने एक बार भी नहीं सोचा कि उस के बिना गीता का मन गांव में कैसे लगेगा. शायद उसे लग रहा था कि जिस तरह वह पत्नीबच्चे और परिवार के लिए त्याग कर रहा है, उसी तरह गीता भी कर लेगी.

लेकिन मनोज की यह सोच गलत साबित हुई. क्योंकि गीता को तो शारीरिक संबंधों का चस्का पहले से ही लगा हुआ था. ऐसे में वह बिना पति के कैसे रह सकती थी. उस का दिन तो घर के कामधाम और बच्चे में कट जाता था, लेकिन रातें काटे नहीं कटती थीं. बेचैनी से वह पूरी रात करवटें बदलती रहती थी. शारीरिक सुख के बिना वह बुझीबुझी सी रहती थी. उस की इस बेचैनी और परेशानी को घर का कोई दूसरा सदस्य भले ही नहीं समझ सका, लेकिन पितातुल्य ससुर परमानंद ने जरूर समझ लिया था.

इस की वजह यह थी कि परमानंद लंगोट का कच्चा था. उस के लिए रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण स्त्री का शरीर था. शायद यही वजह थी कि गीता को उस ने देखते ही पसंद कर लिया था. परमानंद अपनी बहू पर शुरू से ही फिदा था. लेकिन बेटे के रहते वह बहू के करीब नहीं जा पा रहा था. बहू के नजदीक जाने के लिए ही उस ने बेटे को जिम्मेदारी का अहसास दिला कर उसे घर से बाहर भेज दिया था.

मनोज के जाने के बाद गीता की बेचैनी बढ़ी तो परमानंद गीता के नजदीक जाने की कोशिश करने लगा. वह उस से बातें करने के बहाने ढूंढ़ने लगा. गीता उस से बातें करती तो वह अकसर बातें करते करते अपनी सीमाएं लांघ जाता. वह उसे कोई सामान पकड़ाती तो सामान पकड़ने के बहाने वह उसे छूने (Extramarital Affairs) की कोशिश करता. ससुर की इन हरकतों से अनुभवी गीता को समझते देर नहीं लगी कि वह उस से क्या चाहता है. गीता को शक तो पहले से ही था, लेकिन जब निगाहें बदलीं और परमानंद बातबात में हंसीमजाक करने लगा तो उस का शक यकीन में बदल गया.

परमानंद देखने में ही जवान नहीं था, बल्कि शरीर से भी हृष्टपुष्ट था. इस की वजह यह थी कि वह अपने शरीर और खानपान का विशेष ध्यान रखता था. बच्चे सयाने हो गए हैं, यह कह कर पत्नी उर्मिला उसे पास नहीं फटकने देती थी. जबकि परमानंद अभी खुद को जवान समझता था और स्त्रीसुख की लालसा रखता था.

परमानंद को इस बात की जरा भी चिंता नहीं थी कि गीता उस की बेटी की उम्र की तो है ही, उस की बहू भी है. वह वासना में इस कदर अंधा हो गया था कि मर्यादा ही नहीं, रिश्ते नाते भी भूल गया. गीता अब उसे सिर्फ एक औरत नजर आ रही थी, जो उस की शारीरिक भूख शांत कर सकती थी. यहां परमानंद ही नहीं, गीता भी अपनी मर्यादा भुला चुकी थी. यही वजह थी कि वह परमानंद की किसी अशोभनीय हरकत का विरोध नहीं कर रही थी, जिस से उस की हिम्मत और हसरतें बढ़ती जा रही थीं. फिर तो एक स्थिति यह आ गई कि परमानंद की रात की नींद गायब हो गई. अब वह मौके की तलाश में रहने लगा.

आखिर उसे एक दिन तब मौका मिल गया, जब पत्नी मायके गई हुई थी. गरमी के दिन होने की वजह से बाकी बच्चे अंदर सो रहे थे. गीता घर के काम निपटा कर बाहर दालान में आई तो ससुर को बेचैन हालत में करवट बदलते देखा. उसे लगा ससुर की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उस ने उस के पास आ कर पूछा, ‘‘लगता है, आप की तबीयत ठीक नहीं है?’’

परमानंद हसरत भरी निगाहों से गीता को ताकते हुए बोला, ‘‘तुम इतनी दूरदूर रहोगी तो तबीयत ठीक कैसे रहेगी.’’

गीता को परमानंद की बीमारी का पहले से ही पता था. बीमार तो वह खुद भी थी. इसीलिए तो मौका देख कर उस के पास आई थी. उस ने चाहतभरी नजरों से परमानंद को ताकते हुए कहा, ‘‘यह आप का भ्रम है. मैं आप से दूर कहां हूं बाबूजी. आप के आगेपीछे ही तो घूमती रहती हूं.’’

अब गीता इस से ज्यादा क्या कहती. परमानंद ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा तो वह खुद ही उस के ऊपर गिर पड़ी. इस तरह एक बार मर्यादा की दीवार गिरी तो उस पर रोजरोज वासना की इमारत खड़ी होने लगी. गीता का तो मर्यादा से कभी कोई नाता ही नहीं रहा था, उसी में उस ने ससुर को भी शामिल कर लिया. परमानंद की संगत में आ कर वह शराब भी पीने लगी. अब वह शराब पी कर ससुर के साथ आनंद उठाने लगी. कुछ दिनों बाद उस ने अपने चचिया ससुर से भी संबंध बना लिए.

ये ऐसा रिश्ता है, जिसे कितना भी छिपाया जाए, छिपता नहीं है. किसी दिन उर्मिला ने गीता को परमानंद के साथ रंगरलियां मनाते रंगेहाथों पकड़ लिया. लेकिन उन दोनों पर इस का कोई असर नहीं पड़ा. जब घर का मुखिया ही पतन के रास्ते पर चल रहा हो तो घर के अन्य लोग चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते. उर्मिला भी जब ससुरबहू के इस मिलन को नहीं रोक पाई तो उस ने यह बात अपने बेटे मनोज को बताई.

मनोज जानता था कि उस का बाप और पत्नी बरबादी की राह पर चल रहे हैं, इसलिए वह भाग कर गांव आया. बाप से वह कुछ कह नहीं सकता था, उस ने गीता को समझाने की कोशिश की. लेकिन गीता अब कहां मानने वाली थी. हार कर मनोज उसे अपने साथ ले गया. मनोज का विचार था कि गीता साथ रहेगी तो ठीक रहेगी. लेकिन जिस की आदत बिगड़ चुकी हो, वह कैसे सुधर सकती है. बहुत कम लोग ऐसे मिलेंगे, जो ऐसे मामलों में सुधरने के बारे में सोचते हैं.

मनोज के नौकरी पर जाते ही गीता आजाद हो जाती. वह कमरे में ताला डाल कर घूमने निकल जाती. उस ने वहां भी अपने रंगढ़ंग दिखाने शुरू किए तो वहां भी रंगीनमिजाज लोग उस के पीछे पड़ गए. उन्हीं में रुद्रपुर की आदर्श कालोनी का रहने वाला शेखर और जगतपुरा का रहने वाला मनोज भटनागर भी था. गीता के दोनों से ही प्रेमसंबंध बन गए. शेखर ने बातें करने के लिए गीता को एक मोबाइल फोन भी खरीद कर दे दिया था. यही नहीं, दोनों गीता की हर जरूरत पूरी करने को तैयार रहते थे. गीता उन के साथ घूमतीफिरती, सिनेमा देखती, होटलों और रेस्तरांओं में खाना खाती. बदले में वह उन्हें खुश करती और खुद भी खुश रहती.

मनोज जागरलाल के जिस मकान में किराए पर रहता था, उसी में उस के बगल वाले कमरे में रामचंद्र मौर्य रहता था. वह जिला बरेली के थाना मीरगंज के अंतर्गत आने वाले गांव गौनेरा का रहने वाला था. था तो वह शादीशुदा, लेकिन वहां वह अकेला ही रहता था. वह वहां एक फैक्ट्री में ठेकेदारी करता था. अगलबगल रहने की वजह से मनोज और रामचंद्र के बीच परिचय हुआ तो दोनों एक ही जिले के रहने वाले थे, इसलिए उन में आपस में खास लगाव हो गया था. जल्दी ही रामचंद्र गीता के बारे में सब कुछ जान गया था. मनोज के काम पर जाते ही वह उस के कमरे पर पहुंच जाता और गीता से घंटों बातें करता रहता.

पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने में माहिर गीता समझ गई कि रामचंद्र उस के कमरे पर क्यों आता है. वह जान गई कि पत्नी से दूर औरत सुख के लिए बेचैन रामचंद्र उसी के लिए उस के आगेपीछे घूमता है. रामचंद्र गीता से दोगुनी उम्र का था. लेकिन गीता के लिए इस का कोई मतलब नहीं था. उसे मतलब था तो सिर्फ देहसुख और पैसों से, जो चाहने वाले उस पर लुटा रहे थे. तरहतरह के मर्दों के साथ मजा लेने वाली गीता को रामचंद्र का आना अच्छा ही लगा. इसलिए गीता उस का मुसकरा कर स्वागत करने लगी.

फिर तो रामचंद्र को उस के करीब आने में देर नहीं लगी. जल्दी ही दोनों के मन ही नहीं, तन भी एक हो गए. लेकिन जितनी जल्दी वे एक हुए, उतनी ही जल्दी उन की पोल भी खुल गई. एक दिन मनोज फैक्ट्री से जल्दी आ गया तो कमरे का दरवाजा अंदर से बंद था. उस ने दरवाजा खटखटाया तो गीता ने दरवाजा काफी देर बाद खोला. वह मनोज को देख कर चौंकी. उस के कपड़े अस्तव्यस्त थे, इसलिए मनोज को लगा, वह सो रही थी. गीता ने सहमे स्वर में पूछा, ‘‘आज तुम इतनी जल्दी कैसे आ गए?’’

‘‘फैक्ट्री का जनरेटर खराब था, इसलिए काम नहीं हुआ.’’ कह कर मनोज कमरे में दाखिल हुआ तो सामने पलंग पर रामचंद्र को बैठे देख कर उसे माजरा समझते देर नहीं लगी. मनोज को देख कर वह तेजी बाहर निकल गया. मनोज ने गुस्से से पूछा, ‘‘यह यहां क्या कर रहा था?’’

‘‘पानी पीने आया था.’’ गीता ने हकलाते हुए कहा.

‘‘कमरा बंद कर के पानी पिला रही थी या उस के साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी?’’

‘‘तुम्हें यह कहते शरम नहीं आती?’’ गीता चीखी.

‘‘शरम तो तुम्हें आनी चाहिए, जो एक के बाद एक गलत हरकतें करती आ रही हो. अपने मर्द के होते हुए पराए मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही हो. तुम्हें तो शरम से डूब मरना चाहिए.’’

‘‘तुम में है ही क्या? तुम न तो पत्नी को संतुष्ट (Extramarital Affairs)  कर सकते हो, न ही उस के खर्चे उठा सकते हो. अगर तुम को इस सब से परेशानी हो रही है तो मुझे छोड़ दो.’’ गीता ने अपना फैसला सुना दिया.

‘‘तू तो चाहती ही है कि मैं तुझे छोड़ दूं तो तू घूमघूम कर गुलछर्रे उड़ाए. तुझे तो अपनी इज्जत की पड़ी नहीं है, लेकिन मुझे तो अपनी इज्जत की फिक्र है. इसलिए सामान बांध लो और अब हम गांव चलते हैं.’’

अगले दिन मनोज ने नौकरी छोड़ दी और हिसाबकिताब ले कर गांव आ गया. कुछ दिनों गांव में रह कर मनोज अकेला ही दिल्ली चला गया, जहां किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी में नौकरी करने लगा. उस के जाते ही गीता फिर आजाद हो गई. अब वह वही करने लगी, जो उस के मन में आता. शेखर और मनोज उस से मिलने उस की ससुराल भी आने लगे. मनोज के पास मोटरसाइकिल थी, गीता का जब मन होता, मोटरसाइकिल ले कर अकेली ही बरेली से रुद्रपुर चली जाती और अपने प्रेमियों से मिल कर वापस आ जाती.

रामचंद्र से गीता को विशेष लगाव था. वह उसी के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताती थी. जब इस सब की जानकारी परमानंद को हुई तो उस ने गीता को रोका. लेकिन वह मानने वाली कहां थी. उस ने एक दिन गीता को रामचंद्र के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया तो उस ने सरेआम रामचंद्र की पिटाई कर दी. रामचंद्र को यह बुरा तो बहुत लगा, लेकिन वह उस समय कुछ करने की स्थिति में नहीं था.

गीता को भी ससुर की यह हरकत पसंद नहीं आई. क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि कोई उसे अपनी जागीर समझे और उस की बेलगाम जिंदगी पर अंकुश लगाए. जब उस ने अपने पति मनोज की बात नहीं मानी तो परमानंद की बात कैसे मानती. यही वजह थी कि परमानंद बारबार उस के रास्ते में रोड़ा बनने लगा तो उस ने इस रोड़े को हमेशा के लिए हटाने की तैयारी कर ली. इस के लिए उस ने रामचंद्र को भी राजी कर लिया. वह राजी भी हो गया, क्योंकि वह भी उस से अपनी बेइज्जती का बदला लेना चाहता था.

गीता ने ससुर को ठिकाने लगाने की जो योजना बनाई थी, उसी के अनुसार 27 जुलाई को वह परमानंद को मोटरसाइकिल से रुद्रपुर रामचंद्र के कमरे पर ले गई. देर रात तक गीता, रामचंद्र और परमानंद बैठ कर शराब पीते रहे. गीता और रामचंद्र ने तो खुद कम पी, जबकि परमानंद को जम कर पिलाई. यही नहीं, उस की शराब में नींद की गोलियां भी मिला दी थीं, जिस से कुछ ही देर में वह बेहोश हो कर लुढ़क गया. उस के बाद गीता और रामचंद्र ने उसी के अंगौछे से उस का गला घोंट दिया.

इस के बाद गीता ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की तो रामचंद परमानंद की लाश को बीच में बैठा कर पीछे स्वयं बैठ गया. गीता मोटरसाइकिल ले कर काला डूंगी रोड पर भाखड़ा नदी के किनारे पहुंची, जहां दोनों ने परमानंद की लाश को बोरी में कुछ ईंटों के साथ डाल कर नदी के पानी में फेंक दिया. इस के बाद गीता रुद्रपुर में ही रामचंद्र के कमरे पर कई दिनों तक रुकी रही.

11 अगस्त को गीता मोटरसाइकिल से अपनी ससुराल लावाखेड़ा पहुंची तो परमानंद के छोटे बेटे चैतन्य स्वरूप ने पिता के बारे में पूछा. तब गीता ने किसी रिश्तेदारी में जाने की बात कह कर बात खत्म कर दी. 2 दिन ससुराल में रह कर गीता फिर चली गई. गीता के जाने के बाद कई दिनों तक परमानंद नहीं लौटा तो घर वालों को चिंता हुई.

उन्हें गीता पर शक हुआ कि कहीं उस ने अपने प्रेमियों शेखर और मनोज के साथ मिल कर उस की हत्या तो नहीं करा दी. चैतन्य स्वरूप ने कोतवाली नवाबगंज जा कर अपने पिता के गायब होने की सूचना दी. उस समय इंसपेक्टर अशोक कुमार के पास कोतवाली का भी चार्ज था. उन्हें लगा कि बहू ससुर को क्यों गायब करेगी? यही सोच कर उन्होंने चैतन्य को लौटा दिया. परमानंद का परिवार उस की तलाश में लगा रहा. उसी बीच 21 अगस्त को इंसपेक्टर अशोक कुमार का तबादला हो गया तो उन की जगह आए इंसपेक्टर जे.पी. तिवारी. चैतन्य स्वरूप उन से मिला तो उन्होंने उस से तहरीर ले कर शेखर और मनोज भटनागर के खिलाफ अपराध संख्या-827/13 पर भादंवि की धारा 364 के तहत मुकदमा दर्ज करा कर गीता के मोबाइल नंबर को सर्विलांस पर लगवा दिया.

सर्विलांस सेल के पुलिसकर्मियों की गीता से कई बार बात हुई. गीता उन से कभी गुजरात में होने की बात कहती तो कभी हरियाणा में होने की बात बताती, जबकि उस की लोकेशन बरेली के आसपास की ही थी. पुलिस समझ गई कि गीता बहुत ही शातिर है. गीता के नंबर की काल डिटेल्स निकलवाई गई तो पता चला कि वह सब से अधिक अपनी बड़ी बहन ललिता से बात करती थी. इंसपेक्टर जे.पी. तिवारी ने ललिता और उस के पति प्रमोद को थाने ला कर पूछताछ की तो उन्होंने गीता का ठिकाना बता दिया. गीता उस समय बरेली के थाना मीरगंज के सामने राजेंद्र सेठ के मकान में किराए का कमरा ले कर रह रही थी. उसी के साथ रामचंद्र मौर्य भी था. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया. यह 23 दिसंबर, 2013 की बात है.

पूछताछ में गीता और रामचंद्र ने परमानंद की हत्या का अपराध स्वीकार कर के उस की हत्या की पूरी कहानी सिलसिलेवार बता दी. पुलिस ने दोनों को रुद्रपुर ले जा कर उन की निशानदेही पर भाखड़ा नदी से परमानंद की लाश बरामद करने की कोशिश की, लेकिन लाश बरामद नहीं हो सकी. इस के बाद पुलिस ने दोनों को सीजेएम की अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. लाश की बरामदगी के लिए एक बार फिर पुलिस दोनों को रिमांड पर लेने का प्रयास कर रही थी. लेकिन कथा लिखे जाने तक दोनों का रिमांड मिला नहीं था.

— कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

मोहब्बत और जंग में सब जायज

दाऊद ने बेटी के प्रेमसंबंधों को उछालने या उसे समझाने के बजाय नादिर की जिंदगी का पत्ता साफ करने का फैसला कर लिया. वह मौके की ताक में रहने लगा.

रियाज और नादिर के बीच लड़ाईझगड़े और दुश्मनी का माहौल बना तो दाऊद ने नादिर के कत्ल की योजना बना डाली. मेरे मुवक्किल रियाज पर नादिर के कत्ल का इलजाम था. इस मामले को अदालत में पहुंचे करीब 3 महीने हो

चुके थे, पर बाकायदा सुनवाई आज हो रही थी. अभियोजन पक्ष की ओर से 8 गवाह थे, जिन में पहला गवाह सालिक खान था. सच बोलने की कसम खाने के बाद उस ने अपना बयान रिकौर्ड कराया.

सालिक खान भी वहीं रहता था, जहां मेरा मुवक्किल रियाज और मृतक नादिर रहता था. रियाज और नादिर एक ही बिल्डिंग में रहते थे. वह तिमंजिला बिल्डिंग थी. सालिक खान उसी गली में रहता था. गली के नुक्कड़ पर उस की पानसिगरेट की दुकान थी.

  भारी बदन के सालिक की उम्र 46-47 साल थी. अभियोजन पक्ष के वकील ने उस से मेरे मुवक्किल की ओर इशारा कर के पूछा, ‘‘सालिक खान, क्या आप इस आदमी को जानते हैं?’’

‘‘जी साहब, अच्छी तरह से जानता हूं.’’

‘‘यह कैसा आदमी है?’’

‘‘हुजूर, यह आवारा किस्म का बहुत झगड़ालू आदमी है. इस के बूढ़े पिता एक होटल में बैरा की नौकरी करते हैं. यह सारा दिन मोहल्ले में घूमता रहता है. हट्टाकट्टा है, पर कोई काम नहीं करता.’’

‘‘क्या यह गुस्सैल प्रवृत्ति का है?’’ वकील ने पूछा.

‘‘जी, बहुत ही गुस्सैल स्वभाव का है. मेरी दुकान के सामने ही पिछले हफ्ते इस की नादिर से जम कर मारपीट हुई थी. दोनों खूनखराबे पर उतारू थे. इस से यह तो नहीं होता कि कोई कामधाम कर के बूढ़े बाप की मदद करे, इधरउधर लड़ाईझगड़ा करता फिरता है.’’

‘‘क्या यह सच है कि उस लड़ाई में ज्यादा नुकसान इसी का हुआ था. इस के चेहरे पर चोट लगी थी. उस के बाद इस ने क्या कहा था?’’ वकील ने मेरे मुवक्किल की ओर इशारा कर के पूछा.

‘‘इस ने नादिर को धमकाते हुए कहा था कि यह उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ेगा. इस का अंजाम उसे भुगतना ही पड़ेगा. इस का बदला वह जरूर लेगा.’’

इस के बाद अभियोजन के वकील ने कहा, ‘‘दैट्स आल हुजूर. इस धमकी के कुछ दिनों बाद ही नादिर की हत्या कर दी गई, इस से यही लगता है कि यह हत्या इसी आदमी ने की है.’’

उस के बाद मैं गवाह से पूछताछ करने के लिए आगे आया. मैं ने पूछा, ‘‘सालिक साहब, क्या आप शादीशुदा हैं?’’

‘‘जी हां, मैं शादीशुदा ही नहीं, मेरी 2 बेटियां और एक बेटा भी है.’’

‘‘क्या आप की रियाज से कोई व्यक्तितगत दुश्मनी है?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘तब आप ने उसे कामचोर और आवारा क्यों कहा?’’

‘‘वह इसलिए कि यह कोई कामधाम करने के बजाय दिन भर आवारा घूमता रहता है.’’

‘‘लेकिन आप की बातों से तो यही लगता है कि आप रियाज से नफरत करते हैं. इस की वजह यह है कि रियाज आप की बेटी फौजिया को पसंद करता है. उस ने आप के घर फौजिया के लिए रिश्ता भी भेजा था. क्या मैं गलत कह रहा हूं्?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. हां, उस ने फौजिया के लिए रिश्ता जरूर भेजा था, पर मैं ने मना कर दिया था.’’ सालिक खान ने हकलाते हुए कहा.

‘‘आप झूठ बोल रहे हैं सालिक खान, आप ने इनकार नहीं किया था, बल्कि कहा था कि आप पहले बड़ी बेटी शाजिया की शादी करना चाहते हैं. अगर रियाज शाजिया से शादी के लिए राजी है तो यह रिश्ता मंजूर है. चूंकि रियाज फौजिया को पसंद करता था, इसलिए उस ने शादी से मना कर दिया था. यही नहीं, उस ने ऐसी बात कह दी थी कि आप को गुस्सा आ गया था. आप बताएंगे, उस ने क्या कहा था?’’

‘‘उस ने कहा था कि शाजिया सुंदर नहीं है, इसलिए वह उस से किसी भी कीमत पर शादी नहीं करेगा.’’

  ‘‘…और उसी दिन से आप रियाज से नफरत करने लगे थे. उसे धोखेबाज, आवारा और बेशर्म कहने लगे. इसी वजह से आज उस के खिलाफ गवाही दे रहे हैं.’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. मैं ने जो देखा था, वही यहां बताया है.’’

‘‘क्या आप को यकीन है कि रियाज ने जो धमकी दी थी, उस पर अमल कर के नादिर का कत्ल कर दिया है?’’

‘‘मैं यह यकीन से नहीं कह सकता, क्योंकि मैं ने उसे कत्ल करते नहीं देखा.’’

‘‘मतलब यह कि सब कुछ सिर्फ अंदाजे से कह रहे हो?’’

मैं ने सालिक खान से जिरह खत्म कर दी. रियाज और मृतक नादिर गोरंगी की एक तिमंजिला बिल्डिंग में रहते थे, जिस की हर मंजिल पर 2 छोटेछोटे फ्लैट्स बने थे. नादिर अपने परिवार के साथ दूसरी मंजिल पर रहता था, जबकि रियाज तीसरी मंजिल पर रहता था.

रियाज मांबाप की एकलौती संतान था. उस की मां घरेलू औरत थी. पिता एक होटल में बैरा थे. उस ने इंटरमीडिएट तक पढ़ाई की थी. वह आगे पढ़ना चाहता था, पर हालात ऐसे नहीं थे कि वह कालेज की पढ़ाई करता. जाहिर है, उस के बाप अब्दुल की इतनी आमदनी नहीं थी. वह नौकरी ढूंढ रहा था, पर कोई ढंग की नौकरी नहीं मिल रही थी, इसलिए इधरउधर भटकता रहता था.

बैरा की नौकरी वह करना नहीं चाहता था. अब उस पर नादिर के कत्ल का आरोप था. मृतक नादिर बिलकुल पढ़ालिखा नहीं था. वह अपने बड़े भाई माजिद के साथ रहता था. मांबाप की मौत हो चुकी थी. माजिद कपड़े की एक बड़ी दुकान पर सेल्समैन था. वह शादीशुदा था. उस की बीवी आलिया हाउसवाइफ थी. उस की 5 साल की एक बेटी थी. माजिद ने अपने एक जानने वाले की दुकान पर नादिर को नौकरी दिलवा दी थी. नादिर काम अच्छा करता था. उस का मालिक उस पर भरोसा करता था. नादिर और रियाज के बीच कोई पुरानी दुश्मनी नहीं थी.

अगली पेशी के पहले मैं ने रियाज और नादिर के घर जा कर पूरी जानकारी हासिल  कर ली थी. रियाज का बाप नौकरी पर था. मां नगीना से बात की. वह बेटे के लिए बहुत दुखी थी. मैं ने उसे दिलासा देते हुए पूछा, ‘‘क्या आप को पूरा यकीन है कि आप के बेटे ने नादिर का कत्ल नहीं किया?’’

‘‘हां, मेरा बेटा कत्ल नहीं कर सकता. वह बेगुनाह है.’’

‘‘फिर आप खुदा पर भरोसा रखें. उस ने कत्ल नहीं किया है तो वह छूट जाएगा. अभी तो उस पर सिर्फ आरोप है.’’

 

नगीना से मुझे कुछ काम की बातें पता चलीं, जो आगे जिरह में पता चलेंगी. मैं रियाज के घर से निकल रहा था तो सामने के फ्लैट से कोई मुझे ताक रहा था. हर फ्लैट में 2 कमरे और एक हौल था. इमारत का एक ही मुख्य दरवाजा था. हर मंजिल पर आमनेसामने 2 फ्लैट्स थे. एक तरफ जीना था.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, 17 अप्रैल की रात 2 बजे के करीब नादिर की हत्या हुई थी. उसे इसी बिल्डिंग की छत पर मारा गया था. उस की लाश पानी की टंकी के करीब एक ब्लौक पर पड़ी थी. उस की हत्या बोल्ट खोलने वाले भारी रेंच से की गई थी.

अगली पेशी पर अभियोजन पक्ष की ओर से कादिर खान को पेश किया गया. कादिर खान भी उसी बिल्डिंग में रहता था. बिल्डिंग के 5 फ्लैट्स में किराएदार रहते थे और एक फ्लैट में खुद मकान मालिक रहता था. अभियोजन के वकील ने कादिर खान से सवालजवाब शुरू किए.

लाश सब से पहले उसी ने देखी थी. उस की गवाही में कोई खास बात नहीं थी, सिवाय इस के कि उस ने भी रियाज को झगड़ालू और गुस्सैल बताया था. मैं ने पूछा, ‘‘आप ने मुलाजिम रियाज को गुस्सैल और लड़ाकू कहा है, इस की वजह क्या है?’’

‘‘वह है ही झगड़ालू, इसलिए कहा है.’’

‘‘आप किस फ्लैट में कब से रह रहे हैं?’’

‘‘मैं 4 नंबर फ्लैट में 4 सालों से रह रहा हूं.’’

‘‘इस का मतलब दूसरी मंजिल पर आप अकेले ही रहते हैं?’’

‘‘नहीं, मेरे साथ बीवीबच्चे भी रहते हैं.’’

‘‘जब आप बिल्डिंग में रहने आए थे तो रियाज आप से पहले से वहां रह रहा था?’’

‘‘जी हां, वह वहां पहले से रह रहा था.’’

‘‘कादिर खान, जिस आदमी से आप का 4 सालों में एक बार भी झगड़ा नहीं हुआ, इस के बावजूद आप उसे झगड़ालू कह रहे हैं, ऐसा क्यों?’’

  ‘‘मुझ से झगड़ा नहीं हुआ तो क्या हुआ, वह झगड़ालू है. मैं ने खुद उसे नादिर से लड़ते देखा है. दोनों में जोरजोर से झगड़ा हो रहा था. बाद में पता चला कि उस ने नादिर का कत्ल कर दिया.’’

‘‘क्या आप बताएंगे कि दोनों किस बात पर लड़ रहे थे?’’

‘‘नादिर का कहना था कि रियाज उस के घर के सामने से गुजरते हुए गंदेगंदे गाने गाता था. जबकि रियाज इस बात को मना कर रहा था. इसी बात को ले कर दोनों में झगड़ा हुआ था. लोगों ने बीचबचाव कराया था.’’

‘‘और अगले दिन बिल्डिंग की छत पर नादिर की लाश मिली थी. उस की लाश आप ने सब से पहले देखी थी.’’

 

एक पल सोच कर उस ने कहा, ‘‘हां, करीब 9 बजे सुबह मैं ने ही देखी थी.’’

‘‘क्या आप रोज सवेरे छत पर जाते हैं?’’

‘‘नहीं, मैं रोज नहीं जाता. उस दिन टीवी साफ नहीं आ रहा था. मुझे लगा कि केबल कट गया है, यही देखने गया था.’’

‘‘आप ने छत पर क्या देखा?’’

‘‘जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, मेरी नजर सीधे लाश पर पड़ी. मैं घबरा कर नीचे आ गया.’’

‘‘कादिर खान, दरवाजा और लाश के बीच कितना अंतर रहा था?’’

‘‘यही कोई 20-25 फुट का. ब्लौक पर नादिर की लाश पड़ी थी. उस की खोपड़ी फटी हुई थी.’’

‘‘नादिर की लाश के बारे में सब से पहले आप ने किसे बताया?’’

‘‘दाऊद साहब को बताया था. वह उस बिल्डिंग के मालिक हैं.’’

‘‘बिल्डिंग के मालिक, जो 5 नंबर फ्लैट में रहते हैं?’’

‘‘जी, मैं ने उन से छत की चाबी ली थी, छत की चाबी उन के पास ही रहती है.’’

‘‘उस दिन छत का दरवाजा तुम्हीं ने खोला था?’’

‘‘जी साहब, ताला मैं ने ही खोला था?’’

‘‘ताला खोला तो ब्लौक पर लाश पड़ी दिखाई दी. जरा छत के बारे में विस्तार से बताइए?’’

‘‘पानी की टंकी छत के बीच में है. टंकी के करीब छत पर 15-20 ब्लौक लगे हैं, जिन पर बैठ कर कुछ लोग गपशप कर सकते हैं.’’

‘‘अगर ताला तुम ने खोला तो मृतक आधी रात को छत पर कैसे पहुंचा?’’

‘‘जी, यह मैं नहीं बता सकता. दाऊद साहब को जब मैं ने लाश के बारे में बताया तो वह भी हैरान रह गए.’’

‘‘बात नादिर के छत पर पहुंचने भर की नहीं है, बल्कि वहां उस का बेदर्दी से कत्ल भी कर दिया गया. नादिर के अलावा भी कोई वहां पहुंचा होगा. जबकि चाबी दाऊद साहब के पास थी.’’

‘‘दाऊद साहब भी सुन कर हैरान हो गए थे. वह भी मेरे साथ छत पर गए. इस के बाद उन्होंने ही पुलिस को फोन किया.’’

इसी के बाद जिरह और अदालत का वक्त खत्म हो गया.

 

मुझे तारीख मिल गई. अगली पेशी पर माजिद की गवाही शुरू हुई. वह सीधासादा 40-42 साल का आदमी था. कपड़े की दुकान पर सेल्समैन था. फ्लैट नंबर 2 में रहता था. उस ने कहा कि नादिर और रियाज के बीच काफी तनाव था. दोनों में झगड़ा भी हुआ था. यह कत्ल उसी का नतीजा है.

अभियोजन के वकील ने सवाल कर लिए तो मैं ने पूछा, ‘‘आप का भाई कब से कब तक अपनी नौकरी पर रहता था?’’

‘‘सुबह 11 बजे से रात 8 बजे तक. वह 9 बजे तक घर आ जाता था.’’

‘‘कत्ल वाले दिन वह कितने बजे घर आया था?’’

‘‘उस दिन मैं घर आया तो वह घर पर ही मौजूद था.’’

‘‘माजिद साहब, पिछली पेशी पर एक गवाह ने कहा था कि उस दिन शाम को उस ने नादिर और रियाज को झगड़ा करते देखा था. क्या उस दिन वह नौकरी पर नहीं गया था?’’

‘‘नहीं, उस दिन वह नौकरी पर गया था, लेकिन तबीयत ठीक न होने की वजह से जल्दी घर आ गया था.’’

‘‘घर आते ही उस ने लड़ाईझगड़ा शुरू कर दिया था?’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है. घर आ कर वह आराम कर रहा था, तभी रियाज खिड़की के पास खड़े हो कर बेहूदा गाने गाने लगा था. मना करने पर भी वह चुप नहीं हुआ. पहले भी इस बात को ले कर नादिर और उस में मारपीट हो चुकी थी. नादिर नाराज हो कर बाहर निकला और दोनों में झगड़ा और गालीगलौज होने लगी.’’

‘‘झगड़ा सिर्फ इतनी बात पर हुआ था या कोई और वजह थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह आप रियाज से ही पूछ लीजिए. मेरा भाई सीधासादा था, बेमौत मारा गया.’’ जवाब में माजिद ने कहा.

‘‘आप को लगता है कि रियाज ने धमकी के अनुसार बदला लेने के लिए तुम्हारे भाई का कत्ल कर दिया है.’’

‘‘जी हां, मुझे लगता नहीं, पूरा यकीन है.’’

‘‘जिस दिन कत्ल हुआ था, सुबह आप सो कर उठे तो आप का भाई घर पर नहीं था?’’

‘‘जब मैं सो कर उठा तो मेरी बीवी ने बताया कि नादिर घर पर नहीं है.’’

‘‘यह जान कर आप ने क्या किया?’’

‘‘हाथमुंह धो कर मैं उस की तलाश में निकला तो पता चला कि छत पर नादिर की लाश पड़ी है.’’

 

‘‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, नादिर का कत्ल रात 1 से 2 बजे के बीच हुआ था. क्या आप बता सकते हैं कि नादिर एक बजे रात को छत पर क्या करने गया था? आप ने जो बताया है, उस के अनुसार नादिर बीमार था. छत पर ताला भी लगा था. इस हालत में छत पर कैसे और क्यों गया?’’

‘‘मैं क्या बताऊं? मुझे खुद नहीं पता. अगर वह जिंदा होता तो उसी से पूछता.’’

‘‘वह जिंदा नहीं है, इसलिए आप को बताना पड़ेगा, वह ऊपर कैसे गया? क्या उस के पास डुप्लीकेट चाबी थी? उस ने मकान मालिक से चाबी नहीं ली तो क्या पीछे से छत पर पहुंचा?’’

‘‘नादिर के पास डुप्लीकेट चाबी नहीं थी. वह छत पर क्यों और कैसे गया, मुझे नहीं पता.’’

‘‘आप कह रहे हैं कि आप का भाई सीधासादा काम से काम रखने वाला था. इस के बावजूद उस ने गुस्से में 2-3 बार रियाज से मारपीट की. ताज्जुब की बात तो यह है कि रियाज की लड़ाई सिर्फ नादिर से ही होती थी. इस की एक खास वजह है, जो आप बता नहीं रहे हैं.’’

‘‘कौन सी वजह? मैं कुछ नहीं छिपा रहा हूं.’’

‘‘अपने भाई की रंगीनमिजाजी. नादिर सालिक खान की छोटी बेटी फौजिया को चाहता था. वह फौजिया को रियाज के खिलाफ भड़काता रहता था. उस ने उस के लिए शादी का रिश्ता भी भेजा था, जबकि फौजिया नादिर को इस बात के लिए डांट चुकी थी. जब उस पर उस की डांट का असर नहीं हुआ तो फौजिया ने सारी बात रियाज को बता दी थी. उसी के बाद रियाज और नादिर में लड़ाईझगड़ा होने लगा था.’’

‘‘मुझे ऐसी किसी बात की जानकारी नहीं है. मैं ने रिश्ता नहीं भिजवाया था.’’

‘‘खैर, यह बताइए कि 2 साल पहले आप के फ्लैट के समने एक बेवा औरत सकीरा बेगम रहती थीं, आप को याद हैं?’’

माजिद हड़बड़ा कर बोला, ‘‘जी, याद है.’’

‘‘उस की एक जवान बेटी थी रजिया, याद आया?’’

‘‘जी, उस की जवान बेटी रजिया थी.’’

‘‘अब यह बताइए कि सकीरा बेगम बिल्डिंग छोड़ कर क्यों चली गई?’’

‘‘उस की मरजी, यहां मन नहीं लगा होगा इसलिए छोड़ कर चली गई.’’

‘माजिद साहब, आप असली बात छिपा रहे हैं. क्योंकि वह आप के लिए शर्मिंदगी की बात है. आप बुरा न मानें तो मैं बता दूं? आप का भाई उस बेवा औरत की बेटी रजिया पर डोरे डाल रहा था. उस की इज्जत लूटने के चक्कर में था, तभी रंगेहाथों पकड़ा गया. यह रजिया की खुशकिस्मती थी कि झूठे प्यार के नाम पर वह अपना सब कुछ लुटाने से बच गई. इस बारे में बताने वालों की कमी नहीं है, इसलिए झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं है. सकीरा बेगम नादिर की वजह से बिल्डिंग छोड़ कर चली गई थीं.’’

‘‘जी, इस में नादिर की गलती थी, इसलिए मैं ने उसे खूब डांटा था. इस के बाद वह सुधर गया था.’’

‘‘अगर वह सुधर गया था तो आधी रात को छत पर क्या कर रहा था? क्या आप इस बात से इनकार करेंगे कि नादिर सकीरा बेगम की बेटी रजिया से छत पर छिपछिप कर मिलता था? इस के लिए उस ने छत के ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली थी. जब इस बात की खबर दाऊद साहब को हुई तो उन्होंने ताला बदलवा दिया था.’’

उस ने लड़खड़ाते हुए कहा, ‘‘यह भी सही है.’’

अगली पेशी पर मैं ने इनक्वायरी अफसर से पूछताछ की. उस का नाम साजिद था. मैं ने कहा, ‘‘नादिर की हत्या के बारे में आप को सब से पहले किस ने बताया?’’

‘‘रिकौर्ड के अनुसार, घटना की जानकारी 18 अप्रैल की सुबह 10 बजे दाऊद साहब ने फोन द्वारा दी थी. मैं साढ़े 10 बजे वहां पहुंच गया था.’’

‘‘जब आप छत पर पहुंचे, वहां कौनकौन था?’’

‘‘फोन करने के बाद दाऊद साहब ने सीढि़यों पर ताला लगा दिया था. मैं वहां पहुंचा तो मृतक की लाश टंकी के पीछे ब्लौक पर पड़ी थी. अंजाने में पीछे से उस की खोपड़ी पर  लोहे के वजनी रेंच से जोरदार वार किया गया था. उसी से उस की मौत हो गई थी.’’

‘‘हथियार आप को तुरंत मिल गया था?’’

‘‘जी नहीं, थोड़ी तलाश के बाद छत के कोने में पड़े कबाड़ में मिला था.’’

‘‘क्या आप ने उस पर से फिंगरप्रिंट्स उठवाए थे?’’

‘‘उस पर फिंगरप्रिंट्स नहीं मिले थे. शायद साफ कर दिए गए थे.’’

‘‘घटना वाली रात मृतक छत पर था, वहीं उस का कत्ल किया गया था. सवाल यह है कि जब छत पर जाने वाली सीढि़यों के दरवाजे पर ताला लगा था तो मृतक छत पर कैसे पहुंचा? इस बारे में आप कुछ बता सकते हैं?’’

 

जज साहब काफी दिलचस्पी से हमारी जिरह सुन रहे थे. उन्होंने पूछा, ‘‘मिर्जा साहब, इस मामले में आप बारबार किसी लड़की का जिक्र क्यों कर रहे हैं? इस से तो यही लगता है कि आप उस लड़की के बारे में जानते हैं?’’

‘‘जी सर, कुछ हद तक जानता हूं.’’

‘‘तो आप मृतक की प्रेमिका का नाम बताएंगे?’’ जज साहब ने पूछा.

‘‘जरूर बताऊंगा सर, पर समय आने दीजिए.’’

  पिछली पेशी पर मैं ने प्यार और प्रेमिका का जिक्र कर के मुकदमे में सनसनी पैदा कर दी थी. यह कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं था. इस मामले में मैं ने काफी खोज की थी, जिस से मृतक नादिर के ताजे प्यार के बारे में पता कर लिया था. अब उसी के आधार पर रियाज को बेगुनाह साबित करना चाहता था.

काररवाई शुरू हुई. अभियोजन की तरफ से बिल्डिंग के मालिक दाऊद साहब को बुलाया गया. वकील ने 10 मिनट तक ढीलीढाली जिरह की. उस के बाद मेरा नंबर आया. मैं ने पूछा, ‘‘छत की चाबी आप के पास रहती है. घटना वाले दिन किसी ने आप से चाबी मांगी थी?’’

‘‘जी नहीं, चाबी किसी ने नहीं मांगी थी.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि 17 अप्रैल की रात को कातिल रियाज और मृतक नादिर में किसी एक के पास छत के दरवाजे की चाबी थी या दोनों के पास थी. उसी से दोनों छत पर पहुंचे थे. दाऊद साहब, आप के खयाल से नादिर की हत्या किस ने की होगी?’’

 

दाऊद ने रियाज की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘इसी ने मारा है और कौन मारेगा? इन्हीं दोनों में झगड़ा चल रहा था.’’

‘‘आप ने सरकारी वकील को बताया है कि रियाज आवारा, बदमाश और काफी झगड़ालू है. आप भी उसी बिल्डिंग में रहते हैं. आप का रियाज से कितनी बार लड़ाईझगड़ा हुआ है?’’

‘‘मुझ से तो उस का कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ. मैं ने उसे झगड़ालू नादिर से बारबार झगड़ा करने की वजह से कहा था.’’

‘‘इस का मतलब आप के लिए वह अच्छा था. आप से कभी कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था.’’

‘‘जी, आप ऐसा ही समझिए.’’ दाऊद ने गोलमोल जवाब दिया.

‘‘सभी को पता है कि 2 साल पहले रजिया से मिलने के लिए नादिर ने छत के दरवाजे में लगे ताले की डुप्लीकेट चाबी बनवाई थी. जब सब को इस बात की जानकारी हुई तो बड़ी बदनामी हुई. उस के बाद आप ने छत के दरवाजे का ताला तक बदल दिया था. हो सकता है, इस बार भी उस ने डुप्लीकेट चाबी बनवा ली हो और छत पर किसी से मिलने जाता रहा हो? इस बार लड़की कौन थी, बता सकते हैं आप?’’

‘‘इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता. हां, हो सकता है उस ने डुप्लीकेट चाबी बनवा ली हो. लड़की के बारे में मैं कैसे बता सकता हूं. हो सकता है, रियाज को पता हो.’’

‘‘आप रियाज का नाम क्यों ले रहे हैं?’’

‘‘इसलिए कि वह भी फौजिया से प्यार करता था या उसे इस प्यार की जानकारी थी.’’

मैं ने भेद उगलवाने की गरज से कहा, ‘‘दाऊद साहब, यह तो सब को पता है कि रियाज फौजिया से शादी करना चाहता था और इस के लिए उस ने रिश्ता भी भेजा था. जबकि नादिर उसे रियाज के खिलाफ भड़काता था. कहीं नादिर फौजिया के साथ ही छत पर तो नहीं था? इस का उल्टा भी हो सकता है?’’

दाऊद जिस तरह फौजिया को नादिर से जोड़ रहा था, यह उस की गंदी सोच का नतीजा था या फिर उस के दिमाग में कोई और बात थी. उस ने पूछा, ‘‘उल्टा कैसे हो सकता है?’’

‘‘यह भी मुमकिन है कि घटना वाली रात नादिर फौजिया से मिलने बिल्डिंग की छत पर गया हो और…’’

मेरी अधूरी बात पर उस ने चौंक कर मेरी ओर देखा. इस के बाद खा जाने वाली नजरों से मेरी ओर घूरते हुए बोला, ‘‘और क्या वकील साहब?’’

‘‘…और यह कि फौजिया के अलावा कोई दूसरी लड़की भी तो हो सकती है? किसी ने फौजिया को आतेजाते देखा तो नहीं, इसलिए वहां दूसरी लड़की भी तो हो सकती थी. इस पर आप को कुछ ऐतराज है क्या?’’

दाऊद ने हड़बड़ा कर कहा, ‘‘भला मुझे क्यों ऐतराज होगा?’’

‘‘अगर मैं कहूं कि वह लड़की उसी बिल्डंग की रहने वाली थी तो..?’’

‘‘…तो क्या?’’ वह हड़बड़ा कर बोला.

‘‘बिल्डिंग का मालिक होने के नाते आप को उस लड़की के बारे में पता होना चाहिए. अच्छा, मैं आप को थोड़ा संकेत देता हूं. उस का नाम ‘म’ से शुरू होता है और आप का उस से गहरा ताल्लुक है, जिस के इंतजार में नादिर छत पर बैठा था.’’

 

मैं असलियत की तह तक पहुंच चुका था. बस एक कदम आगे बढ़ना था. मैं ने कहा, ‘‘दाऊद साहब, नाम मैं बताऊं या आप खुद बताएंगे? आप को एक बार फिर बता दूं कि उस का नाम ‘म’ से शुरू होता है, जिस का इश्क नादिर से चल रहा था और यह बात आप को मालूम हो चुकी थी. अब बताइए नाम?’’

दाऊद गुस्से से उबलते हुए बोला, ‘‘अगर तुम ने मेरी बेटी मनीजा का नाम लिया तो ठीक नहीं होगा.’’

मैं ने जज साहब की ओर देखते हुए कहा, ‘‘सर, मुझे अब इन से कुछ नहीं पूछना. मेरे हिसाब से नादिर का कत्ल इसी ने किया है. रियाज बेगुनाह है. इस की नादिर से 2-3 बार लड़ाई हुई थी, इस ने धमकी भी दी थी, लेकिन इस ने कत्ल नहीं किया. धमकी की वजह से उस पर कत्ल का इल्जाम लगा दिया गया. अब हकीकत सामने है सर.’’

अगली पेशी पर अदालत ने मेरे मुवक्किल को बाइज्जत बरी कर दिया, क्योंकि वह बेगुनाह था. दाऊद के व्यवहार से उसे नादिर का कातिल मान लिया गया था. जब अदालत के हुक्म पर पुलिस ने उस से पूछताछ की तो थोड़ी सख्ती के बाद उस ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था.

नादिर एक दिलफेंक आशिकमिजाज लड़का था. जब फौजिया ने उसे घास नहीं डाली तो उस ने इश्क का चक्कर दाऊद की बेटी मनीजा से चलाया. वह उस के जाल में फंस गई. दाऊद को अपनी बेटी से नादिर के प्रेमसंबंधों का पता चल गया था. नादिर के इश्कबाजी के पुराने रिकौर्ड से वह अच्छी तरह वाकिफ था.

दाऊद ने बेटी के प्रेमसंबंधों को उछालने या उसे समझाने के बजाय नादिर की जिंदगी का पत्ता साफ करने का फैसला कर लिया. वह मौके की ताक में रहने लगा. रियाज और नादिर के बीच लड़ाईझगड़े और दुश्मनी का माहौल बना तो दाऊद ने नादिर के कत्ल की योजना बना डाली.

दाऊद को पता था कि नादिर ने मनीजा की मदद से छत की डुप्लीकेट चाबी बनवा ली है. घटना वाली रात को वह दबे पांव मनीजा के पहले छत पर पहुंच गया. नादिर छत पर मनीजा का इंतजार कर रहा था, तभी पीछे से अचानक पहुंच कर दाऊद ने उस की खोपड़ी पर वजनी रेंच से वार कर दिया.

एक ही वार में नादिर की खोपड़ी फट गई और वह मर गया. उस की जेब से चाबी निकाल कर दाऊद दरवाजे में ताला लगा कर नीचे आ गया.

मैं ने दाऊद से कहा कि वह बिल्डिंग का मालिक था. नादिर को वहां से निकाल सकता था. मारने की क्या जरूरत थी? जवाब में उस ने कहा, ‘‘मैं उस बदमाश को छोड़ना नहीं चाहता था. घर बदलने से उस की बुरी नीयत नहीं बदलती. वह मेरी मासूम बच्ची को फिर बहका लेता या फिर किसी सीधीसादी लड़की की जिंदगी बरबाद करता.’’

इस तरह नादिर को मासूम लड़कियों को अपने जाल में फंसाने की कड़ी सजा मिल गई थी.

प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन

 

हैवान ही नहीं दरिंदा बाप

25 वर्षीय राधा गुप्ता पता नहीं क्यों सुबह से बेचैन सी थी. घर के किसी काम में उस का मन नहीं लग रहा था. रहरह कर वह कभी कमरे से किचन में जाती और कभी किचन से कमरे में. उस ने यह क्रिया कई बार दोहराई तो कमरे में बैठे पति सुनील से रहा नहीं गया.

उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है राधा, मैं काफी देर से देख रहा हूं कि तुम किचन और कमरे के बारबार चक्कर लगा रही हो. आखिर बात क्या है?’’

‘‘आप को क्या बताऊं. मैं खुद भी नहीं समझ पा रही हूं कि मैं ऐसा क्यों कर रही हूं.’’ राधा ने झिझकते हुए उत्तर दिया, ‘‘पता नहीं सुबह से ही मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा. जी भी बहुत घबरा रहा है.’’

‘‘तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी?’’ पति ने पूछा.

‘‘हां, तबीयत ठीक है.’’

‘‘तो फिर क्या बात है, मन क्यों घबरा रहा है? कहो तो तुम्हें किसी डाक्टर को दिखा दूं?’’

‘‘अरे नहीं, आप परेशान मत होइए, डाक्टर की कोई जरूरत नहीं है. अभी थोड़ी देर में भलीचंगी हो जाऊंगी.’’

‘‘मैं तो इसलिए कह रहा था कि मैं ड्यूटी पर चला जाऊंगा, फिर रात में ही घर लौटूंगा. इस बीच कुछ हो गया तो…’’

‘‘अरे बाबा, मैं कहती हूं मुझे कुछ नहीं होने वाला. मेरी फिक्र मत करिए, आप आराम से ड्यूटी जाइए. वैसे भी कोई बात होती है तो घर वाले हैं न मुझे संभालने के लिए.’’ कह कर राधा कमरे से किचन की ओर चली गई.

इस बार किचन से वह पूरा काम निपटा कर निकली थी. पति को खाना खिला कर ड्यूटी भी भेज दिया.

काम निपटा कर वह बिस्तर पर लेटी ही थी कि तभी उस के फोन की घंटी बज उठी. फोन उठा कर उस ने देखा तो स्क्रीन पर उस के पापा जयप्रकाश गुप्ता का नंबर था. राधा ने झट से चहकते हुए काल रिसीव की.

उस दिन राधा को अपने पिता की बातों से मायूसी महसूस हुई तो उस ने उन से इस की वजह जाननी चाही. जयप्रकाश ने कहा, ‘‘क्या बताऊं बेटी, मुझ से एक अनर्थ हो गया.’’

‘‘अनर्थ? कैसा अनर्थ?’’ राधा ने पूछा.

‘‘बेटी, आवेश में आ कर मैं ने अपने ही हाथों फूल सी छोटी बेटी प्रिया को मौत के घाट उतार दिया.’’

‘‘क्याऽऽ! प्रिया को आप ने मार डाला?’’ राधा चीखती हुई बोली.

‘‘हां बेटी, उस की चरित्रहीनता ने मुझे हत्यारा बना दिया. मैं ने उसे सुधरने के कई मौके दिए लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रही थी और मेरे हाथों यह अनर्थ हो गया.’’

‘‘ये क्या किया आप ने पापा? मेरी बहन को मार डाला.’’ इतना कह कर राधा ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया और निढाल हो कर दहाड़ मारने लगी.

अचानक बहू के रोने की आवाज सुन कर उस के सासससुर घबरा गए कि अभी तो भलीचंगी किचन से अपने कमरे में गई है, फिर अचानक उसे हो क्या गया कि दहाड़ मार कर रोने लगी. वे दौड़े भागे बहू के कमरे में पहुंचे तो देखा कि बहू बिस्तर पर लेटी सिसकियां ले रही थी.

उस के ससुर ने जब बहू से रोने की वजह पूछी तो उस ने पूरी बात उन्हें बता दी. बहू की बात सुन कर ससुर भी चौंक गए कि समधी ने ये क्या कर दिया.

थोड़ी देर बाद जब राधा थोड़ी सामान्य हुई तो उस ने पति को फोन कर के सारी बातें बता दीं. सुनील भी आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने पत्नी के तहेरे भाई विनोद को फोन कर के यह बात बता कर उस से पूछा कि ऐसे हालात में क्या करना चाहिए.

काफी सोचविचार के बाद विनोद इस नतीजे पर पहुंचे कि बात पुलिस को बता देनी चाहिए क्योंकि यह मामला हत्या से जुड़ा है. आज नहीं तो कल यह राज खुल ही जाएगा. विनोद ने सुनील से कहा कि वह एसएसपी को फोन कर के इस की सूचना दे रहा है. उस के बाद गोला थाना जा कर वहां के एसओ से मिल लेंगे.

विनोद ने उसी समय एसएसपी डा. सुनील गुप्ता को अपना परिचय देते हुए पूरी घटना की जानकारी दे दी. मामला हत्या का था, इसलिए उन्होंने थाना गोला के एसओ संजय कुमार को तुरंत मौके पर पहुंच कर काररवाई करने के आदेश दिए.

कप्तान के आदेश पर एसओ संजय कुमार 17 अगस्त को ही जयप्रकाश गुप्ता के विशुनपुर स्थित घर पहुंचे. जयप्रकाश उस समय घर पर ही था. सुबहसुबह दरवाजे पर पुलिस को देख कर जयप्रकाश की जान हलक में फंस गई. उसे हिरासत में ले कर पुलिस थाने लौट आई.

एसओ संजय कुमार ने जयप्रकाश से उस की बेटी प्रिया के बारे में सख्ती से पूछताछ की तो उस ने बताया कि उस ने 27 जुलाई, 2019 को बेटी की गला घोंट कर हत्या कर दी, फिर उस की गरदन धड़ से अलग कर दी थी. बाद में सिर को प्लास्टिक के एक बोरे में भर कर उरुवा थाना क्षेत्र में फेंक दिया और धड़ वाले हिस्से और उस के पहने कपड़े दूसरे प्लास्टिक बोरे में भर कर गोला थाना क्षेत्र के चेनवा नाले में फेंक दिए थे.

प्रिया का सिर और धड़ बरामद करने के लिए पुलिस उसे मौके पर ले गई. उस की निशानदेही पर चेनवा नाले से धड़ बरामद कर लिया. 22 दिनों से धड़ पानी में पड़े रहने की वजह से सड़ कर कंकाल में तब्दील हो चुका था. पुलिस ने कंकाल को अपने कब्जे में ले कर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. लेकिन उस के सिर का कहीं पता नहीं चला.

एसओ संजय ने जब उस से पूछा कि तुम ने अपनी ही बेटी की हत्या क्यों की, तो दबी जुबान में जयप्रकाश गुप्ता ने जो जवाब दिया, उसे सुन कर वही नहीं, वहां मौजूद सभी ने अपने दांतों तले अंगुलियां दबा लीं. कलयुगी पिता जयप्रकाश ने रिश्तों की मर्यादा का खून किया था.

कंकाल बरामद होने से करीब 22 दिनों से रहस्य बनी प्रिया के राज से परदा उठ चुका था. बहन की हत्या से राधा बहुत दुखी थी. उसे पिता की घिनौनी करतूत पर गुस्सा आ रहा था. राधा ने साहस का परिचय देते हुए पिता जयप्रकाश के खिलाफ धारा 302, 201, 120बी भादंसं के तहत रिपोर्ट दर्ज करा दी.

जयप्रकाश गुप्ता से पूछताछ के बाद इस मामले की जो घिनौनी कहानी सामने आई, उसे सुन कर सभी हैरान रह गए.

करीब 55 वर्षीय जयप्रकाश गुप्ता मूलरूप से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के गोला थाना क्षेत्र के विशुनपुर राजा बुजुर्ग गांव का रहने वाला था. वह गल्ले का कारोबार करता था. करीब 15 साल पहले उस ने विशुनपुर राजा बुजुर्ग गांव में मकान बनवा लिया और परिवार के साथ रहने लगा था.

उस के परिवार में पत्नी और 2 बेटियां राधा और प्रिया थीं. जयप्रकाश को बेटे की चाहत थी लेकिन बेटा नहीं हुआ. तब उस ने बेटियों की परवरिश बेटों की तरह की. वह छोटे से खुशहाल परिवार के साथ जीवनयापन कर रहा था. दुकान से भी उसे अच्छी कमाई हो जाया करती थी.

जयप्रकाश गुप्ता की गृहस्थी की गाड़ी बड़े खुशहाल तरीके से चल रही थी. पता नहीं उस की गृहस्थी को किस की नजर लगी कि सब कुछ छिन्नभिन्न हो गया. बात साल 2009 की है. अचानक उस की पत्नी की मौत हो गई.

उस समय उस की दोनों बेटियां 10-12 साल के बीच की थीं. बेटियों की परवरिश की जिम्मेदारी जयप्रकाश पर आ गई थी. जयप्रकाश के बड़े भाई राधा और प्रिया को दिल से अपनी बेटी मानते थे और उन्हें उसी तरह दुलारते भी थे. प्रिया को तो वह बहुत ज्यादा लाड़प्यार करते थे. इसी तरह दोनों बेटियों की परवरिश होती रही.

बड़ी बेटी राधा शादी योग्य हो चुकी थी. राधा के सयानी होते ही जयप्रकाश के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. वह बेटी की जल्द से जल्द शादी कर देना चाहता था. उस के लिए वह लड़का देखने लगा. गोला इलाके में ही उसे एक लड़का पसंद आ गया तो जयप्रकाश ने साथ सन 2015 उस के में राधा की शादी कर दी. राधा की विदाई के बाद घर में जयप्रकाश और उस की छोटी बेटी प्रिया ही रह गए. धीरेधीरे प्रिया भी सयानी हो चुकी थी.

बात 2 साल पहले की है. प्रिया बाथरूम से नहा कर बाहर निकल रही थी. गीले बदन से उस के कपड़े चिपक गए थे. इत्तफाक से उसी समय जयप्रकाश किसी काम से घर में आया.

उस की नजर बेटी प्रिया पर पड़ी तो उस की आंखों में एक अजीब सी चमक जाग उठी और उस के शरीर में वासना के कीड़े कुलबुलाने लगे. उस वक्त उसे प्रिया बेटी नहीं, एक औरत लगी. वह उस के तन को नोचने की सोचने लगा.

इस के बाद जयप्रकाश यही सोचता रहा कि प्रिया को कब और कैसे अपनी हवस का शिकार बनाए. इसी तरह एक सप्ताह बीत गया. एक रात प्रिया जब अपने कमरे में गहरी नींद में सो रही थी, तभी जयप्रकाश दबेपांव उस के कमरे में पहुंचा और सो रही बेटी को अपनी हवस का शिकार बना लिया. पिता के कुकृत्य से प्रिया बिलबिला उठी.

हवस पूरी कर के जयप्रकाश ने प्रिया को धमकाया कि अगर उस ने किसी से कुछ भी कहा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगी. पिता की धमकियों से वह बुरी तरह डर गई और अपना मुंह बंद कर लिया. उस दिन के बाद से जयप्रकाश प्रिया को अपना शिकार बनाता रहा.

पिता की घिनौनी हरकतों से प्रिया बहुत दुखी थी. वह समझ नहीं पा रही थी कि अपनी पीड़ा किस से कहे. जयप्रकाश ने उस पर इतना कड़ा पहरा बैठा दिया था कि वह किसी से बात तक नहीं कर सकती थी. पिता के अत्याचार से बचने के लिए उस ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया.

इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रिया गोरखपुर में अपने एक रिश्तेदार के पास रहने लगी. वहां रहते हुए वह एक मौल में सेल्सगर्ल की नौकरी करने लगी ताकि  किसी पर बोझ न बन सके और उस की जरूरतें भी पूरी होती रहें.

बेटी तो बेटी होती है. भले ही वह कुकर्मी पिता से दूर रह रही थी लेकिन उसे पिता की यादें बराबर सताती रहती थीं इसलिए वह बीचबीच में घर आ जाती थी. वह जब भी घर आती थी, पिता उसे अपनी हवस का शिकार बनाता था.

26 जुलाई, 2019 को प्रिया घर गई थी. इस से अगली रात 27 जुलाई को जयप्रकाश ने उस से संबंध बनाने की कोशिश की. प्रिया ने इस बार पिता की मनमानी नहीं चलने दी और विरोध करने लगी. कामाग्नि में जलते पिता जयप्रकाश ने आव देखा न ताव, उस का गला घोंट कर हत्या कर दी.

पिता से हैवान और हैवान से दरिंदा बना जयप्रकाश पूरी नीचता पर उतर आया था. उस ने बेटी की मौत के बाद उस की लाश के साथ अपना मुंह काला किया. जब उस की कामाग्नि शांत हुई तो उसे होश आया. उस की आंखों के सामने फांसी का फंदा झूल रहा था. वह सोचने लगा कि प्रिया की लाश से कैसे छुटकारा पाए.

काफी देर सोचने के बाद उस के दिमाग में एक योजना ने जन्म लिया. वह कमरे में गया और वहां से तेजधार वाला चाकू ले आया. चाकू से प्रिया का उस ने सिर और धड़ अलग कर दिया. सिर उस की इस करतूत से फर्श पर खून ही खून फैल गया.

फिर उस ने बेटी के शरीर से उस के सारे कपड़े उतार दिए और उन्हीं कपड़ों से फर्श पर फैले खून को साफ किया ताकि पुलिस को उस के खिलाफ कोई सबूत न मिल सके. इस के बाद वह कमरे के अंदर से प्लास्टिक के सफेद रंग के 3 बोरे ले आया. उस ने एक बोरे में सिर, दूसरे में धड़ और तीसरे में प्रिया के खून से सने कपड़े रखे.

रात 2 बजे के करीब जयप्रकाश ने अपनी मोपेड पर तीनों बोरे लाद दिए और उन्हें ठिकाने लगाने के लिए निकल गया. सिर को उस ने उरुवा थाने के अंतर्गत आने वाली एक जगह की झाड़ी में फेंक दिया.

फिर धड़ और कपड़े वाले बोरों को ले कर वह वहां से गोला के चेनवा नाला पहुंचा. नाले में उस ने दोनों बोरे ठिकाने लगा दिए. इस के बाद वह घर लौट आया और हाथमुंह धो कर इत्मीनान से सो गया. पते की बात यह रही कि प्रिया के अकसर गोरखपुर में रहने की वजह से उस के अचानक गायब होने पर किसी को शक नहीं हुआ.

अब जयप्रकाश को एक बात की चिंता खाए जा रही थी कि भले ही लोग यह समझते हों कि प्रिया गोरखपुर में नौकरी कर रही है, लेकिन यह बात ज्यादा दिनों तक राज नहीं रह सकेगी. एक न एक दिन पुलिस इस हत्या से परदा हटा ही देगी तो वह उम्र भर जेल की चक्की पीसेगा. उस ने सोचा कि क्यों न ऐसी चाल चली जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

काफी सोचविचार करने के बाद उस ने अपने दामाद पर ही साली यानी प्रिया के अपहरण का आरोप लगाने की योजना बनाई. इस से जयप्रकाश का फायदा ही फायदा था. भविष्य में वह न तो कभी प्रिया की तलाश कर सकता था और न ही उस की हत्या का राज खुल सकता था. वक्त जयप्रकाश का बराबर साथ दे रहा था.

कुछ दिन बाद जयप्रकाश ने दामाद सुनील के पिता को फोन कर प्रिया के गायब होने की सूचना दी. बातचीत में उस ने बेटी के गायब होने के पीछे सुनील का हाथ होने का आरोप लगाया. सुनील के पिता समधी का आरोप सुन कर चौंके.

उन्होंने इस बारे में बेटे सुनील से बात की तो साली के अपहरण का आरोप खुद पर लगने से सुनील सन्न रह गया. उस ने यह बात पत्नी राधा को बताई. राधा भी पति की बात सुन कर हैरान थी.

राधा ने उसी समय पिता को फोन किया तो जयप्रकाश ने सुनील पर बेटी के अपहरण का आरोप लगाते हुए मुकदमा दर्ज कराने की धमकी देनी शुरू कर दी. पिता की बात सुन कर राधा और सुनील एकदम परेशान हो गए. जबकि वे खुद भी कई दिनों से प्रिया के मोबाइल पर संपर्क करना चाहते थे. लेकिन उस का फोन स्विच्ड औफ था.

फिर 17 अगस्त, 2019 को जयप्रकाश ने खुद ही बेटी राधा को फोन कर के प्रिया की हत्या करने की जानकारी दे दी.

बहरहाल, घटना की जानकारी होने पर राधा पति सुनील के साथ 17 अगस्त को ही गांव पहुंच गई. पूछताछ में उन्होेंने पुलिस को बताया कि पहले प्रिया उन से फोन पर बातें करती रहती थी, लेकिन बाद में पिता के दबाव में उस ने उन से बात करनी बंद कर दी थी.

बीते 29 मई को एक रिश्तेदार के यहां शादी समारोह में राधा और सुनील भी गए थे. उस समारोह में प्रिया भी आई थी. राधा ने वहीं पर प्रिया से मुलाकात के दौरान उस से पूछा कि वह उसे फोन क्यों नहीं करती, तो प्रिया ने पिता के दबाव की वजह से फोन न करने की बात कही थी.

जब उस ने वह वजह पूछी तो उस ने कुछ नहीं बताया. इस के बाद से वह कभीकभार बहन और जीजा को फोन कर लेती थी लेकिन पिता की हरकत के बारे में उस ने उन से कभी कोई चर्चा नहीं की थी.

अगर प्रिया ने थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो उसे असमय मौत के आगोश में यूं ही नहीं समाना पड़ता. वह भी जिंदा होती और खुशहाल जीवन जीती.

यही नहीं, मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ चुके कलयुगी पिता को भी सलाखों के पीछे पहुंचवा सकती थी, लेकिन सामाजिक लोकलाज और डर के चलते उस ने ऐसा नहीं किया, जिस की कीमत उसे अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी.

पुलिस ने जयप्रकाश गुप्ता से पूछताछ के बाद उसे कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. कथा लिखे जाने तक जयप्रकाश जेल की सलाखों के पीछे कैद था. उस की निशानदेही पर पुलिस हत्या में इस्तेमाल मोपेड, चाकू आदि बरामद कर चुकी थी.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

शहजादी की अधूरी मोहब्बत

उस दिन शाम होतेहोते किले की दिन भर की चहलकदमी कुछ कम हो चुकी थी. दिन भर की यात्रा के बाद सूरज भी छिप चुका था, जिस की वजह से अंधेरा अपने पैर पसारने लगा था.

सूरज छिपने से हवा सर्द हो गई थी. इस तरह के खुशनुमा मौसम में जैबुन्निसा पलंग पर बैठी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी. क्योंकि उस समय उस के कमरे में किसी के आने का खतरा नहीं था. अपने जज्बातों को कागज पर उतारते समय वह इस तरह खयालों में खो जाती कि उसे होश ही न रहता कि वह कहां है.

अभी उस ने 4 लाइनें ही लिखी थीं कि उसे लगा कि उस के कमरे की ओर कोई आ रहा है. पदचाप से तो यही लग रहा था कि आने वाला कोई उम्रदराज इंसान है. और वह उसी के कमरे की ओर बढ़ा चला आ रहा था. जैबुन्निसा को लगा कि कहीं अब्बा हुजूर तो नहीं आ रहे हैं. अब्बा हुजूर का खयाल आते ही वह सहम उठी. उस ने कलमदवात और कागज झट तकिए के नीचे छिपा दिए और पलंग पर आंखें मूंद कर इस तरह लेट गई, जैसे वह आराम कर रही हो.

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औरंगजेब की सब से बड़ी संतान जैबुन्निसा को वैसे तो अपने अब्बा हुजूर और अम्मी दिलरस बानो बेगम का खूब प्यार मिलता था. उस का जन्म 15 फरवरी, 1638 को दौलताबाद में हुआ था. तब औरंगजेब बादशाह नहीं था. वह अपनी इस बेटी से बेइंतहा प्यार करता था. अपनी इस बेटी की वजह से उस ने कई लोगों को माफी दे दी थी. वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने औरंगजेब की मुखालफत की थी. इस से जैबुन्निसा के प्रभाव को समझा जा सकता है.

जैबुन्निसा हुस्न की मलिका ही नहीं थी, बल्कि बहुत कम उम्र में ही वह आलिमा और फाजिला भी हो गई थी. वह 7 साल की थी, तभी उसे कुरान याद हो गया था और वह हाफिजा बन गई थी. बेटी की इस उपलब्धि पर औरंगजेब ने खूब धूमधाम से जश्न तो मनाया ही था, उसे 30 हजार सोने के सिक्के इनाम में दिए थे.

यही नहीं, उस ने कुरान सिखाने वाली उस्ताद को भी 30 हजार सोने के सिक्के इनाम दिए थे. उस दिन सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर दिया गया था.

इस के बाद जैबुन्निसा ने फारस के विद्वान सईद अशरफ मंजधरानी से दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास व साहित्य की पढ़ाई की थी. अशरफ एक फारसी कवि थे. काफी कम उम्र में ही जैबुन्निसा ने अपने महल की लाइब्रेरी को खंगाल डाला था.

औरंगजेब उसे 4 लाख अशर्फियां खर्च करने के लिए देता था. इन पैसों से उस ने ग्रंथों का आम भाषा में अनुवाद कराना शुरू कर दिया था. जैबुन्निसा काफी सादगी से रहती थी, इसलिए अपनी इस बुद्धिमान बेटी से औरंगजेब को काफी लगाव था. औरंगजेब उस की पढ़ाई में रुचि देख कर बाहर से किताबें मंगवाने लगा था.

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जैबुन्निसा 14 साल की थी, तभी शेरोशायरी लिखने लगी थी. कहा जाता है कि उस समय उस के पास बहुत बढिय़ा लाइब्रेरी थी. दरबार के पढ़ेलिखे लोगों से उस के संबंध थे, इस में कई कवि और साहित्यकार भी शामिल थे.

शेरोशायरी और कविताएं लिखने के अलावा जैबुन्निसा को संगीत में भी रुचि थी. उस समय उस की गिनती एक बेहतरीन गायिकाओं में होती थी. वह बहुत ही दयालु स्वभाव वाली थी, इसलिए वह दूसरों की मदद करने में विश्वास रखती थी.

वक्त के साथ जैबुन्निसा एक बेहतरीन शायरा हो कर उभरी. फिर तो उसे मुशायरों में भी बुलाया जाने लगा. सख्तमिजाज और कट्टर औरंगजेब को यह सब बिलकुल पसंद नहीं था. इसलिए जैबुन्निसा अब्बा हुजूर से छिप कर मुशायरों में जाने लगी थी. इस में उस का सहयोग करते थे औरंगजेब के दरबारी कवि.

जैबुन्निसा शेरोशायरी फारसी में लिखती थी. यह उस के अब्बा हुजूर को पसंद नहीं था, इसलिए वह अपने नाम से न लिख कर नाम बदल कर ‘मखफी’ नाम से लिखा करती थी.

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लंबे कद की हिरनी जैसी चाल वाली जैबुन्निसा को कविताओं के साथ फैशन की भी गहरी समझ थी. आमतौर पर वह बहुत सादगी से रहती थी, पर जब वह मुशायरों में जाती थी तो बिलकुल अलग ही ढंग से तैयार हो कर जाती थी.

तब वह एकदम सफेद कपड़े पहनती थी और उस पर सफेद मोतियों की माला डाला करती थी. मोतियों के अलावा वह कोई अन्य रत्न शरीर पर नहीं डालती थी. कहा जाता है कि जैबुन्निसा ने एक खास तरह की कुरती का डिजाइन खुद तैयार किया था, जो तुर्कमान में पहनी जाने वाली कुरती से काफी मिलतीजुलती थी. उसे ‘अन्याया कुरती’ कहा जाता था.

एक बार जैबुन्निसा किसी मुशायरे में बुंदेलखंड गई थी तो उस की नजर वहां के महाराजा छत्रसाल पर पड़ी. छत्रसाल की वीरता के बारे में उस ने पहले ही बहुत कुछ सुन रखा था.

4 मई, 1649 को पैदा हुए महाराजा छत्रसाल बुंदेला का एक महाप्रतापी राजपूत योद्धा था. उस ने मुगल बादशाह औरंगजेब को हरा कर बुंदेलखंड में अपने स्वतंत्र बुंदेला राज्य की स्थापना की थी. जैबुन्निसा की नजर मुशायरे में आए महाराजा छत्रसाल पर पड़ी तो वह उसे देखती ही रह गई. वह उसे देखती ही नहीं रह गई, बल्कि उस वीर योद्धा की कदकाठी और खूबसूरती पर उन का दिल आ गया.

वह अपने दिल की बात सीधे महाराजा से कह नहीं सकती थी, इसलिए उस ने उसे एक खत लिखा था. महाराजा का कोई जवाब आता, उस के पहले ही न जाने कैसे इस बात की जानकारी औरंगजेब को हो गई थी.

जो आदमी हिंदुओं से इतनी नफरत करता रहा हो और जो हिंदू होने के अलावा उस का दुश्मन रहा हो, उस से उस की बेटी प्यार करे, भला वह कैसे बरदाश्त करता. महाराजा छत्रसाल बुंदेला से औरंगजेब की कट्टर दुश्मनी थी. धर्म के मामले में भी वह बेहद कट्टर था. इसलिए उसे यह कतई मंजूर नहीं था कि उस के परिवार का कोई सदस्य किसी हिंदू राजा से संबंध रखे.

लिहाजा औरंगजेब ने बेटी को खूब फटकारा था और साफ शब्दों में कहा था कि अब वह उस का नाम लेने की कौन कहे, उस के बारे में सोचेगी भी नहीं.

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इस तरह जैबुन्निसा को अपने पहले प्यार को भुलाना पड़ा. उस के लिए यह आसान नहीं था. पर उस ने अपना ध्यान शेरोशायरी और कविताओं में लगाया. जैबुन्निसा का विवाह बचपन में ही उस के ताया के बेटे सुलेमान शिकोह से तय कर दिया गया था. लेकिन सुलेमान की हत्या हो जाने से उस का विवाह उस के साथ नहीं हो सका था.

बेटी का मन इधरउधर न भटके, इसलिए औरंगजेब उसे अपने साथ दरबार में बैठाने लगा था. बेटी की काबिलियत से वह वाकिफ तो था ही, इसलिए वह साम्राज्य के राजनीतिक मामलों में उस से सलाह लेता था. इतना ही नहीं, साम्राज्य के अहम मुद्दों पर वह उस से विचारविमर्श भी करता था. ऐसे में ही एक दिन जैबुन्निसा दरबार में बैठी थी. पूरा दरबार भरा हुआ था. औरंगजेब उस भरे दरबार में मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी का इंतजार कर रहा था.

थोड़ी देर में जयसिंह का बेटा रामसिंह शिवाजी को ले कर दरबार में पहुंचा तो दरबार में सन्नाटा पसर गया. सभी की नजरें शिवाजी पर टिक गई थीं, क्योंकि यह वह शख्स था, जिस ने मुगल साम्राज्य का विरोध किया था. मुगल बादशाह औरंगजेब को चुनौती दी थी.

इस मुलाकात में औरंगजेब ने शिवाजी को एक निश्चित दूरी तक ही आगे बढऩे का आदेश दिया. अपने तय स्थान पर पहुंच कर शिवाजी ने बादशाह को 30 हजार अशर्फियां नजराना देने के साथ 3 बार झुक कर सलाम किया. यह पहली बार हुआ था, जब शिवाजी ने किसी अन्य धर्म के बादशाह को सलाम किया था.

जयसिंह ने शिवाजी से कहा था कि दरबार में उन्हें पूरा सम्मान मिलेगा. उन्हें वहां ऊंचे ओहदे वालों के बीच बैठाया जाएगा. पर मुलाकात के बाद शिवाजी को निम्न ओहदे वालों के बीच बैठाया गया, जिस से शिवाजी ने खुद को अपमानित महसूस किया. वह जान गए कि उन के साथ यह व्यवहार जानबूझ कर किया गया है.

वह अपने इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर सके और इस के लिए उन्होंने भरे दरबार में नाराजगी व्यक्त कर दी. शिवाजी के नाराजगी व्यक्त करते ही दरबार में हड़कंप मच गया. औरंगजेब ने रामसिंह से कहा कि वह शिवाजी को दरबार से बाहर ले जाएं.

यह सब दरबार में झीने परदे के पीछे बैठी शहजादी जैबुन्निसा भी देख रही थी. शहजादी को शिवाजी के आने की खबर पहले ही मिल चुकी थी. शिवाजी के बहादुरी के किस्से उस ने सुन रखे थे. इसलिए उसे देखने की लालसा उस के मन में थी. उस समय शिवाजी 39 साल के थे और शहजादी जैबुन्निसा 27 साल की थी.

दरबार में शिवाजी की निडरता और मर्दाना सुंदरता देख कर वह उन से प्रभावित तो हुई ही, उन की ओर आकर्षित भी हुई. यही वजह थी कि उस ने एक बार फिर अपने अब्बा हुजूर से शिवाजी को दरबार में बुलाने को कहा. बादशाह मान भी गया.

इस बार शिवाजी को दरबार में आने का संदेश जैबुन्निसा ने खुद भेजा. शिवाजी आए तो पर इस बार उन्होंने बादशाह को सलाम नहीं किया. उन्होंने कहा कि वह एक शहजादे के रूप में पैदा हुए हैं, इसलिए वह गुलामों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते. इतना कह कर शिवाजी ने बादशाह के सिंहासन की ओर पीठ कर ली.

यह बात औरंगजेब को बहुत ही नागवार गुजरी. वह कोई क्रूर आदेश देने ही वाला था कि शिवाजी ने कहा, ”मैं अपने आत्मसम्मान और मर्यादा के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता, भले ही मेरी जान क्यों न चली जाए.’’

औरंगजेब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उस ने अपने सिपहसालार फुलद खान को आदेश दिया, ”शिवाजी को कैद कर के नजरबंद कर दो. इन पर सख्त पहरा बैठा दो.’’

शिवाजी को नजरबंद कर दिया गया. उन की कोठरी के सामने सख्त पहरा था. इस के बावजूद वह औरंगजेब के सिपहसालारों को चकमा दे कर फरार हो गए. कहा जाता है कि शिवाजी को फरार होने में जैबुन्निसा ने मदद की थी.

औरंगजेब को भी जैबुन्निसा पर शक था. यह भी कहा जाता है कि शहजादी ने शिवाजी के सामने प्रेम प्रस्ताव भी रखा था, लेकिन शिवाजी ने साफ इनकार कर दिया था. इस तरह शहजादी का यह दूसरा प्यार भी असफल हो गया था.

प्यार में दूसरी बार असफल होने के बाद शहजादी जैबुन्निसा फिर से पूरी तरह शेरोशायरी में डूब गई. लेकिन कट्टर औरंगजेब को कतई पसंद नहीं था कि उस की बेटी शेरोशायरी करे और महफिलों में भाग ले. उस की लिखी शेरोशायरी मर्दों की नजरों के सामने पढ़ी जाए और वे जैबुन्निसा से प्रभावित हो कर उस की ओर खिंचे चले आएं. लिहाजा जैबुन्निसा पर शेरोशायरी लिखने पर सख्त पाबंदी लगा दी थी.

एक ओर अब्बा हुजूर का हुक्म और दूसरी ओर जैबुन्निसा का शेरोशायरी से लगाव. इस बात को ले कर दिल और दिमाग में जंग चलती रही. इन पाबंदियों से जैबुन्निसा का दम घुटने लगा था. लेकिन कलम उस का साथ दे रही थी, वह मन की घुटन वह कलम से कागज पर उतार देती थी. इसलिए उस की घुटन नासूर नहीं बन पाई.

वह नाम बदल कर लिखती रही और मुशायरों महफिलों में जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. कलम अपनी गति से चलती रही और मन का गुबार कागज पर उतरता रहा.

महफिलों में किसी को पता नहीं चल पाता था कि यह नौजवान, खूबसूरत कमसिन सी दिखने वाली शायरा, जो इतनी खूबसूरती और सलीके से बुलंद आवाज में नज्में पढ़ रही है, वह दिल्ली के बादशाह मुहिउद्दीन औरंगजेब आलमगीर की बेटी है. उस के कोमल गले में पड़ी मोतियों की माला उस की खूबसूरती को और बढ़ा देती थी.

पहनने ओढऩे, नज्म पढऩे और बात करने का सलीका ऐसा था कि किसी को भी अपना दीवाना बना ले. हीरेजवाहरात जड़े सोने के पिंजरे में इस शहजादी का दम घुटता था. यही शेरोशायरी की महफिलें उस के लिए औक्सीजन का काम करती थीं.

उन दिनों ऐसी महफिलों में शामिल होने वाले मशहूर शायर थे गनी कश्मीरी, नामतुल्लाह खान और अकील खां रजी. उस दौर में इन की गिनती मशहूर शायरों में होती थी. अपनी दिलकश शायरी की वजह से जैबुन्निसा की भी मांग बढऩे लगी थी. महफिलों में आ कर उन्हें सोने के पिंजरे से रिहाई का अहसास होता था. क्योंकि यहां वह अपने जज्बातों को कह पाती थी. उसे शायरों, मलंगों और सूफियों की यह महफिल बहुत अच्छी लगने लगी थी. इस के लिए वह दारा शिकोह की शुक्रगुजार रही थी.

जैबुन्निसा धीरेधीरे शेरोशायरी में डूबती चली गई. एक कहावत है न कि ‘बैठता नहीं जब तक आदमी मलंगों के बीच, दिल्लगी तो आती है, पर आशिकी नहीं आती.’

शहजादी जैबुन्निसा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. ऐसी ही महफिलों में एक दिन उस का सामना उस समय के लाहौर के गवर्नर और प्रसिद्ध शायर अकील खां रजी से हुआ.

रजी की शायरी ने ही नहीं, उन की शख्सियत ने भी शहजादी जैबुन्निसा को प्रभावित किया. अकील खां जितने अच्छे शायर थे, उस से कहीं ज्यादा उन की मर्दानी खूबसूरती थी. यही वजह थी कि वह महफिलें लूट लिया करते थे. अकील खां से मिल कर जैबुन्निसा को लगा कि उन्हें जिस चेहरे की तलाश थी, अब वह मिल गया है.

धीरेधीरे जैबुन्निसा का झुकाव अकील खां की ओर होने लगा. उस के मन में अकील खां के लिए दीवानापन पनपने लगा. एक मधुर, लेकिन अनकहा संबंध आकार लेने लगा.

नतीजा यह निकला कि ये अदबी मुलाकातें धीरेधीरे निजी मुलाकातों में तब्दील होने लगीं. समय के साथ इन का इश्क परवान चढऩे लगा. सूफी मिजाज दोनों शायरों की नजदीकियां बढऩे लगीं.

शहजादी जैबुन्निसा उस रत्न जड़े सोने के पिंजरे और ऐशोआराम से रिहाई चाहती थी, जहां उस का दम घुट रहा था. अब वह अकील खां की मोहब्बत के पिंजरे में हमेशाह मेशा के लिए कैद होना चाहती थी.

वह जब भी अकेली होती, अकील खां के बारे में ही सोचती रहती. लेकिन जब अब्बा हुजूर का खयाल आता तो हकबका कर उठ बैठती. खुद को बेबस महसूस करते हुए उस की आंखें भीग जातीं.

मोहब्बत का यह जुनून एक ओर ही नहीं था. अकील खां रजी जो उस समय औरंगजेब की लाहौर रियायत के गवर्नर थे, उन्हें भी कब शहजादी जैबुन्निसा से इश्क हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला. एक ओर उन का गवर्नर का ओहदा था तो दूसरी ओर जैबुन्निसा की मोहब्बत. एक तरह से वह अंगारों पर चल रहे थे.

किले में जैबुन्निसा की सेवा में लगी सेविकाएं जहां हंसती खिलखिलाती रहती थीं, वहीं शहजादी किसी अनहोनी से डरी सहमी गुमसुम रहती.

उस पर हमेशा इस बात की दहशत छाई रहती कि अगर उस के अब्बा हुजूर को उस की शेरोशायरी और मोहब्बत के बारे में पता चल गया तो कयामत ही आ जाएगी. वह न उसे बख्शेंगे और न अकील खां को. एक ओर उस पर यह दहशत छाई रहती तो दूसरी ओर वह महफिलों में भी जाती रही और अकील खां से मिलती भी रही.

जैसा कहा जाता है कि इश्क और मुश्क कभी छिपाए नहीं छिपते, वैसा ही कुछ शहजादी जैबुन्निसा के मामले में भी हुआ. आखिर जैबुन्निसा के इश्क की आग की आंच औरंगजेब तक पहुंच ही गई. जैसे ही बेटी के प्यार की खबर औरंगजेब को हुई, वह आगबबूला हो उठा. वह सीधे जैबुन्निसा के कमरे में पहुंच गया.

अब्बा हुजूर के कदमों की आहट सुन कर ही जैबुन्निसा ने कलमदवात और कागज छिपा दिए थे. जैसे ही औरंगजेब कमरे में पहुंचा, जैबुन्निसा पलंग से उठ कर खड़ी हो गई. औरंगजेब की आंखें गुस्से में अंगारे उगल रही थीं तो भौंहें तनी हुई थीं. उस ने बेटी से कुछ पूछने के बजाय सीधे अपना फैसला सुना दिया, ”मेरी नजरों के सामने से ले जाओ इस आजाद खयाल लड़की को. इसे ले जा कर सलीमगढ़ के उसी किले में कैद कर दो, जहां इस के महबूब ने दम तोड़ा था. जब तक मैं न कहूं, इसे बाहर न जाने देना. इसे वहीं कैद रखना.’’

इतना कह कर औरंगजेब गुस्साए सांप की तरह फुफकारता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया. औरंगजेब का हुक्म होते ही महल के अंदर सेविकाएं शहजादी का सामान संदूकों में रखने लगीं तो बाहर सेवक उसे सलीमगढ़ ले जाने की तैयारी करने लगे. जबकि शहजादी पर अब्बा हुजूर के इस हुक्म का कोई असर नहीं हुआ.

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वह कमरे की खिड़की के पास बैठी खुले आसमान में उड़ते परिंदों को निहार रही थी. वह उन्हें देखते हुए यही सोच रही थी कि उस से अच्छे तो ये परिंदे हैं, जो आजादी से जहां मन होता है आते जाते हैं, प्यार करते हैं. यह देख कर उस ने जो तोता पाल रखा था, उस का पिंजरा उठाया और उसे आजाद कर दिया. खुला आसमान पा कर वह पंख फडफ़ड़ाते हुए उडऩे लगा. शहजादी उसे तब तक देखती रही, जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गया.

वह उसी के बारे में सोचते हुए खिड़की के पास बैठी थी कि तभी पीछे से एक सेविका ने आवाज दी, ”शहजादी.’’

खयालों में डूबी शहजादी ने शायद उस की आवाज सुनी नहीं. कोई जवाब न पा कर सेविका ने दोबारा आवाज दी, ”शहजादी.’’

बिखरे बालों को समेटते हुए शहजादी जैबुन्निसा ने पलट कर सेविका की ओर देखा, ”क्या बात है?’’

”शहजादी बादशाह सलामत ने आप को सलीमगढ़ जाने का हुक्म दिया है,’’ सेविका ने कहा.

”लेकिन क्यों?’’ शहजादी ने पूछा.

सेविका इस बात का क्या जवाब देती. घबराई सेविका ने कहा, ”बस, बादशाह सलामत का हुक्म है.’’

सफर के सामान के साथ जरूरत का भी सामान घोड़ा गाडिय़ों पर लादा जाने लगा. इस के बाद सिपाही शहजादी को सलीमगढ़ के उस किले की ओर ले कर चल पड़े, जहां उस के प्रेमी अकील खां रजी को हाथियों से कुचलवा कर तड़पा तड़पा कर मौत की सजा दी गई थी.

एक उदास काफिला सलीमगढ़ की ओर चला जा रहा था. कहार उदासी से शहजादी की डोली लिए चल रहे थे. वह राह भी उदास थी, जिस राह से शहजादी का यह काफिला गुजर रहा था.

आखिर यह काफिला सलीमगढ़ पहुंच गया, जहां न तो आगरा जैसी चहलपहल थी और न रौनक. किला सुनसान था. वहां सिपाहियों के अलावा और कोई नहीं था. वहां न दरबार था और न दरबारी. चारों ओर सन्नाटा पसरा था. किला भूत बंगले जैसा लगता था.

जैबुन्निसा ने किले में प्रवेश किया और उस कमरे की ओर बढ़ गई, जो उस के रहने के लिए बताया गया था. साथ आए सेवकों ने शहजादी का सामान ला कर अंदर रखा तो सेविकाओं ने उसे करीने से रखना शुरू किया.

दिन गुजर गया. रात होते ही शहजादी जब अकेली पड़ी तो उसे लगा कि अब बाकी की जिंदगी यहीं बीतनी है. उस के अब्बा हुजूर ने उसे प्यार करने की यही सजा दी है. वह अतीत में खो गई. उसे वे बातें याद आने लगीं, जो उस ने अब तक बचपन से देखी थीं.

इतिहास गवाह है कि बादशाहत को पाने के लिए मुगल सम्राट कभी अपनों का भी खून बहाने में नहीं हिचके. इन में औरंगजेब तो सब से बदनाम माना जाता है.

अपनी बीमारी की वजह से शाहजहां विरासत की हिफाजत के लिए चिंतित था. एक दिन इसी खयाल में डूबे बादशाह के मन में आया कि क्यों न वह अपने बेटे दारा को ही दिल्ली की गद्दी सौंप दे, क्योंकि वह बुद्धिमान होने के साथसाथ सुलझा और अमनपसंद भी है.

शाहजहां को अपना यह विचार उचित लगा और उस ने दारा को बुला कर कहा, ”मैं चाहता हूं कि मेरे जिंदा रहते तक तुम दिल्ली की गद्दी को संभालो. जब तक मैं जिंदा हंू, तब तक तुम दिल्ली के बादशाह रहो.’’

दारा चुपचाप अब्बा हुजूर का आदेश सुनता रहा. उस के अब्बा हुजूर ने उस से जो कहा, इस बारे में उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इतना कह कर शाहजहां ने आगे कहा, ”अब तुम दिल्ली को देखो. मैं आगरा जाना चाहता हूं. इस के लिए तैयारी करो.’’

शाहजहां ने तो दारा को दिल्ली संभालने का आदेश दे दिया, लेकिन उस के मन में अनेक सवाल उठ रहे थे. आगरा जाने की तैयारी कर रहे शाहजहां से दारा ने उलझन में कहा, ”अब्बा हुजूर, मैं इस तरह के फैसले को कैसे मान लूं, जिस में पूरे परिवार की सहमति न हो.’’

बूढ़े हो चुके शाहजहां ने दारा की ओर देखा तो उस ने आगे कहा, ”इस तरह का कोई भी फैसला लेने से पहले आप को हमारे भाइयों से राय लेनी चाहिए थी. क्योंकि हो सकता है आप का यह फैसला हमारे भाइयों को मंजूर न हो. क्या आप ने इस बारे में शुजा, औरंगजेब और मुराद से कोई बात की है?’’

”मैं ने इस की कोई जरूरत नहीं समझी.’’ शाहजहां ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ”अभी तो मैं ही बादशाह हंू. जो फैसला लेना होगा, मैं ही लूंगा और उसे सभी को मानना होगा.’’

”अब्बा हुजूर, आप का यह फैसला हमारे भाइयों में फूट की वजह बन सकता है. इस से किले में बगावत हो सकती है.’’ दारा ने शंका व्यक्त की.

बेटे की बात बादशाह शाहजहां चुपचाप सुनता रहा. दारा का सोचना गलत नहीं था. जैसा बादशाह का सोचना था कि दारा समझदार और बुद्धिमान है तो यह बात सच थी. वह समझदार और बुद्धिमान था, तभी उस ने अपने अब्बा हुजूर से यह बात कही थी. बेटे की बात सुन कर बादशाह सोच में पड़ गया.

क्योंकि दूसरी ओर जैसे ही यह बात लोगों के कानों तक पहुंची, सचमुच दारा का खयाल सच होता नजर आने लगा. जल्दी ही हकीकत सामने नजर आती लगी, जिस का दारा को अंदेशा था. जब इस बात की जानकारी औरंगजेब को हुई तो उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा. शुजा और मुराद भी इस बात से नाराज थे, लेकिन अब तो जो होना था, वह हो गया था. शाहजहां बाकायदा दिल्ली में ऐलान कर चुका था.

शुजा और मुराद तो कुछ नहीं बोले, पर औरंगजेब चुप नहीं रह सका. उस ने बादशाह शाहजहां से गुस्से में आ कर कहा, ”दारा बादशाह बनने लायक नहीं है. वह काफिर है. वह हिंदू धर्मग्रंथों की कुरान से बराबरी करता है. उस का कहना है कि कुरान और गीता एक जैसे हैं. वह गीता का अनुवाद कर रहा है. जनता उसे कभी माफ नहीं करेगी. मुसलमान तो उसे काफिर कहते हैं.’’

औरंगजेब ने अपनी बात इस तरह कही थी, जैसे वह उसे उसी समय हटा देगा. बहन जहांआरा ने उसे बहुत समझाया, पर वह कुछ समझने को तैयार नहीं था. वह अपनी जिद पर अड़ा था. क्योंकि उस के मन में जो शक था, वह दूर नहीं हो रहा था. जिस का एक ही अंत था खूनखराबा.

आखिर उस का शक सच साबित हुआ. गद्दी के लिए लड़ाइयां शुरू हो गईं. कल तक जो साथ देने वाले थे, आज वे दुश्मन के साथ खड़े थे. आखिर औरंगजेब ने अपने 2 भाइयों शुजा और मुराद को ठिकाने लगवा दिया. अब वह दारा के खून का प्यासा था. वह उसे तड़पा तड़पा कर मारना चाहता था.

दरअसल, औरंगजेब दिल्ली की जनता को यह जताना चाहता था कि दिल्ली का बादशाह दारा जैसा काफिर नहीं, एक सच्चा और कट्टर मुसलमान है, जो अपने भाइयों और बाप का नहीं तो किसी और का क्या हो सकता है.

उस ने क्रूरता से दारा की हत्या कराने का पूरा इंतजाम कर लिया. उस के बाद उस ने शाहजहां से स्पष्ट कह दिया था कि वह उस की ताजपोशी का दोबारा ऐलान कराएं. उस ने अपने सैनिकों से कह दिया कि दारा का सिर धड़ से अलग कर दो और दिल्ली में घोषणा कर दो कि अब दिल्ली का बादशाह औरंगजेब है.

फिर तो एक थाली में दारा का सिर सजा कर दरबार में औरंगजेब के सामने पेश किया गया. औरंगजेब ने उस की ओर नफरत से देखते हुए कहा, ”इसे हटाओ मेरी नजरों के सामने से. इसे ले जा कर दफन कर दो.’’

इस तरह मुगल खानदान के एक सूफी मिजाज बादशाह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. भाई का कटा सिर देख कर औरंगजेब ने राहत की सांस ली.

भाई को मौत के घाट उतरवा कर उस ने एक किला और फतह कर लिया. लेकिन अभी उस के कलेजे की आग ठंडी नहीं हुई थी. उस की लड़ाई चलती रही, जिस में उस की बड़ी बेटी जैबुन्निसा से जिस सुलेमान शिकोह से उस की शादी होने वाली थी, वह भी मारा गया. सुलेमान की मौत का दुख जैबुन्निसा को भी बहुत हुआ था. सुलेमान उस का होने वाला पति ही नहीं, तायाजाद भाई और एक सरपरस्त बेटा भी था.

बाप बेटे को मौत के घाट उतारने के बाद आगरा तो सूना हो ही गया था, इस की दहशत दिल्ली तक पहुंच गई थी. वसीयत की इस जंग में जैबुन्निसा को तबाही साफ दिखाई दे रही थी. उस ने देखा कि गुस्सा किस तरह आदमी की सोचने समझने की शक्ति को खत्म कर देता है.

उस के अब्बा हुजूर ने गद्दी के लिए अपनों का खून करा दिया था. कितने बेरहम हैं वह. यह सोच कर उस ने अंधेरे में भी आंखें भींच लीं. उसे किसी अनहोनी का डर बारबार सता रहा था. उस का शरीर कांप उठा कि न जाने अब किस की बारी है.

वह अपने आशिक की जिंदगी की खैर मांगने लगी थी. अचानक औरंगजेब दीवानखाने में दाखिल हुआ. उस ने अपने खास सिपहसालारों को हुक्म दिया कि वे लाहौर जाने की तैयारी करें.

जैसा बादशाह औरंगजेब का हुक्म हुआ, सिपहसालारों ने वैसा ही किया. बादशाह का फरमान ले कर लाहौर के लिए रवाना हो गए. लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी को सलीमगढ़ बुलाया गया था.

एक तरह का डर तो अकील खां के मन में भी था. क्योंकि औरंगजेब के मिजाज से वह अच्छी तरह वाकिफ था. बादशाह के हुक्म का पालन करते हुए वह सलीमगढ़ पहुंच गया. उस की गवर्नरी तो बादशाह के उसी फरमान से ही चली गई थी. अब वह यह जानने के लिए बेचैन था कि आगे उस के साथ क्या होने वाला है?

दूसरी ओर जैबुन्निसा को उस की अपनी एक खास सेविका से पता चल गया था कि लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी की गवर्नरी छीन कर उसे भी सलीमगढ़ के किले में बुलाया गया है. यह सुन कर शहजादी जैबुन्निसा का दिल धड़क उठा कि अब न जाने क्या होने वाला है. वह बेचैन हो उठी.

इस बेचैनी में कभी जैबुन्निसा कमरे से बाहर बरामदे में आती तो कभी फिर कमरे में घुस जाती. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे.

वक्त गुजरता रहा, पर शहजादी की बेचैनी जरा भी कम नहीं हुई. लगभग घंटे भर बाद खबर आई कि अकील खां अब इस दुनिया में नहीं रहा. उसे बादशाह ने सलीमगढ़ के किले में हाथी से कुचलवा कर मरवा दिया है.

यह खबर सुन कर जैबुन्निसा चीख पड़ी. वह कहीं जा नहीं सकती थी, क्योंकि औरंगजेब ने उस पर सख्त पहरा बैठा रखा था. वह अपने कमरे में रोरो कर हलकान हुई जा रही थी. वह हार गई थी, उस की मोहब्बत हार गई थी. उस के अब्बा हुजूर की जिद जीत गई थी.

औरंगजेब ने अकील खां को उस की बेटी से मोहब्बत करने की सजा दे दी थी. उसे मरवा कर उस के कलेजे को ठंडक मिल गई थी. शायद बेटी को तड़पता देख उसे खुशी मिली थी.

अकील खां को याद कर के शहजादी के मुंह से चीख निकल गई. उस की चीख सुन कर सेविका दौड़ी आई, ”क्या हुआ शहजादी, कोई बुरा सपना देखा क्या?’’

”मुझे यहां से ले चलो शाहीन. मेरा यहां दम घुट रहा है.’’ बड़ी उम्मीद से जैबुन्निसा ने सेविका शाहीन की ओर देखा.

”शहजादी, अब आप को कहीं नहीं जाना. बादशाह सलामत के अगले हुक्म तक आप को यहीं रहना है,’’ शाहीन ने कहा.

वक्त गुजरता गया और इसी के साथ शहजादी जैबुन्निसा की बेचैनी कम होती गई. अकेले और अंधेरे में रहने की उस ने आदत सी डाल ली.

इसी कैदखाने को उस ने अपना आशियाना मान लिया. जिस तरह किसी परिंदे को जब पिंजरे में डाला जाता है तो शुरूशुरू में वह बाहर जाने के लिए फडफ़ड़ाता है. जब नहीं निकल पाता तो धीरेधीरे पिंजरे में रहने की आदत डाल लेता है. वैसा ही कुछ जैबुन्निसा के साथ भी था.

वक्त की गर्दिशों से जूझते हुए जैबुन्निसा ने धीरेधीरे सलीमगढ़ को अपना लिया था. इन तन्हाई के दिनों में उस ने अपना समय बिताने के लिए खूब शेरोशायरी लिखी.

तमाम परेशानियों से जूझते हुए उस ने इस कातिल सलीमगढ़ के किले में एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनवाई, जिस में कुरान, बाइबिल, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्म ग्रंथ अनेक पौराणिक ग्रंथ, कहानियों की किताबें, फारसी, अरबी, अलबैरूनी ग्रंथ के अलावा तमाम किताबें मंगा कर इकट्ठा कराईं.

सलीमगढ़ के किले में बंदी जीवन जीते हुए शहजादी अपनी हकीकत की दुनिया से बहुत आगे निकल चुकी थी.

सलीमगढ़ किले में कैद शहजादी जैबुन्निसा ने 20 बरस गुजारे. उस की पूरी जवानी इसी कैदखाने में गुजर गई. यहीं उस की शायरी को सही राह मिली. यहां रह कर उस ने 5 हजार से भी ज्यादा गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखीं. यहां वह कृष्णभक्ति में डूब गई और खुद को मीरा बना लिया. वह मीरा की ही तरह कृष्णभक्ति में ऐसी डूबी कि उसे खुद का ही होश न रहा.

धीरेधीरे वह बिखरती गई. दिल का दर्द कलम के जरिए कागज पर उतरता गया. लेकिन कट्टर और क्रूर औरंगजेब को बेटी पर कभी रहम नहीं आया. एक रोशनखयाल शहजादी का जीवन कैदखाने में गुजर गया.

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कभी अब्बा हुजूर की आंखों का तारा रही जैबुन्निसा का विवाह न हो सका. उसी कैदखाने में ऐसे ही 26 मई, 1702 को शहजादी जैबुन्निसा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. मौत के बाद उसे काबुली गेट के बाहर तीस हजारा बाग में दफना दिया गया. उस की मौत के बाद उस ने जो गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखी थीं, उन का संकलन छपा, जिसे दीवानेमखफी के नाम से जाना जाता है.

बेवफाई की लाश

कालेज फीस के लिए बने अपराधी

”काय बोले? डाक्टर साहेब चा मुलगा मिलता नाही है?’’ शकुनबाई ने आश्चर्य से अपनी पड़ोसन से पूछा.

”हां, शकुनबाई. पर तुम तो उन्हीं के घर पर काम करती हो. तुम्हें अभी तक नहीं पता?’’ पड़ोसन भी आश्चर्य से शकुनबाई की तरफ देखते हुए बोली.

”हां पाम, मेरा काम तो 12 बजे ही खतम हो गया था तो मैं मैडम को बोल कर आ गई थी. उस बखत मैडम नहाने को गई थी और बाबा सो गया था. मैं ने बाबा को आधा घंटा पहले ही दालभात खिला दिया था.’’ शकुनबाई ने पड़ोसन को बताया.

”हां, मगर अब तो 4 बज रहे हैं. 2 साल का बच्चा इतनी देर में कहां जा सकता है?’’ पड़ोसन के स्वर में दुख झलक रहा था.

”देवाची शप्पथ बहुत सुंदर और नाजुक बच्चा है. मैं अभी डाक्टर के घर को जाती.’’ शकुनबाई बोली.

डा. ईनामदार अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित डाक्टर थे. वह प्राइवेट प्रैक्टिस ही करते थे. शिशु रोग विशेषज्ञ होने के कारण उन के ज्यादातर पेशेंट बच्चे ही थे.

अब तक आसपास के क्षेत्र में यह बात आग की तरह फैल चुकी थी कि डाक्टर साहब का 2 साल का बच्चा अचानक गायब हो गया है. शकुनबाई जब तक डाक्टर के घर पहुंचती, तब तक पुलिस आ चुकी थी.

”ओ देवा ई काय झाला रे.’’ शकुन घर के अंदर घुसते समय रो रही थी. वह डाक्टर साहब की पत्नी के सीने से चिपक गई. यह काफी स्वाभाविक भी था, क्योंकि बच्चे के जन्म के समय से ही वह उसे संभालती आई है. कई बार तो बच्चा अपनी मां के पास न जा कर शकुनबाई के साथ ही रहता था.

”यह कौन है?’’ पुलिस इंसपेक्टर दिवाकर शर्मा ने डाक्टर से पूछा.

”यह हमारी सर्वेंट है और मेरी शादी के काफी पहले से हमारे यहां ही काम कर रही है.’’ डा. ईनामदार ने बताया.

”आप के घर और कितने सर्वेंट्स हैं?’’ इंसपेक्टर ने अगला प्रश्न किया.

”क्लीनिक पर कंपाउंडर और रिसैप्शनिस्ट सहित कुल 3 और घर पर शकुनबाई के अलावा एक माली है, जो हफ्ते में 2 बार आता है.’’ डाक्टर ने बताया, ”शकुनबाई सुबह 8 बजे आ जाती है और दोपहर को 12 बजे तक अपना काम खत्म कर के चली जाती है. शाम को 5 बजे आ जाती है और 7-8 बजे तक काम कर के चली जाती है.’’

”क्या आज माली आया था?’’ इंसपेक्टर ने फिर पूछा.

”नहीं साहब, माली नहीं आया था.’’ डा. ईनामदार ने जवाब दिया.

”हूं.’’ इंसपेक्टर ने हुंकार भरी, ”तुम्हारा नाम क्या है और तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं?’’ इंसपेक्टर शकुनबाई की तरफ मुखातिब हो कर बोला.

”अपन चा नाव शकुनबाई है और मेरा मरद इधरइच एक फैक्ट्री में काम करता है. हमारे 3 बेटे हैं और तीनों ही अभी पढाई करते हैं. बड़ा लड़का अभी 17 बरस का है. वो जब 3 महीने का था, मैं तभी से इधरीच नौकरी कर रही हूं. इस लड़के ने अभी बड़ी परीक्षा पास करी है, कालेज में जाने के वास्ते.’’ शकुन बाई बोल रही थी.

”बड़ी क्लास मतलब?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”जी, इस के बेटे का अभीअभी एंट्रेंस एग्जाम के थ्रू इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन हुआ है. यह उसी के एडमिशन की बात कर रही है.’’ डा. ईनामदार ने बताया.

”अच्छा अच्छा. और बाकी के दोनों लड़के क्या करते हैं?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”मंझला वाला अभी 8 किलास में पढ़ता है और सब से छोटा वाला 5वीं किलास में है.’’ शकुनबाई बोली.

”तुम हनी को कब और कैसे छोड़ कर गई थी?’’ इंसपेक्टर ने फिर पूछा.

पुलिस को शकुनबाई पर क्यों हुआ शक

”मैडम ने हनी बाबा को नहलाने के बाद मुझे दे दिया और कहा कि इसे दालभात खिला दो. मैं ने हनी बाबा को दालभात खिला दिया, उस के बाद बाबा को नींद आने लगी तो मैं ने उसे सुला दिया.

”2 बजे मेरा मरद फैक्टरी से खाना खाने आता है, इसी कारन मई चली गई. उस समय मैडम नहा रही थी.’’ शकुन बाई ने बताया, ”मैं रोज ऐसा ही करती हूं.’’

”तुम्हारा घर कहां है?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”ये रोड पार करने के बाद अगली रोड के पास जो चाल है, मैं उधरिच रहती हूं.’’ शकुन बाई ने बताया.

”मैडम की और इस बाई की कभी आपस में कुछ कहासुनी हुई है क्या?’’ इंसपेक्टर ने डाक्टर से पूछा.

”नहीं साहब, इस पर शक करना बेकार है. ये लोग काफी समय से रह रहे हैं यहां. इस के तीनों लड़के भी दोपहर से ही हनी को ढूंढ रहे हैं.’’ डाक्टर ने बताया.

”आप तीनों लड़कों को बुलवा दीजिए.’’ इंसपेक्टर ने कहा.

”साहब ये रहे तीनों लड़के.’’ एक सिपाही तीनों लड़कों को कुछ ही देर में ले कर आ गया.

”क्या नाम है तुम्हारा और तुम्हारे छोटे भाइयों का?’’ इंसपेक्टर ने सब से बड़े लड़के से पूछा.

”जी, मेरा नाम श्याम राव है. यह मंझले वाले का गोपाल राव और सब से छोटे वाले का नाम कृष्णा राव है.’’ लड़के ने जवाब दिया.

”तुम्हारा ही एडमिशन पौलिटेक्निक में हुआ है न?’’ इंसपेक्टर ने श्याम राव से पूछा.

”जी, इंजीनियरिंग में.’’ श्याम राव ने जवाब दिया.

”तुम ने हनी को कहां कहां पर खोजा था?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”जी, हम ने सभी संभावित दिशाओं में लगभग एकएक किलोमीटर तक खोजा था.’’ श्याम राव ने जवाब दिया.

”ठीक से याद कर लो, तुम ने हनी को कहांकहां खोजा था, वरना मुझे याद दिलाने के लिए तुम्हारी 2-4 हड्डियाँ तोडऩी पड़ेंगी.’’ अब तक शांत बैठा इंसपेक्टर एकदम गुस्से में आ गया और वह कड़क और रौबीली आवाज में बोला.

”इंसपेक्टर साहब, कृपया मेरे घर में मारपीट न करें. मेरी पत्नी की हालत वैसे ही खराब हो रही है.’’ डाक्टर विनती करते हुए बोला.

”ठीक है डाक्टर साहब, मैं सब से छोटे लड़के से पूछता हूं. अगर सही जवाब नहीं मिला तो मैं इन सब को थाने ले जाऊंगा. वैसे भी इस सस्पेंस कहानी में सिर्फ 3 ही पात्र हैं. इसलिए मुझे लगता है कि मेरा जवाब यहीं पर मिल जाएगा.’’ इंसपेक्टर ने कहा.

”हां, बेटे छोटू, क्या नाम है तुम्हारा?’’

”मेरा नाम कृष्णा राव है साहब.’’ छोटा लड़का बोला.

”तुम्हें तुम्हारी उम्र पता है छोटू?’’ इंसपेक्टर ने नरमी से पूछा.

”है साहब, 9 साल.’’ कृष्णा राव बोला.

”तुम्हारा बड़ा भाई बोल रहा था कि तुम ने हनी बाबा को सभी जगह पर देख लिया है.’’ इंसपेक्टर अपनी नरमी कायम रखते हुए बोला.

”जी साहब, सभी जगह देख लिया है.’’ कृष्णा राव ने जवाब दिया.

”तुम्हारे हिसाब से ऐसी कौन सी जगह है, जहां पर तुम लोगों ने नहीं देखा?’’ इंसपेक्टर ने प्रश्न पूछने का अपना अंदाज बदल कर पूछा. इंसपेक्टर को पूरा भरोसा था कि कृष्णा राव इस ढंग से पूछे प्रश्न के जाल में फंस जाएगा.

”साहब, थिएटर के पीछे जो सेफ्टी टैंक है, उस में किसी ने नहीं देखा.’’ कृष्णा राव सचमुच उस जाल में फंस कर बोला.

”तीनों लड़कों को गाड़ी में बिठाओ और चलो थिएटर.’’ इंसपेक्टर बोला, ”आप भी चलिए, डाक्टर साहब.’’

सेफ्टी टैंक में मिली हनी की लाश

डाक्टर के घर से लगभग 800 मीटर दूर एक चौराहा पार करने के बाद एक थिएटर था. जल्दी सब लोग वहां पर पहुंच गए. वहां पर 3 सेफ्टी टैंक थे. बीच वाले सेफ्टी टैंक के ऊपर की फर्श ताजीताजी हटी हुई लग रही थी. इंसपेक्टर ने तुरंत ही उस के अंदर आदमी उतारे. कुछ ही देर में हनी की लाश उन के हाथों में थी.

”हां, तो श्याम राव, बताओ तुम ने यह काम कैसे और क्यों किया? इतने सालों का विश्वास क्यों तोड़ा?’’ इंसपेक्टर श्याम राव की तरफ मुखातिब हो कर बोला.

”मगर इंसपेक्टर साहब, आप को कैसे मालूम हुआ कि यह काम श्याम राव ने ही किया है.’’ डा. ईनामदार बच्चे की लाश को छाती से चिपकाते हुए रोतेरोते बोले.

”डाक्टर साहब, इस कहानी में जैसा कि मैं ने पहले भी बोला था कि सिर्फ 3 ही किरदार थे आप, आप की पत्नी और शकुनबाई. हम चाहते तो शकुनबाई को उसी समय गिरफ्तार कर लेते. मगर ऐसा करने पर हम असली कातिल और उस के मोटिव तक कभी नहीं पहुंच पाते. फिर दिल को छूने वाली मनोरंजक कहानी सामने नहीं आ पाती. क्योंकि कोई भी मां अपने बच्चों को मुसीबत में डालना नहीं चाहेगी.

”यही कारण था कि हम ने पहले श्याम राव से पूछताछ की तथा मंझले लड़के को छोड़ कर सब से छोटे लड़के से पूछताछ की. अगर हम मंझले लड़के से भी पूछताछ करते तो शायद छोटा लड़का सतर्क हो जाता. और वह भी सीखे सिखाए जवाब ही देता.’’ इंसपेक्टर डाक्टर को समझाता हुआ बोला.

”मुझे कितना विश्वास था शकुनबाई के परिवार पर. वह पिछले 17 सालों से हमारे यहां परिवार के सदस्य की तरह काम कर रही है.’’ डा. ईनामदार के स्वर में नफरत झलक रही थी.

”खैर. हां, तो श्याम राव तू कुछ बोलेगा या इन सिपाहियों को बोलूं यहीं पर सबक सिखाने को?’’ इंसपेक्टर अपने लहजे में बोला.

”साहब, मेरा एडमिशन इंजीनियरिंग कालेज में हुआ है. दाखिले के लिए शुरू में ही 25 हजार रुपए देने थे. इतने पैसे हमारे पास नहीं थे. पिताजी ने अपनी फैक्ट्री में बात की तो उन्होंने 10 हजार रुपए देने की स्वीकृति दे दी थी.

”मां ने डाक्टर साहब से बात की तो डाक्टर साहब ने यह कहते हुए मना कर दिया कि जब इतनी बड़ी फैक्ट्री वाले 10 हजार दे रहे हैं तो वह उसे 15 हजार कैसे दे सकते हैं. वह अधिकतम 5 हजार रुपयों की ही मदद कर सकते हैं.

”रुपयों के कारण मेरे भविष्य का सपना चौपट हो जाता. इसी कारण मैं ने मां के साथ मिल कर यह प्लान बनाया. इस प्लान के बारे में मेरे पिताजी तक को मालूम नहीं था.

”मेरे दोनों भाइयों को इस योजना में शामिल करना बहुत जरूरी था, क्योंकि हनी इन दोनों के साथ हंसता खेलता था. मां ने मुझे बता दिया था कि मैडम 11-साढ़े 11 बजे तक नहाती है. इस के बाद आधे घंटे तक पूजा करती है.

”इसी दौरान मां हनी को खाना खिला कर सुला देती है और वापस घर आ जाती है. हनी रोजाना करीब 3 से 4 घंटे सोता था. इन्हीं 4 घंटों में हम अपनी योजना पूरी कर सकते थे.’’ श्याम राव बता रहा था.

क्यों की गई हनी की हत्या

”यहां तक तो ठीक है. तुम्हारी योजना हनी के अपहरण करने की थी, मगर यह हत्या तो तुम्हारी योजना का हिस्सा नहीं रही होगी?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”हां साहब, हत्या की बात तो हमारी योजना में शामिल नहीं थी, लेकिन मैं ने अब तक आप को जो बताया, वह योजना का एक हिस्सा ही था. दूसरे हिस्से में इस में एक व्यक्ति और शामिल था. उस का नाम है सरस खान.’’

”सरस खान? कौन है यह सरस खान?’’ इंसपेक्टर ने पूछा.

”थिएटर का प्रोजेक्टर औपरेटर.’’ श्याम राव  ने  बताया, ”वह मेरा मित्र है और उस की ड्यूटी रात के 12 बजे तक रहती है. उसे भी बाजार का कुछ पैसा चुकाना था. इसी कारण उस ने यह आइडिया दिया था. दोपहर 12 बजे का शो चालू होने के बाद वहां रखना भी बहुत आसान था.

”मैडम से इतना तो पता चल ही गया था कि हनी बाबा पिक्चर बहुत शांत हो कर देखता है. योजना के अनुसार सोते हुए हनी बाबा को ले कर प्रोजेक्टर रूम में जाना था. वहां पर गोपाल राव और कृष्णा राव रहते थे, जो उसे बहलाते रहते.

”इस बीच मैं घर आ कर मां के हाथों से बाबा के अपहरण की एक चिट्टी डाक्टर साहब के पास पहुंचा देता. हम सिर्फ 17 हजार रुपयों की ही मांग करते.

”इतनी कम मांग के लिए डाक्टर साहब पुलिस में नहीं जाते और हमारा काम भी बिना किसी शक के हो जाता. यह पैसा उन्हें कृष्णा राव के हाथ शाम 6 बजे का शो खत्म होने के बाद पहुंचाना था. शो खत्म हो जाने की भीड़ में यह सब काम आसानी से पूरा हो जाता. इन 17 हजार में से 15 हजार मुझे और 2 हजार सरस खान को रखने थे.’’ श्याम राव ने बताया.

”अभी भी यह नहीं बताया कि हत्या क्यों और कैसे की.’’ इंसपेक्टर ने बोला.

थिएटर तक क्यों नहीं पहुंचा हनी

”रोजाना जब मां डाक्टर साहब के घर का काम खत्म कर के निकलती थी, उस समय अमूमन मैडम या तो नहा रही होती थी या पूजा कर रही होती थी. ऐसे में मां बाहरी दरवाजे को सिर्फ अटका कर निकल जाती थी.

”उस दिन मैं घर के आसपास ही था. मां ने बाहर निकलते समय मुझे इशारा कर दिया था. मैं तुरंत ही हनी बाबा के कमरे में घुस कर पलंग के पीछे छिप गया.

”मैडम नहा कर निकली और हनी बाबा के कमरे में आई. हनी बाबा को सोता देख निश्चिंत हो कर पूजा करने चली गई. अब हम पर शक करने की संभावना भी समाप्त हो गई थी.

”मौका देख कर मैं सोते हुए हनी बाबा को ले कर घर से बाहर आ गया. हमारे प्लान का सब से खास हिस्सा पूरा हो चुका था. योजना के अगले हिस्से के तहत मुझे सोते हुए हनी बाबा को ले कर थिएटर के प्रोजेक्टर रूम में जाना था.

”मगर थिएटर के पिछवाड़े में पहुंचते ही या तो तेज धूप के कारण या पैदल चलने के कारण लग रहे झटकों से हनी बाबा जाग गया और वह मचल कर जोरजोर से रोने लगा. ऐसी अवस्था में उसे प्रोजेक्टर रूम में ले जाने पर थिएटर के मैनेजर और गेटकीपर जैसे लोगों को पता चल जाता.

”इसी कारण हम उसे वहीं पर सेफ्टी टैंक के ऊपर बैठ कर चुप कराने लगे, मगर वह लगातार रोए ही जा रहा था. तब तक गोपाल राव और कृष्णा राव भी वहां पर आ गए. थिएटर का पीछे वाला इलाका सुनसान ही रहता है.

”हनी बाबा के इस तरह जोरजोर से रोने के कारण हम तीनों घबरा गए. उसे डराने के मकसद से कृष्णा राव ने फर्शी का एक बड़ा सा टुकड़ा उठा लिया. मगर हनी बाबा चुप ही नहीं हो रहा था.

”तब गुस्से में आ कर कृष्णा राव ने उस पर फर्शी के उस टुकड़े से वार कर दिया. यह वार हनी बाबा की कनपटी पर लगा. कुछ देर तड़पने के बाद वह शांत हो गया. शायद वह बेहोश हो गया था.

”यह देख कर हम तीनों घबरा गए और सेफ्टी टैंक के कवर वाली फर्शी हटा कर उसे उस में फेंक दिया. इस के बाद टैंक को फिर से ढंक दिया.’’ श्याम राव ने विस्तार से पूरी घटना बता दी.

यह कहानी सुनने के बाद इंसपेक्टर दिवाकर शर्मा ने आरोपियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.

सहेली : क्या शालू अपने पिता की जगह किसी और को दे पाएगी?

पापा की मौत के साल भर बाद मम्मी ने खुद को काफी हद तक संभाल लिया था, लेकिन शालू पिता की मौत के सदमे से नहीं उबर सकी थी. मम्मी खुद को इसलिए संभालने में सफल हो गई थीं, क्योंकि पापा की तेरहवीं की रस्म के पूरा होते ही उन्हें अपनी नौकरी पर जाना पड़ा था.

जिम्मेदारी का बोझ, काम की व्यस्तता और जिंदगी की भागदौड़ ही मम्मी को गम से उबारने में सहायक साबित हुई थी. लेकिन पिता की असमय और अचानक मौत की वजह से अंदर ही अंदर बुरी तरह टूट गई शालू के हालात अलग थे.

मम्मी के काम पर जाने के बाद घर में अकेले पड़े पड़े शालू को पापा की याद बहुत सताती थी, जिस की वजह से वह रोती रहती थी. मम्मी को मालूम था कि उस की गैरमौजूदगी में शालू रोती रहती है. उस की लाललाल आंखें देख कर मम्मी को सब पता चल जाता था.

मम्मी शालू को समझाने की कोशिश करती थीं कि रोने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है. हमें सब कुछ भुला कर ही जीने की आदत डालनी होगी. सबकुछ भुलाने का बेहतर तरीका यही है कि तुम भी मेरी तरह खुद को बिजी कर लो. आगे पढ़ने का इरादा हो तो ठीक है, वरना कोई नौकरी कर लो.

मम्मी की बात शालू को ठीक लगती थी. पापा जिंदा रहते तो शालू जरूर आगे की महंगी उच्च शिक्षा के बारे में सोचती. लेकिन वह जानती थी कि मम्मी अपनी नौकरी से इतना खर्च नहीं उठा पाएंगी. वह चूंकि मम्मी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस ने नौकरी करने का फैसला कर लिया. नौकरी के लिए मन बन गया तो उस ने अखबार में नौकरी वाले कालम देखने शुरू कर दिए.

मम्मी ने खुद को बेशक संभाल लिया था और अपने दर्द को जाहिर नहीं करती थीं, मगर शालू उन के दर्द को अभी भी महसूस कर रही थी. रात को कई बार अचानक शालू की नींद खुल जाती तो वह अपने साथ सोई मम्मी को जागते हुए पाती. आधी रात को बिस्तर पर बैठी वह पता नहीं क्या सोचती रहती थीं. पूछने पर वह कुछ बताती भी नहीं थी.

वैसे भी मम्मी अभी देखने में ज्यादा उम्र की नहीं लगती थीं. बराबर में खड़ी होतीं तो वह शालू की मां कम और बड़ी बहन अधिक लगती थीं. यह बात पापा भी मानते थे. शालू को याद आया कि वह संडे की छुट्टी का दिन था. वह मम्मी के साथ नाश्ते की टेबल पर बैठी पापा का इंतजार कर रही थी.

पापा तैयार हो कर जब नाश्ते की टेबल पर आए तो काफी अच्छे मूड में थे. मांबेटी को साथ बैठे देख वह बरबस कह उठे थे, ‘‘मेरी नजर न लगे, सच कहता हूं तुम दोनों मांबेटी कम, बहनें ज्यादा लगती हो.’’

पापा की बात पर मम्मी तो केवल हलके से मुसकरा कर रह गई थीं, लेकिन मम्मी के गले में प्यार से बांहें डाल कर शालू ने कहा था, ‘‘मेरी मम्मी दुनिया की बेस्ट मम्मी हैं पापा. आई एम श्योर, यह देख कर लोग मुझ से जरूर जलते होंगे. सच बोलूं पापा, मम्मी मेरी मम्मी नहीं, सहेली हैं.’’

इस के एक महीने बाद ही हार्टअटैक आने से पापा की मौत हो गई थी.

पापा की मौत के बाद मम्मी कुम्हला सी गई थीं. यह स्वाभाविक ही था. लेकिन जौब में होने और खानपान में सतर्कता बरतने की वजह से उन के शरीर पर कोई खास असर नहीं पड़ा था.

बड़ी बहन जैसी मम्मी के साथ चलते हुए शालू को अकसर गर्व महसूस होता था. कभीकभी शालू इस खयाल से बहुत बेचैन हो जाती कि शादी कर के जब वह घर से विदा हो जाएगी तो अकेली मम्मी क्या करेंगी? इस खयाल से शालू के अंदर द्वंद वाली स्थिति बन जाती और वह कमजोर पड़ने लगती.

शालू चाहती थी कि मम्मी को जीवन के लंबे सफर में कोई हमसफर मिल जाए, लेकिन उस के सामने यह सवाल खड़ा हो जाता कि क्या वह अपने पापा की जगह किसी दूसरे इंसान को देख सकेगी? आखिर में यह सवाल एक ऐसा चक्रव्यूह बन जाता, जिस में फंसी शालू निकल नहीं पाती थी.

कई बार शालू को लगता कि मम्मी के अंदर किसी बात को ले कर कशमकश चल रही है. वह कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन कहते कहते रुक जाती थीं. उन के सहेलियों जैसे संबंध इस मामले में मांबेटी के संबंधों में बदल जाते थे.

एक दिन काम से लौट कर मम्मी ने शालू से कहा कि उन्होंने उस के लिए एक नौकरी ढूंढ ली है और उसे कल ही नौकरी जौइन करनी है.

उन्होंने कहा, ‘‘अच्छी कंपनी है. कंपनी का मैनेजर किसी समय मेरी कंपनी में मेरे साथ ही काम करता था. सैलरी भी अच्छी मिलेगी और आगे चल कर तरक्की की भी गुंजाइश है.’’

अगले ही दिन शालू ने मम्मी द्वारा ढूंढी गई नौकरी जौइन कर ली. मम्मी खुद शालू को साथ ले कर वहां गई थीं. इलैक्ट्रिक आयरन, गीजर और हीटर बनाने वाली ग्लोब नाम की उस कंपनी का दफ्तर ज्यादा बड़ा तो नहीं था, लेकिन था शानदार.

मम्मी ने कंपनी के जिस जानकार मैनेजर का जिक्र किया था, उस की उम्र 50-55 के आसपास थी. वह आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक था. स्वभाव से भी खुशमिजाज और मिलनसार लगता था. नाम था शीतल साहनी.

शीतल साहनी चूंकि कभी मम्मी के साथ उन्हीं की कंपनी में काम कर चुका था, इसलिए वह मम्मी के साथ बड़े दोस्ताना और खुले अंदाज में पेश आया.

मम्मी को शालू को साथ ले कर आने की वजह शीतल साहनी को मालूम थी. शायद सब कुछ पहले से ही तय था, इसलिए नौकरी के लिए पूछे जाने वाले सवालों का सामना शालू को नहीं करना पड़ा. शालू से उसी वक्त नौकरी संबंधी एप्लीकेशन ले ली गई और कुछ ही देर में उस का अप्वाइंटमेंट लैटर उस के हाथ में थमा दिया गया.

अप्वाइंटमेंट लैटर शालू के हाथ में देते हुए शीतल साहनी ने कहा, ‘‘तुम इसी समय से अपनी नौकरी जौइन कर रही हो, मेरी सेके्रट्री तुम्हें तुम्हारे बैठने की जगह बता कर काम समझा देगी. मन लगा कर काम करना.’’

‘‘थैंक्यू सर.’’

‘‘थैंक्यू मेरा नहीं, अपनी मम्मी का करो.’’ शीतल साहनी ने मम्मी की तरफ देखते हुए कहा.

जवाब भी मम्मी ने ही दिया, ‘‘थैंक्स, थैंक्यू सो मच साहनी, शालू को ले कर मैं बहुत परेशान थी. तुम ने मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर कर दी.’’

‘‘अगर ऐसा है तो हमें इस खुशी को चाय के साथ सेलीबे्रट करना चाहिए.’’ शीतल साहनी ने इंटरकौम का रिसीवर उठाते हुए कहा.

मम्मी ने भी मुसकराकर अपनी सहमति दे दी. इंटरकौम पर 3 कप चाय के लिए कहने के बाद शीतल साहनी ने हलकीफुलकी बातचीत शुरू कर दी. थोड़ी देर में चाय आ गई. मम्मी चाय पी कर चली गईं.

शालू का पहला दिन अपना काम समझने में ही बीत गया. बीचबीच में 2-3 बार शीतल साहनी ने संदेश भेज कर उसे अपने कमरे में बुलाया और उस से पूछा कि उसे अपना काम समझने में कोई मुश्किल तो पेश नहीं आ रही है.

शालू ने पूरी शालीनता से इनकार कर दिया. बेशक शीतल साहनी यह सब उस के प्रति अपनापन दिखाने के लिए कर रहा था. लेकिन शालू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था.

नौकरी दे कर शीतल साहनी ने एक तरह से एहसान किया था, लेकिन शालू को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि अपने एहसान के बदले वह उस से अधिक आत्मीयता दर्शाने की कोशिश करे.

शालू की नजरों में शीतल साहनी ने उस पर नहीं, मम्मी पर एहसान किया था. पहले दिन की नौकरी के बाद शालू घर लौटी तो काफी खुश दिख रही मम्मी ने एक के बाद एक उस पर सवालों की बौछार सी कर दी.

वह जानना चाहती थीं कि नौकरी पर उस का पहला दिन कैसा बीता? उसे अपना काम पसंद आया कि नहीं?

अपने सवालों में मम्मी ने शालू से शीतल साहनी के बारे में भी काफी कुरेदकुरेद कर पूछा, जो शालू को ज्यादा अच्छा नहीं लगा. ऐसा लग रहा था, जैसे वह शीतल साहनी के प्रति शालू के विचारों को जानना चाहती हों.

लेकिन शालू ने शीतल साहनी को ले कर अपने निजी विचार व्यक्त करने के बजाय मम्मी से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘मुझे नौकरी दे कर उन्होंने हम पर जो एहसान किया है, उस के एवज में उन्हें एक अच्छा इंसान ही कहा जा सकता है.’’

शालू के इस जवाब से मम्मी संतुष्ट और खुश नजर नहीं आईं. वह शायद नौकरी के अलावा शीतल साहनी के बारे में कुछ और सुनने की उम्मीद कर रही थीं.

पता नहीं क्यों शालू को पापा के अलावा किसी दूसरे मर्द की तारीफ मम्मी की जुबान से कतई अच्छी नहीं लग रही थी. शालू को ऐसा लग रहा था, जैसे कोई उस के और मम्मी के बीच में आने की कोशिश कर रहा है. यह शालू को बरदाश्त नहीं था.

शालू ने नौकरी कर के मानो एक अप्रत्याशित तनाव मोल ले लिया था. एक ऐसा तनाव, जिस की साफ वजह भी उसे मालूम नहीं थी.

शालू काम पर जाती तो उसे लगता कि उस का बौस शीतल साहनी न केवल उस के प्रति नरमी बरतता है, बल्कि उसे दूसरे लोगों से ज्यादा महत्त्व देता है. शालू को यह बात चुभती थी.

वह जानती थी कि यह सब मम्मी की वजह से हो रहा है. शालू खुद को उस समय सब से अधिक असहज महसूस करती, जब शीतल साहनी उस की मम्मी के बारे में मम्मी का नाम ले कर पूछता.

शालू की मम्मी का नाम सोनिया था. पापा अक्सर मम्मी को सोनिया कह कर ही बुलाते थे. लेकिन शीतल साहनी का मम्मी को उन के नाम से बुलाना शालू को एकदम अच्छा नहीं लगता था.

दूसरी ओर मम्मी भी शीतल साहनी के बारे में कुछ ज्यादा ही बातें करने लगी थीं. कभीकभी तो वह शालू से मिलने के बहाने उस के दफ्तर में आ जातीं और काफी देर तक शीतल के कमरे में बैठी रहतीं. मम्मी का ऐसा करना शालू को बहुत अखरता था.

शालू देख रही थी कि इधर कुछ दिनों में मम्मी में काफी बदलाव आ रहा है. पापा की मौत के बाद एकदम बुझ सी गईं मम्मी में जैसे एक बार फिर से जीने की उमंग भर गई थी.

शालू सोचती थी कि कहीं मम्मी में आए इस बदलाव का मतलब यह तो नहीं कि वह पापा की जगह किसी दूसरे मर्द को देने का मन बना रही थीं? यह दूसरा मर्द शीतल साहनी ही हो सकता था. शालू को ऐसा लगने लगा था, जैसे जिस मम्मी को वह अपनी सहेली मानती रही थी, वह अजनबी बन कर अचानक उस से दूर हो रही थीं. करीब होते हुए भी कोई अदृष्य सी दीवार उन के बीच खड़ी हो रही थी.

यह खयाल शालू के लिए बड़ा ही तकलीफदेह था कि इतना बड़ा फैसला मम्मी ने उस से कोई बात किए बगैर अकेले ही कर लिया था.

यही सोच कर शालू का मन महीना भर पुरानी नौकरी से उचाट होने लगा. वह किसी भी तरह शीतल साहनी का सामना करने से बचना चाहती थी, जबकि नौकरी में रहते हुए ऐसा मुमकिन नहीं था. शीतल साहनी अचानक ही शालू को अपनी जिंदगी का खलनायक नजर आने लगा था.

काफी कशमकश के बाद एक दिन शालू ने मम्मी से नौकरी छोड़ने की बात कह दी. उस की बात सुन कर मम्मी का चौंकना स्वाभाविक ही था.

‘‘मगर क्यों?’’ मम्मी ने पूछा.

‘‘मैं इस सवाल का जवाब देना जरूरी नहीं समझती.’’

शालू का बेरुखा जवाब सुन कर मम्मी आहत नजर आईं. उन की आंखों में दर्द भी तैरता साफ नजर आया.

‘‘इस जवाब से मैं यह समझूं कि मेरी बेटी मुझ से अपने दिल की बात करने वाली मेरी सहेली नहीं रही?’’ मम्मी ने कहा तो शालू तुनक कर बोली, ‘‘यह सवाल मैं तुम से भी पूछ सकती हूं मम्मी, तुम में भी अब पहले वाली सहेलियों जैसी बात कहां रही है.’’

‘‘ऐसा लगता है जैसे तुम मुझे ताना मार रही हो.’’ मम्मी ने शालू की आंखों में झांकने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘मैं सिर्फ बात कह रही हूं मम्मी, अब तुम इसे ताना समझो तो यह अलग बात है. और हां, अगर अपनी जिंदगी के बारे में तुम ने अकेले ही कोई फैसला कर लिया है तो मैं उस फैसले में रुकावट नहीं बनूंगी. पर इतना जरूर साफ कर देना चाहती हूं कि मैं पापा की जगह तुम्हारी किसी पसंद को स्वीकार नहीं करूंगी.’’

शालू अपनी बात कह कर मम्मी को ड्राइंगरूम में छोड़ कर बाहर आ गई. उस वक्त उस की आंखों में आंसू थे. वह जानती थी कि उस के कठोर शब्दों से मम्मी को कितनी चोट पहुंची होगी.

आवेग कम हुआ तो शालू ने महसूस किया कि वह मम्मी को कुछ ज्यादा ही कह गई है. अपनी कही बातों पर उसे पश्चाताप होने लगा. रात को खाने की टेबल पर शालू ने देखा कि मम्मी की आंखें लाल थीं. लगता था, वह बहुत रोई थीं.

यह देख कर शालू के मन में अपराधबोध की टीस उठी. वह मम्मी के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, मैं ने तुम से जो कहा है, वह मुझे नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मुझे तुम से कोई गिला नहीं है शालू. मैं जानती हूं, तुम अपने पापा से कितना प्यार करती थी. मैं भी तुम्हारे पापा को बेहद चाहती थी. वह नहीं रहे. तुम अपनी जगह ठीक हो. जिंदगी के बारे में तुम ने एक बेटी के रूप में सोचा है. मैं ने भी तुम्हारे पापा की मौत के बाद सारी जिंदगी को सिर्फ एक मां के नजरिए से ही देखा था.

‘‘मेरे अंदर की औरत एक मां के फर्ज में कहीं गुम हो गई थी. आज तुम मेरे साथ हो, लेकिन जिस दिन तुम इस घर से चली जाओगी, मैं सिर्फ एक औरत रह जाऊंगी, सिर्फ औरत, जिसे समाज में जीने के लिए किसी सहारे की जरूरत होगी.

‘‘अगर जिंदगी के इस मोड़ पर आ कर मैं ने किसी दूसरे मर्द के बारे में सोचा है तो क्या कोई गुनाह किया है? क्या मुझे अपने आने वाले कल के लिए सोचने का भी हक नहीं है? तुम ने सिर्फ बेटी बन कर ही सोचा, मम्मी की सहेली बन कर नहीं.’’

उदासी में डूबी मम्मी की आवाज में एक शिकायत, एक गिला थी.

कुछ कहने के लिए शालू के पास जैसे शब्द ही नहीं रहे थे. जो बात मम्मी कभी कहते कहते रुक जाया करती थीं, आज वही बात उन्होंने बड़ी साफगोई से कह दी थी. मम्मी ने जो भी कहा था, सच ही कहा था. शालू ने उन्हें सहेली कहा जरूर था, मगर सहेली की तरह उन की भावनाओं को समझ नहीं सकी थी.

शालू को खामोश देख कर मम्मी ने सामने रखे मोबाइल फोन को उठाते हुए कहा, ‘‘मैं साहनी को फोन कर के बोल देती हूं कि तुम कल से नौकरी पर नहीं आ रही हो.’’

लेकिन वह मोबाइल का स्विच औन करतीं, उस के पहले ही शालू ने उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मैं कल नौकरी पर जा रही हूं. तुम सही सोच रही हो, शीतल साहनी वाकई एक अच्छे इंसान हैं. अगर वह मेरे साथ पापा की तरह पेश आ सकते हैं तो मैं भी उन्हें पापा की जगह स्वीकार करने को तैयार हूं.’’

शालू का इतना कहना था कि मम्मी की आंखें छलक पड़ीं और एकाएक वह फफक कर रोते हुए बेटी से लिपट गईं.

जान पर भारी पड़ा मजाक

मुंबई के उपनगर मुलुंड (पूर्व) के नवघर पुलिस थाने के इंसपेक्टर संपत मुंडे थाने के चार्जरूम में तैनात सबइंसपेक्टर मांजरे के पास बैठे किसी पुराने मामले पर विचारविमर्श कर रहे थे, तभी मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के एक अधिकारी अपने कुछ कर्मचारियों के साथ थाने आ कर उन से मिले.

उन्होंने बताया कि ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे के किनारे बने बीएमसी के डंपिंग ग्राउंड में प्लास्टिक की सफेद रंग की एक बड़ी सी थैली मिली है, जिस में से किसी औरत के लंबे बाल बाहर निकले हुए हैं. लगता है, थैली में किसी महिला की लाश है.

बीएमसी कर्मचारियों की बात को संपत मुंडे ने बड़ी गंभीरता से लिया. उन्होंने सब इंसपेक्टर मांजरे को इस मामले की प्राथमिकी दर्ज करने के लिए कहा और यह बात अपने सीनियर इंसपेक्टर गणेश गायकवाड़ व उच्च अधिकारियों को बताने के साथसाथ पुलिस कंट्रोल रूम को भी सूचना दे दी. इस के बाद वह पुलिस टीम के साथ घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. यह 14 सितंबर, 2014 की शाम 7-8 बजे के बीच की बात थी.

घटनास्थल पुलिस थाने से अधिक दूर नहीं था, इसलिए पुलिस टीम को वहां पहुंचने में मुश्किल से 10-15 मिनट लगे. पुलिस टीम घटनास्थल पर पहुंची तो वहां बीएमसी के कुछ कर्मचारी और बेगारी मजदूर मौजूद थे. फौरी तौर पर घटनास्थल का निरीक्षण कर के पुलिस टीम उस थैले को डंपिंग ग्राउंड से बाहर निकलवा कर लाई. थैले का मुंह खोला गया तो उस के अंदर का दृश्य देख कर पुलिस दल के साथसाथ बीएमसी कर्मचारियों का भी मुंह खुला रह गया.

उस छोटे से थैले में एक महिला के शव को 2 चादरों के बीच लपेट कर ठूंस कर भरा गया था. महिला की उम्र 25-26 साल के आसपास थी. उस के शरीर पर पेटीकोट और ब्लाउज के अलावा कोई कपड़ा नहीं था.

महिला का शव थैली से बाहर निकलवाने के बाद संपत मुंडे ने उस की लाश का निरीक्षण किया. उन्होंने और सबइंसपेक्टर मांजरे ने मृतका की शिनाख्त के लिए वहां मौजूद बीएमसी कर्मचारियों और वहां मौजूद लोगों से पूछताछ की, लेकिन कोई भी उसे नहीं पहचान पाया.

इस का मतलब वह मृतका उस इलाके की रहने वाली नहीं थी. परेशानी की बात यह थी कि लाश के कपड़ों और प्लास्टिक की थैली में ऐसी कोई चीज भी नहीं मिली, जिस के सहारे उस के बारे में पता लगाया जा सकता.

इस घटना की सूचना पा कर मुंबई के एडिशनल सीपी डा. विनय कुमार राठौर, एसीपी मारुति अह्वाड़, नवघर पुलिस थाने के सीनियर इंसपेक्टर गणेश गायकवाड़, इंसपेक्टर सुनील काले, प्रेस फोटोग्राफर और फ्रिगरप्रिंट ब्यूरो के अधिकारी भी घटनास्थल पर पहुंच गए थे.

साथ ही क्राइम ब्रांच सीआईडी भी हरकत में आ गई थी. क्राइम ब्रांच सीआईडी प्रमुख सदानंद दाते, अपर पुलिस कमिश्नर के. प्रसन्ना, डीसीपी मोहन कुमार दहिकर, एसीपी प्रफुल्ल भोसले ने विचारविमर्श के बाद इस मामले की तफ्तीश की जिम्मेदारी क्राइम ब्रांच यूनिट-7 के सीनियर इंसपेक्टर शंकर पाटिल को सौंप दी.

घटनास्थल पर आए प्रेस फोटोग्राफर और फिंगरप्रिंट ब्यूरो का काम खत्म हो जाने के बाद इंसपेक्टर गणेश गायकवाड़ ने सारी औपचारिकताएं पूरी कर के मृतका की लाश पोस्टमार्टम के लिए मुलुंड के शताब्दी अस्पताल भेज दी.

पुलिस की परेशानी यह थी कि बीएमसी के जिस डंपिंग ग्राउंड में महिला की लाश मिली थी, वह बहुत बड़ा था और वहां मुंबई के कई क्षेत्रों का हजारों टन कूड़ा फेंका जाता था. यह तो तय था कि मृतका की लाश कूड़े के साथ वहां तक पहुंची थी, लेकिन लाश किस क्षेत्र से आई थी, यह पता लगाना आसान नहीं था.

बहरहाल, तफ्तीश को आगे बढ़ाने के लिए नवघर पुलिस थाने के इंसपेक्टर सुनील काले और इंसपेक्टर संपत मुंडे मृतका की शिनाख्त के लिए जीजान से जुट गए. इस के लिए उन्होंने उस के हुलिए सहित सारी जानकारी मुंबई के सभी थानों को भेज दी. अखबारों का भी सहारा लिया गया, इस के साथ कुछ मुखबिरों को भी लगाया गया.

इंसपेक्टर मुंडे को उम्मीद थी कि कहीं से कोई न कोई जानकारी जरूर मिल जाएगी, लेकिन उन का यह प्रयास सफल नहीं रहा. दूसरी तरफ क्राइम ब्रांच यूनिट-7  के सीनियर इंसपेक्टर व्यंकट पाटिल और उन के सहायकों का भी यही हाल था. मामले में जैसेजैसे देरी हो रही थी, वैसेवैसे उन की परेशानी बढ़ती जा रही थी.

आखिर निराश हो कर सीनियर इंसपेक्टर व्यंकट पाटिल ने अपनी तफ्तीश की दिशा बदल दी. उन्होंने अपने सहायकों के साथ एक बार फिर घटनास्थल का दौरा किया. बीएमसी कर्मचारियों से पूछताछ कर के उन्होंने वहां कूड़ा ले कर आने वाली गाडि़यों की एंट्री डायरी चेक की तो पता चला कि उस दिन 2575 नंबर की गाड़ी कचरा लेकर काफी देर से डंपिंग ग्राउंड में आई थी.

उस गाड़ी के जाने के बाद ही बीएमसी कर्मचारियों को वह थैला नजर आया था, जिस में लाश थी. वह गाड़ी उस दिन किसकिस इलाके का कचरा उठा कर लाई थी, जब इस की जांच की गई तो मालूम पड़ा कि उस दिन वह गाड़ी सायन, धारावी और माहिम इलाके का कचरा ले कर आई थी.

इस का मतलब था कि उस महिला का शव इन्हीं में से किसी क्षेत्र से आया था. इस से जांच अधिकारियों को तफ्तीश का रास्ता तो मिल गया था, लेकिन मंजिल अभी भी दूर थी. माहिम-सायन और धारावी का इलाका इतना छोटा नहीं था कि आसानी से मृतका का सुराग मिल जाता. लेकिन क्राइम ब्रांच के जांच अधिकारी इस से निराश नहीं हुए, बल्कि दोगुने उत्साह से तफ्तीश में जुट गए.

पुलिस टीम मृतका का फोटो ले कर माहिम, सायन और धारावी क्षेत्र में आने वाले शाहूनगर पुलिस थाने से ले कर धारावी काला किला, पीला बंगला, केमकर चौक, नेताजी नगर, लक्ष्मीबाग, नाइक नगर जैसी बस्तियों में छानबीन में जुट गई.

इसी छानबीन के दौरान नवरात्र मंडल के एक कार्यकर्ता ने मृतका का फोटो देख कर असिस्टेंट इंसपेक्टर अनिल ढोले को बताया कि मृतका अपने पति के साथ राजीव गांधी नगर में रहती थी. लेकिन वह पिछले कई दिनों से लापता है. उस कार्यकर्ता के साथ अनिल ढोले जब राजीव गांधी नगर गए तो उन्हें पता चला कि मृतका का नाम रेखा गौतम था. लेकिन उस के घर के बाहर ताला लगा हुआ था.

पड़ोसियों ने बताया कि रेखा के पति का नाम संजय गौतम है. घटना वाले दिन रेखा अपने पति के साथ विरार स्थित जीवदानी माता का दर्शन करने गई थी. लेकिन रास्ते में वह अपने पति से बिछुड़ गई थी. उस के पति ने उसे बहुत खोजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली. संजय के बारे में पूछताछ करने पर उस के एक पड़ोसी ने बताया कि वह अपने रिश्तेदार के घर चला गया है.

जांच अधिकारी ने यह जानकारी सीनियर इंसपेक्टर व्यंकट पाटिल को दे दी. पाटिल के निर्देशन में इंसपेक्टर संजय सुर्वे और असिस्टेंट इंसपेक्टर अनिल ढोले ने पुलिस टीम के साथ संजय के उस रिश्तेदार के घर छापा मार कर उसे गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ के लिए संजय को सीआईडी औफिस लाया गया.

पूछताछ में संजय कुमार गौतम ने खुद को बेगुनाह बताया. उस के अनुसार जिस दिन वह अपनी पत्नी रेखा को जीवदानी देवी के मंदिर ले कर निकला था, उस दिन लोकल ट्रेन में बहुत भीड़ थी. भीड़ की वजह से वह रेखा को महिला डिब्बे में चढ़ने के लिए कह कर खुद जेंट्स कंपार्टमेंट में चढ़ गया था.

विरार रेलवे स्टेशन पर पहुंच कर जब वह रेखा के डिब्बे के पास गया तो वह वहां नहीं थी. उसे रेलवे प्लेटफार्म पर तलाश करने के बाद थकहार कर वह विरार पुलिस थाने पहुंचा, ताकि पत्नी की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा सके. लेकिन वहां के अधिकारियों ने उसे यह कह कर वापस लौटा दिया कि वह बांद्रा रेलवे स्टेशन पुलिस में जा कर अपनी शिकायत दर्ज करवाए.

जब वह बांद्रा रेलवे स्टेशन पुलिस के पास गया तो वहां के पुलिस वालों ने यह कह कर मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया कि वह पहले अपने नातेरिश्तेदारों के यहां पता करे.

संजय गौतम ने अपनी पत्नी रेखा के गायब होने के बारे में जो कुछ बताया था, वह इंसपेक्टर संजय सुर्वे के गले नहीं उतरा. उस के चेहरे के हावभावों को देख कर उन्हें दाल में कुछ काला नजर आ रहा था. उन्होंने जब संजय गौतम के साथ थोड़ी सी सख्ती बरती तो उन्हें पूरी की पूरी दाल ही काली नजर आई. संजय गौतम पुलिस के सवालों के सामने टूट गया. उस ने अपना गुनाह स्वीकार कर लिया. पूछताछ के दौरान संजय गौतम ने अपनी पत्नी की हत्या की जो कहानी बताई, वह कुछ इस तरह थी.

28 वर्षीय संजय गौतम उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के गांव लालगंज का रहने वाला था. उस के पिता रघुनाथ प्रसाद गौतम गांव में टेलरिंग का काम करते थे. उन के व्यवहार की वजह से गांव में उन की काफी इज्जत और प्रतिष्ठा थी. वह सीधेसरल स्वभाव के व्यक्ति थे. संजय गौतम उन का एकलौता बेटा था. वह बीए पास था. इस के साथ ही वह टेलरिंग का काम भी जानता था और इस काम में पिता की मदद किया करता था.

रघुनाथ प्रसाद गौतम ने 3 फरवरी, 2014 को संजय की शादी पड़ोस के गांव की रेखा से कर दी. वह सुंदर सुशील लड़की थी. शादी के बाद रेखा ससुराल आ गई. संजय की तरह रेखा भी बीए पास थी. पतिपत्नी दोनों ही पढ़ेलिखे थे और महत्त्वाकांक्षी भी. इसलिए चाहते थे कि कहीं बाहर जा कर किसी बड़े शहर में रहें, जहां खूब पैसा कमा सकें. वैसे भी गांव में रह कर तो बस गुजरबसर ही हो सकता था.

शादी के कुछ दिनों बाद रेखा ने संजय को समझाया कि वह टेलरिंग का अच्छा कारीगर है. गांव में रह कर वह अपना टैलेंट बरबाद कर रहा है. अगर वह शहर में रह कर यही काम करे तो अच्छी आय हो सकती है. यह उन दोनों के भविष्य के लिए भी ठीक रहेगा और घरपरिवार के लिए भी. संजय को रेखा की यह बात ठीक लगी और वह इस बारे में गंभीरता से सोचने लगा.

सोचनेविचारने के बाद संजय जुलाई, 2014 में अपनी पत्नी रेखा को ले कर मुंबई आ गया. मुंबई के धारावी इलाके में संजय के गांव के कई लोग रहते थे, जिन की मदद से वह राजीव गांधी नगर की विश्वकर्मा चाल में किराए का एक कमरा ले कर पत्नी के साथ रहने लगा. उसी इलाके की एक टेलरिंग शौप में उसे नौकरी भी मिल गई.

मुंबई आने के बाद पतिपत्नी दोनों ही बहुत खुश थे. रेखा अपनी गृहस्थी संवारने में लगी थी. लेकिन इस दंपति की खुशी उस समय कलह में बदल गई जब एक दिन रेखा ने संजय गौतम को जलाने के लिए मजाक में कह दिया कि कालेज की पढ़ाई के दौरान उस का एक बौयफ्रैंड था, जिसे वह बहुत प्यार करती थी और उस से शादी करना चाहती थी.

यह मजाक रेखा को बहुत महंगा पड़ा. उस के इस मजाक ने संजय के दिमाग में संदेह का बीज बो दिया. धीरेधीरे इस बीज ने अंकुरित हो कर वृक्ष का रूप ले लिया.

उन दोनों के प्यार के बीच दरार पड़नी शुरू हो गई. संजय गौतम की दिनचर्या बदल गई. जहां वह रेखा पर प्यार के फूल बरसाता था, वहीं अब कांटा बन कर चुभने लगा था. बातबात में रेखा की उपेक्षा और उस से मारपीट करना उस के लिए आम बात हो गई थी. रेखा ने अपनी बात को मजाक बता कर उस से कई बार माफी भी मांगी, सफाई भी दी, लेकिन वह संजय गौतम के संदेह का समाधान नहीं कर पाई.

समय के साथसाथ रेखा के प्रति संजय गौतम का संदेह कम होने के बजाय दिनबदिन बढ़ता ही गया. इस का नतीजा यह हुआ कि पतिपत्नी के बीच वैमनस्य बढ़ता गया. अब संजय रेखा की हर बात पर नजर रखने लगा था. वह उसे फोन पर किसी से बात करते देखता तो उस से सैकड़ों सवाल कर डालता. यहां तक कि कई बार तो उस की पिटाई भी कर देता. उस के दिमाग में शक का कीड़ा इस तरह घर कर गया था कि पत्नी के प्रेम संबंध का पता लगाने के लिए वह अपने गांव और ससुराल भी गया.

वहां उस ने अपने परिचितों और कालेज के कुछ दोस्तों से मिल कर रेखा के बारे में जानकारी ली. लेकिन उसे ऐसी कोई बात पता नहीं चली और वह खाली हाथ मुंबई लौट आया. इस के बावजूद संजय गौतम के दिमाग से संदेह का भूत नहीं उतरा.

कहावत है कि पतिपत्नी का रिश्ता विश्वास के धरातल पर टिका होता है, अगर विश्वास टूट जाए तो घरगृहस्थी को बिखरते देर नहीं लगती. ऐसा ही कुछ इस मामले में भी हुआ.

जब संजय के विश्वास की टूटन बढ़ती गई तो उस ने रेखा को अपनी जिंदगी से निकाल फेंकने का फैसला कर लिया. इस के लिए वह मन ही मन योजना भी बनाने लगा. इसी योजना के तहत उस ने रेखा की प्रताड़ना बढ़ा दी.

अपनी योजना के अनुसार, घटना के दिन संजय गौतम ने रेखा के चरित्र को ले कर उसे काफी मारापीटा. इतना ही नहीं, बाजार जा कर वह चूहे मारने की दवा ले आया और रात को साढ़े 8 बजे उसे जबरन वह दवा खिला दी.

दवा खाने के बाद जब रेखा की तबीयत खराब होने लगी तो संजय घर से बाहर चला गया. उधर रेखा को कई उल्टियां हुईं और छटपटाते छटपटाते उस ने दम तोड़ दिया.

कई घंटों के बाद जब संजय गौतम घर लौटा तो रेखा मर चुकी थी. अब संजय के सामने रेखा की लाश को ठिकाने लगाने की समस्या थी. सुबह होने के पहले अगर वह रेखा की लाश को ठिकाने नहीं लगाता तो इलाके में बात फैल जाने का डर था.

कुछ देर सोचने के बाद उस ने रेखा की लाश को 2 चादरों के बीच लपेट कर घर में पड़ी प्लास्टिक की छोटी बोरी में भर कर उस का मुंह बांध दिया. इस के बाद वह सुबह साढ़े 3 बजे लाश को कंधे पर रख कर बोरी को ओएनजीसी कार्यालय के सामने रखे बीएमसी के कचरे के डिब्बे में डाल आया.

सुबह जब कचरे का डिब्बा उठाने वाली बीएमसी की गाड़ी आई तो वह कचरा के साथ उस बोरी को भी उठा ले गई. इस तरह रेखा के शव वाली बोरी मुलुंड स्थित डंपिंग ग्राउंड में पहुंच गई.

दूसरी ओर रेखा की लाश को ठिकाने लगाने के बाद संजय गौतम ने अपने आसपास रहने वालों के बीच यह बात फैला दी कि जीवदानी देवी का दर्शन करने विरार जाते समय उस की पत्नी रेखा उस से बिछड़ गई है.

पूछताछ के बाद क्राइम ब्रांच यूनिट-7 के अफसरों ने उसे गिरफ्तार कर नवघर पुलिस थाने के सीनियर इंसपेक्टर गणेश गायकवाड़ और जांच अधिकारी इंसपेक्टर सुनील काले को सौंप दिया.

इंसपेक्टर सुनील काले ने अभियुक्त संजय गौतम से विस्तृत पूछताछ करने के बाद उस के खिलाफ भादंवि की धारा 302, 201 के तहत केस दर्ज किया और उसे महानगर मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर के जेल भेज दिया.

कथा लिखे जाने तक अभियुक्त संजय गौतम न्यायिक हिरासत में था.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित